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नियमसार
दिव्येन ध्वनिमा मुखं श्रवणयोः साक्षारक्षरतोऽमृतं बंद्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ।।"
( मालिनी ) जगदिदमजगच्च ज्ञाननीरेहान्तभ्रमरवदवभाति प्रस्फुटं यस्य नित्यम् । तमपि किल यजेहं नेमितीर्थकरेशं जलनिधिमपि दोामुत्तराम्यूलवीचिम् ॥१४॥
- - - - मुग्ध हो जाते हैं और वाणी से सभी के कानों में अमृत झरने जैसा सुख उत्पन्न होता है और उनके शरीर में १००८ लक्षण शोभायमान हैं ऐसे तीर्थकर परम देव जगत में सभी के लिये बंदना करने योग्य हैं, पुज्य एवं महान हैं ।
[ अब टीकाकार मुनिराज ऐसे अरिहंत भगवान् की स्तुति में अपने को असमर्थ कहते हुये श्लोक द्वारा श्री नेमिनाथ की स्तुति करते हैं । ]
(१४) श्लोकार्थ-जिन भगवान के ज्ञान रूपी कमल के अन्तर्गत भ्रमर के समान यह सम्पूर्ण लोक और अलोक नित्य ही स्पष्टरूप से प्रतिभासित हो रहा है निश्चित ही मैं भी उन श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की पूजा करता हूं तो मैं अपनो दोनों भुजायों से ऊंची-ऊंची उठती हुई लहरों वाले समुद्र को भी तैरना चाहता हूं।
मावार्थ-जिस प्रकार भ्रमर कमल पुष्प के भीतर बैठकर छोटा सा प्रतीत होता है उसी प्रकार भगवान के ज्ञान रूपी कमल में यह सारा लोक और अलोक छोटा सा प्रतीत होता है क्योंकि भगवान् के ज्ञान में यदि अनन्त भी ऐसे लोकालोक प्रा जावें तो भी समा सकते हैं। यदि ऐसे महान् नेमिनाथ की मैं स्तुति या भक्ति करना चाहता हूं तो मैं वास्तव में लहरों से व्याप्त ऐसे विशाल समुद्र को मात्र भुजाओं से तैरना चाहता हूं। अर्थात् मैं ऐसे नेमिनाथ की स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं, असमर्थ ही हैं । इस गाथा में ग्रन्थ कार ने आप्त को दोषरहित और केवलज्ञानादि अनन्तगुणों के वैभव से सहित बताया है और इसीलिये केवलज्ञान की महिमा गायी है।
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