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नियमसार गरणारयतिरियसुरा, पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा। कम्मोपाधिविवज्जियपज्जाया ते सहावमिदि भरिणदा ॥१५॥
नरनारकतियंक्सुराः पर्यायास्ते विभावा इति मणिताः । कर्मोपाधिविजितपर्यायास्ते स्वभावा इति मणिताः ॥१५॥
नर, नारको तिर्यंच देव के जनम धरें। इनका विभाव पर्ययों से सब कथन करें ।। कर्मों की उपाघि से रहित जो हैं हशायें ।
उनको स्वभाव पर्ययों से साधु बताय ।।१५।। स्वभावविभावपर्यायसंक्षेपोक्तिरियम् । तत्र स्वभावविभावपर्यायाणां मध्ये स्वभावपर्यायस्तावद द्विप्रकारेणोच्यते । कारणशुद्धपर्यायः कार्यशुद्धपर्यायश्चेति । इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन अनाधनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्वभावानंतचतुष्टयस्वरूपेण सहाश्चितपंचम
गाथा १५ अन्वयार्थ--[ नरनारकतियंकसराः पर्यायाः ] नर, नारक, नियंच और देवरूप जो पर्यायें हैं [ ते विभाषा: ] वे विभावपर्याय [ इति भणिताः ] इसप्रकार कही गई हैं। [ कर्मोपाधिविवर्जित पर्यायाः ] कर्मों की उपाधि से रहित जो पर्यायें हैं [ ते स्वभावाः ] वे स्वभाव पर्यायें [ इति भणिताः ] इस प्रकार कही गई हैं।
टीका-यह स्वभाव और विभाव पर्यायों का संक्षेप कथन है ।
उन स्वभाव और बिभाष पर्यायों में से सर्वप्रथम स्वभाव पर्याय को दो प्रकार से कहते हैं-(१) कारण शुद्ध पर्याय (२) कार्य शुद्ध पर्याय । यहां पर सहज शुद्ध निश्चयनय से अनादि अनन्त, अमूर्तिक, अतीन्द्रिय स्वभावरूप, सहजदर्शन, सहज चारित्र, सहजपरमवीतराग सुखात्मक शुद्ध अन्तस्तत्त्व-शुद्ध चैतन्य तत्त्वरूप जो स्वाभाविक अनन्त चतुष्टय स्वरूप है उसके साथ सुशोभित पंचमभाव-पारिगामिक भाव की परिणति ही कारण शुद्ध पर्याय है यह अर्थ हुआ ।
सादि सांत, अमूतिक, अतीन्द्रिय स्वभाव वाले शुद्ध सद्भुत व्यवहारनय से केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलशक्ति-वीर्य से युक्त फल रूप जो अनन्त