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भावाणि का वि देवगुणभाविणी चलिय स कमलहत्थ णं गोमिणि। का वि सचंदण सहइ महासह णं मलयइरिणियंववणासड़। कुवलउ का वि लेइ जसधारिणि णं वररायवित्ति रिउहारिणि। रुप्पयथालु का वि घुसिणालउ ससिबिंबु व संझारायालउ । पवरकसणगंधोहकरंबउ उवरजंतु व णवरविबिंबध। कणयवत्तु काइ वि करि धरियउ इंदणीलमउ मोतियारियउ। गावइ णहयलु उड्डविप्फुरियउ। गुरुचरणारविंदु संभरियउ। का वि ससंख समुहसही विव का वि सकलस णिहाणमही विव । का वि सदप्पण वेसावित्ति व का वि सरस कइकब्बपउत्ति व। का वि जिणिंदभत्तिपब्भारें णचइ भरहभाववित्थारें। काहि वि विठ्ठउ पयडु थणत्थलु णाई णिरंगकुंभिकुंभत्थलु। मयणंकुसवणरेहारुणियउ समवंतेण पिएणण गणियउ।
देव के गुणों की भावना करनेवाली कोई भामिनी हाथ में कमल लेकर इस प्रकार चली मानो लक्ष्मी किया। शंख से युक्त कोई समुद्र की सखी के समान जान पड़ती है। कलश से सहित कोई खजाने की भूमि हो। चन्दनसहित कोई महासती ऐसी शोभित होती है मानो मलयपर्वत के ढाल की वनस्पति हो। कोई के समान है। कोई वेश्यावृत्ति के समान दर्पणसहित है। कोई कवि की काव्य-उक्ति के समान सरस है । कोई यशस्विनी कुवलय (नीलकमल) को लेती है, वह ऐसी मालूम होती है मानो शत्रु का विदारण करनेवाली जिनेन्द्र की भक्ति के प्रभार के कारण भरतमुनि के संगीत के विस्तार के साथ नृत्य करती है। किसी का खुला श्रेष्ठ राजा की वृत्ति हो। कोई केशर से युक्त चाँदी का थाल लेती है जो सन्ध्याराग से युक्त चन्द्रबिम्ब के समान हुआ स्तन-स्थल कामदेवरूपी महागज के कुम्भ-स्थल की तरह दिखाई दे रहा है। मदनांकुश (नखों) के लगता है। श्रेष्ठ काली गन्ध (कालागुरु) के समूह से सहित वह (थाल) ऐसा प्रतीत होता है मानो राहु से घावों की रेखा से लाल होने पर भी उस (स्तन स्थल) पर उपशमभाव से युक्त प्रिय ने कुछ भी ध्यान नहीं ग्रस्त नबसूर्य बिम्ब हो। किसी ने स्वर्णपात्र अपने हाथ में ले लिया, इन्द्रनील मणियोंवाला और मोतियों से दिया। भरा हुआ जो नक्षत्रों से विस्फुरित आकाश के समान जान पड़ता है। किसी ने गुरु के चरण-कमलों का स्मरण
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