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नियमसार
क्वचिन्जिनबरस्य मार्गमुपलभ्य यः पण्डितो
निजात्मनि रतो मवेतजति मुक्तिमेतां हि सः ।।६।। णियमेण य जं कज्ज, तं णियमं णाणसणचरितं । विवरीयपरिहरत्थं, भणिदं खलु सारमिदि वयणं ॥३॥
नियमेन च यत्कार्य स नियमो ज्ञानदर्शनचारित्रम् । विपरीतपरिहारार्थ भणितं खलु सारमिति बचनम् ॥३॥
जो करने योग्य है नियम से वोहि नियम है। बो ज्ञान दर्श नौ चरिय रूप धरम है। विपरीत के परिहार हेतु सार शब्द है । प्रतएव नियम से ये नियमसार सार्थ है ।।३।।
. - - - - - - - - - - -- - - -- (E) श्लोकाथं-यह संसारी जीव कभी तो कामिनी को रति से उत्पन्न सुख को प्राप्त करता है और कभी धन की रक्षा में अपनी बुद्धि को करता है परन्तु जो पंडित बुद्धिमान पुरुष कभी जिनेन्द्र भगवान् के मार्ग को प्राप्त करके अपनी प्रात्मा के स्वरूप में रत हो जाता है तो निश्चित ही इस मुक्ति अवस्था को प्राप्त । कर लेता है।
भावार्थ-श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने इस नियमसार ग्रन्थ में मार्ग और मार्ग का फल ऐसी दो बातें बतलाई हैं उसमें मोक्ष की प्राप्ति का उपाय तो मार्ग है और उसका फल निर्माण है संसारी जीव दो ही चीजों को विशेष सुखकारी मानते हैं-एक तो स्त्री को, दूसरे धन को। इसलिये यहां प्राचार्य ने बतलाया है कि कभी यह जीव स्त्री के सुख का अनुभव करता है तो कभी धन की रक्षा में लगा रहता है किन्तु जब वही जीव इन कनक कामिनी से अपने मन को हटाकर रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग में लग जाता है तब नियम से उसके फल रूप निर्वाण को प्राप्त कर लेता है ।
गाथा ३ अन्वयार्थ- [ नियमेन च यत्कार्य ] जो नियम से करने योग्य है [स नियम: ] वह 'नियम' कहलाता है [ ज्ञानदशंमचारियं ] और वह ज्ञान-दर्शन-चारित्र