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नियमसार चतुर्गतिस्वरूपनिरूपणाल्यावमेततः । मनोरपत्यानि मनुष्याः । ते द्विविधा: कर्मभूमिजा भोगभूमिजाश्चेलि । तत्र कर्मभूमिजाश्च द्विविधाः प्रार्या म्लेच्छाश्चेति । आर्शः पुण्यक्षेत्रतिनः । म्लेच्छाः पापक्षेत्रवतिनः। भोगभूमिजाश्चार्यनामधेयधरा जघन्य मध्यमोत्तमक्षेत्रवतिनः एकद्वित्रिपन्योपमायुषः । रत्नशर्करावालुकापंकधूमतमोमहातमःप्रभाभिधानसप्तपृथ्वीनां भेदानारकोवाः सप्तधा भवन्ति । प्रथमनरकस्य - --
टोका-यह चतुर्गति के स्वरूप निरूपण का कथन है ।
___ मनु की संतान को मनुष्य कहते हैं। वे कर्मभूमिज और भोगभूमिज के भेद मे दो प्रकार के हैं। उनमें भी कर्मभूमिज मनुष्यों के दो भेद हैं-(१) पार्य ( २ ) म्लेच्छ । पुण्य क्षेत्र में जन्म लेने वाले आर्य कहलाते हैं और पाप क्षेत्र में जन्म लेने वाले म्लेच्छ कहलाते हैं । भोगभूमिज मनुष्य 'आर्य' इस नाम को धारण करने वाले होते हैं: ये जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भोगभूमि रूप क्षेत्र में जन्म लेने वाले क्रमशः एक पल्योपम, दो पल्योपम और तीन पल्योपम की आयु वाले होते हैं।
रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, नमःप्रभा और महातमःप्रभा इन नाम वाली सप्त पृथिवियों के भेद से नारकी जीव सात प्रकार के होते हैं। प्रथम नरक के नारकी एक सागरोपम की आयु वाले हैं, द्वितीय नरक के नारकी नीन सागर की आयु वाले हैं, तृतीय नरक के नारकी सप्त सागर की आयु वाले, चतुर्थ नरक के नारकी दश सागर की, पंचम नरक के नारकी सत्रह सागर की, षष्ठम नरक के नारको बाईस सागरोपम की एवं सप्तम नरक के नारको तेनीस सागरोपग की आयु को धारण करने वाले होते हैं।
___ अब विस्तार के भय से यहां संक्षेप से कहने में सूक्ष्म एकेन्द्रिय के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, बादर एकेन्द्रिय के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, द्वीन्द्रिय के पर्याप्तकअपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय के पर्याप्तक-अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय के पर्याप्तक-अपर्याप्तक, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्तक-अपर्याप्तक, संज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्तक-अपर्याप्तक इन भेदों से तिर्यंच जीव १४ प्रकार के होते हैं।
भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिर्वासी, कल्पवासी के भेद से देवों के चार निकाय-भेद होते हैं । अर्थात् यहां पर देवों के निकाय का अर्थ यह है कि इन चार
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