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जीव अधिकार
[ २६ जीवो उवप्रोगमओ, उवमोगो णाणदसणी होइ । णाणुवमोगो दुविहो, सहावरणार विभावणारणं ति ॥१०॥
जीव उपयोगमय: उपयोगो ज्ञानदर्शनं भवति । ज्ञानोपयोगो द्विविधः स्वभावज्ञान विभाषमानमिति ॥१०॥
उपयोगमय लक्षण सहित है जीव जगत में। उपयोग कहा ज्ञान व दर्शन द्विभेद में ।। ज्ञानोपयोग दो प्रकार से हैं बताये ।
स्वभावशान प्रो विभावज्ञान हैं गाये ।।१।। अत्रोपयोगलक्षणमुक्तम् । आत्मनाचेतत्यानुवर्ती परिणामः स उपयोगः । अयं धर्मः । जोयो धर्मों । अनयोः सम्बन्धः प्रदीपप्रकाशमत् । ज्ञानदर्शनविकल्पेनासो द्विविधः । अत्र ज्ञानोपयोगोऽपि स्वभावविभावमेदाद द्विविधो भवति । इह हि स्वभाषज्ञानम् प्रमूर्तम् अध्याराधम अतीन्द्रियम् अविनश्वरम्, तच्च कार्यकारणरूपेण द्विविधं भवति ।
रत्नत्रय में मम्यग्दर्शन भी एक रत्न है जो कि प्रधान है और प्राप्त आगम तथा तत्त्वार्थ का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है इसलिये सम्यग्दर्शन के वित्यभून इन छह द्रव्यों को भी यहां र. न कह दिया है । जो इन छह द्रव्यरूपी रन्न या हार बनाकर गले में पहन लेते हैं उनको रत्नों के भूषण से भूषित देखकर मुक्ति लक्ष्मी व रगण कर लेती है अर्थात् जो इन द्रव्यों के अर्थ को समझकर अपनी श्रद्धा का विषय बनाते हैं वे मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं यह अभिप्राय हुआ।
गाथा १० अन्वयार्थ-[जीवः उपयोगमयः] जीव उपयोगमय है । [उपयोगः ज्ञानदर्शनं भवति ] उपयोग ज्ञान और दर्शनरूप है [ ज्ञानोपयोगः ] ज्ञानोपयोग [ स्वभावज्ञानं विभावज्ञानं इति द्विविधः] स्वभावज्ञान और विभावज्ञान इसप्रकार से दो प्रकार का है।
टोका- यहां गाथा में उपयोग का लक्षण कहा गया है
आत्मा के चैतन्य का अनुवर्तन करने वाला परिणाम उपयोग है । यह उपयोग धर्म है और जीव धर्मी है । इन धर्म और धर्मी का सम्बन्ध प्रदीप और प्रकाश के समान है। ज्ञान और दर्शन के भेद से यह उपयोग दो प्रकार का है। यहां पर ज्ञानोपयोग भी