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नियममार
स्थितिहेतुरधर्मः । पंचानामवकाशदानलक्षणमाकाशम् | पंचानां वर्तनाहेतुः कालः । चतुर्णाममूर्तानां शुद्धगुरगाः, पर्यायाश्चैतेषां तथाविधाश्च ।
(मालिनी) इति जिनपतिमार्गाम्मोधिमध्यस्थरत्नं द्युतिपटलजटालं तद्धि षड्द्रव्यजातम् । हृदि सुनिशितबुद्धिभूषणार्थं विधत्ते स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१६।।
प्रकार शुद्ध जीव को शुद्ध हैं और अशुद्ध जीव की अशुद्ध हैं । ऐमा नहीं हो सकता है कि जीव तो शुद्ध रहे और पर्याय मात्र अशुद्ध रह । यदि जीव द्रव्य शुद्ध है तो उसके गुण और उसकी पर्यायें भी शुद्ध हो रहेगी और यदि पर्याय अशुद्ध होंगी तो द्रव्य और उसके गुण अशुद्ध ही रहेगे । हौं ! शुद्ध निश्चयनय से संसार अवस्था में भी जीव द्रव्य शुद्ध है और उसके गुण तथा उसकी पर्यायें भी उसी न यविवक्षा से शुद्ध हैं।
__जिसमें परमाणु मिलते है और पृथक् होते रहते हैं वह पुद्गल है, यह मूर्तिक हो है । जीव द्रव्य कथंचित् शुद्ध निश्चयनय मे अथवा व्यक्तरूप शुद्ध अवस्था में अमूर्तिक है और कर्मबंध मे सहित होने से कथंचित् मुर्तिक भी है। शेष चारों द्रव्य अमूर्तिक ही हैं तथा शुद्ध गुण पर्यायों से सहित हो हैं उनमें अशुद्ध गुण पर्यायें नहीं होती हैं ।
[ अन टीकाकार श्री मुनिराज छहों द्रव्यों को रत्न की उपमा देकर उससे विभूषित होने का संकेत करते हुये श्लाक कहने हैं । - |
(१६) इलोकार्थ – इसप्रकार जिनेन्द्र भगवान के मार्ग रूपी समुद्र के मध्य में स्थित रत्न के समान द्युति-किरणों के समूह से देदीप्यमान जो यह छह द्रव्यों का समूह है, जो भव्य तीक्ष्ण बुद्धि वाले भव्य जीव, भूषण के लिये अपने हृदय में धारण करता है वह मुक्ति श्री रूपी कामिनी का इच्छितवर हो जाता है ।
भावार्थ-यहां सम्यग्दर्शन के विषयभूत छह द्रव्यों का वर्णन है । आचार्य ने उन्हें ही 'तत्त्वार्थ' शब्द से कहा है। जिनेन्द्र भगवान् का मार्ग तो रत्नत्रय है, उस