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जीव अधिकार
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शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्यशुद्धजीवः । अशुद्धसद्भूतध्यवहारेण मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतत्वावशुद्धजीवः । शुद्धनिश्चयेन साहजहानादिपरमस्वभावगुणानामाधारभूतत्वात्कारणशुद्धजीवः । अयं चेतनः । अस्य चेतनगुणाः । अयममूर्तः । अस्यामूर्तगुणाः । अयं शुद्धः । अस्य शुद्धगुणाः । अयमशुद्धः । अस्याशुद्धगुणाः। पर्यायश्च । तथा गलनपूरणस्वमावसनाथः पुद्गलः । श्वेताविवर्णाधारो मूर्तः । अस्य हि मूर्तगुणाः । अयमचेतनः । प्रस्थाचेतनगुणाः । स्वभावधिभावगतिक्रियापरिणतानां जीवपुद्गलानां स्वभावविभावगतिहेतुः धर्मः । स्वभावविभावस्थितिक्रियापरिणताना तेषां
-. स्वभाव और विभावरूप गति की क्रिया में परिणत हुये जीव और पुद्गलों को स्वभाव-विभावरूप गति क्रिया में जो हेतु है वह धर्म द्रव्य है ।।
स्वभाव और विभावरूप स्थिति क्रिया में परिणत हुये उन्हीं जीव और पुद्गलों की स्थिति में जो हेतु है वह अधर्म द्रव्य है ।
पांचों द्रव्यों को अवकाग दान स्वरूपवाला प्रकाश द्रव्य है।
पांचों द्रव्यों में जो वर्तना का हेतु है वह काल द्रव्य है ।
धर्म-अधर्म-ग्राकाश और काल इन चारों अमूर्तिक द्रव्यों के गुण शुद्ध हैं और इनकी पर्यायें भी उसीप्रकार शुद्ध हैं ।
_ विशेषार्य-यहां पर छहों द्रव्यों का स्वरूप बताया है। उसमें टीकाकार ने सर्वप्रथम जीव द्रव्य का निरुक्ति पूर्वक अर्थ करते हुये कहा है कि जो निश्चयनय से चैतन्यरूप भावों से तथा व्यवहारनय से इन्द्रिय प्रादि द्रव्यप्राणों से त्रिकाल में जीता है वह जीव है। अनन्तर इसके 'कार्यशुद्ध जीव, अशुद्ध जीव और कारणशुद्ध जीव' ऐसे तीन भेद किये हैं। इनमें से पूर्णतया व्यक्तरूप से शुद्ध ऐसे सिद्ध जीवों को 'कार्यशुद्ध जीव' कहा है । संसारी जीवों को 'अशुद्ध जीव' एवं शुद्ध निश्चयनय से संसारी जीवों में सहजज्ञानादि गुण शक्तिरूप से विद्यमान हैं इस दृष्टि से उनको 'कारण शुद्ध जीव' कहा है। आगे यह बताया है कि जीव चेतन, अमूर्तिक, शुद्ध प्रथवा अशुद्ध है, उसके गुण भी वैसे ही चैतन्य स्वरूप, अमूर्तिक, शुद्ध अथवा अशुद्ध हैं तथा पर्यायें भी उसी