________________
社
जीव अधिकार
{ ૪
परोक्षवृत्त्या जानाति तथैवाचक्षुदर्शनावरणीय कर्मक्षयोपशमेन स्पर्शन रसनप्राणोत्रद्वारेण सचोग्यविषयान् पश्यति च । यथा अवधिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन शुद्धपुद्गलपर्यंत मूर्तद्रव्यं जानाति तथावधिदर्शनावरणीय कर्मक्षयोपशमेन समस्तमूर्त पदार्थ पश्यति व । प्रत्रोपयोगव्याख्यानानन्तरं पर्य्यायस्वरूपमुच्यते । परि समन्तात् मेवमेति गच्छतीति पर्याय: । अत्र स्वभावपर्यायः षड्द्रव्यसाधारणः श्रर्थपर्यायः अवाङ मनसगोचरः प्रतिसूक्ष्मः आगमप्रामाण्यादभ्युपगम्योऽपि च षड्ढा निवृद्धिविकल्पयुतः अनंतभागवृद्धिः
ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से शुद्ध ( परमाणु प ) पुद्गल पर्यंत मूर्त द्रव्य को जीव जानता है उसीप्रकार अवधिदर्शनावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव समस्त मूर्तिक पदार्थों को देखता है ।
जो 'परि-समंतात्' अर्थात् सब प्राप्त होती है सो पर्याय है । इसप्रकार से है । उसमें पट्टों में साधारण रूप रहने
अब यहां पर उपयोग के व्याख्यान के अनन्तर पर्याय के स्वरूप को कहते हैंओर से भेदं एति - गच्छति अर्थात् भेद को यहां पर्याय का व्युत्पत्ति से सिद्ध अर्थ कहा वाली जो अर्थ पर्याय है उसे स्वभावपर्याय कहते हैं वह वचन और मन के अगोचर है, अतिसूक्ष्म है फिर भी ग्रागमप्रमाण से जानने योग्य है और छह प्रकार की हानि तथा छह प्रकार की वृद्धि के भेदों से सहित है। छह वृद्धि के नाम - अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि ये वृद्धि के भेद हैं ऐसे ही हानि के भी छह भेद समझना चाहिये । अर्थात् ग्रनन्तभाग हानि, प्रसंख्यातभाग हानि, संख्यातभाग हानि, संख्यातगुण हानि, प्रसंख्यातगुण हानि, अनन्तगुण हानि ।
नर-नारक आदि व्यंजन पर्याय को अशुद्ध-विभाव पर्याय कहते हैं ।
I
विशेषार्थ - यहां गाथा में भगवान् श्री कुन्दकुन्ददेव ने तीन प्रकार के क्षयोपशम दर्शन को विभाव दर्शन कहा है । टीकाकार ने मति श्रुत और अवधिज्ञान
पुनः गाथा में पर्याय
से तुलना करते हुये इन तीनों के लक्षण को स्पष्ट कर दिया है। का वर्णन करते हुये उसके दो भेद करके संक्षेप में उन दोनों के कर दिया है | प्रथम पर्याय तो स्वपर सापेक्ष है और पर्याय का
लक्षण को भी सूचित
दूसरा भेद स्वपर