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जीव अधिकार
भावपरिणतिरेव कारणशुद्धपर्याय इत्यर्थः । साद्यनिधनामुततींद्वियस्वभावशुद्धसद्द्यूतव्यवहारेण केवलज्ञानकेवलदर्शन केवल सुख केवलशक्तियुक्तफलरूपानंत चतुष्टयेन सार्द्ध परमोत्कृष्टक्षायिक भावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्धपर्यायश्च । श्रथवा पूर्वसूत्रोपातसूक्ष्मऋजुसूत्रनयाभिप्रायेण षद्रव्यसाधारणाः सूक्ष्मास्ते हि श्रर्थ पर्यायाः शुद्धा इति बोद्धव्याः । वक्तः समासतः शुद्धपर्याय विकल्पः ।
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sarat व्यञ्जनपर्य्याय उच्यते । व्यंज्यते प्रकटोक्रियते श्रनेनेति व्यञ्जनपर्य्यायः । कुतः लोचनगोचरत्यात् पटादिवत् । अथवा सादिनिधनमूर्त विजातीयविभावस्वभावत्वात् दृश्यमानविनाशस्वरूपत्वात् ।
चतुष्टय हैं उनके साथ रहने वाली परमोत्कृष्ट क्षायिक भाव को शुद्ध परिणति हो कार्य शुद्ध पर्याय है । अथवा पूर्वसूत्र में ग्रहण किये गये सूक्ष्म ऋजु सूत्र नय के अभिप्राय से पट द्रव्यों में साधारण रूप से रहने वालो जो सूक्ष्म अर्थ पर्यायें हैं वे ही शुद्ध पर्यायें हैं ऐसा समझना चाहिये । इसप्रकार से यहां पर संक्षेप में शुद्ध पर्यायों को कहा है।
अब व्यञ्जन पर्याय को कहते हैं, 'व्यंज्यते प्रकटीक्रियते श्रनेनेति व्यंजनपर्याय : ' -- जिसके द्वारा व्यक्त होता है प्रकट किया जाता है वह व्यंजन पर्याय है । क्यों ? क्योंकि वह नेत्र के गोचर होती है, वस्त्रादि के समान । अथवा वे पर्यायें सादिसान्त, मूर्तिक विजातीय विभांव रूप हैं तथा दिखने योग्य हैं और विनाश स्वरूप हैं ।
अब उस व्यञ्जन पर्याय के उदाहरण दिखाते हैं
पर्याय धारण करने वाली ऐसी जो स्वरूप के ) ज्ञान बिना पर्याय स्वभाव होने मिश्र परिणाम के द्वारा व्यवहारनय से मनुष्य हो वही मनुष्य पर्याय है । केवल अशुभ कर्म के द्वारा व्यवहारनय से ग्रात्मा नरकगति में
पर्यायी आत्मा है उस आत्मा के ( ग्रात्म वाला होने से यह जीव शुभ-अशुभ और गया उसके जो मनुष्य का आकार है
उत्पन्न होकर नारकी हो गया उसके वह नारक का आकार
ही नारक पर्याय है ।
तिर्यंच के शरीर में
fife शुभ मिश्रित माया परिणाम से व्यवहारनय की उत्पन्न श्रात्मा का जो ग्राकार है वह तिर्यंच पर्याय है।
शुभ कर्म के द्वारा
प्रपेक्षा
केवल