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काहि वि घुलइ हारु मणिमंडिउ णावड़ कामें पासउ मंडिउ। झल्लरिपडहमुइंगसहासहिं वजंतहिं जयजयणिग्योसहिं। पत्ता-आरूढउ महिवइ मत्तगइ मयजलघुलियचलालिगणे॥ णं महिहरि केसरि खरणहरु पवणुल्ललियतमालवणे॥१॥
चोइउ कुंजरु कमसंचारें चामरचवलें छत्तधारें पत्तु गरेसर तियसरवण्णउं।
गडालीणभमरझंकारें। गच्छमाणु सहुं णियपरिवारें। दिट्ठउ समवसरणु वित्थिण्णउं ।
किसी का मणिमण्डित हार ऐसा प्रतीत होता था मानो कामदेव ने अपना पाश मण्डित कर लिया हो। बजते हुए हजारों झल्लरी, पटह और मृदंग आदि वाद्यों तथा जय-जय शब्दों के साथ
घत्ता-मदजल के कारण मँडराते हुए चंचल भ्रमरों से युक्त मत्तगज पर राजा ऐसा सवार हो गया मानो पवन से आन्दोलित तमालवनवाले पहाड़ पर तीव्र नखवाला सिंह आरूढ़ हो गया है॥१॥
महावत ने पैरों के संचालन से हाथी को प्रेरित किया। गण्डस्थल में लीन भ्रमरों की झंकार तथा चमरों से चपल तथा छत्रों की छायावाले अपने परिवार के साथ जाता हुआ राजा वहाँ पहुँचा और उसे देवों से रमणीय विस्तृत समवसरण दिखाई दिया।
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