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नियममार
रणनित्यानंदैकस्वरूपनिजकारणपरमात्मभावनोत्पन्नकार्यपरमात्मा स एव भगवान् अर्हन परमेश्वरः । अस्य भगवतः परमेश्वरस्य विपरीतगुणात्मकाः सर्वे देवाभिमानदग्धा अपि संसारिण इत्यर्थः ।
तथा चोक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवः :
भगवान् परमेश्वर के विपरीत गुण वाले सभी देव के अभिमान में दग्ध हुये भी देव संसारी ही हैं यह अर्थ हुआ ।
विशेषार्थ- यहां यह बात स्पष्ट की है कि घाति कर्म के नाम मे अष्टादश दोष समाप्त होते हैं और केवलज्ञानादि अनन्त गण प्रगट होते हैं । इससे यह बात सिद्ध होती है कि संसार पूर्वक ही मोक्ष होतो है । अनादिकाल से कर्ममल रहितग्रस्पर्शित 'सदाशिव' नाम का कोई परमेश्वर नहीं है । आग परमात्मा के लक्षण में टीकाकार ने कारण परमात्मा की भावना में कार्य परमात्ना होते हैं, शुद्ध निश्चयनय में प्रत्येक जीव को प्रात्मा त्रिकाल में आवरण रहित है, नित्य ही आनन्द रूप है वही कारण परमात्मा है ऐसा समझकर शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव जव निश्चय नय के अवलम्बन से अपनी ऐसी प्रात्मा की भावना करते हुये अपने आप में तन्मय हो जाते हैं तब उनकी आत्मा ही परमात्मा बन जाती है। इसीलिये शुद्ध निश्चयनय के अवलम्बन स्वरूप आत्मा को कारण परमात्मा कहा है । यद्यपि "सब्बे सृद्धा हु सुद्धणया" के अनुसार सभी जोव शुद्ध नय से शुद्ध ही हैं । चाहे वे मुक्ष्म निगोदिया एकोन्द्रिय हों अथवा वे अभव्य हो, चाहं मिथ्यादृष्टि-मिथ्यात्वगुणस्थानवती हों या १४ वें गुणस्थान तक किसी भी गुरास्थान में हों उन सभी की प्रात्मा परमात्म स्वरूप है, किन्तु इतने मात्र में अभव्य या एकेन्द्रिय जीव प्रादि की आत्मा को क्या लाभ है, कुछ भी नहीं है निश्चयनय से सभी में कार्य परमात्मा ही है किन्तु उसमें उन्हें कुछ अानन्द नहीं है अतएव सम्यग्दृष्टि अंतरा:मा ही कारण परमात्मा बनकर कार्य परमात्मा को प्राप्त कर मकते हैं । ऐसो कारण परमात्मत्व से परिणत आत्मावस्था वीतराग निर्विकल्प ध्यानावस्था के समान होती है, यहां यह निष्कर्ष समझना चाहिये ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव ने भो अरिहन्त का लक्षण करते हुये कहा है