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नियमसार
कार्य तावत् सकलविमलकेवलज्ञानम् । तस्य कारणं परमपारिणामिकमावस्थितत्रिकालनिरुपाधिरूपं सहजनानं स्यात् । केवलं विभावरूपाणि ज्ञानानि त्रीणि कुमतिकुश्रुतविभङ्ग[नाम] भानि भवति । एतेषाम् उपयोगभेदानां ज्ञानानां भेदो वक्ष्यमाणसूत्रयोदयोर्बोद्धव्य इति ।
( मालिनी ) अय सफलजिनोक्तज्ञानभेदं प्रबुद्ध्वा [प्रबुध्य] परिहतपरभाषः स्वस्वरूपे स्थितो यः । सपदि विशति पचच्चिच्चमत्कारमात्र स मति परमश्रीकामिनी कामरूपा ॥१७॥
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स्वभावज्ञान और विभावज्ञान के भेद से दो प्रकार का है । इनमें स्वभावज्ञान अमूर्तिक, अव्याबाध, अतीन्द्रिय और अविनश्वर है और वह कार्य तथा कारण के भेद से दो प्रकार का होता है । सकल विमल केवलज्ञान कार्य स्वभावज्ञान है, उसका कारण परम पारिणामिकभाव में स्थित त्रिकाल निरुपाधिरूप सहजज्ञान है अर्थात् यह सहजज्ञान कारण स्वभावज्ञान है। केवल विभावरूप ज्ञान तीन हैं, कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि ये उनके नाम हैं। इन उपयोग के भेदरूप ज्ञानों के भेद आगे कही गई दो सूत्र गाथाओं से जानना चाहिये ।
विशेषार्थ--- टीकाकार श्री मुनिराज ने स्वभावज्ञान को केवलज्ञान वहा है पुनः उसके कार्य और कारणरूप से दो भेद कर दिये हैं । व्यक्तरूप केवलज्ञान तो कार्यज्ञान है तथा शक्तिरूप केवलज्ञान कारणज्ञान है । अर्थात् शनिश्चयनय मे परमपारिणामिक भाव के अवलम्बन से अपनी आत्मा के ज्ञान को तीनों कालों में उपाधिरहित, शुद्ध समझना यह सहजज्ञान है यही केवलज्ञान के लिये बीजभूत कारण होने से कारणज्ञान कहा गया है यहां ऐसा समझना चाहिये ।
[ अब टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारीदेव ज्ञान के फल को बताते हुये श्लोक कहते हैं-]
(१७) श्लोकार्थ-जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कथितज्ञान के भेदों को जान करके परभावों का परिहार कर चुके हैं जो पुरुष परभावों से रहित हुये अपने स्वरूप में