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नियमसार स्त्वंशग्राहकरवान्मनःपर्ययज्ञानं च विकलप्रत्यक्षम् । मतिश्रुतज्ञानद्वितयमपि परमार्थतः परोक्षं व्यवहारतः प्रत्यक्षं च भवति । कि घ उक्तेषु ज्ञानेषु साक्षान्मोक्षमूलमेकं निजपरमतत्त्वनिष्ठसहजज्ञानमेव । अपि च पारिणामिकभावस्वभावेन भव्यस्य परमस्वभावत्वात् सहजज्ञानादपरमुपादेयं न समस्ति । अनेन सहजचिद्विलासरूपेण सदा सहजपरमवीतरागशर्मामृतेन अप्रतिहतनिरावरणपरमचिच्छक्तिरूपेण सदान्तमुखे स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपसहजपरमचारित्रेण त्रिकालेष्वव्युच्छिन्नतया सदा सन्निहितपरमचिद्रूप
--- . 'इसप्रकार संसाररूपी बेल के मूल को काटने के लिये 'हंसियाम्प' इस कथन के द्वारा ब्रह्मस्वरूप प्रात्मा का उपदेश किया है।
विशेषार्य-थी भगवान कुन्दकुन्ददेव ने गाथा में केवलज्ञान को स्वभावज्ञान कहा है किन्तु टीकाकार ने उसके दो भेद कर दिये हैं कार्यस्वभावज्ञान, कारणस्वभाबज्ञान । कार्यस्वभावज्ञान तो नकल पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाला केवलज्ञान है और कारणस्वभावज्ञान शक्तिरूप केवलज्ञान है यह अपने स्वरूप को प्रत्यक्ष करने वाला है अर्थात् वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान से वीतरागो मुनि अपनी शुद्धात्मा का अनुभव करते हैं यह वही कारणज्ञान है । यहां पर उसे ही सहजज्ञान कहा है उस सहजज्ञान के जो पांच विशेषण दिये गये हैं वे सभी शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से हैं, इसीलिये वह केवलज्ञानरूप कार्यस्वभावज्ञान के समान कहा गया है। यह कारण स्वभावज्ञान शद्धोपयोगी मुनियों के ही होना है और बारहव गुणस्थान में अपने पूर्णस्वरूप से प्रगट होता हमा तेरहवें गुणस्थान के कार्य स्वभावज्ञानरूप केवलज्ञान को प्रगट करके कारण शब्द के अर्थ को सार्थक कर देता है। चौथे, पांचवें और छठे गुणस्थान में यह श्रद्धा का विषयमात्र है।
आगे विभावज्ञान अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञान के सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान की अपेक्षा दो भेद हैं । सम्यग्ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार भेद हैं और मिथ्याज्ञान के कुमति, कुश्रुत और विभंग की अपेक्षा तीन भेद हैं । अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि जीवों के मिथ्यात्व के निमित्त से ये ज्ञान कुज्ञान रूप परिणत हो रहे हैं। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सिद्धान्त की अपेक्षा परोक्षज्ञान हैं और न्याय ग्रन्थों की अपेक्षा