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जीव अधिकार
[ ५५ सकलमोहरागद्वेषादिभावकर्मणां कर्ता भोक्ता च, अनुपचरितासमूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता, उपचरितासभूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता इत्यशुद्धजीवस्यरूपमुक्तम् ।
( मालिनी ) अपि च सकलरागद्वेषमोहात्मको यः परमगुरुपदाब्जद्वन्द्वसेवाप्रसादात् । सहजसमयसारं निर्विकल्पं हि बुद्ध्या स भवति परमश्रीकामिनीकान्तकान्तः ॥३०॥
उपचार म्प गे प्रवृत्त होता है वह उपचरित है जैसे क्रोधी बालक में अग्नि का उपचार करके कहना कि यह बालक अग्नि है, यहां क्रोधी बालक में मुख्य अभिन्न का प्रभाव है । जो उपचरित नहीं हो किन्तु वास्तविक हो उसे अनुपचरित कहते हैं । जीव निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से ज्ञानावरणादि पौद्गलिक द्रव्य कर्मों का कर्ता है । दुरवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से शरीर और पर्याप्ति रूप नो कर्मो का कर्ता है और उपचरित से घट पट आदि सर्वथा अपने पृथक् वस्तुओं का कर्ता है। तथा निश्चयनय से यहां अशुद्ध निश्चयनय विवक्षित है उसकी अपेक्षा से यह जीव कमों के उदय से होने वाले राग द्वेष आदि भाव कर्मों का कर्ता है वैसे ही उन सभी के फलों का भोक्ता भी है। एवं शुद्ध निश्चय नय से यह जीव अपने शुद्धज्ञान दर्शन प्रादि भावों का ही कर्ता है और शुद्ध ज्ञान दर्शन सुख प्रादि भावों का ही भोक्ता है ऐसा अभिप्राय है ।
[अब टीकाकार श्री मुनिराज रागादि से सहित जीव को भी पंचपरम गुरु की भक्ति के प्रसाद ' से उत्तम फल की प्राप्ति का संकेत करते हुये श्लोक कहते हैं-]
(३०) श्लोकार्थ-सम्पूर्ण मोह राग द्वेष से सहित है तो भी जो पुरुष परमगुरु के चरणकमल युगल की सेवा के प्रसाद से निश्चित हो निर्विकल्प रूप सहज समयसार को जान करके ( स्थिर होता है ) वह मुक्ति श्री रूपी स्त्री का स्वामी हो जाता है ।