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नियमसार जो जीव पुद्गलकाय, धर्म प्रो अधर्म जो 1 आकाश और काल ये तत्त्वार्थ कहें जो ।। नानागुणों व पर्ययों से युक्त ये रहें ।
हार हो को हुन्ग नाम से मुनी कहें ।।६।। अत्र षण्णा द्रव्याणां पृथक्पृथक् नामधेयमुक्तम् । स्पर्शनरसनघ्राणचक्ष धोत्रमनोवाकायायुरुच्छ्वासनिःश्वासाभिधानंदशभिः प्राणः जीवति जोविष्यति जीवितपूर्बो वा जीवः संग्रहनयोज्यमुक्तः । निश्चयेन भावप्राणधारणाजोधः । व्यवहारेण द्रव्यप्राणधारणाजीवः । -- - - -- - - - - - - -- - -- - ... - -- - - - -
गाथा अन्वयार्थ -[ जोवाः पुद्गलकायाः ] जीव, पुद्गलकाय [ धर्माधमों ] धर्म, अधर्म [ कालः च प्राकाशं ] काल और आकाश ये छहों ही [ नानागुणपर्यायः संघुक्ताः ] विविध गुण पर्यायों से संयुक्त [ तत्वार्थाः इति भणिताः ] "तत्त्वार्थ" इस प्रकार से कहे गये हैं।
टोका-- यहां छहों द्रव्य के पृथक्-पृथक् नाम का कथन है
स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र-कर्ण, मन-वचन-काय, प्रायु और श्वासोच्छ्वास इन नाम वाले दश प्राणों से जो जीता है, जीवेगा और पूर्व में जीवित था वह जीव है, यह संग्रह नय का कथन है । निश्चय से भाव प्राणों को धारण करने से जीव है और व्यवहारनय से द्रव्यप्राणों को धारण करने से जीव है। शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय गे केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का अाधारभूत होने से 'कार्य शुद्ध जीव' है। असद्भूत व्यबहारनय से मति ज्ञान आदि विभावगुणों का आधारभूत होने से 'अशुद्ध जीव है। शुद्ध निश्चयनय से सहजज्ञानादि परम स्वाभाविक गुणों का आधारभूत होने से 'कारण शुद्ध जीव है । यह जीव चेतन है, इसके गुण भी चेतन हैं, यह अमूर्त है, इसके गुण भी अमूर्त हैं, यह शुद्ध है इसके गुण भी शुद्ध हैं, यह अशुद्ध है और इसके गुण भी अशुद्ध हैं, पर्यायें भी इसी प्रकार हैं ।
जो गलन और पूरण स्वभाव से सहित है वह पुद्गल है, यह श्वेत, पीत आदि वर्गों का आधार है अतः मूर्तिक है, इसके गुण भी मूर्तिक हैं, यह अचेतन है इसके गुण भी अचेतन हैं।