________________
जीच प्रधिकार
श्रद्धानेम अनेन स्वभावानंतचतुष्टयेन सनाथम् अनाचमुक्तिसुन्दरीनाथम् पात्मानं मार्ग भावयेत् । इत्यनेनोगभ्यास संसार मूललवित्रण ब्रह्मोपदेशः कृत इति ।
( मालिनी ) इति निगवितभेदज्ञानमासाच भव्यः परिहरतु समस्तं घोरसंसारमूलम् । सुकृतमसुकृतं वा दुःखमुच्चः सुखं वा तत उपरि समग्र शाश्वत प्रयाति ॥१८॥
( अनुष्टुभ् ) परिग्रहाग्रह मुक्त्वा कृत्वोपेक्षां च विद्महे ।
निव्यंग्रप्रायचिन्मात्रनिग्रहं भावयेद् बुधः ॥१६॥ - - - -- -- - - - -- - - - - - - -
-- - व्यवहार में प्रत्यक्ष होने से इन्द्रिय जन्य मतिज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहलाता है अवधि और मनःपर्यय ये एक देश प्रत्यक्षजान हैं।
(१८) श्लोकार्थ-इसप्रकार से कहे गये भेदज्ञान को प्राप्त करके भव्यजीव घोर संसार के मूलकारण पुण्य या पाप अथवा सुख और दुःख को अत्यन्त रूप से परिहार करें-छोड़ें, पुनः उसके बाद परिपूर्ण शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेंगे ।
(१९) श्लोकार्य-बुद्धिमान् पुरुष परिग्रह के आग्रह को छोड़कर और अपने शरोरमात्र परिग्रह में उपेक्षा करके निराकुल चिन्मात्र शरीर वाली अपनी आत्मा की भावना करें।
भावार्थ-पूर्व में सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके शरीरमात्र परिग्रह को ग्रहण करें पुनः वे मुनि शरीर से भी निर्मम होकर निराकुलता स्वरूप चिच्चैतन्य मात्र हो जिसका शरीर है ऐसी अपनी प्रात्मा की भावना करें-ध्यान करें। यहां यह अभिप्राय स्पष्ट है कि परिग्रह से लिप्त हुये श्रावक शरीर से उपेक्षित होकर अशरीरी आत्मा का ध्यान नहीं कर सकते हैं ।