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जीव अधिकार
[ ३३ इदानीं शुद्धाशुद्धज्ञानस्वरूपमेदरस्वयमुच्यते । अनेकविकन्पसनाथं मतिज्ञानम् उपलब्धिभावनोपयोगाच्य अवहादिभेदाच्च बहबहुविधादिमेवाद्वा । लब्धिभावनाभेदाछ तज्ञानं द्विविधम् । देशसर्वपरमभेदादव विज्ञानं त्रिविधम् । ऋजुविपुलमतिविकल्पामनःपर्ययज्ञानं च द्विविधम् परमभावस्थितस्य सम्यग्दृष्टेरेतसंज्ञानचतुष्कं भवति । मप्तिश्रुतावधिज्ञानानि मिथ्यादृष्टि परिप्राप्य कुमतिकुश्रुतविभङ्गजानानोति नामान्तराणि प्रपेविरे । अत्र सहजज्ञानं शुद्धान्तस्तत्त्वपरमतत्त्वव्यापकत्वात् स्वरूपप्रत्यक्षम् । केवलज्ञानं सकलप्रत्यक्षम् । 'रूपियवधेः' इति वचनादधिज्ञानं विकलप्रत्यक्षम् । तदनन्तभागव-- - - - - -- - -------
इनमें सहजज्ञान शुद्ध अंतस्तत्त्व-शुद्ध चैतन्यतत्त्वरूप परमतत्त्व में व्यापक होने से स्वरूप प्रत्यक्ष है, केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है "रूपिववधेः” अवधिज्ञान रूपी पदार्थों को विषय करता है, इस वचन से अवधिज्ञान विकल प्रत्यक्ष है और अवधिज्ञान के अनन्तवें भाग स्वरूप वस्तु के अंश को ग्रहण करने वाला होने से मनःपर्ययज्ञान भी विकल प्रत्यक्ष है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों भी परमार्थ से परोक्ष हैं और व्यवहार से प्रत्यक्ष हैं।
विशेष बात यह है कि इन उपर्युक्त ज्ञानों में साक्षात् मोक्ष के लिये मूलभूत, एक निजपरमतत्व में स्थित सहजज्ञान ही है। तथा च पारिणामिक भाव स्वभाव से भव्यजीवका परम स्वभाव होने से इस सहजज्ञान से भिन्न अन्य कुछ उपादेय नहीं है ।
यह सहजज्ञान कैसा है ?
(१) यह सहज चैतन्य का विलास रूप है (२) सहज परम वीतराग सुखामृत स्वरूप है (३) अप्रतिहत-विघ्नबाधा रहित निरावरण परम चैतन्य शक्तिरूपा है । (४) सदा अन्तर्मुख होने से अपने स्वरूप में अविचल स्थिति रूप सहज परम चारित्ररूप है (५) तीनों कालों में अविच्छिन्न रूप होने से सदा सन्निहित परम चैतन्यरूप के श्रद्धानरूप है ऐसे (निश्चयरत्नत्रय रूप से परिणत) सहजज्ञान के द्वारा स्वाभाविक अनन्त चतुष्टय से सनाथ और अनाथ जो मुक्ति सुन्दरी उसके नाथ ऐसी अपनी प्रात्मा की भावना करना चाहिये-अनुभव करना चाहिये ।