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नियमसार प्रसंख्यातभागवृद्धिः संख्यातभागवृद्धिः संख्यातगुणवृद्धिः असंख्यात गुणवृद्धिः अनन्त । गुणवृद्धिः, तथा हानिश्च नीयते । अशुद्धपर्यायो नरनारकादिव्यंजनपर्याय इति ।
( मालिनी अथ सति परमावे शुद्धमात्मानमेकं सहजगुणमणीनामाकरं पूर्णबोधम् । भजति निशितबुद्धियः पुमान् शुष्टिः स भवति परमश्रीकामिनोकामरूपः ।।२४।
( मालिनी ) इति परगुणपर्यायेषु सत्सूचमानां हृदयसरसिजाते राजते कारणात्मा । सपदि समयसारं तं परं ब्रह्मरूपं मज भजसि निजोत्यं भव्यशार्दू लसत्वम् ॥२५।।
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निरपेक्ष है । आगे स्वयं ग्रन्यकार पर्याय के स्वभाव और विभाव ऐसे भेद करके उनके उदाहरण बताकर उनका लक्षण स्पष्ट करते हैं ।
[ अब टीकाकार विभाव पर्यायों में महित जीवों को शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना की प्रेरणा देते हुये तीन श्लोक कहते हैं
( २४ ) इलोकार्य-- जो तीक्ष्ण बुद्धिवाना शुद्ध सम्यग्दृष्टि पुरुष परभावों के होने पर भी सहज गुणरूपी मणियों की खान स्वरूप तथा पूर्ण ज्ञान रूप ऐसी अपनी शुद्धात्मा को भजता है ( आश्रय लेता है ) वह मुक्ति श्री रूपी कामिनी का वल्लभ होता है ।
विशेषार्थ-ग्रन्थकार ने नाथा में विभाव दर्शनोपयोग के तीन भेद और उनके लक्षण बतलाये हैं पुनः पर्याय का कथन करते हुये अर्थ और व्यञ्जन के भेद से पर्याय के दो भेद किये हैं । इनमें अर्थपर्याय को शुद्ध पर्याय एवं व्यञ्जन पर्याय को अशुद्धपर्याय कहा है।
(२५ ) लोकार्य-इसप्रकार पर गुण और पर पर्यायों के होने पर भी उत्तम पुरुषों के हृदय कमल में कारण प्रात्मा विराजमान है । हे भव्योत्तम ! अपने