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नियमसार
द्विविधः कारणस्वभावः कार्यस्वभावश्चेति । तत्र कारणदृष्टिः सदा पावनरूपस्य प्रौदपिकादिचतुरस्परमा टानामगोचरस्य सहजपरमपारिणामिकभावस्वभावस्य कारणसमयसारस्वरूपस्य निरावरणस्वभावस्य स्वस्वभाव सदामात्रस्य परम चैतन्यसामान्यस्वरूपस्य प्रकृत्रिमपरमस्वस्वरूपाविश्चल स्थितिसनाथशुद्ध चारित्रस्य नित्यशुद्ध निरंजनबोधस्य
जैसे ज्ञानोपयोग बहुत प्रकार के भेदों से सहित हैं वैसे ही दर्शनोपयोग भी बहुत प्रकार के भेदों से सहित है । सबसे पहले उसके स्वभाव दर्शनोपयोग और विभावदर्शनोपयोग ऐसे दो भेद हैं । स्वभाव के भो कारणस्वभाव और कार्यस्वभाव ऐसे दो भेद हैं । उसमें कारणदर्शनोपयोग शुद्ध आत्मा के स्वरूप का श्रद्धानमात्र ही है। शुद्ध आत्मा का स्वरूप कैसा है ? ( १ ) सदा पाचनरूप ( २ ) श्रीदयिक आदि चारों जो कि विभाव स्वभाव रूप परभाव हैं उनके अगोचर ( ३ ) सहज परमपारिणामिक भाव स्वरूप (४) कारण समयसार स्वरूप ( ५ ) निरावरण स्वभावरूप ( ६ ) अपने स्वभाव - की सत्तामात्र ( ७ ) परम चैतन्य का सामान्य स्वरूप ( ८ ) अकृत्रिम परम अपने स्वरूप में अविचल स्थिति से सहित शुद्ध चारित्ररूप ( ६ ) नित्यशुद्ध निरञ्जन ज्ञानरूप और (१०) अखिल दुष्ट पाप रूप वीर वैरी की सेना की ध्वजा को विध्वंस करने में कारण स्वरूप ऐसा है । ऐसी श्रात्मा के स्वरूप का श्रद्धान मात्र ही निश्चित रूप से कारणस्वभाव दर्शनोपयोग है ।
दूसरा कार्यदर्शनोपयोग, दर्शनावरण और ज्ञानावरण प्रमुख घाति कर्मों के क्षय से ही उत्पन्न होता है । यह कार्यदर्शनोपयोग किसके होता है ? जो निश्चित ही क्षायिक जीव हैं, सकल विमलकेवलज्ञान के द्वारा तीनों भुवनों को जानने वाले हैं, अपनी आत्मा से उत्पन्न परम वीतराग सुखरूपी अमृत के समुद्र हैं, यथाख्यात नामक कार्यरूप शुद्धचारित्र स्वरूप हैं, सादि सान्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाव वाले शुद्ध सद्भुत व्यवहारनय स्वरूप हैं, त्रैलोक्य के भव्य जीवों के द्वारा प्रत्यक्ष वंदना के योग्य हैं इन विशेषणों से विशिष्ट जो तीर्थंकर परमदेव हैं उनके केवलज्ञान के समान युगपत् लोकालोक को व्याप्त करने वाला यह दर्शनोपयोग - केवलदर्शन भी प्रकार कार्य और कारण रूप से स्वभाव दर्शनोपयोग को कहा है। पयोग भी उत्तर सूत्र में वर्णित है उसे वहीं पर दिखायेंगे ।.
होता है । इस विभाव दर्शनो