Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ वाचना-प्रमुख आचार्य तुलसी संपादक : विवेचक आचार्य महाप्रज्ञ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ नायाधम्मकहाओ में दो पद हैं- १. नाया, २. धम्मकहाओ । दोनों पद बहुवचनान्त है। प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कन्ध हैं। नाया का सम्बन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध से है। धर्मकथा का सम्बन्ध दूसरे श्रुतस्कन्ध से है। धर्मकथा का अर्थ स्पष्ट है। ज्ञात का अर्थ दृष्टान्त, उदाहरण है। प्रस्तुत आगम चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत है । इस दृष्टि से प्रस्तुत आगम में चरित्र का संपोषण करने वाली घटनाओं, दृष्टान्तों और कथाओं का समावेश किया गया है। आगम साहित्य में कथा साहित्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए सरल और सरस माध्यम की आवश्यकता होती है, उस आवश्यकता की पूर्ति का सर्वोत्तम माध्यम है कथा । उसमें दर्शन, संस्कृति और लोक जीवन की अमूल्य धरोहर प्राप्त होती है। आगम कथा साहित्य पर अब तक अपेक्षित कार्य नहीं हो सका। यदि उस पर एक व्यवस्थित और योजनाबद्ध कार्य किया जाए तो भारतीय संस्कृति और जीवन शैली को नया प्रकाश मिल सकता है। प्रस्तुत आगम गद्यप्रधान है। गद्य के अनेक रूप हैं। कहीं-कहीं काव्यात्मक शैली का गद्य है तो कहीं-कहीं वर्णनात्मक शैली का । कहीं-कहीं समासान्त वाक्यों की भरमार है तो कहीं-कहीं मुक्त वाक्य हैं कहीं-कहीं पद्य भी हैं। विषय-वस्तु के प्रतिपादन की शैली का विचार करने पर एक निष्कर्ष स्पष्ट रूप से सामने आता है-आगम संकलन के समय कुछ विषयों के प्रतिपादन की एक निश्चित शैली बनाई गई थी। उस पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार नहीं किया जा सकता, केवल प्रतिपादन शैली की दृष्टि से विचार किया जा सकता है। Jain Education Intemational. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ (मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, भाष्य एवं परिशिष्ट-शब्दानुक्रम आदि सहित) वाचना-प्रमुख आचार्य तुलसी संपादक : विवेचक आचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती लाडनूं, राजस्थान - ३४१३०६ Jain Education Intemational Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : जैन विश्व भारती लाडनूं ३४१३०६ (राज.) - © जैन विश्व भारती, लाडनूं ISBN: 81-7195-089-2 सौजन्य सेठ नगीनभाई मंदुभाई जैन : पृष्ठ साहित्योद्धार फण्ड, गोपीपुरा सूरत प्रथम संस्करण जून, २००३ संख्या : 480 मूल्य: ५००/- रुपये U.S.$ 50 मुद्रक : श्री वर्धमान प्रेस, दिल्ली-३२ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAYADHAMMKAHAO (Prakrit Text, Hindi Translation and Bhāṣya [Critical Annotations] and Appendices Indices etc.) Vācana-Pramukha ACHARYA TULSI Editor and Commentator ACHARYA MAHAPRAJNA JAIN VISHVA BHARATI Ladnun, Rajasthan - 341306 (INDIA) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Publishers : Jain Vishva Bharati Ladnun-341306 (Raj.) © Jain Vishva Bharati, Ladnun ISBN: 81-7195-089-2 Courtsey : Sheth Naginbhai Manchhubhai Jain Sahityodhar Fund, SURAT First Edition : June, 2003 Pages : 480 Price: Rs. 500/ U.S.$ 50 Printed by: Shree Vardhman Press, Delhi-32 Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ॥१॥ पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं। सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥ जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से ॥ ॥२॥ विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुवं ॥ जिसने आगम-दोहन कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत। श्रुत-सद्ध्यान लीन चिर चिंतन, जयाचार्य को विमल भाव से॥ ॥३॥ पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ॥ जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में, मेरे मन में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से ॥ विनयावनत आचार्य तुलसी Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का जो अपने हाथों से उप्त और सिञ्चित द्रुम-निकुञ्ज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है। चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन-आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगें। संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ। मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया। अतः मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता हूं, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है संपादक : विवेचक आचार्य महाप्रज्ञ सहयोगी : अनुवादक, टिप्पण, परिशिष्ट आदि व संपादन साध्वी कनकश्री साध्वी श्रुतयशा साध्वी मुदितयशा साध्वी शुभ्रयशा साध्वी विश्रुतविभा मुनि हीरालाल वीक्षा और समीक्षा संविभाग हमारा धर्म है। जिन-जिनने इस गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभान समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान् कार्य का भविष्य बने। आचार्य तुलसी Jain Education Intemational Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय सानुवाद आगम ग्रन्थों की प्रकाशन योजना के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रकाशित आगम विद्वानों द्वारा समादृत हो चुके हैं१. दसवे आलियं ५. समवाओ २. सुयगडो (भाग १, भाग २) ६. अणुओगदाराई ३. उत्तरज्झयणाणि ७. नन्दी ४. ठाणं इसी श्रृंखला में ज्ञातधर्मकथा का प्रस्तुत प्रकाशन पाठकों के हाथों में पहुंच रहा है। ___मूल संशोधित पाठ और हिन्दी अनुवाद, प्रत्येक अध्ययन के विषय प्रवेश की दृष्टि से आमुख और विस्तृत टिप्पणियों से अलंकृत ज्ञातधर्मकथा का यह प्रकाशन आगम प्रकाशन के क्षेत्र में अभिनव स्थान प्राप्त करेगा, ऐसा लिखने में संकोच नहीं होता। प्रस्तुत आगम में अध्ययनों के सानुवाद और सटिप्पण संयोजना के पश्चात् छह परिशिष्टों का समाकलन किया गया है जो इस प्रकार १. संक्षिप्त पाठ पूर्त स्थल पूर्ति स्थल २. गाथानुक्रमणिका ३. वर्णकवाची आलापक ४. विशेष शब्दानुक्रमणिका ५. विशेष नामानुक्रमणिका ६. सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची प्रस्तुत प्रकाशन के पूर्व सानुवाद आगम प्रकाशन की योजना के अन्तर्गत आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा रचित आचारांगभाष्यम् प्रकाशित हो चुका है। उक्त प्रकाशन के बाद भगवई (विआहपण्णत्ती, खण्ड १, २) मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य तथा परिशिष्ट, जिनदासगणि कृत चूर्णि एवं अभयदेवसूरि कृत वृत्ति सहित प्रकाशित हुआ। पूर्व प्रकाशनों की तरह ही वाचना-प्रमुख गणाधिपति तुलसी के तत्त्वावधान में प्रस्तुत एवं आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा सम्पादित ये प्रकाशन विद्वानों द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसित हुए हैं। प्रस्तुत आगम के प्रस्तुतीकरण में इन साध्वियों का प्रचुर योगदान रहा है-साध्वी श्रुतयशाजी, साध्वी मुदितयशाजी, साध्वी शुभ्रयशाजी और साध्वी विश्रुतविभाजी। प्रस्तुत आगम की वीक्षा समीक्षा में मुनि श्री हीरलालजी का अच्छा योगदान रहा है। लाडनूं १७ जून, २००३ भागचंद बरडिया मंत्री जैन विश्व भारती Jain Education Intemational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय 'नायाधम्मकहाओ' धर्मकथानुयोग का प्रमुख ग्रन्थ है। इसमें कथा के माध्यम से अध्यात्म के महत्त्वपूर्ण रहस्यों का अनावरण हुआ है। इसके सम्पादन में अनुवाद, टिप्पण और परिशिष्ट की समायोजना की गई है। प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ में आमुख है और इसकी समाप्ति छह परिशिष्टों के साथ हुई है। सहयोगानुभूति हमारी इस व्यवस्था के प्रमुख गणाधिपति श्री तुलसी रहे हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन है। हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापन कर्म के अनेक अंग हैं-पाठ का अनुसंधान, भाषान्तर, समीक्षात्मक अध्ययन आदि-आदि। इन सभी प्रवृत्तियों में गुरुदेव का हमें सक्रिय योग, मार्गदर्शन और प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है। यही हमारा इस गुरुतर कार्य में प्रवृत्त होने का शक्तिवीज है। इसके अनुवाद का कार्य साध्वी कनकश्री को सौंपा गया था। उन्होंने पूर्ण निष्ठा और श्रम के साथ अनुवाद का कार्य सम्पन्न लगा व पर्याप्त परिशोधन किया गया। परिशोधन कार्य में साध्वी श्रुतयशा, साध्वी मुदितयशा, साध्वी शुभ्रयशा व साध्वी विश्रुतविभा ने काफी श्रम किया। मुनि हीरालाल जी व मुनि धनंजयकुमार जी की संलग्नता भी उपयोगी रही। आचार्य महाप्रज्ञ १७ जून, २००३ उधना Jain Education Intemational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका समालोच्य आगम द्वादशाङ्गी का छठा अंग है। नंदी और समवायाङ्ग के अनुसार इसका नाम है 'नायाधम्मकहाओ'।' नायाधम्मकहाओ में दो पद हैं-१. नाया, २. धम्मकहाओ। दोनों पद बहुवचनान्त हैं। प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कन्ध हैं। नाया का सम्बन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध से है। धर्मकथा का सम्बन्ध दूसरे श्रुतस्कन्ध से है। धर्मकथा का अर्थ स्पष्ट है। ज्ञात का अर्थ दृष्टान्त, उदाहरण है। तत्त्वार्थ भाष्य, भाष्यनुसारिणी टीका, नन्दिवृत्ति इन सबमें ज्ञात शब्द है। सिद्धसेनगणी ने ज्ञात का अर्थ दृष्टान्त किया है। नंदी चूर्णिकार ने ज्ञात का अर्थ आहरण अथवा दृष्टान्त किया है। मलयगिरि ने ज्ञात धर्मकथा के दो अर्थ किए हैं-१. उदाहरण प्रधान धर्मकथा, २. ज्ञात का अर्थ ज्ञाताध्ययन किया है और इसका सम्बन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध से बतलाया है। धर्मकथा का सम्बन्ध दूसरे श्रुतस्कन्ध से है। उक्त उदाहरणों में ज्ञात शब्द का अर्थ दृष्टान्त और उदाहरण किया है। दिगम्बर परम्परा में 'नायाधम्मकहाओ' का नाम णाहधम्मकहा और ज्ञातृधर्मकथा मिलता है। ज्ञात शब्द के आधार पर अनेक विद्वानों ने 'ज्ञातपुत्र महावीर की धर्मकथा' यह अर्थ किया है। 'नाथ' पद का आधार भगवान का वंश माना गया है। दिगम्बर साहित्य में भगवान का वंश 'नाथ' रूप में उल्लिखित है। 'ज्ञात' पद भी सम्भवतः वंश का वाचक रहा है। वंश के आधार पर महावीर की धर्मकथाएं यह अनुमान किया गया है ऐसा प्रतीत होता है। समवायाङ्ग और नंदी के आधार पर यह स्पष्ट है 'ज्ञात' शब्द दृष्टान्तभूत व्यक्तियों के अर्थ में प्रयुक्त है। इसीलिए उनके नगर, उद्यान आदि का वर्णन किया गया है। समवायाङ्ग और नंदी में ज्ञातधर्म कथा का विस्तृत वर्णन है। उसके अनुसार प्रस्तुत आगम के अध्ययन संक्षेप में दो प्रकार के बतलाए गए हैं १. चरित (घटित) २. कल्पित १. (क) नंदी, सू. ८० (ख) समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सू. ८८ (क) तत्त्वार्थ भाष्य, सू. २० (ख) भाष्यानुसारिणी वृत्ति, पृ. ६१ (ग) नंदी वृत्ति पत्र २३०, २३१ ३. भाष्यानुसारिणी वृत्ति, पृ. ६१ ज्ञाताः दृष्टान्ताः। ४. नंदी चूर्णि, पृष्ठ १०३ ५. नंदी, मलयगिरीया वृत्ति पत्र २३०, २३१ ६. कषायपाहुड़ १, पृष्ठ ६४ (क) समवाओ, प्रकीर्णक समवाय ६४, नायाधम्मकहासु णं नायाणं नगराई, उज्जाणाई, चेइयाई वणसंडाई... (ख) नंदी, सूत्र ८६ वही Jain Education Intemational Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (x) प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन हैं१. उक्खित्तणाए २. संघाडे ३. अंडे ४. कुम्मे ५. सेलगे ६. तुंबे ७. रोहिणी ८. मल्ली ६. मायंदी १०. चन्दिमा ११. दावद्दव १२. उदगणाए १३. मंडुक्के १४. तेयली १५. नंदीफले १६. अवरकंका १७. आइण्णे १८. सुंसुमा १६. पुंडरीए द्वितीय श्रुतस्कन्ध की धर्मकथाओं की संख्या विस्तार से उपलब्ध है। धर्मकथा के दस वर्ग हैं। प्रत्येक धर्मकथा में पांच-पांच सौ आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक आख्यायिका में पांच-पांच सौ उप-आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक उप-आख्यायिका में पांच-पांच सौ आख्यायिक उपाख्यायिकाएं हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इसमें साढ़े तीन करोड़ आख्यायिकाएं हैं।' ये आज अनुपलब्ध हैं। अनुपलब्ध क्यों हुई ? यह एक विमर्शनीय बिन्दु है। भगवती जैसा विशालकाय आगम उपलब्ध है और ज्ञाता के उन्नीस अध्ययन उपलब्ध हैं। फिर धर्मकथाएं अनुपलब्ध क्यों हुई ? इस प्रश्न का उत्तर सम्भावना और अनुमान के आधार पर ही दिया जा सकता है। उत्तरवर्ती जैन आचार्यों का जितना आकर्षण द्रव्यानुयोग और चरणकरणानुयोग में रहा उतना गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग में नहीं रहा। उस समय लेखन की समस्या थी। उस स्थिति में कथा साहित्य की समस्त और असमस्त पदावलि को स्मृति में रखना सम्भव नहीं रहा। साढ़े तीन करोड़ कथाओं को स्मृति में रखना सरल काम नहीं था। इसलिए धर्मकथा का बृहत्तम भाग विलुप्त हो गया। द्वादशाङ्गी के विलोप की समस्या सामने थी अतः उस समय चयन करना आवश्यक हो गया था कि प्राथमिकता किसको दी जाए। सम्भवतः द्रव्यानुयोग और चरणकरणानुयोग को प्राथमिकता दी गई और शेष दो अनुयोगों की उपेक्षा की गई। इसलिए धर्मकथाएं विलुप्त हो गई। प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययनों में चरित्र और दृष्टान्त का वर्गीकरण इस प्रकार है : चरित्र दृष्टान्त १. उक्खित्तणाए २. संघाडे ५. सेलगे ३. अंडे ४. कुम्मे ८. मल्ली ६. तुम्बे ७. रोहिणी १०. चन्दिमा ६. मायंदी ११. दावद्दव १२. उदगणाए १५. नंदीफले १३. मंडुक्के १४. तेयली १७. आइण्णे १६. अवरकंका १८. सुंसुमा १६. पुंडरीए प्रतिपाद्य-प्रत्येक आगम का प्रतिपाद्य है अध्यात्म। भगवान महावीर का दर्शन आत्मा की परिक्रमा कर रहा है। उक्खित्तणाए-मेघकुमार विचलित हो गया। आत्मसंबोध के द्वारा उसका स्थिरीकरण किया गया। यदि भगवान महावीर उसे पुनर्जन्म की स्मृति (जातिस्मृति) नहीं कराते और मेघकुमार को हाथी के जन्म का स्मरण नहीं होता तो उसका स्थिरीकरण करना कठिन होता। पुनर्जन्म की स्मृति वैराग्य का बहुत बड़ा हेतु है। १. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र ६४ Jain Education Intemational Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xi) संघाडे-आत्मा अदृश्य है और शरीर दृश्य है आत्मा स्व है और शरीर पर है, पुद्गल है। चेतन पुद्गल के साथ जीए और उसके प्रति आसक्ति न बने यह कैसे सम्भव है। इस असम्भव को सम्भव बनाने के लिए धन सेठ और विजय तस्कर का दृष्टान्त बहुत प्रभावी है। अपने पुत्र का वध करने वाले को भोजन का विभाग देना यह कल्पना से परे की घटना है। पर अशक्यता की स्थिति में धन ने वैसा किया इस घटना में अशक्यता है आसक्ति नहीं। शरीर को पोषण देना आवश्यक है। पोषण, स्वाद और आसक्ति के बीच बहुत सूक्ष्म रेखा है। खोड़े में बंधे हुए दो व्यक्तियों के दृष्टान्त से वह रेखा बहुत स्पष्ट हो जाती है। वृत्ति में उद्धृत गाथा में इस विषय का बहुत सुन्दर निरूपण किया गया है। सिवसाहणेसु आहार-विरहिओ जं न वट्टए देहो। तम्हा धणो व्व विजयं, साहू तं तेण पोसेज्जा॥ अंडे-श्रद्धा एक शक्ति है। घनीभूत इच्छा श्रद्धा बन जाती है। उसके द्वारा अध्यात्म की यात्रा में काफी सुविधा मिलती है। संशयालु व्यक्ति की अध्यात्म यात्रा निर्बाध नहीं होती। वन मयूरी के दो अंडों के दृष्टान्त से इस सचाई को उजागर किया गया है। कुम्मे-अध्यात्म का प्रमुख सूत्र है गुप्ति । वे तीन हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति। अध्यात्म का विकास वही व्यक्ति कर सकता है जो गुप्ति की साधना करता है। उसकी साधना के बिना आध्यात्मिक विकास में बहुत सारी समस्याएं आती हैं। उन समस्याओं को दो कछुओं के दृष्टान्त के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। कूर्म के दृष्टान्त का प्रयोग आगम साहित्य में भी मिलता १. कुम्मोव्व अलीणपलीण गुत्तो। गीता में भी कछुए के दृष्टान्त का उल्लेख हुआ है। २. यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।२ । ___ इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ सेलगे-अध्यात्म की साधना का अनुत्तर सूत्र है अप्रमाद। प्रस्तुत अध्ययन राजर्षि शैलक की प्रमत्त और अप्रमत्त दोनों अवस्थाओं का समीचीन निदर्शन है। इस अध्ययन में थावच्चा पुत्र के साथ शुक परिव्राजक का संवाद विनयमूलक धर्म और शौचमूलक धर्म की स्थिति पर बहुत प्रकाश डालता है। ___ तुम्बे-लेप अथवा आसक्ति नीचे ले जाती है। निर्लेप अथवा अनासक्ति की अवस्था ऊपर ले जाती है। तुम्बे के दृष्टान्त से इन दोनों अवस्थाओं का सम्यक् सम्बोध मिलता है। रोहिणी-प्रस्तुत अध्ययन में चार वधुओं की मनोवृत्ति के माध्यम से मानवीय मनोदशा का सम्यक् निरूपण किया गया है। मल्ली-मल्ली के अध्ययन से दो निष्कर्ष निकलते हैं१. अध्यात्म की साधना करने वाले व्यक्ति को माया शल्य से बचना चाहिए। २. अशौच भावना के द्वारा वैराग्य का विकास किया जा सकता है। मायंदी-इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है इन्द्रिय विजय। इन्द्रिय लोलुपता के कारण जिनरक्षित ने अकाल मृत्यु को प्राप्त किया। इन्द्रिय विजय के कारण जिनपालित अपने घर पहुंच गया। चन्दिमा-चन्द्रमा की कृष्ण पक्षीय और शुक्ल पक्षीय अवस्थाओं के द्वारा साधना के दो पक्षों का निर्देश किया गया है। शान्ति आदि दश धर्मों की आराधना करने वाला शुक्ल पक्ष की तरह उत्तरोत्तर प्रकाशमय बनता है। उनकी आराधना नहीं करने वाला कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा की भांति उत्तरोत्तर हीन कला वाला हो जाता है। १. दसवेआलियं ८/४० २ गीता 2/07 Jain Education Intemational Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xii) दावद्दव - प्रस्तुत अध्ययन में सहिष्णुता के आधार पर आराधना और विराधना के विकल्प बतलाए गए हैं। उदगे - प्रस्तुत अध्ययन में परिणामवाद अथवा पर्याय परिवर्तन के सिद्धान्त की स्थापना की गई है। मण्डुक्के - एक मनुष्य की दुर्गति और एक मेंढ़क की सुगति । एक ही जीव की दो अवस्थाएं इस अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य है। तेयलिपुत्ते-वैराग्य के अनेक कारण हैं- अपमान तिरस्कारपूर्ण जीवन दशा भी वैराग्य का कारण बनती है । तेतली अध्ययन में इस सत्य को पढ़ा जा सकता है। नंदीफले- अनिष्ट परिणाम को जानकर भी आत्मनियंत्रण के अभाव में इन्द्रिय लोलुपता व्यक्ति को अनिष्ट की ओर ले जाती है। आत्म नियंत्रण की स्थिति में वह बच जाता है। प्रस्तुत अध्ययन में 'जहाकिंपागफलाणं'...इसकी घटनात्मक व्याख्या उपलब्ध है । अवरकंका - द्रौपदी की पूर्वकथा धर्मरुचि अणगार की अहिंसावृत्ति और वासुदेव कृष्ण का दृढ़संकल्प, प्रस्तुत अध्ययन के ये प्रमुख निष्कर्ष हैं। आइण्णे- अश्वों की दो प्रकार की मनोदशा के माध्यम से मुनि की दो प्रकार की मनोदशा का चित्रण किया गया है। प्रासंगिक रूप में नौका- यात्रा का बड़ी सूक्ष्मता से निरूपण किया गया है। सुसुमा- इस अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य आहार की आवश्यकता और उसके प्रति होनेवाली आसक्ति के मध्य सूक्ष्म भेदरेखा खींचना है। पुंडरीए - जीवन का सन्ध्याकाल समग्र जीवन की कसौटी है । अन्तिम समय में पदार्थ के प्रति जितनी अनासक्ति उतनी ही सद्गति । इस अध्ययन का यह निष्कर्ष सन्ध्याकालीन साधना की ओर विशिष्ट ध्यान आकर्षित करता है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम अध्ययन काली का जीवनवृत्त, आचार की शिथिलता परिणामतः असुरकुमार देव की स्थिति में उत्पत्ति । अग्रिम अध्ययनों में संक्षिप्त विवरण और काली की भांति जीवनवृत्त । कथा शास्त्रीय दृष्टिकोण ठाणं में चार प्रकार की कथा बतलाई गई है १. आक्षेपणी २. विक्षेपणी ३. संवेजनी ४. निर्वेदनी आक्षेपणी कथा के चार प्रकार हैं १. आचार आक्षेपणी में आचार का निरूपण होता है। २. व्यवहार आक्षेपणी में व्यवहार - प्रायश्चित्त का निरूपण होता है । ३. प्रज्ञप्ति आक्षेपणी में संशयग्रस्त श्रोता को समझाने के लिए निरूपण होता है। 1 ४. दृष्टिपात आक्षेपणी में श्रोता की योग्यता के अनुसार विविध नय दृष्टियों से तत्त्वनिरूपण होता है । विक्षेपणी कथा के चार प्रकार हैं १. अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन कर दूसरे के सिद्धान्त का कथन करना । २. दूसरों के सिद्धान्त का प्रतिपादन कर अपने सिद्धान्त की स्थापना करना । ३. सम्यकवाद का प्रतिपादन कर मिथ्यावाद का प्रतिपादन करना । ४. मिथ्यावाद का प्रतिपादन कर सम्यक्वाद की स्थापना करना । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xiii) संवेजनी कथा के चार प्रकार हैं १. मनुष्य जीवन की असारता दिखाना। २. देव तिर्यंच आदि के जन्मों की मोहमयता और दुःखमयता बताना। ३. अपने शरीर की अशुचिता का प्रतिपादन करना। ४. दूसरे के शरीर की अशुचिता का प्रतिपादन करना। निर्वेदनी कथा के चार प्रकार हैं १. वर्तमान के सुचीर्ण अथवा दुश्चीर्ण कर्म का वर्तमान में फल देने का निरूपण करने वाली कथा। २. वर्तमान के सुचीर्ण अथवा दुश्चीर्ण कर्म का भविष्य में फल देने का निरूपण करने वाली कथा। ३. पूर्वजन्म के सुचीर्ण अथवा दुश्चीर्ण कर्म का पूर्वजन्म में फल देने का निरूपण करने वाली कथा। ४. पूर्वजन्म के सुचीर्ण अथवा दुश्चीर्ण कर्म का वर्तमान में फल देने का निरूपण करने वाली कथा। ठाणं में कथा के तीन प्रकार भी बतलाए गए हैं-१. अर्थकथा, २. धर्मकथा, ३. कामकथा। प्रस्तुत आगम और अनुयोग प्रस्तुत आगम चरणकरणानुयोग के अन्तर्गत है। इस दृष्टि से प्रस्तुत आगम में चरित्र का संपोषण करने वाली घटनाओं, दृष्टान्तों और कथाओं का समावेश किया गया है। प्रस्तुत आगम में वर्णित दृष्टान्तों और कथाओं को स्थानांग के उक्त दोनों सन्दर्भो में देखना उपयोगी होगा। आगम साहित्य में कथा साहित्य का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए सरल और सरस माध्यम की आवश्यकता होती है, उस आवश्यकता की पूर्ति का सर्वोत्तम माध्यम है कथा। उसमें दर्शन, संस्कृति और लोक जीवन की अमूल्य धरोहर प्राप्त होती है। आगम कथा साहित्य पर अब तक अपेक्षित कार्य नहीं हो सका। यदि उस पर एक व्यवस्थित और योजनाबद्ध कार्य किया जाए तो भारतीय संस्कृति और जीवन शैली को नया प्रकाश मिल सकता है। मुनि कमलजी ने आगमों का वर्गीकरण किया, उसमें एक खण्ड धर्मकथानुयोग है। उपाध्याय पुष्कर मुनि, अमर मुनि, मुनि छत्रमल जी आदि अनेक लेखकों ने कथाकोषों का निर्माण किया है। संकलन और सामग्री की दृष्टि से वे पर्याप्त हैं किन्तु कथातत्त्व के विश्लेषण की दृष्टि से एक नया चिन्तन करना आवश्यक है। नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि तथा टीका आदि व्याख्याग्रन्थों में कथाओं के संकेत और विस्तार विपुल परिमाण में उपलब्ध हैं। उन पर कोई विधिवत् कार्य नहीं हुआ है। उत्तराध्ययन आदि आगमों में भी अनेक कथाएं हैं। धर्मकथानुयोग के उदाहरण में भी प्रमुख रूप से उत्तराध्ययन 'इसिभासियाइं का उल्लेख मिलता है। शैली प्रस्तुत आगम गद्यप्रधान है। गद्य के अनेक रूप हैं। कहीं-कहीं काव्यात्मक शैली का गद्य है तो कहीं-कहीं वर्णनात्मक शैली का। कहीं-कहीं समासान्त वाक्यों की भरमार है तो कहीं-कहीं मुक्त वाक्य हैं। कहीं-कहीं पद्य भी हैं। वृत्तिकार ने नवें अध्ययन की वृत्ति में छह गीतकों और दो रूपकों का उल्लेख किया है।३।। विषय-वस्तु के प्रतिपादन की शैली का विचार करने पर एक निष्कर्ष स्पष्ट रूप से सामने आता है-आगम संकलन के समय कुछ विषयों के प्रतिपादन की एक निश्चित शैली बनाई गई थी। उस पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार नहीं किया जा सकता, केवल प्रतिपादन शैली की दृष्टि से विचार किया जा सकता है। पांचवें अध्ययन के ४५वें सूत्र में निर्ग्रन्थ प्रवचन का प्रयोग प्रासंगिक नहीं है। भगवान अरिष्टनेमि के समय में अर्हत् प्रवचन का प्रयोग किया जाता था। निर्ग्रन्थ प्रवचन का प्रयोग केवल महावीर शासन के लिए ही किया जा सकता है। इसी सूत्र में १. ठाणं ३/४१६ २. देखें परिशिष्ट सं. १ ३. ज्ञाता वृत्ति, पत्र १६८/१६९ Jain Education Intemational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xiv) ‘पंचाणुव्वइयं गिहिधम्मं' का प्रयोग है। यह भी शैलीगत पाठ है । वास्तविकता पर विचार करें तो यहां 'चाउज्जामं गिहिधम्मं' पाठ होना चाहिए। भगवान अरिष्ठनेमि के समय चातुर्यामिक धर्म का प्रवर्तन था । इसलिए 'चाउज्जामियं गिहिधम्मं' पाठ अधिक संगत है। इस विषय में 'रायपसेणइयं' का एक विमर्श अधिक उपयोगी होगा - कुमार श्रमण केशी ने सारथि चित्त को चातुर्यामिक धर्म का उपदेश दिया।' सारथि चित्त ने द्वादशविध (पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत ) गृहधर्म को स्वीकार किया । द्वादशविधधर्म प्रतिपादन ही नहीं तो फिर स्वीकृति कैसे हुई ? इस विरोधाभास का हेतु शैलीगत पाठ का स्वीकार है । औपपातिक सूत्र में शैलीगत पाठों का संग्रह है। संक्षिप्त पाठ औपपातिक से पूरे किए जाते हैं। यदि पाठ पूर्ति के समय ऐतिहासिक दृष्टि से काम लिया जाता तो यह समस्या पैदा नहीं होती, यह विरोधाभास सामने नहीं आता । रायपसेणइयं के इस प्रसंग से प्रस्तुत आगम के विषय में हमारी दृष्टि स्पष्ट हो जाती है कि निर्ग्रन्थ, द्वादशविध गृहधर्म आदि प्रयोग शैलीगत पाठ को स्वीकार करने के कारण आए हुए हैं। शुक परिव्राजक का वर्णन शैलीगत वर्णन है। इसमें अथर्ववेद और षष्टितंत्र का उल्लेख है । ये दोनों उत्तरकालीन ग्रन्थ हैं। दूसरी समस्या यह है कि सांख्य दर्शन श्रमण परम्परा का दर्शन है इसलिए उसके साथ वेद का उल्लेख विचारणीय है । ३ पाठ विमर्श प्रस्तुत आगम का वर्तमान परिमाण बहुत छोटा है। प्राचीन काल में यह विशालकाय आगम था । समवाओ, नंदी और कषायपाहुड़ में इसका विवरण उपलब्ध होता है। नंदी की टीका में इसका पद परिमाण ५ लाख ७६ हजार बतलाया गया है । कषायपाहुड़ की जयघवला टीका में प्रस्तुत आगम का पद परिमाण ५ लाख ५६ हजार बतलाया गया है। प्रतिक्रमणत्रयी की प्रभाचन्द्रसूरि कृत टीका में प्रस्तुत आगम के अध्ययन १६ ही बतलाए गए हैं किन्तु उनके नाम और विषय भिन्न प्रकार के हैं। एऊणविसाए णाहाज्झयणेसु एकोनविंशातिनाथाध्ययनेषुः तद्यथा गाथा उक्कणा- कुम्मंड - रोहिणि- सिस्स - तुंब-संघादे । मादंगिमल्लि - चंदिम. तावद्देवय-तिक-तलाय किण्णे (य) ॥१॥ सुसुके य अवरकंके गंदीफलमुदगणाह-मंडूके । एतो य पुंडरीगो णाहज्झणाणि उगवीसं ॥२॥ एताः सर्वाः धर्मकथाः। तथाहि - उक्कोऽणागः श्वेतहस्ती, अस्य कथा - उत्तरापथे कनकपुरे राजा कनकः, कनका महाराज्ञी । पुत्रो नागकुमारः तपो गृहीत्वा विहरमाणोऽटव्यां दावानलेन दह्यमानः समाधिना मृत्वाऽच्युतेन्द्रो जातः । तदर्धदग्धकलेवरं दृष्ट्वा तुङ्गभद्रो नाम तत्रत्यो भिल्लो जातपश्चात्तापो मृत्वा तत्रैव श्वेतगजो जातः । सोऽच्युतेन्द्रेण जिनधर्मं ग्राहितः । पुनर्दावानलेन दह्यमानं शशकं स्वपादतले स्थितं रक्षित्वा दह्यमानोऽपि दृढव्रतो भूत्वा मृत्वा देवो जातः । कुम्म, कूर्माख्यानम्, यथा कूर्मेण मुख-चरणसंकोचं कृत्वाऽऽत्मनो ब्राह्मणाद् मरणं निवारितं तथा मुनिभिरपि पञ्चेन्द्रियसंकुचितैर्मरणपरम्परा निवारयितव्या । अंडय, अण्डजकथा पञ्चप्रकारा, तद्यथा - कुक्कुटकथा - १ । माताप्येकः पिताप्येकः इति तापसफल्लिकास्थितशुककथा-२ । चाणक्यव्याकरणे वेदकशुककथा - ३ । अगन्धनसर्पकथा-४ । हंसयूथबन्धमोचनकथा-५ । रोहिणी, स्वपुत्रबलदेवेन सह रोहिणी तिष्ठतीति लोकापवादं श्रुत्वा रोहिण्या तदा भणितम् - ' यद्यहं शुद्धा तदा यमुना नदी सौरीपुरं वेष्टित्वा पूर्वाभिमुखं वहतु ' इति । तन्माहात्म्यात् तथैव जातम् । १. रायपसेणइयं, सू. ६६३ २. वही, सू. ६६५ का फुटनोट ३. ज्ञाता सूत्र १/५/५२ ४. नंदी मलयगिरीया वृत्ति पत्र - २३१ ५. कषायपाहुड़ १ पृ. ६४ णहधम्मकहाए छप्पण्णसहस्साहिय पंचलक्खमेत्तपदाणि । Jain Education Intemational Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xv) सिस्स, शिष्यकथा यथा चेलिनीपुत्रवारिषेणप्रतिबोधित पुष्पडालमुनिकथा। तुंब, रोषेण दत्तकटुकतुम्बकभोजनमुनिकथा। संघादे, अस्य कथा-कौशाम्बीनगर्यामिन्द्रदत्तादयो द्वात्रिंशदिभ्याः, तेषां समुद्रदत्तादयो द्वात्रिंशत् पुत्राः परस्परमित्रत्वमुपगताः सम्यग् दृष्ट्यः केवलिसमीपेऽतिस्वल्पं निजजीवितं ज्ञात्वा तपो गृहीत्वा यमुनातीरे पादोपयानमरणेन स्थिताः। अतिवृष्टौ जातायां जलप्रवाहेण यमुनाहूदे सर्वेऽपि ते पतिताः । परमसमाधिना कालं कृत्वा ते स्वर्गं गताः। मादगिमल्लि, मातङ्गिमल्लिकथा, यथा वज्रमुष्टिमहाभटभार्यायाः मातङ्गिनामायाः मल्लिपुष्पमालाभ्यन्तरस्थितसर्पदष्टायाः कथा। चन्दिम, चन्द्रवेधकथा। तावद्देवथ, तावद्देवतोपद्रवदेशोत्पन्नघोटिकहरणसगरचक्रवर्तिकथा। तलाय, तडागपल्लयामेकवृक्षकोटरस्थिततपस्विनो गन्धर्वाराधनाकथितकथा। किण्णे, व्रीहिमर्दनस्थित कर्जकपुरुषसत्यकथा। सुसुके य, आराधनाकथितशुशुमारहृदनिक्षिप्तपाषाणकथा। अवरकंके, अवरकङ्कानामपत्तनोत्पन्नाजनचोरकथा। णंदीफल, अटव्यां (बी?) स्थितबुभुक्षापीडितधन्वन्तरिविश्वानुलोमभृत्यानीतकिम्पाकफलकथा। उदगणाह, उदकनाथकथा, यथा राजामात्यसमक्षगडुलपानीयस्वच्छकरणकथा। मण्डूके, उद्यानवनतडागसमुत्पन्नजातिस्मरणमण्डूककथा। पुंडरीगो, पुंडरीकराजपुत्र्याः कथा। अथवा गाथागुणजीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य। एउणवीसा एदे णाहज्झाणा मुणयेव्वा ॥ अथवा गाथाणव केवललद्धीओ कम्मखयजा हवंति दस चेव। णाहज्झाणा एते एउणवीसा वियाणाहि ॥ कर्मक्षयजा घातिक्षयजा दशातिशयाः एतेषामकाले पठनादौ यो दोषस्तस्य प्रतिक्रमणम्"प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी प्रभाचन्द्राचार्यविरचितटीका सहिता, पृ. ५१-५४ प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी में निर्दिष्ट ज्ञाता के अध्ययनों के नाम उनकी विषय-वस्तु का तुलनात्मक अध्ययन करने पर प्रस्तुत आगम के प्राचीन रूप के विषय में एक नई कल्पना उद्भूत होती है। पाठ के विषय में विमर्श मूलपाठ की ग्रन्थमाला में किया गया है। फिर भी कुछ शब्दों का विमर्श अपेक्षित है। १/१/२०४ में 'कडाइ' शब्द का प्रयोग है। इसका प्रयोग भगवती (२/६६) में भी मिलता है। इसका अर्थ 'कृतयोग्य' अथवा कृतयोगी किया जाता है। ये दोनों 'कडाइ' के अर्थ हो सकते हैं किन्तु रूपान्तर नहीं हो सकते। इसका रूपान्तर 'कृतयाजी' होना चाहिए। सूत्र १/१/१२५ में ‘चउफ्फलाए' शब्द का प्रयोग है। नाई हजामत करने के समय मुखवस्त्रिका बांधते हैं। प्रस्तुत सूत्र में 'मुखवस्त्रिका' चार पट वाली बतलाई गई है। भगवती में इसी प्रसंग में आठ पट वाली मुखवस्त्रिका बतलाई गई है। औपपातिक में अजियं जिणाहि, जियं पालयाहि, इतना ही पाठ है। प्रस्तुत सूत्र में इसके अतिरिक्त इतना पाठ और है। अजियं जिणाहि सत्तुपक्खं जियं च पालेहि मित्तपक्खं। यह अतिरिक्त पाठ वाचना भेद के कारण हुआ है और उत्तरवर्ती काल में दोनों पाठों का मिश्रण हो गया। पाठ के विषय में मीमांसा के अनेक स्थल हैं। उनका निर्देश मूलपाठ के संस्करण में किया गया है। आचार्य महाप्रज्ञ १. २. ओवाइयं, सूत्र ६८ ज्ञाता, सू. १/१/११८ Jain Education Interational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पृष्ठ " १८ " ८७ ३१ गाथा व सूत्र प्रथम अध्ययन : उत्क्षित ज्ञात उत्क्षेप गाथा सूत्र १-६ संगहणी गाथा मेघ के नगर-परिवार आदि का वर्णन-पद " ११-१७ धारिणी का स्वप्न-दर्शन-पद श्रेणिक को स्वप्न-निवेदन-पद श्रेणिक का स्वप्न महिमा निदर्शन पद " २० धारिणी का स्वप्न-जागरिका-पद स्वप्न-पाठक-नियन्त्रण पद श्रेणिक द्वारा स्वप्नफल-पृच्छा पद स्वप्न-फल-कथन-पद संग्रहणी गाथा स्वप्न पाठक-विसर्जन-पद श्रेणिक द्वारा स्वप्न-प्रशंसा-पद धारिणी का दोहद-पद धारिणी का चिन्ता-पद परिचारिकाओं द्वारा चिन्ता का कारण-पृच्छा-पद परिचारिकाओं द्वारा श्रेणिक को निवेदन-पद " ३६ श्रेणिक द्वारा चिन्ता का कारण पृच्छा-पद " ४०-४४ धारिणी द्वारा चिन्ता-कारण-निवेदन-पद " ४५ श्रेणिक द्वारा आश्वासन-पद कुमार अभ्य द्वारा श्रेणिक की चिन्ता का ४७-४८ कारण पृच्छा-पद श्रेणिक द्वारा चिन्ता-कारण निवेदन पद " ४E अभय द्वारा आश्वासन पद "५०-५१ अभय द्वारा देवाराधना-पद ५२-५३ - देव का आगमन पद " ५४-५८ देव का अकालमेघ-विकुर्वणा-पद " ५६-६६ अभय द्वारा देव का प्रतिविसर्जन-पद " ७०-७१ धारिणी का गर्भचर्या-पद " ७२ मेघ का जन्म-वर्धापन-पद " ७३-७५ ३४ गाथा व सूत्र मेघ का जन्मोत्सव-करण-पद सूत्र ७६-८० मेघ का नाम आदि (संस्कार) करण-पद मेघ का लालन-पालन पद ८२-८३ मेघ का कलाग्रहण-पद ८४-८८ मेघ का पाणिग्रहण-पद ८६-६० प्रीतिदान-पद ६१-६३ महावीर का समवसरण-पद ६४. मेघ की जिज्ञासा-पद ६५-६६ कंचुकी पुरुष का निवेदन-पद मेघ का भगवान के समीप गमन-पद " ६८-६६ धर्म-देशना-पद " १०० मेघ का प्रव्रज्या-संकल्प-पद " १०१ मेघ का माता-पिता से निवेदन-पद " १०२-१०४ धारिणी की शोकाकुलदशा-पद १०५ धारिणी और मेघ का परिसंवाद-पद " १०६-११३ मेघ का एक दिवसीय-राज्य-पद " ११४-१२० मेघ के निष्कमण प्रायोग्य उपकरण-पद " १२१-१२३ नापित के द्वारा मेघ का अग्रकेश-कल्पन-पद " १२४-१२७ मेघ का अलंकरण-पद मेघ का अभिनिष्क्रमण महोत्सव-पद " १२६-१४४ शिष्य-भिक्षा-दान-पद " १४५-१४८ मेघ द्वारा प्रव्रज्या-ग्रहण-पद " १४६-१५१ मेघ का मनः संक्लेश-पद " १५२-१५४ मेघ को संबोध-पद . १५५ भगवान द्वारा सुमेरुप्रभ-भव का निरूपण-पद " १५६-१६२ भगवान द्वारा मेरुप्रभ-भव का निरूपण-पद " १६३-१७३ मेरुप्रभ द्वारा मण्डल-निर्माण-पद " १७४-१७७ दावानल से भीत श्वापदों का मण्डल में "१७८-१७६ प्रवेश-पद मेरुप्रभ का का पादोत्क्षेप-पद " १८०-१८७ उस संदर्भ में होने वाली तितिक्षा का "१८८-१८६ उपदेश-पद ५-३८ " १२८ १८ १८ १६ १६ २१ २३ ५२ २३ २४ Jain Education Intemational Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघ का जातिस्मरण-पद मेघ का समर्पणपूर्वक पुनः प्रव्रज्या पद मेम का निर्ग्रन्धचर्या-पद मेघ का भिक्षु प्रतिमा-पद मेघ का गुणरत्न संवत्सर-पद मेघ की शरीर-दशा का वर्णन-पद मेघ का विपुल पर्वत पर अनशन-पद मेघ का समाधि मरण-पद स्थविरों द्वारा मेघ के आचार-भाण्ड का समर्पण-पद गौतम के प्रश्न का भगवान द्वारा उत्तर-पद निक्षेप-पद वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमनगाथा टिप्पण दूसरा अध्ययन : संघाटक उत्क्षेप-पद धन सार्थवाह-पद विजय- तस्कर-पद भद्रा का संतान- मनोरथ-पद भद्रा के देवदत्त पुत्र का प्रसव-पद देवदत्त का क्रीड़ा पद देवत्त का अपहरण पद देवदत्त का गवेषणा- पद विजय तस्कर का निग्रह-पद देवदत्त का निर्हरण-पट धन का निग्रह पद धन के घर से आहार - आनयन-पद विजय तस्कर द्वारा संविभाग मार्गणा - पद धन द्वारा उसका निषेध-पद देहचिंता से आबाधित धन को विजय तस्कर की अपेक्षा पद विजय तस्कर द्वारा उसका निषेध-पद धन के पुनः कहने पर विजय द्वारा संविभाग मार्गणा पद धन द्वारा विजय को संविभाग- दान-पद पन्थक द्वारा बात को बढ़ा-चढ़ाकर भद्रा से निवेदन-पद भद्रा का कोप - पद धन की कारागृह से मुक्ति-पद धन का सम्मान-पद गाथा व सूत्र सूत्र १६० " " १६१-१६३ १६४-१६५ १६६-१६८ १६६-२०१ २०२ '२०३-२०७ २०८ २०६ 23 33 "" " "" 17 सूत्र १-६६२ "" ७-१० ११ १२-१५ १६-२४ २५-२७ २८ २६-३२ "" 71 "3 "" "" "1 "" 31 27 :: 22 37 २१०-२१२ २१३ गाथा १ 27 (xviii) पृष्ठ ५२ ५३ ५३ ५४ ५४ ५६ ५६ ५८. ५६ ५६ ६० ६० ६१-६० ६२ ६३ ६४ ६६ ६८ ξς Ετ ३३ १०० ३४ १०१ ३५-३६ १०१ ३७-३८ १०१ ३६ १०१ ४०-४२ १०२ ४३-४४ १०२ ४५-४६ १०२ ४७-५१ १०२ ५२-५४ १०३ ५५-५६ १०३ ५७ १०४ ५८ १०४ ५६-६० १०४ भद्रा के कोप का उपशमन और अपूर्व सम्मान-पद विजय ज्ञात का निगमन-पद धन- ज्ञात का निगमन-पद निक्षेप-पद टिप्पण तीसरा अध्ययन : अंड उत्क्षेप-पद मयूरी अण्ड पद सार्थवाह-पुत्र-पद देवदत्ता गणिका - पद सार्थवाह पुत्रों का उद्यान फ्रीड़ा-पद सार्थवाह पुत्रों द्वारा मयूरी के अण्डों का आनयन पद सागरदत्त - पुत्र का सन्देह के द्वारा अण्डविनाश-पद जिनदत्त-पुत्र की श्रद्धा से मयूर उपलब्धि- पद निशेष-पद टिप्पण चौथा अध्ययन : कूर्म उत्क्षेप-पद पाप शृगालक पद कूर्म-पद दुष्ट शृगालों द्वारा आहार - गवेषण-पद कूर्मों द्वारा संहरण-पद अगुप्त कूर्म का मृत्यु-पद गुप्त कूर्म का सौख्य-पद निक्षेप-पद टिप्पण पांचवां अध्ययन : शैलक उत्क्षेप-पद थावण्यापुत्र-पद अरिष्टनेमि का समवसरण-पद कृष्ण द्वारा पर्युपासना-पद थावच्चापुत्र का प्रव्रज्या संकल्प - पद कृष्ण और थावच्चापुत्र का परिसंवाद-पद कृष्ण का योगक्षेम घोषणा पद थावच्चापुत्र का अभिनिष्क्रमण-पद गाथा व सूत्र सूत्र ६१-६६ ६७-६८ " ६६-७६ 77 सूत्र १-४ " ५ RARR "" 33 " 22 " "" 33 सूत्र १-५ "" ६ ७ " " १०५ १०६ ७७ १०७ १०८ - १०६ "" ६-७ 11 て ६-१६ १७-२० २१-२४ 3 सूत्र १-६ " ७-६ २५-३४ पृष्ठ १०४ ११६ ३५ ११८ १२०-१२१ ११२ ११२ ११२ ११३ ११३ ११५ ११५ १२४ १२४ १२४ ८-६ १२५ १०-१२ १२५ १३-१८ १२५ १६-२२ १२७ २३ १२८ १२६ १३२ १३३ 90-99 १३३ १२-१७ १३४ १८-२१ १३६ २२-२५ १३६ २६ १३७ २७-२६ १३७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिष्य भिक्षा का दान-पद थावच्चापुत्र द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण-पद की अनगार चर्या - पद थावच्चापुत्र थावच्चापुत्र का जनपद विहार- पद शैलकराज पद शैलक द्वारा गृहस्थ धर्म का स्वीकरण-पद शैलक की श्रमणोपासक चर्या-पद सुदर्शन श्रेष्ठी-पद शुक परिव्राजक पद शौचमूलक धर्म-पद सुदर्शन द्वारा शौचमूलक धर्म की प्रतिपत्ति-पद धावच्यापुत्र का सुदर्शन के साथ संवाद-पद सुदर्शन द्वारा विनयमूलक धर्म की प्रतिपत्ति-पद शुक द्वारा सुदर्शन को प्रतिसंबोध प्रयत्न- पद शुक का थावच्चापुत्र के साथ संवाद - पद सरिसवय की भक्ष्याभक्ष्यता- पद कुलस्थों की भक्ष्याभक्ष्यता-पद मासों (माषों) की भक्ष्याभक्ष्यता- पद अस्तित्व-प्रश्न-पद हजार परिव्राजकों के साथ शुक का प्रव्रज्या पद शुक का जनपद विहार- पद याच्यापुत्र का परिनिर्वाण- पद शैलक का अभिनिष्क्रमण अभिप्राय-पद मंडुक का राज्याभिषेक पद शैलक का निष्क्रमण-अभिषेक-पद शैलक का प्रव्रज्या पद शैलक का अनगार-चर्या-पद शुक का परिनिर्वाण पट शैलक का रोगांतक पद शैलक का चिकित्सा पद शैलक का प्रमत्त विहार-पद साधुओं द्वारा शैलक का परित्याग-पद पन्चक द्वारा चातुर्मासिक क्षमापना पद शैलक का कोप-पद शैलक का अभ्युद्यत विहार-पद निक्षेप-पद टिप्पण गाथा व सूत्र सूत्र ३० - ३३ 17 11 "" 37 "" "" 39 27 "1 "" 17 "1 21 " 21 37 "" "3 " ८१-८२ १४६ ८३-८४ १४६ ८५-६१ १५० ६२-६५ १५१ ६६-६८ १५१ ££ १५२ १५२ १०२-१०५ १५२ "१०६-१०६ १५३ ११०-११६ १५३ ११७ १५४ ११८ १५४ १५५ १५५ १५५ १५५ १५८-१६० "" " 17 पृष्ठ १३८ ३४ १३६ ३५-३८ १३६ ३६-४१ १४० ४२-४४ १४० ४५-४६ १४० ४७-५० १४२ १४२ १४२ ५५ १४२ ५६-५७ १४३ ५१ ५२-५४ 23 " १००-१०१ ५८-६१ १४३ ६२-६४ १४४ (xix) ६५-६६ १४४ ७०-७२ १४५ ७३ १४६ ७४ १४७ ७५ १४८ ७६ १४८ १४६ ७७-८० ११८-१२१ १२२-१२३ " १२४-१२६ "" १३० छठा अध्ययन : तुंब उत्क्षेप-पद गुरुत्वत्व पद निक्षेप - पद सप्तम अध्ययन रोहिणी उत्क्षेप-पद धन सार्थवाह पद धन द्वारा परीक्षा प्रयोग-पद परीक्षा परिणाम पद निक्षेप-पद टिप्पण आठवां अध्ययन : मल्ली उत्क्षेप-पद बलराज पद महाबल राजा-पद महाबल आदि की प्रव्रज्या पद महाबल का तपोविषयक माया-पद संग्रहणी गाथा महाबल आदि का विविध तपश्चरण-पद समाधिमरण-पद प्रत्यागमन-पद मल्ली के रतिचर का निर्माण- पद प्रतिबुद्धिराज -पद चन्द्रच्छायराज पद रुक्मि राज पद शंखराज-पद अदीनशत्रुराज-पद जितशत्रुराज-पद दूतों द्वारा सन्देश निवेदन- पद कुम्भ द्वारा दूतों का असत्कार - पद जितशत्रु प्रमुखों का कुम्भ के साथ युद्धमल्ली द्वारा चिन्ता का कारण पृच्छा-पद कुम्भ द्वारा चिन्ता का कारण कथन-पद मल्ली द्वारा उपाय निरूपण-पद मल्ली द्वारा जितशत्रु प्रमुखों को संबोध-पद जितशत्रु प्रमुखों का जाति - स्मरण - पद मल्ली की प्रव्रज्या पद मल्ली का केवलज्ञान-पद गाथा व सूत्र सूत्र "" "" 33 27 23 "" "" " " १ १७८ २-८ १७८ ६-१५ १७६ १६-१७ १८० १८० १८० १८ १ १८२ २७-३६ १८२ ४०-४२ १८४ ४३-६३ १८५ ६४-८६ १८८ "' €0-900 १६६ १०१-११३ १६७ १६६ २०३ २०६ १५६-१६० २०६ १६१-१६८ २०६ १६६-१७१ २०८ १७२ २०८ २०६ २०६ २११ २११ २२५-२२६ २१७ "" "" " " " " सूत्र १-३ " 31 x x i " ४ सूत्र १-२ "" "" ६-२१ " २२-४३ "४४ ११४- १३७ १३८ - १५६ " १५७-१५८ १६६ ३-५ १६६ १६६ १७० १७३ १७५ १८. १८ १६-२५ २६ पृष्ठ " १७३-१७४ १७५-१८० 23 १८ १ " १८२-१२४ १६२ .१६२ १६३ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xx) २२८ २२६ २३४ २३६ गाथा व सूत्र पृष्ठ गाथा व सूत्र पृष्ठ जितशत्रु प्रमुखों की प्रव्रज्या-पद सूत्र २२७-२२६ २१८ जितशत्रु द्वारा पान-भोजन की प्रशंसा-पद सूत्र ४-५ २५२ मल्ली की शिष्य-सम्पदा-पद " २३०-२३४ २१८ सुबुद्धि का उपेक्षा-पद " ६-१० मल्ली का निर्वाण-पद २३५ २१६ जितशत्रु द्वारा परिखोदक का गर्दा-पद " ११-१४ २५३ निक्षेप-पद २३६ २१६ सुबुद्धि का उपेक्षा-पद " १५-१७ २५४ टिप्पण २२०-२२४ जितशत्रु का विरोध-पद २५५ सुबुद्धि द्वारा जल शोधन-पद " १६ २५५ नवां अध्ययन : माकंदी सुबुद्धि द्वारा जल-प्रेषण-पद " २० २५६ उत्क्षेप-पद सत्र १-३ २२६ जितशत्रु द्वारा उदक-रत्न की प्रशंसा-पद " २१-२३ २५६ माकन्दिक पुत्रों की समुद्र यात्रा-पद " ४-८ २२६ जितशत्रु द्वारा जल लाने के संबंध में पृच्छा-पद" २४-२६ २५६ नावा-भंग-पद " E-१२ २२७ सुबुद्धि का उत्तर-पद "२७-२६ २५७ रत्नद्वीप-पद " १३-१५ जितशत्रु द्वारा जल-शोधन-पद २५७ रत्नद्वीपदेवता-पद " १६-१८ ૨૨૬ जितशत्रु का जिज्ञासा-पद " ३१ २५७ रत्नद्वीपदेवी का माकन्दिक-पुत्रों का निर्देश-पद "१६-२० सुबुद्धि का उत्तर-पद ३२-३३ २५७ माकन्दिक-पुत्रों का वनखण्ड गमन-पद " २१-२८ २३१ जितशत्रु का श्रमणोपासकता-पद ३४-३७ २५८ शैलक यक्ष-पद " २६-३६ प्रव्रज्या-पद ३८-४८ २५८ २३३ रत्नद्वीपदेवी का उपसर्ग-पद " ३७-४० निक्षेप-पद " ४६ २६० जिनरक्षित का विपत्ति-पद " ४१-४४ टिप्पण २६१ जिनपालित का चम्पागमन-पद " ४५-५३ २३७ तेरहवां अध्ययन : मण्डूक निक्षेप-पद " ५४ २३८ उत्क्षेप-पद सूत्र १-३ २६४ टिप्पण गौतम का पृच्छा-पद " ४-६ २६४ दसवां अध्ययन : चंद्रिका भगवान का उत्तर, दुर्दुरदेव का नन्दभव-पद " ७-८ २६४ नन्द का धर्म प्रतिपत्ति-पद " ६-१२ २६५ उत्क्षेप-पद सूत्र १ २४२ मिथ्यात्व-प्रतिपत्ति-पद " १३-१४ .२६५ परिहायमान-पद " २-३ २४२ पुष्करिणी का निर्माण-पद " १५-१७ २६५ परिवर्द्धमान-पद " ४-५ २४२ वन-खण्ड-पद २६६ निक्षेप-पद " ६ २४३ चित्रसभा-पद टिप्पण २४४ महानसशाला-पद " २१ २६७ चिकित्साशाला-पद " २२ २६७ ग्यारहवां अध्ययन : दावद्रव आलंकारिक सभा-पद " २३ उत्क्षेप-पद सूत्र १ २४६ नन्द का प्रशंसा-पद २४-२७ देशविराधक-पद २४६ नन्द के शरीर में रोगोत्पत्ति-पद देश आराधक-पद चिकित्सा-पद २६६ सर्व विराधक-पद २४७ भगवान के उत्तर के अन्तर्गत " ३२-३४ २६६ सर्व आराधक-पद २४७ दर्दुरदेव का दर्दुर-भव-पद निक्षेप-पद १० २४८ दुर्दुर का जातिस्मरण-पद " ३५-३६ २७० टिप्पण २४६ भगवान का राजगृह में समवसरण-पद भगवान " ३७-३८ २७१ दर्दुर का समवसरण की ओर गमन-पद " ३६-४० २८४० २७१ बारहवां अध्ययन : उदकज्ञात दर्दुर का मृत्यु-पद ४१-४४ २७१ उत्क्षेप-पद सूत्र १-२ २५२ निक्षेप-पद २७२ परिखोदक (खाई का पानी) पद " ३ २५२ टिप्पण २७३-२७४ २४० २६६ २६७ २६७ २६८ २४६ २६-३१ Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २६८ " २२ २६८ २६६ " E-११ २७६ ३०२ ३०२ ३०२ ३०३ ३०४ ३०५ " ३३-३५ २८१ ॥ २०-२१ ३०५ ३०६ ३०६ له २८३ (xxi) गाथा व सूत्र पृष्ठ गाथा व सूत्र चौदहवां अध्ययन : तेतली धन का प्रव्रज्या-पद सूत्र २०-२१ निक्षेप-पद उत्क्षेप-पद २७६ सूत्र १-७ टिप्पण पोट्टिला का क्रीड़ा-पद " ८ २७६ तेतलीपुत्र का आसक्ति-पद सोलहवां अध्ययन : अवरकंका पोट्टिला का वरण-पद " १२-१७ २७७ उत्क्षेप-पद १-३ " १८-२० सूत्र पोट्टिला का विवाह-पद २७८ नागश्री कथानक-पद " ४-५ कनकरथ का राज्यासक्ति-पद २१ २७८ नागश्री द्वारा तिक्त अलाबू का निष्पादन-पद " ६-१० पद्मावती का अमात्य के साथ मन्त्रणा-पद " २२-२३ २७६ धर्मरुचि को तिक्त-अलाबू का दान-पद " ११-१५ अपत्य-परिवर्तन-पद " २४-३० २७६ तिक्त अलाबू का परिष्ठापन-पद " १६-१८ बालिका का मृतकार्य-पद " ३१-३२ २८० अहिंसा के लिए तिक्त अलाबू का भक्षण-पद " १६ अमात्य-पुत्र का उत्सव-पद धर्मरुचि का समाधि-मरण-पद पोट्टिला का अप्रियता-पद " ३६-३७ २८१ साधुओं द्वारा धर्मरुचि का गवेषणा-पद " पोट्टिला का दानशाला-पद " ३८-३६ साधुओं द्वारा धर्मरुचि के समाधि-मरण का " २३ आर्या-संघाटक का भिक्षा के लिए आगमन-पद " ४०-४२ निवेदन-पद पोट्टिला द्वारा अमात्य को प्रसन्न " ४३ २८२ धर्मरुचि की स्मृति-सभा-पद " २४ करने का उपाय पृच्छा-पद नागश्री का गर्हा-पद ' २५-२७ आर्या संघाटक का उत्तर-पद नागश्री का गृह-निर्वासन-पद २८-२६ पोट्टिला का श्राविका-पद " ४५-४६ २८३ नागश्री का भव-भ्रमण-पद " ३०-३१ पोट्टिला का प्रव्रज्या-पद "५०-५४ २८४ सुकुमालिका का कथानक-पद " ३२-३५ कनकरथ का मृत्यु-पद " ५५-५६ २८५ सुकुमालिका का सागर के साथ विवाह-पद " ३६-५१ कनकध्वज का राज्याभिषेक-पद "५७-५६ २८५ सागर का पलायन-पद " ५२-६१ तेतलीपुत्र का सम्मान-पद " ६०-६१ २८६ सुकुमालिका का चिन्ता-पद पोट्टिलदेव द्वारा तेतलीपुत्र को संबोध-पद " ६२-७१ २८६ सागरदत्त द्वारा जिनदत्त का उपालंभ-पद तेतलीपुत्र की मरण-चेष्टा-पद " ७२-७६ २८८ सागर के पुनर्गमन का व्युदास-पद " ६८-६६ तेतलीपुत्र का विस्मयकरण-पद " ७७ २८८ सुकुमालिका का द्रमक के साथ पुनर्विवाह-पद" ७०-७६ पोट्टिलदेव का संवाद-पद "७८-८० २८६ द्रमक का पलायन-पद " ०-८६ तेतलीपुत्र का जातिस्मरण पूर्वक प्रव्रज्या-पद " ८१-८२ सुकुमालिका का पुनः चिन्ता-पद " ८७-६१ केवलज्ञान-पद " ८३-८४ २६० सुकुमालिका का दानशाला-पद " ६२-६३ कनकध्वज राजा का श्रावक-धर्म-पद "८५-८७ २६१ आर्या संघाटक का भिक्षाचर्या के " ६४-६६ तेतलीपुत्र का सिद्धि-पद " ८८ २६१ लिए आगमन-पद निक्षेप-पद " ८६ २६१ सुकुमालिका द्वारा सागर की प्रसन्नता का " ६७ टिप्पण २६२ उपाय पृच्छा-पद आर्या संघाटक का उत्तर-पद ६८ पन्द्रहवां अध्ययन : नंदीफल सुकुमालिका का श्राविका-पद "६६-१०३ उत्क्षेप-पद सूत्र १-५२६४ सुकुमालिका का प्रव्रज्या-पद " १०४-१०५ धन का घोषणा-पद " ६-१०२६४ सुकुमालिका का आतापना-पद " १०६-१०८ धन का निर्देश-पद " ११-१२२६५ सुकुमालिका का निदान-पद " १०-११३ निर्देश-पालन का निगमन-पद "१३-१४२६६ सुकुमालिका का बकुशता-पद " ११४-११७ निर्देश के अपालन का निगमन-पद " १५-१६२६७ सुकुमालिका का पृथक विहार-पदृ " ११८-११६ धन का अहिच्छत्रा आगमन-पद " १७-१६ २६७ द्रौपदी का कथानक-पद " १२०-१३० ३०६ ३०६ ३०७ ३०० ३०६ ३१० ३१४ ३१४ ३१४ ३१६ २६० ३१६ ३१७ ३१८ ३१८ ३१८ ३१६ ३१६ ३२० ३२० ३२१ ३२२ ३२३ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रौपदी का स्वयंवर संकल्प-पद द्वारवती के लिए दूत प्रेषण-पद कृष्ण का प्रस्थान- पद हस्तिनापुर दूत-प्रेषण पद दूत-प्रेषण-पद हजारों राजाओं का प्रस्थान- पद द्रुपद का आतिथ्य-पद द्रौपदी का स्वयंवर-पद द्रौपदी के द्वारा पाण्डव का वरण-पद पाणिग्रहण-पद पाण्डुराज का निमन्त्रण-पद पाण्डुराज का आतिथ्य-पद कल्याणकार पद नारद का आगमन - पद नारद का अवरकंका-गमन-पद द्रौपदी का संहरण पद द्रौपदी का चिन्ता-पद पद्मनाभ का आश्वासन पद द्रौपदी का गवेषणा-पद द्रौपदी का उपलब्धि पद पाण्डवों सहित कृष्ण का प्रयाण पद कृष्ण का देवाराधना-पद कृष्ण द्वारा मार्ग याचना-पद कृष्ण द्वारा दूतप्रेषण-पद पद्मनाभ द्वारा दूत का अपमान पद दूत का पुनः आगमन-पद पद्मनाभ का पाण्डवों के साथ युद्ध-पद पाण्डवों का पराजय-पद पद्मनाभ का शरण-पद द्रौपदी और पाण्डवों सहित कृष्ण का प्रत्यावर्तन-पद वासुदेव युगल का शंख - शब्द से मिलन- पद कपिल द्वारा पद्मनाभ का निर्वासन पद अपरीक्षणीय का परीक्षा-पद कृष्ण द्वारा पाण्डवों का निर्वासन पद पाण्डु-मथुरा का स्थापना-पद पाण्डुसेन का जन्म-पद पाण्डवों और द्रौपदी का प्रव्रज्या पद सूत्र "" 33 33 17 " " गाथा व सूत्र १३१ "" 37 17 "1 "" 11 "" 33 "" 33 "1 " "" "" 37 " २४३-२४४ २४७-२५१ २५२-२५३ कृष्ण द्वारा पराजय- हेतु कथनपूर्वक युद्ध-पद” २५४-२५६ पद्मनाभ का पलायन-पद २६० कृष्ण का नरसिंह रूप पद " " " 17 " "" " १३२-१३५ १३६ - १४१ १४२-१४४ 27 १४५ १४६ 27 = २६८-२७७ ३४६ २७८-२८० ३५० "" २८१-२८८ ३५१ २८-३०२ ३५२ ३०३ ३५४ ३०४-३०६ ३५४ ३१०-३१७ ३५५ २४५ २४६ (xxii) १४७-१५२ ३२८ १५३-१६३ ३२६ १६४-१६६ ३३१ १६७-१६६ ३३२ १७०-१७१ ३३२ १७२-१८० ३३३ १८१-१८३ ३३४ १८४ - १६० ३३४ १६१-२०० ३३५ २०१-२०६ ३३७ २०७ ३३८ २०८-२११ ३३८ २१२-२२५ ३३८ २२६-२३२ ३४१ २३३-२३६ ३४२ २३७-२३८ ३४२ २३-२४२ ३४३ ३४४ ३४४ ३४५ ३४५ ३४६ ३४६ ३४७ २६१-२६२ ३४७ २६३-२६५ ३४८ २६६-२६७ ३४८ पृष्ठ ३२३ ३२४ ३२५ ३२६ ३२७ ३२७ अरिष्टनेमि का निर्वाण-पद पाण्डवों का निर्वाण पद द्रौपदी का देवत्व - पद निक्षेप - पद टिप्पण सत्रहवां अध्ययन : आकीर्ण उत्क्षेप-पद कालिकद्वीप-यात्रा-पद कालिकद्वीप में अश्व - प्रेक्षण-पद सांयात्रिकों का पुनरागमन-पद अश्वों का आनयन-पद अमूर्च्छित अश्वों का स्वायत्त - विहार- पद निगमन-पद मूर्च्छित अश्वों का परायत्त-पद निगमन-पद टिप्पण अठारहवां अध्ययन : सुंसुमा उत्क्षेप-पद दासपुत्र चितात का विग्रह-पद चिलात का घर से निष्कासन पद चिलात का दुर्व्यसन-प्रवृत्ति-पद चोर-पल्ली-पद चिलात का चोरपल्ली गमन-पद विजय का मृत्यु-पद चित्रात का चोर -सेनापतित्य-पद चिलात द्वारा धन के घर में चोरी - पद नगर-रक्षकों द्वारा चोर का निग्रह-पद चिलात का चोर -पल्ली से पलायन - पद निगमन-पद धन का सुंसुमा के लिए क्रन्दन-पद अटवी लंघन के लिए धन द्वारा पुत्री के मांस और शोणित का आहार पद निगमन-पद उन्नीसवां अध्ययन पुण्डरीक उत्क्षेप-पद कण्डरीक का प्रव्रज्या पद कण्डरीक का वेदना-पद कण्डरीक का चिकित्सा पद गाथा व सूत्र सूत्र ३१८-३२२ "" ३२३-३२४ ३२५-३२६ ३२७ " " सूत्र १-४ "" ===== " " " 33 सूत्र १-५ "" "" 17 37 ३७४ ६-६ ३७४ १०-१५ ३७५ "१६-१७ ३७६ १८-२२ ३७६ २३-२५ ३७७ २६-२७ ३७७ ३७२ ३७८ ३८० ३८१ ४८ ३८१ ३८२ ३८२ " २८-३२ ३३-३८ " ३६-४३ " ४४-४७ "" " ५-१३ १४-१५ १६ १७- २३ २४ २५ २६-३५ ३६ " ४६-५० 11 13 ५१-५६ === ६० पृष्ठ ३५६ ३५७ सूत्र १-७ ३५८ ३५८ ३५६ ३६२ ३६२ ३६३ ३६४ ३६५ ३६७ ३६७ ३६७ ३६६ ३७२ ३८६ ८-१६ ३८६ " २०-२१ २२-२६ ३८४ ३८८ ३८८ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xxiii) गाथा व सूत्र पृष्ठ कण्डरीक का प्रमत्त विहार-पद पुण्डरीक द्वारा प्रतिबोध-पद कण्डरीक द्वारा प्रव्रजया परित्याग-पद पुण्डरकी का प्रव्रजया-पद कण्डरीक का मृत्यु-पद निगमन-पद पुण्डरीक का आराधना-पद निगमन-पद निक्षेप-पद गाथा व सूत्र पृष्ठ सूत्र २७-२८ ३८६ " २६-३१ ३८६ " ३२-३७ ३६० " ३८ ३६१ " ३६-४१ ३६१ " ४२ ३१ " ४३-४६ " ४७ ३६२ " ४८ ३६३ तृतीय वर्ग अध्ययन-१: अला अध्ययन-२-६ अध्ययन-७-१२ अध्ययन १३-५४ सूत्र १-८ " ६ " १० " ११-१२ ४०८ ४०८ ४०८ ४०६ ३६१ चतुर्थ वर्ग अध्ययन-१: रूपा अध्ययन-२-६ अध्ययन ७-५४ सूत्र १-६ " ७ " ८-६ ४१० ४१० ४१० पंचम वर्ग अध्ययन-१ : कमला अध्ययन-२-३२ सूत्र १-५ ४११ " ६ ४११ ३६६-४०४ सूत्र १-६ ३६६ " १० ३६७ " ११-१२ ३६८ " १३-१४ ३६८ " १५-१८ ३६६ " १६-३३ ३६६ " ३४-३७ ४०२ " ३८ ४०३ " ३६-४४ ४०३ ४०४ सूत्र १-५ दूसरा श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग अध्ययन-१ : काली उत्क्षेप-पद कालीदेवी-पद काली द्वारा भगवान को वन्दन-पद गौतम का प्रश्न-पद भगवान के उत्तर के अन्तर्गत काली-पद काली का प्रव्रज्या-पद काली का बाकुशिकत्व-पद काली का पृथक विहार-पद काली का मृत्यु-पद निक्षेप-पद अध्ययन-२ : राई अध्ययन-३ : रयनी अध्ययन-४ : विद्युत अध्ययन-५ : मेघा ४१२ षष्ठ वर्ग अध्ययन-१-३२ सप्तम वर्ग अध्ययन-१ : सूर्यप्रभा अध्ययन-२-४ अष्टम वर्ग अध्ययन-१ : चन्द्रप्रभा अध्ययन-२-४ सूत्र १-५ " ६ ४१२ ४१२ ४६-५५ ४०५ सूत्र १-५ " ६ ४१३ ४१३ " ५६-६० " ६१ " ६२-६३ ४०६ ४०६ ४०६ नवम वर्ग अध्ययन १८ सूत्र १-६ ४१४ द्वितीय वर्ग अध्ययन-१ : शुभा अध्ययन-२-५ सूत्र १८ ४०७ " १-२ ४०७ दशम वर्ग अध्ययन १-८ सूत्र १- ८ ४१५ Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख धर्म के दो प्रमुख द्वार हैं--धृति और क्षान्ति। जो धृतिसम्पन्न होता है वही धर्म का पालन कर सकता है। प्रस्तुत अध्ययन धृति और क्षान्ति का जीवन्त निदर्शन है। राजकुमार मेघ ने भगवान महावीर की धर्मदेशना से प्रतिबुद्ध होकर श्रामण्य स्वीकार किया किन्तु धृति और क्षान्ति के अभाव में वह प्रव्रज्या को छोड़ने (उत्प्रवजित होने) के लिए तत्पर हो गया। भगवान महावीर सर्वज्ञ थे। उन्होंने मेघ की मन:स्थिति को पढ़ा, उसकी रात्रिकालीन परिस्थिति को जाना और सुदूर अतीत से उसका साक्षात्कार करवा दिया। भगवान महावीर ने मेघ के - पूर्ववर्ती दो जन्मों का ऐसा जीवन्त एवं प्रभावशाली चित्र उपस्थित किया कि उसे अपने दोनों जन्मों-सुमेरुप्रभ और मेरुप्रभ हाथी के जीवन की स्मृति हो गई। उसने जाना--मेरुप्रभ हाथी के भव में एक शशक की हत्या से बचने हेतु उसने ढाई दिन रात तक पैर को ऊंचा उठाए रखा। प्राणानुकम्पा से उठा (उत्क्षिप्त) वह चरण उसके परीतसंसारित्व एवं मनुष्य के आयुष्य-बंध का हेतु बना। 'उत्क्षिप्तचरण' की यही स्मृति उसके वर्तमान जीवन में भी संयम के स्थैर्य का हेतु बनी। अतएव इस अध्ययन का नाम उत्क्षिप्त रखा गया। ___आचारांग सूत्र में जातिस्मृति के तीन हेतुओं का प्रतिपादन हुआ है। प्रस्तुत अध्ययन में सुमेरुप्रभ के भव में होने वाली जातिस्मृति प्रथम 'सहसम्मुइयाए' हेतु का तथा मेघ के भव में भगवान के द्वारा करवाई जाने वाली स्मृति 'परवागरणेणं' का अच्छा निदर्शन है। प्रस्तुत अध्ययन में पंचविध आचार का सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। जन्म मरण की परम्परा, भिन्न-भिन्न जन्मों में होने वाली घटनाओं का आवर्तन, असहिष्णुता के हेतुओं और उससे बचने में ज्ञान की भूमिका का इसमें सुन्दर निरूपण हुआ है। जातिस्मृति की प्रक्रिया देव आह्वान की पद्धति आदि परामनोविज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं तो स्वप्न, दोहद, गर्भकाल में माता का आचरण आदि तथ्य गर्भविज्ञान को नई दिशा देने वाले हैं। सरस भाषा, सरस पदावली और सरस वाक्य रचना कथा साहित्य के अनुरूप है। यह ज्ञात है--जीवन्त घटना का निदर्शन है फिर भी इसमें कथा जैसी जीवन्तता उपलब्ध है। १. आयारो १/३ सहसम्मुइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसिं वा अंतिए सोच्चा। २. नायाधम्मकहाओ १/१/१७०, १९० ३. वही १/१/५३ Jain Education Intemational Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढम अज्झयणं : प्रथम अध्ययन उक्खित्तणाए : उत्क्षिप्तज्ञात उक्खेव-पदं १. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था--वण्णओ।। उत्क्षेप-पद १. उस काल और उस समय चम्पा नाम की एक नगरी थी--वर्णक'। २. तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए पुण्णभद्दे नामं चेइए होत्था--वण्णओ।। २. उस चम्पा नगरी के बाहर, उत्तर पूर्व दिशा खण्ड (ईशान-कोण) में पूर्णभद्र नाम का चैत्य था--वर्णक। ३. तत्थ णं चंपाए नयरीए कोणिए नामं राया होत्था--वण्णओ।। ३. उस चम्पा नगरी में कोणिक नाम का एक राजा था--वर्णक । ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मे नाम थेरे जातिसंपण्णे कुलसंपण्णे बल-रूव-विणयनाण-दसण-चरित्त-लाघव-संपण्णे ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी जियकोहे जियमाणे जियमाए जियलोहे जिइंदिए जियनिद्दे जियपरीसहे जीवियास-मरणभयविप्पमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे एवं--करण-चरण-निग्गह-निच्छय-अज्जव-मद्दव-लाघव-खंतिगुत्ति-मुत्ति-विज्जा-मंत-बंभ-वेय-नय-नियम-सच्च-सोयनाण-दसण-चरित्तप्पहाणे ओराले घोरे घोरन्वए घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्त-विउल-तेयलेस्से चोद्दसपुवी चउनाणोवगए पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहसहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेतिए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छिता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति ।। ४. उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी आर्य सुधर्मा नाम के स्थविर' जाति-सम्पन्न और कुल-सम्पन्न थे। बल, रूप, विनय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और लाघव-सम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी, क्रोधजयी, मानजयी, मायाजयी, लोभजयी, इन्द्रियजयी, निद्राजयी और परीषहजयी, जीवन की आशा और मरण के भय से विप्रमुक्त, तप-प्रधान और गुण-प्रधान, इसी प्रकार करण-चरण निग्रह, निश्चय, ऋजुता, मृदुता, लाघव, क्षमा, गुप्ति, मुक्ति, विद्या, मंत्र, ब्रह्मचर्य, वेद, नय, नियम, सत्य, शौच, ज्ञान, दर्शन और चारित्र से प्रधान, महान, घोर, घोरव्रती, घोरतपस्वी, घोरब्रह्मचर्यवासी, लधिमा ऋद्धि-सम्पन्न, विपुल तेजोलेश्या को अन्तर्लीन रखने वाले, चतुर्दशपूर्वी और चार ज्ञान से समन्वित थे। वे पांच सौ अनगारों के साथ, उनसे संपरिवृत हो, क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम परिव्रजन और सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहां चम्पा नगरी थी, जहां पूर्णभद्र चैत्य था, वहां आए। वहां आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर, संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। ५. तए णं चंपाए नयरीए परिसा निग्गया । धम्मो कहिओ। परिसा जामेव दिसिं पाउब्भूया, तामेव दिसिं पडिगया। ५. चम्पा नगरी से परिषद् ने निगमन किया। सुधर्मा ने धर्म कहा। परिषद् जिस दिशा से आई, उसी दिशा में लौट गई। ६. तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स जेट्टे अंतेवासी अज्जजंबू नामं अणगारे कासव गोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंस-संठाण- संठिए वइररिसहणाराय-संघयणे कणग-पुलग-निघस-पम्ह-गोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी ६. उस काल और उस समय आर्य सुधर्मा अनगार के ज्येष्ठ अन्तेवासी आर्य जम्बू नाम के अनगार थे। वे काश्यप गोत्रवाले, सात हाथ की ऊँचाई वाले, समचतुरस्त्र संस्थान से संस्थित वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त, कसौटी पर खचित स्वर्ण-रेखा तथा पद्म केसर की भांति Jain Education Intenational Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे सखित्त-विउल-तेयलेस्से अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामते उड्ढजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।। प्रथम अध्ययन : सूत्र ६-१० पीताभ गौर वर्ण वाले, उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, महान्, घोर, घोर गुणों से युक्त, घोरतपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी लघिमा ऋद्धि से सम्पन्न, विपुल तेजोलेश्या को अन्तर्लीन रखने वाले थे। वे आर्य सुधर्मा स्थविर के न अति दूर, न अति निकट, ऊर्ध्व जानु, अध: शिर" (उकडू आसन की मुद्रा में) और ध्यान कोष्ठक में प्रविष्ट होकर, संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए रह रहे थे। ७. तए णं से अज्जजंबूनामे अणगारे जायसड्ढे जायसंसए जायकोउहल्ले उप्पण्णसड्ढे उप्पण्णसंसए उप्पण्णकोउहल्ले समुप्पण्णसड्ढे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोउहल्ले उठाए उढेइ, उठेत्ता जेणामेव अज्जसुहम्मे थेरे, तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अज्जसुहम्मे थेरे तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अज्जसुहम्मस्स थेरस्स नच्चासण्णे नातिदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणएणं पज्जुवासमाणे एवं वयासी--जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं 'आइगरेणं तित्थगरेणं सहसंबुद्धेणं लोगनाहेणं लोगपईवणं लोगपज्जोयगरेणं अभयदएणं सरणदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मनायगेणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा अप्पडिहयवरनाणदसणधरेणं जिणेणं जाणएणं बुद्धेणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं तिण्णेणं तारएणं सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तयं सासयं ठाणमुवगएणं (सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं?) पंचमस्स अंगस्स अयमढे पण्णत्ते, छट्ठस्स णं भंते! अंगस्स नायाधम्मकहाणं के अढे पण्णते? ७. उस समय आर्य जम्बू नामक अनगार के मन में एक श्रद्धा (इच्छा), एक संशय (जिज्ञासा), एक कुतूहल जन्मा। एक श्रद्धा, एक संशय, एक कुतूहल उत्पन्न हुआ। एक श्रद्धा, एक संशय, एक कुतूहल प्रबलतम बना। वे उठने की मुद्रा में उठे। उठकर, जहां आर्य सुधर्मा स्थविर थे, वहां आए। वहां आकर आर्य सुधर्मा स्थविर को तीन बार दायीं ओर से प्रारम्भ कर प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा कर वंदना-नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर आर्य-सुधर्मा स्थविर के न अति निकट, न अति दूर, शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में, उनके सामने बद्धाञ्जलि हो, विनयपूर्वक पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-- "भंते! यदि धर्म के आदिकर्ता, तीर्थंकर, स्वयं संबुद्ध, लोक के नाथ, लोक में प्रदीप, लोक में प्रद्योतकर, अभयदाता, शरणदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, धर्मदाता, धर्मदशक, धर्मनायक, धर्म के प्रवर चतुर्दिगजयी चक्रवर्ती,१५ अप्रतिहत प्रवर ज्ञान-दर्शन के धारक, ज्ञाता, ज्ञान देने वाले, बुद्ध, बोध देने वाले, मुक्त, मुक्त करने वाले, तीर्ण, तारने वाले, शिव, अचल, अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, पुनरावृत्ति रहित, शाश्वत स्थान को प्राप्त (सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त?) श्रमण भगवान महावीर ने पांचवें अंग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! छठे अंग ज्ञातधर्मकथा का उन्होंने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है। ८. जंबु त्ति अज्जसुहम्मे थेरे अज्जजंबूनामं अणगारं एवं वयासी--एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता, तं जहा--नायाणि य धम्मकहाओ य।। ८. स्थविर आर्य सुधर्मा ने 'जम्बू' इस संबोधन के साथ आर्य जम्बू नाम के अनगार से इस प्रकार कहा--'जम्बू!' (धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त) श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग के दो श्रुतस्कन्ध प्रज्ञप्त किए हैं, जैसे--ज्ञात और धर्मकथा। ९. जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स दो सुयक्खंधा पण्णत्ता, तंजहा--नायाणि य धम्मकहाओ य। पढ़मस्स णं भंते! सुयक्खंधस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव 'संपत्तेणं नायाणं कइ अज्झयणा पण्णत्ता? ९. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग के दो श्रुतस्कन्ध प्रज्ञप्त किए जैसे--ज्ञात और धर्मकथा तो भन्ते! धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम श्रुत-स्कन्ध ज्ञात के कितने अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं? संगहणी-गाहा १०. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं नायाणं एगूणवीसं अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-- १. उक्खित्तणाए २. संघाड़े ३. अंडे ४. कुम्मे य ५. सेलगे। ६. तूबे य ७. रोहिणी ८. मल्ली ९. मायंदी १०. चंदिमा इ य ।।१।। संगहणी गाथा १०. जम्बू! धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञात के उन्नीस अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं, जैसे-- १. उत्क्षिप्तज्ञात २. संघाटक ३. अण्ड ४ कूर्म ५. शैलक ६. तुम्ब ७. रोहिणी ८. मल्ली ९. माकन्दी १०. चन्द्रिका ११. दावद्रव Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र १०-१६ ११. दावद्दवे १२. उदगणाए १३. मंडुक्के १४. तेयली वि य। १५. नंदीफले १६. अवरकंका १७. आइण्णे १८. सुसुमा इय ।।२।। १९. अवरे य पुंडरीए, नाए एगूणवीसमे।। नायाधम्मकहाओ १२. उदकज्ञात १३. मण्डूक १४. तेतली १५. नन्दीफल १६. अवरकंका १७. आकीर्ण १८. सुंसुमा और १९. उन्नीसवां ज्ञात--पुण्डरीक ज्ञात । मेहस्स नगरपरिवारादि-वण्णग-पदं ११. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं नायाणं एगणवीसं अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा--उक्खित्तणाए जाव पुंडरीए त्ति य । पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अद्वे पण्णते? मेघ के नगर-परिवार आदि का वर्णन-पद ११. भन्ते! धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञात के उन्नीस अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं, जैसे-उत्क्षिप्त ज्ञात यावत् पुण्डरीक, तो भंते! उन्होंने प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? १२. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे ___ भारहे वासे दाहिणड्ढभरहे रायगिहे नामं नयरे होत्था--वण्णओ। १२. जम्बू! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष के दक्षिणार्ध भरत में राजगृह नामक एक नगर था--वर्णक। १३. गुणसिलए चेतिए--वण्णओ। १३. वहां गुणशिलक नाम का चैत्य था--वर्णक । १४.तत्थ णं रायगिहे नयरे सेणिए नामं राया होत्था-- महताहिमवंत-महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे वण्णओ।। १४. उस राजगृह नगर में श्रेणिक नाम का राजा था। वह महान् हिमालय, महान् मलय, मेरु और महेन्द्र पर्वत के समान उन्नत था--वर्णक ।१९ महा " १५. तस्स णं सेणियस्स रण्णो नंदा नाम देवी होत्था--समालपाणिपाया वण्णओ॥ १५. उस श्रेणिक राजा के नन्दा नाम की देवी थी। उसके हाथ-पांव सुकुमार थे-वर्णक। १६. तस्स णं सेणियस्स पुत्ते नंदाए देवीए अत्तए अभए नामं कुमारे होत्था-अहीण पडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरे लक्खण-वंजण गुणोववेए माणुम्माण-प्पमाण-पडिपुण्ण-सुजाय-सव्वंगसुंदरंगे ससिसोमाकारे कते पियदंसणे सुरूवे, साम-दंड-भेय-उवप्पयाणनीति-सुप्पउत्तनय-विहण्णू, ईहा-वूह-मग्गण-गवेसण-अत्थसत्थ-मइविसारए, उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मयाए पारिणामियाए--चउब्विहाए बुद्धीए उववेए, सेणियस्स रण्णो बहूसु कज्जेसु य (कारणेसु य?) कुडुबसु य मतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसुय आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू, मेढीभूए पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए चक्खुभूए, सव्वकज्जेसु सव्वभूमियासु लद्धपच्चए विइण्णवियारे रज्जधुरचिंतए यावि होत्था, सेणियस्स रण्णो रज्जंच रटुं च कोसं च कोट्ठागारं च बलं च वाहणंच पुरंच अंतेउरंच सयमेव समुपेक्खमाणे-समुपेक्खमाणे विहरइ॥ १६. श्रेणिक का पुत्र, नन्दादेवी का आत्मज, उसका नाम था अभयकुमार। उसका शरीर अहीन और प्रतिपूर्ण पांच इन्द्रियों वाला, लक्षण और व्यञ्जन की विशेषता से युक्त, मान-उन्मान और प्रमाण से प्रतिपूर्णरर, सुजात और सर्वांग सुन्दर, चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति वाला, कमनीय, प्रियदर्शन और सुरूप था। वह साम, दण्ड, भेद और उपप्रदान:--इन चारों नीतियों तथा सुप्रयुक्त नय की विधाओं का वेत्ता था। ईहा, अपोह (वितर्क) मार्गण, गवेषण५ और अर्थशास्त्र में विशारद मतिवाला, औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी--इस चतुर्विध बुद्धि से युक्त था। राजा श्रेणिक के बहुत से कार्यों (कारणों) सामुदायिक कर्तव्यों", मंत्रणाओं, गोपनीय कार्यों, रहस्यों२८ और निश्चयों में उसका मत पूछा जाता था, पुन: पुन: पूछा जाता था। वह मेढी, प्रमाण, आधार, आलम्बन और चक्षु तथा मेढीभूत, प्रमाणभूत, आधारभूत, आलम्बनभूत और चक्षुभूत था। वह सब कार्यों और सब भूमिकाओं में विश्वसनीय, राजा को सम्यक् परामर्श देने वाला और राज्य-धुरा का चिन्तक था। वह राजा श्रेणिक के राज्य, राष्ट्र, कोष, कोष्ठागार, सेना, वाहन, पुर और अन्त:पुर की अपने आप देखभाल करता हुआ विहार कर रहा था। Jain Education Intemational Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : सूत्र १७-१८ १७. तस्स णं सेणियस्स रणो धारिणी नामं देवी होत्था- १७. उस श्रेणिक राजा के धारिणी नाम की देवी थी। उसके हाथ-पांव सुकुमाल-पाणिपाया अहीण-पंचेंदियसरीरा लक्खण-वंजण- सुकुमार थे। उसका शरीर पांचों इन्द्रियों से अहीन, लक्षण और गुणोववेया माणुम्माण-प्पमाण-सुजाय-सव्वंगसुंदरंगी व्यञ्जन की विशेषता से युक्त, मान-उन्मान और प्रमाण से प्रतिपूर्ण, ससिसोमाकार-कंत-पियदंसणा सुरूवा करयल-'परिमित- सुजात और सर्वांग सुन्दर था। वह चन्द्रमा के समान सौम्य तिवलिय' वलियमज्झा 'कोमुइ-रयणियर-विमल-पडिपुण्ण- आकृतिवाली, कमनीय, प्रियदर्शना और सुरूपा थी। उसकी मुट्ठी भर सोमवयणा कुंडलुल्लिहिय-गंडलेहा सिंगारागार-चारुवेसा कमर बल खाती हुई तीन रेखाओं से युक्त थी। उसका मुख शारद संगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलास-सललिय-संलाव- चन्द्र की भांति विमल, प्रतिपूर्ण और सौम्य था। उसके कपोलों पर निउण-जुत्तोवयारकुसला पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा खचित रेखाएं२ कुण्डलों से उल्लिखित हो रही थी। उसका सुन्दर-वेष, पडिरूवा, सेणियस्स रण्णो इट्ठा कंता पिया मणुण्णा नामधेज्जा शृंगार-घर जैसा लग रहा था। वह औचित्यपूर्ण चलने, हंसने, बोलने वेसासिया सम्मया बहुमया अणुमया भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला और चेष्टा करने में, विलास और लालित्यपूर्ण संलाप में निपुण और इव सुसंगोविया चेलपेडा इव सुसंपरिगिहिया रयणकरंडगो विव समुचित उपचार में कुशल थी। वह द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने सुसारक्खिया, मा णं सीयं मा णं उण्हं मा णं दंसा मा णं मसगा वाली, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय थी। वह राजा श्रेणिक के लिए मा णं वाला मा णं चोरा मा णं वाइय-पित्तिय-सिभिय- इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, प्रशस्त नाम वाली, विश्वसनीय, सम्मत, सन्निवाइय विविहा रोगायंका फुसंतु त्ति कटु सेणिएण रण्णा बहुमत, अनुमत, आभरण-मञ्जूषा के समान उपादेय, मृण्मय तेल-पात्र सद्धिं विउलाई भोगभोगाई पच्चणुभवमाणी विहरइ।। के समान सुसंगोपित, वस्त्र मञ्जूषा के समान सुसंपरिगृहीत, रत्न मञ्जूषा के समान सुसंरक्षित थी। उसे सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर, सांप, चौर तथा वात, पित्त, श्लेष्म और सन्निपात जनित नाना रोग और आतंक न छू पाएं--इस प्रकार वह राजा श्रेणिक के साथ विपुल भोगार्ह भोगों का अनुभव करती हुई रह रही थी। धारिणीए सुमिणदंसण-पदं धारिणी का स्वप्न-दर्शन-पद १८. तए णं सा धारिणी देवी अण्णदा कदाइ तंसि तारिसगंसि-- १८. वह धारिणी देवी किसी समय अपने विशिष्ट प्रासाद में सो रही छक्कट्ठग-लट्ठमट्ठसंठिय-खंभुग्गय-पवरवर-सालभंजिय थी। वह आलिन्द छह काष्ठ-खण्डों से निर्मित था। उसके उज्जलमणिक-णगरयणथूभिय-विडंकजालद्ध-चंदनिज्जूहंतर सुन्दर, चिकने और कलापूर्ण खम्भों पर अतिसुन्दर पुतलियां कणयालिचंदसालि-याविभत्तिकलिए सरसच्छधाऊवल-वण्णरइए उत्कीर्णं थीं। उसके शिखर पर उज्ज्वल मणि, स्वर्ण और रत्न बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मटे अभितरओ पसत्त-सुविलिहिय जड़े हुए थे। वह प्रासाद छज्जों-झरोखों अर्द्धचन्द्राकार सीढ़ियों, चित्तकम्मे नाणाविह-पंचवण्ण-मणिरयण-कोट्टिमतले निफूहकों--द्वार पर लगी हुई काष्ठ-पट्टियों, मध्यवर्ती लोह स्तम्भों पउमलया-फुल्लवल्लि-वरपुष्फजाइ-उल्लोय-चित्तिय-तले वंदण और चन्द्रशालाओं के कारण नाना विभागों में विभक्त था। वह वरकणगकलससुणिम्मिय-पडिपूजिय-सरसपउम-सोहंतदारभाए सरस, स्वच्छ गेरु रंग से रंगा हुआ, बाहर से धवलित, घिसा पयरग-लंबंत-मणिमुत्तदाम-सुविरइयदारसोहे सुगंध-वरकुसुम हुआ और चिकना, भीतर अपने-अपने कर्म में व्याप्त चित्रकारों मउय-पम्हलसयणोवयार-मणहिययनिव्वुइयरे कप्पूर-लवंग की प्रासंगिक और कलात्मक तुलिका से आलेखित चित्रों से चित्रित मलय-चंदण-कालागरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-डझंत-सुरभि था। उसका आंगन नाना प्रकार के पंचरंगे मणिरत्नों से कुट्टित मघमघेत-गंधुद्धयाभिरामे सुगंधवर (गंध?) गंधिए गंधवट्टिभूए था। उसके चन्दोवे पद्मलताओं, पूष्पित-वल्लियों और प्रवर मणिकिरण-पणासियंधयारे किंबहुणा? जुइगुणेहिं सुरवरविमाण पुष्पों वाली मालती लताओं से चित्रित थे। उसका द्वारभाग भलीभांति विडंबियवरघरए, तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि--सालिंगणवट्टिए रखे गये, चन्दन से चर्चित, सरस-पद्मों के ढक्कन वाले, मांगलिक उभओ विब्बोयणे दुहओ उण्णए 'मज्झे णय गंभीरे' प्रवर स्वर्ण-कलशों" से शोभायमान था। प्रवर और प्रलम्बमान गंगापुलिणवालुय-उद्दालसालिसए ओयविय-खोम दुगुल्लपट्ट मणि-मुक्ता की मालाएं द्वार की शोभा बढ़ा रही थी। सुगन्धित पडिच्छयणे अत्थरय-मलय-नवतय-कुसत्त-लिंब-सीहकेसर- प्रवर-पुष्पों से मृदु और नेत्र रोम की तरह रोएं वाले शयनीय पच्चुत्थिए सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आइणग-रूय के उपचार से वह प्रासाद मन और हृदय को आह्लादित कर रहा बूर-नवणीय-तुल्लफासे पुज्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा था। वह कपूर, लौंग, मलय-चन्दन५, काला-अगर, प्रवर कुन्दुरू Jain Education Intemational Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन सूत्र १८-१९ ओहीरमाणी- ओहीरमाणी एवं महं सत्तुस्खेहं रययकूट- सन्निहं महयलसि सोमं सोमागारं लीलायंतं जंभायमाणं मुहमतिगयं गयं पासित्ता णं पडिबुद्धा ।। सेणियस्स सुमिणनिवेदण-पदं १९. तए णं सा धारिणी देवी अयमेयारूवं उरालं कल्याणं सिवं धण्णं मंगलं सस्सिरीयं महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हट्ठ-चित्तमानदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहिया धाराहय- कलंबपुष्कगं पिव समूसलिय - रोमकूबा तं सुमिण ओगिण्es ओगिण्हित्ता सयणिज्जाओ उट्ठेइ, उट्ठेत्ता पायपीटाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरहित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणामेव से सेणिए राया तेणामेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता रोणियं एवं ताहिं इवाहिं कंताहिं पिपाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं उराताहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धण्णाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं हिययगमणिज्जाहिं हिययपल्हायणिज्जाहिं मिय-महुर-रिभिय-गंभीर - सस्सिरीयाहिं गिराहिं संलवमाणी-संलवमाणी पडिवोहेइ, पडिबोहेत्ता सेणिएणं रण्णा अम्भणुण्णाया समाणी नाणा मणिकणग रयणभत्तिचित्तति भद्दाराणांस निसीय, निसीइत्ता आसत्या वीसत्या सुहासणवरगया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु सेणियं रायं एवं वयासी -- एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! अज्ज तारिसगंसिसियणिज्जंसि सालिंगणवट्टिए जाव नियगवयणमइवयंतं गयं सुमिणे पासित्ता णं परिबुद्धातं एवल्स गं देवानुप्पिया! उरालस्स कल्लाणस्स सिवस्स घण्णस्स मंगल्लस्स सस्सिरीयस्स सुमिणस्स के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भक्ति ? ६ नायाधम्मकहाओ और लोबान की जलती हुई धूप की सुरभिमय महक से उठने वाली गंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गन्धचूर्णो से सुगन्धित (होने से ) गंध वर्तिका के समान प्रतीत हो रहा था। मणियों की प्रभा से वहां का अंधकार नष्ट हो रहा था। अधिक क्या? अपनी द्युति और गुणों से वह प्रासाद प्रवर देव - विमान को भी विडम्बित कर रहा था। उस प्रासाद में एक विशिष्ट शयनीय था। उस पर शरीर प्रमाणउपधान (मसनद) रखे हुए थे।" सिर और पावों की ओर भी उपधान रखे हुए थे। अत: वह दोनों ओर से उभरा हुआ तथा मध्य में और गम्भीर था। गंगा तट की बालुका की भांति उस पर पांव रखते ही, वह नीचे धंस जाता था। वह परिकर्मित क्षौम- दुकूल पट्ट से ढका हुआ था। उस पर पतले झूलदार, ऊनी, रोएंदार कम्बल बिछे हुए थे। उसका रजस्त्राण ( चादर ) सुनिर्मित था। वह लाल रंग की मसहरी से संवृत ९ था। उसका स्पर्श चर्म वस्त्र, कपास, बूर वनस्पति और नवनीत के समान (मृदु) था उस पर सोयी हुई धारिणी देवी मध्यरात्री के समय अर्धजागृत अवस्था में बार-बार ऊंघती हुई, सात हाथ ऊंचे, रजत-शिखर जैसे सौम्य, शान्त आकृतिवाले क्रीड़ारत, जम्हाई लेते हुए और आकाश - से उतरकर, मुंह में प्रविष्ट होते हुए एक विशाल हाथी के स्वप्न को देखकर जाग उठी। श्रेणिक को स्वप्न निवेदन- पद १९. वह धारिणी देवी इस प्रकार के उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, श्री सम्पन्न महास्वप्न" को देखकर प्रतिबुद्ध, हृष्ट-तुष्ट चित्तवाली, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मनवाली, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदयवाली तथा मेय धारा से आहत कदम्ब कुसुम की भांति उच्चासित रोमकूपवाली हो गई । धारिणी देवी ने उस स्वप्न का अवग्रहण किया। अवग्रहण कर शयनीय से उठी। उठकर पादपीठ से नीचे उतरी । उत्तरकर अत्चरित, अचपल असंभ्रान्त अविलम्बित राजासिनी जैसी गति से जहां श्रेणिक राजा था, वहां आयी। वहां आकर इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ मनोहर, उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, श्रीसम्पन्न, हृदयगम्य हृदय को आल्हादित करने वाली, मित, मधुर स्वर-सम्पन्न, गम्भीर और समृद्धवाणी से पुन: पुन: संलाप करती हुई राजा श्रेणिक को जगाया। जगाकर राजा श्रेणिक की अनुज्ञा से वह नाना मणि, कनक और रत्नों की भांतों से चित्रित भद्रासन पर बैठ गई। बैठकर आश्वस्त - विश्वस्त हो प्रवर सुखासन में बैठी हुई धारिणी देवी दोनों हवेलियों से भिन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर राजा श्रेणिक से इस प्रकार बोली- देवानुप्रिय ! आज मैं शरीर प्रमाण उपधान वाले उस विशिष्ट शयनीय पर पूर्ववत् यावत् अपने मुंह में प्रविष्ट होते हुए विशाल हाथी के स्वप्न को देखकर जाग उठी। , देवानुप्रिय ! क्या मैं मानू इस उदार, कल्याणक शिव, धन्य, मंगलकारक और श्रीस्वप्न का कल्याणकारी विशिष्ट फल होगा? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ सेणियस्स सुमिणमहिम-निदंसण-पदं २०. तए णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ-चित्तमाणदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवस- विसप्पमाण हियए धाराहयनीवसुरभिकुसुम-चंचुमालइयतणू ऊसवियरोमकूवे तं सुमिणं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता ईहं पविसइ, पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविण्णाणेणं तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेइ, करेत्ता धारिणिं देविं ताहिं जाव हिययपल्हायणिज्जाहिं मिय-महुर-रिभिय-गंभीर-सस्सिरीयाहिं वग्गूहिं अणुवूहमाणे-अणुवूहमाणे एवं वयासी--उराले णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिउ । कल्लाणे णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिटे । सिवे धण्णे मंगल्ले सस्सिरीए णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिटे। आरोग्ग-तट्ठि-दीहाउय-कल्लाण-मंगल्लकारए णं तुमे देवि! सुमिणे दिढे । अत्थलाभो ते देवाणुप्पिए! पुत्तलाभो ते देवाणुप्पिए! रज्जलाभो ते देवाणुप्पिए! भोग-सोक्खलाभो ते देवाणुप्पिए! एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए! नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं वीइक्कंताणं अम्हं कुलकेउं कुलदीवंकुलपव्वयं कुलवडिंसयं कुलतिलकं कुलकित्तिकरं कुलवित्तिकरं कुलनंदिकर कुलजसकरं कुलाधारं कुलपायवं कुलविवद्धणकरं सुकुमालपाणिपायं जावसुरूवं दारयं पयाहिसि । से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णय-परिणयमेत्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विक्कते वित्थिण्ण-विपुल-बलवाहणे रज्जवईराया भविस्सइ । तं उराले णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिढे । कल्लाणे णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिटे । सिवे धण्णे मंगल्ले सस्सिरीए णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिटे। आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउय-कल्लाणमंगल्लकारए णं तुमे देवि! सुमिणे दिढे त्ति कटु भुज्जो-भुज्जो अणुवूहेइ॥ प्रथम अध्ययन : सूत्र २०-२१ श्रेणिक द्वारा स्वप्न-माहात्म्य निदर्शन-पद २०. धारिणी देवी से स्वप्न की बात सुनकर अवधारण कर राजा श्रेणिक हृष्ट-तुष्ट चित्तवाला, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मनवाला परम सौमनस्य युक्त, हर्ष से विकस्वर हृदयवाला तथा धारा से आहत कदम्ब के सुरभि-कुसुम की भांति पुलकित शरीर एवं उच्छ्वसित रोमकूप वाला हो गया। उसने स्वप्न का अवग्रहण किया। अवग्रहण कर ईहा में प्रवेश किया, प्रवेश कर अपने स्वाभाविक मति पूर्वक बुद्धि-विज्ञान के द्वारा उस स्वप्न के अर्थ का अवग्रहण किया। अवग्रहण कर हृदय को आल्हादित करने वाली यावत् मित, मधुर, स्वर-सम्पन्न, गम्भीर और समृद्ध वाणी से धारिणी देवी के उल्लास को पुन: पुन: बढ़ाता हुआ वह इस प्रकार बोला-- देवानुप्रिये! तुमने उदार स्वप्न देखा है। देवानुप्रिये! तुमने कल्याणक स्वप्न देखा है। देवानुप्रिये! तुमने शिव, धन्य, मंगलमय और श्रीस्वप्न देखा है। देवि! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारक स्वप्न देखा है। तुम्हें अर्थलाभ होगा देवानुप्रिये! तुम्हें पुत्रलाभ होगा देवानुप्रिये! तुम्हें राज्यलाभ होगा देवानुप्रिये! तुम्हें भोग और सुख का लाभ होगा देवानुप्रिये! देवानुप्रिये! तुम बहुप्रतिपूर्ण नौ मास साढ़े सात दिन व्यतिक्रान्त होने पर एक बालक को जन्म दोगी। वह बालक हमारे कुल की पताका, कुल-दीप, कुल-पर्वत, कुल-अवतंस, कुल-तिलक, कुल-कीर्तिकर, कुल-वृत्तिकर, कुल को आनन्दित करने वाला, कुल के यश का बढ़ाने वाला, कुल का आधार, कुल का पादप, कुल को बढ़ाने वाला, सुकुमार हाथ पैर वाला यावत् सुरूप होगा। और, वह बालक बाल अवस्था को पार कर विज्ञ और कला का पारगामी बनकर यौवन को प्राप्त कर, शूर, वीर, विक्रमशाली २, विपुल और विस्तीर्ण सेना व वाहन युक्त राज्य का अधिपति राजा होगा। इसलिए देवानुप्रिये! तुमने उदारं स्वप्न देखा है। देवानुप्रिये! तुमने कल्याणक स्वप्न देखा है। देवानुप्रिये! तुमने शिव, धन्य, मंगलमय और श्री-स्वप्न देखा है। देवि! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगल कारक स्वप्न देखा है--ऐसा कहकर राजा ने बार-बार उसके उल्लास को बढ़ाया। धारिणीए सुमिणजागरिया-पदं २१. तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठ-चित्तमाणदिया जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियया करयल- धारिणी की स्वप्न-जागरिका-पद २१. राजा श्रेणिक द्वारा ऐसा कहने पर धारिणी देवी हृष्ट-तुष्ट चित्त वाली आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाली हो गई। उसने Jain Education Interational Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन सूत्र २१-२४ परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी--एवमेयं देवाप्पिया! तहमेयं देवाणुप्पिया! अवितहमेयं देवाणुप्पिया! असंदिद्धमेयं देवाणुप्पिया! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया! पडिच्छियमेयं देवाप्पिया इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुष्पिवा! सच्चे णं एसम जंभे वह त्ति कट्टु तं सुमिणं सम्मं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता सेणिएण रन्ना अन्भणुग्णाया समाणी नाणामणिकणगरपणभत्तिवित्ताओ भासणाओ अब्भुद्वेद, अन्भुट्ठेत्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छद्र, उवागच्छित्ता सर्वसि सयणिज्जसि निसीयइ, निसीइत्ता एवं वयासी--मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुमिणे अण्णेहिं पावसुमिणेहिं परिहम्मिहित्ति कट्टु देवयगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुमिणजागरियं पहिजागरणमाणी- पहिजागरणमाणी विहरद्द । सुमिणपाढग निमंत्रण-पदं २२. तए गं से सेणिए राया पच्चूसकालसमर्पसि फोटुंबियपुरिले सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बाहिरियं उट्ठाणसालं अज्ज 'सविसेसं परमरम्मं' गंधोदगसित्तसुइय सम्मज्जिओवलित्तं पंचवण्ण- सरससुरभि-मुक्कपुष्कपुंजोक्यारकलियं कालागर - पवरकुंश्वक तुरुवक-ध्रुवउज्झत- सुरभि-मघमघेंत - गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवर (गंध ? ) धियं गंधवट्टिभूयं करेह, कारवेह व एयमाणत्तियंपच्चाप्पिनह ।। - २३. लए णं ते कोदुबियपुरिसा सेणिएणं रण्णा एवं वृत्ता समाणा हट्ट - चित्तमाणोंदिया पोमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति ।। २४. तए गं से सेणिए राया कल्लं पाउष्यभावाए रयणीए फुल्लुप्पलकमल-कोमलुम्मिलिपम्मि अहपंडुरे पभाए रत्तासोगप्पगास-किंतुपसुयमुह - गुंजद्ध-बंधुजीवग-पारावयचलणनयण-परहुयसुरत्तलोयणजासुमणकुसुम-जलिपजलण तवणिज्जकलस- हिंगुलयनिगररूवाइरेगरेहत- सस्सिरीए दिवावरे अहकमेण उदिए तस्स दिणकरकरपरंपरोयारपारर्द्धमि अंधयारे बालातव- कुंकुमेण खचितेव्व जीवलोए लोयण- विसयानुवास विगसंत-विसददसियम्मि लोए कमलागर संडवोहए उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते सयणिज्जाओ उद्वेद, उद्वेत्ता जेणेव अट्टणसाला, तेणेव उवागच्छद्र, उवागच्छित्ता अट्टणसालं अणुपविसद । नायाधम्मकहाओ दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! यह ऐसा ही है। देवानुप्रिय! यह तथा (संवादितापूर्ण) है देवानुप्रिय ! यह अवित्तथ है। देवानुप्रिय! यह असंदिग्ध है देवानुप्रिया यह दृष्ट है। देवानुप्रिय ! यह प्रतीप्सित ( प्राप्त करने के लिए इष्ट) है। देवानुप्रिय ! यह इष्ट-प्रतीप्सित है । देवानुप्रिय ! जैसा तुम कह रहे हो वह अर्थ सत्य है - ऐसा भाव प्रदर्शित कर उस स्वप्न के फल को सम्यक् स्वीकार किया। स्वीकार कर राजा श्रेणिक की अभ्यनुज्ञा प्राप्त कर नाना मणि, कनक, रत्न की भांतों से चित्रित भद्रासन से उठी । उठकर जहां अपना शयनीय था, वहां आई। वहां आकर शयनीय पर बैठ गई। बैठकर इस प्रकार बोली- "मेरा वह उत्तम प्रधान और मंगल स्वप्न किन्हीं अन्य पाप-स्वप्नों के द्वारा प्रतिहत न हो जाए" -- ऐसा कहकर वह देव तथा गुरुजनों से सम्बद्ध प्रशस्त धार्मिक कथाओं के द्वारा स्वप्न जागरिका" के प्रति सतत प्रतिजागृत रहती हुई विहार करने लगी। स्वप्न- पाठक- निमन्त्रण पद २२. उस श्रेणिक राजा ने प्रत्यूषकाल के समय कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- हे देवानुप्रियो! आज शीघ्र ही बाहरी उपस्थानशाला (सभा मण्डप) को विशेष रूप से सुगन्धित जल से सींच, झाड़ बुहारकर, गोबर का लेप कर, प्रवर सुगन्धित पांच वर्ण के पुष्पों के उपचार से युक्त, काली अगर, प्रवर कुन्दुरु और हुए लोबान धूप से उद्धत गंध से अभिराम, प्रवर सुरभिवाले गन्धचूर्णो से सुरभित, गंधवर्तिका के समान करो, कराओ। मुझे इस आज्ञा प्रत्यर्पित करो। २३. कौटुम्बिक पुरुष राजा श्रेणिक के ऐसा कहने पर दृष्ट-तुष्ट चित्त वाले आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाले परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाले होकर राजा की उम्र आशा को प्रत्यर्पित किया। २४. श्रेणिक राजा उषाकाल में पौ फटने पर और रात्रि के निर्मल होने पर प्रफुल्ति उत्पल और अर्ध विकसित कोमल कमल वाले, पीत आभा वाले अरुणिम प्रभात में लाल अशोक की दीप्ति, पलाश, तोते के मुख, गुञ्जार्ध, दुपहरिया फूल कबूतर के चरण और नयन, कोकिल के रक्तिम लोचन, जवा कुसुम, प्रज्ज्वलित अग्नि, स्वर्ण-कलश और हिंगुल राशि के रूप से भी अधिक शोभायमान, श्री सम्पन्न दिवाकर क्रमशः उदित हुआ। उस दिनकर के रश्मिजाल के अवतरण से अंधकार निरस्त हुआ। समूचा जीव लोक बाल आतप रूपी कुंकुम की रेखा से खचित - सा हो गया। नेत्रों द्वारा दश्य-पदार्थ उत्तरोत्तर स्पष्ट दिखाई देने लगे। जलाशयगत नतिनीवन के उद्बोधक सहस्ररश्मि, Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ अणेगवायाम-जोग्ग-वग्गण-वामद्दण-मल्लजुद्धकरणेहि संते परिस्संते सयपागसहस्सपागेहिं सुगंधवरतेल्लमादिएहिं पीणणिज्जेहिं दीवणिज्जेहिं दप्पणिज्जेहिं मयणिज्जेहिं विंहणिज्जेहिं सब्विंदियगायपल्हायणिज्जेहिं अब्भंगेहिं अब्भंगिए समाणे, तेल्लचम्मंसि पडिपुण्ण-पाणिपाय-सुकुमाल कोमलतलेहिं पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पढेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं निउणेहिं निउणसिप्पोवगएहिं जियपरिस्समेहिं अब्भंगण-परिमद्दणुव्वलणकरण-गुणनिम्माएहिं, अट्ठिसुहाए मंससुहाए तयासुहाए रोमसुहाए--चउन्विहाए संवाहणाए संवाहिए समाणे अवगयपरिस्समे नरिदे अट्टणसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता समत्तजालाभिरामे विचित्त-मणि-रयण-कोट्टिमतले रमणिज्जे ण्हाणमंडवंसि नाणामणिरयण-भत्तिचित्तंसि पहाणपीढंसि सुहनिसण्णे सुहोदएहिं गंधोदएहिं पुप्फोदएहिं सुद्धोदएहिं य पुणो पुणो कल्लाणगपवरमज्जणविहीए मज्जिए तत्थ कोउयसएहिं बहुविहेहिं कल्लाणगपवरमज्जणावसाणे पम्हल-सुकुमाल-गंधकासाइ-लूहियंगे अहय-सुमहाघ-दूसरयण-सुसंवुए सरस-सुरभि-गोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते सुइमाला-वण्णगविलेवणे आविद्ध-मणिसुवण्णे कप्पिय-हारद्धहार-तिसरयपालब-पलबमाण-कडिसुत्त-सुकयसोहे पिणद्धगेकेज-अंगुलेज्जग-ललियंगय-ललियकयाभरणे नाणामणिकडग-तुडिय-थंभियभुए अहियरूवसस्सिरीए कुंडलुज्जोइयाणणे मउड-दित्तसिरए हारोत्थय-सुकय-रइयवच्छे मुद्दिया-पिंगलंगुलीए पालब-पलबमाण-सुकय-पडउत्तरिज्जे नाणामणिकणगरयणविमल-महरिह-निउणोविय-मिसिमिसिंत-विरइय-सुसिलिट्ठविसिट्ठ-लट्ठ-संठिय-पसत्थ-आविद्ध-वीरवलए, किं बहुणा? कप्परुक्खए चेव सुअलंकिय-विभूसिए नरिदे सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं चउचामरवालवीइयंगे मंगल-जयसद्द-कयालोए अणेगगणनायग-दंडनायग-राईसर-तलवरमांडबिय-कोडुंबिय-मंति-महामंति-गणग-दोवारिय-अमच्चचेड-पीढमद्द-नगर-निगम-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाह-दूयसंधिवालसद्धिं संपरिखडे धवलमहामेहनिग्गए विव गहगण-दिप्पंतरिक्खतारागणाण मज्झे ससि ब्व पियदसणे नरवई मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे॥ प्रथम अध्ययन : सूत्र २४ दिनकर, सूर्य के उत्थित तेज से देदीप्यमान होने पर राजा श्रेणिक शयनीय से उठा। उठकर जहां व्यायामशाला" थी, वहां आया। वहां आकर व्यायामशाला के अन्दर प्रवेश किया। नाना प्रकार के व्यायाम, शस्त्राभ्यास, कूर्दन, व्यामर्दन (आबनूस के बेलनों द्वारा की जाने वाली मालिश), मल्लयुद्ध और आसनों के द्वारा जब वह श्रान्त और परिश्रान्त हो गया, तब धातुसाम्य करने वाले, अग्नि-दीपन करने वाले, बल बढ़ाने वाले, वीर्य बढ़ाने वाले, मांस को पुष्ट करने वाले, सब इन्द्रियों और अवयवों को आल्हादित करने वाले, शतपाक, सहस्रपाक", आदि प्रवर सुगन्धित तैल तथा मर्दन-द्रव्यों के द्वारा अवसरज्ञ, दक्ष, अग्रणी, कुशल, मेधावी, निपुण, निपुण-शिल्प युक्त, परिश्रम से नहीं थकने वाले, अभ्यंग, परिमर्दन, उबटन और थपथपाने में अभ्यस्त तथा परिपूर्ण, सुकुमार और कोमल हाथ-पांवों के तलवों वाले पुरुषों द्वारा, तैल से स्निग्ध त्वचा वाले राजा श्रेणिक के लिए अस्थि-सुखद, मांस-सुखद, त्वचा-सुखद और रोम-सुखद-इन चारों प्रकारों के मर्दनों से मर्दन किया गया। थकान दूर होने पर वह राजा व्यायामशाला से बाहर निकला, जहां स्नानघर था, वहां आया आकर स्नानघर में प्रवेश किया। प्रवेश कर चारों ओर जालियों वाले, अभिराम, रंग-बिरंगे मणि-रत्नों से कुट्टित तल वाले, रमणीय, स्नान-मण्डप में नाना मणि-रत्नों की भांतों से चित्रित, स्नान-पीठ पर आराम से बैठ, शुभोदक, गन्धोदक, पुष्पोदक, और शुद्धोदक से कल्याणक प्रवर मज्जन-विधि से पुन: पुन: स्नान किया। सैंकड़ों प्रकार के कौतुक कर्म के साथ उसने कल्याणक, प्रवर स्नान-क्रिया को सम्पन्न किया। रोएंदार, सुकुमार, सुगन्धित, गेरुएं रंग के वस्त्र से अंग पोंछा। नये और बहुमूल्य दूष्यरत्न (बहुमूल्य वस्त्र) पहने। गात्र पर सरस, सुरभित गोशीर्ष-चन्दन का लेप किया। पवित्र मालाएं पहनी और चन्दन का विलेपन किया। मणिजटित स्वर्णाभरण पहने। हार, अर्धहार, त्रिसरा, झूमके तथा लटकती हुई करघनी से शरीर की शोभा को बढ़ाया। गले में ग्रैवेयक और अंगुलियों में अंगूठियां पहनी। अन्य भी अनेक प्रकार के आभूषणों से उसके ललित शरीर का लालित्य द्विगुणित हो गया। नाना मणि-जटित कड़े और बाहुरक्षक से भुजाएं स्तम्भित हो गयी। इस प्रकार वह अधिक रूप और शोभा-सम्पन्न हो गया। कानों में पहने हुए कुण्डलों से उसका मुंह उद्योतित हो रहा था। मुकुट से उसका मस्तक दीप्त हो रहा था। विविध प्रकार के हारों से आच्छादित उसका वक्षस्थल बहुत ही नयनाभिराम लग रहा था। मुद्रिकाओं से उसकी अंगुलिया पीली दिखाई दे रही थी। लम्बे, लटकते हुए उत्तरीय पट को भली-भांति ओढ़ा। नाना मणि, स्वर्ण और रत्न जटित, विमल, महामूल्य, निपुण शिल्पियों द्वारा परिकर्मित, देदीप्यमान सुविरचित, सुश्लिष्ट, विशिष्ट तथा कमनीय संस्थान वाले प्रशस्त वीरवलय को पहना। किं बहुना? वह नरेन्द्र कल्पवृक्ष की तरह अलंकृत और विभूषित हो गया। Jain Education Intemational Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन सूत्र २४-२७ २५. तए गं से सेणिए राया अप्पणो अदूरसामंते उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अट्ठ भद्दासणाई - - सेयवत्थ - पच्चुत्थुयाइं सिद्धत्थयमंगलोवयार-कय-संतिकम्माइं-रयावेइ, रयावेत्ता नाणामणिरतणमंडियं अहियपेच्छणिज्जरूवं महग्घवरपट्टणुग्गयं सह बहुभत्तिसय- चितठाणं ईहामिय-उसभ तुरय-नर-मगरविहग वालग किन्नर रुरु- सरभ- चमर-कुंजर वणलय- पउमलयभत्तिचित्तं सुखचिपवरकणगपवरपेरंत-देसभागं अन्धितरियं जवणियं अंछावेइ, अंछावेत्ता अत्थरग-मउअमसूरग-उत्थइयं धवलवत्थपच्चत्यं विसिट्ठअंगसुहफासयं सुमउयं धारिणीए देवीए भद्दासणं यावे, रावेत्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेद, सहावेत्ता एवं क्यासीविप्पामेव भी देवाणुप्पिया! अगमहानिमितसुतत्यपाठए विविहसत्यकुसले सुमिणपाढए सदावेह, सद्दावेत्ता एयमाणत्तिय विप्पामेव पच्चपिगह ।। २६. तए णं ते कोडुबियपुरिसा सेणिएणं रण्णा एवं वृत्ता समाणा हट्ठ-1 -चित्तमाणंदिया जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियया करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं देवो! तह ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुर्णेति, सेणियत्स रण्णो अंतियाओ पटिनिक्समति, रायगिहस्स नगरस्स ममझेणं जेणेव सुमिणपाड वगिहाणि तेणेव उपागच्छति, उवागच्छित्ता सुमिणपाढए सद्दावेंति । । - सेणियस्स सुमिणफल- पुच्छा-पदं २७. तए णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्त रण्णो कोडुबियपुरिसेडिं सद्दाविया समाणा हट्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिया जाव हरिसवस १० नायाधम्मकहाओ उसने कटसरैया के फूलों की मालाओं से युक्त छत्र धारण किया, जिसके दोनों ओर दो-दो चामर डुलाए जा रहे थे । उसको देखते ही जन-समूह मंगल जय - निनाद करने लगा । अनेक गण-नायक, दण्ड नायक, राजा ईश्वर, तलवर (कोटवाल) माम्बिक, कौटुम्बिक, मंत्री, महामंत्री कोषाध्यक्ष, द्वारपाल, अमात्य, सेवक, राजा के पास रहने वाला सखा, नागरिक, व्यापारी श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिपालों के साथ ", उनसे घिरा हुआ धवल महामेघ पटल से निर्गत, ग्रह, नक्षत्र और तारकों के मध्य देदीप्यमान शशि की भांति प्रियदर्शन नरपति स्नान घर से बाहर निकला। निकलकर जहां बाहरी उपस्थानशाला (सभा मण्डप) थी वहां आया और प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख हो, बैठ गया। २५. राजा श्रेणिक ने अपने से न अति दूर, न अति निकट, ईशान कोण २ में आठ भद्रासन स्थापित करवाए। उन पर श्वेत वस्त्र बिछे हुए थे। सरसों डालकर मंगल उपचार और शान्ति-कर्म किये गये उस उपस्थानशाला ( सभा मण्डप) में नाना मणि-रत्नों से मण्डित अतिप्रेक्षणीय रूपवाली, बहुमूल्य, प्रवर पत्तन में ढकी हुई, चिकने, सैंकड़ों भांतों से चित्रित भेड़िया, बैल, घोड़ा, मनुष्य, भगरमच्छ, पक्षी, सर्प, किन्नर, मृग, अष्टापद, चमरी गाय, हाथी, अशोक लता, पद्मलता आदि की भांतों से चित्रित, किनारों पर शुद्ध सोने के तारों की कढ़ाई से युक्त भीतरी यवनिका लगवाई। यवनिका लगाकर धारिणी देवी के लिए एक भद्रासन स्थापित करवाया। जो बिछौने और कोमल उपधानों से युक्त था। जिस पर धवल वस्त्र बिछे हुए थे। जो शरीर के लिए विशिष्ट, सुखद स्पर्शवाला और अतीव सुकोमल था। भद्रासन स्थापित करवाया। करवाकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रियो! अष्टांग महानिमित्त" के सूत्र और अर्थ के पाठक, विविध शास्त्रों में कुशल स्वप्नपाठकों को शीघ्र बुलाओ। बुलाकर इस आज्ञा को शीघ्र ही मुझे प्रत्यर्पित करो । २६. राजा श्रेणिक से वह आदेश पाकर दृष्ट तुष्ट चित्त वाले, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाले कौटुम्बिक पुरुषों ने जुड़ी हुई सटे हुए दस नख वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जैसी आपकी आज्ञा यह कहकर विनयपूर्वक आदेश-वचन को स्वीकार किया। राजा श्रेणिक के पास से (उठकर) बाहर आए। राजगृह नगर के बीचोंबीच होकर, जहां स्वप्न पाठकों के घर थे, वहां आए। वहां आकर स्वप्नपाठकों को निमंत्रित किया । श्रेणिक द्वारा स्वप्नफल-पृच्छा पद २७. राजा श्रेणिक के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा निमंत्रित किए जाने पर दृष्ट-तुष्ट वित्त वाले, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाले Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ विसप्पमाणहियया व्हाया कयवलिकम्मा कप कोउप-मंगल पायच्छिता अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा हरियालिय-सिद्धत्ययक्यमुद्धामा सएहिं सएहिं गेहेहिंतो पडिनिक्खमति, परिनिक्वमिता रायगिहस्स नगरस्त मज्झमझेगं जेणेव सेगियस्स भवगवगदुवारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता एगयओ मिलंति, मिलित्ता सेणियरस रण्णो भवणवडेंसगद्वारेण अणुष्पविसंति, अणुष्यविसित्ता जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला, जेणेव सेणिए राया, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता सेणियं रायं जएणं विजएणं वद्धावेंति, सेणिएणं रण्णा अच्चिय-वंदिय-पूय-माणिय-सक्कारिय सम्माणिया समाणा पत्तेयं-पत्तेयं पुव्वन्नत्येसु भद्दासणेसु निसीयत । । २८. लए णं से सेणिए राया जवणियंतरियं धारिणि देवि ठवे वेता पुप्फफलपsिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते सुमिणपाढए एवं क्यासी एवं खलु देवाणुनिया! धारिणी देवी अज्ज तसि तारिससि सयणिज्जंसि जाव महासुमिणं पासित्ता णं पडिबुद्धा । तं एयस्स णं देवाप्पिया! उरालस्स जाव सस्सिरीयस्स महासुमिणस्स के मण्णे कल्लाणे फलवित्तिविसेले भविस्सद् ? ।। सुमिणफल-कहण-पदं २९. तए णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रण्णो अंतिए एयमट्ठ सोच्चा निसम्म हट्ठट्ठ-1 -चित्तमाणंदिया जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियया तं सुमिगं सम्मं ओगिण्हति ओगिण्डित्ता ईहं अणुप्पवितति, अणुप्पविसित्ता अण्णमण्णेण सद्धिं संचालेंति, संचालेत्ता तस्स सुमिणस्स लद्धडा पुच्छिया गहिया विणिच्छियट्ठा अभिगवा सेनियस रण्णो पुरजो सुमिणसत्याई उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा एवं वयासी एवं वतु अम्हं सामी! सुमिणसत्यंसि वायातीसं सुमिणा, तीसं महासुमिणा -- बावत्तरिं सव्वसुमिणा दिट्ठा । तत्य णं सामी! अरहंतमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा अरहंतसि वा चक्कवट्टिंसि वा गब्भं वक्कममाणसि एएसिं तीसाए महासुमिणाणं इमे चोदस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुज्नंति, तं जहा- संगहणी-गाहा १. गय २. वसह ३. सीह ४ अभिसेय ५. दाम ६. ससि ७. दिणयर ८. झयं ९. कुंभं । १०. पउमसर ११. सागर १२. विमाणभवण १३. रयणुच्चय १४. सिहिंच ।। वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोदसहं महासुभिणाणं अण्णयरे सत्त महासुमिणे पासित्ता गं पडिबुज्झति । बलदेवमायरो वा बलदेवसि गब्भं वक्कममाणसि एएसिं चोद्दसहं महासुभिणाणं अण्णयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता नं पडिवुज्झति । ११ " प्रथम अध्ययन : सूत्र २७-२९ स्वप्नपाठकों ने स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित्त किया। अल्पभार और बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। मस्तक पर दूब और श्वेत सर्षप रख वे अपने-अपने घरों से निकले निकलकर राजगृह नगर के बीचो बीच जहां श्रेणिक के भवन का मुख्य द्वार था, वहां आए। आकर परस्पर मिले, मिलकर राजा श्रेणिक के भवन के मुख्य द्वार में प्रवेश किया। प्रवेशकर जहां बाहरी सभा मण्डप था, जहां राजा श्रेणिक था, वहां आए। वहां आकर राजा श्रेणिक का जय-विजय की ध्वनि से वर्द्धापन किया। राजा श्रेणिक द्वारा अर्चित, वन्दित, पूजित, मानित, सत्कारित और सम्मानित " होकर अपने-अपने पूर्व स्थापित भद्रासनों पर बैठ गए। १५ २८. राजा श्रेणिक ने धारिणी देवी को यवनिका के भीतर बिठाया। बिठाकर फूलों और फलों से भरे हुए हाथों वाले राजा श्रेणिक ने परम विनय पूर्वक उन स्वप्नपाठकों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो! आज धारिणी देवी अपने उस विशिष्ट शयनीय पर सोई हुई थी यावत् वह हाथी के महास्वप्न को देख कर जागृत हो गई। अतः देवानुप्रियो ! इस उदार यावत् श्रीसम्पन्न महास्वप्न का क्या कल्याणकारी विशिष्ट फल होगा? स्वप्न फल कथन-पद २९. वे स्वप्नपाठक राजा श्रेणिक के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर दृष्ट तुष्ट चित्त वाले, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाले हो गए। स्वप्नपाठकों ने उस स्वप्न का भली-भांति अवग्रहण किया, अवग्रहण कर ईहा में अनुप्रवेश किया। अनुप्रवेश कर परस्पर पर्यालोचना की। पर्यालोचना कर उस स्वप्न के अर्थ को स्वयं जाना, उस विषय में प्रश्न किया, अर्थ का ग्रहण किया, उसका विनिश्चय किया, अर्थ को हृदयंगम किया, राजा श्रेणिक के सामने स्वप्नशास्त्रों का पुनः पुनः उच्चारण करते हुए इस प्रकार कहा-स्वामिन्! हमारे स्वप्नशास्त्रों में इस प्रकार बयालीस स्वप्न, तीस महास्वप्न कुल मिलाकर बहत्तर स्वप्न निर्दिष्ट हैं। स्वामिन्! उनके अनुसार अर्हत् की माता और चक्रवर्ती की माता अर्हत् और चक्रवर्ती के गर्भावक्रान्ति के समय इन तीस महास्वप्नों में से ये चौदह महास्वप्न देखकर जागृत होती है, जैसे-संग्रहणी गाथा १. गज २. वृषभ ३ सिंह ४ अभिषेक ५ माला ६. चन्द्रमा ७. दिनकर ८. ध्वज ९. कलश १०. पद्मसरोवर ११ सागर १२. विमान भवन १३. रत्न राशि १४ अग्नि । १८ वासुदेव की माता वासुदेव के गर्भावक्रान्ति के समय इन चौदह महास्वप्नों में से कोई सात महास्वप्न देखकर जागृत होती है। बलदेव की माता बलदेव के गर्भावक्रान्ति के समय इन चौदह महास्वप्नों में से कोई चार महास्वप्न देखकर जागृत होती है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र २९-३१ मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गब्भ वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अण्णयरं महासुमिणं पासित्ता गं पडिबुज्झंति। इमे य सामी! धारिणीए देवीए एगे महासुमिणे दिटे, तं उराले णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिढे जाव आरोग्गतुट्ठि-दीहाउय-कल्लाण-मंगल्लकारए णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिढे । अत्थलाभो सामी! पुत्तलाभो सामी! रज्जलाभो सामी! भोगलाभो सामी! सोक्खलाभो सामी! एवं खलु सामी! धारिणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपण्णाणं जाव दारगं पयाहिइ। से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णय-परिणयमित्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विक्कते वित्थिण्ण-विपुल-बलवाहणे रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे वा भावियप्पा । तं उराले णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिढे जाव आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउय-कल्लाण-मंगल्लकारए णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिढे त्ति कटु भुज्जो-भुज्जो अणुव्हेंति ।। नायाधम्मकहाओ माण्डलिक राजा की माता माण्डलिक राजा के गर्भावक्रान्ति के समय इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखकर जागृत होती है। स्वामिन्! इन महास्वप्नों में धारिणी देवी ने एक हाथी का महास्वप्न देखा है। इसलिए स्वामिन्! धारिणी देवी ने उदार स्वप्न देखा है यावत् स्वामिन्! धारिणी देवी ने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण तथा मंगलकारी स्वप्न देखा है। स्वामिन्! अर्थलाभ होगा। स्वामिन! पुत्रलाभ होगा। स्वामिन्! राज्यलाभ होगा। स्वामिन्! भोगलाभ होगा। स्वामिन्! सुखलाभ होगा। इस प्रकार स्वामिन्! धारिणी देवी बहुप्रतिपूर्ण नौ मास बीतने पर यावत् (१-१-२०) एक सुरूप बालक को जन्म देगी। वह बालक बाल्यावस्था को पार कर, विज्ञ और कला का पारगामी बनकर, यौवन को प्राप्त कर, शूर, वीर, विक्रान्त, विपुल-विस्तीर्ण सेना और वाहन युक्त राज्य का अधिपति राजा होगा अथवा भावितात्मा अनगार होगा। इसलिए स्वामिन्! (हमारा अभिमत प्रामाणिक है कि) धारिणी देवी ने उदार स्वप्न देखा है यावत् स्वामिन्! धारिणी देवी ने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगल कारक स्वप्न देखा है--ऐसा कह, उन्होंने पुन: पुन: राजा के उल्लास का संवर्द्धन किया। सुमिणपाढग-विसज्जण-पदं ३०. तए णं से सेणिए राया तेसिं सुमिणपाढगाणं अंतिए एयम₹ सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिए जाव हरिसवस- विसप्पमाणहियए करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवमेयं देवाणुप्पिया! जाव जं णं तुब्भे वयह त्ति कटु तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ, ते सुमिणपाढए विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-गंध-मल्लालंकारेण य सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलयति, दलइत्ता पडिविसज्जेइ। स्वप्नपाठक-विसर्जन-पद ३०. उन स्वप्न पाठकों से यह अर्थ सुनकर-अवधारण कर हृष्ट तुष्ट चित्तवाला, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदयवाला राजा श्रेणिक दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकार इस प्रकार बोला--ऐसा ही है देवानुप्रियो! यावत् जो तुम कह रहे हो--ऐसा कहकर यावत् उसने स्वप्न को भली भांति स्वीकार किया। उन स्वप्नपाठकों का विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, गन्ध और माल्यालंकारों से सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार-सम्मान कर जीवन निर्वाह के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया, प्रीतिदान देकर प्रतिविसर्जित किया। सेणियस्स सुमिणपसंसा-पदं ३१. तए णं से सेणिए राया सीहासणाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुढेत्ता जेणेव धारिणी देवी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धारिणिं देविं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिए! सुमिणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा तीसं महासुमिणा--बावत्तरिं सव्वसुमिणा दिट्ठा जाव तं उराले णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिढे । कल्लाणे णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिटे । सिवे धण्णे मंगल्ले सस्सिरीए णं तमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिढे । आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउय-कल्लाण-मंगल्ल-कारए णं तुमे देवि! सुमिणे दिढे त्ति कटु भुज्जो-भुज्जो अणुवूहेइ ।। श्रेणिक द्वारा स्वप्न-प्रशंसा-पद ३१. तब राजा श्रेणिक सिंहासन से उठा, उठकर जहां धारिणी देवी थी, वहां आया, आकर धारिणी देवी से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिये! स्वप्न शास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न--इस प्रकार बहत्तर स्वप्न निर्दिष्ट हैं, यावत् देवानुप्रिये! तुमने उदार स्वप्न देखा है। देवानुप्रिये! तुमने कल्याणक स्वप्न देखा है। देवानुप्रिये! तुमने शिव, धन्य, मंगलमय और श्रीसम्पन्न स्वप्न देखा है। देवी! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारक स्वप्न देखा है--ऐसा कह, उसने पुन:-पुन: धारिणी देवी के उल्लास का संवर्द्धन किया। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याधम्मकाओ धारिणीए दोहल - पदं ३२. तए णं सा धारिणी देवी सेणियस्स रण्णो अंतिए एयमहं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिया जाव हरिसवस - विसप्पमाणहियया तं सुमिणं सम्मं पडिच्छति, जेणेव सए वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता व्हाया कयबलिकम्मा कय-कोउय-मंगल- पायच्छित्ता विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ ।। ३३. तए णं तीसे धारिणीए देवीए दोसु मासेसु वीइक्कंतेसु तइए मासे वट्टमाणे तस्स गब्भस्स दोहलकालसमयंसि अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउब्भवित्था- घण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्याओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं तासिं माणुस्सए जम्मजीवियफले, जाओ गं मेसु अब्भुग्गएसु अब्भुज्जएस अब्भुण्णएसु अब्भुट्ठिएसु सगज्जिएसु सविज्जुए सफुसिएस सथणिएसु धंतधोय- रुप्पपट्ट-अंक-संखचंद - कुंद-सालिपिट्ठरासिसमप्पभेसु चिकुर-हरियाल-भेय-चंपगसण- कोरेंट-सरिसव-पउमरयसमप्पभेसु लक्खारस- सरसरत्त किंसुय- जासुमण-रत्तबंधुजीवग-जातिहिंगुलय - सरस - कुंकुम - उरब्भससरुहिर - इंदगोवग- समप्पभेसु बरहिण - नील-गुलियसुगचासपिच्छ-भिंगपत्त- सासग - नीलुप्पलनियर - नवसिरीसकुसुमनवसद्दलसमप्पभेसु जच्चजण भिंगभेय-रिट्ठग-भमरावलिगवलगुलिय- कज्जलसमप्पभेसु फुरंत - विज्जुय-सगज्जिएसु वायवसविपुलगगण-चवलपरिसक्किरेसु, निम्मल - वरवारिधारा-पयलियपयंडमाख्यसमाहय-समोत्थरंत उवरि उवरि तुरियवासं पवासिएसु, धारा - पहकर निवाय - निव्वाविय मेइणितले हरियगगणकंचुए पल्लविय पायव - गणेसु वल्लिवियाणेसु पसरिएसु उन्न सोभग्गमुवगएसु वैभारगिरिप्पवाय-तड- कडगविमुक्केसु उज्झरेसु, तुरियपहाविय - पल्लोट्टफेणाउलं सकलुतं जलं वहतीसु गिरिनदीसु सज्जज्जुण-नीव-कुडय-कंदल - सिलिंध- कलिएसु उववणेसु । मेहरसिय-हट्ठतुट्ठचिट्ठिय-हरिसवसपमुक्ककंठ केकारवं मुयंतेसु बरहिणेसु उउवस-मयजणिय-तरुणसहयरि-पणच्चिएसु नवसुरभिसिलिंध- कुडय - कंदल - कलंब - गंधद्धणिं मुयंतेसु उववणेसु । परहु-रुप-रिभिय-संकुलेसु उद्दाइंत-रत्तइंदगोवय-थोवयकारुण्णविनविएसु ओणयतणमंडिएसु ददुरपयंपिएसु संपिंडिय - दरिय- भमर - महुयरिपहकर परिलिंत मत्त छप्पयकुसुमासवलोल-महुर-गुंजंतदेसभाएसु उववणेसु । परिसामिय- चंद- सूर-गहगण-पणट्ठनक्खत्त - तारगपहे इंदा उह-बद्ध - चिंधपट्टम्मि अंबरतले उड्डीणबलागपंति-सोभतमेहवदे कारंडग-चक्कवाय-कलहंस - उस्सुयकरे संपत्ते पाउसम्म काले १३ प्रथम अध्ययन सूत्र ३२-३३ धारिणी का दोहद-पद ३२. वह धारिणी देवी राजा श्रेणिक के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट चित्त वाली, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदयवाली हो गई। उस स्वप्न को सम्यक् स्वीकार किया। जहां अपना निवास था, वहां आयी । आकर उसने स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित्त किया और विपुल भोगाई भोगों का उपभोग करती विहार करने लगी। ३३. धारिणी देवी को गर्भ धारण किये जब दो महीने व्यतीत हो गए और तीसरा महीना चल रहा था, तब दोहद-काल के समय उसके मन में अकाल मेघ सम्बन्धी दोहद उत्पन्न हुआ- "धन्य हैं वे माताएं, पुण्यवती हैं वे माताएं कृतार्थ हैं वे माताएं, कृतपुण्य हैं वे माताएं, कृतलक्षण हैं वे माताएं, वैभवशालिनी हैं वे माताएं, उन्हीं माताओं ने मनुष्य के जन्म और जीवन का फल पाया है, जब आकाश में मेघ उमड़ रहा हो, विस्तार पा रहा हो, झुका हुआ हो, और बरसने को हो। जिसमें गर्जन हो रहा हो, बिजलियां कौंध रहीं हों, फुंहारें गिर रही हों और स्तनित शब्द हो रहा हो। जो बादल अग्नि में तपाये हुए रजत-पट, अंक-रत्न, शंख, चन्द्रमा, कुन्दपुष्प तथा चावलों के आटे की राशि के समान- श्वेत आभा वाले हों, चिकुर, हरिताल-खण्ड, चम्पक, सन-पुष्प, कटसरैया और सरसों के फूल तथा पद्मरज के समान पीत प्रभा वाले हों, लाक्षारस, सरस रक्तपलाश, जवाकुसुम, लाल दुपहरिया, जात्य- हिंगुल आर्द्र कुंकुम, उरभ्र तथा खरगोश के रक्त और वीर-वधूटियों के समान रक्तिम प्रभा वाले हों, मयूर, , नीलमणि, गुलिका, तोते और चाष के पंख, भौंरे की पांख, रांगा, नीलोत्पल-समूह, नए शिरीष कुसुम और नई दूब के समान नील प्रभावाले हों, जात्य अंजन - रत्न, कोयले के टुकड़े, अरिष्टरत्न, भ्रमरावलि, भैंसे के सींग और काजल के समान श्याम प्रभा वाले हों। जिनमें बिजलियां चमक रहीं हों, जो गाज रहे हों, जो वात- प्रेरित हो, चपलता से विपुल गगन में विहरण कर रहे हों, जो निर्मल प्रवर जलधाराओं को छोड़ते हुए प्रचण्ड पवन-वेग से धरातल को आच्छादित कर विरल तेजगति से बरस रहे हों। मेदिनीतल वर्षा के अविरल धारा- निपात से शीतल हो गया हो, जो हरीतिमा की केंचुली पहने हुए हो, जिनमें वृक्ष-समूह पल्लवित हो, बेलों का जाल फैला (बिछा हुआ हो, उन्नत भू-भाग सौभाग्य को प्राप्त हो रहा हो, वैभारगिरी के प्रपात, तरि और मेखलाओं से निर्झर गिर रहे हों, पहाड़ी नदियां तेज दौड़ और घुमाव के कारण फेनिल और मटमैला पानी प्रवाहित कर रही हों, जो सलई, अर्जुन, कदम्ब, कुटज, कन्दल और कुकुरमुत्तों से आकलित हों-- ऐसे उपवनों में । जहां मेघ की गर्जना से हृष्ट-तुष्ट चेष्टा वाले मोर उल्लासवश मुक्त कण्ठ से केका-रव कर रहे हों, वर्षा ऋतु जनित उन्मत्तता के कारण तरुण सहचरियों (मयूरियों) के साथ नृत्य कर रहे हों, जहां Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : सूत्र ३३ ण्हायाओ कयबलिकम्माओ कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ताओ किं ते? वरपायपत्तनेउर-मणिमेहल-हार-रइय-ओविय-कडगखुड्डय-विचित्तवरवलयर्थभियभुयाओ कुंडलउज्जोवियाणणाओ रयणभूसियंगीओ, नासा-नीसासवाय-वोज्झं चक्खुहरं वण्णफरिससंजुत्तं हयलालापेलवाइरेयं धवलकणय-खचियंतकम्म आगासफलिह-सरिसप्पभं अंसुयं पवर परिहियाओ, दुगूलसुकुमालउत्तरिज्जाओ सव्वोउय-सुरभिकुसुम-पवरमल्लसोभियसिराओ कालागरुधूवधूवियाओ सिरी-समाणवेसाओ, सेयणय-गंधहत्थिरयणं दुरूढाओ समाणीओ, सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं चंदप्पभवइरवेरुलिय-विमलदंड-संखकुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निगास-चउचामरवालवीजियंगीओ सेणिएणं रण्णा सद्धिं हत्थिखंधवरगएणं पिट्ठओ-पिट्ठओ समणुगच्छमाणीओ चाउरंगिणीए सेणाए--महया हयाणीएणं गयाणीएणं रहाणीएणं पायत्ताणीएणं--सव्विड्डीए सव्वज्जुईए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वादरेणं सव्वविभुईए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्वपुप्फ-गंधमल्लालंकारेण सव्वतुडिय-सद्दसण्णिणाएणं महया इड्ढीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडिय-जमगसमग-प्पवाइएणं संख-पणवपडह-भेरि-झल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरय-मुइंग-दुंदुहिनिग्घोसनाइयरवेणं रायगिह नयरं सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापहपहेसु आसित्तसित्त-सुइय-सम्मज्जिओवलित्तं पंचवण्ण-सरस-सुरभि-मुक्क-पुप्फपुंजोवयारकलियं कालागरुपवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-डझंत-सुरभि-मघमघेत-गंधुद्धयुयाभिरामं सुगंधवर (गंध?) गंधियं गंधवट्टिभूयं अवलोएमाणीओ नागरजणेणं अभिनंदिज्ज-माणीओ गुच्छ-लया-रुक्ख-गुम्मवल्लि-गुच्छोच्छाइयं सुरम्मं वेभारगिरिकडग-पायमूलं सव्वओ समंता आहिंडमाणीओ-आहिंडमाणीओ दोहलं विणिंति। तं जइ णं अहमवि मेहेसु अब्भुग्गएसु जाव दोहलं विणिज्जामि।। नई सौरभ वाले (कुकुरमुत्ता), कुटज, कन्दल और कदम्ब घ्राण को तृप्ति देने वाली गंध बिखेर रहे हों--ऐसे उपवनों में। जो कोकिल के पंचम स्वर के कूजन से संकुल हो, जहां लाल वीरवधूटियां घूम-फिर रही हों, चातक पक्षी करुण विलाप कर रहे हों, जो अवनत तृणों से मंडित हो, जहां मेंढ़क टर्रटर्र कर रहे हो। जहां एकत्रित हुए दृप्त मधुकर और मधुकरियों के समूह परस्पर आश्लिष्ट हो रहे हो, मकरन्द के रसिक मत्त षट्पदों के मधुर गुंजन से जिनके प्रदेश गुंजित हो रहे हों--ऐसे उपवनों में। अपनी घटाओं से चन्द्र, सूर्य और ग्रहगण की प्रभा को श्यामल तथा नक्षत्र और तारकों की प्रभा को तिरोहित करने वाले इन्द्र धनुष रूप चिह्न पट्ट युक्त अम्बर वाले, उड़ती हुई बलाका-पंक्ति से सुशोभित मेघ-पटल वाले और बतख, चकवा एवं कलहंस के मनों में उत्सुकता जगाने वाले प्रावृट काल में जो स्नान, बलिकर्म और कौतुक-मंगलरूप प्रायश्चित्त कर चुकी हों। और क्या? वे अपने सुन्दर पैरों में नूपुर पहन, कटिप्रदेश पर मणिमेखला, गले में हार, भुजाओं में सुन्दर परिकर्मित कड़े, अंगुलियों में मुद्रिकाएं और विचित्र प्रवर कंगण पहने हुए हों, जिन से उनकी भुजाएं स्तम्भित-सी हो गई हों, कुण्डलों की प्रभा से जिनका मुख दमक रहा हो, जिनका शरीर रत्नों से विभूषित हो, नासिका के नि:श्वास की वायु से उड़ने वाले, तथा आंखों को आकर्षित करने वाले वर्ण और स्पर्श से युक्त, घोड़े की लार से भी अधिक कोमल, किनार पर धवल-कनक की कढ़ाई वाले और आकाश-स्फटिक के समान प्रभा वाले प्रवर अंशुक पहने हुए हों। जो सुकुमाल दुपट्टे का उत्तरीय धारण किये हुए हों, जिनके सिर सब ऋतुओं में सुरभित रहने वाले (सदा बहार) फूलों की प्रवर मालाओं से शोभित हों, जिनके (केश, वस्त्र व अंगों पर) काली अगर की धूप खेई गई हों, जो लक्ष्मी के समान नेपथ्य वाली हों, जो सेचनक नामक गन्धहस्ती-रत्न पर आरूढ़ हो, कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्रधारण किये हुए हों और चन्द्रकान्त, वज्र एवं वैडूर्य मणियों के विमल दण्ड वाले तथा शंख, कुन्द पुष्प, जलकण, अमृत और मथित फेन-पुञ्ज के समान श्वेत चार चामर रूप बालविनियों से जिनका शरीर वीजित हो, प्रवर हस्ति-स्कन्ध पर आरूढ राजा श्रेणिक पीछे-पीछे चलता हुआ जिनका अनुगमन कर रहा हो, जो महान् अश्व सेना, गज सेना, रथ सेना और पैदल-सेना-इस प्रकार की चतुरंगिणी सेना, सम्पूर्ण ऋद्धि, द्युति, बल, समुदय" (जनसमूह) आदर, विभूति, विभूषा, संभ्रम, सब प्रकार के पुष्प, गन्धचूर्ण, मालाएं और अलंकार, सब प्रकार के वाद्यों के सम्मिलित स्वर से उठे निनाद, महान ऋद्धि, महान द्युति, महान बल, महान समुदय (जनसमूह), एक साथ बजाए जाने वाले महान प्रवर वादिन--शंख, प्रणव, ढोल, भेरि, झालर, खरमुखी, हुडुक्क, मुरज, मृदंग और दुन्दुभि के निर्घोष से निनादित स्वरों के साथ, दोराहों, तिराहों, चौराहों, चोकों, चतुर्मुखों (चारों ओर दरवाजे वाले देवकुलों) राजमार्गों और मार्गों में सामान्य और विशेष जल का Jain Education Intemational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : सूत्र ३३-३८ छिड़काव कर, बुहार-झाड़कर, साफ-सुथरे किए गये तथा गोबर से लिपे गये, विकीर्ण पंचरंगे सरस सुरभिमय पुष्प-पुञ्ज के उपचार से कलित, काली अगर, प्रवर कुन्दुरू और लोबान की जलती हुई धूप की सुरभिमय महक से उठने वाली गंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गंध-चूर्णों से सुगंधित, गंधवर्तिका के समान राजगृह नगर का अवलोकन करती हुई, नागरिकों द्वारा अभिनन्दित होती हुई, गुच्छ, लता, वृक्ष, गुल्म, वल्ली--इनके गुच्छों से आच्छादित सुरम्य वैभार-गिरि की मेखला और तलहटी में चारों ओर घूमती-घूमती अपना दोहद पूरा करती हैं। मैं भी इसी प्रकार मेघ-घटाओं के उमड़ने पर यावत् सुरम्य तलहटी में घूमती हुई अपना दोहद पूरा करूं। धारिणीए चिंता-पदं ३४. तए णं सा धारिणी देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि असंपत्तदोहला असंपुण्णदोहला असम्माणियदोहला सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्ग-सरीरा पमइलदुब्बला किलंता ओमंथियवयण-नयणकमला पंडुइयमुही करयल-मलिय व्व चंपगमाला नित्तेया दीणविवण्णवयणा जहोचिय-पुप्फ-गंधमल्लालंकार-हारं अणभिलसमाणी किड्डारमणकिरियं परिहावेमाणी दीणा दुम्मणा निराणंदा भूमिगयदिट्ठीया ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियाइ।। धारिणी की चिन्ता-पद ३४. धारिणी देवी का दोहद पूरा न होने के कारण, वह (दोहद) असम्प्राप्त, असम्पूर्ण और असम्मानित रहा। अतएव वह सूखी, भूखी, कृश, रुग्ण शरीर वाली, मलिन, दुर्बल और क्लान्त हो गई। उसका मुख और नयन-कमल नीचे की ओर झुक गए। मुंह पीला हो गया। वह हाथ से मली हुई चम्पक-माला की भांति निस्तेज, दीन और कान्ति शून्य मुंह वाली, यथोचित पुष्प, गन्ध-चूर्ण, माला, गहने और हार को न चाहने वाली, क्रीड़ा और रतिक्रिया को छोड़ती हुई, दीन, दुर्मन, आनन्द-रहित, भूमि की ओर झांकती हुई (भूमि पर दृष्टि गड़ाए) उपहत मन:संकल्प हो, हथेली पर मुंह टिकाए, आर्तध्यान में डूबी हुई, चिन्ता मग्न हो गई। पडिचारियाणं चिंताकारणपुच्छा-पदं परिचारिकाओं द्वारा चिन्ता का कारण-पृच्छा-पद ३५. तए णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडिचारियाओ अभिंतरियाओ ३५. उस धारिणी देवी को अंगपरिचारिकाओं और अन्तरंग दास- चेटियों दासचेडियाओ धारिणिं देविं ओलुग्गं झियायमाणिं पासंति, पासित्ता ने धारिणी देवी को रुग्ण और चिन्तामग्न देखा। देखकर इस प्रकार एवं वयासी--किण्णं तुमे देवाणुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा बोली--देवानुप्रिये! तुम रुग्ण, रुग्णशरीर वाली यावत् चिन्तामान क्यों जाव झियायसि? हो रही हों? ३६. तए णं सा धारिणी देवी ताहिं अंगपडिचारियाहिं अभिंतरियाहिं दासचेडियाहिं य एवं वुत्ता समाणी ताओ दासचेडियाओ नो आढाइ, नो परियाणइ, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिट्ठइ॥ ३६. उन अंगपरिचारिकाओं और अन्तरंग दास-चेटियों द्वारा ऐसा कहने पर धारिणी देवी ने न उन्हें आदर दिया और न उनकी बात पर ध्यान दिया। उनका आदर न करती हुई और उनकी बात पर ध्यान न देती हुई वह मौन रही। ३७. तए णं ताओ अंगपडिचारियाओ अभिंतरियाओ दासचेडियाओ ३७. अंगपरिचारिकाओं और अन्तरंग दास-चेटियों ने धारिणी देवी को धारिणिं देविं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी--किण्णं तुमे दोबारा-तिबारा भी यही कहा--देवानुप्रिये! तुम रुग्ण, रुग्ण शरीर वाली देवाणुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि? यावत् चिन्तामग्न क्यों हो रही हो? ३८. तए णं सा धारिणी देवी ताहिं अंगपडिचारियाहिं अभिंतरियाहिं दासचेडियाहिं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वृत्ता समाणी नो आढाइ नो परियाणइ, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी तुसिणीया संचिट्ठइ।। ३८. उन अंगपरिचारिकाओं और अन्तरंग दास-चेटियों द्वारा ये बातें दुहराए तिहराए जाने पर भी धारिणी देवी ने न उनको आदर दिया और न उनकी बात पर ध्यान दिया। वह उनका आदर न करती हुई और उनकी बात पर ध्यान न देती हुई मौन रही। Jain Education Intemational Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्रथम अध्ययन : सूत्र ३९-४५ नायाधम्मकहाओ पडिचारियाणं सेणियस्स निवेदण-पदं परिचारिकाओं द्वारा श्रेणिक को निवेदन-पद ३९. तए णं ताओ अंगपडिचारियाओ अभिंतरियाओ दासचेडियाओ ३९. धारिणी देवी द्वारा अनादृत और उपेक्षित होने पर उनकी वे अंग धारिणीए देवीए अणाढाइज्जमाणीओ अपरिजाणिज्जमाणीओ तहेव परिचारिकाएं और अन्तरंग दास-चेटियां सहसा संभ्रान्त हो उठीं। वे संभंताओ समाणीओ धारिणीए देवीए अंतियाओ पडिनिक्खमंति, धारिणी देवी के आवास से बाहर निकलीं। निकलकर जहां श्रेणिक पडिनिक्खमित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता राजा था वहां आई। आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं वाली अंजलि को सिर के सम्मुख धुमाकर मस्तक पर टिका कर विजएणं वद्धावेंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु सामी! 'जय-विजय' की ध्वनि से राजा श्रेणिक का वर्धापन किया। वर्धापन किंपि अज्ज धारिणी देवी ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव कर वे इस प्रकार बोली--स्वामिन्! आज धारिणी देवी रुग्ण, रुग्ण अट्टज्झाणोवगया झियायइ। शरीर वाली यावत् आर्तध्यान में डूबी हुई कुछ चिन्ता मग्न हो रही है। सेणियस्स चिंताकारणपुच्छा-पदं ४०. तए णं से सेणिए राया तासिं अंगपडिचारियाणं अंतिए एयमद्वं सोच्चा निसम्म तहेव संभंते समाणे सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धारिणिं देविं ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जाव अट्टज्झाणोवगयं झियायमाणिं पासइ, पासित्ता एवंवयासी-किण्णं तुम देवाणुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायसि? श्रेणिक द्वारा चिन्ता का कारण पृच्छा-पद ४०. उन अंग परिचारिकाओं से यह बात सुनकर, अवधारण कर राजा श्रेणिक सहसा संभ्रान्त हो उठा। वह शीघ्रता, त्वरता, चपलता और उतावलेपन से जहां धारिणीदेवी थी, वहां आया। वहां आकर धारिणी देवी को रुग्ण, रुग्ण शरीर वाली यावत् आर्तध्यान में डूबी हुई, चिन्तामग्न देखा। देखकर वह इस प्रकार बोला--देवानुप्रिये! तुम रुग्ण, रुग्ण शरीर वाली यावत् आर्तध्यान में डूबी हुई चिन्ता मग्न क्यों हो रही हो? ४१. तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी नो आढाइ नो परियाणइ जाव तुसिणीया संचिट्ठइ।। ४१. राजा श्रेणिक द्वारा ऐसा कहने पर धारिणी देवी ने न उसको आदर दिया और न उसकी बात पर ध्यान दिया यावत् वह मौन रही। ४२. तए णं से सेणिए राया धारिणि देविं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी-किण्णं तुमं देवाणुप्पिए! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायसि? ४२. राजा श्रेणिक ने दुबारा-तिबारा भी धारिणी देवी से यही कहा--देवानुप्रिये! तुम रुग्ण, रुग्ण शरीर वाली यावत् आर्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न क्यों हो रही हो? ४३. तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ता समाणी नो आढाइ नो परियाणइ तुसिणीया संचिट्ठइ।। ४३. तब राजा श्रेणिक द्वारा यह बात दुहराए-तिहराए जाने पर भी धारिणी देवी ने न उसको आदर दिया और न उसकी बात पर ध्यान दिया। वह मौत रही। ४४. तए णं से सेणिए राया धारिणिं देविं सवह-सावियं करेइ, करेत्ता एवं वयासी--किण्णं देवाणुप्पिए! अहमेयस्स अट्ठस्स अणरिहे सवणयाए? तो णं तुम ममं अयमेयारूवं मणोमाणसियं दुक्खं रहस्सीकरेसि ।। ४४. राजा श्रेणिक ने धारिणी देवी को सौगंध दिलाई। सौगंध दिलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये! क्या मैं इस बात को सुनने के योग्य नहीं हूं जो तुम मन के अन्तराल में छिपे इस विशिष्ट प्रकार के दुःख को मुझसे छिपाती हो? धारिणीए चिंताकारणनिवेदण-पदं ४५. तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा सवह-साविया समाणी सेणियं रायं एवं वयासी--एवं खलु सामी! मम तस्स उरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे धारिणी द्वारा चिन्ता-कारण-निवेदन-पद ४५. राजा श्रेणिक द्वारा शपथ पूर्वक सौगंध दिलाने पर धारिणी देवी ने राजा श्रेणिक से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! उस उदार यावत् हाथी का महास्वप्न देखने के पश्चात् तीसरे महीने के कुछ दिन बीत जाने Jain Education Intemational Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १७ अकालमेहेसु दोहले पाउन्भूए--धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव वेभारगिरि-कडग-पायमूलं सव्वओ समंता आहिंडमाणीओ आहिंडमाणीओ दोहलं विणिति । तं जइ णं अहमवि मेहेसु अब्भुग्गएस जाव दोहलं विणेज्जामि। ___तए णं अहं सामी! अयमेयारूवंसि अकालदोहसि अविणिज्जमाणंसि ओलुग्गा जाव अट्टज्झाणोवगया झियामि।। प्रथम अध्ययन : सूत्र ४५-४८ पर मेरे मन में अकाल-मेघ का दोहद उत्पन्न हुआ--"धन्य हैं वे माताएं, कृतार्थ हैं वे माताएं यावत् जो वैभारगिरि की मेखला और तलहटी में चारों ओर घूमती-घूमती अपना दोहद पूरा करती हैं। मैं भी इसी तरह मेघ-घटाओं के उमड़ने पर यावत् सुरम्य तलहटी में घूमती हुई, अपना दोहद पूरा करूं।" स्वामिन्! मैं अपने इस प्रकार के अकाल दोहद की सम्पूर्ति न होने के कारण, रुग्ण, रुग्ण शरीर वाली यावत् आर्तध्यान में डूबी हुई चिन्ता मग्न हो रही हूं। सेणियस्स आसासण-पदं ४६. तए णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म धारिणिं देवि एवं वयासी--मा णं तुमं देवाणुप्पिए! ओलुग्गा जाव अट्टज्झाणोवगया झियाहि । अहं णं तह करिस्सामि जहा णं तुभं अयमेयारूवस्स अकाल-दोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइत्ति कटु धारिणिं देविं इट्टाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं वग्गूहि समासासेइ, समासासेत्ता जेणेव बाहिरया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे धारिणीए देवीए एयं अकालदोहलं बहूहिं आएहि य उवाएहि य, उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहिय पारिणामियाहि य--चउन्विहाहिं बुद्धीहिं अणुचिंतेमाणेअणुचिंतेमाणे तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिइंवा उत्पत्तिं वा अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ ।। श्रेणिक द्वारा आश्वासन-पद ४६. धारिणी देवी से यह बात सुनकर. अवधारण कर राजा श्रेणिक ने धारिणी देवी को इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये! तुम रुग्ण, रुग्ण शरीर वाली यावत् आर्तध्यान में डूबी हुई चिन्ता मग्न मत बनो। मैं वैसा प्रयत्न करूंगा, जिससे तुम्हारे इस अकाल दोहद का मनोरथ पूरा होगा। इस प्रकार उसने इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत वाणी से धारिणी देवी को सम्यक प्रकार से आश्वस्त किया। आश्वस्त कर जहां बाहरी सभा-मण्डप था, वहां आया। आकर प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख हो, बैठ गया। उसने धारिणी देवी के इस अकाल दोहद के सम्बन्ध में किये जाने वाले बहुत सारे आय और उपायों के विषय में औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी--इस चतुर्विध बुद्धि के द्वारा बार-बार अनुचिन्तन किया। जब राजा श्रेणिक को उस दोहद की पूर्ति के लिए किसी आय, उपाय, व्यवस्था-क्रम या उसके मूल स्रोत का पता नहीं चला, तब वह उपहत मन: संकल्प वाला यावत् चिन्तित हो गया। अभयकुमारस्स सेणियं पइ चिंताकारणपुच्छा-पदं ४७. तयाणंतरं च णं अभए कुमारे ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउय मंगल-पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए पायदए पहारेत्थ गमणाए। कुमार अभय द्वारा श्रेणिक की चिन्ता का कारण पृच्छा-पद ४७. तदनन्तर कुमार अभय ने स्नान, बलिकर्म और कौतुक-मंगल रूप प्रायश्चित्त कर, सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, पाद वन्दन __ के लिए (पिता के कक्ष में) जाने का संकल्प किया। ४८. तए णं से अभए कुमारे जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सेणियं रायं ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--अण्णया ममं सेणिए राया एज्जमाणं पासइ, पासित्ता आढाइ परियाणइ सक्कारेइ सम्माणेइ (इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं ओरालाहिं वग्गूहिँ?) आलवइ संलवइ अद्धासणेणं उवनिमंतेइ मत्थयंसि अग्घाइ । इयाणिं ममं सेणिए राया नो आढाइ नो परियाणइ नो सक्कारेइ नो सम्माणेइ नो इट्ठाहिं कताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं ओरालाहिं वागूहिं आलवइ संलवइ नो अद्धासणेणं उवनिमतेइ नो मत्थयंसि अग्घाइ, ४८. वह कुमार अभय जहां राजा श्रेणिक था, वहां आया। आकर उसने राजा श्रेणिक को उपहत मन: संकल्प वाला यावत् चिन्तित देखा। यह देख, उसके मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ “जब कभी राजा श्रेणिक मुझे आते हुए देखते हैं, देखते ही मुझे आदर देते हैं, मेरी ओर ध्यान देते हैं। मुझे सत्कृत और सम्मानित करते हैं। (इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, मनोगत और उदार वाणी से) आलाप-संलाप करते हैं। अपने आधे आसन से मुझे निमंत्रित करते हैं। मेरा मस्तक सूंघते हैं। पर आज राजा श्रेणिक न मुझे आदर देते हैं, न मेरी ओर ध्यान देते हैं, न मुझे सत्कृत और सम्मानित करते हैं, न इष्ट, कमनीय, प्रिय Jain Education Intemational Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ प्रथम अध्ययन : सूत्र ४८-५० किं पि ओहयमणसंकप्पे जाव झियाय । तं भवियव्वं णं एत्थ कारणेणं । तं सेयं खलु ममं सेणियं रायं एयमहं पुच्छित्तए एवं सपेहेड, सपेहेता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता एवं वयासी--तुब्भे णं ताओ! अण्णा ममं एज्जमानं पासिता आदाह परियाणह सक्कारेह सम्माह आलवह संलवह अद्धासणेण उवणिमतेह मत्ययसि अग्घायह । इयाणिं ताओ! तुब्भे ममं नो आढाह जाव नो मत्थयंसि अग्घायह किं पि ओहयमणसंकप्पा जाव नियायह। तं भवियव्वं णं ताओ! एत्य कारणेणं । तजो तुम्भे मम ताओ! एवं कारणं जगूहमाना असंकमाणा अनिण्हयमाणा अपच्छाएमाणा जहाभूतमवितहमसविद्धं एयम आइक्खह । तए णं हं तस्स कारणस्स अंतगमणं गमिस्सामि ।। सेणियस्स चिंताकारणनिवेदण-पदं -- ४९. तए णं से सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं वृत्ते समाणे अभयं कुमारं एवं क्यासी एवं खलु ता तव कुल्लमाउपाए धारिणीदेवीए तस्स गन्भस्त दोसु मासेसु अश्वकतेसु तद्वयमासे वट्टमाणे दोहतकालसमयसि अयमेयारूवे दोहले पाउभवित्वा-घण्णाओ गं ताओ अम्मयाओ तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव वैभारगिरिकडगपायमूलं सव्वओ समंता आहिंडमानीओ-आडिमाणीओ दोहलं विगिति । तं जणं अहमवि मेसु अब्भुग्गएसु जाव दोहलं विणिज्जामि । तए णं अहं पुत्ता धारिणीए देवीए तस्स अकालदोहलस्स बहूहिं आएहि य उवाएहि व जाव उप्पत्ति अविंदमाणे ओहयमणसंकष्ये जाव झियामि, तुमं आगयं पि न याणामि । तं एतेगं कारणेणं अहं पुत्ता! ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि । अभयस्स आसासण-पदं ५०. तए णं से अभए कुमारे सेणियस्स रण्णो अंतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ट - चित्तमाणंदिए जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियए सेणियं राय एवं वयासी- मा णं तुब्भे ताओ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह। अहं णं तहा करिस्सामि जहा णं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयेमेयारूवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सद् ति कट्टु सेणियं रायं ताहिं इद्वाहिं कंताहिं पिपाहि मणुन्नाहिं मणामाहिं वग्गूहिं समासातेइ ।। नायाधम्मकहाओ मनोज्ञ, मनोगत और उदार वागी से आताप संताप करते हैं, न अपने आधे आसन से निमंत्रित करते हैं, और न मेरा मस्तक सूंघते हैं। ये आज कुछ उपहत मनः संकल्प वाले यावत् चिन्तित हो रहे हैं। यहां कोई न कोई कारण होना चाहिये। अतः मेरे लिए श्रेय है, मैं राजा श्रेणिक से यह बात पूछूं--उसने ऐसी सप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर जहां राजा श्रेणिक था वहां आया । आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर 'जय-विजय' की ध्वनि से राजा श्रेणिक का वर्द्धापन किया। वर्द्धापन कर उसने इस प्रकार कहा - "तात! इससे पूर्व तुम मुझे आते हुए देखते तो मेरा आदर करते, मेरी ओर ध्यान देते, मुझे सत्कृत करते, सम्मानित करते, आलाप संलाप करते, अपने आधे आसन से निमन्त्रित करते और मेरा मस्तक सूंघते । आज तुम न मेरा आदर करते हो यावत् न मस्तक सूंघते हो। तुम कुछ उपहत मनः संकल्प वाले यावत् चिन्तित हो रहे हो । अतः तात! यहां कोई न कोई कारण होना चाहिए। इसलिए तात! उस कारण को बिना छिपाए बिना संकोच किए, बिना अपलाप किए, बिना आवरण डाले, यथाभूत, यथार्थ और असंदिग्ध बात मुझे कहो। तब मैं उस कारण के समाधान तक पहुंच पाऊंगा। श्रेणिक द्वारा चिन्ता कारण निवेदन पद ४९. कुमार अभय द्वारा ऐसा कहने पर राजा श्रेणिक ने उससे इस प्रकार कहा -- पुत्र! तुम्हारी छोटी मां धारिणी देवी को गर्भाधान किये जब दो माह बीत गये और तीसरा महीना चल रहा था, तब उसे दोहद काल के समय इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ-- “धन्य है वे माताएं यावत् जो वैभारगिरि की मेखला और तलहटी में चारों ओर घूमती-घूमती अपना दोहद पूरा करती हैं। मैं भी इसी तरह मेघ- घटाओं के उमड़ने पर यावत् अपना दोहद पूरा करूं।” पुत्र! धारिणी देवी के इस अकाल - दोहद के सम्बन्ध में बहुत सारे आय और उपायों के द्वारा अनुचिन्तन करने यावत् उसके मूलस्रोत का पता न चलने पर उपहत मनः संकल्प वाला यावत् चिन्तित हो रहा हूं । तुम्हारे आने का मुझे पता ही नहीं चला। पुत्र! उस दोहद के कारण मैं उपहत मनः संकल्प वाला यावत् चिन्तित हो रहा हूं । अभय द्वारा आश्वासन पद ५०. राजा श्रेणिक से यह बात सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट चित्त, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाले कुमार अभय ने राजा श्रेणिक से इस प्रकार कहा -- तात! तुम उपहत मनः संकल्प वाले यावत् चिन्तित मत बनो। मैं वैसा प्रयत्न करूंगा, जिससे मेरी छोटी मां धारिणी देवी के इस प्रकार के अकाल दोहद का मनोरथ पूरा होगा - इस प्रकार उसने राजा श्रेणिक को इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत वाणी से आश्वस्त किया । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १९ प्रथम अध्ययन : सूत्र ५१-५६ ५१. तए णं से सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे ५१. कुमार अभय द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट चित्त, आनन्दित यावत् हट्टतुट्ठ-चित्तमाणदिए जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियए अभयं कुमारं हर्ष से विकस्वर हृदय वाले राजा श्रेणिक ने कुमार अभय का सत्कार सक्कारेइ समाणेइ पडिविसज्जेइ।। सम्मान कर प्रतिविसर्जित किया। अभयस्स देवाराहण-पदं अभय द्वारा देवाराधना-पद ५२. तए णं से अभए कुमारे सक्कारिए सम्माणिए पडिविसज्जिए ५२. राजा श्रेणिक द्वारा सत्कृत, सम्मानित और विसर्जित किया हुआ समाणे सेणियस्स रण्णो अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता कुमार अभय राजा श्रेणिक के आवास से बाहर निकला। बाहर जेणामेव सए भवणे, तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणे निकलकर जहां अपना भवन था, वहां आया। आकर सिंहासन पर निसण्णे।। बैठा। ५३. तए णं तस्स अभयस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--नोखलु सक्का माणुस्सएणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अकालदोहलमणोरहसंपत्तिं करित्तए, नन्नत्थ दिव्वेणं उवाएणं। अत्थि णं मझ सोहम्मकप्पवासी पुव्वसंगइए देवे महिड्डीए महज्जुइए महापरक्कमे महाजसे महब्बले महाणुभावे महासोक्खे। तं सेयं खलु ममं पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुक्कमणिसुवण्णस्स ववगयमालावण्णगविलेवणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अबीयस्स दब्भसंथारोवगयस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हित्ता पव्वसंगइयं देवं मणसीकरेमाणस्स विहरित्तए। तए णं पुव्वसंगइए देवे मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं अकालमेहेसु दोहलं विणेहिति--एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जइ, पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भसंथारगं दुरुहइ, दुरुहित्ता अट्ठमभत्तं पगिण्हइ, पगिण्हित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभचारी जाव पुन्वसंगइयं देवं मणसीकरेमाणे-मणसीकरेमाणे चिट्ठइ।। ५३. कुमार अभय के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--मानवीय उपायों से मेरी छोटी मां धारिणी देवी के अकाल दोहद का मनोरथ पूरा नहीं किया जा सकता। यह केवल दिव्य उपाय से ही पूरा किया जा सकता है। सौधर्म कल्पवासी एक देव मेरा पूर्वसांगतिक (पूर्व जन्म का मित्र) है। वह महर्द्धिक, महाद्युतिक, महापराक्रमी, महायशस्वी, महाबली, महाप्रभावी और महासुखसम्पन्न है। अत: मेरे लिए यह उचित है कि मैं ब्रह्मचर्य को स्वीकार कर मणि-सुवर्ण को त्याग, माला, सुगन्धित चूर्ण और विलेपन को त्याग, शस्त्र-मूसल को छोड़, अकेला, अद्वितीय, डाभ के बिछौने पर बैठ, अष्टम भक्त (तीन दिन का उपवास) स्वीकार कर पौषधशाला में पौषध निरत हो अपने पूर्वसांगतिक देव के साथ मानसिक तादात्म्य स्थापित करता हुआ" विहरण करूं। वह मेरा पूर्वसांगतिक देव मेरी छोटी मां धारिणी देवी के इस अकाल मेघ के दोहद की सम्पूर्ति करेगा--अभय कुमार ने इस प्रकार संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर जहां पौषधशाला थी, वहां आया। आकर पौषधशाला का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन कर उच्चार-प्रस्रवण भूमि का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर डाभ के बिछौने पर बैठा। बैठकर अष्टमभक्त स्वीकार किया। अष्टमभक्त स्वीकार कर पौषधशाला में पौषध व्रत में निरत ब्रह्मचारी यावत् अपने पूर्वसांगतिक देव के साथ सतत मानसिक तादात्म्य स्थापित करता हुआ विहरण करने लगा। देवागमण-पदं ५४. तए णं तस्स अभयकुमारस्स अट्ठमभत्ते परिणममाणे पुव्वसंगइयस्स देवस्स आसणं चलइ॥ देव का आगमन पद ५४. कुमार अभय के अष्टमभक्त तप के परिणत होने पर उसके पूर्वसांगतिक देव का आसन प्रकम्पित हुआ। ५५. तए णं से पुव्वसंगइए सोहम्मकप्पवासी देवे आसणं चलियं पासइ, पासित्ता ओहिं पउंजइ।। ५५. उस पूर्वसांगतिक सौधर्मकल्पवासी देव ने अपने आसन को प्रकम्पित ___होते देखा। देखकर अपने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। ५६. तए णं तस्स पुव्वसंगइयस्स देवस्स अयमेयारूवे अज्झथिए ५६. उस पूर्वसांगतिक देव के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, Jain Education Intemational Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : सूत्र ५६-५८ चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु मम पुव्वसंगइए जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्ढभरहे रायगिहे नयरे पोसहसालाए पोसहिए अभए नाम कुमारे अट्ठमभत्तं पगिण्हित्ता णं मम मणसीकरेमाणे-मणसीकरेमाणे चिट्ठइ । तं सेयं खलु मम अभयस्स कुमारस्स अंतिए पाउब्भवित्तए--एवं सपेहेइ, संपेहेत्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाई दंड निसिरइ, तं जहा--रयणाणं वइराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगब्भाणं पुलगाणं सोगंधियाणंजोईरसाणं अंकाणं अंजणाणं रययाणं जायरूवाणं अंजणपुलगाणं फलिहाणं रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, परिसाडेता अहासहमे पोग्गले परिगिण्हइ, परिगिण्हित्ता अभयकुमारमणुकंपमाणे देवे पुव्वभवजणिय-नेहपीइ-बहुमाणजायसोगे तओ विमाणवरपुंडरीयाओ रयणुत्तमाओ धरणियल-गमण-तुरिय-संजणिय-गमणपयारो वाधुण्णियविमल-कणग-पयरग-वडिंसगमउडुक्क-डाडोवदंसणिज्जो अणेगमणि-कणगरयणपहकरपरिमंडिय-भत्तिचित्त-विणिउत्तगमणुगुणणियहरिसो पिंखोलमाणवरललियकुंडलुज्जलियवयणगुणजणिय-सोम्मरूवो उदिओ विव कोमुदीनिसाए सणिच्छरंगार-कुज्जलियमज्झभागत्थो नयाणाणंदो सरयचंदा दिव्वोसहिपज्जुलुज्जलियदसणाभिरामो उदुलच्छिसमत्तजायसोहो पइट्ठगंधुद्धयाभिरामो मेरू विव नगवरो विगुब्वियविचित्तवेसो दीवसमुद्दाणं असंखपरिमाणनामधेज्जाणं मज्झकारेणं वीइवयमाणो उज्जोयंतो पभाए विमलाए जीवलोयं रायगिह पुरवरं च अभयस्स पासं ओवयइ दिव्व-रूवधारी।। सूचिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--जम्बूद्वीप नाम का द्वीप, भारत का दक्षिणार्ध भरत, राजगृह नाम का नगर वहां मेरा पूर्वसांगतिक कुमार अभय पौषधशाला में पौषधिक हो, अष्टमभक्त स्वीकार कर मेरी सतत मानसिक स्मृति कर रहा है। अत: मेरे लिए श्रेय है, मैं कुमार अभय के सामने प्रकट होऊ--उसने ऐसी सप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर ईशान-कोण की ओर आया। वहां आकर वैक्रियसमुद्घात से७२ समवहत हुआ। समवहत होकर उसने संख्येय योजन के एक दण्ड का (जीव-प्रदेश और कर्म पुद्गल समूह) निर्माण किया। (उस निर्माण के लिए) रत्न, वज्र, वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, ज्योतीरस, अंक, अंजन, रजत, स्वर्ण, अंजन पुलक, स्फटिक और रिष्ट रत्नों के स्थूल-स्थूल पुद्गलों का परिशाटन किया। परिशाटन कर सूक्ष्म-सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण किया। ग्रहण कर कुमार अभय के प्रति अनुकम्पा करते हुए, पूर्वजन्म जनित स्नेह, प्रीति और बहुमान के कारण शोकग्रस्त हो, देव ने विमानों में प्रवर पुण्डरीक रत्नोत्तम नामक विमान से धरातल पर जाने की त्वरा से चलना प्रारम्भ किया। वह विशुद्ध स्वर्ण के प्रतरकों से निर्मित, हिलते हुए अवतंसक और मुकुट के उत्कट आटोप से दर्शनीय हो रहा था। नाना मणि, कनक और रन निकर से परिमण्डित अनेक प्रकार की भांतों से चित्रित, सुनियुक्त और प्रमाणोपेत करघनी से हर्षित हो रहा था। झूलते हुए प्रवर ललित कुण्डलों की प्रभा से देदीप्यमान उसका मुख और अधिक सौम्य लग रहा था, जिससे वह कार्तिक पूर्णिमा की रात में चमकते हुए शनि और मंगल नक्षत्र के मध्य में उदित नयनानन्द शरच्चन्द्र और दिव्य औषधियों की प्रभा से प्रभासित दर्शनाभिराम, सब ऋतुओं में होने वाली कुसुम-सम्पदा से शोभायमान और उनसे उठने वाली प्रकृष्ट गन्ध से अभिराम पर्वतश्रेष्ठ सुमेरु जैसा लग रहा था। विचित्र वेष बनाये हुए, असंख्य परिमाण और नाम वाले द्वीप-समुद्रों के बीचों बीच से गुजरता हुआ, अपनी विमल-प्रभा से समस्त जीवलोक और प्रवर राजगृह नगर को प्रभासित करता हुआ वह दिव्य रूपधारी देव कुमार अभय के पास नीचे उतरा। 3 ५७. तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवण्णे दसद्धवण्णाइं सखिंखिणियाई पवरवत्थाइं परिहिए अभयं कुमारं एवं क्यासी--अहं णं देवाणुप्पिया! पुव्वसंगइए सोहम्मकप्पवासी देवे महिड्ढीए जणं तुमं पोसहसालाए अट्ठमभत्तं पगिण्हिताणं मम मणसीकरेमाणे-मणसीकरेमाणे चिट्ठसि, तं एसणं देवाणुप्पिया! अहं इहं हव्वमागए। संदिसाहि णं देवाणप्पिया! किं करेमि? किंदलयामि? कि पयच्छामि? किंवा ते हियइच्छियं? ५७. अन्तरिक्ष में अवस्थित धुंघरु लगे पंचरंगे प्रवर वस्त्र पहने वह देव कुमार अभय से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय! तुम पौषधशाला में अष्टमभक्त तप स्वीकार कर जिसकी सतत मानसिक स्मृति किये बैठे हो, वह मैं हूं तुम्हारा पूर्वसांगतिक सौधर्मकल्पवासी महर्द्धिक देव। देवानुप्रिय! मैं बहुत शीघ्र यहां आया हूं। कहो देवानुप्रिय! मैं क्या करूं? क्या दूं? क्या उपहृत करूं? तुम अन्तर्मन में क्या चाहते हो? ५८. तए णं से अभए कुमारे तं पुव्वसंगइयं देवं अंतलिक्खपडिवण्णं पासित्ता हट्ठतुढे पोसहं पारेइ, पारेत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालदोहले पाउब्भूए--धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ तहेव पुब्वगमेणं जाव ५८. अन्तरिक्ष में अवस्थित अपने पूर्वसांगतिक देव को देख, कुमार अभय ने हृष्ट तुष्ट हो पौषधव्रत सम्पन्न किया। दोनों हाथों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर वह इस प्रकार बोला--"देवानुप्रिय! मेरी छोटी मां धारिणी देवी को इस प्रकार का अकाल दोहद उत्पन्न हुआ है--धन्य हैं वे माताएं यावत् Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २१ वेभारगिरिकडग-पायमूलं सव्वओ समंता आहिंडमाणीओआहिंडमाणीओ दोहलं विणिति । तं जइ णं अहमवि मेहेस अन्भुग्गएसु जाव दोहलं विणेज्जामि--तं णं तुमं देवाणुप्पिया! मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं अकालदोहलं विणेहि।। प्रथम अध्ययन : सूत्र ५८-६१ जो सुरम्य वैभारगिरि की मेखला और तलहटी में चारों ओर घूमतीघूमती अपना दोहद पूरा करती हैं। मैं भी इसी तरह मेघ-घटाओं के उमड़ने पर यावत् सुरम्य तलहटी में घूमती हुई अपना दोहद पूरा करूं।" ___ अत: देवानुप्रिय ! तुम मेरी छोटी मां धारिणी देवी के इस प्रकार के अकाल-दोहद को पूरा करो। देवस्स अकालमेहविउव्वण-पदं ५९. तए णं से देवे अभएणं कुमारेणं एवं कुत्ते समाणे हटूतुढे अभयं कुमारं एवं वयासी--तुमणं देवाणुप्पिया! सुनिव्वुय-वीसत्थे अच्छाहि । अहं णं तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं अकालदोहलं विणेमि त्ति कटु अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता उत्तरपुरस्थिमेणं वेभारपव्वए वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता संखेज्जाईजोयणाईदंडं निसिरइ जावदोच्चपि वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ समोहणित्ता खिप्पामेव सगज्जियं सविज्जुयं सफुसियं पंचवण्णमेह-निणाओवसोहियं दिव्वं पाउससिरिं विउब्वइ, विउव्वित्ता जेणामेव अभए कुमारे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभयं कुमारं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मए तव पियट्ठयाए सगज्जिया सफुसिया सविज्जुया दिव्वा पाउससिरी विउव्विया, तं विणेऊ णं देवाणुप्पिया! तव चुल्लमाउया धारिणी देवी अयमेयारूवं अकालदोहलं। देव का अकालमेघ-विकुर्वणा-पद ५९. कुमार अभय के द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट हो उस देव ने कुमार अभय से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! तुम बिल्कुल स्वस्थ और विश्वस्त हो। मैं तुम्हारी छोटी मां धारिणी के इस प्रकार के अकाल-दोहद को पूरा करूंगा--ऐसा कहकर वह कुमार अभय के पास से बाहर निकला। बाहर निकलकर वह ईशानकोण में स्थित वैभारपर्वत पर वैक्रिय सुमुद्घात से समवहत हुआ। समवहत होकर संख्यात योजन का एक दण्ड निर्मित किया यावत् दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुआ। समवहत होकर गर्जन, बिजलियां और फुहारों वाले पंचरंगे बादलों के निनाद से सुशोभित दिव्य पावस की श्री की विक्रिया की। विक्रिया कर वह जहां कुमार अभय था, वहां आया। वहां आकर कुमार अभय से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय ! मैंने तुम्हारी प्रियता हेतु गर्जन, बिजली और फुहारों से युक्त दिव्य पावस की श्री की विक्रिया की है। अत: देवानुप्रिय! तुम्हारी छोटी मां धारिणी देवी अपने इस प्रकार के अकाल-दोहद को पूरा करे।" धारिणीए दोहद-पूरण-पदं ६०. तए णं से अभए कुमारे तस्स पुव्वसंगइयस्स सोहम्मकप्पवासिस्स देवस्स अंतिए एपमढे सोच्चा निसम्म हट्ठतढे सयाओ भवणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसाक्तं मत्थए अंजलिं । कटु एवं वयासी--एवं खलु ताओ! मम पुवसंगइएणं सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं खिप्पामेव सगज्जिया सविज्जुया (सफुसिया?) पंचवण्ण-मेहनिणाओवसोभिया दिव्वा पाउससिरी विउव्विया। तं विणेऊ णं मम चुल्लमाउया धारिणी देवी अकालदोहलं।। ६०. उस पूर्वसांगतिक सौधर्मकल्पवासी देव के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हुआ कुमार अभय अपने भवन से बाहर निकला। निकलकर जहां राजा श्रेणिक था, वहां आया। वहां आकर दोनों हाथों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिका कर इस प्रकार कहा--तात! सौधर्मकल्पवासी मेरे पूर्वसांगतिक देव ने इस समय गर्जन-बिजली (फुहारों) से युक्त पंचरंगे बादलों के निनाद से शोभित दिव्य पावस की श्री की विक्रिया की है। अत: मेरी छोटी मां धारिणी देवी अपने अकाल-दोहद को पूरा करे।" ६१. तए णं से सेणिए राया अभयस्स कुमारस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्ठतढे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-- खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया! रायगिह नगरं सिंघाडग-तिगचउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु आसित्तसित्त-सुइयसंमज्जिओवलितं जाव सुगंधवर (गंध?) गंधियं गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।। ६१. कुमार अभय से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हुए राजा श्रेणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही राजगृह नगर को, उसके दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों (चारों ओर दरवाजे वाले देवकुलों) राजमार्गों और मार्गों में सामान्य तथा विशेष जल का छिड़काव कर बुहार-झाड़ कर साफ सुथरे किए गए तथा गोबर से लीपे गए यावत् प्रवर सुरभिवाले गन्धचूर्णों से सुगन्धित गन्धवर्तिका के समान सुगन्धित करो, कराओ और इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। Jain Education Intemational Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्रथम अध्ययन : सूत्र ६२-६७ नायाधम्मकहाओ ६२. तए णं ते कोडुबियपुरिसा सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा ६२. राजा श्रेणिक द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट चित्तवाले, आनन्दित हट्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवस- प्रीतिपूर्ण मन वाले, परमसौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय विसप्पमाणहियया तमाणत्तियं पच्चप्पिणति ।। वाले कौटुम्बिक पुरुषों ने उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। ६३. तए णं से सेणिए राया दोच्चंपि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हय-गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सन्नाहेह, सेयणयंच गंधहत्थिं परिकप्पेह। तेवि तहेव करेंति जाव पच्चप्पिणंति।। ६३. राजा श्रेणिक ने दूसरी बार भी कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो । शीघ्र ही अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध करो और 'सेचनक' गन्धहस्ती को सजाओ। उन्होंने भी वैसा ही किया यावत् उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। ६४. तए णं से सेणिए राया जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धारिणिं देविं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! सगज्जिया सविज्जुया सफुसिया दिव्वा पाउससिरी पाउब्भूया । तं णं तुमं देवाणुप्पिए! एवं अकालदोहलं विणेहि।। ६४. वह राजा श्रेणिक जहां धारिणी देवी थी, वहां आया। वहां आकर धारिणी देवी से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये! गर्जन, बिजली और फुहारों से युक्त दिव्य पावस की श्री प्रादुर्भूत हो गई है। अत: देवानुप्रिये! अपने इस अकाल दोहद को पूरा करो। ६५. तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी ६५. राजा श्रेणिक द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट हुई धारिणी देवी जहां हट्ठतट्ठा जेणामेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता स्नान घर था, वहां आयी। वहां आकर स्नान घर में प्रवेश किया। मज्जणघरं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता अंतो अंतेउरंसि ण्हाया प्रवेश कर अन्त:पुर के अन्तर्वर्ती स्नान घर में नहाकर, बलिकर्म और कयबलिकम्मा कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता किं ते वरपाय- कौतुक-मंगलरूप प्रायश्चित्त किया। अधिक क्या? उसने पैरों में प्रवर पत्तनेउर-मणिमेहल-हार-रइय-ओविय-कडग-खुड्डय-विचित्त- नूपुर पहने, कटि प्रदेश में मणि मेखला, गले में हार, भुजाओं में वरवलयर्थभियभुया जाव आगास-फालिय-समप्पभं अंसुयं नियत्था, सुन्दर परिकर्मित कड़े और अंगुलियों में मुद्रिकाएं पहनी। विचित्र सेयणयं गंधहत्थिं दुरूढा समाणी अमय-महिय-फेणपुंज- प्रकार के प्रवर कंगनों से उसकी भुजाएं स्तम्भित-सी हो रही थी यावत् सन्निगासाहिं सेयचामरवाल-वीयणीहिं वीइज्जमाणी-वीइज्जमाणी उसने आकाश-स्फटिक के समान प्रभा वाले प्रवर अंशुक को पहना। संपत्थिया। सेचनक गन्धहस्ती पर आरूढ़ हो. अमृत और मथित फेनपुञ्ज के समान श्वेत चामरों की वाल-वीजनियों से वीजित होती हुई उसने वहां से प्रस्थान किया। ६६. तए णं से सेणिए राया पहाए कयबलिकम्मे कय-कोउय-मंगल- पायच्छित्ते अप्पमहग्घाभरणालकियसरीरे हत्थिखंधवरगए सकोरेंट- मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं चउचामराहिं वीइज्जमाणे धारिणिं देविं पिट्ठओ अणुगच्छइ॥ ६६. राजा श्रेणिक ने स्नान, बलिकर्म और कौतुक-मंगल रूप प्रायश्चित्त किया। अल्पभार और बहुमूल्य आभरणों से अपने शरीर को अलंकृत किया। प्रवर हस्ति स्कन्ध पर आरूढ़ हो, कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया। चार चामरों से वीजित होता हुआ धारिणी देवी के पीछे चला। ६७. तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा हत्थिखंधवरगएणं ६७. प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ राजा श्रेणिक पीछे-पीछे चलता हुआ, पिट्ठओ-पिट्ठओ समणुगम्ममाण-मग्गा हय-गय-रह-पवरजोह- जिसके मार्ग का अनुगमन कर रहा था, वह धारिणी देवी अश्व, गज, कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिडा महया भड-चडगर- रथ और प्रवर पैदल योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना से वंदपरिक्खित्ता सव्विड्डीए सव्वज्जुईए जाव दुंदुभिनिग्घोस- संपरिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों से घिरी हुई, नाइयरवेणं रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह- सम्पूर्ण ऋद्धि, सम्पूर्ण द्युति यावत् दुन्दुभि के निर्घोष से निनादित महापहपहेसु नागरजणेणं अभिनंदिज्जमाणी-अभिनंदिज्जमाणी स्वरों के साथ राजगृह नगर के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, जेणामेव वेभारगिरि पव्वए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चतुर्मुखों (चारों ओर दरवाजे वाले देवकुलों) राजमार्गों और मार्गों वेभारगिरि-कडग-तडपायमूले-आरामेसु य उज्जाणेसु य में नागरिकों द्वारा पुन: पुन: अभिनन्दित होती हुई, जहां वैभारगिरि काणणेसु य वणेसु य वणसंडेसु य रुक्खेसु य गुच्छेसु य गुम्मेसु पर्वत था, वहां आई। वहां आकर वैभारगिरि की मेखला और Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ नायाधम्मकहाओ य लयासु य वल्लीसु य कंदरासु य दरीसु य चुंदीसु य जूहेसु य कच्छेसु य नदीसु य संगमेसु य विवरएसु य अच्छमाणी य पेच्छमाणी य मज्जमाणी य पत्ताणि य पुप्फाणि फलाणि य पल्लवाणि य गिण्हमाणी य माणेमाणी य अग्घायमाणी य परिभुजेमाणी य परिभाएमाणी य वेभारगिरिपायमले दोहलं विणेमाणी सव्वओ समंता आहिंडइ।। प्रथम अध्ययन : सूत्र ६७-७२ तलहटी में आरामों, उद्यानों, काननों, वनों, वनषण्डों५, वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं, वल्लियों, कन्दराओं, दरियों, छोटे-छोटे जलस्रोतों, द्रहो, सजलप्रदेशों, नदियों, नदी-संगमों और विवरों में बैठती हुई, उन्हें देखती हुई, उनमें निमज्जन करती हुई, पत्र, पुष्प, फल और किसलयों को ग्रहण करती हुई, उनको स्पर्श के द्वारा सम्मानित करती हुई, उन्हें सूंघती हुई, खाती हुई और परस्पर बांटती हुई वैभारगिरि की तलहटी में अपने दोहद को पूरा करती हुई चारों ओर घूमने लगी। ६८. तए णं सा धारिणी देवी सम्माणियदोहला विणीयदोहला संपुण्णदोहला संपत्तदोहला जाया यावि होत्था॥ ६८. इस प्रकार धारिणी देवी का दोहद सम्मानित हुआ, विनीत (सन्तुष्ट) हुआ, सम्पूर्ण हुआ और सम्प्राप्त हुआ। ६९. तए णं सा धारिणी देवी सेयणयगधहत्थिं दुरूढा समाणी ६९. प्रवर हस्ति स्कन्ध पर आरूढ़ राजा श्रेणिक पीछे-पीछे चलता हुआ सेणिएणं हत्थिखंधवरगएणं पिट्ठओ-पिट्ठओ समणुगम्ममाणमग्गा जिसके मार्ग का अनुगमन कर रहा था, वह धारिणी देवी सेचनक हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं गन्धहस्ती पर आरूढ़ हो, अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं संपरिवुडा महया भड-चडगर-वंदपरिक्खित्ता सव्विड्ढीए से कलित चतुरंगिणी सेना से संपरिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न सव्वज्जुईए जाव दुंदुभिनि-ग्घोसनाइय-रवेणं जेणेव रायगिहे टुकड़ियों से घिरी हुई सम्पूर्ण ऋद्धि, सम्पूर्ण द्युति यावत, दुन्दुभि के नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिह नयरं मझमझेणं निर्घोष से निनादित स्वरों के साथ, जहां राजगृह नगर था, वहां जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विउलाई आई। वहां आकर राजगृह नगर के बीचों बीच से गुजरती हुई, जहां माणुस्सगाई भोगभोगाइं पच्चणुभवमाणी विहरइ।। अपना भवन था, वहां आई। वहां आकर मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोगार्ह भोगों का अनुभव करती हुई विहार करने लगी। अभएण देवस्स पडिविसज्जण-पदं ७०. तए णं से अभए कुमारे जेणामेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुव्वसंगइयं देवं सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ।। अभय द्वारा देव का प्रतिविसर्जन-पद ७०. कुमार अभय जहां पौषधशाला थी, वहां आया। वहां आकर पूर्वसांगतिक , देव को सत्कृत और सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर उसे प्रतिविसर्जित किया। ७१. तएणं से देवेसगज्जियं (सविज्जुयंसफुसियं?) पंचवण्णमेहोवसोहियं दिव्वं पाउससिरिंपडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता जामेव दिसिंपाउन्भूए तामेव दिसिंपडिगए।। ७१. उस देव ने गर्जन (बिजली और फुहारों?) से युक्त पंचरंगे बादलों से सुशोभित दिव्य पावस की श्री का प्रतिसंहरण किया। उसका प्रतिसंहरण कर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। धारिणीए गब्भचरिया-पदं ७२. तए णं सा धारिणी देवी तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसि सम्माणियदोहला तस्स गब्भस्स अणुकंपणट्ठाए जयं चिट्ठइ जयं आसयइ जयं सुवइ, आहारं पि य णं आहारेमाणी--नाइतित्तं नाइकडुयं नाइकसायं नाइअंबिलं नाइमहुरं, जं तस्स गब्भस्स हियं मियं पत्थयं देसे य काले य आहारं आहारेमाणी, नाइचिंतं नाइसोयं नाइमोहं नाइभयं नाइपरित्तासं ववगयचिंता-सोय-मोहभय-परित्तासा उदु-भज्जमाण-सुहेहि-भोयणच्छायण-गंधमल्लालंकारेहिं तं गन्भं सुहंसुहेणं परिवहइ ।। धारिणी का गर्भचर्या-पद ७२. उस अकाल-दोहद के पूरा होने से सम्मानित दोहद वाली धारिणी देवी अपने गर्भ की अनुकम्पा के लिए संयमपूर्वक खड़ी रहती, संयमपूर्वक बैठती और संयम पूर्वक सोती। वह आहार करती हुई भी अति तिक्त, अति कडुवा, अति कषैला, अति खट्टा और अति मीठा आहार नहीं करती। वह वही आहार करती है, जो देश और काल के अनुसार उस गर्भ के लिए हित, मित और पथ्यकर होगा। वह अति चिन्ता, अति शोक, अति मोह, अति भय और अति परित्रास (उद्वेग) नहीं करती। वह चिन्ता, शोक, मोह, भय और परित्रास से मुक्त रहकर, ऋतु के अनुकूल, सुखकर भोजन, वस्त्र, गन्धचूर्ण, माला Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन सूत्र ७२-७६ मेहस्स जम्म बजावण-पदं ७३. तए णं सा धारिणी देवी नवहं मासागं बहुपडिपुण्णाणं अद्धद्रुमाणं पराईदियाणं वीइयन्ताणं अद्धरत्तकालसमयसि सुकुमातपाणिपायं जाव सव्वंगसुंदरं दारणं पयाया ।। ७४. तए णं ताओ अंगपडियारियाओ धारिणि देविं नवण्हं मासाणं बहुपतिपुण्गाणं जाव सव्वंगसुंदरं दारणं पयायं पासंति, पासित्ता सिग्धं तुरियं चक्तं वेइयं जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सेणियं रामं जएणं विजएणं बद्धावेंति, वढावेत्ता करयलपरिग्गाहियं सिरसावतं मत्यए अंजलिं कट्टु एवं वयासी एवं खतु देवाणुप्रिया ! धारिणी देवी नवण्डं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सव्वंगसुंदरं दारगं पयाया । तं णं अम्हे देवाणुप्पियाणं पियं निवेएमो, पियं भे भवउ ।। ७५. तए णं से सेणिए राया तासिं अंगपडियारियाणं अंतिए एयमट्ठ सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठे ताओ अंगपडियारियाओ महुरेहिं वयणेहिं विउलेण य पुष्फ-वत्य-गंध-मल्लालंकारेण सक्कारे सम्माणेह, मत्थयधोयाओ करेइ, पुत्ताणुपुत्तियं वित्तिं कप्पेइ, कप्पेत्ता पडिविसज्जेइ ।। मेहस्स जम्मुस्सवकरण-पदं - ७६. तए णं सेणिए राया ( पच्चूसकालसमयंसि ? ) कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! रायगिहं नगरं आसिय सम्मज्जिवलित सिंघाडग-तिय-चउवक-पच्चरचउम्मुह महापपहे आसित्त- सित्त सुइ- सम्म रत्यंतरावण- वीहियं मंचाइमंचकलियं णाणाविहराग-ऊसिय-ज्झयपडागाइपडाग मंडियं लाउल्लोइय-महियं गोसीस सरस-रत्तचंदणदद्दर- दिण्णपंचंगुलितलं उवचियवंदणकलसं वंदणघड- सुरुष-तोरणपडिदुवारदेसभायं आसत्तोसत्तविउल- वट्ट-वग्घारिय-मल्लदामकलावं पंचवण्ण सरस सुरभिमुक्क पुष्कपुंजोवयार कलियं कालागुरु-पवर-कुंदुरुक्क तुरुक्क घूव-ज्जांत-मघमर्धेत गंधुदुयाभिरामं सुगंधवरगंधगंधियं गंधवट्टिभूयं नड-गटगजल्ल - मल्ल - मुट्ठिय- वेलंबग - कहकहग - पवग-लासग-आइक्खगलेख-मंत्र- तूइल्ल तुंबवीणिय- अणेगतालावरपरिगीयं करेह, कारवेह य, चारगपरिसोहणं करेह, करेता माणुम्भाणवणं करेह, २४ नायाधम्मकहाओ और अलंकारों का उपयोग करती हुई, सुखपूर्वक गर्भ का परिवहन करने लगी मेघ का जन्म वर्धापन पद ७३. धारिणी देवी ने पूरे नौ मास और साढ़े सात दिन बीतने पर अर्धरात्रि के समय, सुकुमार हाथ-पांव वाले यावत् सर्वांग सुन्दर बालक को जन्म दिया । ७४. उन अंगपरिचारिकाओं ने देखा कि धारिणी देवी ने नौ मांस पूरे होने पर यावत् सर्वांग सुन्दर बालक को जन्म दिया है। यह देखकर वे शीघ्रता, त्वरता, चपलता और उतावलेपन से जहां राजा श्रेणिक था, वहां आई। वहां आकर जय-विजय की ध्वनि से राजा श्रेणिक का वर्धापन किया। वर्धापन करके दोनों हथेलियों से निष्यन्न संपुट आकार वाली अञ्जलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिका कर इस प्रकार कहा-“देवानुप्रिय । धारिणी देवी ने नौ मास पूरे होने पर यावत् सर्वांग सुन्दर बालक को जन्म दिया है। इसलिए हम देवानुप्रिय को प्रिय निवेदित करती हैं। आप प्रेय का अनुभव करें।' ७५. उन अंगपरिचारिकाओं से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हुए राजा श्रेणिक ने उन अंग परिचारिकाओं को मधुर वचनों से तथा विपुल पुष्प, वस्त्र, गंधचूर्ण, माला एवं अलंकारों से सत्कृत और सम्मानित किया। उनके मस्तक से दासत्व - 'दासचिह्न' को धो डाला । ७८ उनके निर्वाह के लिए पुत्र-पौत्र-परम्परा तक जीविका की व्यवस्था की। ऐसा कर उन्हें प्रतिविसर्जित कर दिया । मेघ का जन्मोत्सव -करण पद ७६. राजा श्रेणिक ने (प्रभात काल के समय) कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा -- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही राजगृह नगर को, उसके दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में जल का छिड़काव कर बुहार झाड़, गोबर से लीपकर साफ-सुथरा करवाओ। उसकी गलियों और आपण-वीथियों को सामान्य और विशेष जल का छिड़काव कर बुहार झाड़ साफ-सुथरा करवाओ। मंच और अतिमंच स्थापित करवाओ। रंग-बिरंगे ऊंचे ध्वज, पताका और अतिपताकाएं फहराओ । भूप्रांगण को गोबर से लीपाओ । भीतों को धुलकाओ । उन पर गोशीर्ष और सरस रक्तचन्दन के ठप्पे (पांचों अंगुलियों समेत हथेलियों के छापे ) लगवाओ। मंगल कलश स्थापि करवाओ। सिंहद्वार और प्रतिद्वारों पर भली भांति मंगल कलश रखवाओ। उन्हें ऊपर से नीचे तक लटकती हुई, विपुल वृत्ताकर पुष्प मालाओं के समूह से सजाओ उसको विकीर्ण पंचर, सरस, सुरभिमय पुष्पपुञ्जके उपचार से युक्त, काली अगर, प्रवर कुन्दुरु Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ करेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।। प्रथम अध्ययन : सूत्र ७६-८१ और लोबान की जलती हुई धूप की सुरभिमय महक से उठने वाली गंध से अभिराम और प्रवर सुरभिवाले गंधचूर्णों से सुगन्धित गन्धवर्तिका जैसा बनाओ तथा नटों, नर्तकों, कोड़ी से जूआ खेलने वालों, पहलवान, मुष्टियुद्ध करने वालों, विदूषकों, कथा करने वालों, छलांग भरने वालों, रास रचाने वालों, शुभाशुभ बताने वालों, बांस पर चढ़कर खेल करने वालों, चित्रपट दिखाकर आजीविका करने वालों (मंखलि), तूण (मशक के आकार का वाद्य) वादकों, तम्बूरा-वादकों तथा अनेक ताल-बजाने वालों का संगीत करो और करवाओ। बंदीजनों को मुक्त करो। ऐसा करके वस्तुओं के मान और उन्मान का वर्धन करो (वस्तुओं का मूल्य कम करो)। ऐसा कर यह आज्ञा मुझे प्रत्यर्पित करो। ७७. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतट्ठचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया तमाणत्तियं पच्चपिण्णंति ।। ७७. तब राजा श्रेणिक द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाले, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाले, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाले कौटुम्बिक पुरुषों ने (आदेश को क्रियान्वित कर) उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। ७८. तए णं से सेणिए राया अट्ठारससेणि-प्पसेणीओ सद्दावेई' सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! रायगिहे नगरे अभितरबाहिरिए उस्सुकं उक्करं अभडप्पवेसं अदंडिम-कुदंडिम अधरिमं अधारणिज्जं अणुद्धयमुइंग अमिलायमल्लदाम गणियावरनाडइज्जकलियं अणेगतालायराणुचरियं पमुइयपक्कीलियाभिरामं जहारिहं ठिइवडियं दसदेवसियं करेह, कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।। ७८. राजा श्रेणिक ने अठारह श्रेणियों और उपश्रेणियों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो। तुम जाओ और राजगृह ___नगर के भीतर और बाहर कुल-मर्यादा के अनुरूप दस-दिवसीय उत्सव मनाया जाए--नागरिकों से किसी प्रकार का शुल्क और कर न लें,८२ सुभट प्रजा के घरों में प्रवेश न करें, राजदण्ड से प्राप्त द्रव्य तथा कुदण्ड--अपराधी आदि से प्राप्त ऋण--मुक्त करें, कोई भी कर्जदार न रहे, दण्ड द्रव्य न लें, नगर में सतत मृदंग बजते रहें, (तोरण-द्वारों आदि पर) अम्लान पुष्पमालाएं बांधी जाएं, गणिका आदि के द्वारा प्रवर नाटक किए जाएं, वहां अनेक ताल बजाने वालों का अनुचरण होता रहे, (इस प्रकार) प्रमुदित और खुशियों में झूमते हुए नागरिकों द्वारा नगर अभिराम बन जाए--तुम ऐसी व्यवस्था करो और करवाओ। ऐसा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। ७९. तेवि तहेव करेंति तहेव पच्चप्पिणंति ।। ७९. श्रेणियों और उपश्रेणियों के अधिकारी पुरुषों ने वैसा ही किया और वैसे ही उस आज्ञा को उन्हें प्रत्यर्पित किया। ८०. तएणं से सेणिए राया बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे सतिएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य दाएहिं दलयमाणे दलयमाणे पडिच्छमाणे-पडिच्छमाणे एवं च णं विहरइ।। ८०. राजा श्रेणिक बाहरी सभा-मण्डप में प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख हो बैठा। वहां शतमूल्य, सहस्रमूल्य एवं लक्ष-मूल्य वाले देय द्रव्यों को देता हुआ तथा उपहार लेता हुआ विहार करने लगा। मेहस्स नामादिसक्कार (संस्कार) करण-पदं ८१. तए णं तस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठितिपडियं करेंति, बितिए दिवसे जागरियं करेंति, ततिए दिवसे चंदसूरदंसणियं करेंति, एवामेव मेघ का नाम आदि (संस्कार) करण-पद ८१. उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन कुल-मार्यादा के अनुरूप जन्मोत्सव मनाया। दूसरे दिन रात्रि जागरण किया। तीसरे दिन Jain Education Intemational Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : सूत्र ८१-८२ निवत्ते असुइजायकम्मकरणे संपत्ते बारसाहे विपुलं असणपाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेंति, उवक्खडावेत्ता मित्तनाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं बलं च बहवे गणनायगदंडनायग-राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-मंति-महामंतिगणग-दोवारिय-अमच्च-चेड-पीढमद्द-नगर-निगम-सेट्ठिसेणावइ-सत्थवाह-दूय-संधिवाले आमंतेति । तओ पच्छा बहाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया महइमहालयंसि भोयणमंडवंसि तं विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेहिं बलेण च बहूहिं गणनायग-दंडनायग-राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबियमंति-महामंति-गणग-दोवारिय-अमच्च-चेड-पीढमद्दनगर-निगम-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाह-य-संधिवालेहिं सद्धिं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा एवं च णं विहरंति। जिमियभुत्तुत्तरागयावि य णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं बलं च बहवे गणनायग जाव संधिवाले विपुलेणं पुप्फ-गंधमल्लालंकारेणं सक्कारेंति, सम्माणेति, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता एवं वयासी-- जम्हा णं अम्हं इमस्स दारगस्स गब्भत्थस्स चेव समाणस्स अकालमेहेसु दोहले पाउब्भूए, तं होऊ णं अम्हं दारए मेहे नामेणं। तस्स दारगस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिप्फण्णं नामधेज करेंति मेहे इ॥ शिशु को चांद और सूरज के दर्शन करवाए। इस प्रकार अशुचिजात-कर्म से निवृत्त होने तथा बारहवें दिन के आने पर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाए। तैयार करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को", सेना तथा बहुत से गणनायक, दण्डनायक, राजा, ईश्वर, तलवर (कोतवाल) माडम्बिक, कौटुम्बिक, मंत्री, महामंत्री, लेखापाल, दौवारिक, अमात्य, सेवक, राजा के आस-पास रहने वाले सखा, नगर, निगम, श्रेष्ठी सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिपालों को आमन्त्रित किया। उसके बाद स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित कर, सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, सुविशाल भोजन-मण्डप में मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन सम्बन्धी और परिजनों के साथ तथा सेना एवं बहुत से गणनायक, राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक कौटुम्बिक, मंत्री, महामंत्री, लेखापाल, दौवारिक, अमात्य, सेवक, राजा के आस-पास रहने वाले सखा, नगर, निगम, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिपालों के साथ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन और विशेष आस्वादन करते हुए परस्पर बांटते हुए और खाते हुए विहार करने लगे। भोजनोपरान्त वे आचमन कर साफ सुथरे और परम पवित्र हो बैठने के स्थान पर आए। उन मित्र ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी परिजनों और सेना को तथा बहुत से गणनायक यावत् सन्धिपालों को प्रचुर पुष्प, गन्धचूर्ण, माल्य और अलंकारों से सत्कृत-सम्मानित किया। उन्हें सत्कृत सम्मानित कर इस प्रकार कहा--"क्योंकि हमारा यह बालक जब गर्भ में था, तब अकाल मेघ का दोहद उत्पन्न हुआ था, इसलिए हमारे बालक का नाम 'मेघ' हो।" इस प्रकार माता-पिता ने उस बालक का गुणानुरूप-गुणनिष्पन्न 'मेघ' ऐसा नाम रखा। मेहस्स लालणपालण-पदं ८२. तए णं से मेहे कुमारे पंचधाईपरिग्गहिए. (तं जहा--खीरधाईए मज्जणधाईए कोलावणधाईए मंडणधाईए अंकधाईए) अण्णाहि य बहूहि--खुज्जाहिं चिलाईहिं वामणीहिं वडभीहिं बब्बरीही बउसीहिं जोणियाहिं पल्हवियाहिं ईसिणियाहिं थारुगिणियाहिं लासियाहिं लउसिहाहिं दामिलीहिं सिंहलीहिं आरबीहिं पुलिंदीहिं पक्कणीहिं बहलीहिं मुरुंडीहिं सबरीहिं पारसीहिं--नानादेसीहिं विदेसपरिमंडियाहिं इंगिय-चिंतिय-पत्थिय-वियाणियाहिं सदेस-नेवत्थ-गहिय-वेसाहिं निउणकुसलाहिं विणीयाहिं, चेडियाचक्कवाल-वरिसधर-कंचुइज्ज-महयरग-वंद-परिक्खित्ते हत्थाओ हत्थं साहरिज्जमाणे अंकाओ अंकं परिभुज्जमाणे परिगिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे रम्मंसि मणिकोट्टिमतलंसि परंगिज्जमाणे निव्वाय-निव्वाघायंसि गिरिकंदरमल्लीणे व चंपगपायवे सुहंसुहेणं वड्ढइ। मेघ का लालन-पालन-पद ८२. वह कुमार मेघ पांच धाय-माताओं (क्षीर-धात्री, मज्जन-धात्री, क्रीड़न-धात्री, मण्डन-धात्री, अंक-धात्री) से परिग्रहीत तथा अन्य अनेक परिचारिकाओं से जैसे--कुब्जा, किराती, वामनी, बड़भी, बर्बरी, बकुशी, यवनी, पल्हविका, ईशिनिका, थारुगिणिया, लासक, लकुसिका, द्राविड़ी, सिंहलिकी, अरबी, पौलिन्दी, पक्वणी, बहली, मुरुण्डी, शबरी और पारसी--इन नाना देशीय और विदेश की शोभा बढ़ाने वाली इंगित, चिन्तित और प्रार्थित को जानने वाली, अपने देश के नेपथ्य और वेष को धारण करने वाली, निपुण कुशल और विनीत चेटिकाओं-सेविकाओं के चक्रवाल, वर्षधर, कंचुकी पुरुष और महत्तरवृन्द से घिरा हुआ रहता था। वह एक के हाथ से दूसरे के हाथ में लिया जाता। एक की गोद से दूसरे की गोद में बैठाया जाता। उसे लोरी दी जाती। उसका लालन किया जाता। मणि कुट्टित सुरम्य प्रांगण में खिलाया जाता। इस प्रकार वह निर्वात और निर्व्याघात गिरिकन्दरा में आलीन चम्पक के पौधे की भांति सुखपूर्वक बढ़ रहा था। Jain Education Intemational Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ८३. तए णं तस्स मेहरस कुमारस्स अम्मापियरो अणुपुब्वेणं नामकरणं च पजेमणगं च पचकमणगं च चोलोवनयं च महया महया इड्ढी-सक्कार-समुदएणं करेंसु ।। मेहस्स कलागहण -पदं ८४. तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो साइरेगट्ठवासजायगं चेव सोहणस तिहिकरण मुटुसंसि कलापरियस्स उवर्णेति ।। ८५. तए णं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावतारं कलाओ सुत्तओ य अत्यओ य करणओ य सेहावे सिखावे, तं जहा- १. लेहं २. गणियं ३. रूवं ४ नहं ५. गीयं ६. वाइयं ७. सरगयं ८. पोक्खरगयं ९. समतालं १०. जूयं ११. जणवायं १२. पासयं १३. अट्ठावयं १४. पोरेकव्वं १५. दगमट्टियं १६. अण्णविहिं १७. पाणविहिं १८. वत्यविहिं १९. विलेवणविहिं २०. सयणविहिं २१. अजं २२. पहेलियं २३. मागहियं २४. गाहं २५. गीयं २६. सिलोयं २७. हिरण्णजुत्तिं २८. सुवण्णजुत्तिं २९. चुण्णजुत्तिं ३०. आभरणविहिं ३१. तरुणीपडिकम्मं ३२. इत्थिलक्खणं ३३. पुरिसलक्खणं ३४. हयलक्लणं ३५. गयलक्खणं, ३६. गोणलक्खणं ३७. कुक्कुडलक्खणं ३८. छत्तलक्खणं ३९. दंडलक्खणं ४०. असिलक्खणं ४१. मणिलक्खणं ४२. कागणिलक्खणं ४३. वत्युविज्जं ४४. संघारमाणं ४५. नगरमाणं ४६. वूहं ४७. पडिवूहं ४८. चारं ४९. पडिचारं ५०. चक्क ५१. गरुलहं ५२. सगडवूहं ५३. जुद्धं ५४. निजुद्धं ५५. जुद्धाइजुद्धं ५६. अट्ठिजुद्धं ५७. मुट्ठिजुद्धं ५८. बाहुजुद्धं ५९. लयाजुद्ध ६० ईसत्थं ६१. छरुप्पवायं ६२. धणुवेयं ६३. हिरण्णपा ६४. सुवण्णपागं ६५. बट्टले ६६. सुत्त ६७. नालिया ६८ पत्तच्छेज्जे ६९. कडच्छेज्जं ७०. सज्जीवं ७१. निज्जीवं ७२. सउणरुतं ति ।। ८६. तए गं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणस्यपज्जवताणाओ बायत्तरि कलाओ सुत्तओ य अत्यओ य करणओ य सेहावेइ सिक्खावेइ, सेहावेत्ता सिक्खावेत्ता अम्मापिऊणं उरणे ॥ ८७. तए णं मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो तं कलायरियं महुरेहिं वयणेहिं विउलेण य बत्थ-गंध मल्तालंकारेणं सक्कारेति सम्माणेंति, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति, दलइत्ता पडिविसज्जेंति ।। ८८. तणं से मेहे कुमारे बावत्तरि-कलापंडिए नवंगसुत्तपडिबोहिए अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारए गीयरई गंधव्वनट्टकुसले २७ प्रथम अध्ययन : सूत्र ८३-८८ ८३. कुमार मेघ के माता-पिता ने महान ऋद्धि और सत्कार समुदय के साथ क्रमशः उसका नामकरण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, चंक्रमण संस्कार और शिखा धारण संस्कार सम्पन्न किया । मेघ का कलाग्रहण पद ८४. कुमार मेघ जब कुछ अधिक आठ वर्ष का हुआ तब माता - पिता शुभ तिथि, करण और मुहूर्त में उसे कलाचार्य के पास ले गए। ८५. कलाचार्य ने कुमार मेघ को लेख आदि गणित प्रधान से लेकर शकुनरुत पर्यन्त बहत्तर कलाएं सूत्र, अर्थ और क्रियात्मक रूप से पढ़ाई और उनका अभ्यास कराया।" वे बहत्तर कलाएं ये हैं :-- + १. लेख २. गणित ३. रूप ४ नाट्य ५ गीत ६. वाद्य ७. स्वरगत ८. पुष्करगत ९. समताल १०. द्यूत ११ जनवाद १२. पाशक फेंकने की कला १३. अष्टापद १४ पुर: काव्य १५ दकमृत्तिका १६. अन्नविधि १७. पानविधि १८ वस्त्रविधि १९. विलेपन विधि २० शयन विधि २१. आर्या २२ प्रहेलिका २३. मागधिका २४ गाया २५. गीतिका २६. श्लोक २७. हिरण्य - युक्ति २८. सुवर्ण युक्ति २९ चूर्ण - युक्ति ३०. आभरण - विधि ३१. तरुणी - प्रतिकर्म ३२. स्त्रीलक्षण ३३. पुरुष लक्षण ३४. हय लक्षण ३५. गज लक्षण ३६. गौ लक्षण ३७. कुक्कुट लक्षण ३८. छत्र लक्षण ३९. दण्ड लक्षण ४० असि लक्षण ४१. मणि लक्षण ४२. काकिनी लक्षण ४३. वास्तुविद्या ४४. स्कन्धावारमान ४५. नगरमान ४६ व्यूह ४७ प्रतिव्यूह ४८. चार ४९. प्रतिचार ५०. चक्रव्यूह ५१. गरुडव्यूह ५२. शकट व्यूह ५३. युद्ध ५४. नियुद्ध ५५. युद्धातियुद्ध ५६. अस्थियुद्ध ५७. मुष्टियुद्ध ५८. बाहुपुड ५९. लता-युद्ध ६० अस्त्र ६१. त्सरूप्रवाद (लड्गशास्त्र) ६२. धनुर्वेद ६३. हिरण्यपाक ६४. सुवर्णपाक ६५. वृत्तक्रीड़ा ६६. सूत्र कीड़ा ६७. नालिका क्रीडा ६८. पछे ६९. कट-छेद्य ७०. सजीव ७१. निर्जीव और ७२ शकुन रुत। ८६. उस कलाचार्य ने मेघ कुमार को लेख आदि, गणित प्रधान और शकुनस्त पर्यवसान वाली बहत्तर कलाएं सूत्र, अर्थ और क्रियात्मक रूप से पढ़ाई और उनका अभ्यास कराया। पढ़ाकर, अभ्यास कराकर उसको माता-पिता के पास लाया । ८७. कुमार मेघ के माता - पिता ने मधुर वचनों से और विपुल वस्त्र, गन्धचूर्ण मालाओं और अलंकारों से उस कलाचार्य को सत्कृत सम्मानित किया। सत्कृत सम्मानित कर उसको जीवन निर्वाह के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया । देकर प्रतिविसर्जित किया । ८८. वह कुमार मेघ बहत्तर कलाओं में पण्डित बन गया। उसके नौ सुप्त अंग जागृत हो गये।" वह (प्रवृत्ति भेद से) अठारह प्रकार की देशी Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रथम अध्ययन : सूत्र ८८-८९ हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी अलंभोगसमत्थे साहसिए वियालचारी जाए यावि होत्था ।। नायाधम्मकहाओ भाषाओं में विशारद, संगीत में रुचि लेने वाला तथा गन्धर्व विद्या और नाट्य कला में कुशल बन गया। वह हययोधी, गजयोधी, रथयोधी, बाहुयोधी, भुजाओं से शत्रु का मर्दन करने वाला, पूर्ण भोग समर्थ, साहसिक और विकाल बेला में भी विचरने की क्षमता वाला हो गया। मेहस्स पाणिग्गहण-पदं ८९. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं बावत्तरि-कलापंडियं जाव वियालचारिं जायं पासंति, पासित्ता अट्ठ पासायवडिसए कारेंति--अब्भुग्गयमूसिय पहसिए विव मणि-कणगरयण-भत्तिचित्ते वाउद्धय-विजय-वेजयंती-पडाग-छत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमभिलंघमाणसिहरे जालंतररयण पंजरुम्मिलिए ब्व मणिकणगथूभियाए वियसिय-सयवत्त-पुंडरीए तिलयरयणद्धचंदच्चिए नाणामणिमयदामालंकिए अंतो बाहिं च सण्हे तवणिज्ज-रुइल- वालुया- पत्थरे सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। ___एगं च णं महं भवणं कारेंति--अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलट्ठियसाल-भंजियागं अब्भग्गयसकयवइरवेइयातोरणवररइयसालभंजिय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-लट्ठ-संठिय-पसत्थवेरुलियखंभ-नाणामणि-कणगरयण-खचियउज्जलं बहुसम-सुविभत्त-निचियर-मणिज्जभूमिभागं ईहामिय-उसभतुरय-नर-मगर-विहग-वालगकिन्नर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजरवणलय-पउमलय-भत्तिचित्तंखंभुग्गयवयरवेइया-परिगयाभिरामं विज्जाहर-जमल-जुयल-जंतजुत्तं पिव अच्चीसहस्स- मालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं सस्सिरीयरूवं कंचणमणि-रयणथूभियागं नाणाविहपंचवण्ण-घंटापडाग-परिमंडियग्गसिहरं धवल-मरिचिकवयं विणिम्मुयंत लाउल्लोइयमहियं जाव गंधवट्टिभूयं पासाईयं दरिसणिज्ज अभिरूवं पडिरूवं ।। मेघ का पाणिग्रहण-पद ८९. कुमार मेघ के माता-पिता ने कुमार मेध को बहत्तर कलाओं में पण्डित यावत् विकाल बेला में भी विचरने की क्षमतायुक्त देखा। देखकर उसके लिए आठ प्रासादावतंसक बनवाए। वे ऊपर उठे हुए ऊंचे, धवल प्रभापटल के कारण प्रहसित से, मणि, कनक और रत्नों की भांतो से चित्रित, हवा में फहराती हुई, विजय-वैजयन्ती पताकाओं छत्रों और अतिछत्रों से कलित, उत्तुंग गगन तल का भी अतिक्रमण करने वाले, शिखरों से युक्त, रत्न जटित वातायनों के कारण खुले पिंजरे से प्रतीत होने वाले, मणि-कनक निर्मित स्तूपिकाओं से युक्त, विकसित नीलकमलों एवं श्वेत कमलों से युक्त तिलक, रत्न और अर्द्धचन्द्रों से चित्रित, नाना मणिमय दाम-मालाओं से अलंकृत, भीतर और बाहर से श्लक्षण--चिकने आंगन में बिछी हुई रुचिर स्वर्ण-बालुका के कारण सुखद स्पर्श वाले, अतिशय श्री सम्पन्न, चित्त को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय थे। उन्होंने एक बड़ा भवन बनवाया। वह अनेक सैंकड़ों खम्भों पर अवस्थित था। उसमें नृत्य करती पुतलियां उत्कीर्ण थीं। वह भवन ऊंची उठी हुई सुनिर्मित वज्ररत्नमय वेदिकाओं और सिंह द्वारों से युक्त था। उसके कलात्मक ढंग से उकेरी हुई पुतलियों से युक्त, सुश्लिष्ट, विशिष्ट तथा कमनीय आकृति वाले प्रशस्त वैडूर्य रत्नों के खम्भे थे। वह नाना मणि, कनक और रत्नों से खचित एवं प्रभास्वर था। उसका आंगन बहुसम, सुविभक्त, ठोस और रमणीय था। वह ईहामृग, बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगरमच्छ, पक्षी, सर्प, किन्नर, मृग, अष्टापद, चमरीगाय, हाथी, अशोक आदि की लता और पद्मलता--इनकी भांतों से चित्रित था। खम्भों के ऊपर उठी हुई वज्ररत्नमय वेदिका से अभिराम था। वह यंत्र से संचालित विद्याधर-युगल की प्रतिमा से युक्त था। वह रत्नों की हजारों रश्मियों से शोभित और उनमें बिम्बित हजारों प्रतिबिम्बों से कमनीय लग रहा था। वह देदीप्यमान, अतिशय देदीप्यमान, देखते ही दृष्टि को बांधने वाला, स्पर्श-सुखद, सश्रीक (श्री सम्पन्न) तथा कंचन, मणि और रत्नों की स्तूपिकाओं से युक्त था। उसके अग्रशिखर अनेक प्रकार की पंचरंगी घंटायुक्त पताकाओं से परिमण्डित थे। वह अपने धवल-रश्मि-पुंज को चारों और बिखेर रहा था। वह गोबर से लीपा और धुलकाया हुआ यावत् गन्धवर्तिका जैसा, चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय था। Jain Education Intemational Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ९०. तए णं तस्स मेहरस कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं सोहनसि तिहि करण-नवत्त-मुहुर्तसि सरिसियाणं सरिव्वयाणं सरितयाणं सरिसलावण्ण-रूप-जोवण-गुणोक्वेयाणं सरितएहिंतो रायकुलेहिंतो आणिल्लियाणं पाहणट्टंग- अविहववहु- ओवयण-मंगलसुजंपिए हिं अहिं रायवरकन्नाहिं सद्धिं एमदिवसेणं पाणिं मिन्हाविंसु ।। पीइदाण-पदं ९१. तए णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो इमं एयारूवं पीइदाणं दलयंति-अट्ठ हिरण्णकोडीओ अट्ठ सुवण्णकोडीओ गाहाणुसारेण भाणियव्वं जाव पेणकारियाओ, अण्णं च विपुलं द्यण-कणगरयण-मणि-मोत्तियसंख - सिल प्पवाल- रत्तरयण-संत-सार- सावएज्जं अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दारं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउं । । ९२. तणं से मेहे कुमारे एगमेगाए भारियाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलयइ, जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयइ, अण्णं च विउलं धणaur - रयण-मणि - मोत्तिय संख - सिल प्पवाल- रत्तरयण-संत-सारसावएज्जं अलाहिजाब आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउं दलयइ ।। ९३. तए णं से मेहे कुमारे उप्पिं पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्यएहिं वरतरुणिसंपउत्तेहिं बत्तीसइबद्धएहिं नाडएहिं उवगिज्जमाणेउवगिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे ( इट्ठे ) सहफरिस रस रूव गंधे विउले माणुस्सए कामभोगे पञ्चणुभवमाणे - विहरइ ।। २९ प्रथम अध्ययन : सूत्र ९०-९४ ९०. कुमार मेघ के माता-पिता ने शोभन तिथि, करण‍, नक्षत्र और मुहूर्त में एक जैसी समान वय वाली, समान त्वचा वाली, समान लावण्य, रूप, यौवन एवं गुणों से उपेत और सदृश राजकुलों से आई हुई आठ प्रवर राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में, प्रसाधन के आठों अंगों से अलंकृत सौभाग्यवती कुल-वधुओं के द्वारा किए जाने वाले जलाभिषेक, मंगलकरण और आशीर्वाद के साथ" कुमार मेघ का पाणिग्रहण करवाया। महावीरसमवसरण-पदं ९४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायनियरे गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहर।। 1 प्रीतिदान-पद ९१. मेघ | कुमार के माता-पिता ने इस आकार वाला प्रीतिदान किया। जैसे-आठ करोड़ हिरण्य, आठ करोड़ सुवर्णप्रीती दान का पूर्ण विवरण गाथाओं के अनुसार वर्णनीय है यावत् प्रेष्यकर्म करने वाली सेविकाएं। इसके अतिरिक्त उन्होंने उसे विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, भौतिक, शंख, शिला, प्रवाल, रक्तरत्न तथा श्रेष्ठ सुगंधित द्रव्य और दान भोग आदि के लिए स्वापतेय (स्वाधीनता पूर्वक व्यय किया जाने वाला धन) दिया जो सात पीढ़ियों तक प्रचुर मात्रा में दान करने, प्रचुर मात्रा में भोगने तथा प्रचुर मात्रा में बांटने (विभाग करने) में पर्याप्त था। ९२. कुमार मेघ ने अपनी प्रत्येक भार्या को एक-एक हिरण्य कोटि यावत् प्रेष्य कर्म करने वाली सेविका दी। इसके अतिरिक्त उसने उनको विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, रक्तरत्न, श्रेष्ठ सुगंधित द्रव्य और स्वापतेय दिया, जो सात पीढ़ियों तक प्रचुर मात्रा में दान करने, प्रचुर मात्रा में भोगने और प्रचुर मात्रा में बांटने में पर्याप्त था । ९३. कुमार मेघ अपने प्रवर प्रासाद के उपरिभाग में स्थित था। उसके सामने मृदंग मस्तकों की प्रबल होती ध्वनि के साथ वर तरुणियों द्वारा संप्रयुक्त बत्तीस प्रकार के नाटक किए जा रहे थे। उसके गुणगान किए जा रहे थे, उसका उपलालन किया जा रहा था। वह (इष्ट) शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध, मनुष्य संबंधी विपुल कामभोगों को भोगता हुआ विहार कर रहा था । महावीर का समवसरण पद ९४. उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर क्रमानुसार विचरण करते हुए ग्रामानुग्राम परिव्रजन सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां राजगृह नगर और गुणशिलक चैत्य था वहां आए। वहाँ आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली। अनुमति लेकर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन सूत्र ९५-९९ मेहस्स जिन्नासा पर्य ९५. तए णं रायगिहे नवरे सिंघाडग-तिग- चक्क चच्चर-चउम्मुहमहापहपहेसु महया जणसद्दे इ वा जाव बहवे उग्गा भोगा रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्ज्ञेणं एगदिसिं एमाभिमुहा निमाच्छति । इमं च णं मेहे कुमारे उप्पिं पासायवरगए पुत्रमाणेहिं मुइंगमत्यएहिं जाव माणुस्तए कामभोगे भुजमाणे रायमग्गं च ओलोएमाणे ओलोएमाणे एवं च णं बिहरइ । 1 ९६. तए णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे भोगे जाव एदिसाभिमु निगच्छमाणे पास, पासित्ता कंचुइज्जपुरिस सद्दावे सहावेत्ता एवं वयासी -- किण्णं भो देवाणुप्पिया! अज्ज रायगिहे नगरे इंदमहे इ वा खंदमहे इ वा एवं रुद्द सिव- वेसमण- नाग-जक्खभूय- नई - तलाय - रुक्ख -- चेइय-पव्वयमहे इ वा उज्जाणगिरिजत्ता इ वा ? जओ णं बहवे उग्गा भोगा जाव एगदिसिं एयाभिमुहा निग्गच्छति ।। -- कंचुइज्जपुरिसस्स निवेदण-पदं ९७. तए णं से कंचुइज्जपुरिसे समणस्स भगवओ महावीरस्स महियागमणपवित्तीए मेहं कुमारं एवं वयासीनो खलु देवाप्पिया! अज्ज रायगिहे नवरे इंदमहे इ वा जाव गिरिजत्ता इवा जं गं एए उग्गा भोगा जान एमदितिं एमाभिमुहा निगच्छति । एवं खतु देवाणुप्पिया! समणे भगणं महावीरे आइगरे तित्थगरे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इह चेव रायगिहे नगरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिन्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह ॥ मेहस्स भगवजो समीवे गमण-पदं २८. तए से मेहे कुमारे कंचुइज्जपुरिसस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म हट्ठतु कोडुबियपुरिसे सहावे सहावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव वेह | तहत्ति उवणेति ।। ९९. तए णं से मेहे हाए जाव सम्वालंकारविभूसिए चाउन्ट आसरहं दुरूडे समाणे सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेण धरिज्जमाणेण महवा भंड-चडगर-बंद-परियाल-संपरिवुडे रायगिहस्स नवरस्स मजमणं निगच्छ, निग्गच्छित्ता जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उपागच्छद्रनागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्ताइच्छतं ३० नायाधम्मकहाओ मेघ की जिज्ञासा पद ९५. उस समय राजगृह नगर के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में महान जनशब्द हो रहा था । यावत् बहुत से उग्र, भोज राजगृह नगर के बीचों बीच से गुजरते हुए एक ही दिशा की ओर मुंह किये चले जा रहे थे। इधर कुमार मेघ अपने प्रवर प्रासाद के उपरिभाग में तबलों की ध्वनि के साथ यावत् मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगता और राजमार्ग का अवलोकन करता हुआ विहार कर रहा था । , । ९६. कुमार मेघ ने उन बहुत से उग्र, भोज" (आदि नागरिकों) को यावत् एक ही दिशा की ओर मुंह कर जाते हुए देखा। यह देखकर उस कंचुकी पुरुष को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रिय! आज राजगृह नगर में इन्द्र महोत्सव या स्कन्ध महोत्सव है या इसी प्रकार रुद्र, शिव" वैश्रवण, नाग, यक्ष, भूत, नदी, तालाब, वृक्ष, चैत्य पर्वत आदि से सम्बन्धित कोई उत्सव है या उद्यान - यात्रा तथा गिरियात्रा का कोई आयोजन है जिसके कारण ये बहुत से उग्र, भोज भोज राजगृह में यावत् एक ही दिशा की ओर मुंह किये चले जा रहे हैं। कंचुकी पुरुष का निवेदन- पद ९७. श्रमण भगवान महावीर के आगमन के वृत्तान्त की जानकारी पाकर कंचुकी पुरुष ने कुमार मेघ से इस प्रकार कहादेवानुप्रिय ! आज राजगृह नगर में न इन्द्र महोत्सव है यावत् न गिरि यात्रा का आयोजन - जिसके कारण ये बहुत से उम्र भोज यावत् एक ही दिशा की ओर मुंह किये जा रहे है । देवानुप्रिय ! धर्म के आदिकर्ता तीर्थकर श्रमण भगवान महावीर यहां आये हुए हैं, यहां सम्प्राप्त हैं, यहां समवसृत हैं और वहीं राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। मेघ का भगवान के समीप गमन-पद ९८. कंचुकी पुरुष के पास यह अर्थ सुन कर अवधारणा कर हृष्ट तुष्ट हुए कुमार मेघ ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर कहादेवानुप्रियो! शीघ्र ही चार घण्टाओं वाले अश्वरथ को जोत कर उपस्थित करो । 'तथास्तु' कहकर वे अश्वरथ को लाए । ९९. कुमार मेघ नहाकर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हुआ । चार घण्टाओं वाले अश्वरथ पर आरूढ़ हुआ । कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र को धारण किया। महान सुभटों के सुविस्तृत वृन्द से परिवृत होकर राजगृह नगर के बीचों बीच होकर निर्गमन किया । निर्गमन कर जहां गुणशिलक चैत्य था वहां Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ पहागाइपहागं विज्जाहर चारणे जंभए व देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पास, पासित्ता बाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहइ, पच्ची हित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविणं अभिगमेणं अभिगच्छइ । (तं जहा - १. सचित्ताणं दव्याणं विसरणवाए २. अमिता दव्वाणं अविउसरणयाए ३. एगसाहिय उत्तरासंगकरणेणं ४. चक्खुफासे अंजलिपग्गणं ५. मणसो एगत्तीकरणेणं । ) जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुतो आयाहिण पयाहिणं करेड़, करेत्ता वंद नमसइ वंदित्ता नमसत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स नन्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे पंजलिउडे अभिमु विणणं पज्जुवासइ ॥ धम्मदेसणा-पदं १००. तए णं समणे भगवं महावीरे मेहस्स कुमारस्स तीसे य महइमहालियाए परिसाए मझगए विचित्तं धम्ममाइक्खइ जह जीवा बज्झति मुच्चति जहा य सकितिस्सति । धम्मकहा भाणियव्वा जाव परिसा पडिगया ।। मेहस्स पव्वज्जासंकम्प-पदं १०१. तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आपाहिण पवाहिणं करेह, करेत्ता बंद नमंसह वंदित्ता नमसत्ता एवं वयासी- सदहामि णं भंते! निग्गंध पावयणं । पत्तियामि णं भंते! निग्धं पावयणं । रोएमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं । अन्भुद्वेमि णं भंते! निग्गंध पावपण । एवमेवं भंते! तहमेयं भते! अवितहमेयं भते! इच्छियमेयं भंते! पहिच्छियमेयं भंते! इच्छप-पडिडियमेयं भंते! से जहेयं तुब्भे वह नगरि देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपृच्छामि । तओ पच्छा मुडे भक्त्तिा गं अगाराओ अणमारियं पव्वइस्सामि । अहासुहं देवाणुपिया! मा परिबंध करेहि ।। ३१ मेहस्स अम्मापिऊणं निवेदण-पदं १०२. तए णं से मेहे कुमारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणामेव उवागच्छइ, प्रथम अध्ययन : सूत्र ९९-१०२ आया । आकर श्रमण भगवान महावीर के वहां छत्रों, अतिछत्रों, पताकाओं और अतिपताकाओं तथा विद्याधर, चारण और जृम्भक देवों को आते-जाते हुए देखा देखकर वह चार घंटाओं 1 वाले अश्वरथ से नीचे उतरा। उतरकर पांच प्रकार के अभिगमों से" श्रमण भगवान महावीर के पास गया । जैसे -- १. सचित्त द्रव्यों को छोड़ना २. अचित्त द्रव्यों को छोड़ना ३. एक शाटक वाला उत्तरासंग करना ४ दृष्टिपात होते ही बद्धाञ्जलि होना ५. मन को एकाग्र करना । जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आया। आकर दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर श्रमण भगवान महावीर के न अति निकट, न अति दूर, शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए सम्मुख रहकर विनय पूर्वक बद्धांजलि पर्युपासना करने लगा। धर्म देशना पद १००. श्रमण भगवान महावीर ने कुमार मेघ और उस विशाल परिषद् में विचित्र धर्म का प्रतिबोध दिया जिन कारणों से जीव बद्ध होते हैं. मुक्त होते हैं और जिन कारणों से संक्लेश को प्राप्त होते हैं यह धर्मकथा औपपातिक के अनुसार वर्णनीय है यावत परिषद् चली गयी। मेघ का प्रव्रज्या संकल्प-पद १०१. श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर तुष्ट होकर कुमार मेघ ने श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार कहा- भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं । भन्ते मैं निर्ग्रन्य-प्रवचन पर प्रतीति करता हूं। भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर रुचि करता हूं। भन्ते मैं निन्ध-प्रवचन (की आराधना) में अभ्युत्थान करता हूं यह ऐसा ही है भन्ते ! यह तथा (संवादितापूर्ण) है भन्ते ! यह अवितथ है भन्ते ! यह इष्ट है भन्ते ! यह प्रतीप्सित ( प्राप्त करने के लिए इष्ट) है भन्ते ! यह इष्ट, प्रतीप्सित, दोनों है भन्ते ! जैसा तुम कह रहे हो। लेता हूं। पूछ केवल एक बार देवानुप्रिय ! मैं अपने माता-पिता से उसके पश्चात् मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होऊंगा। भगवान ने कहा -- जैसा सुख हो देवानुप्रिय ! प्रतिबन्ध मत करो । मेघ का माता-पिता से निवेदन - पद १०२. कुमार मेघ ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना नमस्कार किया । वन्दना - नमस्कार कर जहां चार घण्टाओं वाला अश्वरथ था, वहां Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन सूत्र १०२-१०६ उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ, महया भड-चडगर-पहकरेणं रायगिहस्स नगरस्स मजांमज्मेण जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणामेव अम्मापियरो तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अम्मापिऊणं पायवडणं करेइ, करेत्ता एवं वयासी--एवं लतु अम्मयाओ! मए समणस्स भगवजो महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए परिच्छिए अभिरुइए । १०३. तए णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो एवं वयासी -- धन्नोसि तुमं जाया! संपुष्णो सि तुमं जाया! कयत्योसि तुमं जाया! कयलक्खणो सि तुमं जाया! जन्नं तु समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसते, से विय ते धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए ।। १०४. तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरो दोच्चपि एवं वयासी--एवं खलु अम्मयाओ! मए समणस्स भगवत्र महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुदए । तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुम्भेहिं अन्भणुष्णाए समाणे समणस्स भगवाओ महावीरल्स अंतिए मुडे भक्त्तिा णं अगाराओ अगगारिवं पव्वइत्तए । धारिणीए सोमाकुलदसा-पदं १०५. तए णं सा धारिणी देवी तं अणिट्टं अकंतं अप्पियं अमणुण्णं अमणामं असुयपुव्वं फरुसं गिरं सोच्चा निसम्म इमेणं एयारूवेणं मणोमाणसिएणं महया पुत्तदुक्त्रेणं अभिभूया समाणी सेयागयरोमकूवपगलंत - चिलिणगाया सोयभरपवेवियंगी नित्तेया -वि-वाकरलमलिय व्व कमलमाला तक्खणओलुग्गदुब्बलसरीर लावण्णसुन्न निच्छाय-गयसिरीया पसिद्धितभूषणपडतखुम्मियसंचुण्णियधवलवलय- पब्भट्ठउत्तरिज्जा सूमालविकिरण-सहत्था मुच्छावसनट्ठचेय-गरुई परसुनियत्त व्व चंपगलया निव्वत्तमहे व्व इंदली विमुक्कसंधिबंधणा कोट्टिमतलसि सयंहिं धसत्ति पडिया ।। धारिणीए मेहस्स य परिसंवाद-पदं १०६. तए णं सा धारिणी देवी ससंभमोवत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गयसीयलजलविमलधाराए परिसिंचमाण ३२ नायाधम्मकहाओ आया । आकर चार घण्टाओं वाले अश्व रथ पर आरूढ़ हुआ और महान सुभटों के सुविस्तृत संघात वृन्द से परिवृत हो राजगृह नगर के बीचों बीच होकर निर्गमन किया। निर्गमन कर जहां उसका अपना भवन था, वहां आया। आकर चार घण्टाओं वाले अश्वरथ से नीचे उतरा, उतरकर जहां माता-पिता थे, वहां आया। आकर माता-पिता के चरणों में प्रणिपात किया । प्रणिपात कर इस प्रकार कहा--माता पिता! मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म को सुना है । वही धर्म मुझे इष्ट, प्रतीप्सित और अभिरुचित है। १०३. उस मेघ के माता-पिता ने इस प्रकार कहा- तुम धन्य हो पुत्र! तुम पुण्यशाली हो पुत्र! तुम कृतार्थ हो पुत्र! तुम कृतलक्षण (लक्षण से सम्पन्न) हो पुत्र ! जो कि तुमने श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म को सुना है, वह धर्म तुम्हें इष्ट, प्रतीप्सित और अभिरुचित है। १०४. कुमार मेघ दूसरी बार भी माता-पिता से इस प्रकार बोला--माता पिता ! मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुना है, वही धर्म मुझे इष्ट प्रतीसित और अभिरुचित है। इसलिए माता पिता ! मैं तुम से अनुज्ञा प्राप्त कर, श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होना चाहता हूं। धारिणी की शोकाकुलदशा-पद १०५. धारिणी देवी उस अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज, अमनोहर, अश्रुतपूर्व और कटुवाणी को सुनकर, अवधारण कर मन की गहराई में रहे हुए महान पुत्रदुःख से अभिभूत हो उठी। उसके रोम कूपों में स्वेद आ गया। उसके श्रवण से शरीर गीला हो गया। शोक के आघात से उसके अंग कांपने लगे। वह निस्तेज हो गई। उसका मुंह दीन और विमनस्क हो गया। वह हाथ से मली हुई कमल माला की भांति हो गई । उसका शरीर उसी क्षण रुग्ण, दुर्बल, लावण्य शून्य, आभा शून्य और श्रीविहीन हो गया। गहने शिथिल हो गये। धवल - कंगन धरती पर गिरकर मोच खा कर खण्ड-खण्ड हो गये । उत्तरीय खिसक गया। सुकोमल केश राशि बिखर गयी। मूर्च्छा वश चेतना के नष्ट होने से उसका शरीर भारी हो गया। परशु से छिन्न चम्पकलता की भांति और उत्सव की समाप्ति पर इन्द्रयष्टि की भांति उसके सन्धिबन्धन शिथिल हो गये। वह अपने सम्पूर्ण शरीर के साथ रत्नजडित आंगन में धम से गिर पड़ी। १९ धारिणी और मेघ का परिसंवाद - पद १०६. संभ्रम और त्वरा के साथ चेटिका द्वारा डाली गई, सोने की झारी के से निकली, शीतल जल की निर्मल धारा के परिसिंचन से मुँह Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ निव्वावियगायली उक्खेवय-तालविंट - वीणग जणियवाएगं सफुसिएण अंतेउर - परिजणेणं आसासिया समाणी मुत्तावलि - सन्निगास पवईत अंधाराहिं सिंचमाणी पजोहरे, कलुण-विमणदीणा रोयमाणी कंदमाणी तिप्पमाणी सोयमाणी विलवमाणी मेहं कुमारं एवं क्यासी- तुमं सिणं जाया! अम्हं एगे पुते ने की पिए मणुष्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रणभूए जीविप उत्सासिए हियय-दि-जगणे उंबरपुप्फ व दुल्हे सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? नो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो लणमवि विप्यओगं सहित्तए । तं भुंजाहि ताव जाया विपुले माणुस्सए कामभोगे जाव ताव वयं जीवामो तओ पच्छा अम्हेहिं कालगएहिं परिणयवए वड्ढिय - कुलवंसतंतु- कज्जम्मि निराक्यले समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुटे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वहस्ससि ।। १०७. लए णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं कुत्ते समाणे अम्मापियरो एवं वयासी -- तहेव णं तं अम्मो! जहेव णं तुब्भे ममं एवं वयह--तुमं सिगं जाया! अम्हं एगे पत्ते इट्टे कतै पिए मणुष्णे मनामे घेज्जे सासिए सम्म बहुम अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीविय - उस्सासिए हियय - गंदि - जणणे उंबरपुप्कं व दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? नो खलु जाया! अम्हे इच्छामो सणमवि विप्पजोगं सहित्तए। तं भुंजाहि ताव जाया! विपुले माणुस्साए कामभोगे जाव ताव वयं जीवामो तओ पच्छा, अम्हेहिं कालगाएहिं परिणयवएवाय कुलवंतंतु कज्जम्मि निराक्यक्से समणस्त भगवओ महावीरस्स अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अगगारियं पव्वस्तसि । " एवं खलु अम्मयाओ! माणुस्सए भने अधुवे अणितिए असासए वसणसजवदवाभिभूते विज्जुलयाचंचले अणिच्चे जलकुम्बुसमाणे कुसग्गजलबिंदुसन्निभे संझन्भरागसरिसे सुविणदंसणोवमे सडण - पडण - विद्वंसण-धम्मे पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जे । से के णं जाणइ अम्मयाओ! के पुब्विं गमनाए के पच्छा गमणाए ? तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समस् भगवओ महावीरस्स अंतिए मुडे भविता गं अगाराओ अनगारिय पव्वइत्तए । ३३ प्रथम अध्ययन : सूत्र १०६-१०७ धारिणी देवी की गात्र- यष्टि में शीतलता व्याप गई। उत्क्षेपक, तालवृन्त और वीजनक अर्थात् पंखों से उठने वाली जल मिश्रित हवा के संस्पर्श से तथा अन्त:पुर के परिजनों द्वारा वह आश्वस्त हुई । मुक्तावली की भांति गिरती हुई अश्रुधारा से पयोधरों को सींचती हुई, करुण, विमनस्क और दीन धारिणी देवी, रोती, कलपती, आंसू बहाती, शोक करती और विलपत्ती हुई कुमार मेष से इस प्रकार बोली- जात! तुम हमारे एक मात्र पुत्र इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज, मनोहर स्थिरतर, विश्वनीय, सम्मत बहुमत, अनुमत और आभरण करण्डक के समान हो, तुम रत्न, रत्नभूत (चिन्तामणि आदि के समान) जीवन उच्छ्वास (प्राण) और हृदय को आनन्दित करने वाले हो तुम उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ हो. फिर दर्शन का तो प्रश्न ही क्या? जात! हम क्षण भर भी तुम्हारा वियोग सहना नहीं चाहते । इसलिए जात! तुम तब तक मनुष्य सम्बन्धी विपुल काम भोगों का भोग करो, जब तक हम जीवित हैं। उसके पश्चात् जब हम कालप्राप्त हो जाएं, तुम्हारी वय परिपक्व हो जाए, तुम कुल वंश के तन्तुओं को बढ़ाकर, इतर कार्यों से निरपेक्ष बन, श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाना। १०७. माता-पिता द्वारा ऐसा कहने पर कुमार मेघ उनसे इस प्रकार बोला- माता-पिता ! यह वैसा ही हैं, जैसा तुम मुझ से कह रहे हो कि--जात! तुम हमारे एक मात्र पुत्र इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभरण करण्डक के समान हो, तुम रत्न, रत्नभूत, जीवन, उच्छ्वास (प्राण) और हृदय को आनन्दित करने वाले हो। तुम उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ हो, फिर दर्शन का तो प्रश्न ही क्या ? जात! हम क्षण भर भी तुम्हारा वियोग सहना नहीं चाहते । इसलिए जात! तुम तब तक मनुष्य सम्बन्धी विपुल काम भोगों का भोग करो, जब तक हम जीवित हैं। उसके पश्चात् जब हम काल प्राप्त हो जाएं, तुम्हारी व परिपक्व हो जाए, तुम कुल वंश के तन्तुओं को बढ़ाकर, इतर कार्यों से निरपेक्ष बन, श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाना । किन्तु माता-पिता! यह मनुष्य जीवन अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत सैकड़ों कष्टों और उपद्रवों से अभिभूत विद्युतलता की भांति चंचल, जल के बुदबुदे, डाभ की नौक पर स्थित जलकण, सन्ध्याकालीन अभ्रराग और स्वप्नदर्शन के समान अनित्य है । यह सडने गिरने और विध्वस्त हो जाने वाला है। पहले या पीछे अवश्य छोड़ना है। अतः माता-पिता ! कौन जानता है कि कौन पहले जाएगा? कौन पश्चात् जायेगा ? अत एव माता-पिता ! मैं तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर श्रमण भगवान महावीर के पास, मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाऊं । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन सूत्र १०८-१११ ३४ १०८. तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो एवं क्यासी इमाओ ते जाया! सरिसियाओ सरित्तयाओ सरिव्वयाओ सरिसलावण्णरूव-जोग-गुणोपाओ सरिसेरितो रायकुलेहितो आणिल्लियाओ भारियाओ । तं भुंजाहि णं जाया! एयाहिं सद्धिं विउले माणुस्सए कामभोगे । पच्छा भुक्तभोगे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुडे भविता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्ससि ।। -- १०९. तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरं एवं वयासी -- तहेव णं तं अम्मयाओ! जं णं तुम्भे ममं एवं वयह इमाओ ते जाया! सरिसियाओ सरितयाओ सरिव्वयाओ सरिसलावण्ण-रूव जोब्बगगुणोववेयाओ सरिसेहिंतो रायकुलेहिंतो आणिल्लियाओ भारियाओ । तं भुंजाहि णं जाया! एयाहिं सद्धिं विउले माणुस्सए कामभोगे । पच्छा भुक्तभोगे समणस्स भगवओो महावीरस्स अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्ससि ।” एवं खलु अम्मयाओ! माणुस्सगा कामभोगा असुई वंतासवा पित्तासवा सेलासवा सुक्कासवा सोणियासवा दुरुय उस्सासनीसासा दुरुय-मुत्त-पुरीस पूय - बहुपडिपुण्णा उच्चार- पासवण - खेल-सिंघाणग-पंत-पित्त सुक्क सोणियसंभवा अधुवा अणितिया असासया सडण-पडण- विद्धसणधम्भा पच्छा पुरं चणं अवस्सविप्पजहणिज्जा । - से के णं जाणइ अम्मयाओ! के पुब्विं गमणाए के पच्छा गमगाए? तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुम्भेहिं अन्भणुष्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुडे भवित्ता गं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए । ११०. तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो एवं वयासी - इमे य ते जाया ! अज्जय-पज्जय-पिउपज्जयागए सुबहू हिरण्णे य सुवण्णेय कंसे सेय मणि-मोत्तिय संख - सिल प्पवाल- रत्तरयण-संतसारसावज्जेय अलाहिजाब आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दार्ज पगामं भोत्तुं पगामं परिभाएउं। तं अणुहोही ताव जाया! विपुलं माणुसगं इसिक्कारसमुदयं तओ पच्छा अणुभूयकल्लाने समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुटे भवित्ता अगाराओ अणगारयं पव्वसासि ।। १११. तए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरं एवं वयासी - तहेव णं तं अम्मयाओ! जं णं तुब्भे ममं एवं वयह- “ इमे ते जाया ! अज्जग-फज्जग पिउपज्जयागए सुबहू हिरण्णे य सुव्वणे व कंसे य दूसे य मणि- मोत्तिय संख सिल प्पवाल- रत्तरयण-संतसारसावज्जेय अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दाउं नायाधम्मकहाओ १०८. माता-पिता ने कुमार मेघ से इस प्रकार कहा --जात! ये तुम्हारी भार्याएं, जो एक जैसी, समान त्वचा वाली, समान वय वाली, समान लावण्य, रूप, यौवन तथा गुणों से उपेत और सदृश राजकुलों से आई हुई हैं। इसलिए हे जात! तुम इनके साथ विपुल मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों का भोग करो। इसके पश्चात् भुक्त भोगी होकर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाना । १०९. कुमार मेघ ने माता-पिता से इस प्रकार कहा- माता-पिता! यह वैसा ही है, जैसा तुम मुझे कह रहे हो कि जात! ये तुम्हारी भार्याएं जो एक जैसी, समान त्वचा वाली, समान वय वाली, समान लावण्य, रूप, यौवन तथा गुणों से उपेत और सदृश राजकुलों से आई हुई हैं। इसलिए जात! तुम इनके साथ विपुल मनुष्य - सम्बन्धी काम-भोगों क भोग करो। इसके पश्चात् भुक्त भोगी बन, श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाना । किन्तु माता-पिता! ये मनुष्य सम्बन्धी काम भोग अशुचि हैं। क्योंकि मनुष्य के शरीरों से वमन, पित्त, कफ, शुक्र और शोणित झरते रहते हैं। उच्छ्वास-नि:श्वास से दुर्गन्ध आती है। ये दुर्गन्धित मल-मूत्र और पीव से प्रतिपूर्ण होते हैं ये मल-मूत्र कफ, नाक के मैल वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से उत्पन्न होते हैं ये अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, तथा सड़ने, गिरने और विध्वस्त हो जाने वाले हैं। उनको पहले या पीछे अवश्य छोड़ना है। अतः माता-पिता कौन जानता है, कौन पहले जाएगा? कौन पीछे जाएगा? अत एव माता-पिता ! मैं तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर, श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रवजित हो जाऊं। ११० माता-पिता ने कुमार मेघ से इस प्रकार कहा जात! तुम्हारे पितामह प्रपितामह और प्र-प्रपितामह से प्राप्त यह बहुत सारा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य बहुमूल्य वस्त्र, मणि, मौक्तिक, शंख, मैनशिल, प्रवाल, लालरत्न (पद्मरागमणि) और श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्य और दान भोग आदि के लिए स्वापतेय यावत् जो सातवीं पीढ़ी तक प्रचुर मात्रा में देने के लिए, भोगने के लिए और बांटने के लिए पर्याप्त है। अतः जात! तुम मनुष्य सम्बन्धी विपुल ऋऋद्धि, सत्कार और समुदय का अनुभव करो । उसके अनन्तर कल्याण का अनुभव कर, श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाना। ११९. कुमार मेघ ने माता-पिता से इस प्रकार कहा- माता-पिता ! यह वैसा ही है, जैसा तुम मुझसे कह रहे हो जात! तुम्हारे पितामह प्रपितामह और प्र-प्रपितामह से प्राप्त यह बहुत सारा हिरन्य, सुवर्ण, कांस्य बहुमूल्य वस्त्र, मणि भौतिक, प्रशंश, मैनशिल प्रवाल, लातरत्न श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्य और दान भोग आदि के लिए स्वापतेय है जो सातवीं Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३५ पगामं भोत्तुं पगामं परिभाएउं । तं अणुहोही ताव जाया! विपुलं माणुसगं इसिक्कारसमुदयं तओ पच्छा अनुभूयकाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए मुटे भविता अगाराओ अणमारिय पम्वइस्ससि ।" एवं खलु अम्मयाओ! हिरण्णे य जाव सावएज्जे य अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए दाइयसाहिए मन्चुसाहिए अग्गितामण्णे चोरसामण्णे रायसामण्णे दाइयसामण्णे मच्चुसामण्णे सडण- पडणविद्धंसणघम्मे पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जे से के गं जाणइ अम्मयाओ के पुब्विं यमणाए के पच्छा गमणाए ? तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुम्भेहिं अम्भणुष्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारिय पव्वइत्तए । ११२. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति मेहं कुमारं बहूहिं विसयाणुलोमाहिं आघवणाहि व पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विष्णवणाहि य आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा सणवित्तए वा विण्णवित्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभउब्वेय कारियाहिं पण्णवणाहि पण्णवेमाणा एवं वयासी -- एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए पडिपुणे नेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे निव्वाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमणे, अहीव एतदिट्ठिए, खुरो इव गंतधाराए, लोहमया इव जवा चावेयव्वा, वालुयाकवले इव निरस्साए, गंगा इव महानई पडिसोयगमणाए महासमुद्र इव भुयाहिं दुत्तरे, तिवखं कमियव्वं, गरुजं बेप असिधारब्वयं चरियन्वं नो खलु कप्पड़ जाया! समणानं निग्गंधाण आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा कीमगडे वा उविए वा रइए वा भिक्खभते वा कंतारभते वा बलियाभले वा गिलाणभत्ते वा मूलभोवणे वा कंदभोवणे वा फलभोषणे वा बीयभोयणे वा हरियभोयणे वा भोत्तए वा पायए वा । तुमं च णं जाया! सुहसमुचिए नो चेव गं दुहसमुचिए, नातं सीयं नालं उन्हं नालं खुहं नालं पिवासं नालं वाइय-पित्तिय-सिंभिय- सन्निवाइए विविहे रोगायंके, उच्चावए गामकंटए, बावीस परीसहोवसग्गे -- उदि सम्म अहियासित्तए । भुंजाहि ताव जाया! माणुस्सए कामभोगे। तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्ससि ।। प्रथम अध्ययन : सूत्र १११-११२ पीढ़ी तक प्रचुर मात्रा में देने, प्रचुर मात्रा में भोगने और प्रचुर मात्रा में बांटने के लिए पर्याप्त है अतः जात! तुम इस मनुष्य सम्बन्धी विपुल ऋद्धि, सत्कार और समुदय का अनुभव करो उसके अनन्तर कल्याण का अनुभव कर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाना।" माता-पिता! हिरण्य यावत् स्वापतेय अग्नि साधित है--अग्नि जला सकती है। चोर साधित है--चोर चुरा सकते हैं। राज साधित है--राजा अधिकृत कर सकता है। दायाद साधित है--भागीदार विभाजित कर सकते हैं। और मृत्यु साधित है --मृत्यु उससे वंचित कर सकती है। अग्नि सामान्य- अग्नि का स्वामित्व है। चोर सामान्य चोर का स्वामित्व है। राज सामान्य - राजा का स्वमित्व है । दायाद सामान्य- भागीदार का स्वामित्व है। और मृत्यु सामान्य मृत्यु का स्वामित्व है। यह सड़ने, गिरने और विध्वस्त हो जाने वाला है। उसे पहले या पीछे अवश्य छोटा है। माता-पिता कौन जानता है, कौन पहले जाएगा? कौन पीछे जाएगा? अतएव माता-पिता! मैं तुमसे अनुज्ञात होकर, श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाऊं । ११२. कुमार मेघ के माता-पिता जब बहुत सारे विषयों के प्रति अनुकूल बनाने वाले बहुत आख्यान, प्रज्ञापन, संज्ञापन और विज्ञापनों के द्वारा उसे आस्थात, प्रज्ञप्त, संज्ञप्त और विज्ञप्त करने में समर्थ नहीं हुए, तब वे विषय से विरक्त किन्तु संयम के प्रति भय और उद्वेग उत्पन्न करने वाले, प्रज्ञापन के द्वारा प्रज्ञापना करते हुए इस प्रकार बोले- "जात! यह निन्य-प्रवचन सत्य अनुत्तर, अद्वितीय प्रतिपूर्ण, नैयत्रिक (मोक्ष तक पहुंचाने वाला) संशुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धि का मार्ग, मुक्ति का मार्ग, मोक्ष का मार्ग, शांति का मार्ग और समस्त दुःखों के क्षय का मार्ग है। किन्तु यह सांप की भाँति एकान्त दृष्टि (एकाग्र दृष्टि) द्वारा साध्य है, क्षुर की भांति एकान्त धार द्वारा साध्य है, इसमें लोहे के यव चबाने होते हैं। यह बालु के कोर की तरह नि:स्वाद है । यह महानदी गंगा में प्रतिस्रोत-गमन जैसा है यह महासमुद्र को भुजाओं से तैरने जैसा दुस्तर है यह तीक्ष्ण काँटो पर चंक्रमण करने, भारी भरकम वस्तु को उठाने और तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने जैसा है। १०४ ! श्रमण-निर्ग्रन्थों को आधाकर्मिक, औद्देशिक, क्रीतकृत, स्थापित, रचित, दुर्भिक्ष - भक्त, कान्तार-भक्त, वार्दलिका भक्त, ग्लान- भक्त, " मूल-भोजन, कन्द-भोजन, फल- भोजन, बीज भोजन और हरित भोजन खाना व पीना नहीं कल्पता । जात! तुम सुख भोगने योग्य हो, दुःख भोगने योग्य नहीं हो। तुम सर्दी, गर्मी, भूख प्यास, वात्तिक, पैतिक, श्लेष्मिक तथा सान्निपातिक विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा उच्चावच इन्द्रियों के विषय, उदीर्ण बाईस परीषह और उपसर्ग-इन सबको सहन करने में समर्थ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र ११२-११४ ३६ नायाधम्मकहाओ नहीं हो। इसलिए जात! तुम पहले मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों का भोग करो। उसके बाद भुक्त भोगी बन, श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रवजित हो जाना।" ११३. तए णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरं एवं वयासी--तहेव णं तं अम्मयाओ! जं णं तुब्भे ममं एवं वयह--"एस णं जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए पडिपुण्णे नेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे निव्वाणमग्गे सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, अहीव एगंतदिट्ठिए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया इव जवा चावयव्वा, वालुयाकवले इव निरस्साए, गंगा इव महानई पडिसोयगमणाए, महासमुद्दो इव भूयाहिं दुत्तरे, तिक्खं कमियव्वं, गरुअं लंबेयव्वं, असिधारव्वयं चरियव्वं । नो खलु कप्पइ जाया! समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिए वा उद्देसिए वा कोयगडे वा ठविए वा रहिए वा दुब्भिक्खभत्ते वा कतारभत्ते वा वद्दलियाभत्ते वा गिलाणभत्ते वा मूलभोयणे वा कंदभोयणे वा फलभोयणे वा बीयभोयणे वा हरियभोयणे वा भोत्तए वा पायए वा। तुमं च णं जाया! सुहसमुचिए नो चेव णं दुहसमुचिए, नालं सीयं नालं उण्हं नालं खुहं नालं पिवासं नालं वाइय-पित्तियसिंभिय-सन्निवाइए विविहे रोगायंके, उच्चावए गामकंटए बावीसं परीसहोवसग्गे उदिण्णे सम्मं अहियासित्तए। भुजाहि ताव जाया! माणुस्सए कामभोगे। तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्ससि।" एवं खलु अम्मयाओ! निग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबद्धाणं परलोगनिप्पिवासाणं दुरणुचरे पाययजणस्स, नो चेव णं धीरस्स निच्छियववसियस्स एत्थ किं दुक्करं करणयाए? तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए।। ११३. माता-पिता द्वारा ऐसा कहने पर कुमार मेघ ने उनसे इस प्रकार कहा--'माता-पिता!' यह वैसा ही है, जैसा तुम मुझसे कह रहे हो--“जात! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य, अनुत्तर, अद्वितीय, प्रतिपूर्ण, नैर्यात्रिक, संशुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धि का मार्ग, मुक्ति का मार्ग, मोक्ष का मार्ग, शांति का मार्ग और समस्त दुःखों को क्षीण करने का मार्ग है। किन्तु यह सांप की भांति एकान्त दृष्टि द्वारा साध्य है। क्षुर की भान्ति एकान्त धार द्वारा साध्य है। इसमें लोह के यव चबाने होते हैं। यह बालु के कोर की तरह नि:स्वाद है। यह महानदी गंगा में प्रतिस्रोत गमन जैसा है। यह महासमुद्र को भुजाओं से तैरने जैसा दुस्तर है। यह तीखे कांटो पर चंक्रमण करने, भारी भरकम वस्तु को उठाने और तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने जैसा है। जात! श्रमण-निग्रन्थों को आधाकर्मिक, औद्देशिक, क्रीतकृत, स्थापित, रचित, दुर्भिक्ष-भक्त, कान्तार-भक्त, वालिका-भक्त, ग्लान-भक्त, मूल-भोजन, कन्द-भोजन, फल-भोजन, बीज-भोजन अथवा हरित-भोजन खाना व पीना नहीं कल्पता। जात! तुम सुख भोगने योग्य हो, दुःख भोगने योग्य नहीं। तुम सर्दी, गर्मी, भूख और प्यास, वात्तिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक तथा सान्निपातिक विविध प्रकार के रोग और आतंक, उच्चावच इन्द्रियों के विषय तथा उदीर्ण बाईस परीषह और उपसर्ग-इन सब को सहन करने में समर्थ नहीं हो। इसलिए जात! तुम पहले मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों का भोग करो। उसके बाद भुक्त भोगी बन श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रवजित हो जाना।" ___माता-पिता! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन क्लीब, कायर, कापुरुष, इहलोक से प्रतिबद्ध, परलोक से पराड्.मुख, प्राकृत--साधारण मनुष्य के लिए इसका आचरण करना दुष्कर है। धीर, कृत-निश्चय और व्यवसाय सम्पन्न (उपाय-प्रवृत्त) व्यक्तियों के लिए संयम का आचरण किञ्चित भी दुष्कर नहीं है। ___इसलिए माता-पिता! मैं चाहता हूं, तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात हो कर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाऊँ।१०५ मेहस्स एगदिवसरज्ज-पदं ११४. तए णं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति बहूहिं विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा सण्णवित्तए वा विण्णवित्तए वा ताहे अकामकाईचेव मेहं कुमारं एवं वयासी--इच्छामो ताव जाया! एगदिवसमवि ते रायसिरिंपासित्तए।। मेघ का एक दिवसीय-राज्य पद ११४. कुमार मेघ के माता-पिता विषय के प्रति अनुरक्त बनाने वाले और विषयों से विरक्त करने वाले बहुत आख्यान, प्रज्ञापन, संज्ञापन और विज्ञापनों के द्वारा उसे आख्यात, प्रज्ञप्त, संज्ञप्त और विज्ञप्त करने में समर्थ नहीं हुए, तब अनिच्छा पूर्वक उन्होंने कुमार मेघ को कहा--जात! हम तुम्हें एक दिन के लिए राज्यश्री से संपन्न देखना चाहते हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३७ ११५. लए णं से मेहे कुमारे अम्मापियरमणुक्त्तमाणे तुसिणीए सचिट्ठइ ।। ११६. लए गं से सेगिए राया कोहुविधपुरिसे सहावेद, सहावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! मेहस्स कुमारस्स महत्यं महग्धं महरिहं विउलं रायाभिसेयं उवट्ठवेह || ११७. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा मेहस्स कुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं विउ रायाभिसेयं उद्ववेति ।। ११८. तए गं से सेणिए राया बहूहिं गणनायगेहि व जाव संधिवालेहि यसद्धिं संपरिवुडे मेहं कुमारं अट्ठसएणं सोवण्णियाणं कलसाणं एवं रूप्पमयाणं कलसाणं मणिमयाणं कलसाणं सुवण्णरुपमयाणं कलसाणं, सुवण्णमणिमयाणं कलसाणं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं सुवग्णरुप्पमणिमयाणं कलसाणं, भोमेज्जाणं कलसाणं सव्वोदएहिं सव्वमट्टियाहिं सव्वपुण्केहिं सव्वगंधेहिं सव्वमल्लेहिं सब्वोसहीहिं सिद्धत्वएहि व सब्बिडीए सव्यज्जुईए सव्वबलेणं जाव दुंदुभिनिग्घोस गाइयरवेणं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचद्द, अभिसिचित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं क्यासी जय-जय नंदा! जय जय भद्दा! जय-जय नंदा! भद्दं ते अजियं जिणाहि, जियं पालयाहि, जियमज्झे साहि, (अजिपं जिणाहि सत्तुपवसं, जियं च पातेहि मित्तपक्लं) इंदो इव देवाणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं चंदो इव ताराणं भरहो इव मणुयाणं रायगिहस्स नगरस्स अन्नेसिं च बहूणं गामागर - नगर - खेड - कब्बड - दोणमुहमडंब पट्टण - आसम - निगम संबाह-सण्णिवेसाणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणा- ईसर - सेणावच्च कारेमाणे पालेमाणे महयाहय - नट्ट - गीय- वाइय-तंती - तल-तालतुडिय - घण- मुइंग - पडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमा विहराहि त्ति कट्टु जय-जय - सद्दं पउंजति ।। ११९. तणं से मेहेराया जाए - महयाहिमवंत-महंत - मलय-मंदर -- महिंदसारे जाव रज्जं पसालेमाणे विहरइ ।। १२० लए णं तस्स मेहस्स रण्णो (तं मेहं रावं?) अम्मापियरो एवं प्रथम अध्ययन : सूत्र ११५-१२० ११५. कुमार मेष माता-पिता की इच्छा का अनुवर्तन करता हुआ मौन हो गया। ११६. राजा श्रेणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुला कर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही कुमार मेघ के लिए महान अर्थ वाला महान मूल्य वाला और महान अर्हता वाला विपुल राज्याभिषेक (राज्याभिषेक योग्य सामग्री) उपस्थित करो । ११७. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने कुमार मेघ के लिए महान अर्धवाला, महान मूल्य वाला और महान अर्हता वाला विपुल राज्याभिषेक उपस्थित ११८. बहुत से गणनायक यावत् सन्धिपाल के साथ संपरिवृत होकर उस श्रेणिक राजा ने कुमार मेघ को एक सौ आठ स्वर्णमय कलशों, रुप्यमय कलशों, मणिमय कलयों, सुवर्ण रूप्यमय कलशों सुवर्ण मणिमय कलशों रुम्य-मणिमय कलशों, सुवर्ण रूप्य मणिमय कलशों और भौमेय (मिट्टी के) कलशों से सब प्रकार के उदक, सब प्रकार की मिट्टी फूल, गन्धद्रव्य, माला, औषधि, श्वेत सर्षप, सम्पूर्ण ऋद्धि, सम्पूर्ण सुति, सम्पूर्ण बल यावत् दुन्दुभि के निर्घोष से नादित शब्द के द्वारा महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषिक्त कर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजली को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिका कर इस प्रकार कहा- हे नन्द ! (समृद्ध पुरुष ) तुम्हारी जय हो, जय हो । हे भद्र पुरुष ! तुम्हारी जय हो, जय हो । हे नन्द ! तुम्हारी जय हो, जय हो, भद्र हो । अजित को जीतो । जित की पालना करो। जीते हुए लोगों के मध्य में निवास करो । ( अजित शत्रु पक्ष को जीतो, जित मित्र पक्ष का पालन करो।) जैसे देवों में इन्द्र, असुरों में चमरेन्द्र, नागों में धरणेन्द्र, तारागण में चन्द्र और मनुष्यों में भरत की भांति राजगृह नगर के तथा अन्य बहुत सारे ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडम्ब, पत्तन, आश्रम, निगम, संबाध और सन्निवेशो का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व महत्तरत्व, आशा-ऐश्वर्य और सेनापतित्व करते हुए, उनका पालन करते हुए वह आहत नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादक के द्वारा बजाए गए वादित्र, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित, घन और मृदंग की महान ध्वनि से युक्त विपुल भोगाई भोगों को भोगते हुए विहार करो इस प्रकार उसने जय-जय शब्द का प्रयोग किया। -- ११९. वह कुमार मेघ राजा हो गया। महान हिमालय, महान, मलय, मेरु और महेन्द्र की भांति यावत् राज्य का प्रशासन करता हुआ विहार करने लगा। १२०. उस समय मेघ के ( उस राजा मेघ को ? ) माता-पिता इस प्रकार Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ प्रथम अध्ययन : सूत्र १२०-१२६ वयासी--भण जाया! किं दलयामो? किं पयच्छामो? किंवा ते हियइच्छिए सामत्थे? नायाधम्मकहाओ बोले--जात! बताओ हम क्या दें? क्या वितरण करें? तुम्हारे अंतर्मन की अभ्यर्थना क्या है? मेहस्स निक्खमणपाओग्ग-उवगरण-पदं १२१. तए णं से मेहे राया अम्मापियरो एवं वयासी--इच्छामि णं अम्मयाओ! कुत्तियावणाओ रयहरणं पडिग्गहं च आणिय, कासवयं च सद्दावियं॥ मेघ के निष्क्रमण प्रायोग्य उपकरण-पद १२१. राजा मेघ ने माता-पिता से इस प्रकार कहा--माता-पिता! मैं कुत्रिकापण से०८ रजोहरण और पात्र को लाना और नापित को बुलाना चाहता हूं। १२२. तए णं से सेणिए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! सिरिघराओ तिण्णि सयसहस्साई गहाय दोहिं सयसहस्सेहिं कुत्तियावणाओ रयहरणं पडिग्गहं च उवणेह, सयसहस्सेणं कासवयं सद्दावेह॥ १२२. राजा श्रेणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! श्रीगृह से तीन लाख मुद्रा लेकर जाओ। दो लाख मुद्रा के द्वारा कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र लाओ और एक लाख मुद्रा के द्वारा नापित को बुलाओ। १२३. तए णं ते कोडुबियपुरिसा सेणिएणं रण्णा एवं कुत्ता समाणा हट्टतुट्टा सिरिघराओ तिण्णि सयसहस्साइं गहाय कुत्तियावणाओ दोहिं सयसहस्सेहिं रयहरणं पडिग्गहं च उवणेति, सयसहस्सेणं कासवयं सहावेत॥ १२३. कौटुम्बिक पुरुष राजा श्रेणिक द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट हो गए। वे श्रीगृह से तीन लाख मुद्राएं ग्रहण कर दो लाख मुद्राओं के द्वारा कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र लाए और एक लाख मुद्रा के द्वारा नापित को बुलाया। कासवेणं मेहस्स अग्गकेसकप्पण-पदं १२४. तए णं से कासवए तेहिं कोडूंबियपरिसेहिं सद्दाविए समाणे हट्ठतुट्ठ-चित्तमाणदिए जाव हरिसवसविसप्पमाणहियए ण्हाए कयबलिकम्मे कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाइंवत्थाई पवरपरिहिए अप्पमहाघाभरणालंकियसरीरे जेणेव सेणिए राया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेणियं रायं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं क्यासी-संदिसह णं देवाणुप्पिया! जंमए करणिज्जं॥ नापित के द्वारा मेघ का अग्रकेश-कल्पन-पद १२४. वह नापित उन कौटुम्बिक पुरुषों के द्वारा बुलाए जाने पर हृष्ट तुष्ट और आनन्दित चित्त वाला हो गया यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। नापित ने स्नान कर, बलिकर्म किया, कौतुक (तिलक आदि) मंगल (दधि-अक्षत आदि) और प्रायश्चित्त किया। पवित्र स्थान में प्रवेश योग्य मांगलिक वस्त्रों को विधिवत पहना। अल्पभार और बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। जहाँ राजा श्रेणिक था, वहां आया। वहां आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजली को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर राजा श्रेणिक से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय! मुझे जो करणीय है, उसका संदेश दें। १२५. तए णं से सेणिए राया कासवयं एवं वयासी--गच्छाहि णं तुब्भे देवाणुप्पिया! सुरभिणा गंधोदएणं निक्के हत्यपाए पक्खालेहि, सेयाए चउप्फलाए पोत्तीए मुहं बंधित्ता मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे निक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पेहि ।। १२५. राजा श्रेणिक ने नापित को इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम जाओ, सुरभित गन्धोदक से भलीभाति हाथ-पैरों का प्रक्षालन करो। प्रक्षालन कर चार पट वाले श्वेत वस्त्र से०९ मुख को बांधकर कुमार मेघ के चार अंगुल छोड़कर निष्क्रमण-प्रायोग्य अग्र-केशों को काटो। १२६. तए णं से कासवए सेणिएणं रण्णा एवं वृत्ते समाणे हद्वत?- चित्तमाणदिए जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियए करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं सामि! त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता सुरभिणा गंधोदएणं (निक्के?) हत्थपाए पक्खालेइ, पक्खालेत्ता सुद्धवत्थेणं मुहं बंधइ, बंधित्ता परेणं जत्तेणं मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे निक्खमणपाउग्गे १२६. राजा श्रेणिक द्वारा ऐसा कहने पर नापित हृष्ट तुष्ट और आनन्दित चित्त वाला हो गया यावत् उसका हृदय हर्ष से विकस्वर हो गया। यावत् वह दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजली को सिर के सम्मुख घुमाकर बोला--स्वामी 'जैसी आपकी आज्ञा'--यह कहकर विनय पूर्वक वचन को स्वीकार किया। स्वीकार कर सुरभित गन्धोदक से हाथ-पैर का प्रक्षालन किया। प्रक्षालन कर Jain Education Intemational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ असे कप्मेति ।। १२७. तए णं तस्य मेहस्स कुमारस्स माया महरिहेणं हंसलक्खणेणं पडसाडएणं अग्गकेसे पडिच्छइ, पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदणं पक्खाले पक्खालेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चाओ दलयइ, दत्ता सेवाए पोत्तीए बंध, बंधित्ता रयणतमुग्गयस पक्लिव मंजूसाए पक्खिवइ, हार - वारिधार - सिंदुवार - छिन्नमुत्तावलिप्पगासाई अंसूइं विणिम्मुयमाणी - विणिम्मुयमाणी, रोयमाणी - रोयमाणी कंदमाणी कंदमाणी, वित्तयमाणी विलवमाणी एवं क्यासी एस णं अम्हं मेहस्स कुमारस्स अब्भुदासु व उत्सवेसु य पसवेसु प तिहीसु य छणेसु य जन्नेसु य पव्वणीसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सह ति कट्टु उस्सीसामूले ठवेइ ।। -- मेहस्स अलंकरण - पदं १२८. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो उत्तरावक्कमणं सीहासणं यावेंति, मेहं कुमारं दोच्चं पि तच्च पि सेयापीएहिं कलसेहिं ण्हावेति व्हावेत्ता पम्हलसूमालाए गंधकासाइयाए गायाई लूहेंति, तूहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपति, अणुलिपित्ता नासा - नीसासवाय वोज्नं वरणगरपट्टणुग्मयं कुसलणरपससितं अस्सतालापेलवं वायरियकणग-खचियंतकम् हंसलक्खणं पडसाडगं नियंसेति, हारं पिणद्धेति, अद्धहारं पिणद्धेति, एवं --एगावलिं मुत्तावलिं कणगावलिं रयणावलिं पालंबं पायपलंब कडगाई डुडिगाई केऊराई अंगयाई दसमुद्रियाणंतयं कहिसुत्तयं कुंडलाई चूडामणिं रयणुक्कडं मउडं--पिणद्धेति, पिणद्धेत्ता थिम - वेढ़िम- पूरिम- संघाइमेणं-- चउव्विहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिय अलकिय विभूतियं करेति । -- मेहस्स अभिनिक्स्वमणमहुस्सव- पर्द १२९. तए गं से सेगिए राया कोटुंबियपुरिसे सदावेद, सदावेत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगलंभसय-सण्णिविट्ठ लीलट्ठिय- सालभंजियागं ईहामिय-उसभ-तुरय-नर-मगरविहग-वालग - किन्नर - रुरु- सरभ- चमर- कुंजर - वणलय- पउमलयभत्तिचित्तं घंटावलि महुर-मणहरसरं सुभ-कंत दरिसणिज्जं निउणोविय- मिसिमिसेंत मणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं अन्भुग्गय- वइरवेड्या परिगयाभिरामं विज्जाहरजमल जंतजुत्त पिव अच्चीसहस्तमालणीयं स्वगसहस्तकलियं भिमाणं भिम्मिसमाणं चक्खुल्लोपणलेस्सं सुहफासं सस्सिरीपरूवं सिन्धं तुरियं चवलं वेइयं ३९ - - प्रथम अध्ययन : सूत्र १२६-१२९ शुद्ध वस्त्र से मुख को बांधा। बांधकर परम यत्न से कुमार मेघ के चार अंगुल छोड़कर निष्क्रमणप्रायोग्य अग्रकेशों को काटा। १२७. कुमार मेघ की माता ने महामूल्यवान हंस लक्षण पट शाटक में १० अग्र केशों को ग्रहण किया। ग्रहणकर सुरभित गन्धोदक प्रक्षालन किया। प्रक्षालन कर सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया । चर्चित कर श्वेत वस्त्र में बांधा, बांधकर रत्न करण्डक में रखा। उस करण्डक को मंजुषा में रखा हार, जलधारा, सिन्दुवार, निर्गुण्डी के फूल और टूटी हुई मोतियों की लड़ी के समान, बार-बार आंसू बहाती रोती, क्रन्दन और विलाप करती हुई इस प्रकार बोली-- "अभ्युदय, उत्सव, जन्म-प्रसंग, पुण्यतिथि, इन्द्रोत्सव, यज्ञ और पर्वणी (पूर्णिमा आदि) तिथियों मेणा कुमार मेघ का यह अन्तिम दर्शन होगा ऐसा कहकर उस मंजूषा को अपने सिरहाने के नीचे रखा । मेघ का अलंकरण-पद 1 १२८. कुमार मेघ के माता-पिता ने उत्तराभिमुख सिंहासन की रचना करवायी । करवाकर कुमार मेघ को दूसरी तीसरी बार भी श्वेत और पीत कलशों से स्नान करवाया। स्नान करवाकर रोयेंदार सुकुमार, सुरभित गंध वस्त्र से गात्र को पोंछा पोंछकर सरस गोशीर्ष चंदन का गात्र पर अनुलेप किया। अनुलेप कर नासिका की नि:श्वास वायु से उड़ने वाला, प्रवर नगरों और पत्तनों में निर्मित, कुशल पुरुषों द्वारा प्रशंसित, अश्व की लार से भी अधिक प्रतनु, कोमल, किनार पर छेक आचार्यों द्वारा निकाली गयी सोने की कढ़ाई से युक्त एक हंस-लक्षण पट-शाटक पहनाया। हार और अर्द्ध हार पहनाया। इसी प्रकार एकावली मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली, कण्ठा, पैरों तक लटकता हुआ कण्ठा, कड़े, बाजूबन्ध, केयूर, अंगद, दसों अंगुलियों में मुद्रिकाएं, करधनी, कुण्डल, चूड़ामणि और रत्नों से दीप्त मुकुट पहनाया। पहनाकर गुंथी (ग्रंथित) हुई, वेष्टित, पूरित और संहृत की हुई इन चार प्रकार की मालाओं से कुमार मेघ को कल्पवृक्ष की भांति अलंकृत, विभूषित कर दिया मेघ का अभिनिष्क्रमण महोत्सव - पद १२९. राजा श्रेणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय ! सैंकड़ों सम्भों से युक्त नृत्य करती पुतलियों से उत्कीर्ण, ईहामृग, बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगरमच्छ, पक्षी, सर्प, किन्नर, मृग, अष्टापद, चमरी गाय, हाथी, अशोक आदि की लता, पद्मलता- -इनकी भांतों से चित्रित, घण्टावली के मधुर और मनोहर स्वरवाली, शुभ, कमनीय, दर्शनीय, निपुण शिल्पियों द्वारा परिकर्मित, देदीप्यमान मणि और रत्नमय पण्टिका जाल से घिरी हुई, ऊपर उठी हुई वज्रमय वैदिका के योग से अभिराम मंत्र से संचालित विद्याधर युगल की प्रतिमा से युक्त, रत्नों की हजारों रश्मियों से . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : सूत्र १२९-१३६ पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं उवट्ठवेह ।। शोभित, उनमें बिम्बित होने वाले हजारों प्रतिबिम्बों से कमनीय, देदीप्यमान, अतिशय देदीप्यमान, देखते ही दृष्टि को बांध लेने वाली, स्पर्श-सुखद और सश्रीक हो तथा जो शीघ्रता, त्वरता, चपलता और उतावलेपन से वहन की जाए, ऐसी हजार पुरुषों के द्वारा वहन की जाने वाली शिविका उपस्थित करो। १३०. तए णं ते कोडुबियपुरिसा हट्ठतुट्ठा, अणेगखंभसय-सण्णिविट्ठ जाव सीयं उवट्ठवेंति॥ १३०. हृष्ट-तुष्ट हुए उन कौटुम्बिक पुरुषों ने सैंकड़ों खम्भों वाली यावत् शिविका को उपस्थित किया। १३१. तए णं से मेहे कुमारे सीयं दुरुहइ, दुरुहित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे।। १३१. वह कुमार मेघ शिविका पर आरूढ़ हुआ। आरूढ़ होकर प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख हो बैठ गया। १३२. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया ण्हाया कयबलिकम्मा १३२. कुमार मेघ की माता ने स्नान किया, बलिकर्म किया, यावत् जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा सीयं दुरुहइ, दुरुहित्ता मेहस्स अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। कुमारस्स दाहिणपासे भद्दासणंसि निसीयइ। शिविका पर आरूढ़ हुई। आरूढ़ होकर कुमार मेघ के दक्षिण पार्श्व में भद्रासन पर आसीन हुई। १३३. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अंबधाई रयहरणं च पडिग्गहं च गहाय सीयं दुरुहइ, दुरुहित्ता मेहस्स कुमारस्स वामपासे भद्दासणंसि निसीयइ।। १३३. कुमार मेघ की धाय माता रजोहरण और पात्र को लेकर शिविका पर आरूढ़ हुई। आरूढ़ होकर कुमार मेघ के वाम पार्श्व में भद्रासन पर आसीन हुई। १३४. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिट्ठओ एगा वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-चेट्ठिय-विलाससंलावुल्लाव-निउणजुत्तोक्यारकुसला आमेलगजमलजुयल- वट्टियअब्भुण्णय-पीण-रइय-संठिय पओहरा हिम-रयय-कुदेंदुपगासं सकोरेंटमल्लदामं धवलं आयवत्तं गहाय सलीलं ओहारेमाणीओहारेमाणी चिट्ठइ॥ १३४. कुमार मेघ के पीछे एक प्रवर तरुणी मूर्तिमान, शृंगार और सुन्दर वेश वाली, चलने, हंसने, बोलने और चेष्टा करने में निपुण तथा विलास, संलाप और उल्लाप१३ में निपुण और समुचित उपचार में कुशल, परस्पर सटे हुए सम श्रेणि स्थित, वर्तुल, उन्नत, पीन, रतिसुखद और संस्थित पयोधरों वाली, हिम, रजत, कुंद-पुष्प और चन्द्रमा जैसे कटसरैया के फूलों से बनी माला और दाम से युक्त धवल छत्र को लेकर लीला सहित धारण करती हुई, धारण करती हुई खड़ी हो गई। १३५. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स दुवे वरतरुणीओ सिंगाारागार- चारुवेसाओ संगय-गय-हसिय-चेट्ठिय-विलास-संलावुल्लावनिउणजुत्तोवयारकुसलाओ सीयं दुरुहति, दुरुहित्ता मेहस्स कुमारस्स उभओ पासं नाणामणि-कणग-रयण-महरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंडाओ चिल्लियाओ सहुमवरदीहवालाओ संखकुंद-दगरयअमयमहियफेणपुंज-सण्णिगासाओ चामराओ गहाय सलीलं ओहारेमाणीओ-ओहारेमाणीओ चिट्ठति।। १३५. कुमार मेघ के दोनों ओर दो प्रवर तरुणियां मूर्तिमान शृंगार और सुन्दर वेश वाली, चलने, हंसने, बोलने और चेष्टा करने में निपुण, विलास, संलाप और उल्लाप में निपुण, समुचित उपचार में कुशल शिविका पर आरूढ़ हुई। आरूढ़ होकर वे कुमार मेघ के दोनों ओर नाना मणि, कनक, रत्न और बहुमूल्य, तपनीय, रक्तस्वर्ण से निर्मित, उज्ज्वल और विचित्र दण्ड वाले दीप्तिमान, सूक्ष्म, प्रवर दीर्घ बालों वाले, शंख, कुन्दपुष्प, जलकण, अमृत और मथित फेनपुंज जैसे चामरों को लेकर लीला सहित वीजन करती हुई, वीजन करती हुई खड़ी हो गई। १३६. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स एगा वरतरुणी सिंगारा- गारचारुवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-चेट्ठिय-विलास- १३६. कुमार मेघ के सामने एक प्रवर तरुणी शृंगार और सुन्दर वेश वाली, चलने, हंसने, बोलने और चेष्टा करने में निपुण, विलास, संलाप Jain Education Intemational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४१ संलाकुल्लाव- निउणतो- क्यारकुसला सीयं दुरूह, दुरुहित्ता मेहस्स कुमारस्स पुरओ पुरत्यिमे गं चंदप्यभवहर-वेलियविमलदं तालियंटं गहाय चिट्ठइ ॥ १३७. तए णं तरस मेहस्स कुमारस्स एमा वरतरुणी सिंगारागारचारसा संगयगय हसिय- भणिय चेद्रिय-विलास-संलावुल्लावनिउणजुत्तोववार कुसला सीयं दुष्टइ, दुरहित्ता मेहस्स कुमारस्त पुव्वक्त्रिणे णं सेयं रययामयं विमलसलिलपुण्णं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिंगारं गहाय चिट्ठइ ।। १३८. तए णं तस्स मेहरस कुमारस्स पिया कोडुबियपुरिसे सहावे, सद्दावेत्ता एवं वपासी खिप्यामेव भो देवागुप्पिया! सरिसपाणं सरित्तयाणं सरिव्वयाणं एगाभरण गहिय-निज्जोयाणं कोहुबियवत्तरुणाणं सहस्सं सदावेह || १३९. तए गं ते कोडुबियपुरिसा सरिसवाणं सरितवाणं सरिव्ययाणं एगाभरण गहिय-निज्जोपाणं कोडुबियवरतरुणाणं सहस्सं सदावेंति ।। १४०. तए णं ते कोडुबियवरतरुणपुरिसा सेणियस्स रण्णो कोडुंबियपुरिसेहिं सद्दाविया समाणा हट्ठा व्हाया जाव (सव्वालंकारविभूसिया ?) एगाभरण गहिय- णिज्जोया जेणामेव सेणिए राया तेनामेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सेणिवं राय एवं क्यासी-संदिसह णं देवाणुप्पिया जं णं अम्हेहिं करणिज्जं ।। १४१. तए णं से सेणिए राया तं कोडुंबियवरतरुणसहस्सं एवं ववासी गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्स - वाहिणीयं सीयं परिवहेह ।। १४२. तए णं तं कोटुंबियवरतरुणसहस्तं सेणिएण रण्णा एवं गुत्तं संतं हवं मेहस्स कुमारस्स पुरिससहरसवाहिणीयं सीयं परिवहइ ।। १४३. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूटस्स समाणस्स इमे अमंगलया तप्पढमयाए पुरजो अहाणुपुब्वीए संपत्थिया, तं जहा सोवत्थिय-सिरिवच्छनदियावत्त- वद्धमाणग-भद्दासण- कलस-मच्छ-दप्पणया जाव बहवे अत्यत्थिया कामत्थिया भोगत्थिया लाभत्थिया किव्विसिया कारोडिया कारवाहिया संखिया चक्किया नंगलिया मुहमंगलिया वद्धमाणा प्रथम अध्ययन : सूत्र १३६-१४३ और उल्लाप में निपुण और समुचित उपचार में कुशल शिविका पर आरूढ़ हुई। आरूढ़ होकर वह कुमार मेघ के आगे पूर्व दिशा की ओर मुंह किये, चन्द्रप्रभ मणि, वज्र और वैडूर्य रत्नों के विमल दण्डवाले तालवृन्त (वीजन) को लेकर खड़ी हो गई। १३७. कुमार मेघ के सामने एक प्रवर तरुणी शृंगार और सुन्दर वेश वाली, चलने, हंसने बोलने में और चेष्टा करने में निपुण, विलास, संलाप और उल्लाप में निपुण और समुचित उपचार में कुशल शिविका पर आरूढ़ हुई। आरूढ़ होकर वह कुमार मेघ के पूर्व-दक्षिण भाग में, श्वेत रजतमय, विमल सलिल से परिपूर्ण मत्त हाथी के विशाल मुख की आकृति के समान झारी लेकर खड़ी हो गई । १३८. कुमार मेघ के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा -- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही सदृश, समान त्वचा वाले समान वय वाले, एक जैसे आभरण और वेष, कमरबन्ध धारण किए हुए, एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाओ। १३९. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने सदृश समान त्वचा वाले, समान वय वाले, एक जैसे आभरण, वेश और कमरबन्ध धारण किए हुए एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । १४०. वे प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुष राजा श्रेणिक के निर्देशानुसार बुलाए जाने पर हर्षित हो गए। उन्होंने स्नान कर यावत् (सब प्रकार के अंलकारों से विभूषित हो ?) एक जैसे आभरण और वेष, कमर-बन्ध धारण कर, जहां राजा श्रेणिक था वहां आए। वहां आकर राजा श्रेणिक से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय! हमें जो करणीय है उसका संदेश दें। १४१. राजा श्रेणिक ने उन हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों से प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! तुम जाओ और हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली कुमार मेघ की शिविका का वहन करो । १४२. राजा श्रेणिक द्वारा ऐसा कहने पर हर्षित हुए उन हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों ने कुमार मेघ की हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका को वहन किया। १४३. हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका पर आरूढ़ हुए कुमार मेघ के आगे-आगे सबसे पहले ये आठ-आठ मंगल क्रमश: प्रस्थान कर रहे थे जैसे सौवस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त वर्द्धमानक भद्रासन, कलश, मत्स्य और दर्पण (फिर लम्बे जुलूस के बाद) यावत बहुत धनार्थी, कामार्थी, भोगार्थी, लाभार्थी, किल्विष्क (विदूषक), कापालिक कर पीड़ित अथवा सेवा में व्यापृत, शंख-वादक, चक्रधारी, किसान, -- Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र १४३-१४५ ४२ पूसमाणया खंडियगणा ताहिं इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं मणाभिरामाहिं हिययगमणिज्जाहिं वग्गूहिं जयविजयमंगलसएहिं अणवरयं अभिनंदंता य अभिथुणंता य एवं वयासी-- जय-जय नंदा! जय-जय भद्दा! जय-जय नंदा! भदं ते। अजियं जिणाहि इंदियाइं, जियं च पालेहि समणधम्मं, जियविग्धो वि य वसाहि तं देव! सिद्धिमज्झे, निहणाहि रागदोसमल्ले तवेण धिइ-धणिय-बद्धकच्छो, मदाहि य अट्ठकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तो, पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलं नाणं, गच्छ य मोक्खं परमं पयं सासयं च अयलं, हंता परीसहचमूणं, अभीओ परीसहोवसग्गाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउ त्ति कटु पुणो-पुणो मंगल-जयसदं पउंति ॥ नायाधम्मकहाओ मंगल-पाठक, विशिष्ट प्रकार का नृत्य करने वाले, घोषणा करने वाले और छात्रगण इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, मनोभिराम और हृदय का स्पर्श करने वाली वाणी के द्वारा और जय-विजय के मंगल शब्दों से अनवरत अभिनन्दन और अभिस्तवन करते हुए इस प्रकार बोले-- हे नन्द पुरुष! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे कल्याण कारक! तुम्हारी जय हो, जय हो। हे नन्द पुरुष! तुम्हारी जय-जय हो, कल्याण हो। इन्द्रियां अजित हैं, उन्हें जीतो। श्रमणधर्म जित हैं उसकी पालना करो। हे देव! विघ्नों को जीत कर सिद्धि मध्य में निवास करो। धृति का सुदृढ़ कच्छा बांधकर तप के द्वारा राग द्वेष रूपी मल्लों का हनन करो। अप्रमत्त हो उत्तम शुक्ल ध्यान के द्वारा अष्ट कर्म शत्रुओं का मर्दन करो। तमरहित अनुत्तर केवलज्ञान को प्राप्त करो। शाश्वत, अचल, परमपद मोक्ष का वरण करो। परीषह की सेना को हत-प्रहत करो। परीषह और उपसर्गों से अभय बनो। तुम्हारी धर्म की आराधना निर्विन हो। इस प्रकार उन्होंने पुन: पुन: मंगल-जय ध्वनि का प्रयोग किया। १४४. तए णं से मेहे कुमारे रायगिहस्स नगरस्स मज्झमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ताजेणेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुहइ।। १४४, कुमार मेघ ने राजगृह नगर के बीचों बीच से होकर निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर जहां गुणशिलक चैत्य था, वहां आया। वहां आकर हजारों पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका से नीचे उतरा। सिस्सभिक्खादाण-पदं शिष्य-भिक्षा-दान-पद १४५. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ १४५. कुमार मेघ के माता-पिता कुमार मेघ को आगे कर जहां श्रमण कटु जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छंति, भगवान महावीर थे, वहां आए। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं को दांयी ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर करेंति, करेत्ता वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--एस वन्दना-नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार णं देवाणुप्पिया! मेहे कुमारे अम्हं एगे पुत्ते इटे कंते पिए मणुण्णे कहा--देवानुप्रिय! यह कुमार मेघ हमारा एकमात्र पुत्र, इष्ट, कान्त, मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय सम्मत, बहुमत, अनुमत, रयणे रयणभूए जीवियऊसासए हिययणंदिजणए उंबरपुष्फ पिव आभरण करण्डक के समान, रत्न, रत्नभूत, जीवन, उच्छ्वास (प्राण) दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण दरिसणयाए? और हृदय को आनन्दित करने वाला है। यह उदुम्बर पुष्प के समान से जहानामए उप्पले ति वा पउमे ति वा कुमुदे ति वा पंके श्रवण-दुर्लभ है। फिर दर्शन का तो कहना ही क्या? जाए जले संवड्ढिए नोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं, जैसे उत्पल, पद्म अथवा कमल पंक में उत्पन्न जल में संवर्धित एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेसु संवड्ढिए नोवलिप्पइ होता है, किन्तु पंक-रज और जलरज से उपलिप्त नहीं होता, वैसे ही कामरएणं नोवलिप्पइ भोगरएणं। एस णं देवाणुप्पिया! कुमार मेघ कामों में उत्पन्न हुआ, भोगों में संवर्धित हुआ, किन्तु वह संसारभउव्विग्गे भीए जम्मण-जर-मरणाणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं काम-रज और भोग-रज से उपलिप्त नहीं है। अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। अम्हे णं देवानुप्रिय ! यह संसार भय से उद्विग्न है। जन्म, जरा और मृत्यु देवाणुप्पियाणं सिस्सभिक्खं दलयामो। पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! से भीत है। यह देवानुप्रिय के पास मुण्ड होकर, अगार से अनगारता सिस्सभिक्खं । में प्रव्रजित होना चाहता है। इसलिए हम इसे देवानुप्रिय को शिष्य की भिक्षा के रूप में देना चाहते हैं। देवानुप्रिय! शिष्या की भिक्षा को स्वीकार करो। Jain Education Intemational Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ नायाधम्मकहाओ १४६. तए णं समणे भगवं महावीरे मेहस्स कुमारस्स अम्मापिऊहिं एवं वृत्ते समाणे एयमढे सम्म पडिसुणेइ।। प्रथम अध्ययन : सूत्र १४६-१५० १४६. कुमार मेघ के माता-पिता द्वारा ऐसा कहने पर श्रमण भगवान महावीर ने उनके इस अर्थ को सम्यक् स्वीकार किया। १४७. तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ।। १४७. कुमार मेघ श्रमण भगवान महावीर के पास से उठकर उत्तर पूर्व दिशा (ईशान कोण) में गया, वहां उसने स्वयं ही आभरण, माल्य और अलंकार उतारे। १४८. तएणं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणमल्लालंकारंपडिच्छइ, पडिच्छित्ता हार-वारिधार-सिंदुवारछिन्नमुत्तावलिप्पगासाइं अंसूणि विणिम्मुयमाणी-विणिम्मुयमाणी रोयमाणी-रोयमाणी कंदमाणी-कंदमाणी विलवमाणी-विलवमाणी एवं वयासी--जइयव्वं जाया! घडियव्वय जाया! परक्कमियव्वं जाया! अस्सिं च णं अढे नो पमाएयव्वं । अम्हंपि णं एसेव मग्गे भवउ त्ति कटु मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसंपाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया।। १४८. कुमार मेघ की माता ने हंस लक्षण पट शाटक (विशाल वस्त्र) में आभरण माल्य और अलंकार स्वीकार किए। स्वीकार कर हार, जलधार, सिन्दुवार के फूल और टूटी हुई मोतियों की लड़ी के समान बार-बार आंसू बहाती, रोती, कलपती और विलपती हुई इस प्रकार बोली-- जात ! संयम में प्रयत्न करना। जात! संयम में चेष्टा करना। जात! संयम में पराक्रम करना ।११५ इस अर्थ में प्रमाद मत करना! हमारा भी यह मार्ग हो--ऐसा कहकर कुमार मेघ के माता-पिता ने श्रमण भगवान महावीर को वंदना-नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर जिस दिशा से आये थे उसी दिशा में लौट गये। मेहस्स पव्वज्जागहण-पदं १४९. तए णं से मेहे कुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--आलित्ते णं भंते! लोए, पलित्ते णं भते! लोए, आलित्त पलित्ते णं भंते! लोए जराए मरणेण य। से जहानामए केइ गाहावई अगारंसि झियायमाणंसि जे तत्य भडे भवइ अप्पभारे मोल्लगरुए तं गहाय आयाए एगतं अवक्कमइ--एस मे नित्थारिए समाणे पच्छा पुरा य लोए हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ। एवामेव मम वि एगे आयाभडे इढे कंते पिए मणुण्णे मणामे। एस मे नित्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सइ। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिएहिं सयमेव पव्वावियं सयमेव मुंडावियं सयमेव सेहावियं सयमेव सिक्खावियं सयमेव आयार-गोयर-विणय-वेणइयचरण-करण-जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं ।। मेघ द्वारा प्रव्रज्या-ग्रहण-पद १४९. कुमार मेघ ने स्वयं ही पंच मुष्टि लोच किया। लोच कर जहां श्रमण भगवान महावीर थे वहां आया। आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वन्दन नमस्कार किया। वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार बोला--भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त हो (जल) रहा है। भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से प्रदीप्त हो रहा है। भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त प्रदीप्त हो रहा है। जैसे कोई गृहपति के घर में आग लग जाने पर वह वहां जो अल्पभार वाला और बहुमूल्य आभरण होता है उसे लेकर स्वयं एकांत स्थान में चला जाता है। (और सोचता है) कि अग्नि से निकला हुआ यह आभरण पहले अथवा पीछे मेरे लिए हित, सुख, क्षेम, नि:श्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा। वैसे ही मेरा शरीर भी उपकरण है। यह मुझे इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर है। मेरे द्वारा इसका निस्तार होने पर यह संसार का उच्छेद करने वाला होगा। अत: देवानुप्रिय! मैं आपके द्वारा ही प्रव्रजित होना चाहता हूं। मैं आपके द्वारा ही मुण्डित होना चाहता हूं। मैं आपके द्वारा ही शैक्ष बनना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही आचार, गोचर, विनय, वैनयिक चरण, करण और यात्रा मात्रा मूलक धर्म का आख्यान चाहता हूं।१६ १५०. तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेइ सयमेव मुंडावेइ सयमेव सेहावेइ सयमेव सिक्खावेइ सयमेव आयार-गोयर-विणय-वेणइय-चरण-करण-जायामायावत्तियं १५०. श्रमण भगवान महावीर ने कुमार मेघ को स्वयं ही प्रव्रजित किया, स्वयं ही मुण्डित किया, स्वयं ही शैक्ष बनाया, स्वयं ही अभ्यास कराया और स्वयं ही आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, चरण, करण, यात्रा Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन सूत्र १५०-१५४ धम्ममाइक्लइ --एवं देवाणुप्पिया! गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं, एवं निसीयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं, एवं भुजियव्वं, एवं भासियध्वं एवं उडाए उद्वाय पाणेहिं भूएहिं जीवहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमियम्यं, अस्सिं च णं अट्ठे नो पमाएयव्वं ।। १५१. तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उनएस सम्मं पहियज्जइतमाणाए तह गच्छ तह चिट्ठइ, तह निसीयइ, तह तुयट्टइ, तह भुंजइ, तह भासइ, तह उडाए उद्वाय पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमद ।। मेहस्स मणो संकिलेस -पदं १५२. जद्दिवसं च णं मेहे कुमारे मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइए, तस्स णं दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि समणाणं निग्गंथाणं अहाराइणियाए सेज्जा - संथारएसु विभज्जमाणेसु मेहकुमारस्स दारमूले सेज्जा संधारए जाए यावि होत्या ।। १५३. तए णं समणा निगंधा पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए पुच्छणाए परिवट्टणाए धम्मागुजोगचिंताए य उच्चारस्त वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगइया मेहं कुमारं हत्थेहिं संघट्टेति अप्येगइया पाएहिं संघट्टेति अप्येगइया सीसे संघट्टेति अप्पेगइया पोट्टे संघट्टेति अप्पेगइया कार्यसि संघट्टेति अप्पेमइया ओलति अध्येमइया पोलडेति अध्येया पायरयरेणु - गुंडियं करेंति । महालियं च रयणिं मेहे कुमारे नो संचाएइ लणमवि अच्छि निमीलित्तए ।। १५४. तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूये अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्यज्जित्था एवं खलु अहं सेणियत्स रण्णो पुत्ते धारिणीए देवीए अत्तए मेहे इसे कंते पिए मगुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रणे रणभूए जीवि उस्सासए हियय मंदि-जणणे उंबर-पुष्कं व दुल्हे सवणयाए । तं जया णं अहं अगारमज्झावसामि तया गं ममं समणा निग्गंथा आढायंति परियाणंति सक्कारेंति सम्मार्णेति, अट्ठाई हेऊई पसिणा कारणाई वागरणाई आइक्स्वति, इट्ठाहिं कंताहिं वग्गूहिं आलवेंति संलवेंति । जप्पभिदं च णं अहं मुडे भविता अगाराओ अनगारियं पव्वइए, तप्यभिदं च णं ममं समणा निगंथा नो आढायंति नो परियाणंति नो सक्कारेंति नो सम्मार्णेति नो अट्ठाई हेऊई परिणाइं कारणाई बागरणाई आइक्लति, नो हिं कंताहिं वग्गूहिं आलवेंति संलवेंति । अदुत्तरं च णं ममं ४४ नायाधम्मकहाओ मात्रामूलक धर्म का आख्यान किया। देवानुप्रिय! इस प्रकार (संयम पूर्वक) चलो, इस प्रकार खड़े रहो, इस प्रकार बैठो, इस प्रकार लेटो, इस प्रकार खाओ, इस प्रकार बोलो" इस प्रकार जागरुक भाव से जागृत रह कर, प्राण, भूत, जीव और सत्वों के प्रति संयमपूर्ण प्रवृत्ति करो और इस अर्थ में प्रमाद मत करो। १५१. कुमार मेघ ने श्रमण भगवान महावीर के पास इस विशिष्ट धार्मिक उपदेश को सम्यक् स्वीकार किया। वह भगवान की आज्ञा से संयम पूर्वक चलता, संयम पूर्वक खड़ा रहता, संयम पूर्वक बैठता, संयम पूर्वक लेटता, संयम पूर्वक खाता, संयम पूर्वक बोलता और जागरूक भाव से जागृत रहकर प्राण, भूत, जीव और सत्वों के प्रति १९ संयमपूर्ण प्रवृत्ति करने लगा । मेघ का मनः संक्लेश-पद १५२. जिस दिन कुमार मेघ मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुआ, उस दिन सन्ध्या के उपरान्त दीक्षा पर्याय के क्रम से श्रमण निर्ग्रन्थों के शयनस्थल और संस्तारकों का विभाग किया गया । कुमार मेघ को शयनस्थल और संस्तारक दरवाजे के बीच में मिला। १५३. पूर्वरात्रापरात्र ( मध्यरात्रि) में वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, धर्मानुयोग का चिन्तन और उच्चार या प्रस्रवण के हेतु आते-जाते श्रमण-निर्ग्रन्थों में से कुछेक कुमार मेघ के हाथ को छू जाते, कुछेक पांवों को छू जाते, कुछेक सिर को छू जाते, कुछेक पेट को छू जाते, कुछेक शरीर को छू जाते, कुछेक उसे लांघकर चले जाते कुछेक उसे बार-बार लांघकर चले जाते और कुछेक अपने पैरों की रजों से उसे धूलि लिप्त कर देते, इस कारण इतनी लम्बी रात में भी कुमार मेघ क्षण भर आंख नहीं मूंद सका । १५४. कुमार मेघ के मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ मैं राजा श्रेणिक का पुत्र और धारिणी देवी का आत्मज मेघ, उन्हें इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत बहुमत, अनुमत और आभरण करण्डक के समान, रत्न, रत्नभूत, जीवन, उच्छ्वास, हृदय को आनन्दित करने वाला और उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ हूं। जब मैं गृहवास में था, तब ये श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे। मेरी ओर ध्यान देते थे। मेरा सत्कार करते थे । सम्मान करते थे । अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण २० का आख्यान करते थे । इष्ट और कांत वाणी से आलाप-संलाप करते थे। जिस समय से मैं मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुआ हूं, उस समय से ये श्रमण-निर्ग्रन्थ न मेरा आदर करते हैं, न मेरी ओर ध्यान देते हैं न Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ समणा निग्गंथा राओ फुव्वरत्तावरत्तकालसमसि वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगइया हत्थेहिं संघटुंति अप्पेगइया पाएहि संघटेति अप्पेगइया सीसे संघटुंति, अप्पेगइया पोट्टे संघट्टेति अप्पेगइया कायंसि संघटुंति अप्पेगइया ओलडेंति अप्पेगइया पोलडेंति अप्पेगइया पाय-रय-रेणु-गुंडियं करेंति । एमहालियं च णं रत्तिं अहं नो संचाएमि अच्छि निमिल्लावेत्तए (निमीलित्तए?)। तं सेयं खलु मज्झ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमज्झावसित्तए त्ति कटु एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता अट्ट-दुहट्ट-वसट्ट-माणसगए निरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेइ, खवेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए सुविमलाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ जाव पज्जुवासइ।। प्रथम अध्ययन : सूत्र १५४-१५५ मुझे सत्कृत करते हैं, न सम्मानित करते हैं, न अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण का आख्यान करते है और न इष्ट एवं कांत वाणी से आलाप-संलाप करते है। ये श्रमण-निर्ग्रन्थ रात्रि में पूर्वरात्रापरात्र में वाचना, प्रच्छना परिवर्तना, धर्मानुयोग का चिन्तन और उच्चार या प्रस्रवण के हेतु आते-जाते हुए कुछेक मेरे हाथों को छू जाते। कुछेक पावों को छू, जाते, कुछेक सिर को छू जाते, कुछेक पेट को छू जाते, कुछेक शरीर को छू जाते, कुछेक मुझे लांघकर जाते, कुछेक बार-बार लांघ कर चले जाते और कुछेक अपने पैरों की रजों से मुझे धूलि-लिप्त कर जाते, इस कारण से इतनी लम्बी रात में भी मैं आंख नहीं मूंद सका। ____ अत: मेरे लिए उचित है, मैं उषाकाल में, पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर श्रमण भगवान महावीर से पूछ, पुन: घर में चला जाऊं-- वह ऐसी संप्रेक्षा करने लगा। संप्रेक्षा कर आर्त, दुःख से आर्त और कामना से आर्त मानस वाले मेघ ने नरक के समान वह रात बिताई।१२१ उषाकाल में रात्रि के निर्मल हो जाने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर कुमार मेघ जहां श्रमण भगवान महावीर थे वहां आया। वहां आकर उसने श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदन नमस्कार किया, यावत् पर्युपासना करने लगा। मेहस्स संबोध-पदं १५५. तएणं मेहाइ समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं वयासी--से नूणं तुम मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्माणुजोगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणेहि य निग्गच्छमाणेहि य अप्पेगइएहिं हत्थेहिं संघट्टिए अप्पेगइएहिं पाएहिं संघट्टिए अप्पेगइएहिं सीसे संघट्टिए अप्पेगइएहिं पोट्टे संघट्टिए अप्पेगइएहिं कायंसि संघट्टिए अप्पेगइएहिं ओलंडिए अप्पगइएहिं पोलंडिए अप्पेगइएहिं पाय-रय-रेणु-गुंडिए कए । एमहालियं च णं राइं तुमं नो संचाएसि मुहुत्तमवि अच्छिं निमिल्लावेत्तए । तए णं तुज्झ मेहा! इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--जया णं अहं अगारमज्झावसामि तया णं ममंसमणा निग्गंथा आढायंति परियाणंति सक्कारेंति सम्माणति अट्ठाइं हेऊइं पसिणाइं कारणाई वागरणाई आइक्खंति, इट्ठाहिं कंताहि वग्गूहिं आलवेंति संलवेति । जप्पभिई च णं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि तप्पभिइंच णं ममं समणा निग्गंथा नो आढायंति जाव संलवेति । अदुत्तरंचणं ममं समणा निग्गंथा राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि अप्पेगइया जाव पाय-रय-रेणु-गुडियं करेंति । तं सेयं खलु मम मेघ को संबोध-पद १५५. मेघ! श्रमण भगवान महावीर ने कुमार मेघ को इस प्रकार कहा--मेघ! रात्रि में पूर्वरात्रापरात्र में वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, धर्मानुयोग का चिन्तन, उच्चार या प्रस्रवण के हेतु आते-जाते हुए श्रमण-निग्रन्थों में से कुछेक तेरे हाथों को छू गये, कुछेक पेट को छू गये, कुछेक शरीर को छू गये, कुछेक तुझे लांघ कर चले गये और कुछेक बार-बार लांध कर चले गये और कुछेक ने अपने पैरों की रजों से तुझे धूलि-लिप्त कर दिया। इस कारण से इतनी लम्बी रात में तूं मुहूर्त भर भी आंख नहीं मूंद सका। मेघ! तब तेरे मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--'जब मैं गृहवास में था, तब श्रमण-निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे। मेरी ओर ध्यान देते थे। मेरा सत्कार करते थे। सम्मान करते थे। अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण का आख्यान करते थे। इष्ट और कांत वाणी से आलाप-संलाप करते थे। जिस समय से मैं मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुआ हूं, उस समय से ये श्रमण-निर्ग्रन्थ न मेरा आदर करते हैं यावत् न संलाप करते हैं। ये श्रमण-निर्ग्रन्थ रात्रि में पूर्वरात्रापरात्र में कुछेक मेरे हाथों Jain Education Intemational Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र १५५-१५८ ४६ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमझे आवसित्तए त्ति कटु एवं संपेहेसि, संपेहेत्ता अट्ट-दुहट्टवसट्ट-माणसगए निरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेसि, खवेत्ता जेणामेव अहं तेणामेव हव्वमागए। से नूणं मेहा! एस अत्थे समत्थे? हंता अत्थे समत्थे। नायाधम्मकहाओ को छू जाते हैं, यावत् कुछेक अपने पैरों की रजों से मुझे धूलि-लिप्त कर जाते हैं। अत: मेरे लिए उचित है, मैं उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर श्रमण भगवान महावीर को पूछ पुन: घर में चला जाऊं--तूं ऐसी संप्रेक्षा करने लगा। ऐसी संप्रेक्षा कर आर्त, दु:ख से आर्त और कामना से आर्त मानस वाले तूने नरक के समान उस रात को बिताया। रात बिताकर जहां मैं हूं वहां शीघ्र आ गया। मेघ यह बात सही है?' "हां भन्ते ! सही है।" भगवया सुमेरुप्पभ-भवनिरूवण-पदं १५६. एवं खलु मेहा! तुम इओतच्चे अईए भवग्गहणे क्यड्ढगिरिपायमूले वणयरेहिं निव्वत्तियनामधेज्जे सेए संख-उज्जल-विमल-निम्मलदहिघण-गोखीर-फेण-रयणियरप्पयासे सत्तुस्सेहे नवायए दसपरिणाहे सत्तंगपइट्ठिए सोम-सम्मिए सुरूवे पुरओ उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिट्ठओ वराहे अइयाकुच्छी अच्छिद्दकुच्छी अलंबकुच्छी पलंबलंबोदराहरकरे धणुपट्टागिति-विसिट्टपुढे अल्लीणपमाणजुत्त-वट्टिय-पीवर-गत्तावरे अल्लीण-पमाणजुत्तपुच्छे पडिपुण्ण-सुचारुकुम्मचलणे पंडुर-सुविसुद्ध-निद्ध-निरुवहयविसतिनहे छदंते सुमेरुप्पभे नाम हत्थिराया होत्था ।। भगवान द्वारा सुमेरुप्रभ-भव का निरूपण-पद १५६. 'मेघ! तू अतीत में इससे पूर्व तीसरे जन्म में, वैताढ्य पर्वत की तलहटी में सुमेरुप्रभ नाम का हस्तिराज था। तेरा यह नाम वनवासी लोगों ने रखा था। तूं शंख की भांति उज्ज्वल, विमल और निर्मल प्रभा वाला, दही के चक्के, गोक्षीर, फेन और चन्द्रमा जैसा श्वेत, सात हाथ ऊंचा, नौ हाथ लम्बा, दस हाथ चौड़ा, सात अंगों से प्रतिष्ठित सौम्य,१२२ प्रमाणोपेत अंगों वाला, सुरूप, आगे से ऊंचा, उन्नत सिर वाला बैठने में सुखकर, सूअर के समान झुके हुए पृष्ठ भाग वाला और बकरी की भांति उन्नत पेट वाला था। पेट में सलवटें नहीं थी। वह लटक नहीं रहा था। गणेश की भांति अधर और शुण्डादण्ड लम्बे थे। पीठ विशिष्ट धनुषपृष्ठ के आकार जैसी थी। शरीर का अपर भाग सुव्यवस्थित, प्रमाण युक्त, वर्तुल और पुष्ट था। पूंछ सुव्यवस्थित और प्रमाणयुक्त थी। चरण प्रतिपूर्ण, सुन्दर और कछुए की भांति उभरे हुए थे। बीसों नख श्वेत, साफ, चिकने और निरुपहत थे और दांत छह थे। १५७. तत्थ णं तुम मेहा! बहूहिं हत्थीहि य हस्थिणियाहि य लोट्टएहि य लोट्टियाहि य कलभएहि य कलभियाहि य सद्धिं संपरिवुडे हत्थिसहस्सनायए देसए पागड्ढी पट्ठवए जूहवई वंदपरिवड्ढए, अण्णेसिं च बहूणं एकल्लाणं हत्थिकलभाण आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा-ईसर-सेणावच्चंकारेमाणे पालेमाणे विहरसि॥ १५७. मेघ! वहां तूं अनेक हाथियों, हथिनियों, छोटे-शिशुओं और वयः प्राप्त कलभों के साथ, उनसे संपरिवृत रहता था। तूं हजार हाथियों का नायक, निदेशक, अग्रगामी, कार्य नियोजका२३, यूथपति और अपने यूथ का संवर्द्धन करने वाला था। तूं अन्य भी बहुत सारे एकाकी हस्तिकलभों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व, आज्ञा, ऐश्वर्य और सेनापतित्व करता हुआ, उनका पालन करता हुआ विहार कर रहा था। १५८. तएणं तुम मेहा! निच्चप्पमत्ते सई पललिए कंदप्परई मोहणसीले अवितण्हे कामभोगतिसिए बहूहिं हत्थीहि य हत्थिणियाहि य लोट्टएहि य लोट्टियाहि य कलभएहि य कलभियाहि य सद्धिं संपरिवुडे वेयड्दगिरिपायमूले गिरीसु य दरीसु य कुहरेसु य कंदरासु य उज्झरेसु य निझरेसु य वियरएसु य गड्डासु य पल्ललेसु य चिल्ललेसु य कडगेसु य कडयपल्ललेसु य तडीसु य वियडीसु य टंकेसु य कूडेसु सिहरेसु य पन्भारेसु य मंचेसु य मालेसु य काणणेसु १५८. मेघ! उस समय तूं नित्य प्रमत्त, सदा क्रीड़ासक्त, कामप्रिय, कामरुचि, अतृप्त और काम भोगों का प्यासा होकर, बहुत से हाथियों, हथिनियों, छोटे शिशुओं और वय प्राप्त कलभों के साथ, उनसे संपरिवृत हो, वैताढयपर्वत की तलहटियों, दरियों, खोह, कन्दराओं, जल-प्रपातों, झरनों, नालों, गड्ढों, तलाइयों छोटे-छोटे जलस्रोतों, मेखलाओं, मेखलाओं में स्थित तटीय प्रदेश, तराइयों, तराई के जंगलों, पर्वत की घाटियों वृत्त-पर्वतों, शिखरों, ढलानों, पुलियों, मालों, काननों, वनों, वनषण्डों, Jain Education Intemational Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४७ यवणेसुय वणसडेसुय वणराईसु य नदीसुय नदीकच्छेसु य जूहेसु य संगमेसु य वावीसु य पोक्खरणीसु य दीहियासु य गुंजालियासु यसरेसु य सरपंतियासु य सरसरपंतियासु य वणयरेहि दिन्नवियारे बहूहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं संपरिखुडे बहुविहतरुपल्लवपउरपाणियतणे निभए निरुब्विग्गे सुहंसुहेणं विहरसि ।। प्रथम अध्ययन : सूत्र १५८-१६० वनराजियों२४ नदियों, नदी तटों, जूहों, नदी के मुहानों, वापियों, पुष्करिणियों, दीर्घिकाओं, गुजालिकाओं, सरोवरों, सरोवर-पंक्तियों, सरोवर से संलग्न सरोवर पंक्तियों में और वनचरों में मुक्त विचरण करता हुआ, बहुत से हाथियों यावत् कलभों के साथ, उनसे संपरिवृत हो, नाना प्रकार के तरुपल्लव तथा प्रचुर जल और तृणों को प्राप्त करता हुआ, निर्भय और निरुद्विग्न हो, सुखपूर्वक विहार कर रहा था। १५९. तए णं तुमं मेहा! अण्णया कयाइ पाउस-वरिसारत्त-सरद- हेमंत-वसंतेसु कमेण पंचसु उऊसु समइक्कतेसु गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले मासे पायवघंससमुट्ठिएणं सुक्कतण-पत्त-कयवर-मास्यसंजोगदीविएणं महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणदव-जाल-संपलित्तेसु वणंतेसु धूमाउलासु दिसासु महावाय-वेगेणं संघट्टिएसु छिण्णजालेसु आवयमाणेसु पोल्लरुक्खेसु अंतो-अंतो झियायमाणेसु मय-कुहिय-विणट्ठ किमिय-कद्दम-नईवियरगज्झीणपाणीयंतेस वर्णतेसु भिंगारकदीणकंदिय-रवेसु खरफरुस-अणिट्ठ-रिट्ठवाहित्त-विहुमग्गेसु दुमेसु तण्हावस-मुक्कपक्ख-पायडियजिब्भतालुय-असंपुडियतुंड-पक्खिसंघेसु ससंतेसु गिम्हुम्हउण्हवाय--खरफरुसचंडमारुय-सुक्कतणपत्तकयवर-वाउलिभमंतदित्तसंभंतसावयाउल-मिगतण्हाबद्धचिंधपट्टेसु गिरिवरेसु संवट्टइएसु तत्थ-मिय-ससय-सरीसिवेसु अवदालियवयणविवरनिल्लालियग्गजीहे महंततुंबइय-पुण्णकण्णे संकुचियथोर-पीवरकरे ऊसिय-नंगूले पीणाइय-विरसरडिय-सद्देणं फोडयंतेव अंबरतलं, पायदद्दरएणं कंपयंतेव मेइणितलं, विणिम्मुयमाणे य सीयर, सव्वओ समंता वल्लिवियाणाई छिंदमाणे, रुक्खसहस्साई तत्थ सुबहूणि नोल्लयंते, विणट्टरटेव्व नरवरिंदे, वायाइद्धेव्व पोए, मंडलवाएव्व परिब्भमते, अभिक्खणं-अभिक्खणं लिंडनियरं पमुंचमाणे-पमुंचमाणे बहूहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं दिसोदिसिं विप्पलाइत्था॥ १५९. मेघ! किसी समय तूं पावस, वर्षा, शरद, हेमन्त और वसन्त क्रमश: इन पांचों ऋतुओं के बीत जाने पर, ग्रीष्म ऋतु के समय ज्येष्ठ मास में १२५वृक्षों के परस्पर संघर्षण से समुत्थित सूखे घास-पात, कचरे और हवा के योग से प्रदीप्त, महाभयंकर आग के कारण वन-दव की ज्वालाओं से वन-प्रांत संप्रदीप्त हो गये। दिशाएं धूमाकुल हो गई। प्रचण्ड हवा के वेग से संचालित छिन्न ज्वालाओं के गिरने से पीले जीर्ण वृक्ष भीतर ही भीतर जलने लगे। कीचड़ से भर गए वन प्रांत की नदियों और गड्ढ़ों का पानी क्षीण हो गया। मृत-कुथित जीव-जन्तु विनष्ट कृमि और झिंगुरों के करुण-क्रन्दन के स्वर सुनाई देने लगे। वृक्षों के अग्र भाग विद्रुम की भांति लाल हो उठे। उन पर कौवे रूखे, कठोर और अनिष्ट स्वर में कांव-कांव करने लगे। पक्षी समूह प्यास से व्याकुल हो, पांखों को फैला, जीभ और तालु को प्रकट कर, मुंह खोल श्वास लेने लगा। ग्रीष्म की ऊष्मा कड़ी धूप, खर, परुष और प्रचण्ड हवा, सूखे घास-पात और कचरे से भरे हुए वातूल तथा इनके कारण घूमते हुए उन्मत्त और सम्भ्रांत श्वापदों के कारण पर्वत आकुल हो गये, उन पर मृगतृष्णा रूपी चिह्नपट्ट बंध गया। वहां प्रलयकारी अग्नि का दृश्य उपस्थित हो गया। हरिण, खरगोश और सांप त्रस्त हो उठे। उस समय तुम्हारा मुख विवर चौड़ा हो गया। जिहा का अग्रभाग बाहर निकल आया। बड़े-बड़े दोनों कान पूर्णरूपेण तुम्बाकार हो गए। स्थूल और पीवर सूण्ड संकुचित हो गई। पूंछ ऊपर उठ गई। ढोल की भांति विरस और रुदनपूर्ण चिंघाड़ से मानो अम्बरतल फोड़ रहा था। पादघात से मानो मेदिनीतल को कम्पित कर रहा था। मुंह से जलकणों को छोड़ रहा था। चारों ओर वल्लि-वितानों को तहस-नहस कर रहा था। बहुत सारे हजारों-हजारों वृक्षों को उखाड़ता हुआ, राज्य भ्रष्ट नरपति, वायु से प्रकम्पित पोत और मण्डल वायु की भांति चक्कर काट रहा था। बार-बार लीद करता हुआ, बहुत सारे हाथियों यावत् कलभों के साथ इधर-उधर भागने लगा। १६०. तत्थ णं तुमं मेहा! जुण्णे जरा-जज्जरिय-देहे आउरे झंझिए पिवासिए दुब्बले किलते नट्ठसुइए मूढदिसाए सयाओ जूहाओ विप्पहूणे वणदवजालापरद्धे उण्हेण य तण्हाए म छुहाए य परब्भाहए समाणे भीए तत्थे तसिए उव्विग्गे संजायभए सव्वओ समंता आघावमाणे परिधावमाणेएगंचणंमहंसरंअप्पोदगंपंकबहुलं १६०. मेघ! उस समय तूं जीर्ण, जरा-जर्जरित देह वाला, आतुर, भूखा-प्यासा, दुर्बल, क्लांत, स्मृति-शून्य और दिग्मूढ हो, अपने यूथ से बिछुड़ गया। वहां दावानल की लपटों से पीड़ित तथा गर्मी, प्यास और भूख से बाधित होने पर तूं भीत, त्रस्त, शुष्क, उद्विग्न २५ और भयाक्रांत होकर चारों ओर भाग दौड़ करता हुआ, पानी पीने के लिए घाट रहित एक विशाल सरोवर में Jain Education Interational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र १६०-१६५ अतित्थेणं पाणियपाए ओइण्णे। तत्थ णं तुम मेहा! तीरमइगए पाणियं असंपत्ते अंतरा चेव सेयंसि विसण्णे। तत्थ णं तुमं मेहा! पाणियं पाइस्सामि त्ति कटु हत्थं पसारेसि । से वि य ते हत्थे उदगं न पावइ । तए णं तुम मेहा! पुणरवि कायं पच्चुद्धरिस्सामि त्ति कटु बलियतरायं पंकसि खुत्ते॥ नायाधम्मकहाओ उतरा। उसमें पानी कम था और दलदल अधिक था। मेघ! तब तूं किनारे से आगे चला गया। पानी तक नहीं पहुंचा। बीच में ही दलदल में धंस गया। मेघ! तब तूने “पानी पीऊगां"--ऐसा सोचकर अपनी सूंड फैलाई। पर तेरी सूंड पानी तक नहीं पहुंच पाई। मेघ! तब "अपने शरीर को दलदल से निकालूगां"--ऐसा सोचकर तूं ने पुनरपि बल लगाया, किन्तु तू और अधिक पंक-निमग्न हो गया। १६१. तए णं तुम मेहा! अण्णया कयाइ एगे चिरनिज्जूढए गयवरजुवाणए सगाओ जूहाओ कर-चरण-दंत-मुसलप्पहारेहिं विप्परद्धे समाणे तं चेव महद्दहं पाणीयपाए समोयरइ । तए णं से कलभए तुम पासइ, पासित्ता तं पुव्ववेरं सुमरइ, सुमरित्ता आसुरत्ते रुटे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे जेणेव तुमं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तुमं तिक्खेहिं दंतमुसलेहिं तिक्खुत्तो पिट्ठओ उठुभइ, उठुभित्ता पुव्वं वेरं निज्जाएइ, निज्जाएत्ता हठ्ठतुढे पाणीयं पिबइ, पिबित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए।। १६१. मेघ! किसी समय तेरे यूथ से बहुत समय पहले भ्रष्ट हुआ एक प्रवर युवा हाथी, जिसे तूने अपनी सूंड, पांव और दंत-मूसलों का प्रहार कर, अपने यूथ से निकाल दिया था, जल पीने के लिए उसी सरोवर में उतरा। उस कलभ ने तुझे देखा। देखते ही उसे पूर्व वैर की स्मृति हो आयी। पूर्व वैर की स्मृति होते ही वह तत्काल क्रोध से तमतमा उठा। वह रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से प्रज्ज्वलित होकर जहां तू था, वहां आया। आकर तेरी पीठ में तीन बार दंत मूसलों से प्रहार किया। प्रहार कर उसने अपने पूर्व वैर का बदला लिया। बदला लेकर हृष्ट-तुष्ट हो उसने पानी पीया। पानी पीकर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। १६२. तए णं तव मेहा! सरीरगंसि वेयणा पाउन्भवित्था--उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरित्था। १६२. मेघ! तब तेरे शरीर में उज्ज्वल,१२८ विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, रौद्र, दु:खद और दुःसह वेदना प्रादुर्भूत हुई। शरीर में पित्तज्वर हो गया। समूचे शरीर में दाह व्याप्त हो गई। भगवया मेरुप्पभ-भवनिरूवण-पदं १६३. तए णं तुम मेहा! तं उज्जलं विउलं कक्खडं पगाढं चंडं दुक्खं दुरहियासं सत्तराइंदियं वेयणं वेदेसि, सवीसं वाससयं परमाउयं पालइत्ता अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे कालमासे कालं किच्चा इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्ढभरहे गंगाए महानईए दाहिणे कूले विंझगिरिपायमूले एगेणं मत्तवरगंधहत्थिणा एगाए गयवरकरेणूए कुच्छिसि गयकलभए जणिए। भगवान द्वारा मेरुप्रभ-भव का निरूपण-पद १६३. तब मेघ! तूं ने सात दिन-रात तक उस उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, रौद्र, दु:खद और दुःसह वेदना को भोगा। एक सौ बीस बरस की परम आयु को भोग, तूं आर्त, दुःख से आर्त और कामना से आर्त होकर, मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर, उसी जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष वहां के दक्षिणार्द्ध भरत, महानदी गंगा के दक्षिण तट और विन्ध्याचल की तलहटी में, एक मत्त प्रवर गंध हस्ती से, एक प्रवर हथिनी की कुक्षि में गज-कलभ के रूप में उत्पन्न हुआ। १६४. तए णं सा गयकलभिया नवण्हं मासाणं वसंतमासंसि तुमं पयाया॥ १६४. उस तरुण हथिनी ने नौ मास बीत जाने पर बसंत मास में तुझे जन्म दिया। १६५. तए णं तुम मेहा! गब्भवासाओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए १६५. मेघ! गर्भवास से मुक्त होते ही तू गज-कलभ बन गया। तूं रक्तोत्पल यावि होत्था--रत्तुप्पल-रत्तसूमालए जासुमणाऽरत्तपालियत्तय- जैसा लाल और सुकुमार था। तूं जवाकुसुम, आरक्त-पारिजातपुष्प, लक्खारस-सरसकुंकुम-संझब्भरागवण्णे, इट्टे नियगस्स जूहवइणो, लाक्षारस, सरस कुंकुम और सन्ध्याकालीन अभ्रराग जैसे वर्णवाला और गणियार-कणेरु-कोत्थ-हत्थी अणेगहत्थिसयसंपरिखुडे रम्मेसु अपने यूथपति का इष्ट था। तूं अपनी समकक्ष हथिनियों के उदर को गिरिकाणणेसु सुहंसुहेणं विहरसि। सूण्ड से सहलाता हुआ तथा सैकड़ों हाथियों से घिरा हुआ सुरम्य गिरि काननों में सुखपूर्वक रहता था। Jain Education Intemational Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४९ प्रथम अध्ययन : सूत्र १६६-१७१ १६६. तए णं तुम मेहा! उम्मुक्कबालभावेजोव्वणगमणुप्पत्ते जूहवइणा १६६. मेघ! तूने शैशव को लांघकर जब यौवन में प्रवेश किया, तब यूथपति कालधम्मुणा संजुत्तेणं तं जूहं सयमेव पडिवज्जसि ।। मृत्यु को प्राप्त हो गया। तब तू स्वयं उस यूथ का अधिपति बन गया। १६७. तए णं तुम मेहा! वणयरेहिं निव्वत्तियनामधेज्जे सत्तुस्सेहे नवायए दसपरिणाहे सत्तंगपइट्ठिए सोम-सम्मिए सुरूवे पुरओ उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे पिट्ठओ वराहे अइयाकुच्छी अच्छिद्दकुच्छी अलंबकुच्छी पलंबलंबोदराहरकरे धणुपट्ठागितिविसिट्ठपुढे अल्लीण-पमाणजुत्त-वट्टिय-पीवर-गत्तावरे अल्लीण-पमाणजुत्त-पुच्छे पडिपुण्ण-सुचारु कुम्मचलणे पंडुर-सुविसुद्ध-निद्ध-निरुवहयविंसतिनहे चउदंते मेरुप्पभे हत्थिरयणे होत्था। तत्थ णं तुम मेहा! सत्तसइयस्स जूहस्स आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा-ईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे अभिरमेत्था। १६७. मेघ! तब तूं मेरुप्रभ नाम का हस्तिरत्न था। तेरा यह नाम वनवासी लोगों ने रखा। तूं सात हाथ ऊंचा, नौ हाथ लंबा, दस हाथ चौड़ा, सात अंगों से प्रतिष्ठित, सौम्य, प्रमाणोपेत अंगों वाला, सुरूप, आगे से ऊंचा, उन्नत सिर वाला, बैठने में सुखकर, सूअर के समान झुके हुए पृष्ठ भाग वाला और बकरी की भांति उन्नत पेट वाला था। पेट में सलवटें नहीं थी। वह लटक नहीं रहा था। गणेश की भांति अधर और शुण्डादण्ड लम्बे थे। पीठ विशिष्ट धनुषपृष्ठ के आकार जैसी थी। शरीर का अपर भाग सुव्यवस्थित, प्रमाणयुक्त, वर्तुल और पुष्ट था। पूंछ सुव्यवस्थित और प्रमाणयुक्त थी। चरण प्रतिपूर्ण, सुन्दर और कछुए की भांति उभरे हुए थे। बीसों नख श्वेत, साफ, चिकने और निरुपहत थे और दांत चार थे। मेघ! वहां तूं सात सौ हाथियों के यूथ का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व, आज्ञा-ऐश्वर्य और सेनापतित्व करता हुआ, उसका पालन करता हुआ अभिरमण कर रहा था। १६८. तए णं तुम मेहा! अण्णया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले (मासे पायवघंससमुट्ठिएणं सुक्कतण-पत्त-कयवर-मारुयसंजोगदीविएणं महाभयंकरेणं हुयवहेणं?) वणदव-जाला-पलितेसु वर्णतेसु धूमाउलासु दिसासु जाव मंडलवाएव्व परिन्भमते भीए तत्ये तसिए उव्विग्गे संजायभए बहूहिं हत्थीहि य हत्थिणियाहि य लोट्टएहि य लोट्टियाहि य कलभएहि य कलभियाहि य सद्धिं संपरिवडे सव्वओ समंता दिसोदिसिं विप्पलाइत्था। १६८. मेघ! किसी समय ग्रीष्म ऋतु के समय ज्येष्ठमास में (वृक्षों के परस्पर संघर्षण से समुत्थित, सूखे घास पात, कचरे और हवा के योग से प्रदीप्त, महाभंयकर आग के कारण?) वनदव की ज्वालाओं से वन प्रांत संप्रदीप्त हो गये। दिशाएं धूमाकुल हो गयी, यावत् मण्डलवायु की भांति चक्कर काटता हुआ तूं भीत, त्रस्त, तषित, उद्विग्न और भयाक्रांत होकर बहुत से हाथियों, हथिनियों, छोटे शिशुओं और वय: प्राप्त कलभों के साथ, उनसे संपरिवृत हो, चारों ओर इधर-उधर भागने लगा। १६९. तए णं तव मेहा! तं वणदवं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--कहि णं मन्ने मए अयमेयारूवे अग्गिसंभमे अणुभूयपुवे? १६९. मेघ! उस वनदव को देखकर तेरे मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--'लगता है मैने इस प्रकार के अग्नि संभ्रम का कभी पहले अनुभव किया है। १७०. तए णं तव मेहा! लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं अज्झवसाणेणं १७०. मेघ! उस समय तेरी लेश्या विशुद्ध हो रही थी। अध्यवसाय शोभन सोहणेणं सुभेणं परिणामेणं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं और परिणाम शुभ था | जाति स्मृति के आवारक कर्मों का ईहा-पूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सन्निपुव्वे जाईसरणे क्षयोपशम होने पर, ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते-करते समुप्पज्जित्था॥ तुझे समनस्क जन्मों को जानने वाला 'जाति-स्मृति' ज्ञान उत्पन्न हुआ। १७१. तए णं तुम मेहा! एयमहूँ सम्म अभिसमेसि-एवं खलु मया अईए दोच्चे भवग्गहणे इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयड्दगिरिपायमूले जाव सुमेरुप्पभे नाम हत्थिराया होत्था। तत्य णं मया अयमेयारूवे अग्गिसंभमे समणुभूए।। १७१. मेघ! तब तुझे यह भलीभांति अवगत हो गया--मैं अतीत में इससे पूर्व दूसरे भव में इसी जम्बूद्वीप, भारतवर्ष और वैतादयगिरि की तलहटी में यावत् सुमेरुप्रभ नामक हस्तिराज था। वहां मैंने इस प्रकार के अग्नि संभ्रम का अनुभव किया था। Jain Education Intemational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० प्रथम अध्ययन : सूत्र १७२-१७८ १७२. तए णं तुम मेहा! तस्सेव दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि नियएणं जूहेणं सद्धिं समण्णागए यावि होत्था। नायाधम्मकहाओ १७२. मेघ! उसी दिन मध्यान्होपरांत तीसरे प्रहर में तूं अपने यूथ के साथ जा मिला। १७३. तए णं तुम मेहा! सत्तुस्सेहे जाव सन्निजाईसरणे चउदंते मेरुप्पभे नाम हत्थी होत्था।। १७३. मेघ! तू सात हाथ ऊंचा यावत् समनस्क जन्मों को जानने वाले जाति स्मरण ज्ञान वाला, चार दांत वाला मेरुप्रभ नाम का हाथी था। मेरुप्पभेण मंडलनिम्माणपदं १७४. तए णं तुझं मेहा! अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था- सेयं खलु मम इयाणिं गंगाए महानईए दाहिणिल्लंसि कूलंसि विंझगिरिपायमूले दवग्गिसंताणकारणट्ठा सएणं जूहेणं महइमहालयं मंडलं घाइत्तए त्ति कटु एवं सपेहेसि, सपेहेत्ता सुहंसुहेणं विहरसि ।। मेरुप्रभ द्वारा मण्डल-निर्माण-पद १७४. मेघ! तब तेरे मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ--"इस समय मेरे लिए उचित है मैं महानदी गंगा के दक्षिणी तट पर विन्ध्यगिरि की तलहटी में, दावानल से त्राण पाने के लिए अपने यूथ के साथ एक महान मण्डल का निर्माण करूं"--तूं ने ऐसी संप्रक्षा की। संप्रेक्षा कर सुखपूर्वक रहने लगा। १७५. तए णं तुम मेहा! अण्णया कयाइ पढमपाउसंसि महावुट्टिकायंसि सन्निवइयंसि गंगाए महानईए अदूरसामंते बहूहि हत्थीहि य जाव कलभियाहि य सत्तहि य हत्थिसएहिं संपरिखुडे एगं महं जोयणपरिमंडलं महइमहालयं मंडलं घाएसि--जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कंटए वा लया वा वल्ली वा खाणुं वा रुक्खे वा खुवे वा, तं सव्वं तिक्खुत्तो आहुणिय-आहुणिय पाएणं उट्ठवेसि, हत्थेणं गिण्हसि, एगते एडेसि ।। १७५. मेघ! किसी समय प्रथम पावस में महावृष्टि होने पर१३०, महानदी गंगा के न दूर, न निकट, बहुत सारे हाथियों यावत् कलभों-कुल सात सौ हाथियों से संपरिवृत हो तूं ने एक महान एक योजन के गोलाकार अत्यन्त विशाल मण्डल का निर्माण किया। वहां जो घास-पात काठ, काट, लता, वल्ली, लूंठ, वृक्ष अथवा क्षुप था, उन सबको तूं ने तीन बार हिला, हिलाकर पैरों से उखाड़ा, सूण्ड में लिया और एक ओर फेंक दिया। १७६. तए णं तुम मेहा! तस्सेव मंडलस्स अदूरसामते गंगाए महानईए दाहिणिल्ले कूले विंझगिरिपायमूले गिरीसु य जाव सुहंसुहेणं विहरसि । १७६. मेघ! तूं उसी मण्डल के न दूर, न निकट महानदी गंगा के दक्षिण तट पर विन्ध्यगिरि की तलहटी में पहाड़ों यावत् काननों में सुखपूर्वक रहने लगा। १७७. तए णं तुम मेहा! अण्णया कयाइ मज्झिमए वरिसारत्तंसि महावुट्ठिकायंसि सन्निवइयंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि, उवागच्छित्ता दोच्चं पि मंडलघायं करेसि । __ एवं--चरिमवरिसारत्तंसि महावुट्टिकायंसि सन्निवयमाणंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि, उवागच्छित्ता तच्चं पि मंडलघायं करेसि जाव सुहंसुहेणं विहरसि ।। १७७. मेघ! किसी समय वर्षाऋतु के मध्यकाल में महावृष्टि होने पर तूं जहां वह मण्डल था वहां आया, वहां आकर दूसरी बार भी उस (मण्डल में उगे घास पात आदि को उखाड़ कर) मण्डल को निर्मूल किया। इसी प्रकार वर्षाऋतु के अन्तकाल में महावृष्टि होने पर, तूं जहां मण्डल था, वहां आया। आकर तूं ने तीसरी बार भी उस (मण्डल में उगे घास-पात आदि को उखाड़कर) मण्डल को निर्मूल किया यावत् सुखपूर्वक रहने लगा। दवग्गिभीतसावयाणं मंडलपवेस-पदं १७८. तए णं तुम मेहा! अण्णया कयाइ कमेण पंचसु उऊसु समइक्कतेसु गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले मासे पायव-घंससमुट्ठिएणं जाव संवट्टइएसु मियपसुपंखिसरीसिवेसु दिसोदिसिं विप्पलायमाणेस तेहिं बहूहिं हत्थीहि य सद्धिं जेणेव से मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तत्थ णं अण्णे बहवे सीहा य वग्धा य विगा य दीविया य अच्छा य तरच्छा य परासरा य सियाला य विराला य सुणहा य दावानल से भीत श्वापदों का मण्डल में प्रवेश-पद १७८. मेघ! किसी समय क्रमश: पांचों ऋतुओं के बीत जाने पर, ग्रीष्म ऋतु के समय ज्येष्ठ मास में वृक्षों के संघर्षण से समुत्थित वनदव की ज्वालाओं से यावत् पर्वतों पर प्रलयंकारी अग्नि का दृश्य उपस्थित हो गया। हरिण, पशु, पक्षी और सांप इधर-उधर भागने लगे। उस समय तूं ने उन बहुत सारे हाथियों के साथ, जहां वह मण्डल था, वहां जाने का संकल्प किया। उस मण्डल में अन्य बहुत सारे सिंह, बाघ, भेड़िये, चीते, भालू, Jain Education Intemational Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ कोलाय ससा य कोकंतिया य चित्ता य चिल्लला य पुव्वपविट्ठा अग्गभयविया गयओ बिलधम्मेण चिट्ठति ।। १७९. तए गं तुमं मेहा! जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता तेहि बहूहिं सोहेहि य जाव चिल्ललेहि य एगयओ बिलधम्मेण चिट्ठसि ।। मेरुप्यभस्स पादुक्सेव-पदं १८०. तए णं तुमे मेहा! पाएणं गत्तं कंडूइस्सामी ति कट्टु पाए उविखत्ते तंसि च णं अंतरसि अण्णेहिं बलवतेहिं सत्तेहिं पणोलिज्जमाणे-पणोलिज्जमाणे ससए अणुप्पविद्वे ।। १८१. लए णं तुने मेहा! गायं कंद्रइत्ता पुणरवि पायं पडिनिक्खेविस्लामि त्ति कट्टु तं ससयं अणुपविट्टं पाससि, पासित्ता पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए जीवाणुकंपयाए सत्ताणुकंपयाए से पाए अंतरा चैव संधारिए, नो चेव णं निखित्ते ।। १८२. तए गं तुमं मेहा! ताए पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए जीवाणुकंपया सत्ताणुकंपयाए संसारे परित्तीकए, माणुस्साउए निवडे ॥ १८३. तए णं से वणदवे अड्ढाइज्जाई राइंदियाइं तं वणं झामेइ, झामेत्ता निडिए उवरए उपसते विज्झाए यावि होत्या ।। १८४. तए णं ते बहवे सीहा व जाव पिल्लता य तं वणदवं निडियं उवरयं उवसंत विज्झायं पासंति, पासिता अगिभयविप्यमुक्का तहाए य छुहाए य परब्भाहया समाणा तओ मंडलाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता सव्वओ समंता विप्पसरित्या ।। १८५. तए णं ते बहवे हत्थी म हत्पिणीओ व लोडया व लोहिया य कलभा य कलभिया यतं वणदवं निट्ठियं उवरयं उवसंतं विज्झायं पासंति, पासित्ता अग्गिभयविप्पमुक्का तण्हाए य छुहाए य परमाया समाणात मंडलाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्समित्ता दिसोदिसिं विप्पसरित्था ।। १८६. तए गं तुमं मेहा! जुण्णे जरा-जज्जरिय- देहे सिढिलवलितयविद्धिगत्ते कुब्बले किलते जुजिए पिवासिए अत्थामे अबले अपरक्कमे ठाकडे वेगेण विप्पसरिस्सामि त्ति कट्टु पाए पसारेमाणे विज्जुहए विव रययगिरि पन्मारे धरणितलसि सव्वंहिं सण्णिवइए। ५१ प्रथम अध्ययन सूत्र १७८-१८६ लकड़बग्घे, शरभ, सियार, बिडाल, कुत्ते, सूअर, खरगोश, लोमड़ी, चित्तल और चिल्लत पहले ही प्रविष्ट हो चुके थे। वे अग्नि के भय से घबराकर वहां बिलधर्म से (बित में रहने वाले कीड़े-मकोड़ों की भांति) ११ एक साथ रह रहे थे 1 १७९. मेघ! तब तूं जहां वह मण्डल था, वहां आया। वहां आकर उन बहुत सारे सिंहों यावत चिल्ललों के साथ घुलमिल कर बिलधर्म से रहने लगा। मेरुप्रभ का पादोत्क्षेप पद १८०. मेघ! पांव से शरीर को खुजलाऊंगा-यह सोच कर तू ने अपना एक पांव ऊपर उठाया। अन्य सबल प्राणियों द्वारा पुनः पुनः धकेले जाने पर उस पैर के नीचे एक खरगोश आ घुसा । १८१. मेघ! शरीर को जलाकर पांव को पुनः नीचे रखूंगा तूने ऐसा सोच पैर की जगह बैठे उस खरगोश को देखा। देखकर तू ने प्राणानुकम्पा, भूतानुकम्पा, जीवानुकम्पा और सरत्चानुकम्पा से अपने पैर को बीच में ही धाम लिया, उसे भूमि पर नहीं रखा १८२. मेघ! तूं ने उस प्राणानुकम्पा, भूतानुकम्पा, जीवानुकम्पा और सत्वानुकम्पा से संसार को सीमित किया और मनुष्य आयुष्य का बन्ध किया । १८३. उस वन-दव ने अढ़ाई रात-दिन तक उस वन को जलाया । जलाकर निष्ठित, उपरत और उपशान्त हो गया, बुझ गया। १८४. उन बहुत सारे सिंहो यावत् चिल्ललों ने उस वन-दव को निष्ठित, उपरत, उपशान्त और बुझा हुआ देखा। देखकर वे आग के मुक्त हो गये । प्यास और भूख से पीड़ित हो उस मण्डल से बाहर निकले। बाहर निकल कर चारों ओर फैल गये १८५. उन बहुत सारे हाथियों, हथिनियों उनके छोटे शिशुओं और वय प्राप्त कलभों ने भी उस वन दव को निष्ठित, उपरत, उपशांत और बुझा हुआ देखा। देखकर वे आग के भय से मुक्त हो गये। वे और भूख से पीड़ित हो, उस मण्डल से बाहर निकले। निकलकर चारों ओर फैल गये । १८६. मेघ! उस समय तूं जीर्ण, जरा-जर्जरित, शिथिल और सलवट भरी चमड़ी से मढे शरीर वाला, दुर्बल, क्लान्त, भूखा प्यासा, अशक्त, निर्बल पराक्रम शून्य और ठूंठ जैसा स्तब्ध हो गया था, फिर भी बलपूर्वक पांव को पसारुंगा यह सोच, पांव को पसारता हुआ तूं Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र १८६-१९० ५२ नायाधम्मकहाओ विद्युत से आहत रजत-गिरि के झुके हुए अग्रिम भाग की भांति, सम्पूर्ण शरीर के साथ धरती पर गिर पड़ा। १८७. तए णं तव मेहा! सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया--उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरसि ।। १८७. मेघ! तब तेरे शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, रौद्र, दु:खद और दुःसह वेदना प्रादुर्भूत हुई। शरीर में पित्त ज्वर हो गया। समूचे शरीर में दाह व्याप्त हो गई। तीय संदब्भे वट्टमाण-तितिक्खोवदेस-पदं १८८. तए णं तुम मेहा! तं उज्जलं जाव दुरहियासं तिण्णि राईदियाइं वेयणं वेएमाणे विहरित्ता एगं वाससयं परमाउं पालइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे सेणियस्स रण्णो धारिणीए देवीए कुच्छिसि कुमारत्ताए पच्चायाए। उस सन्दर्भ में होने वाली तितिक्षा का उपदेश-पद १८८. मेघ! तीन रात-दिन तक तूं उस उज्ज्वल यावत् दुःसह वेदना को भोगता रहा। सौ वर्ष की परम आयु को भोगकर तूं इसी जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और राजगृह नगर में राजा श्रेणिक की धारिणी देवी की कुक्षि में कुमार रूप में उत्पन्न हुआ। १८९. तए णं तुमं मेहा! आणुपुव्वेणं गब्भवासाओ निक्खते समाणे १८९. मेघ! तूं क्रमश: गर्भावास से निकला, शैशव को लांघ, यौवन में प्रविष्ट उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुप्पत्ते मम अंतिए मुडे भवित्ता हुआ और मेरे पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो गया। अगाराओ अणगारियं पव्वइए। तं जइ ताव तुमे मेहा! मेघ! जब तूं तिर्यञ्च की अवस्था को उपलब्ध था, तुझे सम्यक्त्व-रत्न तिरिक्खजोणिय-भावमुवगएणं अपडिलद्ध-सम्मत्तरयणलंभेणं से का लाभ भी नहीं हुआ था। उस समय भी तूं ने प्राणानुकम्पा, पाए पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाएजीवाणुकंपयाए सत्ताणुकंपयाए भूतानुकम्पा, जीवानुकम्पा और सत्वानुकम्पा से अपने पैर को बीच में अंतरा चेव संधारिए, नो चेव णं निक्खित्ते । किमंग पुण तुमं मेहा! ही थाम लिया। उसे भूमि पर नहीं रखा। मेघ! इस समय तो तूं विशाल इयाणिं विपुलकुलसमुन्भवे णं निरुवहयसरीर-दंतलद्धपंचिंदिए णं कुल में उत्पन्न, निरुपहत-शरीर, शान्त, पांचों इन्द्रियों को उपलब्ध एवं उट्ठाण-बल-वीरिय-पुरिसगार-परक्कमसंजुत्ते णं मम अंतिए और इस प्रकार के उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम से मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियंपव्वइए समाणे समणाणं निग्गंथाणं संयुक्त है। तूं मेरे पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुआ राओ पुव्वरत्तावरत्त-कालसमयसि वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए है। ऐसी स्थिति में पूर्वरात्रापरात्र में वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, धम्माणुओगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणाण धर्मानुयोग चिंतन और उच्चार या प्रस्रवण के लिए आते-जाते य निग्गच्छमाणाण य हत्थसंघट्टणाणि य पायसंघट्टणाणि य श्रमण-निर्ग्रन्थ हाथों को छू गए, पांवों को छू गए, सिर को छू गए, पेट सीससघट्टणाणि य पोट्टसंघट्टणाणि य कायसंघट्टणाणि को छू गए, शरीर को छू गए, लांघ गए, बार-बार लांघ गए और पांवों य ओलंडणाणि य पोलंडणाणि य पाय-रय-रेणु-गुंडणाणि यनो की रजों से धूलि लिप्त कर गए। आश्चर्य है, तूं ने क्यों नहीं सम्यक् सम्मं सहसि खमसि तितिक्खसि अहियासेसि? सहन किया? क्यों नहीं तूं उसे सहने में समर्थ हुआ? क्यों नहीं तूं ने तितिक्षा रखी? क्यों नहीं तूं अविचल रहा?१५५ मेघ का जातिस्मरण-पद मेहस्स जाइसरण-पदं १९०. तएणं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म सभेहिं परिणामेहिं पसत्थेहि अज्झवसाणेहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवसणं करेमाणस्स सण्णिपुग्वे जाईसरणे समुप्पण्णे, एयमढें सम्म अभिसमेइ।। १९०. श्रमण भगवान महावीर के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर, शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्धयमान लेश्या के कारण जातिस्मृति के आवारक कर्मों का क्षयोपशम होने पर ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते-करते अनगार मेघ को समनस्क जन्मों को जानने वाला जातिस्मृति ६ ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने इस अर्थ को भली-भांति समझ लिया। Jain Education Intemational Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ मेहस्स समप्पणपुव्वं पुणो पव्वज्जा-पदं १९१. तएणं से मेहे कुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुत्वभवे दुगुणाणीयसवेगे आणंदअंसुपुण्णमुहे हरिसवस-विसप्पमाणहियए धाराहयकलंबकं पिव समूससियरोमकूवे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-- अज्जप्पभिती णं भंते! मम दो अच्छीणि मोत्तूणं अवसेसे काए समणाणं निग्गंथाणं निसट्टे त्ति कटु पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-- इच्छामिणं भंते! इयाणिं दोच्चंपि सयमेव पव्वावियं सयमेव मुंडावियं सयमेव सेहावियं सयमेव सिक्खावियं सयमेव आयार-गोयरं जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खियं ।। प्रथम अध्ययन : सूत्र १९१-१९४ मेघ का समर्पणपूर्वक पुन: प्रव्रज्या-पद १९१. श्रमण भगवान महावीर द्वारा पूर्व जन्म की स्मृति कराने पर कुमार मेघ का संवेग द्विगुणित हो गया। उसके मुंह पर आनन्द के आंसू ढल आए। हर्ष से हृदय उल्लसित हो गया। धारा से आहत कदम्ब कुसुम की भांति उसके रोमकूप उच्छ्वसित हो उठे। उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार कहा भंते! आज से इन दो आंखों को छोड़कर मेरा अवशेष शरीर श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए समर्पित है--ऐसा कहकर, उसने पुन: श्रमण-महावीर को वन्दना-नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला-- भंते! मैं चाहता हूं, इस समय, दूसरी बार भी देवानुप्रिय स्वयं मुझे प्रव्रजित करें, स्वयं मुण्डित करें, स्वयं शैक्ष बनाए स्वयं अभ्यास करायें और स्वयं ही आचार-गोचर यात्रा-मात्रा मूलक धर्म का आख्यान करें। १९२. तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेइ सयमेव मुंडावेइ सयमेव सेहावेइ सयमेव सिक्खावेइ सयमेव आयार- गोयर-विणय-वेणइय-चरण-करण-जायामायावत्तिय धम्ममाइक्खइ--एवं देवाणुप्पिया! गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं, एवं निसीयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं, एवं भुजियव्वं, एवं भासियव्वं एवं उट्ठाए उट्ठाय पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमियव्वं॥ १९२. तब श्रमण भगवान महावीर ने कुमार मेघ को स्वयं प्रव्रजित किया, स्वयं ही मुण्डित किया, स्वयं ही शैक्ष बनाया, स्वयं ही अभ्यास कराया और स्वयं ही आचार, गोचर, विनय, वैनयिक चरण, करण और यात्रा-मात्रा मूलक धर्म का आख्यान किया--देवानुप्रिय! संयमपूर्वक चलो, संयमपूर्वकं खड़े रहो, संयम पूर्वक बैठो, संयमपूर्वक लेटो, संयमपूर्वक खाओ, संयमपूर्वक बोलो। इस प्रकार जागरूक भाव से जागृत रह कर, प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयमपूर्ण प्रवृत्ति करो। १९३. तए णं से मेहे समणस्स भगवओ महावीरस्स अयमेयारूवं धम्मियं उवएसं सम्म पडिच्छइ, पडिच्छित्ता तह गच्छइ तह चिट्ठइ तह निसीयइ तह तुयट्टइ तह भुंजइ तह भासइ तह उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमइ।। १९३. मेघ ने श्रमण भगवान महावीर के इस विशिष्ट धार्मिक आख्यान को सम्यक् स्वीकार किया। स्वीकार कर वह संयम पूर्वक चलता, संयमपूर्वक खड़ा रहता, संयमपूर्वक बैठता, संयमपूर्वक सोता, संयमपूर्वक खाता, संयमपूर्वक बोलता और वैसे ही जागरूक भाव से जागृत रहकर प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयमपूर्ण प्रवृत्ति करने लगा। मेहस्स निग्गंठचरिया-पदं १९४. तए णं मेहे अणगारे जाए--इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंड-मत्त-णिक्खेवणासमिए उच्चार- पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावणिआसमिए मणसमिए वइसमिए कायसमिए मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी चाई लज्जू धन्ने खंतिखमे जिइंदिए सोहिए अणियाणे अप्पुस्सुए अबहिल्लेसे सुसामण्णरए दंते इणमेव निग्गंथं पावयण पुरओ काउं विहरति॥ मेघ की निर्ग्रन्थचर्या पद १९४. अब मेघ अनगार हो गया--वह विवेकपूर्वक चलता। विवेकपूर्वक बोलता, विवेकपूर्वक आहार की एषणा करता, विवेकपूर्वक वस्त्र, पात्र आदि को लेता और रखता, विवेक पूर्वक मल, मूत्र, श्लेष्म, नाक ने मैल शरीर के गाढ़े मैल का परिष्ठापन (विसर्जन) करता, मन का संगत प्रवृति करता, वचन की संगत प्रवृति करता, शरीर की संगत प्रवृत्ति करता, मन का निरोध करता, वचन का निरोध करता, शरीर का निरोध करता, अपने आपको सुरक्षित रखता, इन्द्रियों को सुरक्षित रखता, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखता, संग का त्याग करता, अनाचरण करने में लज्जा करता, कृतार्थता का त्याग करता, समर्थ होने पर भी क्षमा करता, इन्द्रिय जयी था, अतिचार की विशुद्धि Jain Education Intemational Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन सूत्र १९४-१९९ ५४ १९५. तए णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्त 'तहारूवाणं धेराणं अतिए सामाइयमाश्याई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जिता बहूहिं मदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।। मेहस्स भिक्खुपडिमा पर्द १९६. लए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नयराज गुणसिलपाओ श्याओ पडिणिक्लम, पडिणिक्खमिता बहिया जणवयविहारं बिहरड़ ।। १९७. तए णं से मेहे अणगारे अण्णया कयाइ समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसह, वंदित्ता नमसित्ता एवं क्यासी- इच्छामि णं भंते! तुमेहिं अम्भणुष्णाए समाणे मासिवं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता विहरितए । अहासु देवाणुप्पिया! मा परिबंध करेहि ।। १९८. तए गं से मेहे अणगारे समणेणं भगक्या महावीरेण अन्धगुष्णाए समाणे मासिवं भिक्खुपडिमं उपसंपज्जित्ता गं विहरह। मासियं भिक्खुपडिमं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं कारणं फासेइ पालेइ सोभेइ तीरेइ किट्टेइ, सम्मं कारणं फासेत्ता पालेत्ता सोभेत्ता तीरेता कित्ता पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंद नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता एवं क्यासी- इच्छामि गं भते तुम्मेहिं अन्मगुण्णाए समाणे दोमासिवं भिक्खुपडिमं उपसंपत्तिा गं विहरित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि । जहा पढमाए अभिलावो तहा दोच्चाए तच्चाए चउत्थाए पंचमाए छम्माखियाए सत्तमासियाए पढमसत्तराइदियाए दोच्चसत्तइंदिया तच्च सत्तराइंदियाए अहोराइयाए एगराइयाए वि ।। नायाधम्मकहाओ करता, पौद्गलिक समृद्धि का संकल्प नहीं करता, उत्सुकता से मुक्त रहता, भावधारा को आत्मोन्मुखी रखता, सुश्रामण्य में रत इन्द्रिय और मन का निग्रह करता और इस निर्ग्रन्थ प्रवचन (जिनशासन) को ही आगे रखकर चलता । १९५. अनगार मेघ ने श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन कर वह बहुत सारे षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त, द्वादश भक्त, पाक्षिक तप और मासिक तप से स्वयं को भावित करता हुआ विहार करने लगा । मेघ की भिक्षु प्रतिमा पद १९६. श्रमण भगवान महावीर ने राजगृह नगर के गुणशिलक चैत्य से निष्क्रमण किया। वहां से निष्क्रमण कर वे बहिर्वर्ती जनपदों में विहार करने लगे। १९७. किसी समय अनगार मेघ ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दनानमस्कार किया । वन्दना - नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला - "भंते! मैं आप से अनुज्ञा प्राप्त कर मासिक भिक्षु प्रतिमा की उपसंपदा स्वीकार कर, विहार करना चाहता हूं।" १४० देवानुप्रिय ! "तुम्हें जैसा सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो।” १९८. श्रमण भगवान महावीर से अनुज्ञा प्राप्त कर अनगार मेघ मासिक भिक्षु प्रतिमा की उपसंपदा स्वीकार कर विहार करने लगा। वह भिक्षु प्रतिमा का यथासूत्र यथाकल्प, यथामार्ग, सम्यक प्रकार से काया से स्पर्श करता, उसका पालन करता, उसे शोधित करता, पारित करता और कीर्तन करता । सम्यक् प्रकार से काया से उसका स्पर्श कर, उसका पालन, शोधन पारित, कीर्तन कर उसने पुनः श्रमण भगवान महावीर को वन्दना - नमस्कार किया । वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोला- भंते! मैं आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर द्वैमासिकी भिक्षु प्रतिमा की उपसंपदा को स्वीकार कर विहार करना चाहता हूं। देवानुप्रिया! "तुम्हें जैसा सुख हो। प्रतिबन्ध मत करो।" प्रथम प्रतिमा में जैसा अभिलाप है वैसा ही अभिलाप द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षण्मासिक एवं सप्तमासिक प्रतिमा में तथा प्रथम सात रात-दिन वाली, द्वितीय सात रात-दिन वाली, तृतीय सात रात-दिन वाली, एक रात-दिन वाली और एक रात वाली प्रतिमा में भी करना चाहिए । मेहस्स गुणरयणसंवच्छर-पदं मेघ का गुणरत्न संवत्सर पद १९९. तए णं से मेहे अणगारे बारस भिक्खुपडिमाओ सम्मं काएणं १९९. अनगार मेघ ने बारह भिक्षु प्रतिमाओं को सम्यक् प्रकार से काया Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ फासेत्ता पालेत्ता सोभेत्ता तीरेत्ता किट्टेत्ता पुणरवि वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेहि।। प्रथम अध्ययन : सूत्र १९९-२००. से स्पर्श करके पालन करके, शोधन करके, पारित करके और कीर्तन करके पुन: वन्दना-नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार बोला--भंते! मैं आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर गुणरत्न संवत्सर'' नाम का तप:कर्म स्वीकार कर विहार करना चाहता हूं। देवानुप्रिय ! "जैसा तुम्हें सुख हो। प्रतिबन्ध मत करो।" २००. तए णं से मेहे अणगारे पढमं मासंचउत्थं-चउत्येणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं, दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडएणं । दोच्चं मासं छट्ठ-छद्रेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुहुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडएणं । तच्चं मासं अट्ठम-अट्ठमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं, दिया ठाणुक्कुडए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडएणं। चउत्थं मासं दसम-दसमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं, दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडएणं। पंचमं मासं दुवालसम-दुवालसमेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं, दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडएणं। एवं एएणं अभिलावेणं छटे चोद्दसम-चोद्दसमेणं, सत्तमे, सोलसम-सोलसमेणं, अट्ठमे अट्ठारसम-अट्ठारसमेणं, नवमे वीसइम-वीसइमेणं, दसमे बावीसइमं बावीसइमेणं, एक्कारसमे चउव्वीसइम-चउव्वीसइमेणं, बारसमे छव्वीसइं-छब्बीसइमेणं, तेरसमे अट्ठावीसइम-अट्ठावीसइमेणं चोद्दसमे तीसइमं-तीसइमेणं, पंचदसमे बत्तीसइम-बत्तीसइमेणं, सोलसमे चउत्तीसइमचउत्तीसइमेणं-अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं, दिया ठाणुक्कुडुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे, वीरासणेण अवाउडएण २००. अनगार मेघ ने प्रथम मास में बिना विराम (एकान्तर) चतुर्थ-चतुर्थ भक्त (एक एक दिन का उपवास) तप:कर्म किया। दिन में स्थान--कायोत्सर्ग मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंह कर आतापना भूमि में आतापना लेता और रात्रि में वीरासन में बैठता, निर्वस्त्र रहता। दूसरे मास में बिना विराम षष्ठ-षष्ठभक्त (दो-दो दिन का उपवास) तप:कर्म किया। दिन में स्थान--कायोत्सर्ग मुद्रा और उकडू आसन में बैठ 'सूर्य के सामने मुंह कर आतापनाभूमि में आतापना लेता और रात्रि में वीरासन में बैठता, निर्वस्त्र रहता। तीसरे मास में बिना विराम अष्टम-अष्टम भक्त (तीन-तीन दिन का उपवास) तप: कर्म किया। दिन में स्थान-कायोत्सर्ग मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंहकर आतापना भूमि में आतापना लेता और रात्रि में वीरासन में बैठता, निर्वस्त्र रहता। चौथे मास में बिना विराम दशम-दशम भक्त (चार-चार दिन का उपवास) तपःकर्म किया। दिन में स्थान--कायोत्सर्ग मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंहकर आतापना भूमि में आतापना लेता और रात्रि में वीरासन में बैठता, निर्वस्त्र रहता। ___ पांचवे मास में बिना विराम द्वादश-द्वादश भक्त (पांच-पांच दिन का उपवास) तपःकर्म किया। दिन में स्थान--कायोत्सर्ग मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंह कर आतापना भूमि में आतापना लेता और रात्रि में वीरासन में बैठता, निर्वस्त्र रहता। इसी प्रकार इसी अभिलाप से छठे मास में चतुर्दश-चतुर्दश भक्त (छह-छह दिन का उपवास) सातवें मास में षोडश-षोडश भक्त (सात-सात दिन का उपवास) आठवें मास में अष्टादश-अष्टादश भक्त (आठ-आठ दिन का उपवास) नौवे मास में बीसवां-बीसवां भक्त (नौ-नौ दिन का उपवास), दसवें मास में द्वाविंशति-द्वाविंशति भक्त (दस-दस दिन का उपवास) ग्यारहवें मास में चतुर्विंशति-चतुर्विंशति भक्त, (ग्यारह-ग्यारह दिन का उपवास), बारहवें मास में षट्विंशति-ट्विंशति भक्त (बारह-बारह दिन का उपवास) तेहरवें मास में अष्टाविंशति-अष्टाविंशति भक्त (तरह-तेरह दिन का उपवास) चौदहवें मास में त्रिशंत्-त्रिशंत् भक्त (चौदह-चौदह दिन का उपवास) पन्द्रहवें मास में द्वात्रिशंत्-द्वात्रिशत् भक्त (पन्द्रह-पन्द्रह दिन का उपवास) और सोलहवें मास में बिना विराम चतुस्त्रिशंत्-चतुस्त्रिशंत् भक्त (सोलह-सोलह दिन का उपवास) तप:कर्म किया। दिन में स्थान--कायोत्सर्ग मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंह कर आतापना भूमि में आतापना लेता और रात्रि में वीरासन में बैठता. निर्वस्त्र रहता। Jain Education Intemational Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र २०१-२०४ ५६ नायाधम्मकहाओ २०१. तए णं से मेहे अणगारे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुत्तं २०१. अनगार मेघ ने गुणरत्न संवत्सर नामक तप:कर्म का यथासूत्र, अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं काएणं फासेइ पालेइ सोभेइ तीरेइ यथाकल्प और यथामार्ग, काया से सम्यक् स्पर्श किया, पालन किया, किट्टेइ अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं काएणं फासेत्ता पालेता शोधन किया, पारित किया और उसका कीर्तन किया। उसको यथासूत्र, सोभेत्ता तीरेत्ता किमुत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, यथाकल्प और यथामार्ग काया से सम्यक् स्पर्श करके, पालन करके, वंदित्ता नमंसित्ता बहूहिं छट्ठट्ठमदसमवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं शोधन करके, पारित करके, कीर्तन करके श्रमण भगवान महावीर को विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।। वंदना-नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर अनेक प्रकार के षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त और द्वादश भक्त तथा पाक्षिक और मासिक तप--इस प्रकार विचित्र तप:कर्म के द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ विहार करने लगा। मेहस्स-सरीरदसा-पदं २०२. तए णं से मेहे अणगारे तेणं ओरालेणं विपुलेणं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं उदग्गेणं उदारेणं उत्तमेणं महाणुभावेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मसे किडिकिडियाभूए अट्ठिचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्था--जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भासिस्सामि त्ति गिलाइ। से जहानामए इंगालसगडिया इ वा कट्ठसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा तिलंडासगडिया इ वा एरंडसगडिया इवा--उण्हे दिण्ण सुक्का समाणी ससदं गच्छइ, ससई चिट्ठइ, एवामेव मेहे अणगारे ससदं गच्छइ, संसद्द चिट्ठइ, उवचिए तवेणं, अवचिए मंससोणिएणं, हुयासणे इव भासरासिपरिच्छन्ने तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए अईव-अईव उवसोभेमाणे-उवसोभेमाणे चिट्ठइ।। मेघ की शरीर-दशा का वर्णन-पद २०२. मेघ उस प्रधान, विपुल, शोभायित, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदार, उत्तम और महान प्रभावी तप:कर्म से सूखा, रूखा और मांसरहित हो गया। उठते-बैठते समय किट-किट शब्द से युक्त, चर्मविष्टित अस्थिवाला, कृश और धमनियों का जाल मात्र हो गया। वह प्राणबल से चलता और प्राणबल से ठहरता। बोलने के पश्चात ग्लानि का अनुभव करता, बोलने के समय भी ग्लानि का अनुभव करता और बोलूंगा--ऐसा सोचकर भी ग्लानि का अनुभव करता। जैसे कोई कोयलों से भरी हुई गाड़ी, ईंधन से भरी हुई गाड़ी, पत्तों से भरी हुई गाड़ी, तिलदंडों से भरी हुई गाड़ी अथवा ऐरण्ड की लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी ताप लगने से सूखी हुई सशब्द चलती है, सशब्द ठहरती है, वैसे ही अनगार मेघ सशब्द (किट-किट की ध्वनि सहित) चलता और सशब्द ठहरता। वह तप से उपचित, मांस शोणित से अपचित हो गया। वह राख के ढेर से ढकी हुई आग की भांति तप, तेज तथा तपस्तेज की श्री से अतीव-अतीव उपशोभित होता हुआ, उपशोभित होता हुआ रहने लगा। मेहस्स विपुलपव्वए अणसण-पदं २०३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे जाव पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणामेव रायगिहे नयरे जेणामेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गह ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।। मेघ का विपुल पर्वत पर अनशन-पद २०३. उस काल और उस समय में धर्म के आदिकर्ता तीर्थकर यावत् श्रमण भगवान महावीर क्रमश: विहरण करते हुए, ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए और सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां राजगृह नगर और गुणशिलक चैत्य था, वहां आए। वहां आकर उन्होंने प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली। अनुमति लेकर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। २०४. तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं विपुलेणं सस्सिरीएणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेगं उदग्गेणं उदारेणं उत्तमेणं महाणुभावणं २०४. किसी समय मध्य रात्रि में धर्मजागरिका करते हुए अनगार मेघ के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत, संकल्प उत्पन्न हुआ--“मैं इस प्रधान, विपुल, शोभायित, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदार, उत्तम और महान प्रभावी तप:कर्म से सूखा, रूखा, मांस रहित Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ तवोकम्मेणं सुक्के लुक्ने निम्मंसे किडिकिडियाभू अचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्या--जीवंजीवेणं गच्छामि, जीवजीवेण चिट्ठामि भासं भासित्ता गिलामि, भासं भासमाणे गिलामि, भासं भासिस्सामि त्ति गिलामि । तं अत्थि ता उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसकार - परक्कमे सद्धा-धिइ- सवेगे, तं जावता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसकार परक्कमे सद्धा-धिइ- संवेगे, जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्यी विहरड़, ताव ता मे सेयं कल्लं पाउप्पभाषाए रमणीए जाय उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमसित्ता समणेणं भगवया महावीरेणं अन्धणुष्णायस्स समाणस्स सयमेव पंच महव्वयाई आरुहिता गोयमादीए समणे निग्गंधे निग्गंधीओ य स्वामेत्ता तहारूवेहिं कहादहं पेरेहिं सद्धिं विउलं पव्वयं सणियं सणियं दुरुहिता सबमेव मेहघणसण्णिगासं पुढविसितापट्ट्यं पडिलेहित्ता संलेहणा - झूसणा-झूसियस्स भत्तपाण -पडियाइक् पाओवगयस्स कालं अणवकखमाणस्स विहरित्तए - एवं सपेहेइ, संपठेत्ता कस्तं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणपरे तेयसा जलते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण पायाहिणं करेइ, करेला वंदइ नमसइ, वंदिता नमसत्ता नच्चासण्णे नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणएग पंजलिउडे पज्जुवासइ । २०५. मेहाइ! समणे भगवं महावीरे मेहं अणगारं एवं वयासी - - से नूणं तव मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरिय जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकपे समुप्यज्जित्था एवं खलु अहं इमेणं ओरालेगं तवोकम्मेणं सुबके जाव जेणेव अहं तेनेव हव्वमागए। से नूणं मेहा! अट्ठे समट्ठे ? हंता अस्थि । अहासुतं देवाणुपिया मा परिबंध करेहि ।। ५७ २०६. तण गं से मेहे अणगारे समगेण भगव्या महावीरेण अम्मगुण्णाए समाणे हद्दु-चित्तमाणदिए जाव हरिसवस विसप्यमाणहियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपपाहिणं करेड, करेला बंद नस, वंदिता नमसित्ता सयमेव पंच महब्वयाई आरहे आहेत्ता गोयमादीए समणे निमांचे निग्गंधीओ य सामेद, सामेता तहारूवेहिं कहादीहिं घेरेहिं प्रथम अध्ययन : सूत्र २०४ - २०६ उठते-बैठते समय "किटकिट' शब्द से युक्त, चर्म से वेष्टित अस्थिवाला और धमनियों का जाल मात्र हो गया हूं। मैं प्राण-बल हूं प्राण-बल से ठहरता हूं। मैं बोलने के पश्चात ग्लानि का करता हूं' बोलते समय भी ग्लानि का अनुभव करता हूं और बोलूंगा ऐसा सोचकर भी ग्लानि का अनुभव करता हूं। अत: जब तक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम है, श्रद्धा, धृति और संवेग है, जितना मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, और पराक्रम है, श्रद्धा, धृति और संवेग है, जब तक ejsdepend fulga श्रमण भगवान महावीर विहार कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए श्रेय है-- “मैं कल उषाकाल में, पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर श्रमण भगवान महावीर को वंदना - नमस्कार कर, श्रमण भगवान महावीर से अनुज्ञा प्राप्त कर, स्वयमेव पांच महाव्रतों का आरोहण कर गौतम आदि श्रमण-निर्धन्यों और निर्ग्रन्थियों से क्षमायाचना कर तथारूप कृतयोग्य स्थविरों के साथ धीरे-धीरे विपुल - पर्वत पर चढ़, स्वयमेव सघन मेघ जैसे श्याम वर्णवाले पृथ्वी - शिलापट्ट का प्रतिलेखन कर, संलेखना की आराधना से शरीर को क्षीण कर, भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर 'प्रायोपगम' अनशन को स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा न करता हुआ विहार करूं " - उसने ऐसी संप्रेक्षा की सप्रेक्षा कर, उपकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर, वह जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आया। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, वंदना - नमस्कार किया । वंदना - नमस्कार कर भगवान के न अति निकट और न अति दूर, शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करने लगा। 1 २०५. मेघ! श्रमण भगवान महावीर ने अनगार मेघ को इस प्रकार कहा--"मेघ! मध्यरात्रि में धर्मजागरिका करते हुए, तेरे मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, अभिलाषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं इस प्रधान तप: कर्म से सूख गया हूं।" यावत् जहाँ मैं हूँ शीघ्र वहां आया। मेघ! क्या यह अर्थ संगत है ? हां, यह संगत है। देवानुप्रिय! जैसे सुख हो, प्रतिबंध मत करो । २०६. अनगार मेघ श्रमण भगवान महावीर से अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्टतुष्ट चित्त वाला आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठा । उठकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। वंदना नमस्कार किया। वंदना - नमस्कार कर उसने स्वयं ही पांच महाव्रतों का आरोहण किया। आरोहण कर गौतम आदि भ्रमण-निर्मन्थ और निरन्थियों से Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र २०६-२०८ ५८ सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहइ, दुरुहित्ता सयमेव मेहघणसण्णिगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरुहइ, दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसण्णे करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-- नमोत्थु णं अरहताणंजाव सिद्धिगइनामधेनं ठाणं संपत्ताणं । नमोत्थु णं समणस्स जाव सिद्धिगइनामधेज्जंठाणं संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स । वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भगवंतत्थगए इहगयं ति कटु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-- पुव्विं पि य णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए, मुसावाए अदिण्णादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे माणे माया लोहे पेज्जे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुण्णे परपरिवाए अरइरई मायामोसे मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खाए। इयाणिं पिणं अहं तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि, सव्वं असण-पाण-खाइमसाइमं चउन्विहंपि आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। जपि य इमं सरीरं इ8 कंतं पियं मणुण्णं मणामं थेज्जं वेस्सासियं सम्मयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं मा णं सीयं मा णं उण्हं मा णं खुहा मा णं पिवासा मा णं चोरा मा णं वाला माणं दंसा मा णं मसया मा णं वाइय-पित्तिय-सेभिय-सण्णिवाइय विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतीति कट्टु एवं पिय णं चरमेहिं ऊसास-नीसासेहिं वोसिरामि त्ति कटु संलेहणाझूसणा-झूसिए भत्तपाण-पडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकखमाणे विहरइ। नायाधम्मकहाओ क्षमा याचना की। क्षमायाचना कर तथारूप कृतयोग्य स्थविरों के साथ धीरे-धीरे विपुल पर्वत पर चढ़ा। चढ़कर सघन-मेघ जैसे श्याम वर्णवाले पृथ्वी-शिलापट्ट का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर उच्चार प्रस्रवण योग्य भूमि का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर डाभ का बिछौना बिछाया। बिछाकर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर, पर्यंकासन में बैठ४७ सटे हुए दस नख वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोला-- "नमस्कार हो अर्हत भगवान को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं। नमस्कार हो श्रमण भगवान को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने के इच्छुक हैं, ऐसे मेरे धर्माचार्य को यहाँ बैठा हुआ मैं वहां विराजित भगवान को वंदना करता हूं। वहां विराजित भगवान यहां स्थित मुझे देखें, ऐसा सोचकर उसने वंदना-नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-- “मैंने पहले भी श्रमण भगवान महावीर के पास सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया था। मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, पर-परिवाद, रति-अरति, माया-मृषा और मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान किया था। अब भी मैं उन्हीं के पास सर्वप्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का प्रत्याख्यान करता हूँ और जीवन-पर्यन्त अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इस चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ। यद्यपि मेरा यह शरीर जो मुझे इष्ट, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत और अनुमत है आभरण करंडक की भांति सुसंरक्षित है। सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, चोर, सांप, डांस, मच्छर, वात, पित्त, श्लेष्म तथा सन्निपात जनित विविध रोग और आंतक, परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करे--इस दृष्टि से इस को भी मैं अंतिम उच्छ्वास-नि:श्वास तक छोड़ता हूं--ऐसा कर वह संलेखना की आराधना में लीन होकर, भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर, प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में मृत्यु की आकांक्षा न करता हुआ विहार करने लगा।४८ २०७. तए णं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगारस्स अगिलाए क्यावडियं करेंति॥ २०७. वे स्थविर भगवान अनगार मेघ की अग्लानभाव से वैयावृत्य करने लगे। मेहस्स समाहिमरण-पदं २०८. तए णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जित्ता, बहुपडिपुण्णाई दुवालसवरिसाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मेघ का समाधि-मरण पद २०८. अनगार मेघ ने श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। प्राय: परिपूर्ण बारह वर्ष के श्रामण्य-पर्याय का पालन किया। एक मासिक संलेखना Jain Education Intemational Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ नायाधम्मकहाओ मासियाए सलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता, सर्द्धि भत्ताइं अणसणाए छेएत्ता, आलोइय-पडिक्कते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते अणुपुव्वेणं कालगए॥ प्रथम अध्ययन : सूत्र २०८-२११ से अपने आप (शरीर) को कृश बना, अनशन के द्वारा५० साठ भक्त (भोजन के समय) का छेदन किया। आलोचना और प्रतिक्रमण कर, शल्य का उद्धरण कर समाधि पूर्ण दशा में क्रमश: कालधर्म को प्राप्त हो गया। थेरेहिं मेहस्स आयारभंडसमप्पण-पदं २०९. तए णं ते थेरा भगवंतो मेहं अणगारं अणुपुव्वेणं कालगयं पासंति पासित्ता परिनेव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति, करेत्ता मेहस्स आयारभंडगं गेण्हति, विउलाओ पव्वयाओ सणियं-सणियं पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता जेणामेव गुणसिलए चेइए, जेणामेव समणे भगवं महावीरे, तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी मेहे नामं अणगारे पगइभद्दए पगइउवसते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपण्णे अल्लीणे विणीए से णं देवाणुप्पिएहिं अब्भणुण्णाए समाणे गोयमाइए समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य खामेत्ता अम्हेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहइ, सयमेवमेघघणसण्णिमासं पुढविसिलं पडिलेहेइ, भत्तपाण-पडियाइक्खिए अणुपुल्वेणं कालगए। एस णं देवाणुप्पिया! मेहस्स अणगारस्स आयारभंडए। स्थविरों द्वारा मेघ के आचार-भाण्ड का समर्पण-पद २०९. स्थविर भगवान ने अनगार मेघ को क्रमश: कालधर्म को प्राप्त हुआ देखा। देखकर परिनिर्वाण हेतुक कायोत्सर्ग:५१ किया। कायोत्सर्ग कर मेघ के आचार-भाण्ड (साधु जीवन के उपकरण) लिए। धीरे-धीरे विपुल पर्वत से नीचे उतरे। नीचे उतर कर जहाँ गुणशिलक चैत्य था, जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आए। वहाँ आकर श्रमण भगवान महावीर को वंदना-नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोले-- देवानुप्रिय का अंतेवासी मेघ नाम का अनगार जो प्रकृति से भद्र प्रकृति से उपशांत था। जिसकी प्रकृति में क्रोध, मान, माया, लोभ प्रतनु (पतले) थे, जो मृदु-मार्दव से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था। देवानुप्रिय से अनुज्ञा प्राप्त कर, गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों और निग्रंथियों से क्षमायाचना कर हमारे साथ धीरे-धीरे विपुल पर्वत पर चढ़ा। वहाँ स्वयंमेव सघन-मेघ जैसे श्याम वर्णवाले पृथ्वी शिलापट्ट का प्रतिलेखन किया। भक्त-पान का प्रत्याख्यान किया और क्रमश: कालधर्म को प्राप्त हो गया। देवानुप्रिय! ये हैं अनगार मेघ के आचार-भाण्ड (साधु जीवन के उपकरण) गोयमपुच्छाए भगवओ उत्तर-पदं २१०. भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी मेहे नाम अणगारे से णं भते! मेहे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववण्णे? गौतम के प्रश्न का भगवान द्वारा उत्तर-पद२१०. भन्ते! भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वंदना-नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर इस प्रकार बोले-- देवानुप्रिय का अंतेवासी मेघ नाम का अनगार था। भंते! वह अनगार मेघ, कालमास में काल को प्राप्त कर कहां गया है? कहां उत्पन्न हुआ है? २११. गोयमाई! समणे भगवं महावीरे गोयम एवं वयासी--एवं खलु गोयमा! मम अंतेवासी मेहे नामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए, से णं तहारूवाण थेराणं अंतिए सामाइयमाझ्याई एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता, बारस भिक्खुपडिमाओ गुणरयण-संवच्छरं तवोकम्मं काएणं फासेत्ता जाव किट्टेत्ता, मए अब्भणुण्णाए समाणे गोयमाइ थेरे खामेत्ता, तहारूवेहिं कडादीहिं थेरेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं (सणियं-सणियं?) दुरुहित्ता, दब्भसंथारगं, संथरित्ता दब्भसंथारोवगए सयमेव पंचमहव्वए उच्चारेत्ता, बारस वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता, सढि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिम-सूर २११. गौतम! श्रमण भगवान महावीर ने गौतम से इस प्रकार कहा--गौतम! मेरा अंतेवासी मेघ नाम का अनगार, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था, वह तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन, बारह भिक्षु-प्रतिमाओं और गुणरत्न सम्वत्सर नाम के तप:कर्म का काया से स्पर्श कर यावत् कीर्तित कर मुझसे अनुज्ञा प्राप्त कर, गौतम आदि स्थविरों से क्षमायाचना कर तथारूप कृतयोग्य स्थविरों के साथ विपुल-पर्वत पर (धीरे-धीरे?) चढ़कर उसने डाभ का बिछौना बिछाया। डाभ के बिछौने पर जा, स्वयमेव पांच महाव्रतों का उच्चारण किया। बारह वर्ष तक श्रामण्य-पर्याय का पालन किया। मासिक-संलेखना में अपने आपको कृश किया। अनशन काल में साठ भक्तों का परित्याग किया। (अंतिम समय में) आलोचना की, Jain Education Intemational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र २११-२१३ गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं बहूइंजोयणाई बहूइंजोयणसयाई बहूइंजोयणसहस्साई बहूइंजोयणसयसहस्साइंबहूओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयणकोडाकोडीओ उड्ढं दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाणसणंकुमार-माहिंद-बंभ-लंतग-महासुक्क-सहस्साराणयपाणयारणच्चुए तिण्णि य अट्ठारसुत्तरे गेवेज्जविमाणवाससए वीईवइत्ता विजए महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे। तत्थ णं अत्यंगइयाणं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं मेहस्स वि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई।। नायाधम्मकहाओ प्रतिक्रमण किया और शल्य का उद्धरण कर, समाधि अवस्था में मृत्यु के समय, मृत्यु का वरण कर, वह ऊपर-चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और ताराओं से अनेक योजन, अनेक शतयोजन, अनेक सहस्रयोजन, अनेक लक्षयोजन, अनेक कोटियोजन, अनेक कोटि-कोटि योजन से भी ऊपर, दूर तक उत्पतन कर, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत और तीन सौ अठारह ग्रैवेयक के विमानवासों का अतिक्रमण कर विजय नाम के अनुत्तर महाविमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। वहां कुछ देवों की स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है। वहां मेघ देव की स्थिति भी तैंतीस सागरोपम है। २१२. एस णं भते. मेहे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ? कहिं उववज्जिहिइ? ___ गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुझिहिइ मुच्चिहिइ परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ॥ २१२. भंते! यह 'मेघ' देव आयु क्षय, स्थिति क्षय और भव क्षय के५२ अनन्तर, उस देवलोक से च्यवन कर५३ कहां जायेगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम! वह महाविदेह क्षेत्र में, सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत होगा, सब दुःखों का अंत करेगा। निक्खेव-पदं २१३. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं अप्पोलंभनिमित्तं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते। --त्ति बेमि निक्षेप पद २१३. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता तीर्थकर यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने आत्मोपलब्धि के लिए ज्ञाता के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। --ऐसा मैं कहता हूं। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा महुरेहिं निउणेहि, वयणेहिं चोययंति आयरिया। सीसे कहिंचि खलिए, जह मेहमुणिं महावीरो ।।।। वृत्तिकार द्वारा समुद्भुत निगमनगाथा१. शिष्य यदि कहीं स्खलित हो जाता है, तो आचार्य उसे मधुर और निपुण वचनों से प्रेरित करते हैं, जैसे मेघ मुनि को महावीर ने प्रेरित किया। Jain Education Intemational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १ १. उस काल और उस समय (तणं कालेणं तेणं समएणं) यहां काल से सामान्यकाल विवक्षित है, जैसे अवसर्पिणी काल का चौथा विभाग। समय से निश्चित कालावधि विवक्षित है, जैसे वह समय जिस समय में चम्पानगरी, अमुक राजा अथवा सुधर्मा स्वामी थे। 'तणं कालेणं तेणं समएणं'--यहां सप्तमी के अर्थ में तृतीया विभक्ति है। वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप से इसे तृतीयान्तपद भी माना है। हेत्वर्थ में तृतीया विभक्ति की संभावना है। तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई खण्ड १ / पृ. ११ २. वर्णक (वण्णओ) यह सूचक पद है। सूत्र १, २, ३ में क्रमशः चम्पानगरी, पूर्णभद्र चैत्य और कोणिक राजा का विस्तृत वर्णन औपपातिक सूत्र १, २, १३ और १४ के अनुसार वक्तव्य है। तुलना के लिए द्रष्टव्य भगवई खण्ड १/१. ११ सूत्र २ ३. चैत्य (चेइए) चैत्य शब्द का अर्थ है -- व्यन्तर का आयतन । द्रष्टव्य भगवई खण्ड १/पृ. १२ टिप्पण ५. स्थविर (घेरे) ४. अन्तेवासी (अंतेवासी) अन्तेवासी का अर्थ है-गुरु के निकट रहने वाला आगम ग्रन्थों में गौतम को सर्वत्र भगवान महावीर का ज्येष्ठ अन्तेवासी कहा गया है। तुलना के लिए भ्रष्टव्य भगवई खण्ड १/ पृ. १४, १५ सूत्र ४ गये हैं। 'स्यविर का अर्थ है वृद्ध ठाणं में तीन प्रकार के स्थविर बतलाये १. जाति स्थविर जो जन्म पर्याय से साठ वर्ष का हो। २. श्रुत - स्थविर -- जो स्थानांग और समवायांग का धारक हो । १३. पर्याय - स्थविर -- जो बीस वर्ष की संयम पर्याय वाला हो । १. ज्ञातावृति, पत्र-१ अथ कालसमययोः कः प्रतिविशेषः? उच्यते काल इति सामान्यकालः, अवसर्पिण्याश्चतुर्थविभागलक्षणः समयस्तु तद्विशेषो यत्र सा नगरी, स राजा सुधर्माः स्वामी च बभूव। २. ही अथवा तृतीय ततस्तेन कालेन अवसर्पिणीयतुरकललगेन हेतुभूतेन तेन समयेन तद्विशेषभूतेन हेतुना । ३. वही, पत्र- ४ - चैत्यं व्यन्तरायतनम् । ४. ठाणं ३/१८७ प्रस्तुत प्रसंग में स्थविर शब्द श्रुत स्थविर के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ६. प्रस्तुत सूत्र ( सूत्र ४) के विमर्शनीय पद १. बल - सम्पन्न -- बल का अर्थ है विशिष्ट संहनन के साथ उपलब्ध होने वाला प्राण । * शक्ति सम्पन्नता के बिना किसी भी क्षेत्र में वैशिष्ट्य अर्जित नहीं किया जा सकता। वीर्य हीन ज्ञान आदि में प्रवृत्त नहीं हो सकता । तत्त्वार्थ वार्तिक में तीन प्रकार की बलालम्बना ऋद्धि का वर्णन है--मनोबली, वचनबली और कायबली । मनोबली-मन श्रुतावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशम के प्रकर्ष के कारण जो अन्तर्मुहूर्त में सफलश्रुत के उच्चारण में समर्थ होते हैं। वचनबली--सतत उच्च स्वर से श्रुत का उच्चारण करने पर भी जो थकते नहीं और जिनका कण्ठ स्वर दुर्बल नहीं होता वे वचनबली कहलाते हैं। कायवती वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से आविर्भूत असाधारण कायबल के कारण जो मासिक चातुर्मासिक, साम्वत्सरिक आदि प्रतिमायोग को धारण करने पर श्रान्ति और क्लान्ति से रहित रहते हैं, वे कायबली कहलाते हैं। २. रूप-सम्पन्न--रूप का अर्थ है शरीर का सौन्दर्य । देवता मनुष्य से अधिक सुन्दर होते हैं। उनमें सर्वाधिक सुन्दर होते हैं अनुत्तरविमानवासी देव । सुधर्मा स्वामी का सौन्दर्य उनसे भी अनन्तगुणा अधिक था । ३. लाघव सम्पन्न -- लाघव दो प्रकार का होता है-१. द्रव्य लाघव उपधि की अल्पता । -- टिप्पण | -- गौरव -- गौरवत्रिक का परित्याग । २. भाव लाघव - ऋद्धि गौरव, रस गौरव और साता विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य उत्तरायणाणि २९ / ४३ का ४. ओजस्वी - - ओज से युक्त, आभासम्पन्न । ५. तेजस्वी -- शारीरिक दीप्ति से ११ युक्त ६. वर्चस्वी - - वृत्तिकार ने 'वच्चंसी' के दो संस्कृत रूप दिए है वचस्वी और वर्चस्वी । जिसका वचन सौभाग्य आदि गुणों से युक्त होता है वह वचस्वी कहलाता है। ५. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८-- घेरे ति श्रुतादिभिर्वृद्धत्वात् स्थविरः । ६. वही, बलं संहननविशेषसमुत्यः प्राणः । ७. निशीथभाष्य गाथा ४८. -- ण हु वीरियपरिहीणो पवत्तते नाणमादीसु । ८. तत्त्वार्थ वार्तिक- ३/३७ पृ. २०३ ९. तावृति पत्र ८. रूपं अनुत्तरसुररूपादनन्तगुणं शरीरसौन्दर्यम्। १०. वही, लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं, भावतो गौरवत्रयत्यागः । १९. वही - तेजस्वी तेज:-- शरीरप्रभा तद्वांस्तेजस्वी । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ६ नायाधम्मकहाओ वर्च का अर्थ है तेज, प्रभाव। जिसका व्यक्तित्व प्रभावशाली होता अभिनव कर्म परमाणुओं का अवरोधक है संयम। मोक्ष साधना में ये दोनों है, वह वर्चस्वी कहलाता है। वच्चंसी का वर्चस्वी रूप अधिक संगत है। उपादेय हैं। उक्त चारों शब्दों में अनुस्वार का प्रयोग अलाक्षणिक है। १०. चरण प्रधान, करण प्रधान ७. यशस्वी जैसे तप: प्रधान, गुणप्रधान--ये आर्य सुधर्मा के विशेषण हैं वैसे ही यशस्वी का अर्थ है--प्रख्यात करण चरण से लेकर चरित्र शब्द तक प्रधान शब्द की योजना करने से करण-प्रधान, चरण प्रधान आदि इक्कीस विशेषण और बन जाते हैं। ८. क्रोध विजेता.....लोभ विजेता वृत्तिकार के अनुसार करण-प्रधान, चरण-प्रधान--ये सब गुण यहां क्रोध-विजेता आदि का प्रयोग उदय प्राप्त क्रोध, मान, माया पान की व्याख्या के अंग हैं।" और लोभ को विफल करने की अपेक्षा से हुआ है। क्रोध विजय की तीन भूमिकाएं हैं-- ११. करण १. क्षीणावस्था--इस भूमिका में क्रोध क्षीण हो जाता है। पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना आदि उत्तरगुणों को करण कहा २. शान्तावस्था--इस भूमिका में क्रोध शान्त रहता है। जाता है। ओघनियुक्ति में करण की समग्र परिभाषा उपलब्ध है। उसके ३. विफलावस्था--इस भूमिका में क्रोध का उदय होता है किन्तु अनुसार पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रिय-निरोध, प्रतिलेखन, संयम के कारण वह सफल नहीं हो पाता। क्रोध का आवेश आने पर गुप्ति और अभिग्रह--ये करण हैं।' अपशब्द का प्रयोग करना अथवा गाली देना, हाथ उठाना, मुक्का तानना-इन १२. चरण व्यवहारों से क्रोध सफल होता है। जो व्यक्ति उक्त व्यवहार नहीं करता, महाव्रत, श्रमणधर्म, संयम, वैयावृत्य आदि को चरण कहा जाता है।" उसका क्रोध विफल हो जाता है। ओघनियुक्ति के अनुसार व्रत, श्रमणधर्म, संयम, वैयावृत्य, ब्रह्मचर्य, वृत्तिकार ने लिखा है कि सुधर्मा स्वामी उदय प्राप्त क्रोध को विफल गुप्तियां, ज्ञानादित्रिक, तप और क्रोध आदि का निग्रह चरण है। कर देते थे इसीलिए उन्हें क्रोधजयी कहा जाता था। चरण और करण का अंतर स्पष्ट है--नित्यमनुष्ठानं चरणं यत्तु मानजयी आदि की व्याख्या भी इसी नय से की जा सकती है। प्रयोजनमापन्ने क्रियते तत्करणमिति । १२ दशवैकालिक में मूल गुण और उत्तर गुण रूप चारित्र को ही चर्या ९. तप से प्रधान, गुण से प्रधान कहा गया है। आर्य सुधर्मा का तप प्रधान था। गुण का अर्थ है--संयम के साधक गुण अथवा संयम-साधना से निष्पन्न गुण।' १३. निग्रह तप, नियम, संयम, स्वाध्याय--ये सब गुण हैं। यहां संयम गुण का निग्रह का अर्थ है--नियंत्रण की क्षमता का विकास । लौकिक पक्ष ही एक अंग है। आर्य सुधर्मा में इन गुणों का विशेष विकास था। में शासक द्वारा अपराधी लोगों का निग्रह किया जाता है। आध्यात्मिक जैन साधना पद्धति के मुख्य दो अंग हैं--संवर और निर्जरा। साधना के पक्ष में साधक के द्वारा इन्द्रियों का निग्रह किया जाता है। तप: प्रधान और गुणप्रधान-इन दोनों विशेषणों द्वारा ये ही दोनों सुधर्मा स्वामी का निग्रह प्रधान था। वृत्तिकार ने निग्रह का अर्थ अनाचार अंग अभिगृहीत हुए हैं। पूर्वबद्ध कर्मों के निर्जरण का हेतु है तप और प्रवृत्ति का निषेध किया है।" . १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८--वचो--वचनं सौभाग्याधुपेतं यस्यास्ति स वचस्वी; ___ अथवा वर्च:--तेज: प्रभाव इत्यर्थस्तद्वान् वर्चस्वी। २. वही--यशस्वी--ख्यातिमान्। ३. वही--क्रोधादिजय उदयप्राप्त क्रोधादि-विफलीकरणतोऽवसेयः । ४. वही-गुणा: संयमगुणाः। ५. वही--एतेन च विशेषणद्वयेन तप:संयमो पूर्वबद्धाभिनवयोः ___ कर्मणोर्निर्जरणानुपादानहेतू मोक्षसाधने मुमुक्षूणामुपादेयावुपदर्शितौ। ६. वही--यथा गुणशब्देन प्रधान-शब्दोत्तर-पदेन तस्य विशेषणमुक्तमेवं करणादिभिरेकाविंशत्या शब्दैरेकविशति-विशेषणान्यध्येयानि, तद्यथा-- करणप्रधानश्चरणप्रधानो यावच्चरित्रप्रधानः। ७. वही--गुणप्राधान्ये प्रपञ्चार्थमेवाह एवं करणे'-त्यादि । ८. वही--करणं पिण्डविशुद्धयादिः, यदाह 'पिंडविसोही समिईं भावणं इत्यादि। ९. ओघनियुक्ति, पत्र-१३--भाष्यगाथा ३-- पिण्डविसोही समिईभावण, पडिमा य, इंदियनिरोहो। पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु।। १०. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८--चरणं महाव्रतादि, आह च--'वय समण धम्म संजमवेयावच्चं च' इत्यादि। ११. ओघनियुक्ति, पत्र-११. भाष्यगाथा २-- वय समणधम्म संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव कोहनिग्गहाइ चरणभेयं ।। १२. वही, पत्र-१४ १३. दसवेआलियं, जिनदासचूर्णि पृ. ३७०--चरिया चरित्तमेव मूलुत्तरगुणसमुदायो। १४. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८. निग्रह:--अनाचारप्रवृत्तेर्निषधनं । Jain Education Intenational For Private & Personal use only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकाओ १४. निश्चय निश्चय के दो अर्थ हैं -- तत्त्व-निर्णय अथवा विहित अनुष्ठानों को अवश्य करने का अभ्युपगम । इससे उनकी निर्णायक क्षमता और तीव्र संकल्प शक्ति का परिचय मिलता है। १५. दक्षता (लाघव) प्रस्तुत सूत्र में लाघव शब्द दो बार प्रयुक्त हुआ है। पहला लघुता के अर्थ में और दूसरा दक्षता के अर्थ में । दक्षता के अर्थ में लाघव शब्द भी है। शिल्प आदि के लिए कहा जाता है- यह सब हस्त लाघव है। यहां लाघव प्रधान से तात्पर्य है आर्य सुधर्मा की प्रत्येक प्रवृत्ति दक्षतापूर्ण थी। लाघव शब्द के दोनों अर्थ वृत्ति के आधार पर किए गए हैं। भगवती वृत्ति में भी ऐसा ही मिलता है। मीमांसा करने पर प्रतीत होता है कि आर्जव और मार्दव के साथ लाघव के प्रयोग का संबंध दस प्रकार के श्रमण धर्म में आए लाघव के साथ है। उसका अर्थ अल्पोपधि और गौरवत्रिक का त्याग होना चाहिए। बल, रूप आदि के साथ प्रयुक्त लाघव शब्द का संबंध दक्षता के साथ होना चाहिए । १६. विद्या, मंत्र विद्या और मंत्र के प्रयोग से विशिष्ट शक्तियां जागृत होती है। साधना विधि, अधिष्ठान-भेद और आकृति - विन्यास की दृष्टि से इन दोनों में कुछ भेद हैं। जैसे- विद्या - प्रज्ञप्ति आदि स्त्री देवता द्वारा अधिष्ठित होती है। जिसकी आराधना-साधना सापेक्ष हो । मंत्र--हरिणेगमेषी आदि पुरुष देवता द्वारा अधिष्ठित होता है । जिसकी आराधना - साधना निरपेक्ष हो । निशीथ भाष्य चूर्णि में मिलता है- इत्थी अभिहाणा ससाहणा वा विज्जा । पुरिसाभिहाणो, पढियसिद्धो य मंतो ।। " उत्तराध्ययन] बृहद्वृत्ति में मंत्र के संबंध में विशेष जानकारी मिलती है जो देवताधिष्ठित होता है, जिसके आदि में 'ऊँ' और अन्त 1 में 'स्वाहा' होता है, जो 'ही' आदि वर्ण विन्यासात्मक होता है, उसे मंत्र १. ज्ञातावृत्ति पत्र ८-- निश्वयः -- तत्त्वानां निर्णयः विहितानुष्ठानेषु वाऽवयं करणाभ्युपगमः । २ . वही -- लाघवं क्रियासु दक्षत्वम् । " ३. भगवई, खण्ड १, पृ. २६८, २६९ ४. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ८-- विद्या: प्रज्ञप्त्यादिदेवताधिष्ठिता वर्णानुपूर्व्यः, मन्त्राः हरिणे गमिष्यादिदेवताधिष्ठितास्ता एव अथवा विद्याः ससाधना:, साधनारहिता: मन्त्राः | ५. निशीथभाष्य, भाग ३, पृ. ४२२ ६. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र-४१७-- 'मन्त्रम्' ऊँकारादि स्वाहापर्यन्तो ह्रींकारादि ६३ प्रथम अध्ययन टिप्पण ६ कहा जाता है।' विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य उत्तरज्झयणाणि १५/८ का टिप्पण | १७. ब्रह्मचर्य वृतिकार ने बंभ का मूल अर्थ ब्रह्मचर्य ही किया है। वैकल्पिक रूप से सब प्रकार के कुशल अनुष्ठान को ब्रह्म माना है। १८. वेद 1 वेद शब्द का अर्थ है-ज्ञान, अनुभव या सवेदन आर्य सुधर्मा ज्ञान-सम्पन्न थे, यह उल्लेख पहले आ चुका है। अतः यहां वेद का अर्थ आगम है। इसकी पुष्टि निशीथ चूर्णि से भी होती है। वहां आयारो के लिए 'वेद' शब्द प्रयुक्त हुआ है।" वृत्तिकार ने वेद का अर्थ आगम किया है। आगम के तीन प्रकार हैं-- लौकिक, लोकोत्तर, कुप्रावचनिक ।' आर्य सुधर्मा इन तीनों के अधिकृत ज्ञाता थे । १९. नय नीति अथवा नैगम आदि नय । २०. नियम विचित्र प्रकार के अभिग्रह । शान्त्त्याचार्य ने भी अभिहात्मक व्रत को नियम कहा है।" योग-दर्शन सम्मत अष्टांग योग में नियम का स्थान दूसरा है उसके अनुसार शौच, संतोष, स्वाध्याय, तप और देवता प्रणिधान ये नियम कहलाते हैं। " २१. शौच शौच के दो प्रकार हैं--द्रव्य शौच और भाव शौच । द्रव्य शौच निर्लेपता | भाव शौच--अनवद्य समाचरण ।' यह दशविध श्रमण धर्म का एक प्रकार है। इसका तात्पर्य है अर्थ के प्रति होने वाली अनाकांक्षा । वर्णविन्यासात्मकस्तम्। ७. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ८-- ब्रह्म ब्रह्मचर्यं सर्वमेव वा कुशलानुष्ठानम् । ८. निशीथभाष्य पीठिका गा. १ व भवेरमइओ अारसपसाहस्सिओ वेओ । ९. ज्ञातावृत्ति पत्र-८--वेद आगमो लौकिक लोकोत्तर- कुप्रवचनिकभेदः । १०. वही नियमा: विचित्रा अभिग्रहविशेषा: । ११. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र- ४५१-४५२ - नियमश्च द्रव्याद्यभिग्रहात्मकः । १२. पातञ्जल योगदर्शन २ / ३२ -- शौचसन्तोषतपः - स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः । १३. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ८ -- शौचं द्रव्यतो निर्लेपता, भावतोऽनवद्यसमाचारताः । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ६-७ नायाधम्मकहाओ २२. ज्ञान, दर्शन, चारित्र वस्तुओं को जला सकती है। ज्ञान-मतिज्ञान आदि। अध्यात्म के क्षेत्र में उपलब्ध शक्ति का प्रयोग निषिद्ध है। आर्य दर्शन-सम्यक् दर्शन। सुधर्मा विपुल तेजोलेश्या को अपने भीतर समेटे हुए थे। इससे यही चारित्र-बाह्य सदनुष्ठान। ध्वनित होता है कि वे महान शक्तिधर थे। अनुग्रह और निग्रह करने में प्रस्तुत सूत्र में आर्य सुधर्मा के व्यक्तित्व वर्णन में पहले समर्थ थे फिर भी वे सदा आत्मलीन रहते थे। उस शक्ति का प्रयोग नहीं क्रोधजयी.....लोभजयी के रूप में उल्लेख हुआ है और फिर बताया गया करते थे। कि वे आर्जव, मार्दव, लाघव और क्षान्ति सम्पन्न थे। सामान्यत: लगता तेजोलेश्या एक विशेष प्रकार की प्राण शक्ति है। ठाणं और है पुनरुक्ति हुई है, किन्तु वृत्तिकार ने इसका स्वयं समाधान प्रस्तुत कर । भगवती में इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा है। तेजोलब्धि से सम्पन्न दिया है। व्यक्ति अपने स्थान पर खड़ा-खड़ा अंग-बंग जैसे विशाल १६ प्रान्तों को जियकोहे........आदि का अर्थ है उदय प्राप्त क्रोध आदि का कुछ क्षणों में भस्म कर सकता है। यह आणविक आयुधों से भी भयानक विफलीकरण और अज्जवप्पहाणे आदि से अभिप्रेत है क्रोध आदि कषायों शक्ति है। यह शक्ति नष्ट करने की ही नहीं, अपितु सुरक्षा के उपयोग के उदय का निरोध। की भी है। शीतलतेजोलेश्या भयानक आग को शान्त कर सकती है। जिस वे जितक्रोध आदि हैं इसलिए क्षमादि प्रधान हैं। इस हेतुहेतुमद्भाव व्यक्ति को तेजोलब्धि उपलब्ध हो जाती है उस व्यक्ति का भी इस से भी दोनों प्रयोगों के अर्थ की भिन्नता का बोध होता है। यही दो बार लब्धि से कोई अहित नहीं किया जा सकता। ठाणं सूत्र में बताया गया है प्रयोग करने की सार्थकता है। कि तेजोलब्धि सम्पन्न श्रमण माहण की आशातना करता हुआ कोई व्यक्ति उस पर लब्धि का प्रयोग करता है तो वह लब्धि उसके शरीर में प्रवेश २३. घोर नहीं कर सकती, मार नहीं सकती। उसके शरीर के ऊपर, नीचे, दायें, परिषह, इन्द्रिय और कषाय रूप शत्रुओं के विनाश के लिए बायें प्रदक्षिणा देती हुई, आकाश मार्ग से लौट कर, जिसने लब्धि का प्रयोग भीम। किया उसी के शरीर में प्रविष्ट हो जाती है। गोशालक ने भगवान महावीर घोर एक विशेष प्रकार की साधना थी। जो साधक प्रत्येक कष्ट पर लब्धि का प्रयोग किया। उस लब्धि ने पुन: उसके शरीर में प्रवेश कर को सह लेता, परिस्थिति से पराजित नहीं होता वह घोर कहलाता। उसको ही प्रतिहत किया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। २४. घोरव्रती, घोरतपस्वी, घोरब्रह्मचर्यवासी तेजोलब्धि से जैसे उष्ण विस्फोट होता है वैसे ही शीतल विस्फोट इसका तात्पर्य है, उन जैसा व्रत, तप और ब्रह्मचर्य वास अन्य भी किया जाता है। ठाणं में संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या की उपलब्धि के अल्पसत्व साधकों के लिए दुरनचुर है। इससे आर्य सुधर्मा की अद्भुत का तीन उपाय बताये गए हैं--आतापना, क्षान्ति (क्षमा), निर्जल तप:कर्म। सत्त्वशीलता का परिचय मिलता है। तेजोलब्धि की दो अवस्थाएं होती हैं--संक्षिप्त और वितत । इन्हें जो अत्यन्त दुर्धर महाव्रतों को धारण किए हुए हो, उसे घोरव्रती सुप्त और जागृत भी कहा जा सकता है। सामान्य अवस्था में यह संक्षिप्त कहा जाता है। या सुप्त रहती है और प्रयोगकाल में जागृत हो जाती है। विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य भगवई खण्ड १ पृष्ठ १६-१७ विस्तार हेतु द्रष्टव्य-भगवई खण्ड १, पृ. १७ २५. विपुल तेजोलेश्या को अपने भीतर समेटे हुए सत्र६ तेजोलेश्या तपोजनित विशिष्ट लब्धि है। इससे शरीर में ऐसी ७. समचतुष्कोण संस्थान से संस्थित (समचउरंससंठाणसंठिए) प्रखर तेजोज्वाला प्रकट होती है जो अनेक योजन परिमित क्षेत्र में स्थित द्रष्टव्य--उत्तरज्झयणाणि २२/६/३ १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८--ज्ञानं मत्यादि, दर्शन--चक्षुदर्शनादि सम्यक्त्वं वा, स तथा घोरैस्तपोभिस्तपस्वी च तथा घोरं च तद्ब्रह्मचर्य चाल्पसत्त्वैर्दुःखं चारित्रं बाह्यं सदनुष्ठानं। यदनुचर्यत तस्मिन् घोरब्रह्मचर्य वस्तुं शीलमस्येति घोरब्रह्मचर्यवासी। २. वही-ननु जितक्रोधत्वादीनां आर्जवादीनां च को विशेष:? ५. उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति, पत्र ३६५-घोरवतो धृतात्यन्तदुर्द्धरमहाव्रतः । उच्यते-जितक्रोधादिविशेषणेषु तदुदय-विफलीकरणमुक्तं, मार्दव- ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-९--‘संखित्तत्ति - संक्षिप्ता शरीरान्तर्वर्तिनी विपुला प्रधानादिषु तु उदयनिरोधः, अथवा यत एव जितक्रोधादिरत एव क्षमादि- अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रित वस्तुदहनसमर्था तेजोलेश्या-विशिष्टतप्रधान इत्येवं हेतुहेतुमद्भावात् विशेषः । पोजन्यलब्धि: विषयप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः । ३. वही--घोरत्ति--घोरो निघृण: परिषहेन्द्रियकषायाख्यानां रिपूणां विनाशे ७. ठाणं १०/१५९ पृ. ९४७ ८. ठाणं ३/३८६ तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे सखित्तविउलतेउलेस्से हवइ, तं ४. वही--घोरव्वए ति - घोराणि--अन्यैर्दुरनुचराणि व्रतानि महाव्रतानि यस्य जहा--आयावणताए, खंतिखमाए, अपाणगेण तवोकम्मेणं । कर्तव्ये। Jain Education Intenational Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ६५ ८. वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त ( वइररिसहणारायसंघयणे ) संकलन का अर्थ है शरीर की अस्थि संरचना देव और नरक गति के जीव वैक्रिय शरीर वाले होते हैं। उस शरीर में रस, रक्त, मांस आदि सातों ही धातुएं नहीं होतीं। इसलिए वहां अस्थि संरचना का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। मनुष्य और तिर्यंच गति में उत्पन्न होने वाले जीवों के औदारिक शरीर होता है। यह शरीर रक्त, मांस, रस आदि धातुओं से निर्मित होता है अतः संहनन इसी शरीर में प्राप्त होते हैं। वज्रऋषभनाराच - पद में तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं-वज्र, ऋषभ और नाराय। अस्थिकील के लिए बज्र, परिवेष्टन अस्थि के लिए ऋषभ और परस्पर गुंथी हुई आकृति के लिए नाराच शब्द का प्रयोग किया गया है। इस संहनन में तीन अस्थियों को भेदकर आर-पार एक अस्थिकील (बोल्ट) कसा हुआ होता है। यह सर्वोत्कृष्ट शक्तिशाली संहनन है शुक्ल ध्यान की साधना और मोक्ष गमन के लिए इस संहनन का होना जरूरी है। शलाका पुरुषों (तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि) के भी इसी प्रकार की अस्थिरचना होती है। उत्कृष्ट साधना की भांति उत्कृष्ट क्रूर कर्म भी इसी अस्थि रचना वाले प्राणी करते हैं। एक ओर मोक्ष तथा दूसरी ओर तमतमा प्रभा (सप्तम) नरक - एक ही माध्यम से ये दो परिणतियां पुरुषार्थ के सम्यक् और असम्यक् प्रयोग पर निर्भर करती है। चिकित्सा शास्त्र में स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अस्थि संरचना पर बहुत ध्यान दिया गया है। स्वस्थ शब्द का एक अर्थ है - जिसकी अस्थियां शोभन हों, मजबूत हों । स्वास्थ्य के संदर्भ में यही अर्थ अधिक उपयुक्त होता है। संहनन की पूरी जानकारी के बाद यह अर्थ निकलता है कि साधना और स्वास्थ्य दोनों दृष्टियों से अस्थि संरचना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। द्रष्टव्य- भगवई खण्ड १. पृ. १५, १६ उत्तरायणाणि २२ / ६ का टिप्पण ९. उग्र तपस्वी........घोर ब्रह्मचर्यवासी (उग्गतवे .......घोर बंभचेरवासी) उक्त नौ विशेषणों से आर्य जम्बू की विशिष्ट आध्यात्मिक संपदा परिलक्षित हो रही है । वृत्ति में इन शब्दों की व्याख्या या अर्थ परम्परा उपलब्ध नहीं है। तत्त्वार्थ वार्तिक में तप के अतिशय की ऋद्धि सात प्रकार की १. तत्वार्थवार्तिक ३३६ २०३ तपोतिशयर्द्धि सप्तविधा आदीप्ततप्त महाघोर तपो पराक्रम-घोर ब्रह्मदत् २. वही - चतुर्थषष्ठाष्टमदशम- द्वादश-पक्ष-मासाद्यनशनयोगेषु अन्यतमयोगमारभ्य आमरणादनिवर्तका उग्रतपसः । ३. वही--महोपवासकरणेऽपि प्रवर्धमानकायवाङ्मानसबलाः विगन्धिरहितवदनाः पद्मोत्पलादि सुरभिनिः प्रवासा अप्रच्युतमहादीप्तिशरीरा दीप्ततपसः । ४. वही सप्तापसकटाहपतितवदारवल्पाहारया मलरुधिरादिभावपरिणामविरहिताभ्यवहाराः तप्ततपसः । ५. वही सिंहनिष्क्रीडितादिमहासानुष्ठानपरायणयतयो महातपस्विनः । प्रथम अध्ययन : टिप्पण ८-१० बतलाई गई है, जैसे-उग्र तप दीप्त तप, राप्त तप, महातप, घोर तप, वीर पराक्रम और घोर ब्रह्मचर्य ।' तत्त्वार्थ वार्तिक में वीर पराक्रम- यह प्रयोग नया है। ज्ञाता में उराल, घोर और घोरगुणये तीन शब्द नए हैं। १. उग्रतपस्वी --जो एक, दो, तीन, चार, पांच अथवा पाक्षिक, मासिक आदि उपवास योग में से किसी एक का प्रारम्भ कर जीवन पर्यन्त उसका निर्वाह करता है, उसे उग्रतपस्वी कहा जाता है। २ २. दीप्त तपस्वी -- कई उपवास कर लेने पर भी जिसका कायिक, वाचिक और मानसिक बल प्रवर्धमान रहता है, मुंह दुर्गन्ध रहित रहता है, निःश्वास से पद्मोत्पल आदि की भांति सुरभि फूटती है और शरीर की दीप्ति विनष्ट नहीं होती, उन्हें दीप्त तपस्वी कहा जाता है। * ३. तप्त तपस्वी--जैसे तपे हुए लोहे के तवे पर गिरा हुआ जलकण शीघ्र ही सूख जाता है, वैसे ही जिनके द्वारा ग्रहण किया हुआ शुष्क एवं स्वल्प आहार शीघ्र ही परिणत हो जाता है, उसकी मल- रुधिर आदि में परिणति नहीं होती, उन्हें तप्त तपस्वी कहा जाता है। * ४. महातपस्वी --सिंहनिष्क्रीडित आदि महान तपोनुष्ठान परायण यतिजनों को महातपस्वी कहा जाता है। " ५. घोरतपस्वी बात, पित्त, कफ और सन्निपात से होने वाले नाना प्रकार के रोगों के होने पर भी जो अनशन, कायक्लेश आदि में मन्द नहीं होते । भयानक श्मशान, पर्वत की गुफा आदि में रहने के अभ्यास हैं, उन्हें घोरतपस्वी कहा जाता है।' I ६. पोरब्रह्मचर्यवासी चिरकाल से आसेवित होने से जिनका ब्रह्मचर्यवास अस्खलित होता है चारित्र मोह के प्रकृष्ट क्षयोपशम के कारण जिनके दुःस्वप्न भी प्रगष्ट हो जाते हैं, उन्हें घोर ब्रह्मचर्यवासी कहा जाता है। " १०. लघिमा ऋद्धिसम्पन्न (उच्छूढसरीरे) दशवैकालिक में उच्छूदशरीरे के अर्थ में बोसट्टचत्तदेहे शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ है जिसने शरीर का व्युत्सर्ग और त्याग किया हो ।' व्युत्सर्ग और त्याग ये दोनों प्रायः समानार्थक हैं फिर भी आगम ग्रन्थों में इनका प्रयोग विशेष अर्थ में हुआ है। अभिग्रह और प्रतिमा स्वीकार कर शारीरिक क्रिया के स्थाग के अर्थ में व्युत्सर्ग का और शारीरिक परिकर्म (साजसज्जा) के परित्याग के अर्थ में त्याग शब्द का ६. वही--वातपित्तश्लेष्मसन्निपातसमुद्भूत ज्वरकासश्वासाक्षिशूतकुष्ठप्रमेहादिविविधरोगसन्तापितदेहा अपि अप्रच्युताऽनशनकायक्लेशादितपसो श्रीम- श्मशानाद्रिमस्तक- गुहादरी-कन्दर शून्य-ग्रामादिषु प्रदुष्टयक्ष-राक्षसपिशाच- प्रनृत्तवेताल-रूप-विकारेषु परुषशिवारुतानुपरतसिंहव्याघ्रादिव्यालमृगभीषण- स्वन घोर चौरादि प्रचरितष्वभिरुचितावासाश्च घोरतपसः । ७. तत्त्वार्थवार्तिक ३/३६ पृ. २०३. - - चिरोषिताऽस्खलितब्रह्मचर्यवासाः प्रकृष्ट-चारित्रमोहनीयक्षयोपशमात् प्रष्ट दुखन्ना: पोरब्रह्मचारिणः । - ८. दशवेकालिक १०/१३-असई वोचत्तदे ९. दशवैकालिक अगस्त्यचूर्णि -वोसट्ठ चत्तो य देहो जेण सो वोसट्टचत्तदेहो । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण १०-१६ ६६ प्रयोग होता है ।' 'उच्छूढ़शरीरे' यह उक्त दोनों शब्दों के अर्थ का प्रतिनिधित्व करता है । विवरण हेतु द्रष्टव्य-- भगवई खण्ड १ पृ. १७ ११. ऊर्ध्व जानु अध: सिर ( उकडू आसन की मुद्रा में ) ( उड्ढं जाणू अहो सिरे) मुनि के लिए शुद्ध पृथ्वी (आसन बिछाए बिना सीधे मिट्टी) पर बैठना निषिद्ध है तथा वे औपग्रहिक (वर्षाकाल आदि में रखे जाने वाले) आसन रखते नहीं थे । इसलिए उकडू आसन में बैठते थे । 'उड्ढं जाणू' से उकडू आसन अर्थ लभ्य होता है। शिवनृत्य में शिव को नृत्य करते समय ऊर्ध्व जानुपाद कहा गया है। यहां ऊर्ध्व जानु यह शब्द साम्य है। अनुश्रुति के अनुसार शिवजी जब नृत्य करते थे, एक पांव को सिर पर रख लेते थे। उनकी इस अवस्था का वर्णन करते हुए 'उन्हें 'उत्थित वामपाद' भी कहा गया है। कहते हैं तेरापंथ धर्मसंघ के मुनि आनन्दरामजी कन्धों पर दोनों पांव रखकर घंटों तक ध्यान कर सकते थे। हो सकता है उड्ढे जाणू शब्द किसी विशिष्ट ध्यानमुद्रा का सूचक रहा हो। विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य--भगवई खण्ड १ पृ. १८, १९ १२. ध्यान कोष्ठक में प्रविष्ट होकर (झाणकोडोवगए) यहां ध्यान को एक कोष्ठक माना गया है। जो ध्यान कोष्ठक में चला जाता है उसे ध्यान कोष्ठोपगत कहा गया है। जैसे कोठे में डाला गया धान बिखरता नहीं, वैसे ही ध्यान कोष्ठक में प्रविष्ट साधक की इन्द्रिय चेतना और मानस चेतना बिखरती नहीं। वह संवृतात्मा बन जाता है। आगमों में मुनि के लिए अनेकश: झाणकोट्ठोवगए विशेषण का प्रयोग हुआ है। द्रष्टव्य-- भगवई खण्ड १ पृ० १९ १३. संयम और तप से (संजमेण तपसा ) -- यहां वृत्तिकार ने संयम का अर्थ संवर और तप का अर्थ किया है। महाव्रत, समिति, गुप्ति, इन्द्रिय निग्रह और मनोनिग्रह-न सबका समाहार संयम शब्द में होता है। ध्यान- द्वादशांग तप में अन्तरंग १. वही वोसो पहिमादिसु विनिवृत्तयो हामदणातिविभूषाविरहितो चत्तो। २. ज्ञातावृत्ति, पत्र - १० - शुद्धपृथिव्यासनवर्जनात् औपग्रहिक निषद्याभावाच्च, उत्कुटुकासनः सन्नपदिश्यते ऊर्ध्वं जानुनी यस्य स ऊर्ध्वजानुः । ३. वही - ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतः यथा हि कोष्ठके धान्य प्रक्षिप्तमविप्रकीर्ण भवत्येव स भगवान् धर्मध्यानकोष्ठकमनुप्रविश्येन्द्रियमनांस्यधिकृत्य संवृतात्मा भवतीति भावः । ४. वही - - संयमेन संवरेण तपसा ध्यानेन । ५. वही, पत्र - ११ - - वक्ष्यमाणानां पदार्थानां तत्त्वत्परिज्ञाने स तथा । ६. वही जातं कुतूहलं यस्य स तथा जातीत्सुक्य इत्यर्थः। विश्वस्यापि तप का ही एक प्रकार है 1 नायाधम्मकहाओ विवरण हेतु द्रष्टव्य--भगवई खण्ड १ पृ. १९ सूत्र ७ १४. एक श्रद्धा, एक संशय और एक कुतूहल जन्मा (जायसड्डे, जायसंसए, जायकोउहल्ले) श्रद्धा -- तत्त्वपरिज्ञान की इच्छा।" संशय--यहां संशय जिज्ञासा के अर्थ में प्रयुक्त है। संशय वास्तव में सत्य के निकट पहुंचने का द्वार है | 'न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति' संशय पर आरूढ़ हुए बिना व्यक्ति कल्याण को नहीं देख सकता। आर्य जम्बू के लिए प्रयुक्त जायसंसए जायको उहल्ले विशेषण इसी ओर संकेत करते हैं। कुतूहल -- पदार्थ या सत्य की नवीन पर्याय को उद्घाटित करने, जानने की उत्सुकता जैसे भगवतीसूत्र में समस्त विश्व व्यतिकर प्रतिपावित हो चुका है तो फिर छठे अंग में कौनसा दूसरा अर्थ अभिहित होगा?" 1 ज्ञात, संज्ञात, उत्पन्न और समुत्पन्न - ये चारों शब्द ज्ञान के क्रमिक विकास के सूचक हैं। किसी भी वस्तु का एक क्षण में परिपूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता, क्रमश: उसके नए-नए पर्याय उद्घाटित होते हैं । उक्त चारों शब्द उन नूतन ज्ञान पर्यायों के वाचक हैं। इस दृष्टि से उनमें क्रमश: अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का अर्थ अन्तर्भित है।" विवरण हेतु द्रष्टव्य-- भगवई खण्ड १ पृ. २० १५. दांयी ओर से प्रारम्भ कर प्रदक्षिणा (आयाहिणं पयाहिणं) द्रष्टव्य-- भगवई खण्ड १ पृ. २० १६. धर्म के प्रवर चतुर्दिगुजयी चक्रवर्ती (धम्मवरचाउरतचक्कवडी) में छह खण्ड वाले भारतवर्ष के अधिपति को चक्रवर्ती कहते हैं।" जिसके राज्य के एक दिगन्त में हिमवान् पर्वत और तीन दिगन्तों । समुद्र हो, वह चातुरन्त कहलाता है। इसका दूसरा अर्थ है- हाथी, अश्व, रथ और मनुष्य -- इन चारों के द्वारा शत्रु का नाश - अन्त करने वाला ।' जो चक्र के द्वारा प्रजा का पालन करता है वह चक्रवर्ती होता है। अर्हत धर्म के प्रवर चातुरन्त चक्रवर्ती होते हैं। विश्वव्यतिकरस्य पञ्चमांगे प्रतिपादितत्वात् षष्ठाङ्गस्य कोऽन्योऽय भगवताऽभिहितो भविष्यतीति । ७. वही तावदवग्रहः एवं संजातोत्पन्नसमुत्पन्न श्रद्धादईहापापधारणाभेदेन वाच्या इति । ८. उत्तराध्ययनबृहद् वृति पत्र- ३५० चक्रवर्ती पट्ण्डभरताधिपः । ९. वही मतसृष्वपि दिवन्तः - पर्यन्त एकत्र हिमवानन्यत्र च दित्रये समुद्र स्वसम्बन्धितयाऽस्येति चतुरन्तः, चतुर्भिर्वा हय- गज-रथ-नरात्मकैरन्तः - शत्रुविनाशात्मको यस्य स तथा । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ६७ प्रथम अध्ययन : टिप्पण १७-२१ १७. ज्ञाता (जिणाणं) ___ कश्मीर के उत्तर में एक ही स्थान या बिन्दु से पर्वतों की छह जिन शब्द सामान्यतया जि-जये धातु से निष्पन्न प्रतीत होता है श्रेणियां निकलती हैं। उनके नाम हैं--हिमालय, काराकोरम, कुबेनलुम, जिससे इसका अर्थ 'विजेता' गम्य होता है। इसका मूल चिन' होनाहियेनशान, हिन्दुकुश और सुलेमान। इनमें जो केन्द्र बिन्दु है, उसे पुराणों चाहिए, जो चिति-संज्ञाने से सम्बन्धित है। में मेरु पर्वत कहा गया है। यह पर्वत भूपद्म की कर्णिका जैसा है। प्राकृत में च के स्थान पर ज के प्रयोग का प्रचलन रहा है। जैसे चम्पा के दक्षिण में १६ कोस की दूरी पर मंदारगिरि नाम का एक धर्म्यध्यान के चार प्रकार आणा विजए, अवाय विजये आदि। वैसे ही यहां जैन तीर्थ है। वह आजकल मंदारहिल के नाम से प्रसिद्ध है। कुछ विद्वानों चिन शब्द से जिन बन गया। इसका अर्थ है-ज्ञाता, जानने वाला। के अभिमत से यही प्राचीन मंदर पर्वत हो सकता है। सूत्र १२ ४. महेन्द्र--टीकाकार ने महेन्द्र का अर्थ देवराज इन्द्र किया है।" १८. राजगृह (राजगिहे) किन्तु यह विमर्शनीय है क्योंकि हिमालय आदि तीन पर्वतों के साथ इन्द्र यह मगध जनपद की राजधानी थी। महाभारत के सभा पर्व में का प्रयोग संगत नहीं लगता। पर्वतवाची शब्दों के साहचर्य से महेन्द्र शब्द इसका नाम गिरिव्रज भी है। महाभारतकार तथा जैन ग्रन्थकार यहां पांच भी पर्वतवाची होना चाहिए। पर्वतों का उल्लेख करते हैं। दोनों में पर्वतों के नामों में कुछ अन्तर अवश्य सूत्र १६ है। सम्भव है इन पर्वतों के कारण ही इसे गिरिव्रज कहा गया हो। २०. उसका शरीर अहीन और प्रतिपूर्ण पांच इन्द्रियों वाला वर्तमान में इसका नाम राजगिर है। आवश्यक चूर्णि में राजगृह (अहीणपडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरे) के इतिहास के साथ-साथ समय-समय पर होने वाले नए नामकरण का भी वृत्तिकार ने अहीण पंचिंदियसरीरे पाठ मानकर व्याख्या की है। उल्लेख है। उसके अनुसार इस नगर के क्रमश: ये नाम रहे हैं क्षितिप्रतिष्ठित, उसके अनुसार इसका अर्थ होता है--जिसमें पांचों ही इन्द्रियां लक्षण और चनकपुर, ऋषभपुर, कुशाग्रपुर और राजगृह । राजगृह में एक उष्ण झरने स्वरूप की दृष्टि से अन्यून हो ऐसे शरीर वाला ।' का उल्लेख मिलता है। उसका नाम महातपोपतीरप्रभ है। चीनी प्रवासी फाहियान और हेनसांग अपनी डायरी में इस उष्ण झरने को देखने का २१. लक्षण और व्यंजन की विशेषता से युक्त (लक्खणवंजणगुणोववेए) उल्लेख करते हैं। बौद्ध ग्रन्थों में इस उष्ण झरने को तपोद कहा गया है। लक्षण--शरीरगत स्वस्तिक, चक्र आदि चिह्न । विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य - ठाणं १०/२७ का टिप्पण व्यंजन--मष, तिल. आदि ये दोनों ही प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार के होते हैं। प्रशस्त १९. (सूत्र १४) चिह्न प्रशस्त व्यक्तित्व के सूचक होते हैं। निशीथ भाष्य में लक्षण और प्रस्तुत सूत्र में हिमवान्, मलय, मन्दर और महेन्द्र-इन चार व्यंजन की व्यवस्थित जानकारी मिलती है। लक्षण के दो प्रकार पर्वतों का उल्लेख है-- हैं--बाह्य-स्वर, वर्ण आदि । अन्तरंग-स्वभाव, सत्य आदि। १.हिमवान्--हिमालय। बाह्य लक्षण--साधारण व्यक्ति के शरीर में ३२, बलदेव-वासुदेव २. मलय--मलय पर्वत। के शरीर में १०८ और चक्रवर्ती एवं तीर्थंकर के शरीर में १००८ लक्षण ३. मन्दर--मेरु पर्वत । यह सबसे ऊंचा पर्वत है। यहां से दिशाओं होते हैं। ये लक्षण शुभ कर्मोदय जनित हैं।१० का प्रारम्भ होता है। इसे नाना प्रकार की औषधियों एवं वनस्पतियों से अन्तरंग लक्षण अनेक होते हैं। प्रज्ज्वलित कहा गया है। यहां विशिष्ट औषधियां होती हैं। उनमें कुछ प्रकाश लक्षण-व्यंजन का भेद-- करने वाली होती हैं। उनके योग से मंदर पर्वत भी प्रकाशित होता है।' शरीर के मान-उन्मान, प्रमाण आदि लक्षण होते हैं और तिल-मषक सूत्रकृतांग में भी मेरु पर्वत को अनेक विशेषताओं से युक्त बताया गया है।' आदि व्यंजन होते हैं। अथवा जो शरीर के साथ उत्पन्न होता है, वह ज्ञाता में भी मेरु को दिव्य औषधियों से प्रज्ज्वलित कहा गया है। लक्षण है और जो बाद में उत्पन्न होता है वह व्यंजन है।" १. ठाणं ४/६५ ९. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१३ २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २०० १०. निशीथ भाष्य, गाथा ४२९२-९३ ३. उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति, पत्र-३५२ दुविहा य लक्खणा खलु, अभिंतरबाहिरा उ देहीणं। ४. सूत्रकृतांग १/६/१२ वृत्ति बहिया सर-वण्णाई, अंतो सब्भावसत्ताई।। ५. नायाधम्मकहाओ १/१/५६ बत्तीसा अट्ठसयं अट्ठसहस्साई च बहुतराइं च । ६. वैदिक संस्कृति का विकास, पृ. १६४ देहेसु देहीण लक्खणाणि सुहकम्मजणियाई ।। ७, ज्ञातावृत्ति, पत्र-७--महेन्द्र शक्रादिदेवराजस्तद्वत् सार: प्रधानः। ११. वही, गाथा ४२९४ ८. वही १३--अहीनानि-अन्यूनानि लक्षणतः स्वरूपतो वा, पञ्चापीन्द्रियाणि माणुम्माणप्पमाणादि लक्खणं वंजणं तु मसगादी। यस्मिंस्तत्तथाविधं शरीरं यस्य स। सहजं च लक्खणं वंजणं तु पच्छा समुप्पन्नं ।। सूत्र १४ Jain Education Interational For Private & Personal use only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण २२-२७ २२. मान, उन्मान और प्रमाण से प्रतिपूर्ण (माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्ण) ये शरीर की उचित लम्बाई, चौड़ाई और भार के सूचक शब्द है । मान--जल द्रोण प्रमाणता । पानी से भरे कुण्ड में पुरुष को बिठाने पर जो जल बाहर निकलता है, वह यदि 'द्रोण' परिमित हो तो वह मेय पुरुष मान प्राप्त कहलाता है। उन्मान--अर्धभार प्रमाणता । तुला से तुलने पर जिसका व अर्धभार होता है, वह पुरुष उन्मान प्राप्त कहलाता है। ' प्रमाण -- अपनी अंगुल से १०८ अंगुल ऊंचाई। ऐसी ऊंचाई जिसे प्राप्त होती है, वह प्रमाण प्राप्त कहलाता है। ' विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य- अणुओगदाराई पृ. २३४-२३७ २३. साम, दण्ड, भेद और उपप्रदान (साम-दंड-भेद - उवप्पयाण) राजा के तीन प्रकार की शक्तियां होती हैं--प्रभुशक्ति, उत्साह शक्ति और मंत्र शक्ति । मंत्र शक्ति के पांच प्रकार हैं--सहाय, साधन, उपाय, देशकाल का यथोचित विभाजन और विपत्ति से बचाव उपाय के चार प्रकार हैं--साम, दण्ड, भेद और उपप्रदान । प्रस्तुत सूत्र में निर्दिष्ट साम, दण्ड, भेद और उपप्रदान ये नीतियां उपाय के ही रूप हैं। शब्द और क्रम रचना में कुछ अन्तर है । साम- परस्पर उपकार प्रदर्शन और गुण कीर्तन द्वारा शत्रुओं को अपने वश में करने का उपाय। ' दण्ड -- परिक्लेश की स्थिति में शत्रु पक्ष से धन का ग्रहण । भेद-- जिस शत्रु पर विजय प्राप्त करना हो, उसके परिपार्श्व के व्यक्तियों को स्वामी आदि के स्नेह से दूर कर फूट डलवा देना।" उपप्रदान ---गृहीत धन को लौटा देना। २४. सुप्रयुक्त नय की विधाओं का वेत्ता (सुपउत्त-नय- विहण्णू) वृत्तिकार ने सुप्रयुक्त का सम्बन्ध पूर्ववर्ती वाक्य से जोड़ा है। वह साम, दण्ड, भेद और उपप्रदान -इन चारों राजनीतियों का सम्यक् प्रयोग १. ज्ञातावृत्ति, पत्र- १३-मानं जलद्रोणप्रमाणता कय? जलस्यातिभृते कुण्डे पुरुषे निवेशिते यज्जलं निस्सरति, तद्यदि द्रोगमानं भवति तदा स पुरुषो मानप्राप्त उच्यते । २. यही उन्मान अभारप्रमाणता तुलारोपितः पुरुषो यद्यर्द्धभार तुलति तदा स उन्मानप्राप्त इत्युच्यते । ३. वही प्रमागं स्वांगुलेनाष्टोत्तरशतोष्पता। ४. अभिधानचिंतामणि ३/३९९ शक्तवस्तिः प्रभुत्साहमन्नाः । ५. वही - ३/४०० सामदामभेददण्डाः उपायाः । ६. वही परस्परोपकारप्रदर्शनगुणकीर्तनादिना शत्रोरात्मवशीकरण साम ७. वही - तथाविधपरिक्लेशे धनहरणादिको दण्डः । ८. वही - - विजिगीषतशत्रुपरिवर्गस्य स्वाम्यादिस्नेहापनयनादिको भेदः । ६८ करने वाला था और नय की विधाओं का ज्ञाता था।" नायाधम्मकहाओ २५. ईहा, अपोह, मार्गण, गवेषण (ईहा-वह-मग्गण - गवेसण ) ईहा अर्थ की समालोचना, जैसे यह स्थाणु है या पुरुष? यह संशय का उत्तरवर्ती ज्ञान है। -- 1 अपोह अर्थ का निश्चय जैसे--यह स्थाणु ही है मार्गण अन्य धर्म का पर्यालोचनापूर्वक निर्णय जैसे यह स्थाणु है क्योंकि इस पर लताएं चढ़ी हुई हैं। लताओं का चढ़ना स्थाणु होने का साक्ष्य है इसलिए यह अन्वय (विधि) धर्म है । १२ 1 गवेषण--व्यतिरेक धर्म का पर्यालोचनापूर्वक निर्णय जैसे यह पुरुष नहीं है क्योंकि इसमें हिलना-डुलना तथा खुजलाना आदि क्रियाएं नहीं हो रही हैं। हलन चलन का अभाव पुरुष न होने का साक्ष्य है इसलिए यह व्यतिरेक (निषेध) धर्म है । " २६. अर्थशास्त्र में विशारद मतिवाला (अत्यसत्य-मविसारए) यहां अर्थशास्त्र से कौटिलीय अर्थशास्त्र आदि गृहीत हैं ऐसा वृत्तिकार ने लिखा है ।" भगवान महावीर के समय में कौटिलीय अर्थशास्त्र की रचना नहीं हुई इसलिए यहां कोई प्राचीन अर्थशास्त्र विवक्षित होना चाहिए। २७. सामुदायिक कर्त्तव्यों (कुटुंबेसु) कुटुम्ब का सामान्य अर्थ होता है परिवार। वृत्तिकार ने यही अर्थ स्वीकृत किया है। किन्तु यह विमर्शनीय है। उक्त वाक्यांश में सात पद हैं-- राजा श्रेणिक के बहुत से कार्यों (कारणों) कुटुम्बों, मंत्रणाओं, गोपनीय कार्यों, रहस्यों और निर्णयों में अभयकुमार का मत पूछा जाता था । ये सारे शब्द तुल्य विभक्ति, वचन एवं कारक वाले हैं। सभी प्रशासन सम्बन्धी विशिष्ट प्रवृत्तियों के सूचक हैं। जैसे 'कुटुंब' से पूर्ववर्ती शब्द 'कज्जेसु य कारणेसु य' तथा उत्तरवर्ती शब्द 'मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य' ये सारे प्रशासकीय प्रवृत्तियों के अंगभूत शब्द हैं, तो 'कुटुंबेसु य' यह भी किसी वैसी प्रवृत्ति का सूचक होना चाहिए। किन्तु वृत्तिकार ने मात्र एक 'कुटुम्ब' ९. वही गृहीतधनप्रदानादिकमुपप्रधानम् । १०. वही -- 'नयानां नैगमादीनां उक्तलक्षणनीतिनां च । ११. व्ही हा च स्थाणुरयं पुरुषो वेत्येव सदर्धलोचनाभिमुखा गतिः येष्टा । १२. ही स्थाणुरेवायमित्यादिरूपो निश्वयः । मार्गणं च-इह वल्लयुत्सर्प्पणादय: स्थाणुधर्मा एवं प्रायो घटन्ते इत्याद्यन्वयधर्मालोचनरूपम्। १३. वही गवेषणं च शरीरकण्डूयनादयः पुरुषधर्माः प्रायो न घटत इह इति व्यतिरेणधर्मालोचनरूपम् । १४. वही--अर्थशास्त्रे अर्थोपायव्युत्पादग्रन्थे कौटिल्यराजनीत्यादौ या मतिर्बोधस्तया विशारदः । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : टिप्पण २७-३१ शब्द को विषयभूत मानकर व्याख्या की है, जैसे स्वकीय और परकीय काष्ठ-स्तम्भ, जिसकी परिक्रमा करते हुए बैल आदि उस धान का मर्दन कुटुम्ब-विषयक मंत्रणाओं आदि में उसका मत पूछा जाता था। करते हैं और तुषों से उसे पृथक करते हैं। वैसे ही सकल मंत्रीमंडल अभय यहां चिन्तनीय यह है कि जब मंत्र आदि का सम्बन्ध कुटुम्ब से जोड़ा को केन्द्र मानकर आलोच्य विषय पर निर्णय लेता था। धान्य कणों के समान है तो फिर कार्य और कारण का सम्बन्ध उससे क्यों नहीं जोड़ा? कार्य और हर विषय का विवेचन करता था, इसलिए उसे मेढ़ी कहा गया। कारण भी तो स्वकीय और परकीय कुटुम्बों से सम्बन्धित हो सकते हैं। यदि प्रमाण--जैसे प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध पदार्थ अव्यभिचारी ऐसा होता है तो कुटुम्ब शब्द की योजना सबसे पहले होनी चाहिए थी और रूप से विधि और निषेध के विषय बनते हैं, वैसे ही अभय विधि और विभक्ति का प्रयोग भी भिन्न होना चाहिए था। सम्बन्ध में षष्ठी विभक्ति का निषेध अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्य में प्रमाण था। प्रयोग होता तो अर्थबोध में भी सुगमता रहती। यदि आर्ष प्रयोग मानकर षष्ठी आधार--प्रत्येक कार्य में उपकारी होने के कारण वह सबका के स्थान में सप्तमी मानें तो भी समस्या का सही समाधान नहीं मिलता। अत: आधार था।" कुटुम्ब शब्द को कार्य, कारण, मंत्रणा आदि के समान किसी विशेष प्रवृत्ति आलम्बन--जैसे गड्ढे में गिरा हुआ व्यक्ति रस्सी आदि के सहारे का ही सूचक मानना चाहिए। इस संदर्भ में इसका अर्थ सामुदायिक कार्य बाहर निकल जाता है, वैसे ही वह आपद्-गर्त में गिरे हुए व्यक्तियों का मानना संगत लगता है। निस्तारक होने से आलम्बन था।' ___ संस्कृत शब्दकोष से भी इसका समर्थन होता है। उसके अनुसार चक्षु--मंत्री, अमात्य आदि का विविध कार्यों में प्रवृत्तिकुटुम्ब का अर्थ होता है कर्तव्य या देखभाल। निवृत्ति विषयक पथ-दर्शन करता था, इसलिए वह सबका लोचन--चक्षु भागवत पुराण के अनुसार भी कुटुम्ब का अर्थ है--प्रत्येक वस्तु की था।' देखभाल और चिन्ता। ३०. राजा को सम्यक् परामर्श देने वाला (विइण्णवियारे) २८. मंत्रणाओं, गोपनीय कार्यों रहस्यों (मंतेसु य गुज्झेसु य अभय जो विचार देता था वह सम्राट श्रेणिक, मंत्री परिषद तथा रहस्सेसु य) राज्यसभा को सहज मान्य हो जाता था इसलिए वह विचार प्रदान करने इन तीन शब्दों में कुछ अर्थ भेद है, जैसे-- वाले व्यक्ति के रूप में सुविदित था। वृत्तिकार ने इसका अर्थ मंत्र--देश और राज्य के हित चिन्तन के लिए एकान्त में वितीर्णविचार--सब कामों में विचार देने वाला किया है। वृत्ति में वैकल्पिक पर्यालोचन, मंत्रणा करना। पाठ “विण्णवियार" मानकर उसका अर्थ जनता के प्रयोजन को राजा तक गुह्य--गोपनीय विषयक । गुह्य छिद्रों की रोकथाम के लिए किया के लिए किया पहुंचाने वाला किया गया है। जानेवाला एकान्त चिन्तन । वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या भिन्न प्रकार से की है। उनके अनुसार ऐसे अपराध लज्जास्पद होने के कारण गोपनीय सूत्र १७ होते हैं। ३१. मुट्ठी भर कमर बल खाती हुई रेखाओं से युक्त थी (करयलरहस्य--धर्म-विरुद्ध, लोक-विरुद्ध, और नीति-विरुद्ध, अपराधों परिमित-तिवलियवलियमज्झा) की रोकथाम के लिए किया जाने वाला एकान्त चिन्तन।' करतल परिमित का अर्थ है जो दोनों हथेलियों के मध्य समा सके। वृत्तिकार ने इसका अर्थ मुष्टिग्राह्य किया है। उसका तात्पर्य भी यही है। २९. वह मेढ़ी, प्रमाण, आधार, आलम्बन और चक्षु (मेढी-पमाणे उस पर तीन रेखाएं थीं। प्रस्तुत पद में प्रयुक्त 'वलिय' पद का अर्थ आधारे आलम्बण चक्खू) वृत्तिकार ने बलवान किया है--यह प्रासंगिक नहीं लगता। यहां इसका अर्थ मेढ़ी--खला निकालते समय धान के ढेर के मध्य रोपा जाने वाला बलखाती हुई होना चाहिए। १. ज्ञातावृत्ति पत्र--तथा कुटुम्बेषु च स्वकीयपरकीयेषु विषयभूतेसु ये मन्त्रादयो निश्चयान्तास्तेषु आप्रच्छनीयः ।। २. आप्टे ३. भागवत पुराण १/९/३९ ४. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१३--मन्त्रा: मन्त्रणानि पर्यालोचनानि तेषु च गुह्यानीव गुह्यानि लज्जनीयव्यवहारगोपितानि, तेषु च रहस्यानि--एकान्तयोग्यानि। ५. वही--मेढ़ित्ति-खलकमध्यवर्तिनी स्थूणा, यस्यां नियमिता गोपक्तिकार्धान्यं गाहयति, तद्वद्यमालम्ब्य सकलमन्त्रिमण्डलं मन्त्रणीयार्थान् धान्यमिव विवेचयति सो मेढ़ी। ६. वही--प्रमाणं प्रत्यक्षादि, तद्वद्यः तवष्टार्थानामव्यभिचारित्वेन तथैव प्रवृत्तिनिवृत्तिगोचरत्वात् स प्रमाणम् । ७. वही--आधारस्येव सर्वकार्येषु लोकानामुपकारित्वात्। ८. वही--आलम्बनं - रज्जवादि, तद्वदापद्गादि निस्तारकत्वादालम्बनम् ९. वही--चक्षुः लोचनं तद्वल्लोकस्य मन्त्र्यमात्यादिविविधकार्येषु प्रवृत्ति-निवृत्ति विषयप्रदर्शकत्वाच्चक्षुरिति। १०. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१४--विइण्ण वियारे' ति वितीर्णो-राज्ञानुज्ञातो विचार:-अवकाशो यस्य विश्वसनीयत्वात् असौ वितीर्णविचार: सर्वकार्यादिष्विति प्रकृतं अथवा विण्णवियारे' विज्ञापितो राज्ञो लोकप्रयोजनानां निवेदयिता। ११. वही, पत्र-१५--वलितो-बलवान्। १२. आप्टे Jain Education Intemational Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ३२-४० ३२. कपोलों पर खचित रेखाएं (गण्ड लेहा ) प्राचीनकाल में स्त्रियां सौन्दर्यवर्धन के लिए कपोतों पर कस्तूरी आदि की रेखाएं अक्ति करती थी। उसे विशेषक भी कहा जाता था। जैनागमों के अनुसार पुरुष और स्त्रियां दोनों ही स्नानोपरान्त कौतुक कर्म/ दृष्टिदोष आदि से बचने के लिए कज्जल आदि का चिह्नांकन करते थे। उसमें अन्तर इतना था कि पुरुष मात्र अनिष्ट परिहार के लिए वैसा करते ये और स्त्रियां सौन्दर्य प्रसाधन की दृष्टि से भी वैसा करती थीं। सूत्र १८ ३३. अलिंद (छक्कट्ठग) घर के बाहर का अलिंद छह काष्ठ खण्डों से निर्मित होता था, इसलिए कारण का कार्य में उपचार होने से अलिंद भी षट्काष्ठ कहलाने लगा । २ ७० वृतिकार ने वैकल्पिक रूप से अन्य मत को प्रदर्शित करते हुए छक्क को द्वार का विशेषण भी माना है--जो छह काष्ठ खण्डों से निर्मित होता था। मतान्तर से स्तम्भ का विशेषण भी माना है। ३४. मांगलिक प्रवर स्वर्ण कलशों (वंदण वरकणमकलस) कुछ प्रतियों में बंदण के स्थान पर चंदन लिखा हुआ मिलता है। लगता है ऐसा लिपि दोष से हुआ है। वृतिकार ने बंदण पाठ मानकर ही व्याख्या की है। वंदण का अर्थ है-- मांगलिक । ३५. मलय चन्दन (मलय चंदण) मलय पर्वत पर होने वाला चन्दन। प्राचीन काल में सबसे अच्छा चन्दन मलेशिया में होता था, उसका भारत में आयात भी होता था। हो सकता है 'गन्धवर्ती जैसा' - यह उसी ओर संकेत है । ३६. गंधवर्तिका के समान (गन्धवट्टिभूए) गन्धवर्ती का अर्थ है सुगन्धित द्रव्यों की गुटिका अथवा कस्तूरी की गुटिका । प्रवर सुरभित द्रव्यों से सुगन्धित होने के कारण वह प्रासाद ऐसा लगता था मानो साक्षात् गन्धवर्तिका ही हो।" ३७. शरीर प्रमाण उपधान रखे हुए थे (सालिंगणवट्टिए) निशीथ चूर्णि के अनुसार आलिंगिणी का अर्थ है घुटने और कोहनी १. ज्ञातावृत्ति पत्र १५ गण्डलेखाः कपोलविरचितमृगमदादिरेखा। २. ही गृहस्थ बाह्यानन्दकं बहूदाकमिति । ३. वही द्वारयिन्ये। ४. वही स्तम्भविशेषणमिदमित्यन्ये। ५. ज्ञातावृत्ति, पत्र - १६ - - वन्द्यन्त इति वन्दना - मंगल्या: ये वरकनकस्य कलशाः । ६. वही, पत्र - १६, १७ -- मलयचन्दनं च पर्वतविशेषप्रभवं श्रीखण्डम् । ७. वही- गन्धवर्ति:-गन्धद्रव्यगुटिका कस्तूरिका वा गन्धस्तद् गुटिका गन्धवर्तिः । के नीचे लगाया जाने वाला एक प्रकार का उपधान। " वाला। नायाधम्मकाओ उसके अनुसार इसका अर्थ होना चाहिए -- गोल आलिंगनो ( तकिए ) ३८. पतले, मूलदार उनी रोएंदार कम्बल (अत्थरप-मलयनवतय- कुसत्त - लिंव-सीहकेसर ) ये सारे विभिन्न प्रकार के आस्तरणों के नाम है, जो बिछौनों पर चादरों के रूप में बिछाए जाते थे ।" आस्तरक, मलक और कुशक्त - ये उस समय के प्रचलित और सामान्यतः काम में आने वाले आस्तरण थे। नवतय-- विशेष प्रकार की भेड़ों की ऊन से बना वस्त्र, जिसका लोकप्रचलित नाम है--जीन । १० निशीय चूर्णि के अनुसार इसका अर्थ है बिना काली हुई ऊन से बना प्रावरण, रोएंदार प्रावरण । १ लिंब - भेड़ के बच्चे की ऊन युक्त चर्म से बना आस्तरण । १२ सिंह केसर सिंह की जटा से बना कम्बल । * - ३९. लाल रंग की मसहरी से संवृत ( रत्तंसुयसंवुए ) वृतिकार ने रक्तांशुक का अर्थ केवल मच्छरदानी किया है। " सूत्र १९ ४०. महास्वप्न (महासुमिणं) स्वप्न एक मानसिक क्रिया है। वह प्रायः दृष्ट, श्रुत या अनुभूत वस्तु का आता है। स्वप्न संकलनात्मक ज्ञान है। सबका स्वप्न यथार्थ नहीं होता । जिसके मन, वाणी और अध्यवसाय पवित्र हैं, जो संवृत आत्मा है उसके स्वप्न यथार्थ होते हैं। स्वप्न की अयथार्थता के अनेक हेतु हैं उनमें प्रमुख हैं- दुश्चिन्ता, अनिद्रा, मानसिक मलिनता, आसक्ति अस्वस्थता आदि। पंचतंत्र में बताया गया है- I व्याधितेन सशोकेन, चिन्ताग्रस्तेन जन्तुना । कामार्तेनाथ मत्तेन दृष्टः स्वप्न निरर्थकः ॥ रोगी, शोकाकुल, चिन्तातुर, कामातुर और मत्त व्यक्तियों के स्वप्न निरर्थक होते हैं। ८. निशीथ चूर्णि, भाग ३, पृ. ३२१ ९. ज्ञातावृत्ति, पत्र - १७ - आस्तरको मलको नवतः कुशक्तो लिम्ब: सिंहकेसरश्चैते आस्तरणविशेषाः । १०. वही वस्तु ऊर्जाविशेषमय जीनमिति लोके यदुच्यते। ११. निशीथ चूर्णि, भाग ३, पृ. ३२१ १२. ज्ञातावृत्ति, पत्र -१७-- लिम्बो - बालोरभ्रस्योर्णा युक्ता कृतिः । १३. वही - सिंह- केसरो जटिलकम्बलः । १४. वही रक्तांसंवृते मशकगृहाभिधान वस्त्रावृते । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो। सूत्र २० नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ४१-४८ ४१.धारा से आहत कदम्ब कुसुम की भांति (धाराहयकलंबपुप्फगं पिव) ४५. शतपाक सहस्रपाक (सयपागसहस्सपागेहिं) ___ कदम्ब पुष्प मेघधारा से आहत होने पर रोमांचित जैसा हो जाता शतपाक और सहस्रपाक तैल प्राचीन समय के प्रभावशाली औषधीय है। इसीलिए रोमांचित व्यक्ति को इससे उपमित किया जाता है। सूत्र २० । गुणों से भरपूर तैल थे। वे बहुत मूल्यवान होते थे। इसलिए जन सामान्य में धाराहयनीवसुरभिकुसुम वाक्य का प्रयोग है। को उपलब्ध नहीं होते थे। इनका अर्थ इस प्रकार है-- कदम्ब व्रज प्रदेश का सुप्रसिद्ध फलदार वृक्ष होता है। यह भारत शतपाक--जिसे सौ बार आंच में उकाला जाए। वर्ष के अतिरिक्त नेपाल की तराई, हिमालय की तलहटी, बर्मा के पूर्वी और जिसका मूल्य सौ कार्षापण हो। उत्तरी पश्चिमी घाटी के दक्षिणी भाग में होता है। ब्रज में यमुना के जो सौ प्रकार की औषधियों के मिश्रण से निर्मित किनारे-किनारे वर्षा से ये वृक्ष हल्के पीले रंग के गोलाकार फूलों से लद जाते हैं, लाल फूल भी होते हैं। व्रज में कदम्ब की अनेक जातियां हैं--श्वेत, इसी प्रकार हजार बार उकालने, हजार प्रकार की औषधियों के पीताभ और लाल। पुष्प जाति में पांच प्रकार के पुष्प श्रेष्ठ माने जाते मिश्रण से निर्मित अथवा हजार कार्षापण मूल्य वाला तैल सहस्रपाक हैं--गेंदा, हजारा, गुलाब, बेला और कदम्ब । कहलाता है। ये तैल धातु साम्य व अग्नि दीपन करने वाले, बल-वीर्य बढ़ाने वाले, मांस को पुष्ट करने वाले तथा सब इन्द्रियों एवं अवयवों को ४२. शूर, वीर विक्रमशाली (सूरे वीरे विक्कते) आल्हादित करने वाले माने जाते थे।" ये तीनों शब्द आन्तरिक क्षमता के द्योतक होते हुए भी अर्थ की दृष्टि से भिन्न हैं-- ४६. अवसरज्ञ, दक्ष, अग्रणी, कुशल, मेघावी निपुण शूर--दान में शूर अथवा संकलित कार्य का निर्वाह करने वाला। (छेएहिं दक्खेहिं पढेहिं कुसलेहिं मेहावीहिं निउणेहिं) वीर--युद्ध में विजय प्राप्त करने वाला। प्रस्तुत सूत्र में मर्दन करने वाले पुरुषों के पांच विशेषण बतलाए ____ गए हैं। प्रस्तुत प्रसंग में इनका अर्थ इस प्रकार करना चाहिए-- विक्रान्त--भूमण्डल की यात्रा करने वाला अथवा भूमण्डल पर विजय पाने वाला। १. छेक--अवसरज्ञ, मर्दन की शिक्षा के प्रयोग में निपुण । २. दक्ष--मर्दन के कार्य को शीघ्र सम्पादित करने वाला। ३. अग्रणी--मर्दन करने में अग्रगामी। सूत्र २१ ४. मेघावी--मर्दन विज्ञान को ग्रहण करने की शक्ति में ४३. स्वप्न जागरिका (सुमिणजागरियं) निष्ठित। __ स्वप्न विज्ञान के अनुसार स्वप्न दर्शन के पश्चात् सोना वर्जित है ५. निपुण--मर्दन का सूक्ष्म ज्ञान रखने वाला। क्योंकि पुन: सोने से कदाचित् अशुभ स्वप्न आ जाए तो पूर्वदृष्ट शुभ स्वप्न वृत्तिकार ने इनका व्यापक अर्थ में प्रयोग किया है। का फल प्रतिहत हो जाता है। शुभ स्वप्न दर्शन के पश्चात् मंगलमय चिन्तनपूर्वक समय यापन करने से स्वप्न फल परिपुष्ट होता है। इसीलिए ४७. मर्दन (संबाहणा) हाथी का स्वप्न देखने के पश्चात् धारिणी देवी तत्काल शय्या त्याग कर मर्दन चार प्रकार का होता था--अस्थिसुखद, मांससुखद, देवता और गुरुजनों से सम्बन्धित प्रशस्त धर्मकथाओं के साथ स्वप्न त्वचासुखद और रोमसुखद। चिकित्सा पद्धति में मर्दन का विशेष महत्व जागरिका करती है। रहा है। सूत्र २४ ४८. शुभोदक, गन्धोदक, पुष्पोदक और शुद्धोदक (सुहोदएहिं गंधो४४. व्यायामशाला (अट्टणसालं) दएहिं पुष्फोदएहिं सुद्धोदएहिं) अट्टण नाम के मल्ल द्वारा स्थापित या उसके नाम से स्थापित होने १. शुभोदक--पवित्र स्थानों से लाया हुआ जल। के कारण उस व्यायामशाला का नाम अट्टणशाला हुआ हो।' २. गन्धोदक--चन्दन आदि गन्ध द्रव्य मिश्रित जल। अट्टण उज्जयिनी में रहने वाला एक मल्ल था। १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-२०--शूरो दानतोऽभ्युपेतनिर्वाहणतो वा, वीर: संग्रामतः विकान्तो-भूमण्डलाकमणत: । २. संस्कृत विश्वकोष। ३. व्यवहार भाष्य, भाग १०, टीका पत्र ३-अट्टनो नाम मल्ल: उज्जयिनी- वास्तव्यः। ४. ज्ञातावृत्ति, पत्र-२४--शतकृत्वो यत्पक्वं शतेन वा कार्षापणानां यत्पक्वं ____ तच्छतपक्वमेवमितरदपि। ५. नायाधम्मकहाओ १/१/२४ ६. ज्ञातावृत्ति पत्र २४, २५ ७. नायाधम्मकहाओ १/१/२४ Jain Education Intemational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ४८-५३ ७२ नायाधम्मकहाओ ३. पुष्पोदक--पुष्प रस मिश्रित जल, जैसे--गुलाब जल, केवड़ा ७. कौटुम्बिक--अनेक कुटुम्बों के प्रधान, कर्तव्य की चिंता करने आदि से युक्त जल। वाले। ४. शुद्धोदक--अन्तरिक्ष जल। वृत्तिकार ने इसका अर्थ स्वाभाविक ८. मंत्री--राजकीय प्रवृत्तियों की मंत्रणा करने वाले। जल किया है। ९. महामंत्री--मन्त्रीमण्डल के प्रधान। १०. गणक--वृत्तिकार ने गणक का मूल अर्थ गणितज्ञ और ४९. सैंकड़ों प्रकार के कौतुक कर्म (कोउयसएहिं) वैकल्पिक अर्थ कोषाध्यक्ष किया है। वृत्ति के अनुसार स्नान के समय जो रक्षा आदि उपक्रम किए जाते ११. दौवारिक--द्वारपाल। हैं, वे कौतुक कहलाते हैं। किन्तु यह अन्वेषणीय है। वास्तव में यह १२. अमात्य--राज्य के संचालक। विभिन्न प्रकार की जलक्रीड़ाओं के अर्थ की सूचना देता है। यहां सैंकड़ों १३. चेट--सेवक। प्रकार के कौतुक स्नान के साथ सम्पन्न हुए हैं। जहां-जहां रक्षात्मक १४. पीठमर्द--ये राजा के वयस्क होने के कारण विशेष सम्मानित कौतुक का प्रसंग आया है वह स्नान और बलिकर्म के अनन्तर सम्पन्न होते थे। ये सभामण्डप में आसन पर आसीन होकर राजसेवा में निरत हुआ है। यहां स्नान के साथ सैंकड़ों कौतुकों का उल्लेख है, अत: इसका रहते थे। अर्थ सैंकड़ों प्रकार की जलक्रीड़ाएं ही होना चाहिए। १५. नगर--नगरवासी प्रजा। यहां नागर के स्थान पर नगर शब्द प्रयुक्त हुआ है। ५०. वीरवलय (वीरवलए) १६. निगम--निगमवासी लोग। यौद्धाओं की वीरता के प्रतीक कड़े। उन्हें पहनकर राजा प्रतिपक्षी १७. श्रेष्ठी--सेठ, जिनका मस्तक श्री देवता से अध्यासित स्वर्णपट्ट राजा को चुनौती देता है कि यदि कोई अन्य वीर धरती पर है तो मुझे से विभूषित रहता था। जीतकर, ये मेरे वीर वलय ले जाए। इस स्पर्धा के साथ जो कड़े पहने १८. सेनापति--नृपति द्वारा स्थापित चतुरंग सेना के अध्यक्ष। जाते हैं, वे वीरवलय कहलाते हैं।' १९. सार्थवाह--सार्थ के स्वामी। पराजित राजा आत्मसमर्पण कर विजेता के हाथों में जो कड़ा २०. दूत--संदेशवाहक। पहनाता है वह भी वीरवलय कहलाता है। २१. संधिपाल--दो राज्यों के बीच होने वाली संधि का रक्षक ।' तुलनात्मक विमर्श हेतु द्रष्टव्य अणुओगदाराई पृ. ३०-३२, भगवई ५१. अनेक गणनायक ............ संधिपालों के साथ (अणेगगणनायग खण्ड १, पृ. २१५, २१६ । ................ संधिवाल सद्धि) सूत्र २५ ये विभिन्न राज्याधिकारियों अथवा राजकीय कार्यों में नियुक्त ५२. शान्तिकर्म (संतिकम्म) राजपुरुषों के वाचक शब्द हैं-- विघ्नोपशमन के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान विशेष । इसमें १. गणनायक--प्रकृतिमहत्तर। सर्षप आदि का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता था। २. दण्डनायक--तन्त्रपाल, न्यायाधीश, आरक्षक अधिकारी। ३. राजा--माण्डलिक राजा। ५३. कौटुम्बिक पुरुषों (कोडुंबियपुरिसे) ४. ईश्वर--युवराज, मांडलिक, चार हजार राजाओं का कौटम्बिक पुरुष का अर्थ है--आदेश को क्रियान्वित करने वाले। अधिपति अथवा अणिमा आदि आठ लब्धियों से युक्त । स्थानांग वृत्ति में इसका अर्थ है--कतिपय कुटुम्बों के स्वामी। प्राचीनकाल में ५. तलवर--जिनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर राजा जिन्हें विशेष इनका स्थान बहुत सम्मानपूर्ण था। वे विशेष अवसरों पर राज्य के अन्य उच्च पट्ट-बंध प्रदान करते थे, वे तलवर के नाम से पुकारे जाते थे। अधिकारियों की भांति राजा के साथ रहते थे। कौटुम्बिक पुरुष सदा राजा की ६. माडबिक--पांच सौ गांवों के अधिपति। सेवा में प्रस्तुत रहते और आदेश की प्रतीक्षा करते थे। - १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-२५ --शुभोदकै:-पवित्रस्थानाइतेः । गन्धोदकै: श्रीखण्डादिमित्रैः। पुष्पोदकैः पुष्परसमित्रै, शुद्धोदकैश्च-स्वाभाविकैः । २. वही--स्नानावसरे यानि कौतुकशतानि रक्षादीनि। ३. वही--सुभटो हि यदि कश्चिदन्योप्यस्ति वीरव्रतधारी तदाऽसौ मां विजित्य मोचयत्वेतानि वलयानीति स्पर्द्धयन् यानि परिदधाति तानि वीरवलयानीत्युच्यन्ते। ४. ज्ञाता अनगार धर्मामृतवर्षिणी टीका, पृ. १३० ५. ज्ञातावृत्ति, पत्र-२६ ६. वही--सिद्धार्थक प्रधानो यो मंगलोपचारस्तेन कृतं शान्तिकर्म- विघ्नोपशमनकर्म। ७. ज्ञातावृत्ति, पत्र-२३--कौटुम्बिक पुरुषान् - आदेशकारिणः । ८. स्थानांग वृत्ति, पत्र ४३९ ९.नायाधम्मकहाओ १/१/२४ Jain Education Intemational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ७३ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ५३-५७ कुटुम्बी या कौटुम्बिक शब्दों का प्रयोग ऋग्वेद, महाभारत वृत्ति में भी इसी प्रकार की व्याख्या उपलब्ध होती है। किसी भी आदि में भी हुआ है। वहां कुटुम्बी का अर्थ है--प्रत्येक कार्य (कर्तव्य) महत्त्वपूर्ण कार्य की निर्विघ्न सम्पन्नता के लिए सम्पादित की जाने वाली की चिन्ता करने वाला और कौटुम्बिक का अर्थ है--परिवार का सेवक या विशिष्ट विधियां बलिकर्म आदि के नाम से पहचानी जाती थीं। ये स्नान नौकर। के साथ, उसके बाद अथवा कहीं स्नान के अतिरिक्त भी सम्पादित की जाती थीं। जैसे--अर्हन्नक आदि यात्री जहाज पर चढ़ने से पूर्व बलिकर्म ५४. अष्टांग महानिमित्त (अटुंगमहाणिमित्त) करते थे। निमित्त शास्त्र को परम्परा से अष्टांग महानिमित्त कहते हैं। कहीं-कहीं इनके विशिष्ट अर्थ भी उपलब्ध होते हैं-- निमित्तशास्त्र के आठ अंग ये हैं-- बलिकर्म--निशीथ भाष्य में चावल आदि से अल्पना करने को १. अन्तरिक्ष विद्या २. भौम विद्या ३. अंग विद्या ४. स्वर विद्या बलिकरण कहा गया है। बलिकर्म और बलिकरण में अधिक शाब्दिक ५. व्यंजन विद्या ६. लक्षण विद्या ७. छिन्न विद्या ८. स्वप्न विद्या ।। अन्तर नहीं लगता। विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य--तत्त्वार्थवार्तिक ३/३६ पृ. २०२ कौतुक--निशीथ भाष्य में श्मशान और चौराहों पर स्नान करने को कौतुक कहा गया है। ज्ञाता के भी चौदहवें अध्ययन की वृत्ति में सूत्र २७ सौभाग्य प्राप्ति के लिए स्नान आदि करने को कौतुक कर्म कहा गया है। ५५. बलिकर्म, कौतुक, मंगल रूप प्रायश्चित (बलिकम्मा कय विवाह के पूर्व वर के ललाट से मूशल आदि का स्पर्श करवाना कौतुक कोउय-मंगलपायच्छित्ता) कहलाता है। ये चारों स्नान के अनन्तर की जाने वाली क्रियाएं हैं। जैन आगम किसी श्वेत चूर्ण विशेष से घर के आंगन अथवा द्वार पर विशेष ग्रन्थों में चरित्र चित्रण के अन्तर्गत इनका बहुश: प्रयोग हुआ है। चिह्न अंकित करना भी कौतुक कहलाता है। गुजरात और दक्षिण भारत १. बलिकर्म--स्नान के अनन्तर की जाने वाली कुलदेवता की। में यह विधि आज भी प्रचलित है। मंगल--स्वयंवर मण्डप में जाने से पूर्व द्रोपदी मंगल करती है। २. कौतुक--मषी (काला बिन्दु), तिलक आदि। वहां वृत्तिकार ने मंगल का अर्थ किया है--तण्डुलों से दर्पण आदि अष्ट ३. मंगल--सरसों, दधि, अक्षत, दुर्वांकुर आदि का उचित मंगलों का आलेखन । उपयोग। ४. प्रायश्चित्त--कौतुक मंगल को ही प्रायश्चित्त कहा गया है। ५६. जय-विजय की ध्वनि से (जएणं विजएणं) दुःस्वप्न आदि के लिए ये अनुष्ठान आवश्यक माने जाते थे। जय-शत्रु से पराजित न होना अथवा प्रतापवृद्धि । सूत्रकृतांग चूर्णि और वृत्ति के आधार पर उपर्युक्त जानकारी और विजय-शत्रु को पराजित करना।" पुष्ट हो जाती है। चूर्णि के अनुसार--बलिकर्म--कुलदेवता आदि की अर्चनिका। ५७. अर्चित ......... सम्मानित (अच्चिय ....... सम्माणिया) कौतुक--नमक आदि वारना एवं जलाना। अर्चा, वन्दना आदि आदर की अभिव्यक्ति के विभिन्न प्रकार हैं। मंगल--सरसों, दूब आदि का उचित उपयोग विधिभेद के आधार पर ये भिन्न-अर्थ के वाचक हैं-- करना तथा सोने आदि को छूना। अर्चा--चन्दन आदि से चर्चित करना। प्रायश्चित्त--दुःस्वप्न आदि के प्रतिघात हेतु वन्दना--सद्गुणों का उत्कीर्तन। ब्राह्मणों को सोना आदि देना। पूजा--पुष्प आदि से पूजा करना। १. ऋग्वेद-६/८९/१९ ७. सूत्रकृतांग वृत्ति, पत्र ६७ २. ज्ञातावृत्ति, पत्र-२६--स्नानान्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानाम् । ८. नायाधम्मकहाओ १/८/६७ ३. वही-कौतुकानि मषीतिलकादीनि। ९. निशीथभाष्य, भाग २, पृ. ३३७ कूरातिणा बलिकरणं। ४. वही-सिद्धार्थक-दध्यक्षत -दूर्वांकुरादीनि । १०. वही-कोउगं मसाण-चच्चरादिसु ण्हवणं । ५. वही-कौतुकमंगलान्येवेति प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्नादिविघातार्थम- ११. ज्ञातावृत्ति-पत्र १९५-कोउयकम्मं सौभाग्यनिमित्तं स्नपनादि । वश्यकरणीयत्वात्। १२. उत्तराध्ययन, बृहवृत्ति, पत्र-४९०-कौतुकानि ललाटस्य मुशलस्पर्शनादीनि। ६. सूत्रकृतांग चूर्णि, पत्र ३६०-बलिकम्मे अच्चणियं करेंति कुलदेवतादीणं १३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-२१७--तन्दुलैर्दर्पणाद्यष्टं मंगलालेखनं च करोति । काउं, आसीब्भयजोहारो लोणादीणि च डहति, मंगलाणि सिद्धत्थया- १४. ज्ञातावृत्ति-पत्र-२७--जयः परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च, विजयस्तु हरयालियादीणि से करेंति, सुवण्णमादीणि च छिवति, पायच्छित्तं दुस्सुविणग- परेषामभिभवः । पडिघातणिमित्तं धीयाराणं देंति । Jain Education Intemational Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ५७-६७ मान देखते ही प्रणाम करना । सत्कार -- फल, वस्त्र आदि प्रदान करना । सम्मान उचित प्रतिपत्ति, अभ्युत्थान आदि -- । सूत्र २९ ५८. विमान भवन (विमाण भवण) अर्हत अथवा चक्रवर्ती के गर्भ में आने पर उनकी माता जिन १४ महास्वप्नों को देखती है उनमें १२वां स्वप्न है- विमान भवन । यह वैकल्पिक है, जब अर्हत या चक्रवर्ती का जीव स्वर्ग से आकर उत्पन्न होता है तब उसकी मां विमान का स्वप्न देखती है और जब वह नरक से आता है तब उसकी मां भवन का स्वप्न देखती है। ५९. भावितात्मा अणगार (अणगारे वा भावियप्पा ) भावियप्पा अणगार का विशेषण है। इसका अर्थ है--अध्यात्म से जिसकी आत्मा भावित-वासित या संस्कारित हो गई है वह अणगार । अगस्त्यसिंह स्थविर के अनुसार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विविध प्रकार की अनित्य आदि भावनाओं से जिसकी आत्मा भावित हो चुकी है उसे भावितात्मा कहा जाता है। ऋषिभाषित में आत्मा को भावित कैसे किया जाए इसका बहुत सुन्दर चित्र प्रस्तुत हुआ है। ' सूत्र ३१ ६०. स्वप्न शास्त्र में (सुमिणसत्यसि ) अष्टांगनिमित्त में स्वप्न विद्या का आठवां स्थान है। सूत्र २९ और ३१ में स्वप्न विज्ञान की मौलिक सामग्री उपलब्ध है। 1 सूत्र ३३ ६१. दोहद (दोहले ) दोहद का अर्थ है--गर्भवती स्त्री के मन में किसी पदार्थ विशेष को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा--लालसा । ४ गर्भवती स्त्रियों के मन में उत्पन्न प्रशस्त और अप्रशस्त दोहद भावी शिशु की सुभगता और दुर्भगता का सूचक है। ****** ६२. जब आकाश . बरसने को हो (अब्भुग्गएसु. अब्भुट्ठिएस) इन शब्दों से बादल की क्रमभावी पर्यायों का बोध होता हैअभ्युद्गत- अंकुर रूप में उत्पन्न बादल । ...... १. वही ---अर्चिता: - चर्चिताश्चन्दनादिना वन्दिताः सद्गुणोत्कीर्तनेन पूजिता:पुष्पैमनिताः दृष्टिप्रणागतः सरकारिताः फलवस्त्रादिदानतः सम्मानिता:तथाविधया प्रतिपत्तया । २. दशकालिक अगस्त्य चूर्णि पृ. २५-- सम्मदंसणेण बहुविपि तवोजोगेहि अणिच्चयादि भावणाहि य भावितप्पा । ३. इसिभासियाई अध्ययन ३५ ४. अभिधान चिन्तामणि ३ / २०५ '. ७४ अभ्युद्यत विस्तार पाते हुए बादल । अभ्युन्नत - आकाश में छाए हुए, ऊपर उठे हुए बादल। अभ्युत्थित बरसने को उद्यत बादल। ६३. लाल दुपहरिया ( रत्तबन्धुजीवग ) नायाधम्मकहाओ दुपहरिया फूल पांच वर्ण का होता है। यहां रक्त विशेषण दिया गया है। ६४. सम्पूर्ण ऋद्धि समुदय (सव्विदीए ....सव्वसमुदाए) ऋऋद्धि युति आदि शब्द अर्थ वैशिष्ट्य के वाहक है-ऋद्धि--छत्र आदि राजचिह्न । ***... द्युति-- शारीरिक और आभरण जनित कान्ति। इसका संस्कृत रूपान्तर युक्ति हो तो उसका अर्थ है--इष्ट वस्तु की उचित संघटना | बल-सेना समुदय पौरजनों आदि का सम्मिलन !" राजमार्गों (सिघांडग ६५. दोराहों महापहपहेसु) सिंघाडग, लिंग आदि शब्द विशिष्ट मार्ग के बोधक हैंसिंघाडग-दोराहा । शृंगाटक का अर्थ है जलज बीज, फल विशेष । उसकी आकृति वाले पथ से युक्त स्थान। यह दो कोणों से आकर मिलने वाले मार्गों से ही सम्भव है। तिग-तिराहा चच्चर--चौक महापह राजमार्ग चउक्क -- चौराहा चउम्मुह-- चतुर्मुख देवकुल पह-- सामान्य मार्ग | सूत्र ४४ ६६. मन के अन्तराल में छिपा हुआ दुःख (मणोमाणसियं दुक्खं ) वह दुःख, जो भीतर में ही भोगा जाता है, वाणी से व्यक्त नही किया जाता। सूत्र ५३ ६७. महर्द्धिक ....... महासुख सम्पन्न है (महिड्डिए ..... महासोक्खे) अभय के पूर्व सांगतिक देव के ये सात विशेषण हैं-१. महिड्दिए -- महर्द्धिक - महान ऋद्धि सम्पन्न | यहां ऋद्धि से तात्पर्य है- विमान परिवार आदि की प्रचुर सम्पदा । २. महज्जुइए - - महद्युतिक, शरीर सम्पदा और आभरण ति से दीप्तिमान ५. ज्ञातावृत्ति पत्र २८ ६. वही-बन्धुजीव हि पंचवर्ग भवतीति रक्तत्वेन विशिष्यते। ७. वही, पत्र ३० ८. वही संघाइ जलजबीज फलविशेषः तदाकृतिपययुक्तं स्थानं सिंमाटकं, त्रिपययुक्तं स्थानं त्रिकं चतुष्यदुक्तं चतु त्रिपथमेदि चत्वर चतुर्मुख देवकुलादिमहापयो राजमार्गः पयः पयमात्रम्। ९. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ३७ - Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ६७-७३ ३. महापरक्कमे--महान पराक्रम सम्पन्न । प्रक्रिया उपलब्ध है। उसके लिए तीन दिन का उपवास और पौषध व्रत ४. महाजसे--महान यशस्वी। का पालन अनिवार्य है। पौषध में ब्रह्मचर्य का पालन, मणि, स्वर्ण, माला महाजसो--जिसका यश त्रिभुवन में विख्यात हो वह महायशा वर्णक, विलेपन आदि का परिहार, एकान्तवास, मानसिक एकाग्रता और कहलाता है। डाभ का बिछौना आवश्यक होता है। जैन आगम साहित्य में जहां कहीं देवताओं के साथ सम्पर्क करने ५. महब्बले--पर्वत आदि को उखाड़ फेंकने की सामर्थ्य से। का प्रसंग आया है, इस विधि के प्रयोग का उल्लेख है। युक्त। द्रष्टव्य-नायाधम्मकहाओ १/१६/२३७, ६. महाणुभावे--महाप्रभावी। वृत्तिकार ने 'महानुभाग' शब्द मानकर भगवई खण्ड २ पृ.३५ व्याख्या की है। उसका अर्थ है--वैक्रिय आदि क्रिया करने की शक्ति से सम्पन्न । शान्त्याचार्य के अनुसार जिसे महान अचिन्त्य शक्ति प्राप्त हो उसे महाभाग (महाप्रभावशाली) कहा जाता है। उनके अनुसार पाठान्तर सूत्र ५६ महानुभाव है और उसका अर्थ है--अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ। ७२. वैक्रिय समुद्घात से विउव्वियसमुग्घाएणं) ___समुद्घात शब्द सम्, उद् और घात--इन तीन शब्दों के योग से ७. महासोक्खे--विशिष्ट सुख सम्पन्न। बना है। सम् का अर्थ है एकीभाव, उद् का अर्थ है प्रबलता और धात का अर्थ है जाना। समुद्घात का शाब्दिक अर्थ है--सामूहिक रूप से बलपूर्वक ६८. अकेला अद्वितीय (एगस्स अबिइयस्स) एक--अकेला-राग, द्वेष आदि से मुक्त आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालना या उनका इतस्तत: प्रक्षेपण अद्वितीय--सुरक्षा में नियुक्त पदाति सैनिक आदि के सहयोग का करना अथवा कर्मपुद्गलों का निर्जरण करना। अभाव ।' प्रस्तुत अर्थ अभय कुमार के प्रसंग में घटित हो सकता है। समुद्घात के सात प्रकार हैं-- पौषधव्रत के अनुष्ठान में राग-द्वेष आदि वृत्तियों की उपरति तथा बाहरी १. वेदना २. कषाय ३. मारणान्तिक ४. वैक्रिय सहयोग की निरपेक्षता का होना आवश्यक है। ५. आहारक ६. तैजस ७. केवली समुद्घात। उपर्युक्त सात अवस्थाओं में आत्म प्रदेश शरीर से बाहर निकलते ६९. पौषधशाला (पोसहशाला) हैं। प्रस्तुत सूत्र में वैक्रिय समुद्घात की पूरी विधि निर्दिष्ट है। विक्रिया का अर्थ है--विविध रूपों का निर्माण। उस समय आत्म प्रदेशों का जो बाहर पौषध का अर्थ है अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को किया जाने वाला धार्मिक अनुष्ठान । उसको सम्पादित करने की शाला को प्रक्षेपण होता है, उसका नाम वैक्रिय समुद्घात है। इस प्रक्रिया में सबसे पौषधशाला कहते हैं। पहले संख्येय योजन लम्बे एक दण्ड के आकार में आत्म प्रदेश बाहर निकल जाते हैं फिर विभिन्न प्रकार के रत्नों के स्थूल पुद्गलों का ७०. पौषधव्रत निरत (पोसहियस्स) परिशाटन और सूक्ष्म पुद्गलों का ग्रहण होता है, तत्पश्चात् इच्छित रूप पौषध अनुष्ठान में माला, वर्णक, विलेपन और शस्त्र. मसल आदि की विक्रिया होती है। का परिहार किया जाता है। राग-द्वेष से उपरत हो, दूसरे की सहायता से विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य--ठाणं ३/ ४ पृ. २६१ निरपेक्ष रह ब्रह्मचर्य की साधना पूर्वक आत्मरमण किया जाता है। भगवई खण्ड १. पृ. २५२-२५३ विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य उत्तरायणाणि ५/२३ ७१. मानसिक तादात्म्य स्थापित करता हुआ (मणसीकरेमाणे मणसीकरेमाणे) यहां दिव्य शक्तियों के साथ सम्पर्क स्थापित करने की पुरी सूत्र ५७ ७३. क्या दूं, क्या उपहृत करूं? (किं दलयामि किं पयच्छामि?) ये दोनों क्रियाएं समानार्थक हैं? फिर भी अधिकारी व्यक्ति के १. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १०५९ २. (क) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १०६३ (ख) उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति, पत्र-३६५ --महानुभाग: अतिशया- चिन्त्यशक्तिः। पाढान्तरतो महानुभावो वा, तत्र चानुभाव:-शापानुग्रहसामर्थ्यम्। ३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-३८--एकस्य-आन्तरव्यक्त-रागादिसहायवियोगात्, अद्वितीयस्य तथाविधपदात्यादिसहायविरहात्। ४. वही, ३८.--'पोसहसालाए' त्ति-पौषधं पर्वदिनानुष्ठानमुपवासादि तस्य __शाला गृहविशेष:पौषधशाला। ५. विविध प्रकार के रत्नों के विवरण हेतु द्रष्टव्य - उत्तरज्झयणाणि ३६, ७५, ७६ ६. नायाधम्मकहाओ १/१/५६ Jain Education Intemational Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ७३-७९ ७६ भेद से इन में किचित् अर्थ भेद है। यहां साक्षात् सम्बन्धित व्यक्ति को देने के अर्थ में "दा" और उससे सम्बन्धित किसी अन्य व्यक्ति को देने के अर्थ में "प्रयच्छ" का प्रयोग हुआ है।' सूत्र ५९ ७४. विश्वस्त (वीसत्थे ) यहां विश्वस्त का अर्थ है -- उत्सुकता रहित । सूत्र ६७ ७५. आराम.......... वनषंडों (आरामेसु.. वणसडेसु) १. आराम -- ऐसे बगीचे जिनमें माधवी लता आदि के मण्डप हों और जहां दम्पति रमण करते हों। २. उद्यान -- ऐसे बगीचे, जो फूलों से लदे वृक्षों से संकुल हों और उत्सव आदि के समय बहुजन भोग्य होते हों । * ३. कानन--सामान्य वृक्ष समूह से युक्त नगर के निकटवर्ती वन विभाग ४. वन-नगर से दूरवर्ती वन विभाग।' ५. वनषण्ड -- एक जातीय वृक्ष समूह से शोभित वन प्रदेश। ७ विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य--ठाणं २ / १२५ पृ. १४५ सूत्र १५८ की वृत्ति में वन और वनषण्ड के अर्थ में कुछ भिन्नता है । देखें सूत्र १५८ का टिप्पण | सूत्र ७२ ७६. हित, मित और पथ्यकर होगा (हिय, मिय, पत्थयं) एक ही प्रकार का भोजन सब ऋतुओं और सब क्षेत्रों में अनुकूल नहीं होता। अतः प्रत्येक ऋतु और प्रदेश की दृष्टि से आहार का आवश्यक होता है। हित वह आहार जो मेधावर्धक और आयुवर्धक हो। मित-परिमित वृत्तिकार ने इसका अर्थ इन्द्रियों के लिए अनुकूल किया है। । पथ्य-वह आहार जो रोग पैदा करने का कारण न बने।" निशीथ भाष्य के अनुसार स्निग्ध और मधुर भोजन आम आयुष्य को पुष्ट करता है, शरीर और इन्द्रियों की पटुता तथा मेधा का विकास करता है। इसका विश्लेषण करते हुए चूर्णिकार लिखते हैं-- देवकुरु और उत्तरकुरु- ये क्षेत्र सहजतया स्निग्धता प्रधान होते हैं। इसीलिए वहां के १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-३९ दलयामि तुभ्यं ददामि किंवा प्रयच्छामिभवत्संगतायान्यस्मै । २. वही विश्वातो विश्वासवान् निरुत्सुको वा । ३. वही-आरभन्ति येषु माधवीलतागृहादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामाः । ४. वही - पुष्पादिमवृक्षसंकुलानि उत्सवादी बहुजन - भोग्यानि उद्यानानि । ५. वही सामान्ययुक्तानि नगरासन्नानि काननानि । ६. वही - नगरविप्रकृष्टानि वनानि । नायाधम्मकहाओ | व्यक्ति दीर्घायु होते हैं सुषमा सुषमा काल विभाग में पृथ्वी और वायु स्निग्धता प्रधान होते हैं, वहां भी प्राणी दीर्घजीवी होते हैं। वैसे ही यहां भी स्निग्ध और मधुर आहार से आयुष्य और देह की पुष्टि होती है। इन्द्रियां पटु होती हैं। दुग्ध आदि के सेवन से मेधा का विकास होता है।" इससे यह स्पष्ट है कि आहार हमारे व्यक्तित्व के समस्त अंगों को प्रभावित करता है । वर्तमान में आहार चिकित्सा नाम से स्वतन्त्र चिकित्सा पद्धति विकसित हो रही है। उसके द्वारा आहार परिवर्तन के आधार पर अनेक दुःसाध्य रोगों का उपचार किया जाता है। ७७. (सूत्र ७२) प्रस्तुत सूत्र में गर्भवती स्त्री की चर्या का संक्षिप्त किन्तु महत्त्वपूर्ण दिशा निर्देश है। भावी शिशु के सही निर्माण के लिए मां का खड़ा रहना, बैठना और सोना किस प्रकार का हो? उसकी विभिन्न मुद्राओं का डिम्ब पर सूक्ष्म प्रभाव पड़ता है। भोजन की दृष्टि से अति तीखा, अति कडुआ, अति कषैला, अति खट्टा और अति मीठा आहार उसके लिए वर्जनीय होता है । भावनाओं की दृष्टि से अतिशोक, अतिमोह, अतिभय, अति परित्रास का वर्जन करना शिशु के लिए हितकर होता है । गर्भिणी स्त्री के निवास स्थान, उसके वस्त्र, मालाएं और अलंकार-इन सबका भी शिशु पर अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। दृष्टियों से प्रस्तुत सूत्र के संकेत मननीय और अन्वेषणीय है। मां के लाल रंग के वस्त्र शिशु की उद्विग्नता और रोग के निमित्त बन जाते हैं। वस्त्रों का परिवर्तन करते हो वे पुनः संतुलित हो जाते हैं। ऐसा प्रयोग के आधार पर जाना जा सकता है। गर्भावस्था में आहार, विहार, वस्त्र परिधान आदि सबका विदेक किया जाता है। सूत्र ७५ ७८. उनके मस्तक पर से दासत्व-- दासचिह्न को धो डाला । ( मत्थयधोयाओ करेइ) इसका अर्थ है-जीवन पर्यन्त दास कर्म से मुक्त करना। सूत्र ७६ ७९. पुष्पमालाओं के समूह (मल्लदामकलावं) सामान्यतः मल्लदाम का अर्थ पुष्पमाला किया जाता है। वस्तुतः ७. वही वनखण्डेषु च एकजातीयवृक्षसमूहेषु । ८. वही, पात्र ४०-- हितं मेघायुरादिवृद्धिकारणत्वात्। मितमिन्द्रियानुकूलत्वात्। पध्यमरोगकारणत्वात् । ९. निशीय भाष्य गावा ३५४१-पुरे आऊं पुरसति देहिंदिपाडवं मेहा। १०. वही, पृ. २३६ ११. ज्ञातावृत्ति, पत्र - ४३ - - मत्ययधोयाउत्ति धौतमस्तका: करोति अपनीतदासत्वा इत्यर्थः । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७८ नायाधम्मकहाओ ७७ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ७९-८१ माल्य और दाम--ये दोनों स्वतन्त्र शब्द हैं। माल्य का अर्थ सामान्य माला प्रसंग से लगता है इसका अर्थ कथाकार होना चाहिए। है और 'दाम' शब्द विशेष प्रकार की माला के अर्थ में प्रयुक्त होता है। ११. लख-ऊँचे बांस पर खेल करने वाले। 'दाम' शब्द के अनेक अर्थ उपलब्ध होते हैं। जैसे-- १२. मंख--चित्रफलक दिखाकर आजीविका चलाने वाले।२ 0 सिर पर लटकने वाली माला। १३. तूणइल्ल--तूण (मशक के आकार का वाद्य) वादक ।१३ ० सिर पर आभूषण रूप में लगाई जाने वाली माला। १४. तुंबवीणिय--तम्बूरावादक। 0 बालों को सुव्यवस्थित रखने के लिए पहनी जाने वाली माला। ० खुले मैदान के अन्त में चारों ओर वंदनवार के रूप में बांधी जाने वाली माला। ८१. श्रेणियों और उपश्रेणियों (सेणि-प्पसेणीओ) ० मस्तक पर पहनी जाने वाली माला, जो पत्तों, फूलों और राजा के विशेष निर्देश को प्रसारित और क्रियान्वित करने के जवाहरात से बनी हुई हो। लिए अन्य प्रसंगों में कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाने का उल्लेख मिलता है। गृहसूत्र के अनुसार दाम का अर्थ 'चन्दन की माला' होता है। प्रस्तुत प्रसंग में अठारह प्रकार की श्रेणियां और प्रश्रेणियां आमंत्रित हैं। ८०. नटों.............. तम्बूरा वादकों (नड ............. तुबवीणिय) श्रेणि और प्रश्रेणि ये दो शब्द विशेष ज्ञातव्य हैं। १. नट--नाटक करने वाला। श्रेणि नाम पंक्ति का है। इस शब्द का प्रयोग अनेक २. नर्तक--नृत्य करने वाला। प्रकरणों में हुआ है, जैसे आकाश प्रदेशों की श्रेणि, राजसेना की १८ ३.जल्ल--रस्सी पर चढकर खेल करने वाले तथा राजा के स्तोत्र श्रेणिया, नरक व स्वर्ग के श्रेणिबद्ध विमान एवं बिल. शक्ल ध्यान गत पाठक। साधु की उपशम और क्षपक श्रेणि तथा विभिन्न जातियां और ४. मल्ल--पहलवान। उपजातियां। ५. मौष्टिक--मुक्केबाज, मुष्टियुद्ध करने वाला। तिलोयपण्णति में राजसेना की १८ श्रेणियों का उल्लेख है, ६. विडम्बक--विदूषक। जैसे--हस्ति, अश्व, रथ--इनके अधिपति, सेनापति, पदाति, श्रेष्ठी, ७. कहकहक--कथा करने वाला। दण्डपति, शूद्र, क्षत्रिय, वेश्य, महत्तर, प्रवर अर्थात् ब्राह्मण, गणराज, ८. प्लवक--छलांग भरने वाला। मंत्री, तलवर, पुरोहित, अमात्य और महामात्य तथा बहुत प्रकार के ९. लासक--रास रचाने वाला। प्रकीर्णक । लास एक अलग नृत्य परम्परा रही है। 'रासो' राजस्थानी प्रबन्ध धवला में कुछ परिवर्तन के साथ इनका उल्लेख है जैसे--घोड़ा, चरितों की एक आकर्षक विधा है। यह विविध राग-रागनियों में गुम्फित हाथी, रथ--इनके अधिपति, सेनापति, मंत्री, श्रेष्ठी, दण्डपति, शूद्र, क्षत्रिय, होता है। उस रास' का मंचन करने वाले 'रासक' हो सकते हैं। 'र' को ब्राह्मण, वैश्य, महत्तर, गणराज, अमात्य, तलवर, पुरोहित, स्वाभिमानी, 'ल' होने से लासक हो जाता है। 'लास्यक' का प्रवृत्तिलभ्य अर्थ होता महामात्य और पैदल सेना इस तरह सब मिलकर अठारह श्रेणियां होती है--रास रचाने वाले। वृत्तिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ राजा की है।१५ जयकार करने वाला भाण्ड भी किया है। प्रस्तुत सूत्र में श्रेणि और प्रश्रेणि शब्द का प्रयोग जातियों और १०. आख्यायक--वृत्ति के अनुसार आख्यायक का अर्थ होता है उपजातियों के अर्थ में हुआ है। शुभ-अशुभ फलादेश बताने वाला, भविष्य वक्ता । किन्तु खेलकूद प्रधान श्रेणि--कुम्भकारादि जातियां । १. आप्टे १२. वही ४४--मखा--चित्रफलकहस्ता भिक्षाटाः । २. A Concise Etymological Samskrit Dictionary II P. ३४ १३. वही - तूणइल्ला: - तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः । ३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-४४--नटा: - नाटकानां नाटयितारः। १४. तिलोयपण्णत्ति १/४३,४४ ४. वही - नर्तका ये नृत्यन्ति, अंकिला इत्येके। करितुरयरहाहिवई सेणावई - पदत्तिं सेटि दंडवई। ५. वही - जल्ला-वरनखेलका, राज्ञः स्तोत्रपाठका: इत्यन्ये। सुद्दक्खत्तिय वइसा, हवंति तह महयरा पवरा।। ४३ ।। ६. वही - मौष्टिका-मल्ला एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति। गणरायमंति तलवर पुरोहियामत्तया महामत्ता। ७. वही - विडम्बकाः - विदूषकाः। बहुविह पइण्णया य अट्ठारस होति सेणीओ।। ४४ ।। ८. वही - प्लवका - ये उत्पल्वन्ते नद्यादिकं वा तरन्ति । १५. धवला १, गाथा ३७, ३८ ९. वही - लासका - ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डा हयहत्थिरहाणहिवा सेणावइ - मंति सेट्ठि दंडवई। इत्यर्थः । सुद्दक्खत्तिय - बम्हण वइसा तह महयरा चेव ।। ३७ ।। १०. वही - आख्यायका - ये शुभाशुभमाख्यन्ति । गणरायमच्च तलवर पुरोहिया दप्पिया महामत्ता। ११. वही - लखा - वंशखेलकाः । अट्ठारह सेणीयो, पयाइणामेलिया होति ।। ३८ । । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ८१-८५ प्रश्रेणि---इसी के प्रभेद रूप। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में अठारह श्रेणियों का उल्लेख है। वे अठारह श्रेणियां इस प्रकार हैं-- नायाधम्मकहाओ दांतों को मजबूत करने के लिए जो मिश्री, गोंद आदि खाया जाए वह भी खाद्य है।१२ स्वाद्य--पिप्पली आदि ।१२ निशीथ भाष्य के अनुसार अशन में चावल आदि, पान में तक्र, क्षीर, उदक आदि, खाद्य में फल आदि तथा स्वाद्य में मधु, फाणित, तांबूल आदि आते हैं।" ताम्बूल, सुपारी, तुलसी आदि को भी स्वाद्य के अन्तर्गत माना गया है। १. कुम्हार २. रेशम बुनने वाला ३. सोनार ४. रसोइया ५. गायक ६. नाई ७. मालाकार ८. कच्छकार ९. तमोली १०. मोची ११. तेली १२. अंगोछे बेचने वाले १३. कपड़े छापने वाले १४. ठठेरे १५. दर्जी १६. ग्वाले १७. शिकारी १८. मछुए। बौद्ध साहित्य महावस्तु में अठारह श्रेणियों का उल्लेख तो आता है, पर उनके नाम नहीं आते। नायाधम्मकहा में चित्रकार श्रेणि और स्वर्णकार श्रेणि का उल्लेख है। ८४. ज्ञाति ....... और परिजनों को (नाइ ....... परियणेहिं) ज्ञाति--माता-पिता, भाई-बहिन आदि । निजक--अपने पुत्र, पुत्री आदि। स्वजन--चाचा आदि। सम्बन्धी--सास-ससुर, साला आदि। प्राचीन समय में समूह चेतना विकसित थी। छोटे-बड़े सभी परिवारों में महत्त्वपूर्ण अवसरों, भावी निर्णयों, उत्सवों आदि पर इन सबका मिलन, सहभोज और विचारों का आदान-प्रदान आवश्यक समझा जाता था। जैन आगम साहित्य में अनेकत्र इनकी उपस्थिति का वर्णन है। ८२. शुल्क और कर न लें (उस्सुकं उक्कर) शुल्क और कर--ये दोनों टेक्स' के ही वाचक हैं। शुल्क का अर्थ है--बिक्रीकर-सेलटेक्स' ।' कर का अर्थ है--सम्पत्तिकर 'इन्कम टेक्स' ।' सूत्र ८१ ८३. अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य (असणं-पाणं-खाइम-साइम) अशन--१. जिससे शीघ्र ही क्षुधा शान्त होती है, वह अशन २. क्षुधा को मिटाने के लिए जिस वस्तु का भोजन किया जाता है वह अशन है। जैसे--रोटी, चावल आदि । ३. अशन में सत्तू, मूंग आदि अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थों का समावेश होता है। पान--आवश्यक नियुक्ति के अनुसार प्राणों का उपकारक पान कहलाता हैं। पान के लिए पान, पानक और पानीय शब्दों का प्रयोग होता है, पर वास्तव में इन तीनों का अर्थ भिन्न-भिन्न है। सुरा आदि पान, खजूर आदि मिश्रित जल पानक तथा साधारण जल के लिए पानीय शब्द का प्रयोग किया जाता था। अगस्त्य चूर्णि में मृद्विका के पानक का उल्लेख है।१० खाद्य--मोदक, खजूर आदि । भुने हुए गेहूं, चने आदि तथा ८५. (सूत्र ८१) प्राचीन ग्रन्थों में ऐसे अनुष्ठानों का प्रावधान है जो शिशु के जन्म से पहले ही प्रारम्भ होकर मरणोपरान्त तक भी सम्पादित किए जाते हैं। ऐसी १००८ क्रियाओं या अनुष्ठानों का विस्तृत वर्णन है। वे क्रियाएं जीवन को संस्कारी बनाने में योगभूत बनती हैं। अत: कारण में कार्य के उपचार से वे अनुष्ठान भी 'संस्कार' कहलाते हैं। प्रस्तुत सूत्र में ऐसे कुछेक संस्कारों का उल्लेख है जिनकी शृंखला शिशु के जन्म के साथ ही प्रारम्भ हो जाती है। १. पहले दिन--स्थितिपतित-कुल परम्परा के अनुरूप जन्मोत्सव। २. दूसरे दिन--जागरिका-रात्रि जागरण। ३. तीसरे दिन--चन्द्र-सूर्य दर्शन। ४. अशुचि जातकर्म का निवर्तन। ५. नामकरण संस्कार--यह बारहवें दिन होता था। ६. प्रजेमनक--अन्नप्राशन संस्कार। ७. प्रचंक्रमण संस्कार। ८. चोलोपनयन--शिखाधारण संस्कार। १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-४४--श्रेणय:-कुम्भकारादि जातयः प्रश्रेणय:-तत्प्रभेदरूपाः। ९. प्रवचनसारोद्धार, गाथा २०८ २. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति-३/४३ १०. दशवैकालिक अगस्त्यचूर्णि पृष्ठ ८६--मुद्दितापाणगाती पाणं । ३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-४४ --शुल्कं तु विक्रेतव्यं भाण्डं प्रति राजदेयं द्रव्यम्।। ११. वही - मोदगादि खादिमं। ४. वही-करस्तु गवादीनां प्रति प्रतिवर्षं राजदेयं द्रव्यम् । १२. प्रवचनसारोद्धार, गाथा २०९ ५. (क) आवश्यक नियुक्ति गाथा १६०२ (ख) निशीथ भाष्य गाथा ३७८९ १३. दशवकालिक अगस्त्यचूर्णि पृष्ठ ८६--पिप्पलिमादि सादिमं । ६. दशवकालिक अगस्त्यचूर्णि पृष्ठ ८६--ओदणादि असणं । १४. निशीथ भाष्य, गाथा ३७८९ ७. प्रवचनसारोद्धार गाथा २०७ १५. प्रवचनसारोद्धार, गाथा २१० ८. आवश्यकनियुक्ति गाथा १६०२ (ख) निशीथ भाष्य गाथा ३७८९ Jain Education Interational Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ७९ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ८५-९० महापुराण में चंक्रमण के स्थान में बहियनिक्रिया का निर्देश है। विद्यार्थी को पहले सूत्र और अर्थ का बोध दिया जाता था। कलाचार्य उसके अनुसार जन्म के तीन, चार माह पश्चात् अनुष्ठान पूर्वक प्रसूतिगृह राजकुमार मेघ को बहत्तर कलाएं सूत्र, अर्थ और क्रियात्मक रूप से पढ़ाता से बाहर लाया जाता है। है और उनका अभ्यास कराता है। 'सेहावेइ' सिक्खावेइ' ये दोनों शब्द प्रजेमनक के स्थान में अन्नप्राशन है। जन्म के सात, आठ माह मिलकर शिक्षा की पूर्णता का निवर्हन करते हैं। पश्चात् पूजा विधि पूर्वक शिशु को अन्न खिलाना। चन्द्र, सूर्य दर्शन पाठ्यक्रम में भी उन्हीं विषयों का चयन किया जाता था, संस्कार का उल्लेख महापुराण में नहीं है। जिनकी व्यक्ति के जीवन-व्यवहार में उपयोगिता और सार्थकता समझी जाती थी। सूत्र ८२ ८६. (सूत्र ८२) ८८. बहत्तर कलाएं (बावत्तरी कलाओ) उस समय सम्पन्न घरानों में बच्चों के लालन-पालन के प्रस्तुत सूत्र में ७२ कलाओं का नाम निर्देश मात्र है। वृत्ति में भी लिए प्राय: पांच धाय माताओं को नियुक्त किया जाता था। कर्तव्य उनकी विस्तृत व्याख्या उपलब्ध नहीं होती। और दायित्व के आधार पर उनके पांच प्रकार होते थे. जैसे-- बहत्तर कलाओं की जानकारी के लिए द्रष्टव्य समवाओ, समवाय १. क्षीर-धात्री २. मज्जन धात्री ३. क्रीडन धात्री ४. मण्डन धात्री और ७२ (पृ. २५०-२५५) ५. अंक धात्री। बच्चों के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक विकास सूत्र ८८ में इन धाय-माताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती थी। ८९. उसके नौ सुप्त अंग जागृत हो गये (नवंगसुत्तपडिबोहिए) इस सूत्र में पांच धात्रियों के अतिरिक्त अनेक पारिचारिकाओं का वृत्तिकार ने इसका अर्थ निम्न प्रकार से किया है--उसके नौ सुप्त उल्लेख है। राजकुमारों को अनेक देश की भाषाओं और संस्कृति से अंग जागृत हो गये। परिचित कराने के लिए अनेक परिचारिकाएं रहती थीं। उनके माध्यम से दो श्रोत्र, दो आंखें, दो नासा-विवर, एक त्वचा, एक जीभ सहज ही अनेक भाषाओं का परिचय प्राप्त हो जाता। इन पारिचारिकाओं ___ और एक मन--ये नौ अंग बाल्यकाल में सुषुप्त होते हैं। इनकी के नाम अपने-अपने देश के नाम पर दिए गए हैं। उस समय राजघरानों प्राणशक्ति अव्यक्त होती है। यौवन में इनकी प्राण शक्ति व्यक्त हो में विदेशी नौकरानियों का रहना गौरव और समृद्धि का सूचक माना जाता। जाती है। था। नाना देशीय सेविकाओं के कारण अपने देश की शोभा बढ़ती है--ऐसी इस पद की व्याख्या दूसरे पहलू से भी की जा सकती है। वह यह धारणा थी। है कि--'वह नवांग सूत्रों का जानकार बन गया। यह अर्थ भी अप्रासंगिक वे सब दासियां अपने-अपने देश की वेशभूषा में रहती थी। उन । या असंगत नहीं लगता। इसका आधार यह है कि पूर्व निर्दिष्ट अर्थ मानने परिचारिकाओं का बच्चों से विशेष सम्पर्क रहता था अत: उनका पर उक्त वाक्यांश की रचना-सुप्त नवांग प्रतिबोधित' 'इस प्रकार होनी सुसंस्कारी होना आवश्यक माना जाता था। क्योंकि परिपार्श्व के अच्छे या चाहिए थी। क्योंकि 'क्त प्रत्ययान्त विशेषण समस्त पद के पूर्व प्रयुक्त बरे प्रतिबिम्ब बच्चों में सहज संक्रान्त होते हैं। योग्य सेविकाओं की कसौटी होता है। इस प्रयोग को आर्ष प्रयोग मानकर उचित भी मान लें तो उक्त थी--वे इंगित, चिन्तन और अभिप्राय को समझाने वाली, निपुण और विनीत संभावना का एक आधार यह भी है कि प्रस्तुत वर्णन में मेधकुमार की हो। शैक्षणिक योग्यता का उल्लेख है। पूर्व वाक्यांश में उसे बहत्तर कलाओं में पण्डित और उत्तर पद में अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में विशारद सूत्र ८५ बताया गया है। प्रस्तुत पद इन दोनों के मध्य में स्थित है इसलिए यह कल्पना ८७. पढ़ाई और उनका अभ्यास कराया। (सेहावेइ सिक्खावेइ) भी की जा सकती है कि इसका अर्थ 'वह नवांग सूत्रों का ज्ञाता था ' ऐसा १. सिघ का अर्थ है--निष्पन्न कराना अर्थात् विद्या को सिद्ध करा हो। ये नवांग कौनसे थे. यह अन्वेषणीय है। देना। २. 'शिक्ष' का अर्थ है--अभ्यास कराना। ९०. अट्ठारह प्रकार की देशी भाषाओं में विशारद (अट्ठारस विहिप्पगारजैन ग्रन्थों में शिष्य के लिए 'सेह' शब्द का प्रयोग आता है। देसीभासाविसारए) प्राचीन भारत की शिक्षा पद्धति में विभिन्न विद्या शाखाओं का वह प्रवृत्ति भेद से अठारह प्रकार की देशी भाषा में विशारद बन ग्रहण और अभ्यास--इन दोनों पक्षों पर बराबर बल दिया जाता था। गया। ३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-४५ ३.शाता १. नायाधम्मकहाओ १/८२ नाना देसीहिविदेसपरिमंडियाहिं २. वही--इंगिय-चिंतिय-पत्थिय-वियाणियाहिं णिउणकुसलाहिं विणीयाहिं। Jain Education Intemational Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ९०-९८ वृत्तिकार के अनुसार यहां अठारह देशीय भाषा का प्रयोग अठारह प्रकार की लिपि वर्णावलि के अर्थ में हुआ है। उस समय ये अठारह प्रकार की लिपियां प्रचलित थीं- १. हंसलिपि २ भूतलिपि ३ यक्षलिपि ४ राक्षसलिपि ५. ओड्रीलिपि ६ यावनीलिपि ७. तुरुकीलिपि ८. कौरिलिपिकीर देश की लिपि ९. द्राविद्धीलिपि १०. सैन्धवीलिपि ११. मातविनीलिपि १२. नाटीलिपि १३. नागरीलिपि १४. लाटीलिपि १५. पारसीलिपि १६. अनिभित्तिलिपि १७. चाणकीलिपि १८ मूलदेवीलिपि । ' सूत्र ८९ ९१. प्रासादावतंसक...... भवन (पासायावडिंसए..... भवणं ) प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि मेघ के माता-पिता विवाह से पूर्व मेघ के लिए आठ प्रासादावतंसक (प्रधान प्रासाद, सुन्दर प्रासाद) और एक भवन का निर्माण करवाते हैं। प्रासाद और भवन का अन्तर स्पष्ट करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है - भवन की ऊँचाई आयाम की अपेक्षा कुछ कम होती है और प्रासाद की ऊँचाई आयाम की अपेक्षा दुगुनी होती है। इनमें दूसरा अन्तर यह भी है कि भवन एक भूमिक- एक मंजिल वाला होता है और प्रासाद एकाधिक मंजिल वाला होता है। सूत्र ९० ९२. करण (करण) करण तिथि का आधा कालमान होता है। तिथि के प्रारम्भ से तिथि की समाप्ति तक दो करण पूर्ण हो जाते हैं। करण ग्यारह होते हैं--बव, बालव, कोलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग, किंस्तुष्ण। प्रथम सात करण चर संज्ञक और शेष चार करण स्थिर संज्ञक हैं । " ९३. जलाभिषेक, मंगलकरण और आशीर्वाद के साथ) (ओक्यण-मंगल सुजपिएहिं ) । ओवराण वृतिकार ने इसका अर्थ प्रोंखनक किया है। इसका अर्थ उपलब्ध नहीं है। संभवतः इसका अर्थ प्रोक्षण होना चाहिए जिसका अर्थ है -- विवाह आदि के प्रसंग में किया जाने वाला जल सिंचन । ' मंगल-दधि, अक्षत आदि वृतिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ मंगल गान भी किया है। 1 सुजल्पित-- आशीर्वाद । ७ ८० १. समवाओ १८/५ का टिप्पण पृष्ठ १०७ से १०९ २. ज्ञातावृत्ति, पत्र-४६-भवनमायामाया किञ्चन्यूनोच्छ्रायमानं भवति, प्रासादस्तु आयामद्विगुणोच्छ्राय इति । ३. अनगार धर्मामृतवर्षिणी टीका, पृष्ठ २७९ -- एकभूमिकं भवनं, द्वित्रिभूमादिः प्रासादः ४. ज्योतिष प्रवेशिका, पृ. २२ सूत्र ९१ ९४. प्रीतिदान (पीइदाण) हर्षप्रद घटना के समय अथवा उत्सव आदि की सूचना देने वाले को दिया जाने वाला दान । सूत्र ९६ ९५. उग्र, भोज (जग्गा भोगा ) नायाधम्मकहाओ भगवान ऋषभ के द्वारा उग्र, भोज आदि वंश स्थापित किए गए थे । वृत्तिकार के अनुसार उग्र का अर्थ रक्षा करने वाला तथा भोज का अर्थ गुरुवंशज है। शान्त्याचार्य ने उग्र का अर्थ आरक्षक तथा भोग का अर्थ 'गुरुस्थानीय ' किया है।" ९६. रुद्र, शिव.........( रुद्द - सिव ) उस समय देव पूजा और प्रकृति पूजा का भी पर्याप्त प्रचलन था । समय-समय पर जैसे इन्द्र, स्कन्द आदि देवों से संबंधित उत्सव मनाए जाते थे, वैसे ही नदी, तालाब, वृक्ष, चैत्य और पर्वतों का उत्सव मनाया जाता था और उद्यान यात्राएं एवं गिरियात्राएं की जाती थीं। सूत्र ९९ ९७. चारण (चारणे) विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य ठाणं ६/२१ का टिप्पण पृष्ठ ६९१-९२ ९८. पांच प्रकार के अभिगमों से (पंचविण अभिगमेणं) कुमार मेघ पांच अभिगम पूर्वक श्रमण भगवान महावीर के पास जाता है। वे पांच अभिगम ये हैं- १. सचित द्रव्यों का व्युत्सर्जन । २. अचित्त द्रव्यों का अव्युत्सर्जन । ३. एक शाटिक उत्तरीय का विन्यासकरण । ४. तीर्थंकर या गुरु को देखते ही अंजलिकरण ५. मन का एकाग्रीकरण । यहां दूसरे अभिगम का अर्थ आलोच्य है उक्त अर्थ का आधारभूत मूलपाठ इस प्रकार है--१. सचित्तागं दव्याणं विउसरणपाए और २. अचित्तागं दव्वाणं अविउसरणयाए ? पाठ को देखते हुए उक्त अर्थ संगत हो सकता है । वृत्तिकार ने भी दूसरे पद का मूल अर्थ यही किया है- अचित द्रव्यों का व्युत्सर्जन न करना। प्रश्न होता है, भगवद् ५. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ४७- अवपदनं प्रोङ्खनकम् । ६. वही - - दध्यक्षतादीनि गानविशेषो वा । ७. वही - आशीर्वचनानीति । ८. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ४९ ९. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र - ४१७ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ८१ वंदन के लिए जाते समय जैसे सचित्त द्रव्यों का परिहार अनिवार्य होता है, क्या उस समय सभी प्रकार के अचित्त द्रव्यों का रखना विहित है? इसका समाधान वृत्तिकार द्वारा स्वीकृत वैकल्पिक पाठ के आधार पर मिल सकता है। वह वैकल्पिक अर्थ है--अचित्त द्रव्य छत्र चामर आदि का भी विसर्जन । वृत्तिकार लिखते हैं-क्वचिद् वियोसरयेति पाठः तत्र अचेतनद्रव्याणां छत्रादीनां व्युत्सर्जनेन परिहारेण उक्तं च- अवणेइ पंच ककुहाणि, रायवरबसभचिंधभूयाणि । छत्तं खम्गोवाहण मउ तह चामराओ य ।। यह अर्थ मौलिक और संगत लगता है। लगता है मूल पाठ की अशुद्धि के कारण कुछ भ्रांति हुई है और इसीलिए अचित्त द्रव्यों का अविसर्जन यह अर्थ किया गया है। शुद्ध पाठ होना चाहिए 'अचित्ताणं दव्वाणं अ विउसरणयाए' 'अ' निषेधार्थक नहीं है। यह 'च' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्राकृत में व्यंजन का लोप होने से 'स्वर' शेष रहता है। यहां च का अर्थ 'और' नहीं इसका अर्थ 'भी' है अपि के अर्थ 'च' का प्रयोग होता है। 'विउसरणाए के साथ 'अ' छप जाने से यह भ्रान्ति हुई है। अत: दूसरे अभिगम का अर्थ होना चाहिए अचित्त द्रव्यों का भी विसर्जन । भगवान के दर्शनार्थ जाते समय जैसे सचित्त पुरुष मालाएं आदि त्यागी जाती थी वैसे ही राजा लोग राजसी परिधान -- छत्र, चामर आदि भी समवसरण के बाहर ही उतारकर जाते थे । वैदिक परम्परा में भी यह अर्थ सम्मत था। अभिज्ञानशाकुन्तलम् में भी उल्लेख है विनीतवेषेण प्रवेष्टव्यानि तपोवनानि । विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य........ .. भगवई खण्ड १, पृष्ठ २९१७. सूत्र १०५ ९९. (सूत्र १०५ ) प्रस्तुत सूत्र में मानसिक आवेगों से शरीर पर होने वाले प्रभावों का मार्मिक चित्रण है। यह मनोकायिक रोगों के विश्लेषण का पुष्ट आधार बनता है। सूत्र १०६ १००. उत्क्षेपक तालवृन्त और वीजनक (उक्लेक्य-तालविंट - वीणग) ये प्राचीनकाल में प्रचलित पंसे थे। इनमें आकृति गत भेद है-१. उत्क्षेपक -- बांस से निर्मित्त पंखा, उसके मध्य में छोटा डंडा होता है, उसे मुड़ी में पकड़ कर हवा शलते हैं। २. तालवृन्त--ताड़ के पत्तों से बना हुआ पंखा अथवा तालवृन्त की आकृति वाला चर्ममय पंखा । १. भातावृत्ति पत्र ५० २. अभिज्ञानशाकुन्तलम् ३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-५२--उत्क्षेपको वंशदलादिमयो मुष्टिग्राह्यो दण्डमध्यभागः, तालवृन्तंतालाभिधानवृक्षपत्र - वृन्तं पत्तछोटन इत्यर्थः तदाकारं वा चर्ममयं वीजनकं तु वंशादिमय-मेवान्तर्ग्राह्यदण्डम् । प्रथम अध्ययन : टिप्पण ९८-१०४ ३. वीजनक- जिसके मध्य में दण्ड लगा हुआ है वह चर्ममय पंखा १०१. उदुम्बर के पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ हो (उंबरपुष्कं व दुल्लह सवणयाए) उदुम्बर का अर्थ है- गूलर का पेड़ -- क्षीरवृक्ष हेमदुग्ध और सदाफल ये इसके पर्यायवाची नाम है। शब्द कल्पद्रुम में इसके गुण निष्पन्न अठारह नामों का उल्लेख है।' उसके अनुसार उसकी छाल शीतल होती है और वह पुष्पशून्य होता है। प्रस्तुत सूत्र में उदुम्बर पुष्प की भांति दुर्लभता का जो उल्लेख है। उसका तात्पर्य यही है कि जैसे उदुम्बर का फूल अलभ्य है वैसे ही मां की दृष्टि में मेघ जैसा पुत्र अन्यत्र दुर्लभ है। सूत्र ११० १०२. सातवीं पीढ़ी तक (आसत्तमाओ कुलवंसाओ) प्राचीनकाल में सम्पदा की प्रचुरता की एक कसौटी मानी जाती थी- जो सम्पदा सात पीढ़ी तक पर्याप्त हो। उसका अपना महत्त्व था। जिसके पास इतनी सम्पदा होती थी, वह व्यक्ति सम्पन्न माना जाता इसीलिए प्रस्तुत सूत्र में 'अलाहि जाव आसत्तमात्र कुलवंसाओं का प्रयोग मिलता है। सूत्र ११२ १०३. सांप की भांति एकान्त दृष्टि (अतीव एतदिट्ठीए) सर्प अपने लक्ष्य पर अत्यन्त निश्चल दृष्टि रखता है। यही कारण है कि उसके द्वारा देखे जाने वाले पदार्थ का उसमें स्थिर प्रतिबिम्ब पड़ता है। वह प्रतिबिम्ब वर्षों तक भी अमिट रहता है। इसी प्रकार साधु को भी अपने लक्ष्य / चारित्राराधना पर निश्चल दृष्टि रहना होता है। १०४. दुर्भिक्षभक्त, कान्तार-भक्त, वालिका भक्त, और ग्लान भक्त (दुभिक्खभत्ते वा कंतारभत्ते वा वद्दलिया भत्ते वा गिलाण - भत्ते वा ) निशीथ चूर्णि और स्थानांग वृत्ति में इनकी बहुत सुन्दर व्याख्या प्राप्त होती है। १. दुर्भिक्ष भक्त -- भयंकर दुष्काल होने पर राजा तथा अन्य धनाढ्य व्यक्ति भक्त पान तैयार कर देते थे। वह दुर्भिक्ष भक्त कहलाता था। २. कान्तार भक्त -- प्राचीनकाल में भिक्षुओं का गमनागमन सार्थवाहों के साथ-साथ होता था । कभी वे अटवी में साधु पर दया करके उसके लिए भोजन बनाकर दे देते थे । इसे कान्तार भक्त कहा जाता था। ४. अभिधानचिन्तामणि ४/१९८-- उदुम्बरो जन्तुफलो मशकी हेमदुग्धकः । ५. शब्दकल्पद्रुम १, पृष्ठ २३९ ६. निशीथ भाष्य, भाग ३, पृष्ठ ४५५ दुभिखे राया देतितं दुब्भिक्खभत्तं । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ जहां जल मार्ग से माल आता हो वह जल-पत्तन और जहां स्थल मार्ग से माल आता हो वह स्थल-पत्तन है। संवाह--जिस गिरिदुर्ग आदि पर धान को ढोकर ले जाया जाता प्रथम अध्ययन : टिप्पण १०४-१०७ ३. वालिका भक्त--आकाश में बादल छाए हुए हैं। वर्षा गिर रही है। ऐसे समय में भिक्षु भिक्षा के लिए नहीं जा सकते । यह सोचकर गृहस्थ उनके लिए विशेषत: जो भोजन तैयार करते, वह वालिका भक्त कहलाता था। ४. ग्लान भक्त--इसके तीन अर्थ हैं-- १. आरोग्यशाला (अस्पताल) में दिया जाने वाला भोजन। २. आरोग्यशाला के बिना भी सामान्यत: रोगी को दिया जाने वाला भोजन । ३. रोग उपशमन के लिए दिया जाने वाला भोजन ।' सूत्र ११३ १०५. (सूत्र ११३) प्रस्तुत सूत्र में दो शब्द विमर्शनीय हैं इहलोक और परलोक। सूत्रकार के अनुसार जो व्यक्ति मात्र वर्तमान जीवन में पौद्गलिक सुखों से प्रतिबद्ध होता है और पारलौकिक हित से निरपेक्ष रहता है. उसके लिए निर्ग्रन्थ-प्रवचन दुरनुचर है। सूत्र ११८ १०६. सब प्रकार के उदक, सब प्रकार की मिट्टी (सव्वोदएहिं, सव्वमट्टियाहिं) यहां सर्वोदक का अर्थ है--समस्त तीर्थों में उपलब्ध होने वाला जल। सर्व मृत्तिका का अर्थ है--सब तीर्थ क्षेत्रों की मिट्टी। सन्निवेश--सार्थ आदि के ठहरने का स्थान ।। दि जैनिस्ट स्टडीज में उल्लिखित इनकी व्याख्या मननीय होने के साथ-साथ मनोरंजक भी है। १. ग्राम--जहां साधु भिक्षा के लिए गमन करते हैं। जो गुणों को ग्रसता है। जहां अठारह प्रकार के कर लगते हैं अथवा कांटों की बाड़ से आवृत जन-निवास। ___ जहां केवल विप्र और विप्रभृत्य रहते हैं, वह गांव है, अथवा जहां केवल शुद्र ही रहते हैं, वह गांव है। २. नगर--जहां किसी प्रकार का कर नहीं लगता। जिसके चारों ओर विशाल गोपुर हों और जो शोभन हो। नगर की पहचान-देवमन्दिरों, विचित्र प्रकार के प्रासादों, बाजारों, मकानों और शोभन राजमार्गों द्वारा होती है। ३. खेड--धूलि के प्राकार से घिरा हुआ, चारों ओर से नदी अथवा पर्वत से घिरा हुआ, पुर की अपेक्षा जिसका विस्तार आधा हो। किसानों का गांव। ४. कर्बट--चारों गांव के मध्य स्थित गांव कर्बट है। दो सौ गांव के मध्य स्थित कावटिका और सौ गांव के मध्य स्थित गांव को काव कहते हैं। जिसके एक ओर गांव हो और दूसरी ओर नगर, उन दोनों को जो मिला जुला भाग है, वह कर्बट है, जो पर्वत या नदी से घिरा हुआ हो वह कर्बट है। ५. मडम्ब--जिसके चारों ओर ढाई योजन तक कोई गांव न हो, जिसके चारों ओर अर्ध योजन तक गांव हो, जिसके चारों ओर आस-पास में कोई दूसरा गांव, नगर आदि न हो, जो चारों ओर से जनाश्रय शून्य हो। ६. पत्तन--जहां सब दिशाओं से लोग आते हो, जहां रत्नों की खाने हों। पत्तन दो प्रकार के होते हैं--जलमध्यवर्ती, स्थलमध्यवर्ती। जहां रत्न उत्पन्न होते हों। जो शकट और नौकाओं से गम्य हो, घाटयुक्त हो, वह पत्तन और जो केवल नौकाओं द्वारा ही गम्य हो वह पट्टन कहलाता है। जहां जल या स्थल पथ में से किसी एक द्वारा प्रवेश-निर्गम हो। ७. द्रोणमुख--द्रोण नाम के समुद्र की वेला से घिरा हुआ। जहां जल आर स्थल दाना स प्रवश आर निगम हा, जस--भगुकच्छ, भड़ाच आद। १०७. ग्राम, आकर......सन्निवेशों (गामागर......सण्णिवेसाणं) यहां ग्राम, आकर से लेकर सन्निवेश तक के १२ शब्दों का अर्थ ज्ञातव्य है। ग्राम--जो कर आदि से गम्य हो, जहां टेक्स लगती हो। आकर--लवण आदि की उत्पत्ति भूमि। नगर--जहां कर नहीं लगता। खेट--जिसके चारों ओर रेत का प्राकार हो। कर्बट--कुनगर। द्रोणमुख--वह व्यापारिक क्षेत्र जहां जल और स्थल--दोनों मार्गों से माल आता हो। मडम्ब--जिसके चारों ओर एक-एक योजन तक कोई गांव आदि न हो। पत्तन--पत्तन दो प्रकार के होते हैं--जल पत्तन और स्थल पत्तन। १. स्थानांग वृत्ति, पत्र-४४३--वलिका-मेघाऽम्बरं तत्र हि वृष्ट्या भिक्षाभ्रमणाक्षमो भिक्षुकुलो भवतीति गृही तदर्थं विशेषतो भक्तं दानाय निरूपयतीति । २. निशीथ भाष्य, भाग ३, पृष्ठ ४५५--आरोग्गसालाउ वा चिणावि आरोग्गसालाए जं गिलाणस्स दिज्जति तं गिलाणभक्तं । ३. (क) स्थानांग वृत्ति, पत्र-४४३ रोगोपशान्तये यद्ददाति । (ख) ज्ञातावृत्ति, पत्र-५६ ४. वही, पत्र-५९--सर्वोदकैः सर्वतीर्थसम्भवैः एवं मृत्तिकाभिरिति । ५. ज्ञातावृत्ति, पत्र-६०--करादिगम्यो ग्राम:, आकरो लवणाद्युत्पत्तिभूमि:, अविद्यमानकर-नगर, धूली प्राकारं-खेटं, कुनगरं-कर्बट, यत्र जलस्थलमार्गाभ्यां भाण्डान्यागच्छन्ति तद्बोणमुखं । यत्र योजनाभ्यन्तरे सर्वतो ग्रामादि नास्ति तन्मडम्बं, पत्तनं द्विधा - जलपत्तनं स्थलपत्तनं च, तत्र जलपत्तनं यत्र जलेन भाण्डान्यागच्छन्ति, यत्र तु स्थलेन तत्स्थलपत्तनं, यत्र पर्वतादि दुर्गे लोकधान्यानि संवहन्ति स संवाहः, सार्थादिस्थानं सन्निवेशः। Jain Education Intemational Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ८३ ८. आकर सोने आदि का उत्पत्तिस्थान, तोह आदि की -- उत्पत्ति-भूमि । ९. आश्रम - तापस आश्रम से उपलक्षित स्थान । तीर्थ स्थान अथवा मुनस्था १०. सन्निवेश -- सार्थ, कटक आदि का वास । यात्रा आदि के लिए समागत व्यक्तियों का आवास । सन्निवेश सार्थ और सेना का होता है। । १९. निगम जहां बहुत से व्यापारियों का निवास हो जिसके निगमन के लिए चार से अधिक मार्ग हो। निगम वणिग्ग्राम | १२. राजधानी -- जहां राजा रहता हो । -- १३. संवाह-- किसान समभूमि में खेती कर सुरक्षा के लिए दुर्ग भूमि आदि में धान को वहन कर ले जाते हैं, वह संवाह (संबाध) कहलाता है जहां चारों ही वर्णों के लोग बड़ी संख्या में रहते हों। (द्रष्टव्य ठाणं २/३९० का टिप्पण, पृष्ठ १४२-१४४) सूत्र १२१ १०८. कुत्रिकापण से (कुत्तियावणाओ ) -- कुत्रिकापण वह दुकान या स्टोर, जहां विश्व भर की प्रत्येक वस्तु उपलब्ध होती हो । प्राचीन मान्यता के अनुसार देवाधिष्ठित होने के कारण स्वर्ग, मर्त्य और पाताल रूप तीन लोक में उपलब्ध होने वाली प्रत्येक वस्तु जहां उपलब्ध होती हों, वे आपण दुकानें कुत्रिकापण कहलाती थीं। सूत्र १२५ १०९ वस्त्र से पोसीए) पोत्तिय वस्त्र के अर्थ में देशी शब्द है। संस्कृत के प्रोत और हिन्दी के 'पोत' इसके ही प्रतिरूप हैं। सूत्र १२७ हंस लक्षण पटशाटक वाला विशाल वस्त्र । ११०. हंस लक्षण पटशाटक में ( हंसलक्खणेण पडसाइएण ) हंस जैसी शुक्लता अथवा हंस के छापे सूत्र १२७ १११. अभ्युदय, उत्सव और पर्वणी (पूर्णिमा आदि) तिथियों में (अन्दर य उत्सवेषु य ........ पव्वणीसु य ) १. अभ्युदय राज्य लक्ष्मी आदि की प्राप्ति होना। २. उत्सव -- प्रिय समागम के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला उत्सव । -- - ******** १. ज्ञातावृत्ति, पत्र - ६१ -- कुत्तियावणाउ त्ति देवताधिष्ठितत्वेन स्वर्गमर्त्यपाताललक्षण मूत्रितयसम्भविवस्तुसम्पादक आपगो हट्टः कुत्रिकापणः । २. वही - पोत्तियाइत्ति वस्त्रेण । ३. वही--हंसस्येव लक्षणं स्वरूपं शुक्लता हंसा वा लक्षणं चिह्नं यस्य स तेन शाटको वस्त्रमात्रं स च पृथुल: पटोऽभिधीयते इति पटशाटकः । प्रथम अध्ययन : टिप्पण १०७-११२ २/११ की वृत्ति में इन्द्रोत्सव आदि को उत्सव में परिगणित किया गया है। ३. प्रसव-- पुत्र जन्म । ४. तिथि - मदन त्रयोदशी आदि के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला उत्सव भी 'तिथि' कहा जाने लगा । ५. क्षण--इन्द्रोत्सव आदि । २ / ११ की वृत्ति में बहुत जनों के सम्मिलित भोज आदि को क्षण माना गया है। लगता है २ / ११ की वृत्ति में उत्सव और क्षण की व्याख्या में व्यत्यय हुआ ६. यज्ञ -- नाग पूजा आदि । है । ७. पर्वणि--कार्तिकी महोत्सव, कौमुदी महोत्सव आदि । सूत्र १२८ ११२. (सूत्र १२८ ) प्रस्तुत सूत्र में पुरुष के पहनने योग्य सतरह प्रकार के आभरणों तथा चार प्रकार की मालाओं का उल्लेख है । १. हार - एक सौ आठ लड़ी वाली मोती की माला । २. अर्द्धहार-- चौसठ लड़ी वाली मोती की माला । ३. एकावलि - एक लड़ी की मोती की माला । ४. मुक्तावलि --मोती की माला । ५. कनकावलि -- सोने की माला । ६. रत्नावलि -- रत्नों की माला । ७. प्रालम्ब -- मोती की माला । ८. पाद- प्रालम्ब -- पैरों तक लटकता गले का स्वर्णाभूषण । ९. कटक - कंकण । १०. त्रुटित -- बाहुरक्षक आभूषण । ११. केयूर बाजूबन्द | -- १२. अंगद बाजूबन्द | १३. दसमुद्रिकानंतक मुद्रिका दशक (दस मुद्रिकाओं वाला हथफूल) १४. कटिसूत्र--करघनी १५. कुंडल १६. चूड़ामणि १७. मुकुट चार प्रकार की मालाएं - १. ग्रन्थित २ वेष्टित ३. पूरित ४. संघात्य । -- त्रुटित, केयूर और अंगद ये तीनों ही भुजा के आभरण है, फिर भी तीनों में भेद है त्रुटित दृष्टिदोष के निवारणार्थ पहने जाते थे। केयूर और अंगद में आकारगत भेद है । ४. वही - - अभ्युदयेषु राज्यलाभादिषु। उत्सवेषु-प्रियसमागमादिमहेषु । प्रसवेषुपुत्रजन्मसु । तिथिषु - मदनत्रयोदशीप्रभृतिषु । क्षणेषु इन्द्रमहादिषु । यज्ञेषुनागादिपूजासु । पर्वणीषु च - कार्त्तिक्यादिषु । 1 (ख) वही ८७--अभ्युदयेषु राज्यलक्ष्म्यादिलाभेषु । उत्सवे-इन्द्रोत्सवादिषु । प्रसवेषु - पुत्रादिजन्मसु । तिथिषु मदनत्रयोदश्यादिषु । क्षणेषु - बहुलोक भोजनादानादिरूपेषु यज्ञेषु नागादिपूजासु पर्वणीषु कौमुदीप्रभृतिषु । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ११३-११९ सूत्र १३४ ११३. विलास, संलाप और उल्लाप (विलाससंलावुल्लाव) विलास - नेत्र विकार अथवा चाक्षुष चेष्टा । संलाप-- परस्पर वार्तालाप । उत्ताप काकुध्वनि से युक्त वचन। सूत्र १४३ -- ११४. वर्द्धमानक (वद्धमाणग) वर्धमानक यह आठ प्रकार के मंगलों में चौथा मंगल है। वृत्तिकार ने विभिन्न मतों का उल्लेख करते हुए वर्धमानक के अनेक अर्थ किए हैं जैसे--शराव, पुरुषारूढ पुरुष, पांच प्रकार के स्वस्तिक तथा प्रासाद विशेष | किन्तु आठ मंगलों के साथ उल्लेख होने के कारण यहां वर्द्धमानक का अर्थ शराव संपुट ही होना चाहिए। 'पुरुषाद्ध पुरुष' के अर्थ में आगे वद्धमाणा शब्द प्रयुक्त हुआ है। वद्धमाणा --स्कन्ध भारवाही वटुक कन्धे पर मनुष्य को बैठाकर सवारी के आगे चलने वाले।' सूत्र १४८ ११५. प्रयत्न करना......पराक्रम करना (जइयव्वं ...... परक्कमियव्वं ) यत्न -- प्राप्त संयम योगों के प्रति जागरूक रहना । घटना -- चेष्टा- अप्राप्त संयम योग की प्राप्ति के लिए चेष्टा करना । पराक्रम - पौरुष से होने वाली फल प्राप्ति का प्रयत्न । स्थानांग टीका के अनुसार पराक्रम का अर्थ है--शक्ति क्षय होने पर भी विशेष उत्साह बनाए रखना। " सूत्र १४९ ११६. (सूत्र १४९ ) प्रस्तुत सूत्र में हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और अनुगामिक-इन पांच शब्दों का प्रयोग प्रतिपाद्य विषय पर बल देने के लिए किया गया है। प्रत्येक शब्द की अर्थ- भिन्नता पर ध्यान देने पर इनके अर्थ इस प्रकार फलित होते है- १. तावृति पत्र ६१-विलासनेत्रविकारो वाह हावो मुखविकारः स्याद् भावश्चित्तसमुद्भवः । विलासनेो विभ्रमो समुद्भवः ।। संताप मिश्रो भाषा, उत्ताप काकुवर्णनम्। २. वही, पत्र - ६२ -- वद्धमानयं ति शरावं, पुरुषारूढः पुरुष इत्यन्ये स्वस्तिक पंचकमित्यन्ये प्रासादविशेषः इत्यन्ये । ३. (क) अर्धमागधी कोष, भाग ४ पृष्ठ ३४३ । (ख) ज्ञातावृत्ति पत्र ६४ वर्धमानकाः स्कन्धारोपितपुराषा: - ४. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ६५ जयव्यमित्यादि प्राप्तेषु संयमयोनेषु यत्नः कार्यः । ८४ हित- अपाय रहित शुभ पुण्यपलदायक क्षम-औचित्य या सामर्थ्य निःश्रेयस-कल्याण अनुगामिक-- भविष्य में उपकारक के रूप में साथ देने वाला । नायाधम्मकहाओ सूत्र १५० ११७. इस प्रकार चलो....इस प्रकार बोलो (गंतव्वं .... एवं भासियत्वं ) यहां एवं गंतत्वं ...... एवं भासियव्वं का अर्थ है-संयमपूर्वक चलो, संयमपूर्वक खड़े रहो, संयमपूर्वक बैठो, संयमपूर्वक लेटो, संयमपूर्वक खाओ और संयमपूर्वक बोलो। इसका आधार दशवैकालिक में प्राप्त होता है। शिष्य पूछता है-भंते! मैं कैसे चलूं? कैसे खड़ा रहूं? कैसे बैठूं? कैसे लेटू? कैसे खाऊ? और कैसे बोलू? इसके समाधान में भगवान ने कहा जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सये 1 जयं भुंजतो भासतो, पावकम्मं न बंधई । " यहां भी 'एवं' पद में 'जय' का अर्थ अन्तर्गत है। विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य दशवैकालिक ४/८ का टिप्पण | सूत्र १५१ ११८. संयमपूर्वक लेटता ( तुयट्टइ ) यहां 'तुप' का संस्कृत रूपान्तरण है स्वग्वर्तन सोना। जैन श्रमण की संयमपूर्वक सोने की विधि है सामायिक सूत्र आदि के उच्चारण पूर्वक, शरीर की प्रमार्जना कर संस्तारक और उत्तरपट्ट पर बांह को उपधान बनाकर बाएं पार्श्व से सोना । " अधिक ऊंचे तकिये का प्रयोग न करना और बायीं करवट सोना स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभप्रद है । ११९. प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति (पाणेहिं भूएहिं जीवहिं सत्तेहिं) । प्राण भूत, जीव और सत्त्व- ये सामान्यत: पर्यायवाची हैं, एकार्थक ५. वही घटितव्यं अप्राप्तप्राप्तये घटना कार्या, पराक्रमितव्यं च पराक्रमः कार्य: पुरुषत्वाभिमानः सिद्धफलः कर्तव्यः । ६. स्थानांग वृतिपत्र ४१८ शक्तियेऽपि तत्पालने पराक्रम उत्साहातिरेको विधेय इति । ७. दसवेआलियं ४ / ८ ८. शातावृत्ति, पत्र- ६६--त्वग्वर्तितव्यं शयनीय, सामायिकाचुच्चारणापूर्वक शरीर प्रमानां विधाय संस्तारकोत्तरपट्टयोर्वाहुपधानेन वामपार्श्वतइत्यादिना न्यायेन । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ थे। नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ११९-१२७ हैं, किन्तु भेद की विवक्षा करने पर इनके स्वतन्त्र वाच्यार्थ हैं, सूत्र १५८ जैसे--प्राण-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय प्राणी। १२४. काननों, वनों, वनषण्डों, वनराजियों (काणणेसु वणेसु वणसंडसु भूत-तरुगण । जीव-पंचेन्द्रिय । सत्त्व-शेष सब जन्तु ।' वणराईस) कानन--स्त्रीवर्ग अथवा पुरुषवर्ग में से किसी एक पक्ष के लिए सूत्र १५४ उपभोग्य वन प्रदेश । अथवा जिस वन प्रदेश से आगे पर्वत या अटवी हो, १२०. कारण और व्याकरण (कारणाई वागरणाई) अथवा जहां जीर्ण वृक्ष समूह हो।' कारण--युक्ति या हेतु का कथन करना। वन--एक जातीय वृक्षावलि से शोभित प्रदेश। व्याकरण--दूसरे के द्वारा प्रश्न उपस्थित करने पर उत्तर देना। वनषण्ड--अनेक जातीय वृक्षावलि से शोभित प्रदेश । १२१. प्रस्तुत सूत्र (सूत्र १५४) में मेघमुनि की संप्रेक्षा बतलाई गई है कि वनराजि--एक जातीय और अनेक जातीय वृक्षावलियों वाला प्रदेश ।" 'मैं प्रभात होते ही श्रमण भगवान महावीर को पूछकर पुन: घर चला सूत्र १५९ जाऊं।' यह सोच वे आर्तध्यान के वशीभूत हो गये। वह रात उनके लिए १२५. ज्येष्ठ मास में (जेट्ठामूलेमासे) नरक सदृश हो गयी। .. इस मास के मूल में ज्येष्ठा नक्षत्र रहता है अत: ज्येष्ठा नक्षत्र के इसका मूल दशवैकालिक में उपलब्ध होता है। संयम में रत आधार पर इस मास का नाम ज्येष्ठा मूल होता है।१२ महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के समान सुखद होता है और संयम सूत्र १६० में रत नहीं होते उनके लिए वही (मुनि-पर्याय) महानरक के समान दु:खद दुःखद १२६. शुष्क उद्विग्न (तसिए उव्विग्गे) होता है।' तसिए देशी शब्द है। वृत्तिकार के अनुसार यह उस स्थिति का मनि मेघ भी वर्तमान में इसी स्थिति का अनुभव कर रहे दोतक है जहां प्राणी का आनन्द-रस सर्वथा सूख जाता है। भय की अवस्था में होठ और कंठ सूख जाते हैं। इसीलिए 'तसिए' का सूखा' अर्थ प्रासंगिक है। सूत्र १५६ उद्विग्न का भावार्थ है 'इस अनर्थ से कैसे छुटकारा होगा' इस प्रकार १२२. सौम्य (सोम) सौम्य का अर्थ है--अरौद्र आकृति वाला अथवा निरोग। के अध्यवसाय वाला। सूत्र १६१ सूत्र १५७ १२७. तत्काल क्रोध से तमतमा उठा .......... और क्रोध से १२३. छोटे शिशुओं ...... कार्य नियोजक (लोट्टएहि ......पट्टवए) नियोजक (लोट्टएहि ......पट्टवए) प्रज्ज्वलित होकर (आसुरते..........मिसिमिसेमाणे) लोट्टय--यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है कुमारावस्था वाला ये क्रोध की उत्पत्ति और अभिव्यक्ति की क्रमभावी अवस्थाएं हैं। हाथी। कलभ--३० वर्ष का हाथी। १. आसुरत्त--क्रोध से तमतमाना, क्रोध से लाल हो जाना। वृत्तिकार ने कलभ का अर्थ बालक अवस्था वाला हाथी किया है। वृत्तिकार के अनुसार आकृति या शरीर में क्रोध के चिह्न उभर आना। किन्तु अभिधान चिन्तामणि में हाथी के पांच वर्ष के बच्चे का नाम बाल २. रुष्ट--अन्त:करण में क्रोध का उत्पन्न होना। मुद्रा और भाव किया गया है। का गहरा सम्बन्ध है। मन पर जैसे भाव उभरते हैं वैसी ही मुद्रा का पागड्ढी--इसका संस्कृत रूप प्राकर्षी बनता है। इसका अर्थ निर्माण हो जाता है अथवा जैसी मुद्रा बनती है उसी के अनुरूप भाव उतर है--आगे चलने वाला। आते हैं। आसुरत्त को मुद्रा का सूचक और रुष्ट को भाव का सूचक मानने पट्ठवए--प्रस्थापक--विविध कार्यों में प्रवृत्ति कराने वाला। पर उक्त तथ्य की संगति हो जाती है। १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-६७-- ८. वही--काननेषु च-स्त्री पक्षस्य पुरुषपक्षस्य चैकतरस्य भोग्येषु वनविशेषेषु, प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरव: स्मृताः । ___ अथवा-यत्परत: पर्वतोऽटवी वा भवति तानि काननानि जीर्णवृक्षाणि वा। जीवा: पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः।। ९. वही--वनेषु च-एकजातीयवृक्षेषु। २. वही--कारणानि उपपत्तिमात्राणि, व्याकरणानि-परेण प्रश्ने कृते उत्तराणि। १०. वही--वनखण्डेसु च-अनेकजातीयवृक्षेषु । ३. नायाधम्मकहाओ १/१५४--निरयपडिरूवियं चणंतं रयणिं खवेइ ११. वही--वनराजीषु च-एकानेकजातीयवृक्षाणां, पंक्तिषु । ४. दसवेआलियं चूलिका १/१० १२. वही--ज्येष्ठा मूलमासेत्ति ज्येष्ठमासे। ५. ज्ञातावृत्ति, पत्र-७१--सौम्य: अरौद्राकारो नीरोगो वा। १३. वही पत्र ७३-- तसिए' त्ति शुष्क आनन्दरसशोषात् । ६. वही, पत्र-७२--लोट्टका:-कुमारकावस्था:, कलभा:--बालकावस्थाः। १४. वही--कथमितौ अनर्थान्मोक्ष्येऽहमित्यध्यवसायवान् । ७. वही--प्राकर्षी--प्राकर्षको अग्रगामी, प्रस्थापको--विविधकार्येषु प्रवर्तको। Jain Education Intemational Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण १२७-१३० ३. कुपित--क्रोध का बढ़ना। ४. चंडिक्किए--रौद्र रूप धारण करने वाला। ५. मिसिमिसेमाणे--क्रोध से जलता हुआ। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जैसे-जैसे क्रोध की वृत्ति उग्र रूप धारण करती है वैसे-वैसे मुद्रा भी प्रखर हो जाती है इनको एकार्थक भी माना गया है। कोप का प्रकर्ष दिखाने के लिए अथवा नानादेशीय शिष्यों के अनुग्रह के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है।' सूत्र १६२ १२८. उज्ज्वल (उज्जला) यहां वेदना की प्रखरता बताने के लिये उज्ज्वल शब्द का प्रयोग हुआ है। इस विषय में वृत्तिकार ने लिखा है-यह वेदना उज्ज्वल है अर्थात् दुःख स्वरूप ही है। उसमें सुख का स्पर्श भी नहीं है। इसका भावार्थ है--एकान्त वेदना। इसका व्यौत्पत्तिक अर्थ हो सकता है--प्रबलता से शरीर और मन को जलाने वाली वेदना। सूत्र १७० १२९. लेश्या.....परिणाम शुभ था। (लेस्साहि.....परिणामेणं) लेस्सा--तेजस् शरीर के साथ काम करने वाली चेतना। अज्झवसाणेणं--कर्म शरीर के साथ काम करने वाली चेतना। वृत्तिकार के अनुसार अध्यवसान का अर्थ है मानसिक परिणति ।' लेकिन यह विमर्शनीय है क्योंकि अध्यवसाय उन प्राणियों के भी होता है, जिनके मन नहीं होता। परिणाम का अर्थ है--जीव परिणति ।' लेश्या, अध्यवसाय और परिणाम--ये तीनों शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं। इनकी अशुभ परिणति आश्रव की और शुभ परिणति निर्जरा की निमित्त है। अतीन्द्रिय चेतना के जागरण के लिए इन तीनों की प्रशस्तता अनिवार्य है। नायाधम्मकहाओ का उल्लेख है। तथा सूत्र १७७ में मज्झिमए वरिसारत्तसि और सूत्र १७८ में चरिमे परिसारत्तंसि प्रयोग हुआ है। वृत्ति के अनुसार प्रावृट् और वर्षारात्र इनको स्वतन्त्र दो ऋतुओं के रूप में स्वीकार किया गया है। जैसे-- १. प्रावृट्--आषाढ़, श्रावण मास २. वर्षारात्र--भाद्रपद, आश्विन मास ३. शरद--कार्तिक, मृगसर मास ४. हेमन्त--पौष, माघ मास ५. बसन्त--फाल्गुन, चैत्रमास ६. ग्रीष्म--वैशाख, ज्येष्ठ मास । अमर कोष में ऋतुएं छ: मानी गई है। पर वहां प्रावृट् का पृथक् उल्लेख नहीं है। शिशिर ऋतु अलग मानी गई है। उनका क्रम इस प्रकार है-- १. मार्गशीर्षपोषौ हिमः २. माघफाल्गुनौ शिशिरः ३. चैत्रवैशाखौ वसन्तः ४. ज्येष्ठाषाढ़ौ ग्रीष्मः ५. श्रावण भाद्रपदौ वर्षा ६. आश्विनकार्तिको शरत्। स्मृति साहित्य में तीन ऋतुओं का वर्णन है-- १. कार्तिक, मृगसर, पौष और माघ--शीत २. फाल्गुन चैत्र वैशाख और ज्येष्ठ--ग्रीष्म ३. आषाढ़ श्रावण भाद्रपद और आश्विन--वर्षा ऋतु। दो ऋतुओं की मान्यता भी रही है। कार्तिक से लेकर छ: महीने तक शीत और वैशाख से लेकर छ: महीने तक ग्रीष्म । संस्कृत साहित्य में जहां ऋतुओं का वर्णन है, वहां प्रावृट् को पृथक ऋतु नहीं माना गया है। उसके अभिमत से प्रावृट् का अर्थ है पहली बरसात का समय, उसका अनुबन्ध वर्षा ऋतु से ही है। अत: वह स्वतन्त्र ऋतु नहीं है। मात्र सुश्रुत (अध्याय ६) में इन छहों ऋतुओं का उल्लेख है। जैसे-- भाद्रपद-आश्विन - वर्षा कार्तिक-मृगसर - शरद पौष-माघ ___ - हेमन्त फाल्गुन-चैत्र - वसन्त वैशाख-ज्येष्ठ - ग्रीष्म आषाढ़-श्रावण - प्रावृट् । सूत्र १७५ १३०. प्रथम पावस में महावृष्टि होने पर (पढम पाउसंसि महावुट्ठिकायंसि) पावस का अर्थ है आषाढ़ और श्रावण मास, अत: प्रथम पावस का अर्थ है-आषाढ़ मास । विमर्श-प्रस्तुत प्रसंग में सूत्र १७५ में पढमपाउससि महावुट्ठिकार्यसि १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-७३--आसुरतैत्ति-स्फुरितकोपलिंग:, रुष्ट:-उदितक्रोधः, कुपित:-प्रवृद्धकोपोदय:, चाण्डिक्यित:-संजात चाण्डिक्यः, प्रकटितरौदरूप इत्यर्थः, 'मिसिमिसीमाणे':त्ति-क्रोधाग्निना देदीप्यमान इव, एकार्थिका वैते शब्दा: कोपप्रकर्षप्रतिपादनार्थं नाना-देशजविनेयानुग्रहार्थं वा। २. वही, पत्र-७४--उज्ज्वला विपक्ष-लेशेनापि अकलंकिता। ३. वही--अध्यवसानं मानसी परिणतिः । ४. वही--परिणामो--जीवपरिणतिः। ५. निशीथ चूर्णि, भाग २, पृ. १२१-पढमपाउसो-पाउसो आसाढ़ो सावणो य। आसाढ़ो पढमपाउसो। ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-७२ Jain Education Intemational Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ८७ प्रथम अध्ययन : टिप्पण १३१-१३५ सूत्र १७८ १३१. बिल धर्म से (बिल में रहने वाले कीड़े-मकोड़ों की भांति) (बिलधम्मेणं) जैन आगम और आगमेतर साहित्य में ग्राम-धर्म, नगर-धर्म आदि दस धर्मों का वर्णन है। पर कहीं बिल धर्म का प्रयोग उपलब्ध नहीं होता। प्रस्तुत सूत्र में यह नवीन प्रयोग देखने को मिलता है। धर्म का अर्थ है व्यवस्था। बिल धर्म अर्थात बिल में रहने वाले कीड़े-मकोड़ों की भाति । वन में भयंकर आग लगी। घास पात रहित छोटे से भूभाग में परस्पर विरोधी धर्म वाले जीव-जन्तु किसी दूसरे प्राणी को बाधा पहुंचाये बिना सह-अस्तित्व पूर्वक वहां रहे। छोटे-छोटे जीव जन्तुओं में यह वृत्ति निसर्ग-सिद्ध है। सोवियत संघ के प्रमुख लेखक श्री कुदेरीव ने अपने साहित्य में नये जीवन मूल्य की स्थापना की है, वह है--स्प्रिच्युअल वेल्युज । इसको परिभाषित करते हुए वे बताते हैं--स्प्रिच्युअल वेल्युज का अर्थ है--परस्पर प्रेम, पड़ौसियों से प्रेम, अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए जीने की ललक। यह वृत्ति संकट के समय छोटे से छोटे प्राणी में देखने को मिलती है। सूत्र १८१ १३२. (सूत्र १८१) प्रस्तत सत्र में भगवान मेघ को बता रहे है--तुमने हाथी के भव में खरगोश की अनुकम्पा से प्रेरित होकर अपने पांव को धरती पर नहीं टिकाया, उसे अधर में रखा। इस प्रकरण में आगमकार ने चार पदों का प्रयोग किया है--प्राणानुकम्पा, भूतानुकम्पा, जीवानुकम्पा और सत्त्वानुकम्पा। एक खरगोश के लिए प्राण, भूत, जीव, सत्त्व--इन चार पदों का प्रयोग क्यों? च--इन चार पदा का प्रयोग क्या? इसका समाधान यह है--यह एक समुच्चय पाठ है जो अहिंसा के समग्र-सिद्धान्त की अभिव्यक्ति कर रहा है। इसलिए इस पाठ में सब जीवों का समुच्चय किया गया है। बहुवचन भी इसी अपेक्षा से है। सूत्र १८४ १३३. (सूत्र १८४) प्रस्तुत सत्र में अग्नि प्रशमन में निष्ठित, उपरत, उपशान्त और विध्यात इन चार शब्दों का प्रयोग हुआ है। इस प्रसंग में इनका तात्पर्यार्थ इस प्रकार है निष्ठित--कार्य सम्पन्न होना। उपरत--ईंधन का अभाव। उपशान्त--ज्वालाओं का उपशमन । विध्यात--अंगार, चिनगारी आदि सूक्ष्म अग्निकण का भी अभाव। सूत्र १८९ १३४. उत्थान....... पराक्रम (उट्ठाण-बल............ परक्कम) उत्थान आदि शक्ति के परिचायक शब्द हैं। फिर भी अवस्था कृत अन्तर है. जैसे-- उत्थान--चेष्टा या प्रयत्न बल--शारीरिक शक्ति वीर्य--आत्म शक्ति पुरुषकार--अभिमान गर्भित प्रयत्न पराक्रम--फल सिद्धि के लिए निर्णयपूर्वक किया जाने वाला प्रयत्न।' स्थानांग वृत्ति में पुरुषकार और पराक्रम का अर्थ भिन्न प्रकार से मिलता है। पुरुषकार--अभिमान विशेष, पुरुष का कर्तव्य पराक्रम--अपने विषय की सिद्धि में निष्पन्न पुरुषकार, बल और वीर्य का व्यापार । सूत्र १८९ १३५. (सूत्र १८९) प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर मेघकुमार को मुनि जीवन में स्थिर करने के लिए पर्वजन्म की घटना बतला रहे हैं। भगवान महावीर ने कहा-मेघ! तू आज मनुष्य है, सम्राट श्रेणिक का पुत्र है, वैराग्यपूर्वक मुनि दीक्षा स्वीकार की है, फिर भी थोड़े से कष्ट में तू अधीर हो गया। उस समय को याद कर. जब तू तिर्यंच योनि में था, हाथी था, सम्यक्त्व रत्न का लाभ तुझे प्राप्त नहीं था। उस अवस्था में भी तुमने अनुकम्पा पूर्वक पैर को ऊपर रखा। इस वक्तव्य में 'अपडिलद्धसमत्तरयणलभेणं' यह पाठ है, उस विषय में एक विवाद चल रहा है। उस विवाद का आधार अपडिलद्ध शब्द हैं। अभयदेव ने अपडिलद्ध का अर्थ असंजात किया है। इसका अर्थ स्पष्ट है कि उस समय हाथी को सम्यक्त्व रत्न का लाभ नहीं हुआ था। दूसरा पक्ष इसका अर्थ करता है--जो पहले प्राप्त नहीं था उस सम्यक्त्व रत्न का लाभ हो गया। ऐसा अर्थ तब किया जा सकता था जब लद्ध अपडिलद्ध सम्यक्त्व रत्न लाभ यह पद होता। मूल पाठ के समस्त पद का विग्रह इस प्रकार है-- सम्यक्त्वमेव रत्नं इति सम्यक्त्व-रत्नं तस्यलाभ: इति सम्यक्त्वरत्नलाभ: न प्रतिलब्ध: सम्यक्त्वरत्नलाभ: तेन । दूसरा विमर्श बिन्दु यह है--भगवान महावीर मेधकुमार को यह नहीं बता रहे है कि उस समय तुम्हें अप्राप्त सम्यक्त्व रत्न का लाभ हुआ १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-७५-७६--बिलधर्मेण-बिलाचारेण यथैकत्र बिले यावन्तो __ मर्कोटकादय: समान्ति तावन्तस्तिष्ठन्ति एवं तेऽपीति । २. कादम्बिनी, जून १९८३ ३. ज्ञातावृत्ति, पत्र -७६--निट्ठिए त्ति-निष्ठां गतः, कृतस्वकार्यो जात इत्यर्थः, उपरतोऽना-लिगितेन्धनाद् व्यावृत्त:, उपशान्तो-ज्वालोपशमात् । विध्यातोऽगार- मुर्मुराद्यभावात्। ४. वही, पत्र--उत्थानं-चेष्टाविशेषः, बलं-शारीरं, वीर्य-जीवप्रभवं, पुरुषकार:-अभिमान-विशेषः, पराक्रम--स एव साधितफल इति । ५. स्थानांग वृत्ति, पत्र-२८९--पुरुषकार: अभिमान विशेषः पराक्रमः स एवं निष्पादित-स्वविषयोऽथदा, पुरुषकारः पुरुषकर्त्तव्यं, पराक्रमो बलवीर्ययोापरणम्। ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-७७--अप्रतिलब्ध-असंजात: Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण १३५-१४१ ८८ नायाधम्मकहाओ था। भगवान यह बता रहे है--जिस समय तुम्हें सम्यक्त्व रत्न का लाभ बार और छेदोपस्थापनीय चारित्र १२० बार आ सकता है, यह संयम का नहीं हुआ है, उस समय में भी प्राणी की अनुकंपा कर पैर नीचे नहीं रखा, परित्याग करने का निश्चय कर लेने की स्थिति में होता है। श्रामण्य का प्रचुर कष्ट सहा। इस समय तू विपुल कुल में उत्पन्न मनुष्य है फिर भी संबंध मूलत: चैतसिक धारा के साथ ही है। उसका अधिरोहण और स्वल्प से कष्ट में विचलित हो गया। अवरोहण की प्रत्यक्ष अनुभूति प्रत्यक्ष ज्ञानी ही कर सकते हैं अथवा व्यक्ति प्राणानुकम्पा का लाभ इससे पूर्ववर्ती सूत्र में बतलाया गया है। स्वयं कर सकता है। मेघ की अतीन्द्रिय क्षमता जाग चुकी थी और अनुत्तर सूत्र १९० ज्ञानी श्रमण महावीर की सन्निधि उसे प्राप्त थी। अत: उसके चैतन्य की १३६. जाति स्मृति (जाईसरणे) भूमिका स्पष्ट थी। यही कारण है स्वयं मेघ ने पुन: दीक्षा प्रदान करने की जाति स्मृति ज्ञान का अर्थ है--अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान। यहां याचना की और भगवान ने उसे दुबारा प्रव्रजित किया। जाति शब्द का अर्थ जन्म है। यह मतिज्ञान का एक प्रकार है। उसकी सूत्र १९५ उत्पत्ति विशेष प्रकार की चैतसिक स्थिति और ऊह-अपोह के द्वारा होती १३८. तथारूप (तहारूवाणं) है। चैतसिक परिस्थिति के निर्माण में १. शुभ परिणाम २. शुभ 'तथारूप' यह स्थविरों का विशेषण है। तथारूप का अर्थ है अध्यवसाय ३. विशुद्ध्यमान लेश्या ४. तदावरणीय कर्म का क्षयोपशम, इन श्रमणचर्या के अनुरूप वेशवाला। चार घटकों का योग आवश्यक है। १३९. सामायिक आदि (सामाइयमाइयाइं) सर्वप्रथम किसी एक दृश्य, घटना, व्यक्ति या वस्तु को देखकर दर्शक ___ ग्यारह अंगों में पहला अंग है आचारांग। किन्तु आगम ग्रन्थों में कहीं के मन में ईहा उत्पन्न होती है। उसका मन आन्दोलित हो उठता है कि यह भी 'आयारमाइयाई एक्कारस अंगाई का उल्लेख न कर 'सामाइयमाइयाई क्या है? क्यों है? कैसे है? मेरा इससे क्या संबंध है? आदि-आदि तर्क उसके एक्कारसअंगाई का उल्लेख किया गया है। इससे अनुमान लगाया जाता है मन में उत्पन्न होते हैं और वह एक-एक कर सबको समाहित करता हुआ कि 'सामायिक' आचारांग का ही कोई दूसरा नाम है। और गहराई में जाता है। अब वह अपोह-निर्णय की स्थिति पर पहुंचता है। आगम अध्येताओं के दो वर्ग रहे हैं--एक ग्यारह अंगों के फिर वह मार्गण और गवेषणा करता है--उसी विषय की अन्तिम गहराई तक धारक और दूसरे द्वादशांगी के धारक। पहुंचने का प्रयत्न करता है। उसके तर्क प्रबल होते जाते हैं और जब वह ग्यारह अंगों के अध्ययन का क्रम संभवत: अल्पबुद्धि या तपस्वियों उस वस्तु में अत्यन्त एकाग्र बन जाता है तब उसे पूर्वजन्म का ज्ञान प्राप्त के लिए रहा होगा। द्वादशांगी का अध्ययन विशिष्ट मेधा सम्पन्न मुनि होता है और उस जन्म की सारी घटना एक-एक कर सामने आने लगती करते थे। है। जैन दर्शन में इसे जाति-स्मृति ज्ञान कहा जाता है। इस ज्ञान के बल से व्यक्ति अपने नौ समनस्क पूर्वजन्मों को जान सूत्र १९७ सकता है। १४०. प्रतिमा (पडिम) मैं कैन हूँ? कहां से आया हूँ? इत्यादि सूत्रों के मनन और निदिध्यासन विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य समवाओ १२/१ का टिप्पण (पृष्ठ ६१) से भी जातिस्मरण की प्राप्ति होती है। ध्यान की गहराई में जब व्यक्ति मनन सूत्र १९९ पूर्वक पीछे लौटता है तो स्वयं के पूर्वजन्म को देख लेता है। १४१. गुणरत्नसम्वत्सर (गुणरयणसंवच्छर) विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य आचारांग भाष्यम् पृ. १९ से २३ ___ यह तप का एक विशिष्ट अनुष्ठान है। वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या सूत्र १९१ दो प्रकार से की है। १३७. (सूत्र १९१) १. गुणरत्नसंवत्सर--गुण का अर्थ है निर्जरा विशेष, जिस सम्वत्सर सूत्र १५४ के अनुसार मेघमुनि की मानसिक चेतना में मनित्व के में गुणों की रचना हो, अथवा जिस तप में गुण रूप रत्न उपलब्ध हों और प्रति उदासीनता उभर आई। वे मुनित्व को त्याग, घर जाने के लिए उद्यत आराधना में एक सम्वत्सर का समय लगता है वह गुणरत्नसंवत्सर हो गए। श्रमण भगवान महावीर से प्रतिबोध पाकर पुन: संयम के प्रति कहलाता है। आस्था जागी। गुणरत्नसंवत्सर का तप: काल तेरह मास, सतरह दिन है। पारणक प्रस्तुत सूत्र में वे भगवान से निवेदन करते हैं--भन्ते! मुझे दूसरी काल तिहोत्तर दिन है। सूत्र २०० में गुणरत्नसंवत्सर तप की विस्तार से प्रक्रिया बार प्रव्रजित करें, मुण्डित करें। मेघ मुनि ने भगवान से पुन: दीक्षा की बतायी गई है। इसमें कुल १६ मास का समय लगता है। पहले मास में निरन्तर याचना की। सूत्र १९२ में भगवान उन्हें पुन: प्रव्रजित और मण्डित करते एक दिन उपवास और एक दिन पारणक का क्रम चलता है। हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मानसिक दृष्टि से भी विचलित हो जाने पर दूसरे मास में निरन्तर दो-दो दिन का उपवास, तीसरे मास नई दीक्षा की परम्परा थी। में निरन्तर तीन-तीन दिन का उपवास होता है। इस क्रम में सोलहवें आगमिक दृष्टि से एक जीवन में सामायिक चारित्र उत्कृष्ट ९०० मास में निरन्तर सोलह दिन का उपवास होता है। पूरे साधनाकाल में Jain Education Intemational Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : टिप्पण १४१-१४९ तपायोग के साथ-साथ आतापना योग, ध्यान योग और आसन प्रयोग का सूत्र २०२ व्यवस्थित क्रम चलता है। दिन में आतापना भूमि में उकडू आसन में बैठ, १४४. धमनियों का जाल (धमणिसंतए) सूरज का आतप लिया जाता है और रात्रि के समय अपावृत हो, वीरासन इसका भावार्थ है अत्यन्त कृश । जिसका शरीर केवल धमनियों का में बैठ ध्यान किया जाता है। जाल मात्र रह गया हो। प्रस्तुत सूत्र में मुख्यत: तीन आसनों की चर्चा है-- विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य उत्तरज्झयणाणि २/३, पृ. ५२ का १. ठाणं--कायोत्सर्ग। टिप्पण। २. उक्कुडुए--उत्कुटुक--उकडू आसन ३. वीरासणे--वीरासन १४५. राख के ढेर से ढकी हुई आग की भांति तप, तेज और तपस्तेज १. उत्कुटुक आसन--इस आसन में पुत प्रदेश भूमि से स्पष्ट नहीं । की श्री से अतीव अतीव उपशोभित (यासणे इव भासरासिपरिच्छन्ने होता। तवेणं तेएणं...उवसोभेमाणे) २. वीरासन:-धरती पर पांव टिकाकर सिंहासन पर बैठे व्यक्ति इसका अभिप्राय यह है कि जैसे राख से आवृत अग्नि बाहर से तेज के नीचे से सिंहासन खिसका दिया जाए और वह व्यक्ति उसी अवस्था में रहित प्रतीत होती है फिर भी अन्तर में प्रज्ज्वलित रहती है। वैसे ही मेघ बैठा रहे--इस मुद्रा का नाम वीरासन है। अनगार मांस आदि के अपचय के कारण बाहर से निस्तेज से हैं पर विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य--उत्तराध्ययन: एक समीक्षात्मक अन्तवृत्ति से शुभध्यान के तप से प्रज्ज्वलित हैं।" अध्ययन, पृष्ठ १४९-१५० सूत्र २०४ १४६. सुहस्ति (सुहत्थी) सूत्र २०० अन्यत्र तीर्थंकरों के लिए पुरिसवरगंधहत्थी' विशेषण प्रयुक्त हुआ १४२. आतापन लेता हुआ (आयावेमाणे) है। प्रस्तुत सूत्र में उसी अर्थ में सुहस्ति' शब्द का प्रयोग हुआ है। भगवती आतापना का अर्थ है--सूर्य का आताप लेना। एवं औपपातिक में भी इसका प्रयोग हुआ है। औपपातिक के वृत्तिकार ने आतापना के आसन भेद से अनेक भेद प्रतिपादित किए हैं। सूत्र २०६ आतापना के तीन प्रकार हैं-- १४७. पर्यकासन में बैठ (संपलियंकनिसण्णे) १. निपन्न--सोकर ली जाने वाली--उत्कृष्ट द्रष्टव्य भगवई खण्ड १ पृ. २४२ २. अनिपन्न--बैठकर ली जाने वाली--मध्यम १४८. (सूत्र २०६) ३. ऊर्ध्वस्थित--खड़े होकर ली जाने वाली--जघन्य श्रमण भगवान महावीर 'मेघ' को स्वयं प्रव्रजित करते हैं। ठाणं में संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या की उपलब्धि के तीन हेतु बताए मेघकमार ने भगवान महावीर के पास दो बार प्रव्रज्या स्वीकार की। वहां गए हैं उनमें पहला हेतु है--आतापन ।' प्राणातिपात आदि के प्रत्याख्यान का उल्लेख नहीं है। इन अठारह पापों के प्रत्याख्यान का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र (सूत्र २०६) में ही है। सूत्र २०१ १४३. विचित्र तप:कर्म के द्वारा (विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं) सूत्र २०८ तप से शक्ति जागरण और चैतन्य केन्द्रों का शोधन होता है। १४९. संलेखना (संलेहणा) अमुक प्रकार के तप से अमुक प्रकार की लब्धियां उत्पन्न होती हैं अथवा संलेखणा का सामान्य अर्थ है अनशन की पूर्व तैयारी। जैन आगम अमुक चैतन्य केन्द्रों का शोधन होता है। इस दृष्टि से तपोयोग की अनेक साहित्य में प्राय: अनशन के पूर्व संलेखना की आराधना का निर्देश है। प्रक्रियाएं हैं। विचित्र तप:कर्म उसी ओर संकेत करता है। इसका पारिभाषिक अर्थ इस प्रकार है-- १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-७९--गुणानां - निर्जराविशेषाणां रचनाकरणम्, ५. ठाणं ३/३८६ संवत्सरेण-सत्रिभागवर्षेण यस्मिंस्तत्तपो गुणरचनसंवत्सरं गुणा एव वा ६. उत्तराध्ययन, बृहद् वृत्ति पत्र ८४--धमनय:-शिरास्ताभिः सन्ततो-व्याप्तो रत्नानि यंत्र स तथा गुणरत्न: संवत्सरो यत्र तपसि तद् गुणरत्नसंवत्सरमिति, धमनिसंततः। इह च त्रयोदशमासाः सप्तदशदिनाधिकास्तपःकाल; त्रिसप्ततिश्च दिनानि ७. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८२--हुताशन इव भस्मराशिप्रतिच्छन्नः, तपेणं ति--. पारणककाल इति । तपोलक्षणेन तेजसा, अयमभिप्रायो--यथा भस्मच्छन्नोऽग्निबहिर्वृत्त्या २. वही--स्थान-आसनमुत्कुटुक आसनेषु पुत्तालगनरूपं यस्य स तथा। तेजोरहितोऽन्तर्वृत्त्या तु ज्वलति एवं मेघोऽनगारोऽपि बहिर्वृत्त्याऽपचित३. वही--वीरासणेणं ति-सिंहासनोपविष्टस्य भुवि न्यस्तपादस्यापनीतसिंहासनस्येव मांसादित्वान्निस्तेजा अन्तर्वृत्त्या तु शुभध्यानतपसा ज्वलतीति। यदवस्थानं तद् वीरासनम्। ८. (क) अंगसुत्ताणि || भगवई, १५/१ (ख) उवंगसुत्ताणि, ओवाइयं १/७३ ४. औपपातिक सूत्र १९ वृत्तिपत्र ७५, ७६ Jain Education Interational Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण १४९-१५३ ९० शरीर और कषायों का भलीभांति लेखन करना, कृश करना संलेखना है अर्थात शरीर और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को उत्तरोत्तर क्षीण करते हुए काय और कषाय को सम्यक् प्रकार से कृश करने का नाम संलेखना है। संलेखना दो प्रकार की होती है--आभ्यन्तर और बाह्य कषायों की कृशता आभ्यन्तर संलेखना है। शरीर की कृशता बाह्य संलेखना है। इसे द्रव्य संलेखना भी कहा जाता है। क्रोधादि कषायरहित अनन्त ज्ञानादि गुण रूप परमात्म पदार्थ में स्थित होकर रागादि विकल्पों को कृश करना भाव संलेखना है। उस भाव संलेखना के लिए कायक्लेश रूप अनुष्ठान करना अर्थात् भोजन आदि का त्याग कर शरीर को कृश करना द्रव्य संलेखना है । १५०. अनशन के द्वारा (अणसणाए ) अनशन का शाब्दिक अर्थ है भोजन परिहार । अनशन शब्द का प्रयोग अल्पकालिक और यावज्जीवन दोनों प्रकार के आहार परिहार के लिए होता है। यहां इसका प्रयोग यावज्जीवन भोजन परिहार के अर्थ में है। अनशनपूर्वक मृत्यु को जैन परम्परा में उत्तम मरण या पंडितमरण माना गया है। अनशन के तीन प्रकार हैं- उपधि १. भक्त परिज्ञा -- चतुर्विध आहार तथा बाह्य आभ्यन्तर का जो यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान किया जाता है वह 'भक्तपरिज्ञा' कहलाता है। १. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा - २२५ २. ज्ञातावृत्ति पत्र ८३ परिनिष्यात परिनिर्वाणमुपरतिर्म रणमित्वर्थः, तत्प्रत्ययो निमित्तं यस्य स परिनिर्वाणाप्रत्ययः मृतकपरिष्ठापना कायोत्सर्ग इत्यर्थः तं कायोत्सर्गं कुर्वन्ति । नायाधम्मकहाओ २. इंगिनी मरण- इस अनशन को करने वाला निश्चित स्थान में ही रहता है उससे बाहर नहीं जाता। ३. प्रायोपगमन इस अनशन को करने वाला कटे हुए वृक्ष की भांति स्थिर रहता है और शरीर की संभाल नहीं करता । विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य-- आचारांगभाष्यम् पृ. ३८८-४०४ सूत्र २०९ १५१. परिनिर्वाण हेतुक कायोत्सर्ग (परिनेव्वाणवत्तियं काउस्सगं ) वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया है--परिनिर्वाण (मृत्यु) के उपरान्त मृतक के शरीर का व्युत्सर्ग तथा उस उपलक्ष्य में किया जाने वाला कायोत्सर्ग सूत्र २१२ १५२. आयुक्षय, स्थिति क्षय और भवक्षय के (आउक्खएणं ठिइक्खणं भक्क्सएणं) आयुक्षय आयुष्य कर्म के दलिकों का निर्जरण स्थिति क्षय आयुष्य कर्म की स्थिति का क्षय भव क्षय देवभव के हेतुभूत कर्म गति आदि का निर्जरण।' १५३. च्यवन कर (चयं चइत्ता) 'चय' का एक अर्थ शरीर भी है इसलिए उसका अर्थ शरीर को त्यागकर भी हो सकता है। * ३. वही आयुवेग आयुर्वलिकनिर्जरणेन स्थितिक्षण आयुकर्मणः स्थितिवेदनेन भवरोग-देवभवनभूत कर्मणां गत्यादीनां निर्जरमेन । ४. वही -- चयं शरीरं 'चइत' त्ति त्यक्त्वा अथवा च्यवं च्यवनं कृत्वा । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख आत्मा अमूर्त है। शरीर मूर्त है। आत्मा चेतन है। शरीर अचेतन है, पुद्गल है। अज्ञान के कारण आत्मा व शरीर को एक मान लिया जाता है। वास्तव में ये दो हैं। शरीर आत्मा नहीं है। संसारी आत्मा का निवास स्थान है। आत्मा स्वतंत्र है, पुद्गल भी स्वतंत्र है। दोनों का अपना-अपना मूल्य है। प्रस्तुत अध्ययन का प्रतिपाद्य है--भेद विज्ञान की दृष्टि का निर्माण करना। पदार्थ का जीवन जीएं पर पदार्थ को अपना न मानें। इस दृष्टि का निर्माण होने पर अनासक्त चेतना का विकास होता है। पौद्गलिक शरीर और आत्मा कर्मों के संयोग से परस्पर सम्बद्ध है, एकीभूत है। वास्तव में भिन्न-भिन्न है। प्रस्तुत अध्ययन का शीर्षक है--संघाटक। जिसका अर्थ है--एक बेड़ी में बंधना। इससे यही ध्वनित होता है। धन सार्थवाह और विजय तस्कर दोनों स्वतंत्र हैं किन्तु एक बेड़ी में बंधे हुए हैं इस अपेक्षा से एक हैं। दोनों एक 'खोडे' में बंधे होने के कारण एक दूसरे से निरपेक्ष होकर जीवन यापन नहीं कर सकते। वैसे ही कर्म युक्त आत्मा व शरीर एक-दूसरे से सापेक्ष हैं। धन सार्थवाह यह जानता है कि विजय तस्कर मेरे प्रिय पुत्र देवदत्त का हत्यारा है। वह मेरा प्रत्यनीक है फिर भी एक बंधन में बंधने के कारण मैं उससे निरपेक्ष होकर जीवन यापन नहीं कर सकता। वह अपना मित्र जानकर उसे भोजन नहीं देता किन्तु दैनंदिन कार्य सम्पादन (दह चिन्ता) के लिए भोजन देता है। वैसे ही साधक भी शरीर को अपना नहीं मानता, किन्तु शरीर आत्मा की प्राप्ति में सहायक बनता है। इसलिए शरीर का संपोषण करता है। पदार्थ अप्रतिबद्ध (अनासक्त) चित्तवृत्ति से पदार्थ का उपयोग करने वाला धन सार्थवाह की तरह अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। पदार्थ प्रतिबद्ध (आसक्त) चित्तवृत्ति से पदार्थ का भोग करने वाला विजय तस्कर की तरह अनर्थ पैदा करता है। प्रस्तुत अध्ययन से अनेक दृष्टियां उजागर होती हैं-- D पदार्थ सुख का निमित्त बन सकता है किन्तु सुख दे नहीं सकता। पदार्थ प्रतिबद्ध चेतना के विकास से समस्या का विस्तार होता है। 0 अर्थ अनर्थ का मूल है। 0 भद्रा की तरह यथार्थ का सम्यक् बोध न होने से दुःख होता है। - विजय तस्कर की तरह अमानुषिक प्रवृत्ति करने वाला इहलोक और परलोक में सुखी नहीं हो सकता। प्रस्तुत कथानक की भाषा शैली सहज और सरल है। Jain Education Intemational Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीयं अज्झयणं : दूसरा अध्ययन संघाडे : संघाटक उक्लेव पद १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, बितियस्स णं भते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? २. एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नपरे होत्या -- वण्णओ ।। ३. तस्स णं रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए गुणसिलए नामं चेइए होत्था -- वण्णओ ।। ४. तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते, एत्थ णं महं एवं जिज्जाणे यावि होत्था -- विणट्ठदेवउल- परिसडियतोरणघरे नाणाविहगुच्छ - गुम्म-लया - वल्लि - वच्छच्छाइए अणेग-वालसयसंकणिज्जे यावि होत्या ।। ५. तस्स णं जिष्णुज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं महं एगे भग्यकूवे यावि होत्या ।। ६. तस्स णं भग्गकूवत्स अदूरसामते, एत्य णं महं एगे मालुवाकच्छए यानि होत्या. किन्हे किन्होभासे जाय रम्मे महामेहनिउरंगभूए बहूहिं रुक्सेहि य गुच्छेति य गुम्मेहि य लवाहि य वल्लीहि य तहि य कुसेहिय खण्णुएहि य संछण्णे पलिच्छण्णे अंतो झुसिरे बाहिं गंभीरे अणेगवाललय संकणिज्जे यावि होत्या ।। धणसत्थवाह-पदं ७. तत्थ णं रायगिहे नयरे धणे नामं सत्थवाहे -- अड्ढे दित्ते वित्थिण्ण-विउलभवण-सयणासण - जाण - वाहणाइण्णे बहुदासीदास - गो-महिस - गवेलगप्पभूए बहुधण - बहुजायरूवरंयए आओगपओग-संपत्ते विच्छड्डिय- विउल-भत्तपाणे । उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने ज्ञाता के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते ! ज्ञाता के द्वितीय अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है ? २. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह नाम का नगर था -- वर्णक 1 ३. उस राजगृह नगर के बाहर ईशान कोण में गुणशिलक नाम का चैत्य वा-वर्णक ४. उस गुणशिलक चैत्य के न अति दूर, न अति निकट एक बहुत बड़ा पुराना उद्यान था। उसका देवालय नष्ट हो चुका और तोरणगृह गिर गया था। वह नाना प्रकार के गुच्छों, गुल्मों, लताओं, वल्लियों और वृक्षों से आच्छादित तथा सैंकड़ों वन्य जन्तुओं के कारण डरावना भी था। ५. उस पुराने उद्यान के बीचों बीच एक बहुत बड़ा भग्न कूप था । ६. उस भान कूप के न अति दूर न अति निकट एक बहुत बड़ा मालुकाकक्ष' -- लता - मण्डप था। वह कृष्ण, कृष्ण आभा वाला, यावत् रम्य और महामेघ-पटल जैसा था वह बहुत सारे वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं, वल्लियों, पास, डाभ और ठूंठों से आवृत्त और चारों ओर से ढका हुआ था। वह भीतर से पोला, बाहर से गहरा और सैकड़ों वन्य जन्तुओं के कारण डरावना था । धन सार्थवाह पद ७. उस राजगृह नगर में धन नाम का सार्थवाह था। वह आढ्य और दीप्त था। उसके भवन, शयन और आसन विस्तीर्ण थे। वह विपुल यान और वाहन से आकीर्ण था। उसके अनेक दासी दास, गाय, भैंस और भेड़ें | थीं वह प्रचुर धन और प्रचुर सोने चांदी वाला था। अर्थ के आयोग - प्रयोग (लेन-देन) में संप्रयुक्त और प्रचुर मात्रा में भक्त का वितरण करने वाला था। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ८. तस्स णं धणस्स सत्थवाहस्स भद्दा नामं भारिया होत्था-सुकुमालपाणिपाया अहीणपडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरा लक्खणकंजण-गुणोववेया माणुम्माण - प्पमाणपडिपुण्ण-सुजाय - सव्वंगसुंदरंगी ससिसोमागार-कंत- पियदंसणा सुरूवा करयल-परिमिय-तिवलियवलियमज्झा कुंडलुल्लिहियगंडलेहा कोमुइ रयणियर पडिपुण्णसोमवयणा सिंगारागार - चारुवेसा संगय-गय-हसिय- भणियविहिय-विलास सललिय संलाव- निउण जुत्तोवयार-कुसला पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरुवा वंज्ञा अनियाउरी जाणुकोप्परमाया यानि होत्या ।। ९. तस्स णं धणस्स सत्थवाहस्स पंथए नामं दासचेडे डोल्पा - सब्यंगसुंदरंगे मंसोवचिए बालकीलावणकुलले पावि होत्या ॥ १०. तए णं धणे सत्यवाहे रायगिहे नयरे बहूणं नगर निगम-सेट्ठिसत्यवाहाणं अट्ठारसण्ह य सेणिप्पसेणीणं बहूसु कज्जेसु य कुडुबे य मंतेसु य जाव चक्खुभूए यावि होत्था । नियगस्स विय कुटुंबस्स बहूसु कज्जेसु य जाव चक्खुभूए यावि होत्था ।। विजयलक्कर पदं ११. तत्य णं रायगि नयरे विजए नाम तक्करे होत्या-पावचंडाल वे श्रीमतररुदकम्मे आवसिय दित्त - रतनपणे सरफल्स-महल- विरायबीभच्छदाढिए असंपुडियउ उदयपइण्ण-संबंतमुद्धए भमर- राहुवण्णे निरणुक्कोसे निरणुतावे दारुणे पइभए निसंसइए निरणुकपे अहीव एगंतदिट्ठीए खुरेव एगंतधाराए गिद्धेव आमिसतल्लिच्छे अग्गिमिव सव्वभक्खी जलमिव सव्वग्गाही उक्कंचण-वंचण माया निवड-कूड कवड साइ- संपजोगबहुले चिरनगरविण सीतायारचरिते जयम्पसंगी मज्जण्यसंगी भोज्जप्पसंगी मंसप्पसंगी दारुणे हिययदारए साहसिए संधिच्छेयए उहिए विस्संभघाई आलीवग-तित्थभेय-लहुहत्यसंपत्ते परस्स दव्वहरणम्मि निच्चं अणुबद्धे तिव्ववेरे रायगिहस्स नगरस्स बहूणि अइयमणाणि व निगमणाणि व बाराणि य अवाराणि य छिंडीओ य खंडीओ य नगरनिद्धमणाणि य संवट्टणाणि य निब्बट्टणाणि व जयवलयाणि य पाणावाराणि व वेसागाराणि य तक्करद्वाणाणि य तक्करघराणि य सिंघाडगाणि य तिगाणि य चक्काणि य चच्चराणि य नागघराणि य भूयघराणि य जक्खदेउलागि य सभाणि व पवाणि य पणियसालाणि य सुन्नधराणि - ९३ द्वितीय अध्ययन : सूत्र ८-११ ८. उस धन सार्थवाह के भद्रा नाम की भार्या थी । उसके हाथ-पांव सुकुमार थे। उसका शरीर पांचों इन्द्रियों से अहीन, लक्षण और व्यञ्जन की विशेषता से युक्त, मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण, सुजात और सर्वांगसुन्दर था । वह चन्द्रमा के समान सौम्य आकृतिवाली, कमनीय, प्रियदर्शना और सुरूपा थी । उसकी मुट्ठी भर कमर-तीन रेखाओं से युक्त और बलवान थी उसके कपोलों पर सचित रेखाएं कुण्डलों से उल्लिखित हो रही थीं। उसका मुख शारद चन्द्र की भांति परिपूर्ण और सौम्य था । उसका सुन्दर वेष शृंगार घर जैसा लग रहा था । वह औचित्यपूर्ण चलने, हंसने बोलने और चेष्टा करने में विलास और लालित्यपूर्ण संलाप में निपुण और समुचित उपचार में कुशल थी। वह द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाली दर्शनीय, कमनीय और रमणीय थी। वह वन्ध्या, अप्रजननशीला और मात्र अपने घुटनों और कोहनियों की माता थी। ९. उस धन सार्थवाह के पन्थक नाम का दास पुत्र था। उसका शरीर सर्वांगसुन्दर और मांसल था। वह बच्चों को खिलाने में कुशल था । १०. राजगृह नगर में बहुत सारे नगर निगम, श्रेष्ठी और सार्थवाहों के तथा अठारह श्रेणियों और प्रश्रेणियों के बहुत सारे कार्यों, कर्तव्यों और मंत्रणाओं में उसका मत पूछा जाता था यावत् वह चक्षु के समान था । अपने 'कुटुम्ब के भी बहुत सारे कार्यों में उसका मत पूछा जाता था यावत् वह चक्षु के समान था । विजय- तस्कर पद - ११. उस राजगृह नगर में विजय नाम का एक चोर था। वह पापी चाण्डाल जैसा और भीतर रुद्र कर्म करने वाला था। उसकी आंखें रोषपूर्ण, जलती हुई और लाल रहती थीं। दाढी कठोर, रूखी, लम्बी, विकृत और बीभत्स थी। होठ खुले रहते तथा लटकते और बिसरे हुए बाल हवा में उड़ते रहते थे। उसका रंग भरे और राहु जैसा काला था । वह क्रूर कर्म करने में सकुचाता नहीं और करने पर उसे पछतावा भी नहीं होता था। वह दारुण, भय उत्पन्न करने वाला, निःशंक, अनुकम्पा शून्य, सांप की भांति (लक्ष्य पर) एकान्त ( निश्चयपूर्ण ) दृष्टि वाला क्षुर की भांति एकान्त धार वाला गीध की भांति मांस लोलुप, अग्नि की भांति सर्वभक्षी, जल की भांति सर्वग्राही और उत्कंचन, वंचना, माया, निकृति, कूट, कपट और वक्रता का प्रचुर प्रयोग करने वाला था। वह चिरकाल तक नगर में भूमिगत रहता था। उसका शील, आचार और चरित्र दुष्ट था। वह द्यूत, मद्य, भोज्यपदार्थ और मांस में अति आसक्त रहता था। वह दारुण, हृदय विदारक, बिना सोचे समझे काम करने वाला, सेंध लगाने वाला, प्रच्छन्न विहारी, विश्वासघाती, आग लगाने और जलाशयों को तोड़ने में हस्तलाघव का प्रयोक्ता, दूसरों का धन चुराने में नित्य अनुबद्ध Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन सूत्र ११-१२ य आभोएमाणे मग्गमाणे गवेसमाणे, बहुजणस्स छिद्देसु य विसमेसु य विहुरेसु य वसणेसु य अब्भुदासु य उस्सवेसु य पसवेसु य तिहीसु य छणेसु य जण्णेसु य पव्वणीसु य मत्तपमत्तस्स य वक्खित्तस्स य वालरस य सुहियस्स य दुहियस्स य विदेसत्यस्स य विप्पवसियस्स य मग्गं च छिद्दं च विरहं च अंतरं च मग्गमाणे गवेसमाणे एवं च णं विहरइ । बहिया वि य णं रायगिहस्स नगरस्स आरामेसु य उज्जाणेसु य वावि- पोक्खरणि दीहिय- गुंजालिय-सर- सरपंतियसरसरपंतियासु य जिष्णुज्जाणेसु य भग्गकूवेसु य मालुयाकच्छएसु य सुसाणेसु य गिरिकंदरेसु य लेणेसु य उवट्ठाणेसु य बहुजणस्स छिद्देसु य जाव अंतरं च मग्गमाणे गवेसमाणे एवं च णं विहरइ ।। भद्दा संताणमणोरह-पदं १२. तए णं तीसे भद्दाए भारियाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था -- अहं धणेणं सत्यवाणं सद्धिं बहूणि वासाणि सह-फरिस - रस-गंध-रूवाणि माणुसगाइं कामभोगाई पच्चणुब्भवमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि । तं धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं माणुस्सए जम्मजीवियफले तासिं अम्मयाणं, जासि मण्णे नियगकुच्छिसंभूयाइं थणदुद्ध-लुद्धयाई महुरसमुल्लावगाई मम्मणपयंपियाई थणमूला कक्खदेसभागं अभिसरमाणाइं मुद्धयाइं थणयं पियंति, तओ य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिण्हिऊणं उच्छंग- निवेसियाणि देंति समुल्लावए पिए सुमहुरे पुणो- पुणो मंजुलप्पभणिए । तं णं अहं अघण्णा अण्ण अकलक्खणा एत्तो एगमवि न पत्ता । तं सेयं मम कल्लं पाउप्पभाए रयणी जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते धणं सत्यवाहं आपुच्छित्ता धणेणं सत्यवाहेणं अब्भणुण्णाया समाणी सुबहु विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता सुबहु पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय बहूहिं मित्त-नाइ - नियग ९४ नायाधम्मकाओ और तीव्रवैर--प्रतिशोध वाला था। वह राजगृह नगर के बहुत सारे प्रवेशमार्गों, निर्गममार्गों, द्वारों, पार्श्वद्वारों, ( पीछे की खिड़कियों) बाड़ के छेदों, प्राकार के छेदों, नगर के नालों, जहां एक से अधिक पथ मिलते हों और विभक्त होते हों - उन स्थानों, द्यूत खेलने के स्थानों, मधुशालाओं, गणिकागृहों, तस्करों के स्थानों, तस्करों के घरों, दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, नाग मन्दिरों, भूत-मन्दिरों, यक्षायतनों, सभाओं, प्रपाओं, दुकानों और सूने घरों को देखता हुआ, उनकी मार्गणा-गवेषणा करता हुआ विहार करता था। वह अवकाश, विषमावस्या, वियोग, कष्ट, अभ्युदय, उत्सव, जन्मप्रसंग, महोत्सव, पुण्यतिथि, महोत्सव, यज्ञ और पर्वणी - कौमुदी महोत्सव आदि--इन अवसरों पर जब बहुत सारे लोग मत्त प्रमत्त, व्याक्षिप्त, व्याकुल, सुखी-दुःखी, विदेश गये हुए अथवा प्रवासी होते उनके मार्ग, छिद्र विरह और अन्तर की मार्गणा - गवेषणा करता हुआ विहार करता था । राजगृह नगर के बाहर भी आरामों, उद्यानों, वापियों, पुष्करिणियों दीर्घिकाओं, गुञ्जालिकाओं, सरोवरों, सरोवर-पंक्तियों, सरोवरों से संलग्न सरोवर पंक्तियों, पुराने उद्यानों, भग्नकूपों, मालुकाकक्षों, श्मशानों, गिरि-कन्दराओं, पर्वत में गुफाओं, उत्कीर्ण गृहों और सभा मण्डपों में बहुत सारे लोगों के अवकाश आदि अवसरों पर यावत् अन्तर की मार्गणा - गवेषणा करता हुआ विहार करता था । भद्रा का सन्तान मनोरथ- पद १२. किसी समय मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब - जागरिका" करते हुए भद्रा भार्या के मन में आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-- 'मैं धन सार्थवाह के साथ बहुत वर्षों से शब्द, स्पर्श, रस, गंध और रूप-- इन मनुष्य-सम्बन्धी काम - भोगों का अनुभव करती हुई विहार कर रही हूं, फिर भी मैं एक भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दे सकी। इसलिए धन्य हैं वे माताएं, पुण्यवती हैं वे माताएं, कृतार्थ हैं वे माताएं, कृतपुण्य हैं वे माताएं, कृतलक्षण हैं वे माताएं, वैभवशालिनी हैं वे माताएं, उन्हीं माताओं ने मनुष्य के जन्म और जीवन का फल पाया है, जिनका अपने उदर से उत्पन्न, स्तन के दूध में लुब्ध, मीठी बोली बोलते, तुतलाते और स्तनमूल से बगल की ओर सरकते मुग्ध बच्चे स्तनपान करते हैं और माताएं अपने कमल जैसे कोमल हाथों से उन्हें खींच कर अपनी गोद में बिठाती हैं। तथा पुनः पुनः प्रिय, सुमधुर और मंजुल बोलों वाली लोरियां देती हैं। इस दृष्टि से मैं अधन्या, अपुण्या और अकृतलक्षणा हूं कि इनमें से एक भी वस्तु मुझे प्राप्त नहीं है। अत: मेरे लिए उचित है--मैं उषाकाल में, पौ फटने पर यात् सहस्ररश्मि, दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर जाने पर, धन सार्थवाह से पूछ, उससे अनुज्ञा प्राप्त कर, बहुत सारा विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाकर बहुत सारे मित्र, Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ९५ सयण-संबंधि-परियण-महिलाहिं सद्धिं संपरिखुडा जाई इमाई रायगिहस्स नयरस्स बहिया नागाणि य भूयाणि य जक्खाणि य इंदाणि य खंदाणि य रुद्दाणि य सिवाणि य वेसमणाणि य, तत्थ णं बहूणं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य महरिहं पुष्फच्चणियं करेत्ता जन्नुपायपडियाए एवं वइत्तए--जइ णं हं देवाणुप्पिया! दारगंवा दारियं वा पयामि, तो णं अहं तुभं जायं च दायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणुवड्ढेमि त्ति कटु उवाइयं उवाइत्तए-एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणामेव धणे सत्थवाहे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी-- एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं सद्धिं बहूई वासाइं सद्द-फरिस-रस-गंध-रूवाई माणुस्सगाई कामभोगाई पच्चणुब्भवमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि । तं धण्णाओणंताओ अम्मयाओ जाव कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिण्हिऊणं उच्छंग-निवेसियाणि देंति समुल्लावए सुमहुरे पिए पुणो-पुणो मंजुलप्पभणिए। तं णं अहं अहण्णा अपुण्णा अकयलक्खणा एत्तो एगमवि न पत्ता । तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुन्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाक्ता जाव अक्खयणिहिं च अणुवड्डेमि उवाइयं करित्तए।। द्वितीय अध्ययन : सूत्र १२-१४ ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और महिलाओं के साथ, उनसे घिरी हुई, राजगृह नगर के बाहर जो ये नाग, भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव और वैश्रवण हैं, वहां अनेक नाग-प्रतिमाओं यावत् वैश्रवण प्रतिमाओं की महान अर्हता वाली पुष्प पूजा कर, घुटनों के बल बैठ, प्रणत हो इस प्रकार कहूं-- देवानुप्रियो! यदि मेरे बालक या बालिका उत्पन्न हो जाए तो मैं तुम्हारी पूजा, दाय, भाग और अक्षयनिधि का संवर्द्धन करूं--इस प्रकार की मनौती करूं--उसने ऐसी संप्रेक्षा की। ऐसी संप्रेक्षा कर उषाकाल में, पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि, दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर , वह जहां धन सार्थवाह था वहां आयी। वहां आकर इस प्रकार बोली-- "दवानुप्रिय ! मैं तुम्हारे साथ बहुत वर्षों से शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप--इन मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का अनुभव करती हुई विहार कर रही हूं फिर भी--मैं बालक या बालिका को जन्म नहीं दे सकी। इसलिए धन्य हैं वे माताएं यावत् जो अपने कमल जैसे कोमल हाथों से उन्हें खींच कर अपनी गोद में बिठाती हैं तथा पुन:पुन: प्रिय, समधुर और मंजुल बोलों वाली लोरियां देती हैं। इस दृष्टि से मैं अधन्या, अपुण्या और अकृतलक्षणा हूं कि इनमें से एक भी वस्तु मुझे प्राप्त नहीं है। अत: देवानुप्रिय ! मैं तुम से अनुज्ञा प्राप्त कर, विपुल, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाकर यावत् अक्षयनिधि का संवर्द्धन करूं--ऐसी मनौती करना चाहती हूं। १३. तए णं धण्णे सत्थवाहे भदं भारियं एवं वयासी--ममंपिय णं देवाणुप्पिए! एस चेव मणोरहे--कहं णं तुमंदारगं वा दारियं वा पयाएज्जासि?--भद्दाए सत्थवाहीए एयमढें अणुजाणइ।। १३. धन सार्थवाह ने भद्रा भार्या से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये ! मेरा भी यही मनोरथ है कि कैसे तुम बालक या बालिका को जन्म दो?--(एसा कह) उसने भद्रा सार्थवाही के इस अर्थ का अनुमोदन किया। १४. तए णं सा भद्दा सत्यवाही धणेणं सत्थवाहेणं अब्भणुण्णाया १४. धन सार्थवाह से अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्ट, तुष्ट चित्तवाली आनन्दित समाणी हट्टतुट्ठचित्तमाणदिया जाव हरिसवस-विसप्पमाण-हियया यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाली भद्रा सार्थवाही ने विपुल अशन, विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता पान, खाद्य और स्वाद्य को तैयार करवाया। तैयार करवाकर बहुत सुबहुं पुष्फ-वत्थ-गंधमल्लालंकारं गेण्हइ, गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ सारे पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, मालाएं और अलंकार लिए। लेकर अपने निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता रायगिह नयरं मझमज्झेणं निग्गच्छइ, घर से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर राजगृह नगर के बीचोंबीच निग्गच्छित्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता से होकर निकली। निकलकर जहां पुष्करिणी थी वहां आयी। आकर पुक्खरिणीए तीरे सुबहुं पुप्फ-वत्य-गंध मल्लालंकारं ठवेइ, ठक्त्ता पुष्करिणी के तीर पर बहुत सारे पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, मालाएं, और पुक्खरिणिं ओगाहेइ, ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, करेत्ता जलकीडं अलंकार रखे। रखकर पुष्करिणी में अवगाहन किया। अवगाहन करेइ, करेत्ता बहाया कयबलिकम्मा उल्लपडसाडिगा जाई तत्थ कर जल में निमज्जन किया। निमज्जन कर जलक्रीड़ा की। जलक्रीड़ा उप्पलाई पउमाइं कुमुयाइं णलिणाइंसुभगाइं सोगंधियाइं पोंडरीयाई कर स्नान और बलिकर्म किया। गीली साड़ी पहने ही वह, वहां महापांडरीयाइं सयवत्ताई सहस्सपत्ताई ताई गिण्हइ, गिण्हित्ता । जो उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, पुक्खरिणीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता तं प्रष्फ-वत्थ-गंध-मल्लं महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र कमल थे उनको ग्रहण किया। ग्रहण (मल्लालंकारं?) गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणामेव नागघरए य जाव कर पुष्करिणी से बाहर आयी। आकर उन पुष्प, वस्त्र, गंधचूर्ण और Jain Education Intemational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : सूत्र १४-१७ नायाधम्मकहाओ वेसमणघरए य तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तत्थ णं मालाओं (मालाओं और अलंकारों) को ग्रहण किया, ग्रहण कर जहां नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य आलोए पणामं करेइ, नाग-गृह यावत् वैश्रवण गृह था वहां आयी। आकर नागप्रतिमाओं ईसिं पच्चुण्णमइ, पच्चुण्णमित्ता लोमहत्थगं परामुसइ, परामुसित्ता यावत् वैश्रवण प्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम किया। कुछ ऊपर उठी। नागपडिमाओ य जाव वेसमणपडिमाओ य लोमहत्थएणं पमज्जइ, उठकर प्रमार्जनी हाथ में ली। हाथ में लेकर उससे नागप्रतिमाओं यावत् पमज्जित्ता उदगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खेत्ता पम्हल-सूमालाए वैश्रवण-प्रतिमाओं का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन कर उदक-धाराओं से गंधकासाईए गायाइं लूहेइ, लूहेत्ता महरिहं वत्थारुहणंच मल्लारुहणं अभिसिञ्चन किया। अभिसिञ्चन कर रोएंदार, सुकुमाल, सुगन्धित च गंधारुहणं च वण्णारुहणं च करेइ, करेत्ता धूवं डहइ, डहित्ता गेरुएं वस्त्र से उन्हें पौंछा। पौंछकर महान अर्हता वाले वस्त्र, माल्य, जन्नुपायपडिया पंजलिउडा एवं वयासी--जइ णं अहं दारगं वा गंधचूर्ण और वर्णक चढ़ाया (अर्पित किया)। चढ़ाकर धूप खेया। धूप दारियं वा पयामि तोणं अहं जायं च दायं च भार्यच अक्खयणिहिं खेकर घुटनों के बल बैठ, प्रणाम किया, प्राञ्जलिपुट हो, इस प्रकार च अणुवड्ढेमि त्ति कटु उवाइयं करेइ, करेत्ता जेणेव पोक्खरिणी कहा-- तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं विपुलं असण-पाण-खाइम- ____ "यदि मेरे बालक या बालिका उत्पन्न हो जाए तो मैं पूजा, दाय, साइमं आसाएमाणी विसाएमाणी परिभाएमाणी परिभुजेमाणी भाग और अक्षयनिधि का संवर्द्धन करूं"--उसने ऐसी मनौति की। एवं च णं विहरइ। जिमियभुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा मनौती कर जहां पुष्करिणी थी वहां आयी। वहां आकर उस विपुल आयंता चोक्खा परम सुइभूया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया। अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करती हुई, विशेष स्वाद लेती हुई, बांटती हुई और खाती हुई विहार करने लगी। भोजनोपरान्त आचमन कर साफ सुथरी होकर, परम पवित्र हो, जहां उसका अपना घर था, वहां आयी। १५. अदुत्तरं च णं भद्दा सत्यवाही चाउद्दसट्ठमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु १५. तत्पश्चात भद्रा सार्थवाही ने चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा विपुलं असण पाण-खाइम-साइमं उवक्खडेइ, उवक्खडेत्ता बहवे के दिन विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाए। तैयार नागा य जाव वेसमणा य उवायमाणी नमसमाणी जाव एवं च करवाकर बहुत सारे नाग यावत् वैश्रवण देवों की मनौती करती हुई णं विहरइ॥ यावत् नमन करती हुई विहार करने लगी। भद्दाए देवदिन्न-पुत्तपसव-पदं १६. तए णं सा भद्दा सत्थवाही अण्णया कयाइ केणइ कालंतरेणं आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था। भद्रा के देवदत्त पुत्र का प्रसव-पद १६. कुछ काल बीत जाने पर, किसी समय भद्रा सार्थवाही गर्भवती हुई। १७. तए णं तीसे भद्दाए सत्थवाहीए (तस्स गब्भस्स?) दोसु मासेसु वीइक्कतेसु तइए मासे वट्टमाणे इमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-- धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, जाओ णं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुबहुयं पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियण-महिलियाहिं सद्धिं संपरिखुडाओ रायगिह नयरं मझमझेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोक्खरिणिं ओगाहेंति, ओगाहित्ता ण्हायाओ कयबलिकम्माओ सव्वालंकारविभूसियाओ विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणीओ विसाएमाणीओ परिभाएमाणीओ परिभुजेमाणीओ दोहलं विणेति--एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धणं सत्थवाहं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मम तस्स गन्भस्स दोसु मासेसु वीइक्कतेसु तइए मासे वट्टमाणे इमेयारूवे १७. जब (उस गर्भ के ?) दो महिने बीत गये और तीसरा महिना चल रहा था, उस समय भद्रा सार्थवाही को इस प्रकार दोहद उत्पन्न हुआ-- ___"धन्य हैं वे माताएं यावत् कृत लक्षण हैं वे माताएं, जो विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा बहुत सारे पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, मालाएं और अलंकार ले मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और महिलाओं के साथ उनसे संपरिवृत हो राजगृह नगर के बीचों बीच से होकर निकलती है। निकलकर जहां पुष्करिणी हैं, वहां आती हैं। वहां आकर पुष्करिणी में अवगाहन करती हैं। अवगाहन कर स्नान और बलिकर्म कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, विपुल अशन, पान ,खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करती हुई, विशेष स्वाद लेती हुई, सबको बांटती हुई और खाती हुई अपना दोहद पूरा करती हैं।"-- उसने ऐसी संप्रेक्षा की। ऐसी संप्रेक्षा कर, उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के Jain Education Intemational Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ९७ दोहले पाउन्भूए-धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव दोहलं विणेति । तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुबहुयं पुप्फ-वत्थगंध-मल्लालंकार गहाय जाव दोहलं विणित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेहि।। द्वितीय अध्ययन : सूत्र १७-२४ कुछ ऊपर आ जाने पर, वह जहां धन सार्थवाह था, वहां आयी। वहां आकर धन सार्थवाह से इस प्रकार बोली-- देवानुप्रिय ! मेरे उस गर्भ के दो महिने बीत जाने पर तीसरे महिने में मुझे इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ--"धन्य हैं वे माताएं यावत् जो अपना दोहद पूरा करती हैं। अत: देवानुप्रिय ! मैं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा बहुत सारे पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, मालाएं और अलंकार लेकर यावत् दोहद पूरा करना चाहती हूं।" देवानुप्रिय! जैसा सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो। १८. तए णं सा भद्दा धणेणं सत्थवाहेणं अब्भणुण्णाया समाणी हट्ठट्ठ-चित्तमाणदिया जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियया विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता जाव घुवं करेइ, करेत्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ।। १८. तब धन सार्थवाह से अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्ट, तुष्ट चित्तवाली, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदयवाली भद्रा सार्थवाही ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाए, तैयार कराकर यावत् धूप खेया। धूप खेकर जहां पुष्करिणी थी वहां आयी। १९. तए णं ताओ मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियण- नगरमहिलाओ भई सत्थवाहिं सव्वालंकारविभूसियं करेंति।। १९. वे मित्र, झाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और नगर की महिलाओं ने भद्रा सार्थवाही को सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। २०. तए णं सा भद्दा सत्थवाही ताहिं मित्त-नाइ-नियग-सयण- संबंधि-परियणनगरमहिलियाहिं सद्धिं तं विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं आसाएमाणी विसाएमाणी परिभाएमाणी परिभुजेमाणी दोहलं विणेइ, विणेत्ता जामेव दिसंपाउब्भूया तामेव दिसंपडिगया।। २०. उस भद्रा सार्थवाही ने उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और नगर की महिलाओं के साथ उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करते हुए, विशेष स्वाद लेते हुए, सबको बांटते हुए और खाते हुए अपना दोहद पूरा किया। दोहद पूरा कर वह जिस दिशा से आयी थी, उसी दिशा में चली गयी। २१. तए णं सा भद्दा सत्थवाही संपुण्णदोहला जाव तं गन्भं सुहंसुहेणं परिवहइ। २१. भद्रा सार्थवाही का दोहद पूरा हुआ। यावत् वह सुखपूर्वक गर्भ का परिवहन करने लगी। २२. तए णं सा भद्दा सत्थवाही नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण य राइंदियाणं वीइक्कंताणं सुकुमालपाणिपायं जाव दारग पयाया। २२. भद्रा सार्थवाही ने पूरे नौ मास और साढ़े सात दिन बीतने पर एक सुकुमार हाथ-पांव वाले यावत् बालक को जन्म दिया। २३. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जायकम्मं करेंति, तहेव जाव विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, तहेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं भोयावेत्ता अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिप्फण्णं नामधेज्जं करेंति--जम्हा णं अम्हं इमे दारए बहूणं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य उवाइयलद्धे, तं होउ णं अम्हं इमे दारए देवदिन्ने नामेणं । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज करेंति देवदिन्ने त्ति ।। २३. उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन जातकर्म संस्कार किया यावत् वैसे ही विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाए और वैसे ही मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को भोजन करवाकर इस प्रकार गुणानुरूप गुणनिष्पन्न नाम रखा--"क्योंकि हमने इस बालक को बहुत सी नाग-प्रतिमाओं यावत् वैश्रवण प्रतिमाओं की मनौतियों से प्राप्त किया है, इसलिए हमारे इस बालक का नाम देवदत्त हो।" माता-पिता ने उस बालक का 'देवदत्त' ऐसा नाम रखा। २४. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो जायं च दायं च भायं च अक्खयनिहिं च अणुवड्डेति ।। २४. उस बालक के माता-पिता ने पूजा, दाय, भाग और अक्षय-निधि का संवर्द्धन किया। Jain Education Intemational Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : सूत्र २५-२९ देवदिन्नस्स क्रीडा-पदं २५. तए गं से पंथ दासचेहए देवदिन्नस दारगस्स बालग्गाही जाए, देवदन्नं दार कडीए गेन्हइ, गेण्हित्ता बहूहिं डिंभएहि य डिभियाहि य दारएहि य दारियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुडे अभिरमइ ।। २६. तए णं सा भद्दा सत्यवाही अण्णया कयाइ देवदिन्नं दारयं ण्हायं कयबलिकम्मं कय- कोउय-मंगल- पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करेत्ता पंथयस्स दासचेडगस्स हत्थयंसि दलयइ ।। २७. तए णं से पंथ दासचेडए भद्दाए सत्यवाहीए हत्याओ देवदिन्नं दार कडीए गेves, गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, बहूहिं डिंभएहि व डिभियाहि य दारएहि व दारियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुडे जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारगं एगंते ठाइ, ठावेत्ता बहूहिं डिंभएहि य जाव कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुडे पमत्ते यावि विहरइ ।। देवदिन्नरस अपहार-पदं २८. इमं च णं विजए तक्करे रायगिहस्स नगरस्स बहूनि (अइगमणाणि य निग्गमणाणि य ? ) वाराणि य अववाराणि य तहेव जाव सुन्नघराणि य आभोएमाणे मग्गेमाणे गवेसमाणे जेणेव देवदिन्ने दारए तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारणं सव्वालंकारविभूसियं पासइ, पासित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणालंकारेषु मुछिए गढिए गिद्धे अज्झोववणे पंचयं दासचेदयं पमत्तं पासद, पासिता दिसालोयं करेड करेता देवदिन्न दारणं गेues, गेण्हित्ता कक्खंसि अल्लियावेइ, अल्लियावेत्ता उत्तरिज्जेणं पिइ, पित्ता सिग्धं तुरियं चवलं वेइयं रायगिहस्स नगरस्स अवद्दारेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव जिण्णुज्जाणे जेणेव भग्यकूबरतेगेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता देवदिन्नं वारयं जीविधाओ ववरोवे, ववरोवेत्ता आभरणालंकारं गेण्हइ, गेण्हित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरं निष्पाणं निच्चेद्वं जीवविष्यजढं भगकूपए पक्लिव, पक्खिवित्ता जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मालुवाकच्छवं अणुष्पविसर, अणुप्यविसित्ता निच्चले निष्फदे तुसिणी दिवसं खवेमाणे चिट्ठइ ।। देवदिन्नस्स गवसणा-पदं २९. तए णं से पंचए दासचेहए तो महत्तंतरस्स जेणेव देवदिन्ने दारए ठविए तेणेव उवागच्छा, उपागच्छत्ता देवदिन्नं दारणं तसि ठाणसि अपासमाणे रोयमाणे कंदमाणे (वितयमाणे?) देवदिन्नस्स दारगस्त ९८ नायाधम्मकहाओ देवदत्त का क्रीड़ा पद २५. दास पुत्र पन्थक बालक देवदत्त की सेवा में नियुक्त हुआ। वह बालक देवदत्त को गोद में लेता। गोद में लेकर बहुत सारे बालक-बालिकाओं, किशोर-किशोरियों और कुमार कुमारियोग के साथ उनसे संपरिवृत हो, क्रीड़ा करता । २६. एक दिन उस भद्रा सार्थवाही ने बालक देवदत्त को स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगल रूप प्रायश्चित करा उसे सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया, विभूषित कर दासपुत्र पथक के हाथ में सौंपा। २७. उस दासपुत्र पन्थक ने भद्रा सार्थवाही के हाथ से बालक देवदत्त को अपनी गोद में लिया, गोद में लेकर अपने घर से बाहर निकला। बहुत सारे बालक-बालिकाओं, किशोर-किशोरियों और कुमार कुमारियों के साथ, उनसे संपरिवृत हो, जहां राजमार्ग था वहां आया, वहां आकर बालक देवदत्त को एकान्त में बिठा दिया। बिठाकर स्वयं बहुत सारे बालक-बालिकाओं यावत् कुमारियों के साथ, उनसे संपरिवृत हो, खेलने में मस्त हो गया। देवदत्त का अपहरण - पद २८. विजय तस्कर - राजगृह नगर के बहुत सारे ( प्रवेश मार्गों, निष्क्रमण मार्गों ?) दरवाजों, पार्श्वद्वारों और वैसे ही, यावत् सूने घरों को देखता हुआ उनकी मार्गणा और गवेषणा करता हुआ, जहां बालक देवदत्त था वहां आया। वहां आकर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित बालक देवदत्त को देखा। देखकर बालक देवदत्त के आभरण और अलंकारों में मूर्च्छित ग्रथित, गृद्ध और अध्युपपन्न हो गया। उसने देखा दासपुत्र पन्धक (शिशुओं के साथ) खेलने में मस्त है। यह देख उसने इधर-उधर अवलोकन किया। अवलोकन कर बालक देवदत्त को उठाया, उठाकर बगल में दबाया। दबाकर उत्तरीय से ढका । ढककर शीघ्र त्वरित चपल और उतावलेपन से राजगृह नगर के पार्श्वद्वार से बाहर निकला। बाहर निकलकर जहां पुराना उद्यान था, जहां भग्नकूप था, वहां आया, वहां आकर बालक देवदत्त को मार डाला। मारकर उसके आभरण और अलंकार ले लिए। लेकर बालक देवदत्त के निष्प्राण निश्चेष्ट और निर्जीव शरीर को भन्नकूप में डाल दिया। डालकर स्वयं जहां मालुकाकक्ष था, वहां आया। आकर मालुकाकक्ष में प्रविष्ट हुआ। वहां प्रविष्ट हो, निश्चत, निःस्यन्द और मौन हो, दिन व्यतीत करता हुआ स्थित हो गया। देवदत्त का गवेषणा पद २९. इस घटना के मुहूर्त भर पश्चात् दासपुत्र पन्थक, जहां बालक देवदत्त को बिठाया था, वहां आया। वहां आकर उस स्थान पर बालक देवदरा को नहीं देखा। तब वह रोता, कलपता ( और विलपता?) हुआ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ। देवदिन्नस्स दारगस्स कत्थइ सुई वा खुइं वा पउत्तिं वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धणं सत्थवाहं एवं वयासी--एवं खलु सामी! भद्दा सत्यवाही देवदिन्नं दारयं व्हायं जाव सव्वालंकारविभूसियं मम हत्थंसि दलयइ । तए णं अहं देवदिन्नं दारयं कडीए गिण्हामि, गिण्हित्ता सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमामि, बहूहिं डिभएहि य डिभियाहि य दारएहि य दारियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि य सद्धिं संपरिखुडे जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारगं एगते ठावेमि, ठावेत्ता बहूहिं डिभएहि य जाव कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुडे पमत्ते यावि विहरामि। ___तए णं अहं तओ मुहुत्तंतरस्स जेणेव देवदिन्ने दारए ठविए तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता देवदिन्नं दारगं तंसि ठाणंसि अपासमाणे रोयमाणे कंदमाणे (विलवमाणे?) देवदिन्नस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमि । तं न नज्जइणं सामी! देवदिन्ने दारए केणइ नीते वा अवहिते वा अक्खित्ते वा--पायवडिए घणस्स सत्थवाहस्स एयमढे निवेदेइ ।। द्वितीय अध्ययन : सूत्र २९-३१ चारों ओर बालक देवदत्त की मार्गणा, गवेषणा करने लगा। उसे बालक देवदत्त का कहीं भी कोई सुराख, चिह्न अथवा वृतान्त नहीं मिला, तब वह जहां अपना घर था, जहां धन सार्थवाह था वहां आया। वहां आकर धन सार्थवाह से इस प्रकार बोला-- "स्वामिन्! भद्रा सार्थवाही ने बालक देवदत्त को नहलाकर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित कर मेरे हाथ में सौंपा। मैंने बालक देवदत्त को गोद में लिया। लेकर अपने घर से बाहर निकला। बहुत सारे बालक-बालिकाओं, किशोर-किशोरियों और कुमार-कुमारियों के साथ उनसे संपरिवृत हो, जहां राजमार्ग था वहां आया। वहां आकर बालक देवदत्त को एकान्त में बिठा दिया, बिठाकर-स्वयं बहुत सारे बालकों यावत् कुमारियों के साथ, उनसे संपरिवृत हो खेलने में मस्त हो गया।" इस घटना के मुहूर्त भर पश्चात् जहां बालक देवदत्त को बिठाया था, वहां आया। आकर उस स्थान में जब बालक देवदत्त मुझे दिखाई नहीं दिया, तब मैंने रोते, कलपते, (और विलपते?) हुए चारों ओर बालक देवतदत्त की मार्गणा, गवेषणा की। स्वामिन्! न जाने बालक देवदत्त को कौन ले गया? किसने उसका अपहरण कर लिया? किसने उसे प्रलोभन देकर उड़ा दिया ।इस प्रकार वह धन सार्थवाह के पैरों में गिर कर, सारी बात बताने लगा। ३०. तए णं धणे सत्यवाहे पंथयस्स दासचेडगस्स एयमढे सोच्चा निसम्म तेण य महया पुत्तसोएणाभिभूए समाणे परसु-णियत्ते व चंपगपायवे 'धसत्ति' धरणीयलंसि सव्वंगेहिं सण्णिवइए।। ३०. दासपुत्र पन्थक से यह बात सुनकर, अवधारण कर धन सार्थवाह उस महान पुत्र शोक से अभिभूत हो उठा। वह कुल्हाड़ी से काटे गए चम्पकपादप की भांति, अपने सम्पूर्ण शरीर के साथ, धड़ाम से धरती पर गिर पड़ा। ३१. तए णं से धणे सत्यवाहे तओ मुहत्तंतरस्स आसत्ये पच्चागयपाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ। देवदिन्नस्स दारगस्स कत्थइ सुइंवा खुइंवा पउत्तिं वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महत्थं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव नगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता तं महत्थं पाहुई उवणेइ, उवणेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मम पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए देवदिन्ने नाम दारए इढे जाव उंबरपुप्फ पिव दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए? तए णं सा भद्दा देवदिन्नं ण्हायं सव्वालंकारविभूसियं पंथगस्स हत्ये दलाइजाव पायवडिए तं मम निवेदेइ । तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! देवदिन्नस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवसणं कयं। ३१. उसके मुहूर्त भर पश्चात् जब धन सार्थवाह आश्वस्त हुआ, उसकी चेतना लौटी, तब उसने चारों ओर बालक देवदत्त की मार्गणा, गवेषणा प्रारम्भ कर दी। जब उसे बालक देवदत्त का कहीं भी कोई सुराख, चिह्न अथवा वृतान्त नहीं मिला, तब वह जहां अपना घर था वहां आया। घर आकर प्रचुर धन वाला उपहार लिया। उपहार लेकर जहां नगर आरक्षक थे, वहां आया, वहां आकर उन्हें प्रचुर धन वाला उपहार भेंट किया। उपहार भेंट कर वह इस प्रकार बोला-- देवानुप्रिय! मेरा पुत्र, भद्रा भार्या का आत्मज, देवदत्त नाम का बालक, हमें इष्ट यावत् उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ था। फिर दर्शन का तो प्रश्न ही कहां? उसे भद्रा ने नहला कर, सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित कर पन्थक के हाथों में दिया यावत् पन्थक ने मेरे पैरों में गिर कर, सारी बात कही। अत: देवानुप्रियो! मैं चाहता हूं बालक देवदत्त की चारों ओर मार्गणा, गवेषणा की जाए। Jain Education Intemational Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० नायाधम्मकहाओ द्वितीय अध्ययन : सूत्र ३२-३३ ३२. तए णं ते नगरगोत्तिया धणेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा सण्णद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवया उप्पीलिय-सरासण-पट्टिया पिणद्ध-विज्जा आविद्ध-विमल-वरचिंध-पट्टा गहियाउह-पहरणा धणेणं सत्थवाहेणं सद्धिं रायगिहस्स नगरस्स बहुसु अइगमणेसु य जाव पवासु य मग्गण-गवेसणं करेमाणा रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमत्ता जेणेव जिण्णुज्जाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेटुं जीवविप्पजढं पासंति, पासित्ता हा हा अहो! अकज्जमित्ति कटु देवदिन्नं दारगं भग्गकूवाओ उत्तारेंति, धणस्स सत्थवाहस्स हत्थे दलयंति ।। ३२. धन सार्थवाह के ऐसा कहने पर नगर-आरक्षकों ने सन्नद्ध-बद्ध हो, कवच पहने। धनुष-पट्टी को बांधा। गले में ग्रीवा-रक्षक उपकरण पहने। विमल और प्रवर चिह्न पट्ट बांधे। आयुध और प्रहरण लिए और धन सार्थवाह के साथ राजगृह नगर के बहुत सारे प्रवेश मार्गों यावत् प्रपाओं में बालक की मार्गणा, गवेषणा करते हुए वे राजगृह नगर के बाहर निकल गए। बाहर निकल कर जहां वह पुराना उद्यान और भानकूप था वहां आए। वहां आकर बालक देवदत्त के निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव शरीर को देखा। देखते ही हा! हा! अहो! अकार्य हो गया--इस प्रकार चिल्लाते हुए बालक देवदत्त को भग्नकूप से निकाला और धन सार्थवाह के हाथ में सौंप दिया। विजयतक्करस्स निग्गह-पदं ३३. तए णं ते नगरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मालुयाकच्छगं अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता विजयं तक्कर ससक्खं सहोढं सगेवेज्जं जीवग्गाहं गेहति, गेण्हित्ता अट्ठिमुट्ठि-जाणुकोप्पर-पहार-संभग्ग-महिय-गत्तं करेंति, करेत्ता अवउडा बंधणं करेंति, करेत्ता देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणं गेण्हंति, गेण्हित्ता विजयस्स तक्करस्स गीवाए बंधति, बंधित्ता मालयाकच्छगाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता रायगिह नयर अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिगचउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु कसप्पहारे य छिवापहारे य लयापहारे य निवाएमाणा-निवाएमाणा छारं च धूलिं च कयवरं च उवरिं पकिरमाणा-पकिरमाणा महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं वयंति--एस णं देवाणुप्पिया! विजए नामं तक्करे--पावचंडालरूवे भीमतररुद्दकम्मे आरुसियदित्त-रत्तनयणे खरफरुस-महल्ल-विगय-बीभच्छदाढिए असंपुडियउट्ठे उद्धयपइण्ण-लंबंतमुद्धए भमर-राहुवण्णे निरणुक्कोसे निरणुतावे दारुणे पइभए निसंसइए निरणुकपे अहीव एगंतदिट्ठीए खुरेव एगंतधाराए गिद्धव आमिस-तल्लिच्छे अग्गिमिव सव्वभक्खी बालघायए बालमारए। तं नो खलु देवाणुप्पिया! एयस्स केइ राया वा रायमच्चे वा अवरज्झइ, नन्नत्थ अप्पणो सयाई कम्माइं अवरझंति त्ति कटु जेणामेव चारगसाला तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हडिबंधणं करेंति, करेत्ता भत्तपाणनिरोह करेंति, करेत्ता तिसझं कसप्पहारे य छिवापहारे य लयापहारे य निवाएमाणा विहरति ।। विजय तस्कर का निग्रह-पद . ३३. वे नगर आरक्षक विजय तस्कर के पद-चिह्नों का अनुगमन करते हुए, जहां मालुकाकक्ष था वहां आए। वहां आकर मालुकाकक्ष में प्रविष्ट हुए। वहां प्रविष्ट हो विजय तस्कर को रंगे हाथों चोरी के माल सहित, गर्दन पकड़कर, जीते जी पकड़ लिया। पकड़कर उसके शरीर को अस्थि, मुष्टि, घुटनों और कोहनियों के प्रहारों से तोड़ डाला। मथ डाला। मथकर उसके सिर और हाथों को पीछे की ओर बांध दिया। बांध करके बालक देवदत्त के आभरण ले लिये। आभरण लेकर विजय तस्कर के गले में फंदा डाला। डालकर उसे मालुकाकक्ष से बाहर निकाला। निकालकर जहां राजगृह नगर था, वहां आए। वहां आकर राजगृह नगर में प्रविष्ट हुए। प्रविष्ट होकर राजगृह नगर के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में बार-बार उस पर चाबुक, चिकनी चाबुक और बेंतों के प्रहार किए। उस पर राख, धूल और कचरा उछाला और ऊंचे स्वरों में उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार बोले-- देवानुप्रियो! यह विजय नाम का चोर है। यह पापी, चाण्डाल जैसा और भीमतर रुद्र कर्म करने वाला है। इसकी आंखे रोषपूर्ण, जलती हुई और लाल रहती हैं। दाढ़ी कठोर, रुखी, लम्बी, विकृत और बीभत्स है। होठ खुले तथा लटकते और बिखरे हुए बाल हवा में उड़ते रहते हैं। इसका रंग भौरे और राहु जैसा काला है। यह क्रूर कर्म करने में सकुचाता नहीं है और करने पर इसे पछतावा भी नहीं होता। दारुण, भय उत्पन्न करने वाला, नि:शंक, अनुकम्पा शून्य, सांप की भांति (लक्ष्य पर) एकान्त दृष्टिवाला, क्षुर की भांति एकान्त धारवाला, गीध की भांति मांस लोलुप और अग्नि की भांति सर्वभक्षी है। वह बच्चों की घात करने वाला और बच्चों को मारने वाला है। इसलिए देवानुप्रियो! इसको दण्डित करने में राजा या राज्यमंत्री का कोई अपराध नहीं है। यह सब केवल इसके अपने कृतकर्मों का ही अपराध है--ऐसा कहकर, वे जहां कारागृह था वहां आए। वहां आकर उसे हडि-बन्धन--काठ की जंती में डाल दिया। डालकर Jain Education Intemational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १०१ द्वितीय अध्ययन : सूत्र ३३-३९ उसका खाना-पीना बंद कर दिया। बंदकर तीनों सन्ध्याओं में उसे चाबुक, चिकनी चाबुक और बेंतों के प्रहार से पीटते। देवदिन्नस्स नीहरण-पदं ३४. तए णं से धणे सत्थवाहे मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि- परियणेणं सद्धिं रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरस्स महया इड्ढीसक्कार-समुदएणं नीहरणं करेति, करेत्ता बहूई लोइयाई मयगकिच्चाई करेति, करेत्ता केणइ कालंतरेणं अवगयसोए जाए यावि होत्था ।। देवदत्त का निर्हरण-पद ३४. धन सार्थवाह ने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ रोते, कलपते और विलाप करते हुए महान ऋद्धि और सत्कार-समुदय के साथ बालक देवदत्त के शव का निर्हरण किया। करके अनेक लौकिक मृतक कार्य सम्पन्न किए, सम्पन्न कर कुछ समय पश्चात् वह शोक-मुक्त हुआ। धणस्स निग्गह-पदं धन का निग्रह-पद ३५. तए णं से धणे सत्थवाहे अण्णया कयाई लहुसयंसि रायावराहसि ३५. किसी समय धन सार्थवाह भी किसी साधारण से राजकीय अपराध में संपलित्ते जाए यावि होत्था। फंस गया। ३६. तए णं ते नगरगुत्तिया धणं सत्थवाहं गेहंति, गेण्हित्ता जेणेव चारइ तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता चारगं अणुप्पवेसंति, अणुप्पवेसित्ता विजएणं तक्करेणं सद्धिं एगयओ हडिबंधणं करेति ।। ३६. उन नगर-आरक्षकों ने धन सार्थवाह को पकड़ लिया। उसे पकड़ कर जहां कारागृह था वहां आए। आकर कारागृह में प्रविष्ट हुए। प्रविष्ट होकर उसे विजय तस्कर के साथ एक ही हडि-बन्धन--काठ की जंती में डाल दिया। घणस्स घराओ आहाराणयण-पदं ३७. तए णं सा भद्दा भारिया कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेइ, भोयणपिडयं करेइ, करेत्ता भोयणाई पक्खिवइ, लंछिय-मुद्दियं करेइ, करेत्ता एगं च सुरभि (वर?) वारिपडिपुण्णं दगवारयं करेइ, करेत्ता पंथयं दासचेडयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! इमं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं गहाय चारगसालाए धणस्स सत्थवाहस्स उवणेहि। धन के घर से आहार-आनयन-पद ३७. उषाकाल में, पौ फटने पर, यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर भद्रा सार्थवाही ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार किया। एक भोजन पिटक (टिफिन) बनाया। बनाकर उसमें भोजन रखा। उसे लाञ्छित किया, मुद्रित किया--उस पर मुहर लगाई। मुद्रित कर सुगन्धित (प्रवर?) जल से एक झारी भरी। भरकर दास पुत्र पन्थक को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! तुम यह विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ले कर जाओ, कारागृह में धन सार्थवाह को दे दो। ३८. तए णं से पंथए भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ते समाणे हट्टतुढे तं भोयणपिडयंतं च सुरभिवरवारिपडिपुण्णं दगवारयं गेण्हइ, गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता रायगिहं नगरं मझमझेणं जेणेव चारगसाला जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भोयणपिडयं ठवेइ, ठवेत्ता उल्लंछेइ, उल्लंछेत्ता भोयणं गेण्हइ, गेण्हित्ता भायणाई ठावइ, ठावित्ता हत्थसोयं दलयइ, दलइत्ता धणं सत्थवाहं तेणं विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं परिवेसेइ ।। ३८ भद्रा सार्थवाही के ऐसा कहने पर हृष्ट, तुष्ट हुए पन्थक ने उस भोजन-पिटक और उस सुगन्धित प्रवर जल से भरी झारी को लिया, अपने घर से निकला। घर से निकलकर, राजगृह नगर के बीचोंबीच होता हुआ, जहां कारागृह था, जहां धन सार्थवाह था, वहां आया। आकर भोजन पिटक रखा, रखकर उसे खोला। खोलकर भोजन निकाला, निकालकर (खाने के) बर्तन रखे। रखकर (धन के) हाथ धुलाए। हाथ धुलाकर धन सार्थवाह को विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य परोसा। विजयतक्करेण संविभागमग्गण-पदं ३९. तए णं से विजए तक्करे धणं सत्थवाहं एवं वयासी-तुब्भे णं विजय तस्कर द्वारा संविभाग-मार्गणा-पद ३९. वह विजय तस्कर धन सार्थवाह से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय ! Jain Education Intemational Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : सूत्र ३९-४७ १०२ देवाणुप्पिया! ममं एयाओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेहि। नायाधम्मकहाओ मुझे इस विपुल, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग दो। धणस्स तन्निसेध-पदं ४०. तए णं से धणे सत्यवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी--अवियाई अहं विजया! एयं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं कायाण वा सुणगाण वा दलएज्जा, उक्कुरुडियाए वा णं छड्डेज्जा, नो चेवणं तव पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्स वेरियस्स पडणीयस्स पच्चामित्तस्स एत्तो विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेज्जामि॥ ४१. तए णं से धणे सत्थवाहे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारेइ, तं पंथयं पडिविसज्जेइ। धन द्वारा उसका निषेध-पद ४०. वह धन सार्थवाह विजय तस्कर से इस प्रकार बोला--विजय ! चाहे मैं यह विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य कौवों और कुत्तों को डाल दूं या कूड़े घर में डाल दूं किन्तु मेरे पुत्र की घात करने वाले, उसे मारने वाले अरि, वैरी, प्रत्यनीक और नितान्त शत्रु व्यक्ति को इस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग नहीं दूंगा। ४१. वह धन सार्थवाह ने उस विपुल अशन, पान, खाद्य, और स्वाद्य को खाया और पन्थक को विसर्जित किया। ४२. तए णं से पंथए दासचेडए तं भोयणपिडगं गिण्हइ, गिण्हित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। ४२. वह दासपुत्र पन्थक उस भोजन पिटक को लिया। लेकर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। आबाधितस्स घणस्स विजयतक्करावेक्खा-पदं ४३. तए णं तस्स धणस्स सत्थवाहस्स तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारियस्स समाणस्स उच्चार-पासवणेणं उव्वाहित्था॥ देह चिंता से आबाधित धन को विजय तस्कर की अपेक्षा-पद ४३. उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को खा लेने पर धन सार्थवाह को उच्चार-प्रस्रवण की बाधा उत्पन्न हुई। ४४. तए णं से धणे सत्यवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी--एहि ताव विजया! एगंतमवक्कमामो जेणं अहं उच्चार-पासवणं परिवेमि॥ ४४. धन सार्थवाह ने विजय तस्कर से इस प्रकार कहा--विजय ! इधर आओ, हम एकान्त में चलें, जिससे मैं उच्चार-प्रस्रवण कर सकूँ। विजयतक्करेण तन्निसेध-पदं ४५. तए णं से विजए तक्करे धणं सत्थवाहं एवं क्यासी--तुज्झं देवाणुप्पिया! विपुलं असणं पाणंखाइमं साइमं आहारियस्स अस्थि उच्चारे वा पासवणे वा, ममं णं देवाणुप्पिया! इमेहिं बहूहिं कसप्पहारेहि य छिवापहारेहि य लयापहारेहि य तण्हाए य छुहाए य परज्झमाणस्स नत्थि केइ उच्चारे वा पासवणे वा। तं छदेणं तुम देवाणुप्पिया! एगते अवक्कमित्ता उच्चार-पासवणं परिवेहि॥ विजय तस्कर द्वारा उसका निषेध-पद ४५. विजय तस्कर ने धन सार्थवाह से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! तुमने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य खाया है, अत: उच्चार या प्रस्रवण की आवश्यकता तुम्हें है। देवानुप्रिय ! मैं इन बहुत सारे चाबुक के प्रहारों, चिकनी चाबुक के प्रहारों, बेंतों के प्रहारों तथा भूख और प्यास से पराभूत हूं, अत: मुझे उच्चार-प्रस्रवण की कोई आवश्यकता नहीं है। देवानुप्रिय ! तुम अपनी इच्छा से एकान्त में जाओ और उच्चार-प्रस्रवण करो। ४६. विजय तस्कर के ऐसा कहने पर धन सार्थवाह मौन हो गया। ४६. तए णं से धणे सत्थवाहे विजएणं तक्करेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ॥ धणेण पुणो कथिते विजएण संविभागमग्गण-पदं ४७. तए णं से धणे सत्थवाहे मुहत्तंतरस्स बलियतरागं उच्चारपासवणेणं उव्वाहिज्जमाणे विजयंतक्करं एवं वयासी--एहि ताव विजया! एगंतमवक्कमामो जेणं अहं उच्चार-पासवणं परिवेमि ।। धन के पुन: कहने पर विजय द्वारा संविभाग मार्गणा-पद ४७. मुहुर्त भर पश्चात् धन सार्थवाह को जब उच्चार-प्रसवण की तीव्र बाधा उत्पन्न हुई तब वह विजय तस्कर से इस प्रकार बोला--"विजय! जरा आओ हम एकान्त में चलें, जिससे मैं उच्चार-प्रस्रवण कर सकू।" Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १०३ ४८. तए णं से विजए तक्करे धणं सत्यवाहं एवं वयासी--जइ णं तुमं देवागुप्पिया! ताओ विपुलाओ असण- पाण-लाइम- साइमाओ संविभागं करेति, तओहं तुमेहिं सद्धिं एगंतं अवक्कमामि ।। ४९. लए णं से धणे सत्यवाहे विजयं तक्करं एवं क्यासी अहं णं तुब्धं ताओ विपुलाओ असण- पाण- खाइम - साइमाओ संविभागं करिस्सामि ।। ५०. लए गं से विजए तस्करे धणस्स सत्यवाहस्स एयम परिसुणेइ ।। ५१. तए णं से धणे सत्थवाहे विजएण तक्करेण सद्धिं एगंते अवक्कम, उच्चार पासवणं परिद्ववेद, आयते चोक्ले परमसुइभूए तमेव ठाणं उवसंकमित्ता णं विहरइ ।। धणेण विजयस्स संविभागदाण-पदं ५२. तए णं सा भद्दा कस्तं पाउप्पभाए रमणीए जाय उपिम्मि सूरे सहस्सरस्तिम्मि दिणयरे तेयसा जलते विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं उवक्खडे, भोयणपिडयं करेइ, करेत्ता भोयणाइं पक्खिवइ, संख्यि-मुद्दियं करे, करेता एवं च सुरभि (वर?) वारिपरिपुण्णं दगवारयं करेइ, करेत्ता पंथयं दासचेडयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी -- गच्छह गं तुम देवाणुप्पिया! इमं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं गहाय चारगसालाए धणस्स सत्यवाहस्स उवणेहि ।। ५३. तए णं से पंथए भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ते समाणे तु तं भोयगपिहयं तं च सुरभिवरवारिपटिपुण्णं दगवारयं गेह, गण्डित्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्स्वमित्ता रायगिहं नगरं मज्मणं जेणेव चारणसाला जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छिता भोयणचियं वे ठवेता उल्लंछेड उल्लंखेता भोषणं गेन्डर, गेन्हित्ता भायणाई ठाव, ठावित्ता हत्थसोयं दलयइ, दलइत्ता धणं सत्यवाहं तेणं विपुलेणं असण- पाण- खाइम - साइमेणं परिवेसेइ ।। ५४. तणं से धणे सत्यवाहे विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ असण पाणखाइम साइमाओ संविभागं करेह ।। पंचगस्त भद्दाए साटोवं तन्निवेदण-पदं ५५. तए णं से धणे सत्यवाहे दासचेडयं विसज्जेइ ।। ५६. तए गं से पंथए भोयणपिटयं महाय चारगाओ पडिणिक्खमह पडिणिक्यमिता रायगिहं नयरं मजांमझेगं जेणेव सए गिहे द्वितीय अध्ययन सूत्र ४८-५६ ४८. वह विजय तस्कर धन सार्थवाह से इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय यदि तुम मुझे उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग दो तो मैं तुम्हारे साथ एकान्त में चलूं । ४९. वह धन सार्थवाह विजय तस्कर से इस प्रकार बोला- मैं तुझे उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग दूंगा। ५०. तब विजय तस्कर ने धन सार्थवाह के इस अर्थ को स्वीकार किया । ५१. धन सार्थवाह विजय तस्कर के साथ एकान्त में गया, उच्चार-प्रस्रवण किया, लौटकर आचमन कर साफ सुथरा और परम निर्मल हो, अपने उसी स्थान में आ गया। धन द्वारा विजय को संविभाग- दान-पद , ५२. उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर भद्रा ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार किया। एक भोजन-पिटक (टिफिन ) बनाया बनाकर उसमें भोजन रखा, रसकर उसे लाञ्छित रेखांकित किया, मुद्रित किया। उस पर मुहर लगायी, मुद्रित कर सुगन्धित (प्रवर?) जल से एक झारी भरी, झारी भरकर, दासपुत्र पन्थको बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! तुम जाओ और यह विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ते कारागृह में धन सार्थवाह को दे दो। ५३. भद्रा सार्थवाही के ऐसा कहने पर हृष्ट, तुष्ट हुए पक ने उस भोजन-पिटक और सुगन्धित प्रवर जल से भरी शारी को लिया, लेकर अपने घर से निकला। घर से निकलकर, राजगृह नगर के बीचोंबीच होता हुआ, जहां कारागृह था, जहां धन सार्थवाह था, वहां आया। आकर भोजन-पिटक रखा। रखकर उसे खोला खोलकर भोजन निकाला, निकालकर बर्तन रखा। रखकर (धन के) हाथ धुलाए। हाथ धुलाकर धन सार्थवाह को वह विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वा परोसा | ५४. तब उस धन सार्थवाह ने विजय तस्कर को उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग दिया। पन्थक द्वारा बात को बढ़ा चढ़ा कर भद्रा से निवेदन - पद ५५. तब धन सार्थवाह ने दासपुत्र पन्थक को विसर्जित कर दिया । ५६. तब वह पथक भोजन पिटक ले, कारागृह से निकला। निकलकर राजगृह नगर के बीचोंबीच होता हुआ, जहां अपना घर था, जहां भद्रा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन सूत्र ५६-६१ १०४ जेणेव भद्दा सत्यवाही तेगेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता भई (सत्यवाहिं ?) एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिए धणे सत्यवाहे तव पुचायास्स फुतमारगत्स अरिस्स वेरियल्स पढणीयस्स पच्चामित्तस्स ताओ विपुलाओ असण-पान-खाइम साइमाओ संविभागं करेद्र ।। भद्दाए कोव-पदं ५७. तए णं सा भद्दा सत्यवाही पंचगस्स दासचेडगरस अंतिए एयम सोच्चा आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणी धणस्स सत्थवाहस्स पओसमावज्जइ ॥ धणस्स चारमुत्ति पदं ५८. तए णं से धणे सत्थवाहे अण्णया कयाइं मित्त-नाइ नियगसयण संबंध परियणेणं सएण प अत्पसारेण रायकज्जाओ अप्पाणं मोयावे, मोवावेता चारगसालाओ पडिणिक्खम, पडिणिक्लमित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छ, उवायच्छित्ता अलंकारियकम्मं कारवेद, जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छिता अघोयमट्टियं गेण्ड, गेण्डित्ता पोक्खरिणीं ओगाहइ ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, करेत्ता हाए कयबलिकम्मे कय- कोउयमंगल पायच्छिते सव्यालंकारविभूसिए रायगिहं नगरं अणुष्पविसह, अणुष्पविसित्ता रायगिहस्स नगरस्स मामले जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्य गमणाए ।। धणस्स सम्माण -पदं ५९. तए णं तं धणं सत्थवाहं एज्जमाणं पासित्ता रायगिहे नयरे बहवे नगर-निगम-सेद्रि सत्यवाह भिओ आति परिजानंति सक्कारेंति सम्मार्णेति अब्भुट्ठेति सरीरकुसलं पुच्छंति ।। - ६०. तए णं से धणे सत्थवाहे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ । जावि य से तत्थ बाहिरिया परिसा भवइ, तं जहा -- दासा इ वा पेस्सा इ वा भयगा इ वा भाइल्लगा इ वा, सा वि य णं धणं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पायवडिया खेमकुसलं पुच्छइ । जावि य से तत्थ अब्भंतरिया परिसा भवइ, तं जहा -- माया इ वा पिया इ वा भाया इ वा भइणी इ वा, सावि य णं धणं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, आसणाओ अब्भुट्ठेइ, कंठाकंठिय अवयासिय बाह-प्पमोक्खणं करेइ ।। भद्दाए कोवोवसमपुव्वं सम्माण- पदं ६१. तए णं से धणे सत्यवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छइ ।। नायाधम्मकाओ सार्थवाही थी, वहां आया। वहां आकर भद्रा (सार्थवाही ?) से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये ! धन सार्थवाह तुम्हारे पुत्र की घात करने वाले, उसे मारने वाले अरि, वैरी, प्रत्यनीक और नितान्त शत्रु को उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग देता है । भद्रा का कोप - पद ५७. दासपुत्र पन्थक से यह बात सुनकर भद्रा सार्थवाही क्रोध से तमतमा उठी। उसने रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलते हुए धन सार्थवाह के प्रति मन में रोष की गांठ बांध ली। धन की कारागृह से मुक्ति-पद ५८. किसी समय धन सार्थवाह ने मित्र ज्ञाति निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के सहयोग तथा अपने अर्थबल से स्वयं को राजदण्ड से मुक्त करा लिया। मुक्त करा कर वह कारागृह से निकला। निकलकर जहां आलंकारिक सभा (नापितशाला ) थी, वहां आया। वहां आकर आलंकारिक कर्म हजामत करवाया। जहां पुष्करिणी थी, वहां आया। वहां आकर साफ मिट्टी ली। लेकर पुष्करिणी में अवगाहन किया। अवगाहन कर जल में निमज्जन किया। निमज्जन कर, स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगल रूप प्रायश्चित्त कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, राजगृह नगर में अनुप्रविष्ट हुआ । अनुप्रविष्ट होकर राजगृह नगर के बीचोंबीच होता हुआ, जहां अपना घर था वहां जाने का संकल्प किया। धन का सम्मान-पद ५९. धन सार्थवाह को आते देखकर हुए राजगृह नगर के बहुत सारे नगर-निगम श्रेष्ठी, सार्थवाह प्रभृति ने उसका आदर किया, उसकी ओर ध्यान दिया । उसे सत्कृत किया, सम्मानित किया, अभ्युत्थान किया और शरीर का कुशल पूछा। ६०. धन सार्थवाह जहां अपना घर था, वहां आया। वहां उसकी जो बहिरंग परिषद् थी जैसे--दास, प्रेष्य, भृतक और भागीदार उसने भी धन सार्थवाह को आते हुए देखा प्रणाम कर क्षेमकुशल पूछा। 1 वहां उसकी जो अन्तरंग परिषद् पी जैसे माता, पिता, भाई तथा बहिन, उसने भी धन सार्थवाह को आते हुए देखा, आसन से उठी। गले मिलकर (हर्ष के आंसू बहाने लगी । १३ -- भद्रा के कोप का उपशमन और अपूर्व सम्मान - पद ६१. वह धन सार्थवाह, जहां भद्रा भार्या थी वहां आया। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १०५ द्वितीय अध्ययन : सूत्र ६२-६८ ६२. तए णं सा भद्दा घणं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो ६२. भद्रा ने धन सार्थवाह को आते हुए देखा। देखकर न उसका आदर आढाइ नो परिजाणइ अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी तुसिणीया किया, न उसकी ओर ध्यान दिया। वह उसका अनादर करती हुई, परम्मुही संचिट्ठइ॥ उपेक्षा करती हुई, मौन और पराङ्मुख हो बैठ गई। ६३. तए णं से धणे सत्थवाहे भदं भारियं एवं वयासी--किण्णं तुझं ६३. धन सार्थवाह ने भद्रा भार्या से इस प्रकार कहा-- देवाणुप्पिए! न तुट्ठी वा न हरिसो वा नाणंदो वा, जंमए सएणं देवानुप्रिये ! क्या बात है ? आज तुझे न तोष है, न हर्ष है और अत्थसारेणं रायकज्जाओ अप्पा विमोइए। न आनन्द है ? जब कि मैने अपने अर्थ बल से, स्वयं को राज-दण्ड से मुक्त करा लिया है। ६४. तए णं सा भद्दा धणं सत्थवाह एवं क्यासी--कहं णं देवाणुप्पिया! मम तुट्ठी वा हरिसो वा आणंदो वा भविस्सइ? जेणं तुम मम पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स अरिस्स वेरियस्स पडणीयस्स पच्चामित्तस्स ताओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागं करेसि ।। ६४. भद्रा ने धन सार्थवाह से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! कैसे होगा मुझे तोष, हर्ष और आनन्द ? जब कि तुम मेरे पुत्र की घात करने वाले, उसे मारने वाले, अरि, वैरी, प्रत्यनीक और नितान्त शत्रु व्यक्ति को उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग देते थे। ६५. तए णं से धणे सत्यवाहे भई भारियं एवं वयासी--नो खलु देवाणुप्पिए! धम्मो त्ति वा तवोत्ति वा कय-पडिकया इ वा लोगजत्ता इ वा नायए इ वा घाडियए इ वा सहाए इ वा सुहि त्ति वा (विजयस्स तक्करस्स?) ताओ विपुलाओ असण-पाणखाइम-साइमाओ संविभागे कए, नण्णत्थ सरीरचिंताए।। ६५. धन सार्थवाह ने भद्रा भार्या से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! मैंने (विजय तस्कर को?) धर्म, तप, प्रत्युपकार और लोक यात्रा की दृष्टि से अथवा उसे अपना स्वजन, सहचारी, सहायक या सुहृद मानकर, उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग नहीं दिया था, मैंने केवल शरीर-चिन्ता के लिए उसे संविभाग दिया था। ६६. तए णं सा भद्दा धणेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणी हट्ठतुट्ठ- चित्तमाणंदिया जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियया आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुतॄत्ता कंठाठ अवयासेइ, खेमकुसलं पुच्छइ, पुच्छिता ण्हाया कयबलिकम्मा कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता विपुलाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरइ।। ६६. धन सार्थवाह के ऐसा कहने पर हृष्ट, तुष्ट चित्त, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाली भद्रा आसन से उठी। उठकर गले मिली। क्षेम कुशल पूछा। पूछकर स्नान बलिकर्म और कौतुक मंगल रूप प्रायश्चित कर विपुल भोगार्ह भोगों को भोगती हुई विहार करने लगी। विजय-णायस्स निगमण-पदं ६७. तए णं से विजए तक्करे चारगसालाए तेहिं बंधेहि य वहेहि य कसप्पहारेहि य छिवापहारेहि य लयापहारेहि य तण्हाए य छुहाए य परज्झमाणे कालमासे कालं किच्चा नरएसुनेरइयत्ताए उववण्णे। से णं तत्थ नेरइए जाए काले कालोभासे गंभीरलोमहरिसे भीमे उत्तासणए परमकण्हे वण्णेणं। से णं तत्थ निच्चं भीए निच्चं तत्थे निच्चं तसिए निच्चं परमऽसुहसंबद्ध नरगगतिवेयणं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ। से णं तओ उव्वट्टित्ता अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरतं संसारकतारं अणुपरियट्टिस्सइ। विजय ज्ञात का निगमन-पद ६७. वह विजय तस्कर कारागृह में उन बन्धनों, ताड़नाओं चाबुक के प्रहारों, चिकनी चाबुक के प्रहारों, बेतों के प्रहारों से तथा भूख और प्यास से पराभूत होता हुआ, मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर, नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुआ। वह वहां नैरयिक बना, जो काला, काली आभा-वाला, गंभीर रूप से रोमाञ्चित रहने वाला, भीम, उत्त्रास देने वाला और वर्ण से परम कृष्ण था। वह वहां नित्य भीत, नित्य त्रस्त, नित्य तृषित और नित्य परम दुःख से अनुबन्धित नरक गति की वेदना का अनुभव करता हुआ विहार करने लगा। वह वहां से निकल कर अनादि, अनन्त, प्रलम्ब मार्ग और चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार में अनुपरिवर्तन करेगा। ६८. एवामेव जंबू! जो णं अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय- उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ६८. जम्बू ! इसी प्रकार, हमारा जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी आचार्य, उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रवजित हो, विपुल Jain Education Intemational Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : सूत्र ६८-७३ १०६ समाणे विपुलमणि-मोत्तिय-धण-कणग-रयणसारेणं लुब्भइ, सो वि एवं चेव ।। नायाधम्मकहाओ मणि, मौक्तिक, धन, कनक और रत्नसार में लुब्ध होता है, वह भी ऐसा ही होता है। धण-णायस्स निगमण-पदं ६९. तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा जाव फुव्वाणुपुब्चिरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे नयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति ।। धन-ज्ञात का निगमन-पद ६९. उस काल और उस समय जाति सम्पन्न यावत् स्थविर भगवान क्रमश: संचार करते हुए एक गांव से दूसरे गांव परिभ्रमण करते हुए सुख पूर्वक विहार करते हुए जहां राजगृह नगर था, जहां गुणशिलक चैत्य था वहां आए। वहां आकर यथोचित्त अवग्रह--आवास को ग्रहण कर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। ७०. परिसा निग्गया धम्मो कहिओ॥ ७०. धर्म सुनने के लिए जन-समूह ने निर्गमन किया। धर्म कहा। ७१. तए णं तस्स धणस्स सत्थवाहस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु थेरा भगवंतोजाइसंपण्णा इहमागया इहसंपत्ता। तं गच्छामि? णं थेरे भगवंते वंदामि नमसामि (एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता?) हाए कयबलिकम्मे कय-कोउय-मंगल-पायच्छिते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवर परिहिए पायविहारचारेणं जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ।। ७१. बहुत सारे लोगों के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर, धन सार्थवाह के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--"जाति-सम्पन्न स्थविर भगवान यहां आये हुए हैं, यहां सम्प्राप्त हैं। अत: मैं जाऊं, स्थविर भगवान को वन्दना-नमस्कार करूं (उसने ऐसी सप्रेक्षा की। ऐसी संप्रेक्षा कर?) स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगल रूप प्रायश्चित्त किया। पवित्र स्थान में प्रवेश करने योग्य प्रवर मंगल वस्त्र पहने और पांव-पांव चलता हुआ जहां गुणशिलक चैत्य था, जहां स्थविर भगवान थे, वहां आकर वन्दना नमस्कार किया। ७२. तए णं घेरा भगवंतो धणस्स विचित्तं धम्ममाइक्खंति।। ७२. स्थविर भगवान ने धन के समक्ष विचित्र धर्म का आख्यान किया। ७३. तए णं से धणे सत्थवाहे धम्मं सोच्चा एवं वयासी-- सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं । पत्तियामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। रोएमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं। अब्भुटेमिणं भंते! निग्गंथं पावयणं । एवमेयं भंते! तहमेयं भत्ते! अवितहमेयं भंते! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते! से जहेयं तुब्भे वयह त्ति कटु थेरे भगवते वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जाव पव्वइए जाव बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता भत्तं पच्चक्खाइत्ता, मासियाए संलेहणाए (अप्पाणं झोसेत्ता?), सढि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववण्णे। तत्थ णं अत्यगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । तस्स णं धणस्स देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई। ७३. धर्म को सुनकर धन सार्थवाह ने इस प्रकार कहा-- भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर प्रतीति करता हूँ। भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर रुचि करता हूँ। भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन (की आराधना) में अभ्युत्थान करता हूँ। यह ऐसा ही है भन्ते ! यह तथ्य है भन्ते ! यह अवितथ है भन्ते ! यह इष्ट है भन्ते ! यह ग्राह्य है भन्ते ! यह इष्ट और ग्राह्य दोनों है भन्ते ! जैसा तुम कह रहे ऐसा कह, उसने स्थविर भगवान को वन्दना नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर यावत् प्रव्रजित हो गया। यावत् बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर भक्त प्रत्याख्यान कर मासिक संलेखना में (अपने आपका समर्पण?) और अनशन काल में साठ भक्तों का परित्याग कर, मृत्यु के समय, मृत्यु को प्राप्त हो सौधर्म कल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ। वहां कुछ देवों की स्थिति चार पल्योपम बतलाई गई है। उस धन देव की स्थिति चार पल्योपम है। Jain Education Intemational Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १०७ द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७४-७७ ७४. से णं धणे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं ७४. वह धन देव आयुक्षय, स्थितिक्षय और भवक्षय के अनन्तर उस भवक्खएणं अणंतरंचयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव देवलोक से च्युत हो, महाविदेह वर्ष में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों सव्वदुक्खाणमंतं करेहिइ॥ का अन्त करेगा। ७५. जहा णं जंबू! धणेणं सत्यवाहेणं नो धम्मो ति वा तवो त्ति वा कयपडिकया इ वा लोगजत्ता इवा नायए इ वा घाडियए इवा सहाए इवा सुहि त्ति वा विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागे कए, नण्णत्थ सरीरसारक्खणट्ठाए। ७५. जम्बू ! जैसे धन सार्थवाह ने विजय तस्कर को धर्म, तप, प्रत्युपकार और लोक यात्रा की दृष्टि से अथवा उसे स्वजन सहचारी, सहायक या सुहृद मानकर, उसे विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग नहीं दिया, अपितु उसने केवल शरीर संरक्षण के लिए उसे संविभाग दिया था। ७६. एवामेव जंबू! जे णं अम्हं निग्गंथे वा निग्गंथी वा आयरिय- उवझायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे ववगय-हाणुमद्दण-पुप्फ-गंध-मल्लालंकार-विभूसे इमस्स ओरालिय-सरीरस्स नो वण्णहेउं वा नो रूवहेउं वा नो बलहेउं वा नो विसयहेउं वा, तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारमाहारेइ, नण्णत्थ नाणदंसणचरित्ताणं वहणट्टयाए, सेणं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमसणिज्जे प्रयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे भवइ, परलोए वि यणं नो बहूणि हत्यच्छेयणाणि य कण्णच्छेयणाणि य नासाछेयणाणि य एवं हिययउप्पायणाणि य वसणुप्पायणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिइ, पुणो अणाइयं चणं अणवदग्गंदीहमद्धं चाउरतं संसारकतारं वीईवइस्सइ--जहा व से धणे सत्यवाहे। ७६. जम्बू ! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाने पर स्नान, मर्दन, पुष्प, गन्धचूर्ण माला, अलंकार और विभूषा से उपरत रहता है और इस औदारिक शरीर की आभा के लिए रूप, बल और विषयपूर्ति के लिए उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आहार नहीं करता, अपितु केवल ज्ञान, दर्शन और चारित्र के संवहन के लिए आहार करता है, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं के द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याण, मंगल, देव, चैत्य और विनय पूर्वक पर्युपासनीय होता है। परलोक में भी वह नाना प्रकार के हस्त-छेदन, कर्ण-छेदन, नासा-छेदन तथा इसी प्रकार के हृदय-उत्पाटन, वृषण-उत्पाटन और फांसी को प्राप्त नहीं करेगा अपितु वह अनादि, अनन्त, प्रलम्ब मार्ग तथा चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार का पार पा लेगा, जैसे--वह धन सार्थवाह । निक्खेव-पदं ७७. एवं खलु जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स नायज्झयणस्स अयमद्धे पण्णत्ते--त्ति बेमि।। निक्षेप-पद ७७. जम्बू ! इस प्रकार सिद्धि-गति नामक स्थान को संप्राप्त यावत् श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के दूसरे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया ऐसा मैं कहता हूं। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा सिवसाहणेसु आहार-विरहिओ जं न वट्टए देहो। तम्हा धणो व्व विजयं, साहू तं तेण पोसेज्जा।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धत निगमन गाथा आहार-विरहित शरीर मोक्ष की साधना में प्रवृत्त नहीं होता। इसलिए साधु आहार से उस (शरीर) का पोषण करे, जैसे कि धन ने (दह चिन्ता के लिए) विजय का पोषण किया था। Jain Education Intemational Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र ६ माया--दूसरों को छलने की बुद्धि । १. मालुकाकक्ष (मालुयाकच्छए) निकृति--बक वृत्ति से गिरहकट आदि की भांति रहना।" वृत्तिकार ने मालुकाकक्ष का प्रज्ञापना सम्मत अर्थ स्वीकार किया कूट--तोल, माप सम्बन्धी न्यूनाधिकता।' है। उसके अनुसार मालुकाकक्ष का अर्थ है--ऐसे वृक्षों का जंगल जिन के कपट-वेशभूषा और भाषा के विपर्यय से दूसरों को ठगना।' फलों में एक गुठली होती है। जीवाभिगम चूर्णिकार ने इसका अर्थ ककड़ी का क्षेत्र स्वीकार किया ५. वक्रता का प्रचुर प्रयोग करने वाला (साइसंपओगबहुले) साचि का अर्थ है--वक्रता का समाचरण। मूल पाठ में 'साइ' शब्द है। इसके संस्कृत रूप दो बन सकते सूत्र ११ हैं--'साचि' और 'साति' २. सांप की भांति एकान्त दृष्टि वाला (अहीव एगंतदिट्ठीए) वृत्तिकार ने पहली व्याख्या 'साति संप्रयोग' मानकर की है। अर्थात् मुझे यह ग्रहण करना ही है इस प्रकार की निश्चयात्मक दृष्टि, उत्कञ्चन से लेकर कपट तक की वृत्ति का सातिशय-बहुत प्रयोग करने सांप की तरह एकान्त दृष्टि वाला। वाला। द्रष्टव्य अध्ययन १, सूत्र ११२ का टिप्पण दूसरा अर्थ है--सातिशय द्रव्य--कस्तूरी आदि का अन्य द्रव्य के साथ प्रयोग करना सातिसंप्रयोग है, जैसे-- ३. क्षुर की भांति एकान्तधार वाला (खुरेव एमंतधाराए) सो होइ साइजोगो, दव्वं जं छुहिय अन्नदव्वेसु । जैसे क्षुर एकान्तधार वाला होता है, जिस वस्तु को काटना या दोसगुणा वयणेसु य, अत्थविसवायणं कुणइ।।१ छीलना होता है, उसे वह निश्चित ही छील डालता है वैसे ही चोर की परोपताप प्रधान वृत्ति को धार माना गया है, वह जिसके यहां चोरी करना ६. जिसका शील, आचार व चरित्र दुष्ट हो (ट्ठसीलायारचरित्ते) ठान लेता है, उसके चोरी करके ही रहता है। यहां मनोवैज्ञानिक तथ्य अभिव्यक्त हुआ है। व्यक्ति का जैसा स्वभाव होता है, वह भावधारा उसकी आकृति पर परिलक्षित हो जाती है। ४. उत्कंचन, वंचना, माया, निकृति, कूट, कपट (उक्कंचण....... जैसी आकृति होती है, वैसी ही उसकी प्रवृति होती है। अर्थात् वृत्ति, आकृति ....कवड) और प्रवृत्ति--इन तीनों का गहरा सम्बन्ध है। ये एक-दूसरे को प्रभावित उत्कंचन से साचि तक के शब्द माया के पर्यायवाची हैं। किन्तु करते है। टीकाकार ने इन सबका अर्थ-विश्लेषण किया है-- उत्कंचन--यह माया का एक प्रकार है। विक्रेय वस्तु का अधिक सूत्र १२ मूल्य वसूलने के लिए गुणहीन पदार्थ के गुणों का उत्कर्ष प्रतिपादित ७. कुटुम्बजागरिका (कुंडुबजागरियं) करना। कुटुम्ब की चिन्ता के कारण या कर्तव्य-चिन्ता के कारण नींद का वंचन--दूसरों को छलना। उचट जाना। १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८४--मालुकाकच्छाए त्ति--एकास्थिफला: वृक्षविशेषाः ६. वही--माया--परवञ्चनबुद्धिः । मालुका: प्रज्ञापनाभिहितास्तेषां कक्षो गहनं मालुकाकक्षः, चिर्भटिकाकच्छक ७. वही-निकृति:-बकवृत्या गलकर्तकानामिवावस्थानम् । इति तु जीवाभिगमचूर्णिकारः। ८. वही-कूटं--कार्षापणतुलादे: परवञ्चनार्थ न्यूनाधिककरणम्। २. वही, पत्र-८६--अहिरिव एकान्ता ग्राह्यमेवेदं मयेत्येवमेव निश्चया दृष्टिर्यस्य ९. वही--कपट--नेपथ्यभाषाविपर्ययकरणं। स तथा। १०. वही ३. वही--'खुरेव एगन्तधाराए त्ति--एकत्रान्ते--वस्तुभागेऽपहर्तव्य-लक्षणे १. वही धारा परोपतापप्रधान वृत्तिलक्षणा यस्य स तथा, यथा क्षुरप्र:--एकधारः, १२. वही--दुष्टं शीलं--स्वभाव: आकार:--आकृतिश्चरित्रं च--अनुष्ठानं यस्य मोषकलक्षणैकप्रवृत्तिक एवेति भावः । ४. वही--ऊर्ध्वंकंचनं मूल्याद्यारोपणार्थ उत्कञ्चनं हीनगुणस्य गुणोत्कर्ष- १३. वही, पत्र-८९--कुटुंबजागरियं-कुटुम्बचिन्ताया जागरण--निद्राक्षय: कुटुम्बप्रतिपादनमित्यर्थः। जागरिका। ५. वही--कञ्चनं--प्रतारणम् । Jain Education Interational For Private & Personal use only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १०९ द्वितीय अध्ययन : टिप्पण ८-१३ ८. नागप्रतिमाओं यावत् वैश्रवण प्रतिमाओं (नागपडिमाण य जाव ११. बालक-बालिकाओं........... कुमारियों के साथ (डिभिएहि.. वेसमण -पडिमाण) ......... कुमारियाहि) प्राचीनकाल में वाञ्छित पूर्ति के लिए अनेक देवों की प्रतिमा पूजी डिभंक, दारक और कुमार--ये बच्चों की विभिन्न अवस्था कृत जाती थी। प्रस्तुत प्रकरण में आठ प्रतिमाओं का उल्लेख है-- पर्यायों के द्योतक हैं। १. नाग प्रतिमा २. भूत प्रतिमा ३. यक्ष प्रतिमा ४. इन्द्र प्रतिमा ५. स्कन्द प्रतिमा ६. रुद्र प्रतिमा ७. शिव प्रतिमा ८. वैश्रवण प्रतिमा। सूत्र २८ उत्तरकाल अथवा पुराणकाल में इनके स्थान पर दूसरे देव और १२. मूर्च्छित, ग्रथित, गृद्ध और अध्युपपन्न (मुच्छिए......... देवियों की पूजा होने लगी। नाग आदि की प्रतिमाओं के पूजन की प्रथा अज्झोववण्णे) लौकिक थी। इनका किसी धर्म या सम्प्रदाय से सम्बन्ध नहीं था। ये शब्द आसक्ति के कारण होने वाली विभिन्न चैतसिक अवस्थाओं के द्योतक हैं-- ९. पूजा, दाय, भाग और अक्षयनिधि (जायं च दायं च भायं च मूर्छित--विवेक चेतना शून्य । अक्खयणिहिं च) ग्रथित--लोभ के तन्तुओं से बंधा हुआ। भद्रा सार्थवाही अपने इष्ट की पूर्ति होने पर प्रतिदान का संकल्प गृद्ध--आकांक्षावान। करती है। प्रतिदान के लिए इतने शब्दों का प्रयोग किया गया है अध्युपपन्न--तद्विषयक अधिक एकाग्रता को प्राप्त।' जायं--याग-यज्ञ, पूजा। द्रष्टव्य--ठाणं पृष्ठ ६१४ दायं--पर्व दिन आदि में दिया जाने वाला दान । भायं--लाभांश सूत्र ६० अक्षयनिधि--स्थायी कोष (Fix Deposit)। १३. (सूत्र ६०) प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त दास, प्रेष्य भूतक और भाइल्लग (भागीदार) सूत्र १४ ये सामान्यत: नौकर के पर्यायवाची शब्द हैं, फिर भी इनमें अवस्था कृत १०. गीली साड़ी (उल्लपडसाडिगा) भेद हैं। वृत्तिकार के अभिमत से इनके अर्थ ये हैं-- स्नान के कारण गीले उत्तरीय और परिधान वस्त्र पहने हुए। दास--घर की दासी का पुत्र। गीले कपड़ों से देवता की पूजा और याचना सफल होती है, इससे प्रेष्य--विशेष प्रयोजन उपस्थित होने पर दूसरे गांव, नगर यह ध्वनित होता है। आदि भेजकर जिससे काम कराण जाता है। भूतक- वे नौकर जो बचपन से ही पाल पोषकर बड़े किये गये हों। भाइल्लग-भागीदार, जो आय का हिस्सा बंटाते है। १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-८९--यागं--पूजां दायं--पर्वदिवसादौ दानं, भाग--लाभांशं, अक्षयनिघि-अव्ययं भाण्डागारं अक्षयनिधि वा--मूलधनं येन जीर्णीभूतदेवकुलस्योद्धार: करिष्यते। २. वही--उल्लपडसाडय त्ति--स्नानेनाट्टै पटशाटिके-उत्तरीय परिधानवस्त्रे यस्या सा। ३. वही--डिम्भदारककुमारकाणामल्पबहुबहुतरकालकृतो विशेषः । ४. वही, पत्र-९१--मूर्च्छितो--मूढो गतविवेकचैतन्य इत्यर्थः । ग्रथितो--लोभतन्तुभिः संदर्भितः । गृद्धः--आकांक्षावान्। अभ्युपपन्न:--अधिकं तदेकाग्रतां गत इति। ५. वही, पत्र-९५ --दासा:-गृहदासी पुत्राः, प्रेष्या:--ये तथाविधप्रयोजनेषु नगरान्तरादिषु प्रेष्यन्ते, भृतका:--ये आबालत्वात् पोषिताः, भाइल्लग त्ति--ये भागं लाभस्य लभन्ते । Jain Education Intemational Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख सफलता का आधार है--श्रद्धा। श्रद्धाशील व्यक्ति कभी दिग्भ्रान्त नहीं होता। वह जिनमत के प्रति कभी संदेह नहीं करता। जो जिनमत के प्रति संदिग्ध रहता है, वह सफलता से वंचित रह जाता है। प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'अण्ड' है। इसमें दो अण्डग्राही पुरुषों के माध्यम से दो प्रकार की मनोवृत्तियों का चित्रण किया गया है। मन:स्थिति और परिस्थिति किस तरह से जुड़े हुए हैं-प्रस्तुत अध्ययन इसका जीवन्त निदर्शन है। सागरदत्त के मन में सन्देह की रेखा उभर आई। उसने सोचा--इस अण्डे से बच्चा उत्पन्न होगा या नहीं? सन्देह के कारण वह उसे बार-बार उलटने-पलटने लगा। एक समय आया मयूरी का वह अण्डा भीतर ही भीतर सारहीन हो समाप्त हो गया। जिनदत्तपुत्र ने भी अण्डे को देखा। उसके मन में सन्देह नहीं था। उसका दृढ़ विश्वास था---इस अण्डे से बच्चा अवश्य उत्पन्न होगा। विश्वास फलीभूत हुआ। यथासमय मयूरी का वह अण्डा फूटा और उससे मयूरी का सुन्दर बच्चा उत्पन्न हुआ। इस निदर्शन से दो प्रकार की मनोदशा सामने आती है--सन्देहयुक्त और सन्देहमुक्त। सन्देहयुक्त रहने वाला कभी सफल नहीं होता। सन्देहमुक्त रहने वाला सफलता का वरण कर लेता है। इसी तरह जो साधु साधुत्व को स्वीकार कर जिनमत के प्रति संदिग्ध रहता है, वह प्रथम पुरुष की तरह है। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति शंकित, कांक्षित रहता हुआ इहलोक व परलोक दोनों में परिभव को प्राप्त करता है। जो जिनमत के प्रति आस्थाशील रहता है वह इहलोक में ही नहीं, परलोक में भी सुखी बनता है। वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन गाथाओं में सन्देह को अनर्थ का हेतु बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त वहां यथार्थ बोध के हेतुओं की भी सुन्दर मीमांसा की गई है। Jain Education Intemational Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्चं अज्झयणं : तीसरा अध्ययन अंडे : अंड उक्खेव-पदं १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स नायाधम्मकहाणं अयमढे पण्णत्ते, तच्चस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते? उत्क्षेप पद १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञातधर्मकथा के दूसरे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! ज्ञाता के तीसरे अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. जंबू ! उस काल और उस समय चम्पा नाम की नगरी थी--वर्णक। २. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था-वण्णओ। ३. तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए सभूमिभागे ३. उस चम्पा नगरी के बाहर ईशानकोण में सुभूमिभाग नाम का उद्यान नाम उज्जाणे--सव्वोउय-पुप्फ-फल-समिद्धे सुरम्मे नंदणवणे इव था। वह सब ऋतुओं में होने वाले फूलों और फलों से समृद्ध, सुरम्य सुह-सुरभि-सीयलच्छायाए समणुबद्धे॥ तथा नन्दनवन के समान सुखकर, सुरभित और शीतलछाया से युक्त था। ४. तस्स णं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उत्तरओ एगदेसम्मि मालुयाकच्छए होत्था--वण्णओ।। ४. उस सुभूमिभाग उद्यान के उत्तर में एक जगह मालुकाकक्ष था--वर्णक। मयूरी अंड-पदं ५. तत्थ णं एगा वणमयूरी दो पुढे परियागए पिठंडी-पंडुरे निव्वणे निरुवहए भिण्णमुट्ठिप्पमाणे मयूरी-अंडए पसवइ, पसवित्ता सएणं पक्खवाएणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संविटेमाणी विहरइ।। मयूरी अण्ड-पद ५. वहां एक वन-मयूरी ने दो अण्डे दिए। वे अण्डे पुष्ट, गर्भ के पश्चात् कालक्रम से उत्पन्न, चावलों के आटे से बनी पिण्डी जैसे उजले, निव्रण, निरुपहत और बन्द मुट्ठी जितने बड़े थे। जन्म के पश्चात् वह मयूरी उन अण्डों का अपनी पांखों से संरक्षण, संगोपन और संपोषण करती हुई रहने लगी। सत्यवाहदारग-पदं ६. तत्थ णं चंपाए नयरीए दुवे सत्थवाहदारगा परिवसंति, तं जहा--जिणदत्तपुत्ते य सागरदत्तपत्ते य--सहजायया सहवड्डियया सहपंसुकीलियया सहदारदरिसी अण्णमण्णमणुरत्तया अण्णमण्णमणुव्वयया अण्णमण्णच्छंदाणुवत्तया अण्णमण्णहिय-इच्छियकारया अण्णमण्णेसु गिहेसु किच्चाई करणिज्जाइं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति॥ सार्थवाह-पुत्र-पद ६. उस चम्पा नगरी में दो सार्थवाह पुत्र रहते थे, जैसे जिनदत्तपुत्र और सागरदत्तपुत्र । वे सहजात, सहसंवर्द्धित, सहपांशुक्रीडित, सहविवाहित (सहयौवन-प्रविष्ट) एक दूसरे में अनुरक्त, एक दूसरे का अनुगमन करने वाले, एक दूसरे की इच्छा का अनुवर्तन करने वाले और एक दूसरे की आन्तरिक इच्छा को पूर्ण करने वाले थे। वे अपने करणीय कार्यों को एक दूसरे के घर सम्पादित करते हुए रहते थे। ७. तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अण्णया कयाई एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिसण्णाण सण्णिविट्ठाणं इमेयारूवे ७. किसी समय एकत्र सम्मिलित, समुपागत, सन्निषण्ण और सन्निविष्ट उन सार्थवाह पुत्रों के मध्य परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ११३ मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था--जण्णं देवाणुप्पिया! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पव्वज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ, तण्णं अम्मेहिं एगययो समेच्चा नित्थरियव्वं ति कटु अण्णमण्णमेयारूवं संगारंपडिसुणेति, पडिसुणेत्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था॥ तृतीय अध्ययन : सूत्र ७-९ हुआ--देवानुप्रियो! हमारे सामने सुख या दु:ख, प्रव्रज्या या विदेश गमन--कोई भी प्रसंग आता है तो हमें मिलजुल कर एक साथ उसको पार करना है--इस प्रकार उन्होंने परस्पर प्रतिज्ञा स्वीकार की। स्वीकार कर अपने-अपने कार्यों में संप्रयुक्त हो गए। देवदत्ता गणिया-पदं ८. तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया परिवसइ--अड्ढा दित्ता वित्ता वित्थिण्ण-विउल-भवण-सयणासण-जाण-वाहणा बहुधण-जायरूव-रयया आओग-पओग-संपउत्ता विच्छड्डिय-पउरभत्तपाणा चउसट्ठिकलापंडिया चउसद्विगणियागुणोवक्या अउणत्तीसं विसेसे रममाणी एक्कवीस-रइगुणप्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयारकुसला नवंगसुत्तपडिबोहिया अट्ठारसदेसीभासाविसारया सिंगारागारचारवेसा संगय-गय-हसिय-भणिय-चेट्ठिय-विलाससलावुल्लाव-निउणजुत्तोवयारकुसला ऊसियज्झया सहस्सलंभा विदिण्णछत्त-चामरबालवीयणिया कण्णीरहप्पयाया वि होत्था। __ बहूणं गणियासहस्साणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टितं महत्तरगत्तं आणा-ईसर-सेणावच्चं कारेमाणी पालेमाणी महयाऽहय-नट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंगपडप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ।। देवदत्ता गणिका-पद ८. उस चम्पानगरी में देवदत्ता नाम की गणिका रहती थी। वह आढ्य, दीप्त और विख्यात थी। उसके भवन, शयन, आसन, यान और वाहन विस्तीर्ण और विपुल थे। उसके पास प्रचुर धन और प्रचुर सोने-चांदी थे। वह अर्थ के आयोग-प्रयोग (लेन-देन) में संप्रयुक्त और भक्त-पान का प्रचुर मात्रा में वितरण करने वाली थी। चौसठ कलाओं में पंडित, चौसठ गणिका गुणों से युक्त उनतीस विशेषों में रमण करने वाली, इक्कीस रतिगुणों से प्रधान और पुरुषों को आकर्षित करने वाले बत्तीस गुणों में कुशल थी। उसके सुप्त नौ अंग जागृत हो चुके थे (वह नवयोवना थी)। वह अठारह प्रकार की देशी भाषाओं में विशारद थी। उसका सुन्दर वेष शृंगार-घर जैसा लगता था। वह औचित्यपूर्ण चलने, हंसने, बोलने और चेष्टा करने में, विलास में, लालित्यपूर्ण संलाप में निपुण और समुचित उपचार में कुशल थी। उसके भवन पर पताकाएं फहराती थी। वह सहस्र-मुद्राओं में उपलब्ध होती थी। छत्र, चंवर और बाल-वीजन उसे (राजा द्वारा) उपहार में प्राप्त थे। वह कर्णीरथ पर आरूढ़ होकर चलती थी। ___ वह हजारों गणिकाओं का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व, आज्ञा, ऐश्वर्य और सेनापतित्व करती हुई, उनका पालन करती हुई तथा महान आहत नाट्य, गीत, वाद्य, तन्त्री, तल, ताल, तूरी तथा घन-मृदंग के पटु-प्रवादित स्वरों के साथ विपुल भोगार्ह भोगों का उपभोग करती हुई विहार कर रही थी। सत्यवाहदारगाणं उज्जाणकीडा-पदं ९. तए णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अण्णया कयाइ पुव्वावर- बहकालसमयंसि जिमियभुत्तुत्तरागयाणं समाणाणं आयंताणंचोक्खाणं परमसुइभूयाणं सुहासणवरगयाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था--सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं धूव-पुष्फ-गंध-वत्थ-मल्लालंकारं गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुन्भवमाणाणं विहरित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमटुं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता कल्लंपाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते कोडुंबियपुरिसे सद्दावेंति सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं देवाणुप्पिया! विपुलं असणपाण-खाइम-साइमं उवक्खडेह, उवक्खडेत्ता तं विपुलं असण सार्थवाह पुत्रों का उद्यानक्रीड़ा-पद ९. किसी समय पूर्व अपराह्नकाल में भोजनोपरान्त आचमन कर साफ-सुथरे और परम-पवित्र हो बैठने के स्थान पर आ, प्रवर सुखासन में आसीन, उन सार्थवाह पुत्रों में परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप हुआ--हमारे लिए उचित है देवानुप्रियो ! हम उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तैयार करवाकर उस विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा धूप, पुष्प, गन्धचूर्ण, वस्त्र, माला और अलंकार को साथ ले, देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान की उद्यान श्री का अनुभव करते हुए विहार करें--इस प्रकार उन्होंने एक दूसरे के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--जाओ Jain Education Interational Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन सूत्र ९-१४ पाण- खाइम - साइमं धूव- पुप्फ-गंध-वत्थ-मल्लालंकारं गहाय जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे जेणेव नंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छह, उवागच्छिता नंदाए पोक्खरिणीए अदूरसामंते थूणामंडवं आहणह - - आसियसम्मज्जिजवलित्तं पंचवण्णसरससुरभि - मुक्क- पुप्फपुंजोवया रकलियं कालागरुपवरवुदुरुक्कतुरुक्क धूव-हज्यंत सुरभि मघमषेंत गंधुदुषाभिरामं सुगंधवरगंधगंधिव गंधवह्निभूयं करेह, करेता अम्हे पडिवालेमाणापडिवालेमाणा चिट्ठह जाव चिह्नति ।। - - १०. तए णं ते सत्थवाहदारगा दोच्चपि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेंति, सदावेता एवं क्यासी खिष्यामेव (भो देवाणुपिया?) लहुकरणजुत्त- जोइयं समखुरवालिहाण - समलिहिय-तिक्खग्गसिंगए हिं रययामय- घंट- सुत्तरज्जु-पवरकंचण खचिय-नत्यपग्गहोग्गाहियएहिं नीलुप्पलकयामेतएहिं पवर-गोण जुवाणएहिं नाना- मणि- रयणकंचन घटियाजालपरिक्खित्तं पवरलक्लणोववेयं जुत्तामेव पवहणं उवणेह । ते वि तहेव उवणेंति ।। ११. तए णं ते सत्थवाहदारगा व्हाया कयबलिकम्मा कय- कोउयमंगल - पायच्छित्ता अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा पवहणं दुरुहंति, दुरुहित्ता जेणेव देवदत्ताए गणियाए गिहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पवहणाओ पच्चोव्हंति, पच्चरहिता देवदत्ताए गणियाए हिं अणुष्पविसंति ।। १२. तए णं सा देवदत्ता गणिया ते सत्यवाहदारए एज्जमाणे पासइ, पाखित्ता हट्टा आसणाओ अन्मुद्वेद, अन्मुद्वेता सत्तद्वपयाई अणुगच्छ, अणुगच्छिता ते सत्यवाहदारए एवं क्यासी संदिसंतु देवाप्पिया! किमिहागमणप्पओयणं ? १३. तए णं ते सत्यवाहदारगा देवदत्तं गणियं एवं क्यासी - इच्छामो देवाप्पिए! तुमे सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुभवमाणा विहिरित्तए । ११४ १४. तए णं सा देवदत्ता तेसिं सत्यवाहदारगाणं एयम परिसुनेछ, पडणेत्ता व्हाया कयबलिकम्मा जाव सिरी- समाणवेसा जेणेव सत्यवाहदारगा तेणेव उवागया ।। नायाधम्मकहाओ , देवानुप्रियो ! तुम विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करो । तैयार कर वह विपुल, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तथा भूप, पुष्म, गन्धचूर्ण, वस्त्र, माल्य और अलंकार लेकर जहां सुभूमिभाग उद्यान है, जहां नन्दा पुष्पकरिणी है, वहां जाओ। वहां जाकर नन्दा पुष्पकरिणी के न दूर, न निकट एक स्थूणा मण्डप बनाओ। उसे जल का छिड़काव कर, बुहार- झाड़, गोबर से लीप, पंचरंगे सरस सुरभिमय पुष्प पुंज के उपचार से कलित, काली अगर, प्रवर कुंदुरु और लोबान की जलती हुई धूप की सुरभिमय महक से उठने वाली 7 अभिराम प्रवर सुरभिवाले गंधचूर्णो से सुगन्धित गन्धवर्तिका जैसा बनाओ। ऐसा कर हमारी प्रतीक्षा करते हुए वहीं ठहरो, यावत् वे वहीं रहरे। १०. सार्थवाह पुत्रों ने दूसरी बार भी कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-- (देवानुप्रियो ?) शीघ्र गतिक्रिया की दक्षता से युक्त समान खुर और पूंछ वाले, समान रूप से उल्लिखित तीखे सींगों वाले, रजतमयी घंटा वाले, धागों की डोरी तथा प्रवर स्वर्णमयी नधिनी की डोरी से बंधे हुए नील उत्पल के सेहरे वाले प्रवर तरुण बैल जिसमें जोते गए हैं, जिस पर नाना मणिरत्न और घंटिका जाल वाली झूल हुई है, जो श्रेष्ठ काठ की जोत (जुए की बेल की गर्दन से वाली रस्सी) को रज्जुयुग्म से बंधे हुए और प्रवर लक्षणों से युक्त या को उपस्थित करो। उन्होंने भी वैसे ही उपस्थित किया। ११. सार्थवाह पुत्रों ने स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित्त किया । अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया । यान पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर जहां देवदत्ता गणिका का घर था, वहां आए। वहां आकर यान से उतरे। उतरकर देवदत्ता गणिका के घर में प्रवेश किया। १२. देवदता गणिका ने उन सार्थवाह पुत्रों को आते हुए देखा। देखकर हृष्ट-तुष्ट हो आसन से उठी। आसन से उठकर सात-आठ पांव आगे गई। आगे जाकर उन सार्थवाह पुत्रों से इस प्रकार कहा कहें देवानुप्रियो ! किस प्रयोजन से आगमन हुआ है ? १३. सार्थवाह पुत्रों ने देवदत्ता गणिका से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! हम तुम्हारे साथ सुभूमिभाग उद्यान की उद्यानश्री का अनुभव करते हुए विहार करना चाहते हैं। १४. देवदत्ता ने उन सार्थवाह पुत्रों के इस अर्थ (प्रस्ताव ) को स्वीकार किया। स्वीकार कर स्नान और बलिकर्म कर यावत् श्री के समान परिधान पहन, जहां सार्थवाह पुत्र थे, वहां आयी। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ११५ तृतीय अध्ययन : सूत्र १५-१९ १५. तए णं ते सत्यवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं जाणं १५. सार्थवाह पुत्र देवदत्ता गणिका के साथ यान पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ दुरुहति, दुरुहित्ता चपाए नयरीए मझमझेणं जेणेव सुभूमिभागे हो, चम्पा नगरी के बीचोंबीच से गुजरते हुए, जहां सुभूमिभाग उद्यान उज्जाणे जेणेव नंदा पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता था, जहां नंदा पुष्पकरिणी थी वहां आए। वहां आकर यान से उतरे। पवहणाओ पच्चोठहति, पच्चोरुहित्ता नंदं पोक्खरिणिं ओगाहेंति, उतरकर नंदा पुष्पकरिणी का अवगाहन किया। अवगाहन कर ओगाहेत्ता जलमज्जणं करेंति, करेत्ता जलकिडं करेंति, करेत्ता जल-मज्जन किया। जल मज्जन कर जल-क्रीड़ा की। जल क्रीड़ा व्हाया देवदत्ताए सद्धिं (नंदाओ पोक्खरिणीओ?) पच्चुत्तरंति, कर स्नान किया और देवदत्ता के साथ (नंदा पुष्करिणी) से बाहर जेणेव थूणामंडवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता (थूणामंडवं?) निकले। जहां स्थूणा-मण्डप था वहां आए। आकर (स्थूणा-मण्डप में) अणुप्पविसति, अणुप्पविसित्ता सव्वालंकारभूसिया आसत्था वीसत्था प्रवेश किया। प्रवेश कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित और सुहासणवरगया देवदत्ताए सद्धिं तं विपुलं असण-पाण- आश्वस्त-विश्वस्त हो, प्रवर सुखासन में बैठकर वे देवदत्ता गणिका के खाइम-साइमं धूव-पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं आसाएमाणा साथ उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करते विसाएमाणा परिभाएभाणा परि जेमाणा एवं च णं विहरति । हुए, विशेष स्वाद लेते हुए, परस्पर बांटते हुए तथा धूप, पुष्प, वस्त्र, जिमियभुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा (आयंता चोक्खा गन्धचूर्ग, माला और अलंकारों का उपभोग करते हुए विहार करने परमसुइभूया?) देवदत्ताए सद्धिं विपुलाइं कामभोगाइं भुंजमाणा लगे। विहरंति॥ भोजनोपरान्त भी वे बैठने के स्थान पर आ (आचमन कर साफ-सुथरे और परम पवित्र हो) देवदत्ता गणिका के साथ विपुल काम-भोगों को भोगते हुए विहार करने लगे। १६. तए णं ते सत्थवाहदारगा पुव्वावरण्हकालसमयंसि देवदत्ताए गणियाए सद्धिं धूणामंडवाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता हत्यसगल्लीए सुभूमिभागे उज्जाणे बहूस आलिघरएसुयकपलिघरएसु य लताघरएसुय अच्छणघरएसुय पेच्छणघरएसुय पसाहणघरएसु य मोहणघरएसु य सालघरएसु य जालघरएसु य कुसुमघरएसुय उज्जाणसिरिं पच्चमाणुब्भवामाणा विहरति॥ १६. सार्थवाह पुत्र अपराह्नकाल के समय देवदत्ता गणिका के साथ स्थूणा-मण्डप से बाहर निकले। निकलकर एक दूसरे का हाथ थामे, सुभूमिभाग उद्यान में बहुत से आलि-गृहों, कदली-गृहों, लता-गृहों, आसन गृहों, प्रेक्षा गृहों, प्रसाधन-गृहों, मोहन गृहों, शाखा-गृहों, जालक-गृहों और कुसुम-गृहों से उद्यानश्री का अनुभव करते हुए विहार करने लगे। सत्थवाहदारगेहिं मयूरीअंडगाणयण-पदं १७. तए णं ते सत्थवाहदारगा जेणेव से मालुयाकच्छए तेणेव पहारेत्य गमणाए। सार्थवाह पुत्रों द्वारा मयूरी के अण्डों का आनयन-पद १७. उन सार्थवाह पुत्रों ने जहां मालुकाकक्ष था, वहां जाने का संकल्प किया। १८. तए णं सा वणमयूरी ते सत्थवाहदारए एज्जमाणे पासइ, पासित्ता भीया तत्था महया-महया सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणीविणिम्मुयमाणी मालुयाकच्छाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता एगसि रुक्खडालयंसि ठिच्चा ते सत्यवाहदारए मालुयाकच्छगं च अणिमिसाए दिट्ठीए पेच्छमाणी चिट्ठइ। १८. उस वन मयूरी ने उन सार्थवाह पुत्रों को आते हुए देखा। उन्हें देख वह भीत और त्रस्त हो उच्च स्वर से पुन: पुन: केकारव करती हुई, मालुकाकक्ष से बाहर निकली। निकलकर एक वृक्ष की डाल पर बैठ, उन सार्थवाह पुत्रों को और मालुकाकक्ष को अनिमिष दृष्टि से निहारने लगी। १९ तए णं ते सत्थवाहदारगा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--जहा णं देवाणुप्पिया! एसा वणमयूरी अम्हे एज्जमाणे पासित्ता भीया तत्था तसिया उब्विग्गा पलाया महया-महया सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणी-विणिम्मुयमाणी मालुयाकच्छाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता एगंसि रुक्खडायलयंसि ठिच्चा अम्हे मालुयाकच्छयं च (अणिमिसाए दिट्ठीए?) पेच्छमाणी चिट्ठइ, १९. सार्थवाह-पुत्रों ने एक दूसरे को पुकारा। पुकार कर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! यह वन-मयूरी हमें इधर आते हुए देखकर, जिस प्रकार भीत, त्रस्त, तृषित और उद्विग्न होकर भागी है, उच्च स्वर से पुन: पुन: केकारव करती हुई मालुकाकक्ष से बाहर निकली है, निकलकर एक वृक्ष की डाल पर बैठ, हमें और मालुका कक्ष को (अनिमिष दृष्टि से?) निहार रही है, इसलिए यहां कोई न कोई कारण Jain Education Intemational Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ तृतीय अध्ययन : सूत्र १९-२२ तं भवियव्वमेत्य कारणेणं ति कटु मालुयाकच्छयं अंतो अणुप्पविसंति । तत्थ णं दो पुढे परियागए पिठंडी-पंडुरे निव्वणे निरुवहए भिण्णमुट्ठिप्पमाणे मयूरी-अंडए पासित्ता अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--सेयं खलु देवाणुप्पिया! अहं इमे वणमयूरी-अंडए साणं जातिमंताणं कुक्कुडियाणं अंडएसु पक्खिवावित्तए । तए णं ताओ जातिमंताओ कुक्कुडियाओ एए अंडए सए य अंडए सएणं पंखवाएणं सारक्खमाणीओ संगोवेमाणीओ विहरिस्संति । तए णं अम्हं एत्थ दो कीलावणगा मयूरी-पोयगा भविस्संति त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता सए सए दासचेडए सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! इमे अंडए गहाय सगाणं जातिमंताणं कुक्कुडीणं अंडएस पक्खिवह जाव ते वि पक्खिवेंति॥ नायाधम्मकहाओ होना चाहिए--ऐसा सोच उन्होंने मालुकाकक्ष के भीतर प्रवेश किया। वहां उन्होंने पुष्ट, गर्भ के पश्चात् कालक्रम से उत्पन्न चावलों के आटे से बनी पिण्डी-जैसे उजले, निव्रण, निरुपहत और बन्द मुट्ठी जितने बड़े दो मयूरी-अण्डों को देख, एक दूसरे को पुकारा। पुकार कर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! हमारे लिए उचित है, हम इन वनमयूरी के अण्डों को अपनी जाति-सम्पन्न मुर्गियों के अण्डों के साथ रख दें। ऐसा करने से वे जाति-सम्पन्न मुर्गियां इन अण्डों को और अपने अण्डों को अपनी पांखों से ढककर उनका पालन और संगोपन करती हुई विहार करेंगी। इन अण्डों से निष्पन्न दो मयूरी के बच्चे हमारे खिलौने बन जाएंगे--इस प्रकार उन्होंने एक दूसरे के प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर अपने-अपने दासपुत्रों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--जाओ देवानुप्रियो ! तुम इन अण्डों को लेकर अपनी जाति-सम्पन्न मुर्गियों के अण्डों के साथ रख दो, यावत् उन्होंने रख दिए। २०. तए णं ते सत्थवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरित्ता तमेव जाणं दुरूढा समाणा जेणेव चंपा नयरी जेणेव देवदत्ताए गणियाए गिहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता देवदत्ताए गिह अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता देवदत्ताए गणियाए विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति, दलइत्ता सक्कारेंति सम्माणेति सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता देवदत्ताए गिहाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव साई साइं गिहाइं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था। २०. वे सार्थवाह पुत्र देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान की उद्यानश्री का अनुभव करते हुए विहार कर, उसी यान पर आरूढ़ हो, जहां चम्पानगरी थी, जहां देवदत्ता गणिका का घर था, वहां आए। वहां आकर देवदत्ता के घर में प्रवेश किया। प्रवेश कर देवदत्ता गणिका को जीवन-निर्वाह योग्य विपुल प्रीतिदान दिया। देकर उसे सत्कृत-सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर देवदत्ता के घर से वापस निकले। निकलकर जहां अपने-अपने घर थे, वहां आए । वहां आकर वे अपने-अपने कार्यों में संप्रयुक्त हो गये। सागरदत्तपुत्तस्स संदेहेण अंडयविणास-पदं २१. तत्थ णंजे से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारएसेणं कल्लंपाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव से वणमयूरीअंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तंसि मयूरी-अंडयंसि संकिए कंखिए वितिगिंछसमावण्णे भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे किण्णं मम एत्थ कीलावणए मयूरी-पोयए भविस्सइ उदाहु नो भविस्सइ? त्ति कटु तं मयूरीअंडयं अभिक्खणं-अभिक्खणं उव्वत्तेइ परियत्तेइ आसारेइ संसारेइ चालेइ फदेइ घट्टेइ खोभेइ अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलसि टिट्टियावे॥ सागरदत्तपुत्र का सन्देह के द्वारा अण्डविनाश पद २१. किसी समय वह सागरदत्त सार्थवाह का पुत्र उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर जहां वह वन-मयूरी का अण्डा था, वहां आया। वहां आकर वह उस मयूरी के अण्डे के प्रति शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न हो गया। उसने सोचा--इस अण्डे से मेरा खिलौना-मयूरी का बच्चा होगा या नहीं? इस दृष्टि से वह उस मयूरी के अण्डे को बार बार उलटता, पलटता, सरकाता, दूर तक सरकाता, चलाता, स्पन्दित करता, स्पर्श करता, क्षुभित करता और कान के पास ले जाकर उसे बार-बार बजाता। २२. तए णं से मयूरी-अंडए अभिक्खणं-अभिक्खणं उव्वत्तिज्जमाणे परियत्तिज्जमाणे आसारिज्जमाणे संसारिज्जमाणे चालिज्जमाणे फंदिज्जमाणे घट्टिज्जमाणे खोभिज्जमाणे अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलंसि टिट्टियावेज्जमाणे पोच्चडे जाए यावि होत्था। २२. इस प्रकार बार-बार उलटने, पलटने, सरकाने, दूर तक सरकाने, चलाने, स्पन्दित करने, स्पर्श करने, क्षुभित करने और कान के पास ले जाकर बार-बार बजाने से वह मयूरी का अण्डा सारहीन हो गया--पोच गया। Jain Education Intemational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ११७ तृतीय अध्ययन : सूत्र २३-२७ २३. तए णं से सागरदत्तपुत्ते सत्थवाहदारए अण्णया कयाई जेणेव २३. किसी समय वह सागरदत्त सार्थवाह का पुत्र जहां वह मयूरी का अण्डा से मयूरी-अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं मयूरी-अंडयं था वहां आया। वहां आकर सारहीन हुए उस मयूरी के अण्डे को . पोच्चडमेव पासइ, अहो णं मम एत्थ कीलावणए मयूरी-पोयए न देखा। अहो! इसमें मेरा खिलौना मयूरी का बच्चा उत्पन्न नहीं जाए त्ति कटु ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए हुआ--इस प्रकार वह भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए झियाइ॥ आर्तध्यान में डूबा हुआ चिन्तामग्न हो गया। २४. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंधी वा आयरिय-उवझायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचमहव्वएसु छज्जीवनिकाएसु निग्गंथे पावणे संकिए कखिए वितिगिंछसमावण्णे भेयसमावण्णे कलुससमावण्णे, से णं इहभवे चेव बहुणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूर्ण सावियाण य हीलणिज्जे निंदणिज्जे खिंसणिज्जे गरहणिज्जे परिभवणिज्जे, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य बहूणि मुंडणाणि य बहूणि तज्जणाणि य बहूणि तालणाणि य बहूणि अंदुबंधणाणि य बहूणि घोलणाणि य बहूणि माइमरणाणि य बहूणि पिइमरणाणि य बहूणि भाइमरणाणि य बहूणि भगिणीमरणाणि य बहूणि भज्जामरणाणि य बहूणि पुत्तमरणाणि य बहूणि घूयमरणाणि य बहूणि सुण्हामरणाणि य, बहूणं दारिद्दाणं बहूणं दोहग्गाणं. बहूणं अप्पियसंवासाणं बहूणं पियविप्पओगाणं बहूणं दुक्ख-दोमणस्साणं आभागी भविस्सति, अणादियं चणं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ।। २४. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो, पांच महाव्रतों, षड्जीवनिकायों और निर्ग्रन्थ-प्रवचन में शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न और कलुषसमापन्न होता है, वह इस जीवन में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय, निन्दनीय, कुत्सनीय, गर्हणीय और परिभवनीय होता है। परलोक में भी वह बहुत दण्ड, बहुत मुण्डन, बहुत तर्जना, बहुत ताड़ना, बहुत सांकल-बंधन, बहुत भ्रमण, बहुत मातृ-मरण, बहुत पितृ-मरण, बहुत भ्रातृ-मरण, बहुत भगिनी-मरण, बहुत भार्या-मरण, बहुत पुत्र-मरण, बहुत पुत्री-मरण और बहुत पुत्रवधू- मरण को प्राप्त होता है। वह बहुत दरिद्रता, बहुत दौर्भाग्य, बहुत अप्रिय संवास, बहुत प्रिय-विप्रयोग और बहुत दुःख-दौर्मनस्य का आभागी होगा। वह अनादि-अनन्त, प्रलम्ब मार्ग तथा चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार में पुन:पुन: अनुपरिवर्तन करेगा। जिणदत्तपुत्तस्स सद्धाए मयूर-लद्धि-पदं २५. तए णं से जिणदत्तपुत्ते जेणेव से मयूरी-अंडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तंसि मयूरी-अंडयंसि निस्संकिए (निक्कंखिए निवितिगिंछे?) सुव्वत्तएणं मम एत्थ कीलावणए मयूरी-पोयए भविस्सइ त्ति कटु तं मयूरी-अंडयं अभिक्खणं-अभिक्खणं नो उव्वत्तेइ नो परियत्तेइ नो आसारेइनो संसारेइनो चालेइ नो फदेइ नो घट्टेइ नो खोभेइ अभिक्खणं-अभिक्खणं कण्णमूलंसि नो टिट्टियावे॥ जिनदत्तपुत्र की श्रद्धा से मयूर उपलब्धि-पद २५. वह जिनदत्तपुत्र जहां वह मयूरी का अण्डा था, वहां आया, वहां आकर उस मयूरी के अण्डे में नि:शंकित (नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सित?) हो, इस अण्डे से मेरा खिलौना-मयूरी का बच्चा होगा, यह स्पष्ट है--ऐसा सोच, वह उस मयूरी के अण्डे को न बार-बार उलटता, न पलटता, न सरकाता, न दूर सरकाता, न चलाता, न स्पन्दित करता, न स्पर्श करता, न क्षुभित करता और न कान के पास ले जाकर उसे बार-बार बजाता। २६. तए णं से मूयरी-अंडए अणुव्वत्तिज्जमाणे जाव अटिट्टियाविज्जमाणे कालेणं समएणं उन्भिन्ने मयूरी-पोयए एत्थ जाए। २६. तब न उलटने यावत् न बजाने के कारण यथाकाल यथासमय वह मयूरी का अण्डा फूटा और उससे मयूरी का बच्चा उत्पन्न हुआ। २७. तए णं से जिणदत्तपुत्ते तं मयूरी-पोययं पासइ, पासित्ता हट्ठतुढे मयूर-पोसए सद्दावेइ, सद्दाक्ता एवं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! इमं मयूर-पोयगं बहूहिं मयूर-पोसण-पाओग्गेहिं दव्वेहिं अणुपुब्वेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्ढेह, नदुल्लगं च सिक्खावेह ।। २७. उस जिनदत्त-पुत्र ने उस मयूरी के बच्चे को देखा। उसे देख, हृष्ट-तुष्ट हो, मयूर-पोषकों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! इस मोर के बच्चे का बहुत से मयूर पोषण-प्रायोग्य द्रव्यों से क्रमश: संरक्षण और संगोपन करते हुए संवर्द्धन करो और इसे नृत्य करना सिखाओ। Jain Education Intemational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : सूत्र २८-३४ ११८ २८. तए णं ते मयूर - पोसगा जिणदत्तपुत्तस्स एयमहं पडिसुणेंति, तं मयूर पोयगं गेहंति, जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति, तं मयूर पोयगं बहूहिं मयूर पोसण पाओगोहिं दब्वेहिं अणुपुब्वेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्ढेंति, नदुल्लगं च सिक्खावेंति ।। २९. तए से मयूर पोयए उम्मुक्कबालभावे विण्णय-परिणयमेते जोब्बणगमणुपत्ते लक्खण वंजण-गुणोववेए माणुम्माणप्यमाणपठिषुण्णपक्त्र- पेहुणकलावे विचित्त पिच्छततचंदए नीलकंठ नच्चणसीलए एगाए चप्पुडियाए क्याए समाणीए अणेगाई नदुल्लगसवाई के काइयस्याणि य करेमाणे विहरइ ।। ३०. तए णं ते मयूर पोसगा तं मयूर पोयगं उम्मुक्कबालभावं जाव - केकाइयसपाणि य करेमाणं पासित्ता णं तं मयूर पोयगं गेण्डति, हित्ता जिणदत्तपुत्तस्स उवर्णेति । ३१. तए णं से जगदत्तपुते सत्यवाहदारए मयूर- पोयगं उम्मुक्कबालभावं जाब केकाइयसयाणि य करेमाणं पासित्ता हट्टतुझे तेसिं विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ, दलइत्ता पडिविसज्जेइ ।। ३२. तए णं से मयूर - पोयगे जिणदत्तपुत्तेणं एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीए नंगोला - भंग - सिरोधरे सेयावंगे ओयारिय-पइण्णपक्खे उक्खित्तचंदकाइय-कलावे केक्काइयसयाणि मुंचमाणे नच्चइ ।। ३३. तए गं से जिणदत्तपुते तेणं मयूर पोयएणं चंपाए नवरीए सिंघाडग-तिग-चक्क चच्चर-चउम्मुह- महापहपहेसु सएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य पणिएहिं जयं करेमाणे विहरइ ।। ३४. एवामेव समणाउसो! जो अहं निगंधो वा निगंधी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुटे भवित्ता अगाराज अणगारिय पव्वइए समाणे पंचमहव्वएसु छज्जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे निस्सकिए निक्कखिए निव्वितिगिंछे, से णं इहभवे चैव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण व अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमसणिज्जे प्रयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेदयं विगएणं पज्जुवासणिज्ने भवद्द । परोए वि य णं नो बहूणि हत्यच्छेयणाणि य कण्णच्छेयणाणि य नासाख्यणाणि य एवं हिययउपायणाणि व वसणुप्पायणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिड, पुणो अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं बीईवइस्सह । । - नायाधम्मक हाओ २८. उन मयूर पोषक ने जिनदत्तपुत्र के इस अर्थ को स्वीकार किया। उस मोर के बच्चे को हाथ में उठाया। जहां अपना घर था, वहां आए । उस मोर के बच्चे का बहुत से मयूर पोषण प्रायोग्य द्रव्यों से क्रमशः संरक्षण और संगोपन करते हुए संवर्द्धन किया और उसे नृत्य करना सिखाया। २९. वह मोर का बच्चा शैशव को पार कर विज्ञ और कला का पारगामी बन, यौवन को प्राप्त हो, लक्षण और व्यञ्जन की विशेषता वाला, मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण पक्ष और मयूरांग कलाप वाला, सैंकड़ों चन्द्रों से युक्त रंग-बिरंगी पांखों वाला, नीलकण्ठ, नर्तनशील हो एक चुटकी बजाते ही अनेक सैकड़ों प्रकार के नृत्य और सैकड़ों प्रकार के केकारव करता हुआ विहार करने लगा । ३०. उन मयूर-‍ -पोषकों ने उस मोर के बच्चे को शैशव को पार कर यावत् सैकड़ों प्रकार के केकारव करते हुए देखकर उस मोर के बच्चे को हाथ में उठाया। उठाकर जिनदत्त पुत्र को सौंप दिया। ३१. उस मोर के बच्चे को शैशव को पार कर यावत् सैकड़ों प्रकार के कारव करते हुए देखकर हृष्ट-तुष्ट हुए सार्थवाह दारक जिनदत्त पुत्र ने उन मयूर पोषकों को विपुल जीवन निर्वाह योग्य प्रीतिदान दिया । प्रीतिदान देकर उन्हें प्रतिविसर्जित कर दिया । ३२. जिनदत्त के द्वारा एक चुटकी बजाते ही वह मोर का बच्चा अपनी गर्दन को पूंछ की भांति टेढ़ा कर अपांग की श्वेतिमा को प्रदर्शित करता हुआ पाखों को फैला (छतरी तान कर ) चन्द्रक युक्त कलाप को ऊपर उठा, सैकड़ों प्रकार के केकारव करता हुआ नृत्य करने लगा। ३३. वह जिनदत्तपुत्र उस मोर के बच्चे के कारण चंपानगरी के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में सैकड़ों, हजारों और लाखों के दांव जीतता हुआ विहार करने लगा । ३४. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्द्वन्दी आचार्य उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रवजित हो, पांच महाव्रतों षट्जीवनिकायों और निर्धन्य प्रवचन में निःशक्ति, नि:कांक्षित और निर्विचिकित्सित रहता है, वह इस जीवन में बहुत श्रमणों बहुत भ्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याण, मंगल, देव, चैत्य और विनय पूर्वक पर्युपासनीय होता है। परलोक में भी वह बहुत हस्तछेदन, कर्णछेदन, नासाछेदन तथा इसी प्रकार हृदय-उत्पाटन, वृषण-उत्पाटन और फांसी को प्राप्त नहीं करेगा और वह अनादि-अनन्त, प्रलम्बमार्ग तथा चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार का पार पा लेगा - मुक्त हो जाएगा । ' Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ निक्खेव पदं ३५. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं तच्चस्स नायज्झयणस्स मट्ठे पण्णत्ते । -त्ति बेमि ।। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा जिणवरभातियभावेतु भावसच्चेसु भावओ नो कुज्जा संदेहं संदेहोऽणत्थहेउ त्ति , मइमं । ।।१।। निसंदेहत्तं पुण, गुणहेउं जं तओ तयं कज्जं । एत्वं दो सेट्ठिसुया, अंडयगाही उदाहरणं । ॥२॥ कत्थइ महदुब्बल्लेग, तब्बिहापरियविरहओ वावि । नेयमहणत्तणेणं, नाणावरणोदयेणं च ।।३।। ऊदाहरणासंभवे य, सइ सुठु जं न बुज्झेज्जा । सब्वण्णुमयमवितहं, तहावि इइ चिंतए मइमं । ॥४॥ अणुवकय-पराणुग्गह-परायणा उ जिणा जगप्पवरा । जिब राग-दोस- मोहा, प नन्नहावाइणो तेण ॥ ॥५॥ तृतीय अध्ययन : सूत्र ३५ निक्षेप पद ३५. जम्बू ! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता तीर्थंकर यावत् सिद्धिगति नाम वाले स्थान को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के तीसरे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। -- ऐसा मैं कहता हूं। ११९ वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन गाया- १. मतिमान पुरुष जिनवर द्वारा भाषित भावसत्य भावों में भाव से सन्देह न करे। सन्देह अनर्थ का हेतु है । २. इसके विपरीत निःसंदेहता गुण का हेतु है, अतः भाव से असंदिग्ध रहे। यहां अण्डग्राही दो श्रेष्ठीपुत्र उदाहरण हैं। ३४. कदाचित् मति की दुर्बलता, तथाविध आचार्य का अभाव, ज्ञेय की अग्रहणता, ज्ञानावरणीय कर्म का उदय, हेतु और दृष्टान्त का अभाव - कारणों से एक बार सम्यक् बोध न भी हो, तो भी मतिमान पुरुष यह सोचे सर्वज्ञ द्वारा अनुमत तत्त्व अवितथ है। ५. अकारण परानुग्रह-परायण, राग-द्वेष और मोह के विजेता जगत्-प्रवर जिन अन्यथा भाषण नहीं करते । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६ १. करणीय कार्यों को (किच्चाई करणिज्जाई) कृत्य और करणीय इनकी व्याख्या वृत्तिकार ने दो प्रकार से की है-९. विशेषण - विशेष्य के रूप में इनका अर्थ होता है--कृत्यकरणीय कर्त्तव्य प्रयोजन । २. दोनों पदों को स्वतन्त्र मानकर कृत्य और करणीय का किया गया है वहां कृत्य का अर्थ है --नित्य सम्पादित किए जाने वाले कार्य और करणीय का अर्थ है-कदाचित् सम्पादित किए जाने वाले कार्य।" टिप्पण सूत्र ७ २. प्रतिज्ञा ( संगारं) संगार यह देशी शब्द है। इसका अर्थ होता है--संकेत। संस्कृत शब्दकोश में 'संगर' शब्द प्रतिज्ञा के अर्थ में है। प्रस्तुत प्रकरण में यही अर्थ संगत है। सूत्र ८ ३. पौसठ कलाओं में (चउसद्विकला ) चौसठ कला-स्त्रियों के लिए उपयोगी गीत, नृत्य आदि विद्या शाखाएं। वात्स्यायन सूत्र में इनका विस्तार से उल्लेख है। ऐसा वृत्तिकार ने भी निर्देश दिया है। ४. कर्णीरथ - वाहन विशेष (कण्णीरह) कर्णीरथ के दो अर्थ है- १. वह रथ जिसे कहार कंधे पर ढोवें। २. स्त्रियों के चढ़ने के लिए पर्दा लगा हुआ रथ । " कर्णीरथ किन्ही वैभवशाली व्यक्तियों के पास ही हुआ करता था । उस समय नगर वधुओं को भी राजकीय सम्मान प्राप्त होता था और कर्णीरथ उन्हें राजाओं द्वारा अनुज्ञात होते थे । १. ज्ञातावृति पत्र- ९७ किच्चाई करणीपाई ति कर्तव्यानि पनि प्रयोजनानीत्यर्थः अथवा कृत्यानि -- नैत्यिकानि करणीयानि -- कादाचित्कानि । २. वही, पत्र - ९८ - संगार' त्ति--संकेतं । -- ३. अभिधान चिन्तामणि २ / १९२ ४. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ९९-चतुः षष्टिकत्ता गीतनृत्यादिकाः स्त्रीजनोचिता वात्स्यायनाप्रसिद्धाः । ५. अभिधान चिन्तामणि ३ / ४१७ ६. जावृत्ति, पत्र- ९९ कर्णीरथो हि ऋद्धिमतां केषाधिदेव भवतीति सोपि तस्या अस्तीत्यतिशयप्रतिपादनार्थोऽपि शब्दः । ७. वही लघुकरणं गमनादिकाशीप्रक्रिया दक्षत्वमित्यर्थः तेन युक्ता ये -- सूत्र १० ५. शीघ्र गतिक्रिया की दक्षता से युक्त (लहुकरणजुत्तजोइयं ) लघुकरण का अर्थ है शीघ्रता से संपादित की जाने वाली गमन आदि क्रिया । दक्षता से युक्त पुरुषों द्वारा जोते गये रथ को लघुकरण युक्त योजित कहा गया है। सूत्र २१ ६. प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त संकिए, कंखिए, वितिगिच्छे, भेद समापन्ने, कलुससमापन्ने -- ये पांच शब्द संदिग्ध चेतना की अभिव्यक्ति देने वाले हैं। शक्ति--यह कार्य होगा या नहीं इस प्रकार के विकल्पों से युक्त चेतना वाला। कांक्षित - विवक्षित फल कब मिलेगा - इस प्रकार की आकांक्षा उत्सुक्ता युक्त चेतनावाला। विचिकित्सत अमुक निष्पत्ति का उपयोग मैं कर सकूंगा अथवा नहीं - इस प्रकार की शंकित चेतना वाला। भेद समापन्न--भेद समापन्न का अर्थ है दुविधापूर्ण मनः स्थिति वाला । उसका चित्त वस्तु के सद्भाव अथवा असद्भाव विषयक विकल्पों से व्याकुलित रहता है। कलुषसमापन्नमति की मलिनता को प्राप्त।" सूत्र २२ ७. सारहीन (पोच्चडे) यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है सारहीन हो जाना। राजस्थानी भाषा में सड़े-गले के अर्थ में प्रयुक्त होने वाला 'पोचा' या 'पोच जाना' इसी 'पोच्चड' शब्द का प्रतिनिधित्व करता है । सूत्र २४ ८. पांच महाव्रतों व षड्जीवनिकायों में (पंचमहव्वएसु छज्जीवनिकाएसु) भगवान महावीर ने मुनि के लिए जो आचार संहिता निर्धारित की पुरुषास्तैर्वोजित-यन्त्रपूपादिभिः सम्बन्धितं तत्तथा। ८. वही, पत्र- १०२ शकिमिदं निष्पत्स्यते न वेत्येवं विकल्पवान्। कङ्क्षितः तत्फलाकाङ्क्षायान् कदा निष्पत्स्यते इतो विवक्षितं फलमित्यौत्सुक्य वानित्यर्थः । विचिकित्सितः जातेऽपीतो मयूरपोतेऽतः किं मम कीड़ालक्षणं फलं भविष्यति न वेत्येवं फलं प्रति शङ्कावान् । भेदसमापन्नोमते-द्वेधा-भावं प्राप्तः, सद्भावासद्भाव-विषयविकल्प व्याकुलित इति भावः कलुष समापन्नो मतिमालिन्यमुपगतः । ९. वही--पोच्चडं त्ति असारं । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ उसमें षड्जीवनिकाय और पांच महाव्रत का स्थान प्रमुख है। द्रष्टव्य-- दसवेआलियं -- ४ / १-२३ सूयगडो--१/१/५६-५९ आचारांग भाष्यम्--प्रथम अध्ययन ९. ( सूज २४ ) प्रस्तुत सूत्र में होलनीय, निन्दनीय कुत्सनीय गर्हणीय और परिभवनीय--ये पांच शब्द अवमानना के द्योतक हैं। इनमें अर्थभेद भी १. ज्ञातावृत्ति पत्र १०२ - हीलनीयों गुरुकुलाद्युबट्टनतः निन्दनीयः कुत्सनीयो-मनसा, लिंसनीयोजनमध्ये गर्हणीय:-- समक्षमेव च परिभवनीयोऽनभ्युत्थानादिभिः । १२१ तृतीय अध्ययन : टिप्पण ८-९ १. हीलनीय -- गुरु या कुल की न्यूनता का उद्घाटन कर तिरस्कृत करना । २. निन्दनीय - - वाणी के प्रयोग से तिरस्कृत करना । ३. कुत्सनीय - - मन में अवज्ञा के भाव उत्पन्न होना । ४. गर्हणीय--सम्बन्धित व्यक्ति के समक्ष ही उसका तिरस्कार करना । ५. परिभवनीय अभ्युत्थान आदि लोकोपचार विनय का प्रयोग न करना । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख लक्ष्य प्राप्ति की मुख्य बाधा है--इन्द्रिय एवं मन की चंचलता। जिस व्यक्ति का अपनी इन्द्रियों पर सम्यक् नियन्त्रण नहीं होता, प्रिय विषय के प्रति राग और अप्रिय विषय के प्रति द्वेष उसके मन की एकाग्रता को खण्डित करता रहता है। प्रस्तुत अध्ययन में कछुए के दृष्टान्त से इन्द्रिय गुप्ति से होने वाले लाभ और अगुप्तेन्द्रियता की हानि का हृदयग्राही निरूपण हुआ है। जैन, बौद्ध और वैदिक सभी धर्मग्रन्थों में इन्द्रियनिग्रह के लिए कूर्म का दृष्टान्त प्रसिद्ध है। तथागत बुद्ध ने साधक के लिए कूर्म का रूपक दिया है। सूत्रकृतांग सूत्र में भी इन्द्रियनिग्रह के लिए कर्म का दृष्टान्त उपलब्ध है। गीता में इन्द्रियनिग्रह को स्थितप्रज्ञता का लक्षण बताया गया है। मृतगंगातीर नामक द्रह में दो कछुए रहते थे। एक अपनी चंचलता के कारण अकाल-विनाश को प्राप्त हुआ। दूसरे ने अपने अंगों को संयत रखा। चिरकालीन कायगुप्ति के बाद धीरे से ग्रीवा निकालकर दिशावलोकन किया। सियारों की विपत्ति से अपने को मुक्त पाकर एक साथ चारों पैर निकाले और शीघ्रता से पुन: द्रह में जा पहुंचा। निष्कर्ष की भाषा में ग्रन्थकार कहते हैं-जो साधक जितेन्द्रिय होता है वह सभी प्रकार की ऐहिक और पारलौकिक विपत्तियों से मुक्त हो जाता है, चार तीर्थ की दृष्टि में वन्दनीय-पूजनीय होता है। इसके विपरीत जो इन्द्रिय नियन्त्रण में असफल हो जाता है, वह अपने साधना मार्ग से च्युत हो जाता है और शृगालों से ग्रस्त कूर्म की भांति अनेक अनर्थ परम्पराओं को प्राप्त होता है। १ सूग्रगड़ो १८१६--ज़द्रा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे। एवं पावाइं मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे।। २. श्रीमद्भगवद्गीता २/५८--यदा संहरते चायं, कूर्मोऽड्.गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। Jain Education Intemational Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्खेव पदं १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं तच्चस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, चउत्यस्स णं भते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? २. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी होत्या वण्णओ ।। -- चउत्थं अज्झयणं : चौथा अध्ययन कुम्मे : कूर्म ३. तीसे णं वाणारसीए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए गंगाए महानईए मयंगतीरद्दहे नामं दहे होत्था - अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजले अच्छ-विमल सलिल पलिच्छपणे संछष्ण-पतपुष्क- पलासे बहुउप्पल-पम- कुमुय नलिण- सुभग सोगंधियपुंडरीय महापुंडरीय सयपत्त-सहरसपत्त - केसरपुप्फोवचिए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे परूिवे ।। ४. तत्थ णं बहूणं मच्छाण य कच्छभाण य गाहाण य मगराण य सुंसुमाराण य सयाणि य सहस्साणि य सयसहस्साणि य जूहाई निब्भयाइं निरुव्विग्गाई सुहंसुहेणं अभिरममाणाइं-अभिरममाणाइं विहरति ॥ ५. तस्स णं मयंगतीरदहस्स अदूरसामते, एत्य णं महं एगे मालुवाकच्छए होत्या वण्णओ ।। -- पावसियालग-पदं ६. तत्व णं दुवे पावसियालगा परिवसति पावा चंडा रुदा तल्लिच्छा साहसिया लोहियपाणी आमिसत्थी आमिसाहारा आमिसप्पिया आमिसलोला आमिसं गवेसमाणा रत्तिवियालचारिणो दिया पच्छन्नं या विचिति ।। कुम्भ-पदं ७. तए णं ताओ मयंगतीरद्दहाओ अण्णया क्याइं सूरियंसि चिरत्यमियसि लुलियाए संझाए पविरलमाणुसंसि निसंत-पडिनिसंतंसि समा उत्क्षेप-पद १. भन्ते ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञातधर्मकथा के तीसरे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! तधर्मकथा के चौथे अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. जम्बू! उस काल और उस समय वाराणसी नाम की नगरी थी-वर्णक । ३. उस वाराणसी नगरी के ईशान कोण में महानदी गंगा से निःसृत मृतगंगातीरहृद' नाम का हृद था। वह उत्तरोत्तर सुन्दर तट वाला, अगाध और शीतल जल वाला, स्वच्छ और विमल जल से भरा हुआ, पद्मिनी दल और कुसुम दल से आच्छादित प्रफुल्ल और केशरप्रधान, नाना उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र और सहस्रपत्र कमलों से उपचित मन को आह्लादित करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय था। ४. उस हद में बहुत प्रकार के मत्स्य, कच्छप, ग्राह (मगर विशेष ) मगर (हिंसक जलचर प्राणी) और सुंसुमारों के सैकड़ों, हजारों और लाखों यूथ निर्भय, निरुद्विग्न सुखपूर्वक अभिरमण करते-करते विहार करने लगे । ५. उस मृतगंगातीरहद के न दूर, न निकट एक महान् मालुकाकक्ष था- वर्णक । पाप शृगालक-पद 1 ६. वहां दो दुष्ट शृगाल रहते थे। वे दुष्ट, चण्ड, रुद्र पाप-लिप्सु, साहसिक, लोहित पाणि, मांसार्थी, मांसाहारी, मांसप्रिय और मांसलोलुप थे अतः वे मांस की खोज में रात्रि के समय तथा सन्ध्याकाल में घूमते और दिन में प्रच्छन्न रहते थे । कूर्म - पद ७. किसी समय जब सूर्यास्त हुए बहुत समय हो चुका, रात गहरा गई, जब मनुष्यों का गमनागमन कम हो गया, घर से बाहर गये लोग Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ दुवे कुम्मगा आहारत्थी आहारं गवेसमाणा सनियं-सणियं उत्तरति तस्सेव मयंगतीरद्दहस्स परिपेरतेणं सव्वओ समंता परिघोलमाणापरिघोलमाणा वित्तिं कप्पेमाणा विहरति ।। १२५ पावसियालगाणं आहारगवेसण-पदं ८. तयानंतरं च णं ते पावसियालगा आहारत्थी आहारं यवेसमाणा मालुयाकच्छगाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव मयंगतीरद्दहे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता तस्सेव मयंगतीरद्दहस्स परिपेरंतेणं परिघोलमाणा- परिघोलमाणा वित्तिं कप्पेमाणा विहरति ।। ९. तए णं ते पावसियालगा ते कुम्मए पासंति, पासित्ता जेणेव ते कुम्मए तेणेव पहारेत्य गमणाए । कुम्माणं साहरण-पदं १०. तए णं ते कुम्ममा ते पावसियालए एज्जमाणे पासंति, पासित्ता भीया तत्था तसिया उव्विग्गा संजायभया हत्ये य पाए य गीवाओ य एहिं सएहिं काहिं साहरंति, साहरित्ता निच्चला निप्फंदा तुतिणीया चिति । ११. तए णं ते पावसियालगा जेणेव ते कुम्मगा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता ते कुम्मए सव्वजो समता उव्वतेति परियति आसारेंति संसारेंति चालेंति घट्टेति फर्देति खोर्भेति नहेहिं आलुपति दंतेहि य अक्खोडेंति, नो चेव णं संचाएंति तेसिं कुम्मगाणं सरीरस्स किंचि आवाहं वा वाबाहं वा उप्पाइए छविच्छेयं वा करेत्तए । १२. तए णं ते पावसियालगा ते कुम्मए दोच्चपि तच्चपि सब्बओ समंता उव्वतेति परियत्तेति आसारेति संसारेति चालेंति घट्टेति फति खोति नहिं आलुंपति दंतेहि य अक्खोडेंति, नो चेव णं संचाएंति तेसिं कुम्मगाणं सरीरस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाइत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए, ताहे संता तंता परितंता निव्विण्णा समाणा सणियं-सणियं पच्चोसक्कति, एगंतमवक्कमति, निच्चता निष्कंदा तुसिणीया संचिति ।। अगुत्त- कुम्मस्स मच्चु -पदं १३. तए णं एगे कुम्मए ते पावसियालए चिरगए दूरंगए जाणित्ता सणियं सणियं एवं पायं निच्छुभद्र ।। चतुर्थ अध्ययन : सूत्र ७-१३ पुनः अपने-अपने घरों में लौट आए, तब दो आहारार्थी छु की खोज में धीरे-धीरे मृतगंगातीरहृद से उतरे। उसी मृतगंगातीरहृद के परिपार्श्व में चारों ओर घूमते-घूमते जीवन यापन करते हुए विहार करने लगे । दुष्ट शृगालों द्वारा आहार- गवेषण पद ८. तदनन्तर आहारार्थी वे दुष्ट शृगाल आहार की खोज करते करते उस मालुकाकक्ष से बाहर निकले। बाहर निकलकर जहां मृतगंगातीर हृद था, वहां आए। वहां आकर मृतगंगातीरहद के परिपार्श्व में घूमते-घूमते जीवन-यापन करते हुए विहार करने लगे । ९. तब उन दुष्ट भृगालों ने उन कछुओं को देखा। देखकर जहां वे कछुए थे वहीं जाने का संकल्प किया । कूर्मों द्वारा संहरण-पद १०. उन कछुओं ने उन दुष्ट शृगालों को आते हुए देखा, देखकर भीत, त्रस्त, तृषित, उद्विग्न और भयाक्रान्त हो अपने हाथ-पांव एवं गर्दन को अपने-अपने शरीर में संहुत कर लिया। संहृत कर निश्चल, निस्पंद और मौन हो गए। " ११. वे दुष्ट भृगाल, जहां वे कछुए थे वहां आए। वहां आकर उन कछुओं को चारों से उलटा, पलटा, सरकाया दूर तक सरकाया, चलाया, स्पर्श किया, स्पन्दित किया, क्षुभित किया। नर्सों से नोचा, दांतों से खींचा, पछाड़ा फिर भी वे उन कछुओं के शरीर में किंचित् भी आबाधा या विबाधा उत्पन्न करने में और छविच्छेद (अंगभंग) करने में समर्थ नहीं हुए। १२. तब उन दुष्ट भृगालों ने दूसरी-तीसरी बार भी उन कछुओं को चारों ओर से उलटा, पलटा, सरकाया, दूर तक सरकाया, चलाया, स्पर्श किया, स्पन्दित किया, शुभित किया, नखों से नोचा, दांतों से खींचा, पछाड़ा फिर भी वे उन कछुओं के शरीर में किंचित् भी आवाधा या विवाधा उत्पन्न करने में और छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हुए तो वे श्रान्त, क्लान्त, परिक्लान्त और उदास होकर धीरे-धीरे पीछे सरक गए, एकान्त में चले गए और निश्चल निस्पंद तथा मौन हो गए। अगुप्त कूर्म का मृत्यु- पद चले १३. उन दुष्ट भृगालों को गए बहुत समय हो चुका और वे बहुत दूर गए, यह जानकर एक कछुए ने धीरे-धीरे अपने एक पांव को बाहर निकाला । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : सूत्र १४-१८ १२६ नायाधम्मकहाओ १४. तए णं ते पावसियालगा तेणं कुम्मएणं सणियं-सणियं एगं पायं १४. उन दुष्ट शृगालों ने उस कछुए को धीरे-धीरे एक पांव बाहर नीणियं पासंति, पासित्ता सिग्धं तुरियं चवलं चंडं जइणं वेगियं निकालते हुए देखा। यह देखकर वे शीघ्र, त्वरित, चपल, चण्ड, तीव्र जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तस्स णं कुम्मगस्स और उतावली गति से जहां वह कछुआ था, वहां आए। वहां आकर उस तं पायं नहिं आलुपंति दंतेहिं अक्खोडेंति, तओ पच्छा मंसं च कछुए के उस पांव को नखों से नोचा। दांतों से खींचा। उसके बाद सोणियं च आहरेंति, आहारेत्ता तं कुम्मगं सव्वओ समंता उव्वत्तेति उसके मांस और शोणित का आहार किया। आहार कर उस कछुए को जाव नो चेवणं संचाएंति तस्स कुम्मगस्स सरीरस्स किंचि आबाह चारों ओर से उलटा यावत् वे उस कछुए के शरीर में किंचित् भी वा वाबाहं वा उप्पाइत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए। आबाधा या विबाधा उत्पन्न करने में और छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हुए। १५. तए णं ते पावसियालगा तं कुम्मयं दोच्चंपि तच्चंपि सव्वओ १५. उन दुष्ट शृगालों ने उस कछुए को दूसरी-तीसरी बार भी चारों ओर समंता उव्वत्तेति परियत्तेति आसारेंति संसारेंति चालेंति घट्टेति से उलटा-पलटा, सरकाया, दूर तक सरकाया, चलाया, स्पर्श किया, फदेति खोभेति नहेहिं आलुपंति दंतेहि य अक्खोडेंति, नो चेव णं स्पन्दित किया, क्षुभित किया, नखों से नोचा, दांतों से खींचा, फिर भी संचाएंति तस्स कुम्मगस्स सरीरस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा वे उस कछुए के शरीर में किंचित् भी आबाधा या विबाधा उत्पन्न उप्पाइत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए, ताहे संता तंता परितंता निविण्णा करने में और छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हुए, तब वे श्रान्त, समाणा सणियं-सणियं पच्चोसक्कंति, दोच्चंपि एगंतमवक्कमंति। क्लान्त, परिक्लान्त और उदास होकर धीरे-धीरे पीछे सरकते गए एवं चत्तारि वि पाया। और दूसरी बार भी एकान्त में चले गए। इस प्रकार उस कछुए ने चारों ही पांवों को बाहर निकाला और दुष्ट शृगालों ने उसके मांस और शोणित का आहार किया। १६. तए णं से कुम्मए ते पावसियालए चिरगए दूरंगए जाणित्ता सणियं-सणियं गीवं नीणेइ। १६. उन दुष्ट शृगालों को गए बहुत समय हो चुका है और वे बहुत दूर चले गये हैं, यह जानकर उस कुछए ने (धीरे-धीरे) अपनी गर्दन को बाहर निकाला। १७. तए णं ते पावसियालगा तेणं कुम्मएणं (सणियं-सणियं?) गोवं नीणियं पासंति, पासित्ता सिग्घं तुरियं चवलं चंडं जइणं वेगियं जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तस्स णं कुम्मगस्स तं गौवं नहेहिं (आलुपंति?) दंतेहिं कवालं विहाडेंति, विहाडेत्ता तं कुम्मगं जीवियाओ ववरोवेंति, ववरोवेत्ता मंसं च सोणियं च आहारेंति॥ १७. उन दुष्ट शृगालों ने उस कछुए को धीरे-धीरे गर्दन को बाहर निकालते हुए देखा। देखकर वे शीघ्र, त्वरित, चपल, चण्ड, तीव्र और उतावली गति से जहां वह कछुआ था वहां आए। वहां आकर उस कछुए की गर्दन को नखों से नोचा और कपाल को दांतों से विदीर्ण किया। विदीर्ण कर उसे मार डाला, मारकर उसके मांस और शोणित का आहार किया। १८. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे, पंच य से इंदिया अगुत्ता भवंति, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं साक्यिाण यहीलणिज्जे निंदणिज्जे खिसणिज्जे गरहणिज्जे परिभवणिज्जे, परलोए वि य णं आगच्छइ--बहूणि दंडणाणि य बहूणि मुंडणाणि य बहूणि तज्जणाणि य बहूणि तालणाणि य बहूणि अंबंधणाणि य बहूणि घोलणाणि य बहूणि माइमरणाणि य बहूणि पिइमरणाणि य बहूणि भाइमरणाणि य बहूणि भगिणीमरणाणि य बहूणि भज्जामरणाणि य बहूणि पुत्तमरणाणि य बहूणि धूयमरणाणि य बहूणि सुण्हामरणाणि य। बहूणं दारिद्दाणं बहूणं दोहग्गाणं बहूणं अप्पियसंवासाणं बहूणं पियविप्पओगाणं बहूणं दुक्ख-दोमणस्साणं १८. आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी, आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो, विहार करता है, उसकी पांचो इन्द्रियां अगुप्त रहती हैं, तो वह इस जीवन में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं के द्वारा हीलनीय, निंदनीय, कुत्सनीय, गर्हणीय और परिभवनीय होता है। परलोक में भी वह बहुत दण्ड, बहुत मुण्डन, बहुत तर्जना, बहुत ताड़ना, बहुत सांकल- बन्धन, बहुत भ्रमण, बहुत मातृ-मरण, बहुत पितृ-मरण, बहुत भ्रातृ-मरण, बहुत भगिनी-मरण, बहुत भार्या-मरण, बहुत पुत्र-मरण, बहुत पुत्री-मरण और बहुत पुत्रवधु-मरण को प्राप्त होता है। वह (भविष्य में भी) बहुत दरिद्रता, बहुत दौर्भाग्य, बहुत अप्रिय संवास, बहुत प्रिय-विप्रयोग और बहुत दुःख-दौर्मनस्य का आभागी होगा। Jain Education Intemational Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १२७ आभागी भविस्सति, अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरतं संसारकतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ--जहा व से कुम्मए अगुत्तिदिए। चतुर्थ अध्ययन : सूत्र १८-२२ वह अनादि-अनन्त, प्रलम्ब मार्ग तथा चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार में पुन: पुन: अनुपरिवर्तन करेगा--जैसे वह अगुप्तेन्द्रिय कछुआ। गुत्तकुम्मस्स सोक्ख-पदं गुप्त कूर्म का सौख्य-पद १९. तएणं ते पावसियालगा जेणेव से दोच्चे कुम्मए तेणेव उवागच्छंति, १९. वे दुष्ट शृगाल जहां वह दूसरा कछुआ था वहां आए। वहां आकर उवागच्छित्ता तंकुम्मगंसव्दओ समंता उव्वत्तेति परियत्तेति आसारेंति उन्होंने उस कछुए को चारों ओर से उलटा, पलटा, सरकाया, दूर संसारेंति चालेंति घट्टेति फर्देति खोभेति नहेहिं आलुपंति दंतेहि य तक सरकाया, चलाया, स्पर्श किया, क्षुभित किया, स्पंदित किया, फिर अक्खोडेंति, नो चेवणं संचाएंति तस्स कुम्मगस्स सरीरस्स किंचि नखों से नोचा, दांतो से खींचा, फिर भी वे उस कछुए के शरीर में आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाइत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए। किंचित् भी आबाधा या विबाधा उत्पन्न करने में और छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हुए। २०. तए णं ते पावसियालगा तं कुम्मगं दोच्चंपि तच्चपि उव्वत्तेति जाव, नो चेवणं संचायति तस्स कुम्मगस्स सरीरस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाइत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए, ताहे संता तंता परितंता निविण्णा समाणा जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। २०. उन दुष्ट शृगालों ने उस कछुए को दूसरी-तीसरी बार भी उलटा यावत् वे उस कछुए के शरीर में किंचित भी आबाधा या विबाधा उत्पन्न करने और छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हुए। तब वे श्रान्त, क्लान्त, परिक्लान्त और उदास हो, जिस दिशा से आये थे उसी दिशा में चले गये। २१. तए णं से कुम्मए ते पावसियालए चिरगए दूरंगए जाणित्ता सणियं-सणियं गीवं नीणेइ, नीणेत्ता दिसावलोयं करेइ, करेत्ता जमगसमगं चत्तारि वि पाए नीणेइ, नीणेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्याए उद्धृयाए जइणाए छेयाए कुम्मगईए वीईवयमाणे- वीईवयमाणे जेणेव मयंगतीरद्दहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधिपरियणेणं सद्धिं अभिसमण्णागए यावि होत्था। २१. उन दुष्ट शृगालों को गये बहुत समय बीत चुका है और वे बहुत दूर चले गये हैं, यह जानकर उस कछुए ने धीरे-धीरे अपनी गर्दन बाहर निकाली। बाहर निकालकर दिशावलोकन किया। अवलोकन कर एक साथ चारों ही पावों को बाहर निकाला। बाहर निकाल कर उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, शीघ्र, उद्धत, जवी एवं चतुर कूर्म गति से चलता-चलता वह जहां मृतगंगातीर-हृद था वहां आया। वहां आकर वह अपने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ अभिसमन्वागत हो गया। २२. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं समणो वा समणी वा आयरिय -उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंच य से इंदियाइं गुत्ताइं भवंति, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमसणिज्जे पूयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जवासणिज्जे भवइ। परलोए वियणंनो बहूणि हत्थच्छेयणाणि य कण्णच्छेयणाणि य नासाछेयणाणि य एवं हिययउप्पायणाणि य वसणुप्पायणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिइ, पुणो अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरन्तं संसारकतारं वीईवइस्सइ--जहा व से कुम्मए गुत्तिदिए। २२. आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार हमारा जो श्रमण अथवा श्रमणी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रवजित हो, विहार करता है और उसकी पांचों इन्द्रियां गुप्त होती हैं, तो वह इस जीवन में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याण, मंगल, देव, चैत्य और विनय पूर्वक पर्युपासनीय होता है। परलोक में भी वह बहुत हस्त-छेदन, कर्ण-छेदन, नासा-छेदन तथा इसी प्रकार हृदय-उत्पाटन, वृषण-उत्पाटन और फांसी को प्राप्त नहीं करेगा और वह अनादि-अनन्त, प्रलम्बमार्ग तथा चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार का पार पा लेगा--मुक्त हो जायेगा--जैसे, वह गुप्तेन्द्रिय कछुआ। Jain Education Intemational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : सूत्र २३ १२८ नायाधम्मकहाओ निक्खेव-पदं निक्षेप पद २३. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स २३. जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के चौथे अध्ययन नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। --त्ति बेमि। --ऐसा मैं कहता हूं। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा-- विसएसु इंदियाई, रुंभंता राग-दोस-निम्मुक्का। पावेंति निव्वुइसुहं, कुम्मोव्व मयंगदहसोक्खं ।।१।। इयरे उ अणत्थ-परंपराओ पावेंति पावकम्मवसा। संसार-सागरगया, गोमाउग्गसियकुम्मोव्व।।२।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा १. विषय में प्रवृत्त इन्द्रियों का निरोध करने वाले राग-द्वेष से निर्मुक्त प्राणी मृतगंगातीर-हृद में सुख प्राप्त करने वाले, कछुए की भांति निवृतिसुख को प्राप्त करते हैं। २. इससे प्रतिकूल प्रवृत्ति करने वाले प्राणी पाप-कर्मों के अधीन और संसार-सागर में निमग्न हो शृगाल द्वारा ग्रसित कछुए की भांति अनर्थ-परम्परा को प्राप्त करते हैं। Jain Education Intemational Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र २ १. मृतगंगातीरहृद (मयंगतीरद्दहे)-- वृत्तिकार के अनुसार मृतगंगा का अर्थ है-वह प्रदेश, जहां कभी गंगा बहती थी। वर्तमान में उसका रास्ता बदल गया हो।' उत्तराध्ययन चूर्णि और सर्वार्थसिद्धि के अनुसार गंगा प्रतिवर्ष नये-नये मार्ग से समुद्र में जाती है। जो मार्ग चिर-त्यक्त हो, जो मार्ग बहते-बहते गंगा ने छोड़ दिया हो--उसे 'मृत-गंगा' कहा जाता है। द्रष्टव्य उत्तरज्झयणाणि १३/६ सूत्र ७ २. जब मनुष्यों का गमनागमन कम हो गया (पविरलमाणुसंसि) ऐसा क्षेत्र जहां सन्ध्या के पश्चात् आते-जाते लोग विरल ही दिखाई दें। ३. घर से बाहर गये लोग जब पुन: अपने-अपने घरों में लौट आए (निसंत पडिनिसंतसि) जब घर से बाहर गये लोग थक जाने पर भ्रमण से विरत हो, पुन: अपने घरों में लौट विश्राम करने लगे हों। तात्पर्य की भाषा में-जब पथ अत्यन्त जन-संचार-शून्य हो गये हों। १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१०४--मयंगतीरदहे त्ति-मृतगंगातीरहृद: मृतगंगा यत्र देशे गंगाजलं व्यूढमासीदिति। २. (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृष्ठ २१५ --मतगंगा-हेट्ठाभूमीए गंगा, अण्णमण्णेहिं मग्गेहि जेण पुव्वं वोढूणं पच्छा ण वहति सा मतगंगा भण्णति । (ख) सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ २६१-- गंगा वहति पाथोधिं, वर्षेऽपराध्वना। वाहस्तत्र चिरात् त्यक्तो, मृतगंगे ति कथ्यते।। ३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१०५ पविरलमाणुस्ससि--प्रविरलं किल मानुषं सन्ध्याकाले यत्र तत्र देशे। ४. वही--निशान्तप्रतिनिशान्ते--अत्यन्तं भ्रमणाद्विरते निशान्तेषु वा गृहेषु प्रतिनिश्रान्ते--विश्रान्ते निलीने अत्यन्तजनसञ्चारविरह इत्यर्थ । Jain Education Intemational Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख लक्ष्य (मोक्ष) तक पहुंचने के लिए सम्यक् मार्ग, सम्यक् बोध और सम्यक् आचरण की संयुति आवश्यक है। प्रस्तुत अध्ययन में थावच्चापुत्र द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन को अंगीकार करना, प्रव्रज्या ग्रहण करना सम्यक् मार्ग की स्वीकृति है। शुक परिव्राजक द्वारा शौचमूल धर्म के स्थान पर विनय मूल धर्म का स्वीकरण व्रत के महत्त्व का पुष्ट प्रमाण है। शैलक अनगार राजर्षि द्वारा शिथिलाचार का त्याग कर उद्यत विहार करना सम्यक् आचार का सूचक है। भगवान अरिष्टनेमि द्वारका नगरी में पधारे। थावच्चापुत्र ने प्रवचन सुना। मन में अभिनिष्क्रमण का संकल्प उत्पन्न हुआ। थावच्चापुत्र कामभोगों में संवर्धित हुआ फिर भी वह कामभोगों से कमल की भांति निर्लिप्त था। थावच्चा और कृष्ण वासुदेव द्वारा बहुत समझाने पर भी वह अपने संकल्प पर दृढ़ रहा। थावच्चापुत्र ने कृष्ण वासुदेव से कहा--यदि आप मुझे दो वरदान दो तो मैं आपकी बात स्वीकार कर सकता हूं। १. मैं मौत पर विजय प्राप्त कर सकू। २. मैं शरीर के सौन्दर्य को विनष्ट करने वाले बुढ़ापे को रोक सकूँ। कृष्ण वासुदेव ने कहा- ये वरदान चाहते हो तो अरिष्टनेमि के पास जाओ। थावच्चा व कृष्ण वासुदेव से सहर्ष अनुमति प्राप्त कर थावच्चापुत्र ने अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। इस अवसर पर कृष्ण वासुदेव ने यह घोषणा की--जो लोग थावच्चापुत्र के साथ दीक्षा स्वीकार करना चाहते हैं उनके परिजनों का योगक्षेम मैं वहन करूंगा। सामाजिक प्रोत्साहन के कारण थावच्चापुत्र के साथ एक हजार व्यक्तियों ने दीक्षा ग्रहण की। यह इतिहास की विरल घटना है। वर्तमान समाज के लिए एक प्रेरणा है। प्रस्तुत कथानक के कई मोड़ हैं-- 0 प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् हजार शिष्यों सहित थावच्चा पुत्र द्वारा उग्रविहार करना। D शैलक राजर्षि को श्रमणोपासक बनाना। D सौगंधिका नगरी के सेठ सुदर्शन का विनयमूल धर्म समझना और श्रमणोपासक बनना। • शुक परिव्राजक के साथ चर्चा करना और उसे प्रतिबोधित करना। 0 हजार परिव्राजकों सहित शुक द्वारा दीक्षा ग्रहण करना। 0 अगार विनय मूल चातुर्याम रूप गृहस्थ धर्म और अनगार विनय मूल चातुर्याम रूप मुनि धर्म का आख्यान करना। अध्ययन के अंत में शैलक अनगार की मनोदशा का बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण किया गया है। जिजीविषा मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति है किंतु इसके साथ जब सुविधावाद की वृत्ति पनप जाती है तब शिथिलाचार का जन्म हो जाता है। शिथिलाचार से तात्पर्य है--स्वीकृत नियमों का पालन न करना। शैलक अनगार पुत्र मण्डुक द्वारा चिकित्सा की राजकीय सुविधा प्राप्त कर स्वस्थ होने पर भी अशन आदि खाद्य और मदिरादि मादक पेय में आसक्त हो गया। मूलगुण व उत्तरगुण में दोष लगाने लगा। प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रिया में भी दोष लगाने लगा। शिष्यों द्वारा प्रतिबोधित करने पर भी जागरूक नहीं हुआ। अंत में सभी शिष्य पंथक मुनि को शैलक अनगार की सेवा में छोड़कर उद्यत विहार करने लगे। प्रस्तुत अध्ययन में थावच्चापुत्र और शुक परिव्राजक के संवाद में साधु जीवन के मुख्य बिन्दुओं पर संक्षिप्त और सारगर्भित विवेचन है। शैलक अनगार के संयम जीवन के उत्थान-पतन पर महत्त्वपूर्ण विमर्श है। प्रमाद की बहुलता से यदि कोई साधक संयम चर्या में शिथिल हो जाते हैं, किंतु अंत में संवेग--वैराग्य के प्रभाव से पुन: संयम में उद्यत हो जाते हैं। वे शैलक ऋषि की तरह आराधक होते हैं। Jain Education Intemational menerande Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं अज्झयणं : पांचवां अध्ययन सेलगे : शैलक उक्खे व-पदं १. जइणं भते! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, पंचमस्स णं भते! नायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते? उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के चौथे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते! उन्होंने ज्ञाता के पांचवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है ? २. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवती नाम नयरी होत्था--पाईणपडीणायया उदीणदाहिणवित्थिण्णा नवजोयण- वित्थिण्णा दुवालसजोयणायामा धणवइ-मइ-निम्मिया चामीयरपवर-पागारा नानामणि-पंचवण्ण-कविसीसग-सोहिया अलकापुरिसंकासा पमुइय-पक्कीलिया पच्चक्खं देवलोगभूया । २. जम्बू ! उस काल और उस समय द्वारवती नाम की नगरी थी। पूर्व और पश्चिम में आयत, दक्षिण और उत्तर में विस्तीर्ण, नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लम्बी, कुबेर द्वारा स्वयं अपनी मति से निर्मित, स्वर्णमय प्रवर प्राकार वाली, नाना मणियों और पंचरंगे कपिशीर्षों से शोभित अलकापुरी--जैसी प्रमुदित नागरिकों की क्रीड़ा स्थली और साक्षात् स्वर्ग तुल्य थी। ३. तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए रेवतगे नाम पव्वए होत्था--तुगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे नाणाविहगुच्छगुम्म-लया-वल्लिपरिगए हंस-मिग-मयूर-कोंच-सारसचक्कवाय-मयणसाल-कोइलकुलोववेए अणेगतड-कडग-वियरउज्झर-पवाय-पन्भारसिहरपउरे अच्छरगण-देवसंघ-चारणविज्जाहरमिहुण-संविचिण्ण निच्चच्छणए दसारवर-वीरपुरिसतेलोक्क-बलवगाणं, सोमे सुभगे पियदंसणे सुरूवे पासाईए दरिसणीए अभिरूवे पडिरूवे।। ३. उस द्वारवती नगरी के बाहर ईशानकोण में रैवतक नाम का पर्वत था। वह ऊंचा, गगन-तल को छूने वाले शिखरों से युक्त, नाना प्रकार के गुच्छ, गुल्म, लता एवं वल्लरियों से परिगत, हंस, मृग, मयूर, क्रोञ्च, सारस, चक्रवाक, मैना एवं कोकिल कुल से उपेत, अनेक तट, कटक, विवर, निर्झर; प्रपात कुछ-कुछ आगे की ओर झुके हुए गिरि-प्रदेश एवं शिखर-समूह से सम्पन्न, अप्सराओं, देवों, चारणों और विद्याधर-मिथुनों से सेवित, सतत उत्सवमय दशाों के मध्य प्रवर वीर पुरुष त्रैलोक्य से भी अतिशायी सत्त्व वाले श्री अरिष्टनेमि से सनाथ, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन, सुरूप, मन को आह्लादित करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय था। ४. तए णं रेवयगस्स अदूरसामंते, एत्थ णं नंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था--सव्वोउय-पुप्फ-फल-समिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासाईए दरिसणीए अभिरूवे पडिरूवे।। ४. उस रैवतक (गिरनार) पर्वत के न अति दूर, न अति निकट नन्दनवन नाम का उद्यान था। वह सभी ऋतुओं में होने वाले फूलों एवं फलों से समृद्ध, रम्य नन्दनवन जैसा मन को आह्लादित करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय था। ५. तस्स णं उज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए सुरप्पिए नामंजक्खाययणे ५. उस उद्यान के बीचोंबीच सुरप्रिय नाम का एक यक्षायतन था। वह दिव्य होत्था-दिव्वे वण्णओ।। था। वर्णक। ६. तत्थ णं बारवईए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसइ । से णं तत्थ समद्दविजयपामोक्खाणंदसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं राईसाहस्सीणं, पज्जुन्नपामोक्खाणं अद्भुट्ठाणं कुमारकोडीणं, संबपामोक्खाणं सट्ठीए दुइंतसाहस्सीणं, वीरसेणपामोक्खाणं एक्कवीसाए वीरसाहस्सीणं, महासेणपामोक्खाणं छप्पण्णाए बलवगसाहस्सीणं, प्पिणिप्पामोक्खाणं ६. उस द्वारवती नगरी में कृष्ण नाम के वासुदेव राजा निवास करते थे। वे वहां समुद्रविजय प्रमुख दश दशा), बलदेव प्रमुख पाच महावीरों, उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार राजाओं, प्रद्युम्न प्रमुख साढ़े तीन करोड़ कुमारों, शाम्ब प्रमुख साठ हजार दुर्दान्त योद्धाओं, वीरसेन प्रमुख इक्कीस हजार वीरों, महासेन प्रमुख छप्पन हजार बलवानों, रुक्मिणी प्रमुख बत्तीस हजार महिलाओं, अनंगसेना प्रमुख हजारों गणिकाओं का और Jain Education Intemational Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ नायाधम्मकहाओ बत्तीसाए महिलासाहस्सीणं, अणंगसेणापामोक्खाणं अणेगाण गणियासाहस्सीणं अण्णेसिं च बहूणं ईसर-तलवर-माडंबियकोडुंबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहपभिईणं, वेयवगिरिसागरपेरंतस्स य दाहिणड्ड-भरहस्स, बारवईए नयरीए आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा-ईसर-सेणावच्चंकारेमाणे पालेमाणे विहरइ॥ पांचवां अध्ययन : सूत्र ६-१० अन्य बहुत से ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि का, वैताढ्य गिरि से लेकर सागर पर्यन्त दक्षिणार्द्ध भरत का और द्वारवती नगरी का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व तथा आज्ञा, ऐश्वर्य और सेनापतित्व करते हुए उनका पालन करते हुए विहार करते थे। थावच्चापुत्त-पदं ७. तत्थ णं बारवईए नयरीए थावच्चा नाम गाहावइणी परिवसइ अड्डा दित्ता वित्ता वित्थिण्ण-विउल-भवण-सयणासण-जाणवाहणा बहुधण-जायरूव-रयया आओग-पओग-संपउत्ता विच्छड्डियपउर-भत्तपाणा बहुदासी-दास-गो-महिसगवेलगप्पभूया बहुजणस्स अपरिभूया ॥ थावच्चापुत्र-पद ७. उस द्वारवती नगरी में 'थावच्चा' नाम की एक गृहस्वामिनी रहती थी। वह आढ्य, दीप्त और विख्यात थी। उसके भवन, शयन और आसन विस्तीर्ण थे। वह विपुल यान और वाहन वाली, प्रचुर धन और प्रचुर सोने-चांदी वाली, अर्थ के आयोग और प्रयोग (लेन-देन) में संप्रयुक्त और प्रचुर मात्रा में भक्त पान का वितरण करने वाली थी। उसके अनेक दासी, दास, गाय, भैंस और भेड़ें थी। वह बहुत व्यक्तियों के द्वारा अपराजित थी। पन ८. तीसेणंथावच्चाएगाहावइणीए पत्ते थावच्चाफ़्ते नामसत्थवाहदारए होत्था--सुकुमालपाणिपाए अहीण-पडिपुण्ण-पंचिंदियसरीरे लक्खण- वंजण-गुणोववेए माणुम्माण-प्पमाणपडिपुण्णसुजाय-सव्वंगसुंदरंगे ससिसोमाकारे कंते पियदंसणे सुरूवे ।। ८. उस थावच्चा गृहस्वामिनी का पुत्र 'थावच्चापुत्र' नाम का एक सार्थवाह पुत्र था। उसके हाथ-पांव सुकुमार थे। उसका शरीर अहीन और परिपूर्ण पांचों इन्द्रियों वाला, लक्षण और व्यंजन की विशेषता से युक्त, मान, उन्मान और प्रमाण की परिपूर्णता वाला, सुजात और सर्वाङ्ग सुन्दर था। वह चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति वाला, कमनीय, प्रियदर्शन और सुरूप था। ९. तए णं सा थावच्चा गाहावइणी तं दारगं साइरेगअट्ठवासजाययं जाणित्ता सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्त-मुहत्तंसि कलायरियस्स उवणेइ जाव भोगसमत्थं जाणित्ता बत्तीसाए इब्भकुलबालियाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेइ । बत्तीसओ दासो जाव बत्तीसाए इन्भकुलबालियाहिं सद्धिं विपुले सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए भुंजमाणे विहरइ। ९. जब वह बालक कुछ अधिक आठ वर्ष का हुआ, तब थावच्चा गृहस्वामिनी उसे शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में कलाचार्य के पास ले गई यावत् उसे पूर्ण भोग-समर्थ जानकर बत्तीस इभ्य कुल की कन्याओं के साथ एक ही दिन में उसका पाणिग्रहण करवा दिया। उसे बत्तीस वस्तु-श्रेणियों का दहेज मिला यावत् वह बत्तीस इभ्य कुल कन्याओं के साथ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध पांच प्रकार के मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों को भोगता हुआ विहार करने लगा। अरिटुनेमि-समवसरण-पदं १०. तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी आइगरे तित्थगरे सो चेव वण्णओ दसघणुस्सेहे नीलुप्पल-गवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासे अट्ठारसहिंसमणसाहस्सीहि, चत्तालीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे पुन्वाणुपुल्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव बारवती नाम नगरी जेणेव रेवतगपव्वएजेणेव नंदणवणे उज्जाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवेतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गह ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।। अरिष्टनेमि का समवसरण-पद १०. उस काल और उस समय आदि कर्ता तीर्थंकर अरिष्टनेमि थे--वर्णक। दस धनुष ऊंचे, नीलोत्पल, महिष के सींग और अतसी कुसुम के समान वर्ण वाले, अर्हत अरिष्टनेमि अपने अठारह हजार श्रमण और चालीस हजार श्रमणियों के साथ उनसे संपरिवृत हो क्रमश: संचार करते हुए, ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहां द्वारवती नाम की नगरी थी जहां रैवतक पर्वत था, जहां नन्दनवन उद्यान था, जहां सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन था, जहां प्रवर अशोक वृक्ष था, वहां आए। वहां आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। Jain Education Intemational Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्ययन : सूत्र ११-१६ ११. परिसा निग्गया । धम्मो कहिओ ।। कण्हस्स पज्जुवासणा-पदं १२. तए णं से कन्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लबट्टे समाणे कोहुवियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दाक्ता एवं क्यासी- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए मेघोघरतियं गंभीरमहुरसद कोमुइयं भेरिं तालेह ।। १३. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ-चित्तमाणदिया जाव हरिसवस विसप्पमाणहियया करयलपरिग्गतियं दसणहं सिरसावत्तं मत्यए अंजलि कट्टु एवं सामी! तह त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुनेति, पडिसुणेत्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सभा सुहम्मा, जेणेव कोमुद्दया भेरी, तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तं मेघोघरसियं गंभीरमहुरसद्दं कोमुइयं भेरिं तालेंति । तजो निद्ध-महुर गंभीर परिसुएणं पिव सारइएणं बलाहएणं अणुरसि भेरीए । १३४ - - १४. तए णं तीसे कोमुझ्याए भेरीए तालियाए समागीए बारवईए नयरीए नवजोयणवित्यिण्णाए दुवालसजोयणायामाए सिंघाडग तिय चक्क चच्चर-कंदर दरी विवर-कुहर- गिरिसिहरनगरगोउर- पासाय- दुवार - भवण - देउल - पडिस्सुया-सयसहस्ससंकुलं करेमाणे बारवतिं नयरिं सब्भिंतर बाहिरियं सव्वओ समता सद्दे विसरित्या ।। १५. तए णं बारवईए नयरीए नवजोपणवित्यिण्णाए बारसजोयणायामाए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव गणियासहस्साइं कोमुईयाए भेरीए सद्द सोच्चा निसम्म हद्तुद्र-चित्तमाणदिया जाब हरिसवसविसप्पमाणहियया व्हाया आविद्ध-वग्यारिय-मल्लदाम कलावा अहयवत्थ- चंदणोकिन्नगायसरीरा अप्पेगइया हयगया एवं गयगया रह- सीया - संदमाणीगया अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिसव्वग्गुरापरिविखत्ता कण्हस्त वासुदेवस्स अतिय पाउन्भवित्या ।। १६. तए णं से कण्हे वासुदेवे समुद्रविजयपामोक्ले दस दसारे जाव अति पाउन्भवमाणे पासित्ता हतुङ- चित्तमाणदिए जाव हरिसवसविसप्पमाणहियए कोडुवियपुरिसे सहावे, सदावेता एवं क्यासी-विप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चाउरंगिणिं सेणं सज्जेह, विजयं च नायाधम्मकहाओ ११. परिषद् ने निर्गमन किया। भगवान ने धर्म कहा । कृष्ण द्वारा पर्युपासना-पद १२. भगवान के आगमन का संवाद पाकर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों का बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रियो शीघ्र ही सुधर्मासभा में मेघमाला के समान गर्जना तथा गंभीर एवं मधुर शब्द करने वाली कौमुदिकी भेरी को बजाओ। १३. कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर हृष्ट, तुष्ट और आनन्दित चित्त वाले यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाले कौटुम्बिक पुरुषों ने सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अञ्जलि सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा- ऐसा ही हो स्वामी। यह कहकर विनयपूर्वक आदेश वचन स्वीकार किया। स्वीकार कर कृष्ण वासुदेव के पास से (उठकर) बाहर आए। आकर जहां सुधर्मा सभा थी, कौमुदिकी भेरी थी, वहां आए। वहां आकर मेघमाला के समान गर्जना तथा गम्भीर एवं मधुर शब्द करने वाली कौमुदिकी भेरी को बजाया। भेरी से उठने वाली स्निग्ध, मधुर और गम्भीर प्रतिध्वनि से ऐसा लग रहा था, मानो शरदकालीन मेघ गरज रहा हो । १४. उस कौमुदिकी भेरी को बजाने पर नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारवती नगरी के दोराहे, तिराहे, चौराहे, चौक, कन्दरा, दरी, विवर, कुहर, गिरि - शिखर, नगर- गोपुर, प्रासाद-द्वार, भवन और देवकुल में लाखों प्रतिध्वनियां उठने लगी। वे द्वारवती नगरी को शत-सह प्रतिध्वनियों से संकुल करती हुई नगरी के बाहर-भीतर सर्वत्र व्याप्त हो गई। १५. नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्बी द्वारवती नगरी के समुद्रविजय प्रमुख दस दशाह यावत् हजारों गणिकाओं ने कौमुदिकी भेरी के शब्द को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट, तुष्ट चित्त हो, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय हो, स्नान किया। नीचे तक लटकती पुष्प मालाएं पहनी, नए वस्त्र धारण किए, शरीर के अंगो पर चन्दन का लेप किया, फिर जन समुदाय से परिवृत हो, उनमें से कुछ एक अश्व पर चढ़कर इसी प्रकार हाथी पर चढ़कर, रथ, शिविका या पालकी पर बैठकर तथा कुछ पांव पांव चलकर कृष्ण वासुदेव के पास उपस्थित हुए। १६. समुद्रविजय प्रमुख दस दशा को यावत् अपने समक्ष उपस्थित हुए देखकर हृष्ट, तुष्ट चित्त वाले आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाले कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा -- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चतुरंगिणी सेना को सजाओ और Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ नायाधम्मकहाओ गंधहत्थिं उवट्ठवेह । तेवि तहत्ति उवट्ठति ।। पांचवां अध्ययन : सूत्र १६-२० विजय गन्ध हस्ती को उपस्थित करो। उन्होंने--'ऐसा ही हो' यह कहकर उपस्थित किया। १७. तए णं से कण्हे वासुदेवे ण्हाए जाव सव्वालंकारविभूसिए विजयं गंघहत्थिं दुरूढे समाणे सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भड-चडगर-वंद-परियाल-संपरिवुडे बारवतीए नयरीए मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव रेवतगपए जेणेव नंदणवणे उज्जाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवेतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहओ अरिटुनेमिस्स छत्ताइच्छत्तं पडागाइपडागं विज्जाहर-चारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासइ, पासित्ता विजयाओ गंधहत्थीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता अरहं अरिटुनेमिं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, (तं जहा--सचित्ताणं दव्वाणं विसरणयाए, अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए, एगसाडिय-उत्तरासंगकरणेणं, चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं, मणसो एगत्तीकरणेणं)। जेणामेव अरहा अरिद्धनेमी तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिटुनेमिं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अरहओ अरिट्टनेमिस्स नच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे पंजलिउडे अभिमुहे विणएणं पज्जुवासइ।। १७. कृष्ण वासुदेव स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, विजय गन्धहस्ती पर आरूढ़ हुए। कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र को धारण किया। महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों के सुविस्तृत संघातवृन्द से परिवृत हो, द्वारवती नगरी के बीचोंबीच से होकर निर्गमन किया। निर्गमन कर जहां रैवतक पर्वत था, जहां नंदनवन उद्यान था, जहां सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन था और जहां प्रवर अशोकवृक्ष था, वहां आए। वहां आकर अर्हत अरिष्टनेमि के छत्रों, अतिछत्रों, पताकाओं, अतिपताकाओं तथा विद्याधर, चारण और जम्भक देवों को आते-जाते हुए देखा । देखकर वे विजय गन्धहस्ती से उतरे। उतर कर पांच प्रकार के अभिगमों से अर्हत अरिष्टनेमि के पास आए। (जैसे--सचित्त द्रव्यों को छोड़ना, अचित्त द्रव्यों को छोड़ना, एक शाटक वाला उत्तरासंग करना, दृष्टिपात होते ही बद्धांजलि होना और मन को एकाग्र करना।) जहां अर्हत अरिष्टनेमि थे वहां आए। आकर अर्हत अरिष्टनेमि को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। वन्दना-नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर अर्हत अरिष्टनेमि के न अति निकट न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए सम्मुख रहकर विनयपूर्वक बद्धाञ्जलि पर्युपासना करने लगे। थावच्चापुत्तस्स पव्वज्जासंकप्प-पदं १८. थावच्चापुत्ते वि निग्गए। जहा मेहे तहेव धम्मं सोच्चा निसम्म जेणेव थावच्चा गाहावइणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ । जहा मेहस्स तहा चेव निवेयणा।। थावच्चापुत्र का प्रव्रज्या संकल्प-पद १८. थावच्चापुत्र ने भी घर से निष्क्रमण किया। मेघ की भांति धर्म को सुनकर अवधारण कर वह जहां थावच्चा गृहस्वामिनी थी, वहां आया। वहां आकर प्रणाम किया। वैसे ही निवेदन किया जैसे मेघ ने किया। १९. तए णं तं थावच्चापुत्तं थावच्चा गाहावइणी जाहे नो संचाएइ विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सणवणाहि य विष्णवणाहि य आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा सण्णवित्तए वा विण्णवित्तए वा ताहे अकामिया चेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणमणुमन्नित्था ।। १९. थावच्चा गृहस्वामिनी जब विषयों के अनुकूल और विषयों के प्रतिकूल बहुत सारी आख्यापनाओं, प्रज्ञापनाओं, संज्ञापनाओं और विज्ञापनाओं के द्वारा थावच्चापुत्र को आख्यापित, प्रज्ञापित, संज्ञापित और विज्ञापित नहीं कर सकी तब उसने न चाहते हुए भी बालक थावच्चापुत्र को अभिनिष्क्रमण की अनुमति दे दी। २०. तए णं सा थावच्चा (गाहावइणी?) आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता महत्थं महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धिं संपरिवडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवर-पडिवार-देसभाए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पडिहारदेसिएणं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए २०. वह थावच्चा (गृहस्वामिनी?) आसन से उठी। उठकर महान अर्थवाला, महान मूल्य वाला, महान अर्हता वाला, राजाओं के योग्य उपहार ग्रहण किया। उपहार ग्रहण कर मित्र , ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबन्धी और परिजनों के साथ उनसे संपरिवृत हो, जहां कृष्ण वासुदेव के भवन का प्रवर प्रतिद्वार (मुख्य द्वार) देश भाग था, वहां आयी। वहां आकर प्रहरियों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग से जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहां Jain Education Intemational Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ पांचवां अध्ययन : सूत्र २०-२३ अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता तं महत्थं महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुडं उवणेइ, उवणेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते नामं दारए--इटे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीवियऊसासए हिययनंदिजणए उंबरपुप्फ पिव दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण दरिसणयाए? से जहानामए उप्पले ति वा पउमे ति वा कुमुदे ति वा पंके जाए जले संवड्डिए नोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव थावच्चापुत्ते कामेसु जाए भोगेसु संवड़िए नोवलिप्पइ कामरएणं नोवलिप्पइ भोगरएणं। से णं देवाणुप्पिया! संसारभउव्विग्गे भीए जम्मण-जर-मरणाणं इच्छइ अरहओ अरिटुनेमिस्स अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। अहण्णं निक्खमणसक्कारं करेमि । तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! थावच्चापुत्तस्स निक्खममाणस्स छत्तमउड-चामराओ य विदिन्नाओ। नायाधम्मकहाओ आयी। वहां आकर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अञ्जलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर उसने (कृष्ण वासुदेव को) जय-विजय की ध्वनि से वर्धापित किया। वर्धापित कर उसने महान अर्थवाला, महान मूल्य वाला, महान अर्हता वाला, राजाओं के योग्य उपहार भेंट किया। भेंट कर इस प्रकार बोली--देवानुप्रिय! यह थावच्चापुत्र नाम का बालक मेरा एकमात्र पुत्र है--मुझे इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभरण करण्डक के समान, रत्न रत्नभूत, जीवन-उच्छ्वास (प्राण) और हृदय को आनन्दित करने वाला है। यह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ है, फिर दर्शन का तो कहना ही क्या? जैसे उत्पल, पद्म अथवा कमल पंक में उत्पन्न होता है, जल में संवर्धित होता है, किंतु पंक रज, जल रज से उपलिप्त नहीं होता वैसे ही थावच्चापुत्र कामों में उत्पन्न हुआ, भोगों में संवर्धित हुआ, किंतु वह काम रज और भोग रज से उपलिप्त नहीं है। देवानुप्रिय! यह संसार भय से उद्विग्न है। जन्म, जरा और मृत्यु से भीत है। यह अर्हत अरिष्टनेमि के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होना चाहता है। मैं इसका अभिनिष्क्रमण-सत्कार, (दीक्षा-महोत्सव) आयोजित कर रही हूं। इसलिए देवानुप्रिय ! मैं चाहती हूं अभिनिष्क्रमण करने वाले थावच्चापुत्र को तुम छत्र, मुकुट और चंवर प्रदान करो। २१. तए णं कण्हे वासुदेवे थावच्चं गाहावइणिं एवं वयासी--अच्छाहि णं तुम देवाणुप्पिए! सुनिव्वुत-वीसत्था, अहण्णं सयमेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि।। २१. तब कृष्ण वासुदेव ने थावच्चा गुहस्वामिनी को इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये तुम अत्यंत शान्त और विश्वस्त रहो। बालक थावच्चापुत्र का अभिनिष्क्रमण सत्कार स्वयं मैं ही करूंगा। कण्हस्स थावच्चापुत्तस्स य परिसंवाद-पदं २२. तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणीए सेणाए विजयं हत्थिरयणं दुरूढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावइणीए भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं एवं क्यासी--मा णं तुमं देवाणुप्पिया! मुडे भवित्ता पव्वयाहि, भंजाहि णं देवाणुप्पिया! विपुले माणस्सए कामभोगे मम बाहुच्छाय-परिग्गहिए। केवलं देवाणुप्पियस्स अहं नो संचाएमि वाउकायं उवरिमेणं गच्छमाणं निवारित्तए। अण्णो णं देवाणुप्पियस्स जं किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएइ, तं सव्वं निवारेमि। कृष्ण और थावच्चापुत्र का परिसंवाद-पद २२. तब वे कृष्ण वासुदेव चतुरंगिणी सेना के साथ विजय हस्तिरत्न पर आरूढ़ हो, जहां थावच्चा गृहस्वामिनी का भवन था, वहां आये। वहां आकर थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम मुण्ड हो, प्रव्रजित मत बनो। देवानुप्रिय ! मेरी बाहुच्छाया (छत्रछाया) में रह मनुष्य संबंधी विपुल काम भोगों का भोग करो। मैं केवल देवानुप्रिय के ऊपर से गुजरने वाली हवा का निवारण नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त देवानुप्रिय को जो कुछ भी आबाधा या विबाधा उत्पन्न हो, मैं सबका निवारण कर सकता हूं। २३. तए णं से थावच्चापुत्ते कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी--जइ णं देवाणुप्पिया! मम जीवियंतकरं मच्चु एज्जमाणं निवारेसि, जरं वा सरीररूव-विणासणिं सरीरं अइवयमाणिं निवारेसि, तए णं अहं तव बाहुच्छाय-परिग्गहिए विउले माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे विहरामि ।। २३. कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर उस थावच्चापुत्र ने इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यदि आप सामने आती हुई जीवन को समाप्त करने वाली मौत और शरीर के सौन्दर्य को विनष्ट करने वाली तथा शरीर का नाश करने वाली जरा का निवारण कर सकें तो मैं आपकी बाहुच्छाया में रह मनुष्य संबंधी विपुल काम भोग को भोगता हुआ विहार करूं। Jain Education Intemational Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १३७ पांचवा अध्ययन : सूत्र २४-२९ २४. तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे २४. थावच्चापुत्र के ऐसा कहने पर कृष्ण वासुदेव ने उससे इस प्रकार थावच्चापुत्तं एवं वयासी--एए णं देवाणुप्पिया दुरइक्कमणिज्जा, कहा--देवानुप्रिय ! ये दोनों (मृत्यु और जरा) दुरतिक्रम्य हैं। अपने नो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा निवारित्तए, कर्म-क्षय के सिवाय, अत्यन्त बलिष्ठदेव अथवा दानव भी इनका नण्णत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं॥ निवारण नहीं कर सकता। २५. तए णं से थावच्चापुत्ते कण्हं वासुदेवं एवं वयासी--जइ णं एए दुरइक्कमणिज्जा, नो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा दाणवण वा निवारित्तए, नण्णत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं । तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! अण्णाण-मिच्छत्त-अविरइ-कसाय-संचियस्स अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए॥ २५. थावच्चापुत्र ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! यदि ये दोनों (मृत्यु और जरा) दुरतिक्रम्य हैं, अपने कर्म क्षय के सिवाय अत्यन्त बलिष्ठ देव अथवा दानव भी इनका निवारण नहीं कर सकता, तो देवानुप्रिय! मैं चाहता हूं अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति और कषाय के द्वारा संचित अपने कर्मों का क्षय करूं। कण्हस्स जोगक्खेम-घोसणा-पदं २६. तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं देवाणुप्पिया! बारवईए नयरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चरचउम्मुह-महापह पहेसु हत्थिखंधवरगया महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा उग्घोसणं करेह--एवं खलु देवाणुप्पिया! थावच्चापुत्ते संसारभउब्विग्गे भीए जम्मण-जर-मरणाणं, इच्छइ अरहओ अरिट्टनेमिस्स अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइत्तए, तं जो खलु देवाणुप्पिया! राया वा जुवराया वा देवी वा कुमारे वा ईसरे वा तलवरे वा कोडुंबिय-माडंबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाहे वा थावच्चापुत्तं पव्वयंतमणुपव्वयइ, तस्स णं कण्हे वासुदेवे अणुजाणइ पच्छाउरस्स वि य से मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणस्स जोगक्खेम-वट्टमाणीं परिवहइ त्ति कटु घोसणं घोसेह जाव घोसंति॥ कृष्ण द्वारा योगक्षेम की घोषणा-पद २६. थावच्चापुत्र के ऐसा कहने पर कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! जाओ, प्रवर हस्ति स्कन्ध पर आरूढ़ होकर द्वारवती नगरी के दोराहों, तिराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में उच्चस्वर से बार-बार उद्घोष करते हुए यह उद्घोषणा करो--देवानुप्रियो। थावच्चापुत्र संसार के भय से उद्विग्न है। जन्म, जरा और मृत्यु से भीत है। वह अर्हत अरिष्टनेमि के पास मुण्ड हो प्रव्रजित होना चाहता है, अत: देवानुप्रियो! जो भी राजा, युवराज, देवी, कुमार, ईश्वर, तलवर, कौटुम्बिक, माडम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति अथवा सार्थवाह प्रव्रजित होने वाले थावच्चापुत्र के साथ प्रव्रजित होता है, तो उसे कृष्ण वासुदेव अनुमति देता है और (उसकी) दीक्षा के पश्चात् दु:खी जो अपना योगक्षेम करने में समर्थ नहीं हैं उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजन के योगक्षेम और आजीविका के परिवहन का भार लेता है। यह घोषणा करो यावत् उन्होंने घोषणा की। थावच्चापुत्तस्स अभिनिक्खमण-पदं २७. तए णं थावच्चापुत्तस्स अणुराएणं पुरिससहस्सं निक्खमणाभिमुहं ण्हायं सव्वालंकारविभूसियं पत्तेयं-पत्तेयं पुरिससहस्सवाहिणीस सिवियासु दुरूढं समाणं मित्त-नाइ-परिवुडं थावच्चाफुत्तस्स अंतियं पाउब्भूयं॥ थावच्चापुत्र का अभिनिष्क्रमण-पद २७. थावच्चापुत्र के अनुराग से एक हजार पुरुष अभिनिष्क्रमण के लिए तैयार हो गए। वे स्नान कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली अपनी-अपनी शिविकाओं पर आरूढ़ और मित्र-ज्ञाति से परिवृत हो थावच्चापुत्र के समक्ष उपस्थित हुए। २८. तए णं से कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्सं अंतियं पाउब्भवमाणं पासइ, पासित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--जहा मेहस्स निक्खमणाभिसेओ खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभ- सयसन्निविट्ठ जाव सीयं उवट्ठवेह ।। २८. कृष्ण वासुदेव ने अपने सामने उपस्थित हजार पुरुषों को देखा। उन्हें देखकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--अभिनिष्क्रमण की वक्तव्यता मेघकुमार की भांति । देवानुप्रियो! शीघ्र ही सैकड़ों खम्भों से युक्त यावत् शिविका उपस्थित करो। २९. तए णं से थावच्चापत्ते बारवतीए नयरीए मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव रेवतगपव्वए जेणेव नंदणवणे उज्जाणे जेणेव २९. थावच्चापुत्र ने द्वारवती नगरी के बीचोंबीच होकर निर्गमन किया। जहां रैवतक पर्वत था, जहां नंदनवन उद्यान था, जहां सुरप्रिय यक्ष Jain Education Intemational Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ पांचवां अध्ययन : सूत्र २९-३३ १३८ सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहओ अरिट्ठनेमिस्स छत्ताइछत्तं पडागाइपडागं विज्जाहर-चारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासइ, पासित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ।। का यक्षायतन था, जहां प्रवर अशोक वृक्ष था, वहां आया, वहां आकर अर्हत अरिष्टनेमि के छत्रों, अतिछत्रों, पताकाओ, अतिपताकाओं तथा विद्याधर, चारण और जृम्भक देवों को उड़ते, आते-जाते हुए देखा। देखकर वह शिविका से नीचे उतरा। सिस्सभिक्खादाण-पदं ३०. तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तं पुरओ काउं जेणेव अरहा अरिट्ठनेमी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अरहं अरिट्ठनेमिं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेति, करेत्ता वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--एस णं देवाणुप्पिया! थावच्चापुत्ते थावच्चाए गाहावइणीए एगे पुत्ते इढे कंते पिए मणुण्णे मणामे थेज्जे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए जीवियऊसासए हिययनंदिजणए उंबरपुप्फ पिव दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण दरिसणयाए? से जहानामए उप्पले ति वा पउमे ति वा कुमुदे ति वा पंके जाए जले संवडिए नोवलिप्पइ पंकरएणं नोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव थावच्चापुत्ते कामेसु जाए भोगेसु संवडिए नोवलिप्पइ कामरएणं नोवलिप्पइ भोगरएणं। एस णं देवाणुप्पिया! संसारभउव्विगे भीए जम्मण-जर-मरणाणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। अम्हे णं देवाणुप्पियाणं सिस्सभिक्खं दलयामो। पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सभिक्खं ।। शिष्यभिक्षा का दान-पद ३०. कृष्ण वासुदेव थावच्चापुत्र को आगे कर जहां अर्हत अरिष्टनेमि थे वहां आए। आकर अरिष्टनेमि को दांयी ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदना नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! यह थावच्चापुत्र थावच्चा गृहस्वामिनी का एक मात्र पुत्र है। यह इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभरण करंडक के समान, रत्न, रत्नभूत, जीवन, उच्छ्वास (प्राण) और हृदय को आनन्दित करने वाला है। यह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ है, फिर दर्शन का तो कहना ही क्या? जैसे उत्पल, पद्म अथवा कमल पंक में उत्पन्न होता है और जल में संवर्धित होता है, किन्तु वह पंक रज और जल रज से उपलिप्त नहीं होता। वैसे ही थावच्चापुत्र कामों में उत्पन्न हुआ, भोगों में संवर्धित हुआ, किन्तु यह काम रज और भोग रज से उपलिप्त नहीं हुआ। देवानुप्रिय ! यह संसार के भय से उद्विग्न है। जन्म, जरा और मृत्यु से भीत है। यह देवानुप्रिय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रवजित होना चाहता है। इसलिए हम इसे देवानुप्रिय को शिष्य की भिक्षा के रूप में देते हैं। देवानुप्रिय ! यह शिष्य-भिक्षा को स्वीकार करो। ३१. तए णं अरहा अरिटुनेमी कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वृत्ते समाणे एयमटुं सम्म पडिसुणेइ॥ ३१. कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर अर्हत अरिष्टनेमि ने उनके इस अर्थ को सम्यक् स्वीकार किया। ३२. तए णं से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिटुनेमिस्स अंतियाओ उत्तरपुरत्थिमं दिसीभायं अवक्कमइ, सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ॥ ३२. वह थावच्चापुत्र अर्हत अरिष्टनेमि के पास से उठकर उत्तर पूर्व दिशा (ईशान कोण) में गया। वहां उसने स्वयं ही आभरण, माल्य और अलंकार उतारे। ३३. तए णं सा थावच्चा गाहावइणी हसंलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणमल्लालंकारं पडिच्छइ, हार-वारिधार-सिंदुवार- छिन्नमुत्तावलि-प्पगासाई अंसूणि विणिम्मुयमाणी-विणिम्मुयमाणी रोयमाणी-रोयमाणी कंदमाणी-कंदमाणी विलवमाणी-विलवमाणी एवं वयासी--जइयव्वं जाया! घडियव्वं जाया! परिक्कमियव्वं जाया! अस्सिं च णं अढे नो पमाएयव्वं । अम्हंपिणं एसेव मग्गे भवउ त्ति कटु थावच्चा गाहावइणी अहं अरिद्वनेमिं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। ३३. थावच्चापुत्र की माता थावच्चा गृहस्वामिनी ने हंस लक्षण पट-शाटक (विशाल-वस्त्र) में उन आभरण, माल्य और अलंकारों को स्वीकार किया। वह हार, जलधारा, सिन्दुवार के फूल और टूटी हुई मोतियों की लड़ी के समान बार-बार आंसू बहाती, रोती, कलपती और विलपती हुई इस प्रकार बोली--जात ! संयम में प्रयत्न करना। जात! संयम में चेष्टा करना। जात ! पराक्रम करना। इस अर्थ में प्रमाद मत करना। हमारा भी यही मार्ग हो ऐसा कहकर थावच्चा गृहस्वामिनी ने अर्हत अरिष्टनेमि को वंदना नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई। Jain Education Intemational Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १३९ पांचवां अध्ययन : सूत्र ३४-३७ थावच्चापुत्तस्स पव्वज्जागहण-पदं थावच्चा पुत्र द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण-पद ३४. तए णं से थावच्चापुत्ते पुरिससहस्सेणं सद्धिं सयमेव पंचमुट्ठियं ३४. थावच्चापुत्र ने उन हजार पुरुषों के साथ स्वयं ही पंचमुष्टि लोच लोयं करेइ, करेत्ता जेणामेव अरहा अरिटुनेमी तेणामेव उवागच्छइ, किया। पंचमुष्टि लोच कर जहां अर्हत अरिष्टनेमि थे, वहां आया। उवागच्छित्ता अरहं अरिटुनेमिं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, वहां आकर अरिष्टनेमि को दांयी ओर से प्रारंभ कर तीन बार करेत्ता वंदइ नमसइ जाव पव्वइए। प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदन नमस्कार किया यावत् वह प्रव्रजित हो गया। थावच्चापुत्तस्स अणगारचरिया-पदं ३५. तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारे जाए--इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवणासमिए उच्चारपासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिद्वावणियासमिए मणसमिए वइसमिए कायसमिए मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी अकोहे अमाणे अमाए अलोहे संते पसंते उवसंते परिनिव्वुडे अणासवे अममे अकिंचणे निरुवलेवे, ___कंसपाईव मुक्कतोए संखो इव निरंगणे जीवो विव अप्पडिहयगई गगणमिव निरालंबणे वायुविव अप्पडिबद्धे सारयसलिलं व सुद्धहियए पुक्खरपत्तं पिव निरुवलेवे कुम्मो इव गुत्तिदिए खग्गविसाणं व एगजाए विहग इव विप्पमुक्के भारंडपक्खीव अप्पमत्ते कुंजरो इव सोंडीरे वसभो इव जायत्थामे सीहो इव दुद्धरिसे मंदरो इव निप्पकप सागरो इव गंभीरे चंदो इव सोमलेस्से सूरो इव दित्ततेए जच्चकंचण व जायसवे वसुंधरव्व सव्वफासविसहे सुहुयहुयासणोव्व तेयसा जलते।। थावच्चापुत्र की अनगार चर्या-पद ३५. अब थावच्चापुत्र अनगार हो गया। वह विवेकपूर्वक चलता। विवेक पूर्वक बोलता। विवेक पूर्वक आहार की एषणा करता। विवेकपूर्वक वस्त्र-पात्र आदि को लेता और रखता। विवेकपूर्वक मल-मूत्र, श्लेष्म, नाक के मैल, शरीर के गाढ़े मैल का परिष्ठापन (विसर्जन) करता। मन की संगत प्रवृत्ति करता। वचन की संगत प्रवृत्ति करता। शरीर की संगत प्रवृत्ति करता। मन का निरोध करता। वचन का निरोध करता। शरीर का निरोध करता। अपने आपको सुरक्षित रखता। इन्द्रियों को सुरक्षित रखता। ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखता। क्रोध, मान, माया और लोभ नहीं करता। वह शान्त, प्रशान्त, उपशान्त, परिनिर्वृत', अनास्रव, निर्मम, अकिञ्चन और निरुपलेप था। ___कांस्य-पात्र की भांति निर्लेप, शंख की भांति निरंजन, जीव की भांति अप्रतिहत गति वाला, गगन की भांति निरालम्बन, वायु की भांति अप्रतिबद्ध, शारद-सलिल की भांति शुद्ध हृदय वाला, पद्मपत्र (नलिनी दल) की भांति निरुपलेप, कछुए की भांति गुप्तेन्द्रिय, गेंडे के सींग की भांति अकेला', पक्षी की भांति विप्रमुक्त, भारण्ड पक्षी की भांति अप्रमत्त", कुञ्जर की भांति शूर, वृषभ की भांति बलवान, सिंह की भांति दुर्धर्ष (अपराजेय), मन्दर की भांति निष्प्रकम्प, सागर की भांति गम्भीर, चन्द्र की भांति सौम्य कांति वाला, सूर्य की भांति दीप्त तेज वाला, कंचन की भांति स्वरूपोपलब्ध वसुंधरा की भांति सब प्रकार के स्पर्शों को सहन करने वाला और सुहूय (सम्यक् प्रज्ज्वलित) हुताशन की भांति प्रज्ज्वलित था। ३६. नत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे भवइ । (सेय पडिबंधे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ। दव्वओ--सच्चित्ताचित्तमीसेसु । खेत्तओ--गामे वा नगरे वा रणे वा खले वा घरे वा अंगणे वा । कालओ--समए वा आवलियाए वा आणापाणुए वा थोवे वा लवे वा मुहुत्ते वा अहोरत्ते वा पक्खे वा मासे वा अयणे वा संवच्छरे वा अण्णयरे वा दीहकालसंजोए। भावओ--कोहे वा माणे वा माए वा लोहे वा भए वा होसे वा। एवं तस्स न भवइ)। ३६. भगवान थावच्चापुत्र के कहीं भी प्रतिबन्ध नहीं था। (प्रतिबंध चार प्रकार का कहा गया है, जैसे--द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालत:, भावतः । द्रव्यत:-- सचित्त, अचित एवं मिश्र में। क्षेत्रत:--ग्राम, नगर, अरण्य, खल, घर अथवा आंगन में। कालत:--समय, आवलिका, आनापान, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास, अयन, संवत्सर अथवा किसी दीर्घकालीन संयोग में। भावत:--क्रोध, मान, माया, लोभ, भय अथवा हास्य में। इस प्रकार का प्रतिबंध उनके नहीं था।] ३७. से णं भगवं वासीचंदणकप्पे समतिणमणि-लेठुकंचणे समसुहढुक्खे ३७. वासी और चंदन में समचित्त तृण और मणि, पत्थर और Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्ययन : सूत्र ३७-४५ १४० इहलोगपरलोग-अप्पडिबद्धे जीविय-मरण-निरवकखे संसारपारगामी कम्मनिग्घायणट्ठाए एवं च णं विहरइ ।। नायाधम्मकहाओ सोना--उनको समदृष्टि से देखने वाले, सुख और दुःख में सम, इहलोक और परलोक में अप्रतिबद्ध, जीवन और मृत्यु की आकांक्षा से रहित, संसार का पार पाने वाले वे भगवान कर्मों के निर्घातन के लिए इस प्रकार विहार करने लगे। ३८. तए णं से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिखनेमिस्स तहारूवाणं राणं अंतिए सामाइयमाइयाइं चोद्दसपुव्वाइं अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहर।। ३८. उस थावच्चापुत्र अनगार ने अर्हत अरिष्टनेमि के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि चौहद पूर्वो का अध्ययन किया। अध्ययन कर बहुत सारे चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त, द्वादश भक्त तथा मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। थावच्चापुत्तस्स जणवयविहार-पदं ३९. तए णं अरहा अरिटुनेमी थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स तं इन्भाइयं अणगारसहस्सं सीसत्ताए दलयइ ।। थावच्चापुत्र का जनपद विहार-पद ३९. अर्हत अरिष्टनेमि ने थावच्चापुत्र अनगार को उन इभ्य आदि एक हजार अनगारों को शिष्य रूप में प्रदान किया। ४०. तए णं से थावच्चापुत्ते अण्णया कयाइं अरहं अरिटुनेमिं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अणगारसहस्सेणं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरित्तए। अहासुहं॥ ४०. किसी समय थावच्चापुत्र अनगार ने अर्हत अरिष्टनेमि को वंदना की, नमस्कार किया। वंदन नमस्कार कर इस प्रकार कहा-भन्ते! मैं आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर उन हजार अनगारों के साथ अन्यत्र जनपद विहार करना चाहता हूँ।" "जैसा तुम्हें सुख हो।" ४१. थावच्चापत्र एक हजार अनगारों के साथ बाहर जनपदविहार करने ४१. तएणं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरइ॥ लगा। सेलगराय-पदं ४२. तेणं कालेणं तेणं समएणं सेलगपुरे नामं नगरे होत्था । सुभूमिभागे उज्जाणे। सेलए राया। पउमावई देवी। मंडुए कुमारे जुवराया।। शैलकराज-पद ४२. उस काल और उस समय शैलकपुर नाम का नगर था। सुभूमि-भाग उद्यान। शैलक राजा। पद्मावती देवी। मण्डुक कुमार नाम का युवराज। ४३. तस्सणंसेलगस्स पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया होत्या-उप्पत्तियाए वेणइयाए कम्मियाए पारिणामियाए उववेया रज्जधुरं चिंतयंति॥ ४३. उस शैलक राजा के पन्थक प्रमुख पांच सौ मंत्री थे। औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी एवं पारिणामिकी--इस बुद्धि चतुष्टय से युक्त वे राज्य धुरा का चिंतन करते थे। ४४. थावच्चापुत्ते सेलगपुरे समोसढे। राया निग्गए। ४४. थावच्चापुत्र शैलकपुर में समवसृत हुआ। राजा ने दर्शन के लिए निर्गमन किया। सेलगस्स गिहिधम्म-पडिवत्ति-पदं ४५. तए णं से सेलए राया थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठट्ठ-चित्तमाणदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उट्ठाए उठेइ, उठूत्ता थावच्चापुतं अणगारं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता शैलक द्वारा गृहस्थ-धर्म का स्वीकरण-पद ४५. थावच्चापुत्र अनगार के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला शैलक राजा स्फूर्ति के साथ उठा। उठकर थावच्चापुत्र अनगार को दांयी ओर से प्रारंभ कर तीन Jain Education Intemational Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १४१ नमंसित्ता एवं वयासी- सद्दहामि णं भंते! निग्गथं पावयणं । पत्तियामि णं भंते! निग्गयं पावयणं । रोएमि णं भंते! निगार्थ पावयणं । अम्भुमि णं भंते! निग्गचं पावपणं । एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भते! इच्छियमेयं भते! पहिच्छयमेयं भते इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते! जं णं तुब्भे वदह त्ति कट्टु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं क्यासी जहा णं देवाणुप्पियाण अंतिए बहवे उग्या उग्गपुता भोगा जाव इब्भा इब्भपुत्ता चिच्चा हिरण्णं, एवं- धणं धन्नं बलं वाहणं कोसं कोट्ठागारं पुरं अंतेउरं, चिच्चा विउलं धण-कणगरयण-मणि- मोत्तिय संख - सिल प्पवाल- संतसार - सावएज्जं, विच्छड्डित्ता विगोवइत्ता, दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता, मुंडा भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वझ्या तहा णं अहं नो संचाएमि जाव पव्वत्तए, अहं गं देवाणुप्पियाणं अतिए चाउज्जामियं गिरिधम्मं पडिवज्जिस्सामि । अहासु देवाणुप्पिया! मा परिबंध करेहि ।। ४६. तए गं से सेलए राया बावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिए चाउज्जामियं गिहिधम्मं उवसंपज्जइ । सेलगस्स समणोवासग चरिया-पदं ४७. तए णं से सेलए राया समणोवासए जाए - - अभिगयजीवाजीवे उवलपुरणपावे आसव-संवर-निज्जर-किरिया अहिगरणबंधमोक्ख - कुसले असहेज्जे देवासुर-गाग- जक्ख- रक्खस- किण्णरकिंपुरिस - गरुल - गंधव्व - महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावपणाओ अणइक्कमणिज्जे, निगांचे पावपणे णिस्सकिए णिक्कंखिए निव्वितिगिच्छे लद्धट्ठे गहियट्ठे पुच्छि अभिगयट्ठे विणिच्छ अभिजयेमाणुरागरते अपमाउसो! निग्यंधे पाक्यणे अड्डे अयं परमडे सेसे अणडे ऊसियफलिहे अवंगुयदुवारे चित्ततेडरपरघरदार -प्पवेसे चाउद्दसमुद्दिद्वपुण्णमासि - णीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणे समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असणपाण- स्खाइम साइमेणं वत्थ पडिग्गह कंबल पायपुसणेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएणं य पीढफलग-सेज्जा- संथारएणं पहिलाभेमाणे सील-व्यय-गुण- वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोक्वासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।। पांचवां अध्ययन : सूत्र ४५-४७ बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदना नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर इस प्रकार कहा- भन्ते ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ । भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर प्रतीति करता हूँ । भन्ते! मै । निर्ग्रन्थ प्रवचन पर रुचि करता हूँ । भन्ते! मैं निर्ग्रन्य प्रवचन (की आराधना) में अभ्युत्थान करता हूँ । यह ऐसा ही है भन्ते! यह तथा (संवादिता पूर्ण) है भी ! यह अवितथ है भन्ते! यह असंदिग्ध है भन्ते! यह इष्ट है भंते! यह प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है भन्ते! यह इष्ट प्रतीप्सित दोनो है भन्ते! जैसा तुम कह रहे हो -- ऐसा कहकर वंदना की। नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर इस प्रकार कहा- जैसे देवानुप्रिय के पास बहुत से उग्र, उग्रपुत्र, भोग यावत् इभ्य, इभ्यपुत्र, हिरण्य तथा इसी प्रकार धन-धान्य, बल, वाहन, कोष, कोष्ठागार, पुर तथा अन्त: पुर को त्याग कर विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, पद्मराग मणियां श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्य और दान भोग आदि के लिए स्वापतेय का परित्याग कर विगोपन कर, हिस्सेदारों को दान देकर मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुए। वैसा करने में यावत् प्रव्रजित होने में मैं समर्थ नहीं हूं। मैं देवानुप्रिय के पास चातुर्यामरूप गृहस्थ धर्म स्वीकार करूंगा। देवानुप्रिय ! "जैसा तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो।" ४६. शैलक राजा ने घावच्यापुत्र अनगार के पास चातुर्याम रूप गृहस्थ धर्म स्वीकार किया । शलक की श्रमणोपासक चर्या पद ४७. शैलक राजा श्रमणोपासक बन गया। जीव अजीव को जानने वाला, पुण्य-पाप के मर्म को समझने वाला, आश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के विषय में कुशल, सत्य के प्रति स्वयं निश्चल, देव, असुर, नाग, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व महोरग आदि देवगणों के द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से अविचलनीय, निर्ग्रन्थ प्रवचन में शंका रहित, कांक्षा रहित, विचिकित्सा रहित यथार्थ को सुनने वाला यथार्थ को ग्रहण करने वाला, उस विषय में पूछने वाला, उसे जानने वाला, उसका विनिश्चय करने वाला, (निर्ग्रन्थ प्रवचन के ) प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थि मज्जा वाला था। आयुष्मान! यह निर्धन्य प्रवचन यथार्थ है, यह परमार्थ है, शेष अनर्थ हैं ( ऐसा मानने वाला) आगल को ऊंचा और दरवाजे को सुला रखने वाला, अन्त: पुर और दूसरों के घरों में बिना किसी रुकावट के प्रवेश करने वाला, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध व्रत का सम्यक् अनुपालन करने वाला, श्रमण निर्ग्रन्थ को प्रासुक एषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पाद Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्ययन : सूत्र ४७-५५ १४२ नायाधम्मकहाओ प्रौञ्छन, औषध, भेषज्य तथा प्रातिहारिक, पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक का दान देने वाला बहुत शील व्रत, गुण-विरमण, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास के द्वारा तथा यथापरिगृहीत तप: कर्म के द्वारा आत्मा को भावित कर रहने लगा। ४८. पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया समणोवासया जाया।। ४८. पन्थक प्रमुख पांच सौ मंत्री भी श्रमणोपासक बने। ४९. थावच्चापुत्ते बहिया जणवयविहारं विहरइ।। ४९. थावच्चापुत्र ने शैलकपुर के बाहर जनपदविहार किया। ५०. तेणं कालेणं तेणं समएणं सोगंधिया नामंनयरी होत्था--वण्णओ। नीलासोए उज्जाणे--वण्णओ।। ५०. उस काल और उस समय सौगन्धिका नाम की नगरी थी-वर्णक । वहां नीलाशोक नाम का उद्यान था--वर्णक। सुदंसणसेट्ठि-पदं ५१. तत्थ णं सोगंधियाए नयरीए सुदंसणे नामं नयरसेट्ठी परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए॥ सुदर्शन श्रेष्ठी-पद ५१. सौगन्धिका नगरी में सुदर्शन नाम का नगर सेठ रहता था। वह आढ्य यावत् अपराजित था। सुयपरिव्वायग-पदं ५२. तेणं कालेणं तेणं समएणं सुए नाम परिव्वायए होत्था-- रिउव्वेय-जजुव्वेय-सामवेय-अथव्वणक्य-सद्वितंतकुसले संखसमए लद्धढे पंचजम-पंचनियमजुत्तं सोयमूलयं दसप्पयारं परिव्वायगधम्म दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणे पण्णवेमाणे धाउरत्त-वत्थ-पवर-परिहिए तिदंड-कुंडिय-छत्तछन्नालय-अंकुस-पक्त्तिय-केसरि-हत्थगए परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिखुडे जेणेव सोगंधिया नयरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता परिव्वायगावसहंसि भंडगनिक्खेवं करेइ, करेत्ता संखसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ॥ शुक परिव्राजक-पद ५२. उस काल और उस समय शुक नाम का परिव्राजक था। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववद और षष्टितंत्र में कुशल, सांख्यदर्शन के मर्म को जानने वाला, पांच यम और पांच नियमों से युक्त था। वह शौच मूलक दस प्रकार के परिव्राजक धर्म का तथा दान धर्म, शौच- धर्म और तीर्थाभिषेक का आख्यान और प्ररूपणा करता हुआ प्रवर गेरुए वस्त्र पहने, हाथ में त्रिदण्ड, कमण्डलु, छत्र, त्रिकाष्ठिका, अंकुश, तांबे की अंगुठी और एक वस्त्र-खंड धारण किए हुए एक हजार परिव्राजकों के साथ उनसे परिवृत हो, जहां सौगन्धिका नगरी थी परिव्राजकों का मठ था, वहां आया। वहां आकर परिव्राजकों के मठ में उपकरण रखे। रखकर वहां सांख्य-दर्शन के अनुसार स्वयं को भावित करता हुआ विहार करने लगा। ५३. तए णं सोगंधियाए नगरीए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर- चउम्मुह-महापहपहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ--एवं खलु सुए परिव्वायए इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इह चेव सोगंधियाए नयरीए परिव्वायगावसहंसि संखसमएणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ॥ ५३. सौगन्धिका नगरी के दौराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में जन-समूह परस्पर इस प्रकार आख्यान करने लगा--शुक परिव्राजक यहां आया हुआ हैं, यहां संप्राप्त है, यहां समवसृत है और यहीं सौगन्धिका नगरी के परिव्राजक मठ में सांख्य दर्शन (सिद्धान्त) से स्वयं को भावित करता हुआ विहार कर रहा है। ५४. परिसा निग्गया। सुदंसणो वि णीति॥ ५४. जन समूह ने निर्गमन किया। सुदर्शन भी आया। सोयमूलय-धम्म-पदं ५५. तए णं से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सदसणस्स य अण्णेसिं च बहूणं संखाणं परिकहेइ--एवं खलु सुदंसणा! अम्हं सोयमूलए धम्मे पण्णत्ते । से वि य सोए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--दव्वसोए य भावसोए य। शौचमूलक धर्म-पद ५५. शुकार परिव्राजक ने उस परिषद् को, सुदर्शन को तथा अन्य बहुत से व्यक्तियों को सांख्य दर्शन समझाया--सुदर्शन! हमने शौचमूलक धर्म प्रज्ञप्त किया है। वह शौच भी दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे--द्रव्यशौच और भावशौच। द्रव्यशौच होता है--पानी से, मिट्टी Jain Education Intemational Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १४३ दव्वसोए उदएणं मट्टियाए य । भावसोए दब्भेहि य मंतेहि य । जं णं अम्हं देवाणुप्पिया! किंचि असुई भव तं सव्वं सज्जपुढवीए आलिप्प, तओ पच्छा सुद्धेन वारिणा पक्खालिज्ज ततं असुई सुई भवइ । एवं खलु जीवा जलाभिसेय-पूयप्पाणो अविघेणं सगं गच्छति ।। सुदंसणस्स सोयमूलय- धम्मपडिवत्ति-पदं ५६. तए णं से सुदंसणे सुपस्स अंतिए धम्मं सोच्चा हट्टतुट्ठे सुयस्स अंतियं सोयमूलयं धम्मं गेण्हइ, गेण्हित्ता परिव्वायए विउलेणं असण- पाण- खाइम - साइमेणं पडिलाभेमाणे संखसमएणं अप्पाणं भवेमाणे विहर। ५७. तए गं से सुए परिव्वायए सोगंधियाओ नयरीओ निगच्छह, निग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ।। थावच्चापुत्तस्स सुदंसणेण संवाद-पदं ५८. तेणं कालेणं तेणं समएणं यावच्चापुत्तस्स समोसरणं । परिसा निगया। सुंदसणो वि णीइ । थावच्चापुत्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी -- तुम्हाणं किंमूलए धम्मे पण्णत्ते ? ५९. तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणेणं एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं एवं क्यासी- सुदंसणा! विजयमूलए धम्मे पण्णते से विय विणए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा अगारविणए अणगारविणए य । तत्थ णं जे से अगारविणए, से णं चाउज्जामिए गिहिधम्मे । तत्य णं जे से अणगारविगए, से गं चाउज्जामा, तं जहा सव्वाओ पाणाश्वायाजो वेरमणं, सब्बाओ मुसावापाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं । इच्चेएणं दुविहेणं विणयमूलएणं धम्मेणं आणुपुब्वेणं अट्टकम्मपगडीओ खवेत्ता लोयग्यपद्वाणा भवति ।। ६०. तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी--तुब्भण्णं सुदंसणा ! किंमूलए धम्मे पण्णत्ते ? अम्हाणं देवाणुप्पिया! सोयमूलए धम्मे पण्णत्ते । सेविय सोए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा दव्वसोए य भावसोए य । दव्वसोए उदएणं मट्टियाए य । भावसोए दब्भेहि य मंतेहि य । अहं देवाप्पा किंचि असुई भवइ तं सव्वं सज्जपुढवीए आलिप्यइ, तज पच्छा सुद्धेण वारिणा पक्खालिज्जइ, तओ णं पांचवां अध्ययन : सूत्र ५५-६० से। भाव शौच होता है डाभ से और मंत्रों से । देवानुप्रिय ! हमारी जो कोई वस्तु अशुचि होती है, उसे पहले ताजा मिट्टी से मलते हैं। उसके बाद शुद्ध जल से धोते हैं। ऐसा करने से वह अशुचि शुचि हो जाती है। इस प्रकार जीव जलाभिषेक से स्वयं को पवित्र कर निर्विघ्न स्वर्ग में चले जाते हैं | सुदर्शन द्वारा शौचमूलक धर्म की प्रतिपत्ति-पद ५६. शुक के पास धर्म को सुन, हृष्ट-तुष्ट हुए सुदर्शन ने शुक के पास शौचमूलक धर्म को स्वीकार किया। स्वीकार कर परिव्राजकों को विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से प्रतिलाभित करता हुआ और सांख्य दर्शन से स्वयं को भावित करता हुआ विहार करने लगा । ५७. शुक परिव्राजक ने सौगन्धिका नगरी से निर्गमन किया, निर्गमन कर बाहर जनपद - विहार किया। थावच्चापुत्र का सुदर्शन के साथ संवाद-पद ५८. उस काल और उस समय थावच्चापुत्र का समवसरण हुआ। जन समूह ने निर्गमन किया। सुदर्शन भी गया। उसने थावच्चापुत्र को वंदना की। नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोला- तुम्हारे धर्म का मूल क्या प्रज्ञप्त है ? ५९. सुदर्शन के ऐसा कहने पर घावच्यापुत्र ने इस प्रकार कहा- सुदर्शन! हमारा धर्म विनयमूलक प्रज्ञप्त है। वह विनय भी दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे--अगार विनय और अनगार विनय । जो अगार विनय है, वह चातुर्यामरूप गृहस्थ धर्म है। जो अनगार विनय है, वे चातुर्याम है, जैसे--सर्व प्राणतिपात से विरमण, सर्व मृषावाद से विरमण, सर्व अदत्तादान से विरमण, सर्व परिग्रह (बाह्य ग्रहण) से विरमण । इस द्विविध विनयमूलक धर्म के द्वारा क्रमशः आठ कर्म प्रकृतियों को क्षीण कर जीव लोकाग्र में प्रतिष्ठित - सिद्ध हो जाते हैं। ६०. थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा -- सुदर्शन ! तुम्हारे धर्म का मूल क्या प्रज्ञप्त है ? देवानुप्रिय ! हमारे शौचमूलक धर्म प्रज्ञप्त है। वह शौच भी दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- - द्रव्यशौच और भावशौच । द्रव्यशौच होता है, पानी से और मिट्टी से भावशीच होता है ST से और मंत्रों से । देवानुप्रिय ! हमारी जो कोई वस्तु अशुचि होती है, उसे पहले ताजा मिट्टी से मलते हैं, उसके बाद उसे शुद्ध जल से धोते हैं, ऐसा करने से वह अशुचि से शुचि हो जाती है। इस प्रकार Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ पांचवां अध्ययन : सूत्र ६०-६५ असुई सुई भवइ । एवं खुल जीवा जलाभिसेय-पूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गच्छति ॥ नायाधम्मकहाओ जीव जलाभिषेक से स्वयं को पवित्र कर निर्विन स्वर्ग में चले जाते हैं। का साहा! ६१. तए णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी--सुदंसणा! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेज्जा, तए णं सुदंसणा! तस्स रुहिरक्यस्स वत्थस्स रुहिरेण चेव पक्खालिज्जमाणस्स अस्थि काइ सोही? नो इणद्वे समटे । एवामेव सुदंसणा! तुब्भं पि पाणाइवाएणं जाव बहिद्धादाणेणं नत्थि सोही, जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स नत्थि सोही। सुदंसणा! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं सज्जिय-खारेणं आलिंपइ, आलिंपित्ता पयणं आरुहेइ, आरुहेत्ता उण्हं गाहेइ, तओ पच्छा सुद्धणं वारिणा घोवेज्जा । से नूणं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स सज्जिय-खारेणं अणुलित्तस्स पयणं आरुहियस्स उण्हं गाहियस्स सुद्धेणं वारिणा पक्खालिज्ज माणस्स सोही भवइ? हंता भवइ । एवामेव सुदंसणा! अम्हं पि पाणाइवायवेरमणेणं जाव बहिद्धादाणवेरमणेणं अत्थि सोही, जहा वा तस्स रुहिरक्यस्स वत्थस्स सज्जियखारेणं अणुलित्तस्स पयणं आरुहियस्स उण्हं गाहियस्स सुद्धेणं वारिणा पक्खालिज्जमाणस्स अत्थि सोही। ६१. थावच्चापुत्र ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा---सुदर्शन! जैसे कोई पुरुष खून से सने एक महान वस्त्र को खून से ही धोए तो सुदर्शन! उस खून से सने और खून से ही धुले वस्त्र की कोई शुद्धि होती हैं? यह अर्थ संगत नहीं है। सुदर्शन! इसी प्रकार प्राणातिपात यावत् परिग्रह से तुम्हारी भी शुद्धि नहीं होती, जैसे खून से सने वस्त्र की शुद्धि खून से धोने पर नहीं होती। सुदर्शन! जैसे कोई पुरुष खून से सने एक महान वस्त्र को खार में भिगोता है। भिगोकर उसे आंच पर चढ़ाता है। चढ़ाकर उबालता है उसके बाद स्वच्छ जल से धोता है। सुदर्शन! उस खून से सने वस्त्र को साजी के खार में भिगोने, आंच पर चढ़ाने--उबालने, उसके बाद स्वच्छ जल से धोने से शुद्धि होती है? हां होती है। सुदर्शन! इसी प्रकार हमारे भी प्राणातिपात विरति यावत् परिग्रह विरति से शुद्धि होती है जैसे कि खून से सने वस्त्र की शुद्धि साजी के खार में भिगोने, आंच पर चढ़ाने, उबालने, उसके बाद स्वच्छ जल से धोने पर होती है। सुदंसणस्स विणयमूलय-धम्मपडिवत्ति-पदं ६२. तत्थ णं सुदंसणे संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--इच्छामि णं भंते! (तुब्भं अंतिए?) धम्मं सोच्चा जाणित्तए॥ सुदर्शन द्वारा विनयमूलक धर्म की प्रतिपत्ति-पद ६२. उस चर्चा प्रसंग से संबुद्ध होकर सुदर्शन ने थावच्चापुत्र को वंदना की, नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर इस प्रकार कहा--भन्ते! मैं (आपके पास?) धर्म सुनकर (तत्त्व) जानना चाहता हूं। ६३. तए णं थावच्चापुत्ते अणगारे सुदंसणस्स तीसे य महइमहालियाए महच्चपरिसाए चाउज्जामं धम्मं कहेइ, तं जहा--सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणंजाव।। ६३. थावच्चापुत्र अनगार ने सुदर्शन को और उस सुविशाल महान अर्चा वाली परिषद् को चातुर्याम धर्म कहा--जैसे सर्वप्राणातिपात से विरमण, सर्वमृषावाद से विरमण, सर्व अदत्तादान से विरमण, सर्व परिग्रह से विरमण यावत्..... । ६४. तए णं से सुदंसणे समणोवासए जाए--अभिगयजीवाजीवे जाव समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणे विहरइ।। ६४. वह सुदर्शन श्रमणोपासक बन गया। जीव अजीव को जानने वाला यावत् वह श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादप्रौञ्छन, औषध, भेषज्य तथा प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक से प्रतिलाभित करता हुआ विहार करने लगा। सुएण सुदंसणस्स पडिसंबोध-पयत्त-पदं ६५. तए णं तस्स सुयस्स परिव्वायगस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स समाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु सुदंसणेणं सोयधम्मं विप्पजहाय विणयमूले शुक द्वारा सुदर्शन को प्रतिसंबोध प्रयत्न-पद ६५. इस वृत्तान्त से अवगत होने पर शुक परिव्राजक के मन में यह विशेष प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--सुदर्शन ने शौचधर्म को त्याग कर विनयमूल धर्म Jain Education Intemational Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १४५ धम्मे पडिवण्णे, तं सेयं खलु मम सुदंसणस्स दिढेि वामेत्तए पुणरवि सोयमूलए धम्मे आघवित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, सपेहेत्ता परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं जेणेव सोगंधिया नगरी जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता परिव्वायगाक्सहसि भंडगनिक्खेवं करेइ, करेत्ता धाउरत्त-वत्थ-पवर-परिहिए पविरल-परिव्वायगेणं सद्धिं संपरिवडे परिव्वायगावसहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सोगंधियाए नयरीए मज्झमझेणं जेणेव सुदंसणस्स गिहे जेणेव सुदंसणे तेणेव उवागच्छइ ।। पांचवां अध्ययन : सूत्र ६५-७० स्वीकार कर लिया। अत: मेरे लिए उचित है, मैं सुदर्शन की दृष्टि को बदल कर पुन: शौचमूलक धर्म का आख्यान करू--उसने ऐसी सप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर हजार परिव्राजकों के साथ जहाँ सौगन्धिका नगरी थी, जहाँ परिव्राजकों का मठ था, वहाँ आया। वहां आकर परिव्राजकों के मठ में अपने उपकरण रखे। उपकरण रखकर प्रवर गेरुए वस्त्र पहने। उसने कुछेक परिव्राजकों के साथ, उनसे परिवृत हो, परिव्राजकों के मठ से निर्गमन किया। निर्गमन कर सौगन्धिका नगरी के बीचों-बीच से गुजरता हुआ जहाँ सुदर्शन का घर था, जहाँ सुदर्शन था, वहाँ आया। ६६. तए णं से सुदंसणे तं सुयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता नो अब्भुटेइ न पच्चुग्गच्छइनो आढाइ नो वंदइ तुसिणीए संचिट्ठइ॥ ६६. सुदर्शन ने शुक को आते हुए देखा। उसे देखकर वह न आसन से उठा, न सामने गया। न उसे आदर दिया और न वंदना की। वह मौन रहा। ६७. तए णं से सुए परिव्वायए सुदंसणं अणन्भुट्ठियं पासित्ता एवं वयासी--तुमं णं सुदंसणा! अण्णया मम एज्जमाणं पासित्ता अन्भुट्टेसि पच्चुग्गच्छसि आढासि वंदसि, इयाणिं सुदंसणा! तुम मम एज्जमाणं पासित्ता नो अब्भुढेसि नो पच्चुग्गच्छसि नो आढासि नो वंदसि । तं कस्स णं तुमे सुदंसणा! इमेयारूवे विणयमूले धम्मे पडिवण्णे? ६७. सुदर्शन को बैठे हुए देखकर शुक परिव्राजक ने उससे इस प्रकार कहा--सुदर्शन! सदा तुम मुझे आते हुए देखकर आसन से उठते हो, सामने आते हो, मुझे आदर देते हो और वंदना करते हो। सुदर्शन! इस समय मुझे आते हुए देखकर तुम न आसन से उठे हो, न सामने आए हो, न मुझे आदर दे रहे हो और न वन्दना की। सुदर्शन! यह विशेष प्रकार का विनय मूल धर्म तुमने किससे स्वीकार कर लिया? ६८. तए णं से सुदंसणे सुएणं परिव्वायगेणं एवं वुत्ते समाणे आसणाओ अन्मुढेइ, अब्भुढेत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु सुयं परिव्वायगं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहओ अरिखनेमिस्स अंतेवासी थावच्चापुत्ते नामं अणगारे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागए इह चेव नीलासोए उज्जाणे विहरइ । तस्स णं अंतिए विणयमूले घम्मे पडिवण्णे॥ ६८. शुक परिव्राजक के ऐसा कहने पर सुदर्शन आसन से उठा। उठकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अञ्जलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर शुक परिव्राजक से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! अर्हत अरिष्टनेमि के अंतेवासी थावच्चापुत्र नाम के अनगार क्रमश: संचार करते हुए, ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए यहाँ आए हैं, वे यहीं नीलाशोक उद्यान में विहार कर रहे हैं। मैंने उनके पास विनयमूलक धर्म को स्वीकार किया है। ६९. तए णं से सुए परिव्वायए सुदंसणं एवं वयासी--तं गच्छामो णंसुदंसणा! तव धम्मायरियस्स थावच्चाफुत्तस्स अंतियं पाउब्भवामो, इमाइंचणंएयारवाई अट्ठाई हेऊइंपसिणाइंकारणाइंवागरणाई पुच्छामो। तं जइ मे से इमाइं अट्ठाई हेऊइं पसिणाई कारणाई वागरणाई वागरेइ, तओ णं वदामि नमसामि । अह मे से इमाई अट्ठाई हेऊई पसिणाइंकारणाई वागरणाइंनो वागरेइ, तओ णं अहं एएहिं चेव अद्वेहिं हेऊहिं निप्पट्ठ-पसिणवागरणं करिस्सामि। ६९. शुक परिव्राजक ने सुदर्शन से इस प्रकार कहा--सुदर्शन ! चलें, तुम्हारे धर्माचार्य थावच्चापुत्र के पास उपस्थित होकर उनसे ये विशेष प्रकार के अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण और व्याकरण पूछे । यदि वह मेरे इन अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों का उत्तर दे सके तो मैं उन्हें वन्दना-नमस्कार करूं और यदि वे मेरे इन अर्थों, हेतुओं, प्रश्नों, कारणों और व्याकरणों का उत्तर न दे सके तो मैं इन्हीं अर्थों और हेतुओं से उन्हें निरुत्तर करूंगा। सुयस्स यावच्चापुत्तेण संवाद-पदं ७०. तए णं से सुए परिव्वायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेट्ठिणा सद्धिं जेणेव नीलासोए उज्जाणे जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता यावच्चापुत्तं एवं वयासी--जत्ता ते शुक का थावच्चापुत्र के साथ संवाद-पद ७०. तब शुक हजार परिव्राजकों और सुदर्शन सेठ के साथ जहाँ नीलाशोक उद्यान था, जहाँ थावच्चापुत्र अनगार थे वहां आया। आकर थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा--भते! क्या तुम्हें यात्रा मान्य हैं? Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्ययन : सूत्र ७०-७३ १४६ भंते ? जवणिज्जं ते (भंते ? ) ? अव्वाबाहं (ते भंते ? ) ? फासूयं विहारं (ते भंते ? ) ? ७१. तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारे सुएणं परिव्वायगेणं एवं वुत्ते समाणे सुयं परिव्वायगं एवं क्यासी--सुया! जत्तावि मे जवणिज्जं पि मे अब्याबाहं पि मे फासूयं बिहारं पि मे ।। -- ७२. तए गं से सुए बावच्चापुत्तं एवं क्यासी-किं ते भंते! जत्ता? सुया! जन् मम नाम दंसण चरित-तव-संजममाइएहिं जोएहिं जयणा, से तं जत्ता । से किं ते भंते! जवणिज्जं ? सुया! जवणिज्जे दुविहे पण्णले, तं जहा इंद्रियजवणिज्जे य नोइंदियजवणिज्जे य से किं तं इंदियजवणिज्जे ? - सुया! जण्णं ममं सोतिंदिय चक्खिदिय- घाणिदियजिब्भिंदिय - फासिंदियाइं निरुवहयाइं वसे वट्टंति से तं इंदियजवणिज्जे । से किं तं नोइंद्रियजयणिज्जे? सुया! जन्गं मम कोह- माण माया लोभा खीणा उवसंता नो उदयंति, से तं नोइंदियजवणिज्जे । से किं ते भंते! अव्वाबाहं ? सुया! जन्णं मम वाइय-पित्तिय-सिंभिय-सन्निवाइया विविहा रोगायका नो उदीरेति, से तं अब्याबाहं । से किं ते भ! फासूर्य विहार? सुया! जणं आरामेसु उज्जाणेसु देउलेसु सभासु पवासु इत्थी - पसु -पंडग - विवज्जियासु वसहीसु पाडिहारियं पीढ-फलगसेज्जा संचारयं ओगिण्डित्ता गं विहरामि, से तं फासूयं विहारं ।। सरिसवयाणं भक्खाभक्ख-पदं ७३. सरिसवपा ते मते! किं भक्या? अभक्लेया? सुया! सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि । से केणद्वेगं भंते! एवं वुच्चइ - - सरिसवया भक्नेया वि अभक्खेया वि? सुया! सरिसक्या दुविहा पन्णत्ता, तं जहा मित्तसरिसवया य धण्णसरिसवया य । तत्थ णं जेते मित्तसरिसच्या ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा--सहजायया सहवड्डियया सहपंसुकीलियया, ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्य णं जेते धण्णसरिसक्या ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा -- सत्यपरिणया य असत्यपरिणया य । तत्य णं जेते नायाधम्मकहाओ भंते! क्या तुम्हें यमनीय मान्य है? भंते! क्या तुम्हें अव्याबाध मान्य है ? भन्ते! क्या तुम्हें प्रासु विहार मान्य है ? ७१. शुक परिव्राजक के ऐसा कहने पर थावच्चापुत्र अनगार ने उससे इस प्रकार कहा -- शुक! मुझे यात्रा भी मान्य है, यमनीय भी मान्य है, अव्याबाध भी मान्य है और प्रासुक विहार भी मान्य है । ७२. शुक ने थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा- भंते! तुम्हारी यात्रा क्या है? शुक ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और संयम आदि योगों के साथ जो मेरी प्रयत्नशीलता (यतना) है, वह मेरी यात्रा है। भन्ते! तुम्हारा यमनीय क्या है ? शुक!, यमनीय दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे--इन्द्रिय यमनीय और नोइन्द्रिययमनीय। वह इन्द्रिययमनीय क्या है? शुक जो श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय निरुपहत (परिपूर्ण) होकर भी मेरे वश में रहते हैं, वह इन्द्रिय-यमनीय है। वह नोइन्द्रियमनय क्या है ? शुक! मेरे जो क्रोध, मान, माया और लोभ क्षीण या उपशान्त होने से उदय में नहीं आते, वह नोइन्द्रिययमनीय है। भन्ते! वह अव्याबाध क्या है ? शुक! जो मेरे वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक और सान्निपातिक--ये विविध रोग और आतंक उदीर्ण नहीं होते, वह अव्याबाध है । भन्ते! वह प्राशुक विहार क्या है ? शुक! जो मैं आरामों, उद्यानों देवकुलों, सभाओं, प्रमाओं और स्त्री, तथा नपुंसक रहित वसतियों में प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक का ग्रहण कर विहार करता हूँ, वह प्रासुक विहार है। सरिसवय की भक्ष्याभक्ष्यता- पद ७३. भन्ते! तुम्हारे सरिसवय भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ? शुक! सरिसवय भक्ष्य भी हैं, अभक्ष्य भी हैं। भन्ते! किस अर्थ से ऐसा कहते हैं--सरिसवय भक्ष्य भी हैं, अभक्ष्य भी हैं? शुक! सरिसक्य के दो प्रकार प्राप्त हैं, जैसे मित्र सरिसवय (सदृशवयसाः सवयाः) और धान्य सरिसवय ( सर्षप) उनमें जो मित्र सरिसवय हैं, वे तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे सहजात, सहवर्द्धित, सहपांशुकीडित वे भ्रमण निर्ग्रन्थों के अभक्ष्य हैं। 1 उनमें जो धान्य सर्षप हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं--जैसे शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत उनमें वे जो अशस्त्रपरिणत हैं, वे I Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १४७ असत्थपरिणया ते णं समणाणं निग्गंधाणं अभक्खेया। तत्थ णं जेते सत्थपरिणया ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा--फासुया य अफासुया य। अफासुया णं सुया! (समणाणं निग्गंथाणं?) नो भक्खेया । तत्थ णं जेते फासुया ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा--एसणिज्जा य अणेसणिज्जा य । तत्थ णं जेते अणेसणिज्जा ते (णं समणाणं निग्गंथाणं?) अभक्खेया। तत्थ णं जेते एसणिज्जा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--जाइया य अजाइया य। तत्थ णं जेते अजाइया ते (णं समणाणं निग्गंथाण?) अभक्खेया। तत्थ णं जेते जाइया ते विहा पण्णत्ता, तं जहा--लद्धा य अलद्धा य । तत्थ णं जेते अलद्धा ते (णं समणाणं निग्गंथाणं?) अभक्खेया। तत्थ णं जेते लद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं भक्खेया। एएणं अद्वेणं सुया! एवं वुच्चइ--सरिसवया भक्खेया वि अभक्खेया वि॥ पांचवां अध्ययन : सूत्र ७३-७४ श्रमण निर्ग्रन्थों के अभक्ष्य हैं। उनमें वे जो शस्त्रपरिणत हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं--जैसे प्रासुक और अप्रासुक। अप्रासुक भक्ष्य नहीं हैं, उनमें वे जो प्रासुक हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--एषणीय और अनेषणीय। उनमें वे जो अनेषणीय हैं वे (श्रमण-निर्ग्रन्थों के?) अभक्ष्य हैं। उनमें वे जो एषणीय हैं वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे याचित और अयाचित। उनमें वे जो अयाचित हैं, वे (श्रमण निर्ग्रन्थों के?) भक्ष्य नहीं हैं। उनमें वे जो याचित हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--लब्ध और अलब्ध । उनमें जो अलब्ध हैं वे (श्रमण-निर्ग्रन्थों के?) अभक्ष्य हैं। उनमें वे जो लब्ध हैं, वे श्रमण निर्ग्रन्थों के भक्ष्य हैं। शुक! इस अर्थ से ऐसा कहते हैं--सरिसवय भक्ष्य भी हैं, अभक्ष्य भी हैं। कुलस्थों की भक्ष्याभक्ष्यता-पद ७४. भन्ते! तुम्हारे कुलथा भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं? शुक! कुलथा भक्ष्य भी हैं, अभक्ष्य भी है। भन्ते! किस अर्थ से ऐसा कहते हैं--कुलथा भक्ष्य भी हैं, अभक्ष्य भी हैं? शुक! कुलथा दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--स्त्रीकुलथा और धान्य कुलथा। उनमें वे जो स्त्रीकुलथा हैं, वे तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--कुलवधू, कुलमाता, कुलपुत्री। वे श्रमण निर्ग्रन्थों के अभक्ष्य कुलत्थाणं भक्खाभक्ख-पदं ७४. कुलत्था ते भंते! किं भक्खेया? अभक्खेया? सुया! कुलत्था भक्खेया वि अभक्खेया वि। से केणटेणं भते! एवं कुच्चइ--कुलत्था भक्खेया वि अभक्खेया वि? सुया! कुलत्था दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--इत्थिकुलत्था य घण्णकुलत्था य। तत्थ णं जेते इत्थिकुलत्था ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा--कुलवहुया इ य कुलमाउया इ य कुलधूया इय। ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जेते धण्णकुलत्था ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--सत्थपरिणया य असत्थपरिणया। तत्थ णं जेते असत्यपरिणया ते समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया । तत्थ णं जेते सत्थपरिणया य। तत्थ णं जेते असत्थपरिणया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--फासुया य अफासुया य । अफासुया णं सुया! समणाणं निग्गंथाणं नो भक्खेया। तत्थ णं जेते फासुया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--एसणिज्जा य अणेसणिज्जा य। तत्थ णं जेते अणेसणिज्जा ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जेते एसणिज्जा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा--जाइया य अजाइया य। तत्थ णं जेते अजाइया ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जेते जाइया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--लद्धा य अलद्धा य । तत्थ णं जेते अलद्धा ते अभक्खेया। तत्थ णं जेते लद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं भक्खेया। एएणं अटेणं सुया! एवं वुच्चइ--कुलत्था भक्खेया वि अभक्खेया वि॥ उनमें वे जो धान्यकुलथा हैं--वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त है, जैसे--शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत। उनमें वे जो अशस्त्रपरिणत हैं वे श्रमण निर्ग्रन्थों के अभक्ष्य हैं। उनमें वे जो शस्त्रपरिणत हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--प्रासुक और अप्रासुक । शुक! अप्रासुक श्रमण निर्ग्रन्थों के भक्ष्य नहीं है। उनमें वे जो प्रासुक हैं वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--एषणीय और अनेषणीय । उनमें जो अनेषणीय हैं वे श्रमण निग्रन्थों के अभक्ष्य हैं। उनमें जो एषणीय हैं वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--याचित और अयाचित । उनमें जो अयाचित हैं वे श्रमण निर्ग्रन्थों के अभक्ष्य हैं। उनमें जो याचित हैं वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- लब्ध और अलब्ध । उनमें जो अलब्ध हैं, वे अभक्ष्य हैं। उनमें वे जो लब्ध हैं वे श्रमण-निर्ग्रन्थों के भक्ष्य हैं। शुक! इस अर्थ से ऐसा कहते हैं--कुलथा भक्ष्य भी हैं, अभक्ष्य भी हैं। Jain Education Intemational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्ययन : सूत्र ७५-७६ १४८ नायाधम्मकहाओ मासाणं भक्खाभक्ख-पदं मासों (माषों) की भक्ष्याभक्ष्यता-पद ७५. मासा ते भंते! किं भक्खेया? अभक्खया? ७५. भन्ते! तुम्हारे माष भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं? सुया! मासा भक्खेया वि अभक्खेया वि। शुक । माष भक्ष्य भी हैं, अभक्ष्य भी हैं। से केणद्वेणं भते! एवं वुच्चइ--मासा भक्खेया वि अभक्खेया ___ भन्ते! किस अर्थ से ऐसा कहते हैं--माष भक्ष्य भी हैं अभक्ष्य भी वि? सुया! मासा तिविहा पण्णता, तं जहा--कालमासा य अत्थमासा य धण्णमासा य। तत्थ णं जेते कालमासा ते दुवालसविहा पण्णत्ता, तं जहा--सावणे भद्दवए आसोएकत्तिए मग्गसिरे पोसे माहे फग्गुणे चेते वइसाहे जेट्ठामूले आसाढे। तेणंसमणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। ___ तत्थं णं जेते अत्थमासा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--हिरण्णमासा य सुवण्णभासा य। तेणं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जेते घण्णमासा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--सत्थपरिणया य असत्थपरिणया य। तत्य णं जेते असत्थपरिणया ते समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णंजेते सत्थपरिणया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--फासुया य अफासुया य। अफासुया णंसुया! समणाणं निग्गंथाणंनोभक्खेया। तत्थणंजेते फासुया ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा--एसणिज्जा य अणेसणिज्जाय। तत्थं णं जेते अणेसणिज्जा ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थंणं जेते एसणिज्जा ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा--जाइया य अजाइया य । तत्थ णं जेते अजाइया तेणं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थं णं जेते जाइया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--लद्धाय अलद्धा य। तत्थ णं जेते अलद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जेते लद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं भक्खेया। एएणं अटेणं सुया! एवं वुच्चइ--मासा भक्खेया वि अभक्खया वि।। शुक! माष तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--कालमास, अर्थमाष और धान्यमाष। उनमें वे जो काल मास है--वे बारह प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मृगसर, पौष, माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठामूल और आषाढ़। वे श्रमण निर्ग्रन्थों के अभक्ष्य हैं। उनमें वे जो अर्थमाष हैं वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--हिरण्य माष और सुवर्ण माष। वे श्रमण निर्ग्रन्थों के अभक्ष्य हैं। उनमें वे जो धान्यमाष हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-- शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत। उनमें जो अशस्त्रपरिणत हैं, वे श्रमण निर्ग्रन्थों के अभक्ष्य हैं। उनमें वे जो शस्त्रपरिणत हैं वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--प्रासुक और अप्रासुक। शुक! अप्रासुक श्रमण निर्ग्रन्थों के भक्ष्य नहीं है, उनमें वे जो प्रासुक हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--एषणीय और अनेषणीय। उनमें वे जो अनेषणीय हैं, वे श्रमण निर्ग्रन्थों के अभक्ष्य हैं। उनमें वे जो एषणीय हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे--याचित और अयाचित । उनमें वे जो अयाचित हैं, वे श्रमण-निर्ग्रन्थों के भक्ष्य नहीं उनमें वे जो याचित हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-- लब्ध और अलब्ध। उनमें वे जो अलब्ध हैं, वे श्रमण निर्ग्रन्थों के अभक्ष्य हैं। उनमें वे जो लब्ध हैं, वे श्रमण निर्ग्रन्थों के भक्ष्य हैं। शुक! इस अर्थ से ऐसा कहते हैं, मास भक्ष्य भी हैं, अभक्ष्य भी अस्तित्व-प्रश्न-पद ७६. आप एक हैं? आप दो हैं? आप अक्षय हैं? आप अव्यय हैं? आप अवस्थित हैं? आप भूत, वर्तमान और भावी अनेक पयार्यों से युक्त अत्थित्त-पण्ह-पदं ७६. एगे भवं? दुवे भवं? अक्खए भवं? अव्वए भवं? अवट्टिए भवं? अणेगभूय-भाव-भविए भवं? सुया! एगे वि अहं, दुवेवि अहं, अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, अणेगभूय-भाव-भविए वि अहं। से केणटेणं भंते! एगे वि अहं? दुवेवि अहं? अक्खए वि अहं? अव्वए वि अहं? अवट्ठिए वि अहं? अणेगभूय-भाव-भविए वि अहं? सुया! दव्वट्ठयाए ‘एगे वि अहं', नाणदंसणट्ठयाए दुवे वि अहं, पएसट्ठयाए अक्खए वि अहं, अव्वए वि अहं, अवट्ठिए वि अहं, उवओगट्ठयाए अणेगभूय-भाव-भविए वि अहं। ___ शुक! मैं एक भी हूँ, दो भी हूँ, अक्षय भी हूँ, अव्यय भी हूँ, अवस्थित भी हूँ तथा भूत, वर्तमान और भावी अनेक पर्यायों से युक्त भी हूँ। किस अर्थ से ऐसा है भन्ते! कि मैं एक भी हूँ ? दो भी हूँ? अक्षय भी हूँ? अव्यय भी हूँ? अवस्थित भी हूँ? भूत, वर्तमान और भावी अनेक पर्यायों से युक्त भी हूँ ? शुक! द्रव्य की दृष्टि से मैं एक भी हूं। ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से मैं दो भी हूँ। प्रदेश की दृष्टि से मैं अक्षय भी हूँ, अव्यय Jain Education Intemational Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १४९ पांचवां अध्ययन : सूत्र ७६-८३ भी हूँ, अवस्थित भी हूं, उपयोग की दृष्टि से मैं भूत, वर्तमान और भावी अनेक पर्यायों से युक्त भी हूँ। सुयस्स परिव्वायगसहस्सेण पव्वज्जा-पदं ७७. एत्थ णं से सुए संबुद्धे यावच्चापुत्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं क्यासी--इच्छामि णं भते! तुम्भं अतिए केवलिपण्णत्तं धम्म निसामित्तए। हजार परिव्राजकों के साथ शुक की प्रव्रज्या-पद ७७. इस चर्चा प्रसंग से संबुद्ध हो शुक ने थावच्चापुत्र को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार कहा--भन्ते ! मैं आपके पास केवलीप्रज्ञप्त धर्म सुनना चाहता हूँ। ७८. तए णं थावच्चापुत्ते अणगारे सुयस्स चाउज्जामं धम्मं कहेइ॥ ७८. थावच्चापुत्र अनगार ने शुक परिव्राजक को चातुर्याम धर्म कहा। ७९. तए णं से सुए परिब्वायए यावच्चापुत्तस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म एवं वयासी--इच्छामि णं भते! परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिबुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइत्तए। अहासुहं देवाणुप्यिा॥ ७९. शुक! परिव्राजक ने थावच्चा पुत्र के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर इस प्रकार कहा--भन्ते! मैं हजार परिव्राजकों के साथ उनसे परिवृत हो देवानुप्रिय के पास मुण्ड हो प्रव्रजित होना चाहता हूँ। जैसा सुख हो, देवानुप्रिय! ८०. तए णं से सुए परिव्वायए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अवक्कमइ, अवक्कमित्ता तिदंडयं य कुंडियाओ य छत्तए य छन्नालए य अंकुसए य पवित्तए य केसरियाओ य धाउरत्ताओ य एगते एडेइ, सयमेव सिहं उप्पाडेइ, उप्पाडेत्ता जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता यावच्चापुतं अणगारं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइए। सामाइय-माइयाइं चोद्दसपुव्वाइं अहिज्जइ।। ८०. शक परिव्राजक ईशान कोण में गया। वहाँ जाकर उसने त्रिदण्ड, कमण्डलु, छत्र, त्रिकाष्ठिका, अंकुश, तबि की अंगूठी, एक वस्त्र खण्ड और गेरुएं वस्त्र को एक ओर रखा। अपने आप शिखा का लुञ्चन किया। लुञ्चन कर जहां थावच्चा पुत्र अनगार था वहाँ आया। वहाँ आकर थावच्चापुत्र अनगार को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर वह थावच्चा पुत्र अनगार के पास मुण्ड हो प्रव्रजित हो गया। उसने सामायिक आदि चौदह पूर्वो का अध्ययन किया। सुयस्स जणवयविहार-पदं ८१. तए णं थावच्चापुत्ते सुयस्स अणगारसहस्सं सीसत्ताए वियरइ॥ शुक का जनपद विहार-पद ८१. थावच्चापत्र ने शुक को हजार अनगार शिष्य के रूप में प्रदान किए। ८२. थावच्चापुत्र ने सौगन्धिका नगरी और नीलाशोक उद्यान से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर उसके बाहर जनपद विहार किया। ८२. तए णं थावच्चापुत्ते सोगंधियाओ नयरीओ नीलासोयाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ।। थावच्चापुत्तस्स परिनिव्वाण-पदं ८३. तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहइ, दुरुहित्ता मेघघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता जाव संलेहणा-झूसणा-झूसिए भत्तपाण-पडियाइक्खिए पाओवगमणंणुवन्ने।। थावच्चापुत्र का परिनिर्वाण-पद ८३. थावच्चापुत्र हजार अनगारों के साथ, उनसे परिवृत हो, जहां पुण्डरीक पर्वत था वहाँ आया। वहाँ आकर धीरे-धीरे पुण्डरीक पर्वत पर चढ़ा। पुण्डरीक पर्वत पर चढ़कर सधन मेघ जैसे वर्ण वाले और देवों के समागम स्थल पृथ्वी शिलापट्ट का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर यावत् संलेखना की आराधना में समर्पित हो, भक्तपान का प्रत्याख्यान कर, उसने प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया। Jain Education Intemational Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्ययन : सूत्र ८४-९० १५० नायाधम्मकहाओ ८४. तए णं से थावच्चाफुत्ते बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, ८४, थावच्चापुत्र बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर मासिक मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्द्वि भत्ताई अणसणाए संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर, अनशनकाल में साठ छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्धे भक्तों का परित्याग कर यावत् प्रवर केवल ज्ञान-दर्शन उत्पन्न कर बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुड़े सव्वदुक्खप्पहीणे।। उसके बाद सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत और सब दुःखों का अन्त करने वाला हुआ। सेलगस्स अभिनिक्खमणाभिप्पाय-पदं ८५. तए णं से सुए अण्णया कयाइ जेणेव सेलगपुरे नगरे जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ. उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ। शैलक का अभिनिष्क्रमण अभिप्राय-पद ८५. किसी समय वह शुक जहाँ शैलकपुर नगर था, जहाँ सुभूमिभाग उद्यान था वहाँ आया। वहां आकर वह यथोचित अवग्रह--आवास योग्य स्थान की अनुमति प्राप्त कर, संयम और तप से स्वयं को भावित करता हुआ विहार करने लगा। ८६. परिसा निग्गया। सेलओ निग्गच्छ।।। ८६. जन समूह ने निर्गमन किया। शैलक भी चला गया। ८७. तए णं से सेलए सुयस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतढे सुयं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--सदहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं जाव नवरं देवाणुप्पिया! पंथगपामोक्खाइं पंच मंतिसयाइं आपुच्छामि, मंडुयं च कुमारं रज्जे ठावेमि । तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि । __ अहासुहं देवाणुप्पिया॥ ८७ शुक के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हुए शैलक ने शुक को तीन बार दांयी ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोला--भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ, यावत् इतना विशष है-देवानुप्रिय! मैं पंथक प्रमुख पांच सौ मंत्रियों से पूछ लूं। मंडुक कुमार को राज्य (सिंहासन) पर स्थापित कर दूं। उसके बाद देवानुप्रिय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित बनूं। जैसा सुख हो, देवानुप्रिय ! ८८. तए णं सेलए राया सेलगपुरं नगरं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणे सण्णिसण्णे।। ८८. शैलक राजा ने शैलकपुर नगर में पुन: प्रवेश किया। प्रवेश कर जहाँ उसका अपना घर था, जहाँ बाहरी सभा मण्डप था, वहाँ आया। वहाँ आकर सिंहासन पर बैठ गया। ८९. तए णं से सेलए राया पंथगपामोक्खे पंच मंतिसए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मए सुयस्स अंतिए धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए। तए णं अहं देवाणुप्पिया! संसारभउव्विग्गे भीए जम्मण-जरमरणाणं सुयस्स अणगारस्स अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि । तुब्भे णं देवाणुप्पिया! किं करेह? कि ववसह ? किं वा भे हियइच्छिए सामत्थे? ८९. शैलक राजा ने पंथक प्रमुख पांच सौ मंत्रियों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! मैंने शुक के पास धर्म सुना है, और वही धर्म मुझे इष्ट, ग्राह्य और रुचिकर है। इसलिए देवानुप्रियो! संसार के भय से उद्विग्न तथा जन्म, जरा और मृत्यु से भीत बना मैं शुक अनगार के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता हूँ। देवानुप्रियो! तुम क्या करते हो? क्या निर्णय लेते हो? तुम्हारे अन्तर्मन की भावना और सामर्थ्य क्या है? ९०. तए णं ते पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया सेलगं रायं एवं वयासी--जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! संसारभउव्विग्गा जाव पव्वयह, अम्हंणं देवाणुप्पिया! के अण्णे आहारे वा आलंबे वा? अम्हे वि य णं देवाणुप्पिया! संसारभउब्विग्गा जाव पव्वयामो। जहा णं देवाणुप्पिया! अम्हं बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य कुडुबसु य मतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य आपुच्छणिज्जे ९०. पन्थक प्रमुख पांच सौ मंत्रियों ने शैलक राजा से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हो यावत् प्रव्रजित हो रहे हो तो देवानुप्रिय! हमारा दूसरा आधार और आलम्बन ही क्या है? देवानुप्रिय ! हम भी संसार के भय से उद्विग्न हैं यावत् प्रव्रजित होते हैं। देवानुप्रिय ! जैसे हमारे बहुत से कार्यों, कारणों, कर्तव्यों, Jain Education Intemational Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ पहिपुच्छणिज्जे, मेढी पमाण आहारे आलंबणं चक्लू, मेटीभूए पमाणभूए आहारभूए आलंबणभूए चक्खुभूए तहा णं पव्वइयाण वि समाणाणं बहू कज्जेसु व जाव पवसुभूए ।। ९१. तए णं से सेलगे पंथगपामोक्त्रे पंच मंतिसए एवं वयासी जह णं देवाप्पिया! तुन्भे संसारभउब्बिग्गा जाव पव्वयह, तं गच्छ णं देवाप्पिया! ससु-ससु कुटुबेस जेपुते कुटुंबम ठावेत्ता पुरिससहस्तवाहिणीओ सोयाओ दुख्दा समाणा मम अंतियं पाउब्भवह । ते वि तहेव पाउब्भवंति ।। मंडुयस्स रायाभिसेय-पदं ९२. तणं से सेलए राया पंच मंतिसयाई पाउब्भवमाणाइं पासइ, पासित्ता हतुट्ठे कोडुबियपुरिसे सद्दावेद, सहावेत्ता एवं वयासी-विप्पामेव भो देवाणुप्पिया! मंडुयस्स कुमारस्स महत्थं महग्घं महरिहं विडलं रायाभिसेव उवद्ववेह ।। ९३. तए णं ते कोटुंबियपुरिसा मंडुयस्त कुमारस्स महत्वं महम्वं महरिहं विउ रायाभिसेयं उदद्ववेति ।। ९४. तणं से सेलए राया बहूहिं गणनायगेहि य जाव संधिवालेहि यसद्धिं संपरिवुडे मंडुयं कुमारं जाव रायाभिसेएणं अभिसिंचइ ।। ९५. लए गं से मंदुए राया जाए महयाहिमवंत-महंत मलयमंदर - महिंदसारे जाव रज्जं पसासेमाणे विहर।। सेलयस्स निक्खमणाभिसेय-पदं ९६. तए से सेलए मंदुय रावं आपुच्छइ ।। ९७. तए णं मंडुए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेद, सहावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सेलगपुरं नयरं आसियसित्त सुइय सम्मज्जिजवलित्तं जाव सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।। ९८. तए गं से मंदुए दोच्च पि कोदुबियपुरिसे एवं वयासी खिप्यामेव १५१ पांचवां अध्ययन : सूत्र ९०-९८ मन्त्रणाओं, गोपनीय कार्यों, रहस्यों और निर्णयों में तुम्हारा मत पूछा जाता है, बार-बार पूछा जाता है, तुम (हमारे) मेढी, प्रमाण, आधार, आलम्बन और यह हो तुम मेड़ीभूत प्रमाणभूत आधारभूत, आलम्बनभूत और चक्षुभूत हो वैसे ही प्रब्रजित हो जाने पर भी 1 तुम हमारे बहुत से कार्यों में मेढ़ीभूत यावत् चक्षुभूत रहोगे। ९१. शौलक ने पथक प्रमुख पांच सौ मंत्रियों से इस प्रकार कहादेवानुप्रियो ! यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हो यावत् प्रव्रजित होते हो तो देवानुप्रियो ! जाओ और अपने-अपने कुटुम्बों में जो ज्येष्ठ पुत्र हैं, उन्हें कुटुम्बों के प्रमुख पद पर स्थापित कर, हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविकाओं पर आरूढ़ हो, मेरे पास उपस्थित हो जाओ। वे भी वैसे ही उपस्थित हो गए। मंडुक का राज्याभिषेक - पद ९२. शैलक राजा ने पांच सौ मंत्रियों को अपने सामने उपस्थित देखा । देखकर पुष्ट-तुष्ट हो कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! शीघ्र ही कुमार मंडुक के लिए महान अर्यवान, महामूल्य और महान अर्हता वाले विपुल राज्यभिषेक की उपस्थापना करो। ९३. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने कुमार मंडुक के लिये महान अर्थवान, महामूल्य और महान अर्हता वाले विपुल राज्याभिषेक की उपस्थापना की। ९४. राजा शैलक ने बहुत से गणनायकों यावत् सन्धिपालों के साथ उनसे परिवृत हो कुमार मंडुक को यावत् राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया। ९५. अब मंडुक राजा बन गया। वह महान हिमालय, महान मलय, मेरु और महेन्द्र पर्वत के समान उन्नत यावत् राज्य का प्रशासन करता हुआ विहार करने लगा। शैलक का निष्क्रमण अभिषेक पद ९६. शैलक ने राजा मंडुक को पूछा। ९७. राजा मंडुक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर वह इस प्रकार बोला- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही शैलकपुर नगर को सामान्य या विशेष जल का छिड़काव कर, बुहार झाड़, गोबर से लीप यावत् प्रवर सुरभि वाले गन्ध-चूर्णो से सुगन्धित गन्धवर्तिका जैसा बनाओ और बनवाओ। इस आज्ञा को पुनः मुझे प्रत्यर्पित करो। ९८. मंडुक ने दूसरी बार भी कौटुम्बिक पुरुषों को इस प्रकार कहा -- देवानुप्रियो! Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्ययन : सूत्र ९८-१०५ १५२ भो देवाणुप्पिया! सेलगस्स रणो महत्थं महग्धं महरिहं विउलं निक्खमणाभिसेयं (करेह?) जहेव मेहस्स तहेव नवरं--पउमावती देवी अग्गकेसे पडिच्छइ, सच्चेव पडिग्गहं गहाय सीयं दुरुहइ। अवसेसं तहेव जाव। नायाधम्मकहाओ शीघ्र ही राजा शैलक का महान अर्थवान, महामूल्य और महान अर्हता वाला निष्क्रमण अभिषेक करो। मेघ की भांति वक्तव्यता। इतना विशेष है--पद्मावती देवी ने अग्र-केशों को ग्रहण किया। उसी पात्र को ग्रहण कर शिविका पर आरूढ़ हुई। अवशेष वर्णन पूर्ववत्। सेलगस्स पव्वज्जा-पदं ९९. तए णं से सेलगे (पंचहिं मंतिसएहिं सद्धिं?) सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जेणामेव सुए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सुर्य अणगारं तिक्खुतो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ जाव पव्वइए। शैलक की प्रव्रज्या-पद ९९. शैलक ने (पांच सौ मंत्रियों के साथ-साथ?) स्वयमेव पंच-मौष्टिक लुञ्चन किया। लुञ्चन कर जहाँ शुक था, वहाँ आया। वहाँ आकर शुक अनगार को दांयी ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना, नमस्कार किया, यावत् वह प्रव्रजित हो गया। सेलगस्स अणगारचरिया-पदं १००. तए णं से सेलए अणगारे जाए जाव कम्मनिग्घायणट्ठाए एवं च णं विहरइ। शैलक की अनगार-चर्या-पद १००. अब शैलक अनगार बन गया यावत् वह इस प्रकार कर्म-निर्घातन के लिए विहार करने लगा। १०१. तए णं से सेलए सुयस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्टट्ठमदसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। १०१. शैलक ने शुक के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन कर वह बहुत सारे चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त तथा मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को भावित करता हुआ विहार करने लगा। सुयस्स परिनिव्वाण-पदं १०२. तए णं से सुए सेलगस्स अणगारस्स ताई पंथगपामोक्खाई पंच अणगारसयाई सीसत्ताए वियरइ। शुक का परिनिर्वाण पद १०२. शुक ने शैलक अनगार को पंथक प्रमुख पांच सौ अनगार शिष्य रूप में प्रदान किये। १०३. तए णं से सुए अण्णया कयाइ सेलगपुराओ नगराओ १०३. किसी समय शुक ने शैलकपुर नगर और सुभूमिभाग उद्यान से सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया निष्क्रमण किया। वहाँ से निष्क्रमण कर बाहर जनपद विहार करने जणवयविहारं विहरइ॥ लगा। १०४. तए णं से सुए अणगारे अण्णया कयाइ तेणं अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे पुष्वाणुपुब्बिं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव पुंडरीयपव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहइ, दुरुहित्ता मेघघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता जाव संलेहणा-झूसणा-झूसिए भत्तपाण-पडियाइक्खिए पाओवगमणंणुवन्ने॥ १०४. शुक अनगार किसी समय उन हजार अनगारों के साथ उनसे परिवृत हो क्रमश: विहरण करता हुआ, ग्रामानुग्राम परिव्रजन करता हुआ, सुखपूर्वक विहार करता हुआ, जहाँ पुण्डरीक पर्वत था, वहाँ आया। वहाँ आकर धीरे-धीरे पुण्डरीक पर्वत पर चढ़ा। पुण्डरीक पर्वत पर चढ़कर सघन मेघ जैसे वर्ण वाले और देवों के समागम स्थल, पृथ्वी शिलापट्ट का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर यावत् संलेखना की आराधना में समर्पित हो, भक्तपान का प्रत्याख्यान कर, उसने प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया। १०५. तए णं से सुए बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्द्धि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेता तओ पच्छा सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे।। १०५. वह शुक बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर, मासिक संलेखना में स्वयं को समर्पित कर, अनशनकाल में साठ भक्तों का परित्याग कर यावत् प्रवर केवलज्ञान-दर्शन को उत्पन्न कर उसके बाद सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत और सब दुःखों का अन्त करने वाला हुआ। Jain Education Intemational Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ सेलगस्स रोगातंक - पदं १०६. तए णं तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स तेहिं अतहि य पंतेहि व तुच्छेहि व लूहेहि य अरसेति य विरसेहि य सीएहि य उण्हेहि व कालाइवकतेहि य पमाणाइक्कतेहि व निच्चं पाणभोयणेहि व पयइ- सुकुमालरस सुहोचियस्स सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया - उज्जलाविला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा । कंडुदाह-पित्तज्जर-परिगयसरीरे बावि विहरह ।। १०७. तए णं से सेलए तेणं रोयायंकेणं सुक्के भुक्खे जाए या होत्या ॥ १०८. तए णं से सेलए अण्णया कयाइ पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं इज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव सेलगपुरे नवरे जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उपागच्छद्द, उवागच्छिता अहापडिरूवं ओहं ओगिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।। १५३ १०९. परिसा निग्गया । मंडुओ वि निग्गओ सेलगं अणगारं वंदइ नमंसइ पज्जुवासइ ।। सेलगस्स तिगिच्छा-पदं ११०. तए गं से मंहुए राया सेलगस्स अनगारस्स सरीरगं सुवर्क भुवखं सव्वाबाहं सरोगं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-- अहण्णं भंते! तुब्भं अहापवत्तेहिं तेगिच्छिएहिं अहापवत्तेणं ओसह-भेसज्जभत्तपाणेण तेगिच्छं आउट्टावेमि। तुम्मे णं भत! मम जाणसालासु समोसरह, फासू- एसणिज्जं पीढ़-फलग सेज्जा-संचारगं ओगिन्हित्ता गं विहरह || १११. तए णं से सेलए अणगारे मंहयस्स रन्गो एयम तह 'त्ति' परिसुणे ।। ११२. तए णं से मंडुए सेलगं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूतामेव दिसिं पडिगए ।। ११३. तए गं से सेलए कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते सभंडमत्तोवगरणमायाए पंथगपामोक्स्लेहिं पंचहिं अणगारसहिं सद्धिं सेलगपुरमगुप्पविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव मंडुयस्स रण्णो जाणसाला तेणेव उवागच्छ, उवागच्छत्ता फास - एसणिज्जं पीढ़-फलग सेज्जा- संधारगं ओमित्ताणं विरह ।। - पांचवां अध्ययन : सूत्र १०६-११३ शैलक का रोगातंक - पद १०६. प्रशैलक राजर्षि के सहज सुकुमार और सुख भोगने योग्य शरीर में नित्य-सेवित अन्त प्रान्त, निस्सार र अरस, विरस, शीत, उष्ण, कालातिक्रांत और प्रमाणातिक्रान्त पान - भोजन के कारण उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, चण्ड, दुःखद और दुःसह वेदना प्रादुर्भूत हुई। उसका शरीर कण्डू, दाह और पित्तज्वर से आक्रांत हो गया । १५ ד १०७. शैलक उस रोग और आतंक से सूखा और रूखा हो गया । १०८. किसी समय शैलक क्रमशः विहरण करता हुआ, ग्रामानुग्राम परिव्रजन करता हुआ सुखपूर्वक विहार करता हुआ जहाँ शैलकपुर नगर था जहाँ सुभूमिभाग उद्यान था वहाँ आया। वहाँ आकर आवास योग्य स्थान की अनुमति प्राप्त कर संयम और तप से स्वयं को भावित करता हुआ विहार करने लगा । १०९. जन-समूह ने निर्गमन किया। मण्डुक ने भी निर्गमन किया। शैलक अनगार को वन्दना की, नमस्कार किया और पर्युपासना करने लगा। शैलक की चिकित्सा पद मैं ११०. मण्डुक ने राजा शैलक अनगार के शरीर को सूखा, रूखा तथा व्याधि और रोग से ग्रस्त देखा देखकर वह इस प्रकार बोला- भन्ते! यथाप्रवृत्त चिकित्सकों और यथाप्रवृत्त औषध, भेषन्य तथा भक्तपान से आपकी चिकित्सा करवाता हूँ। भन्ते! आप मेरी यानशाला में आएं। वहाँ प्रासुक (अभिलषणीय) एवं एषणीय पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक को ग्रहण कर विहार करें। १११. ऐसा ही हो--इस प्रकार शैलक अनगार ने राजा मण्डुक के इस को स्वीकार किया। ११२. मण्डुक ने शैलक को वन्दना - नमस्कार किया। वन्दना - नमस्कार कर, वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। ११३. उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर शैलक ने अपने भाण्ड, पात्र आदि उपकरण ले पंथक प्रमुख पांच सौ अनगारों के साथ शैलकपुर नगर में प्रवेश किया। प्रवेश कर जहाँ मण्डुक राजा की यानशाला थी, वहाँ आया। वहाँ आकर प्रासुक, एषणीय, पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक को ग्रहण कर विहार करने लगा। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ नायाधम्मकहाओ पांचवां अध्ययन : सूत्र ११४-११८ ११४. तएणं ते मंडुए तेगिच्छिए सद्दावेइ, सद्दाक्त्ता एवं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! सेलगस्स फासु-एसणिज्जेणं ओसह-भेसज्ज- भत्तपाणेणं तेगिच्छं आउट्टेह ।। ११४. मण्डुक ने चिकित्सकों को बुलाया, उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम प्रासुक, एषणीय औषध, भेषज्य तथा भक्तपान से शैलक की चिकित्सा करो। ११५. तए णं ते तेगिच्छिया मंडुएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा सेलगस्स अहापवत्तेहिं ओसह-भेसज्ज-भत्तपाणेहिं तेगिच्छं आउटुंति, मज्जपाणगं च से उवदिसंति ।। ११५. मण्डुक राजा के ऐसा कहने पर हृष्ट, तुष्ट हुए चिकित्सकों ने यथाप्रवृत्त औषध, भेषज्य तथा भक्तपान से शैलक की चिकित्सा की। उन्होंने उसे मादक-पेय सेवन का भी निर्देश दिया। ११६. तए णं तस्स सेलगस्स अहापवत्तेहिं ओसह-भेसज्ज-भत्तपाणेहिं मज्जपाणएण य से रोगायके उवसंते यावि होत्था--हढे गल्लसरीरे जाए ववगयरोगायंके। ११६. यथाप्रवृत्त औषध, भेषज्य, भक्तपान और मादक-पेय के सेवन से शैलक का रोगांतक उपशान्त हो गया। उसका शरीर हृष्ट, स्वस्थ और रोगातंक से मुक्त हो गया। सेलगस्स पमत्तविहार-पदं ११७. तए णं से सेलए तंसि रोगायकसि उवसंतसि समाणंसि तंसि विपुले असण-पाण-खाइम-साइमे मज्जपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने ओसन्ने ओसन्नविहारी, पासत्थे पासत्थविहारी कुसीले कुसीलविहारी पमत्ते पमत्तविहारी संसत्ते संसत्तविहारी उउबद्ध-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए पमत्ते यावि विहरइ, नो संचाएइ फासु-एसणिज्ज पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरित्तए।। शैलक का प्रमत्त विहार-पद ११७. उस रोगांतक के उपशान्त हो जाने पर भी शैलक उस विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य और मादक-पेय में मूछित, ग्रथित, गृद्ध और अध्युपपन्न हो, अवसन्न, अवसन्न-विहारी, पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थ- विहारी, कुशील, कुशील-विहारी, प्रमत्त, प्रमत्त-विहारी, संसक्त, संसक्त-विहारी तथा ऋतुबद्ध पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक में प्रमत्त होकर विहार करने लगा। वह प्रासुक एवं एषणीय पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक को पुन: गृहस्थों को सौंपकर राजा मंडुक से पूछ बाहर जनपद विहार नहीं कर सका ।१८ साहूहिं सेलगस्स परिच्चाय-पदं ११८. तएणं तेसिं पंथगवज्जाण पंचण्हं अणगारसयाणं अण्णया कयाइ एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं सण्णिविट्ठाणं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियंजागरमाणााणं अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु सेलए रायरिसी चइत्ता रज्जं जाव पव्वइए विउले असण-पाण-खाइम-साइमे मज्जपाणए य मुच्छिए नो संचाइए फासु-एसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरित्तए। नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया! समणाणं निग्गंथाणं ओसन्नाणं पासत्थाणं कुसीलाणं पमत्ताणं संसत्ताणं उउबद्ध-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए पमत्ताणं विहरित्तए। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं कल्लं सेलगं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं वेयावच्चकर ठावेत्ता बहिया अब्भुज्जएणं जणवयविहारेणं विहरित्तए--एवं सपेहेंति, सपहेत्ता कल्लंजेणेव सेलए रायरिसी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेलयं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफलग-सेज्जा-संथारयंपच्चप्पिणति, पच्चप्पिणित्ता पंथयं अणगारं साधुओं द्वारा शैलक का परित्याग-पद ११८. किसी समय पंथक के सिवाय एकत्र, सम्मिलित, समुपागत, सन्निषण्ण और सन्निविष्ट उन पांच सौ अनगारों के मन में अर्द्धरात्रि के समय धर्म-जागरिका करते हुए इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--शैलक राजर्षि राज्य त्याग कर यावत् प्रव्रजित हुए हैं। ये विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य और मादक-पेय में मूर्च्छित हो गए हैं। अत: प्रासुक एवं एषणीय पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक को पुन: गृहस्थों को सौंपकर राजा मंडुक को पूछकर ये बाहर जनपद विहार नहीं कर पा रहे हैं। देवानुप्रियो! श्रमण-निर्ग्रन्थों को अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, प्रमत्त, संसक्त तथा ऋतुबद्ध पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक में प्रमत्त व्यक्तियों के साथ विहार करना नहीं कल्पता। अत: देवानुप्रियो! हमारे लिए उचित है हम प्रभातकाल में शैलक राजर्षि से पूछ प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक गृहस्थों को सौंप शैलक अनगार की सेवा में अनगार पंथक को नियुक्त कर, बहिर्वर्ती जनपदों में अभ्युद्यत विहार करें--उन्होंने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर प्रभातकाल में जहाँ शैलक राजर्षि थे, वहाँ आए। वहाँ आकर शैलक राजर्षि से पूछ, प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या, और संस्तारक गृहस्थों Jain Education Intemational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १५५ वेयावच्चकर ठावेंति, ठावेत्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति ।। पांचवां अध्ययन : सूत्र ११८-१२४ को सौंप। सौंपकर पन्थक अनगार को सेवा में नियुक्त किया। सेवा में नियुक्त कर वे बाहर जनपद विहार करने लगे। पंथगस्स चाउम्मासिय-खामणा-पदं ११९. तएणंसे पंथए सेलगस्स सेज्जा-संथारय-उच्चार-पासवण-खेल्ल- सिंघाणमत्त-ओसह-भेसज्ज-भत्तपाणएणं अगिलाए विणएणं वेयावडियं करेइ। पन्थक द्वारा चातुर्मासिक क्षमापना-पद ११९. पन्थक ने शय्या, संस्तारक, उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, सिंघाण (आदि का परिष्ठापन) तथा औषध, भेषज्य और भक्त-पान के द्वारा शैलक की अग्लान-भाव से विनयपूर्वक सेवा की। १२०. तए णं से सेलए अण्णया कयाइ कत्तिय-चाउम्मासियंसि विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं आहारमाहारिए सुबहु च मज्जपाणयं पीए पच्चावरण्हकालसमयंसि सुहप्पसुत्ते॥ १२०. किसी समय कार्त्तिक चातुर्मासिकी के दिन शैलक ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आहार किया, प्रचुर मादक पेय-पिया और अपराह्नकाल के पश्चात् वह सुखपूर्वक सो गया। १२१. तए णं से पंथए कत्तिय-चाउम्मासिसि कयकाउस्सग्गे देवसियं १२१. पन्थक ने कार्तिक--चातुर्मासिक कायोत्सर्ग किया। दैवसिक प्रतिक्रमण पडिक्कमणं पडिक्कते, चाउम्मासियं पडिक्कमिउकामे सेलगंरायरिसिं किया। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण की इच्छा से उसने शैलक राजर्षि से खामणट्ठयाए सीसेणं पाएसु संघट्टेइ ।। क्षमापना के लिए सिर से उनके पांवों का स्पर्श किया।९ सेलगस्स कोव-पदं १२२. तए णं सेलए पंथएणं सीसेणं पाएस संघट्टिए समाणे आसुरुत्ते कट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे उट्टेइ, उद्वेत्ता एवं वयासी--से केसणं भो! एस अपित्थयपत्थए, दुरंत-पंत-लक्खणे, हीणपुण्णचाउद्दसिए, सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति-परिवज्जिए, जेणं ममं सुहपसुत्तं पाएसु संघट्टेइ? शैलक का कोप-पद १२२. पथक ने ज्यों ही मस्तक से शैलक के पांवों का स्पर्श किया, शैलक क्रोध से तमतमा उठा। वह रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलता हुआ उठा। उठकर इस प्रकार कहा--कौन है रे! यह अप्रार्थित का प्रार्थी! दुरंत प्रांत लक्षण! हीन पुण्यचतुर्दशी का जन्मा! श्री, ही, धृति और कीर्ति से शून्य! जो सुख से सोए हुए मेरे पांवों का स्पर्श कर रहा १२३. तए णं से पंथए सेलएणं एवं वुत्ते समाणे भीए तत्थे तसिए करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी अहं णं भंते! पंथए कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिक्कते, चाउम्मा-सियं खामेमाणे देवाणुप्पियं वंदमाणे सीसेणं पाएसु संघट्टेमि। तं खामेमि णं तुब्भे देवाणुप्पिया! खमंतु णं देवाणुप्पिया! खंतुमरहति णं देवाणुप्पिया! नाइ भुज्जो एवंकरणयाए त्ति कटु सेलयं अणगारं एयमटुं सम्मं विणएणं भुज्जो-भुज्जो खामेइ। १२३. शैलक के ऐसा कहने पर भीत, त्रस्त और तृषित हुए पन्थक ने सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियां से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिका कर इस प्रकार कहा--मैं हूं भन्ते! पन्थक । कायोत्सर्ग और दैवसिक प्रतिक्रमण करने के पश्चात् चातुर्मासिक क्षमापना और देवानुप्रिय को वन्दना करता हुआ मैं आपका सिर से चरणस्पर्श करता हूं। इस अविनय के लिए आपको खमाता हूँ देवानुप्रिय! क्षमा करें देवानुप्रिय ! आप क्षमा करने योग्य हैं देवानुप्रिय! मैं पुन: ऐसा नहीं करूंगा--इस प्रकार उसने इस भूल के लिए शैलक अनगार से भली-भांति विनयपूर्वक पुनःपुन क्षमायाचना की। सेलगस्स अब्भुज्जयविहार-पदं १२४.तएणं तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स पंथएणं एवं कुत्तस्स अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु अहं चइत्ता रज्जं जाव पव्वइए ओसन्ने ओसन्नविहारी, पासत्थे पासत्थविहारी कुसीले कुसीलविहारी पमत्ते पमत्तविहारी शैलक का अभ्युद्यत विहार-पद १२४. पन्थक के ऐसा कहने पर शैलक राजर्षि के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--इस प्रकार मैं राज्य-त्याग कर यावत् प्रवजित हुआ हूं। तथापि अवसन्न, अवसन्न-विहारी, पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थ-विहारी, कुशील, कुशील-विहारी, Jain Education Intemational Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ पांचवां अध्ययन : सूत्र १२४-१२८ १५६ संसत्ते संसत्तविहारी उउबद्ध-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए पमत्ते यावि विहरामि । तं नो खलु कप्पइ समणाणं निग्गंथाणं ओसन्नाणं पासत्थाणं कुसीलाणं पमत्ताणं संसत्ताणं उउबद्ध-पीढ-फलगसेज्जा-संथारए पमत्ताणं विहरित्तए । तं सेयं खलु मे कल्लं मंडुयं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं पच्चप्पिणित्ता पंथएणं अणगारेणं सद्धिं बहिया अब्भुज्जएणं जणवयविहारेणं विहरित्तए--एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कल्लं मंडुयं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग- सेज्जा-संथारगं पच्चाप्पिणित्ता पंथएणं अणगारेणं सद्धिं बहिया अब्भुज्जएणं जणवयविहारेणं विहरइ।। प्रमत्त, प्रमत्त-विहारी, संसक्त, संसक्त-विहारी तथा ऋतुबद्ध पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक में प्रमत्त हो विहार कर रहा हूं। श्रमण-निर्ग्रन्थों को अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, प्रमत्त, संसक्त तथा ऋतुबद्ध पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक में प्रमत्त होकर रहना कल्पता नहीं। अत: मेरे लिए उचित है, मैं प्रात: काल मंडुक राजा को पूछ, प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक गृहस्थों को सौंप अनगार पंथक के साथ बहिर्वर्ती जनपदों में अभ्युद्यत विहार करूं--उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर प्रभातकाल में मंडुक राजा से पूछ प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक गृहस्थों को सौंप अनगार पंथक के साथ बहिर्वर्ती जनपदों में अभ्युद्यत विहार करने लगा। १२५. एवामेव समणाउसो! जे निग्गंथे वा निग्गंथी वा ओसन्ने ओसन्नविहारी, पासत्थे पासत्थविहारी कुसीले कुसीलविहारी पमत्ते पमत्तविहारी संसत्ते संसत्तविहारी उउबद्ध-पीढ-फलग-सेज्जासंथारए पमत्ते विहरइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणंबहूणं सावियाण य हीलणिज्जे निंदणिज्जे खिंसणिज्जे गरहणिज्जे परिभवणिज्जे, परलोए वियणं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंत-संसार-कतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ॥ १२५. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी अवसन्न, अवसन्न-विहारी, पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थ-विहारी, कुशील, कुशील-विहारी, प्रमत्त, प्रमत्तविहारी, संसक्त, संसक्त विहारी तथा ऋतुबद्ध पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक में प्रमत्त होकर विहार करता है, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय, निंदनीय, कुत्सनीय, गर्हणीय और परिभवनीय होता है। परलोक में भी वह बहुत दण्ड को प्राप्त होगा और अनादि, अनन्त, प्रलम्बमार्ग तथा चार अन्तवाले संसार रूपी कान्तार में पुन: पुन: अनुपरिवर्तन करेगा। १२६. तए णं ते पंथगवज्जा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लट्ठा १२६. पन्थक के अतिरिक्त उन पांच सौ अनगारों को जब इस बात की समाणा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु सूचना मिली तो उन्होंने एक दूसरे को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस देवाणुप्पिया! सेलए रायरिसी पंथएणं अणगारेणं सद्धिं बहिया प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शैलक राजर्षि अनगार पन्थक के साथ अब्भुज्जएणंजणवयविहारेणं विहरइ । तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! बहिर्वर्ती जनपदों में अभ्युद्यत विहार करने लगे हैं। अत: देवानुप्रियो! अम्हं सेलगंरायरिसिं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए--एवं सपेहेंति, हमारे लिए उचित है, हम शैलक राजर्षि की उपसम्पदा (निश्रा) में संपेहेत्ता सेलगं रायरिसिं उवसंपज्जित्ता णं विहरति ।। विहार करें--उन्होंने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर शैलक राजर्षि की उपसम्पदा (निश्रा) में विहार करने लगे। १२७. तए णं से सेलए रायरिसी पंथगपामोक्खा पंच अणगारसया जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहति, दुरुहित्ता मेघघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहंति, पडिलेहित्ता जाव संलेहणा-झूसणा-झूसिया भत्तपाण-पडियाइक्खिया पाओवगमणंणुवन्ना॥ १२८. तए णं से सेलए रायरिसी पंथगपामोक्खा पंच अणगारसया बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सहिँ भत्ताई अणसणाए छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्धा बुद्धा मुत्ता अंतगडा परिनिव्वुडा सव्वदुक्खप्पहीणा। १२७. शैलक राजर्षि और पंथक प्रमुख पांच सौ अनगार जहां पुण्डरीक पर्वत था, वहां आए। आकर धीरे-धीरे पुण्डरीक पर्वत पर चढ़े। चढ़कर सघन मेघ जैसे वर्ण वाले और देवों के सामागम स्थल, योग्य पृथ्वी शिलापट्ट का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर यावत् संलेखना की आराधना में समर्पित हो, भक्तपान का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया। १२८. शैलक राजर्षि और पन्थक प्रमुख पांच सौ अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर, मासिक संलेखना में अपने आपको समर्पित कर अनशन काल में साठ भक्तों का परित्याग कर यावत् प्रवर केवल ज्ञान-दर्शन को उत्पन्न कर, उसके बाद सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत और सब दुःखों का अन्त करने वाले हुए। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकाओ १२९. एवामेव समणाउसो! जो निग्गंयो वा निगांची वा अब्युज्जएणं जणक्यविहारेण विहरह से गं इहलोए चैव बहूणं समणानं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नम॑सणिज्जे पूर्वाणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे भवइ, परोएवियनो बहूण हत्यच्छेयणाणि य कण्णच्छेयणाणि य नासाछेयणाणि य एवं हिववउप्पायणाणि य वसणुण्यायणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिद, पुणो अणादयं च णं अणवदग्गं दोहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं बीईवइस्सइ ॥ निक्खेव पदं १३०. एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते । --fer after 11 वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा सिटिलिय संजम कज्जा वि, होइउं उज्जयति जय पच्छा। संवेगाओ ते सेलओ व्व आराहया होंति ।।१।। १५७ पांचवां अध्ययन सूत्र १२९-१३० १२९. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी अभ्युद्यत जनपद-विहार करता है, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याण, मंगल, देव, चैत्य और विनयपूर्वक पर्युपासनीय होता है। परलोक में भी वह नाना प्रकार के हस्त छेदन, कर्ण छेदन, नासा छेदन तथा इसी प्रकार हृदय-उत्पाटन, वृषण-उत्पाटन और फांसी को प्राप्त नहीं करेगा और वह अनादि, अनन्त, प्रलम्ब मार्ग तथा चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार का पार पा लेगा । निक्षेप पद १३०. जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के पांचवे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। ---ऐसा मैं कहता हूँ । वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा १. संयम योग में श्लथ होकर भी बाद में संवेगपूर्वक उद्यत विहारी होने वाले शैलक की भांति आराधक हो जाते हैं । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र-३ १. दशाह (दसार) विवरण हेतु द्रष्टव्य उत्तरज्झयणाणि २२/११ का टिप्पण। सूत्र-६ २. दक्षिणार्ध भरत का (दाहिणड्ड भरहस्स) विवरण हेतु द्रष्टव्य--अतीत का अनावरण पृष्ठ १९९-२०६. ६. गेंडे के सींग की भांति अकेला (खग्गविसाणं व एगजाए) गेंडे के सींग एक ही होता है। वैसे ही मुनि एकाकी रहे। वह अनासक्त और स्वावलम्बी रहे। बौद्ध साहित्य में सुत्त-निपात का तीसरा पूरा अध्याय 'खग्गविसाण' नाम से ही संरचित है। मित्र कैसा हो, कैसे साधक के साथ अध्यात्म की यात्रा सम्पन्न करें--इस विषय में सुन्दर सूचना मिलती है-- अद्धापसंसाम सहायसंपदं सेट्ठा समासे वितव्वासहाया। एते अलद्धाअनवज्ज भोगी, एको चरे खगविसाण कप्पो। बहुस्सुत्तं धम्मधरं भजेथ, मित्तं उरालं पटिभानवंतं । अबाज अत्थानि विनेय्य-कखं, एको चरे खग्ग-विसाण-कप्पो।" सूत्र-२६ ३. दीक्षा के पश्चात् दुःखी (पच्छाउरस्स) इसका तात्पर्य यह है कि यदि कोई अर्हत अरिष्टनेमि के पास दीक्षित होना चाहे तो उसकी दीक्षा के पश्चात् उसका मित्र, ज्ञाति आदि कोई भी दुःखी हो, गरीब हो, ऋणी हो तो उसकी आजीविका की चिन्ता स्वयं कृष्णवासुदेव करेंगे। ___ इससे श्री कृष्ण का आध्यात्मिक अनुराग प्रकट होता है। ४. योगक्षेम (जोगक्खेम) योग का अर्थ है--अनुपलब्ध इष्ट पदार्थ का लाभ। क्षेम का अर्थ है--उपलब्ध इष्ट पदार्थ की सुरक्षा। इन दोनों के द्वारा होने वाली वर्तमान काल की चिन्ता--वार्ता। विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य उत्तरज्झयणणि ७/२४ सूत्र-३५ ५. शान्त, प्रशान्त, उपशान्त, परिनिर्वत (सते पसते उवसते परिनिब्बुडे) १. शान्त--इसका तात्पर्य है, कषायों की इतनी मंदता कि कदाचित क्रोध आदि आ जाने पर भी आकृति पर उसकी झलक न मिले। आकृति पर सौम्यता झलकना। २. प्रशान्त--उदय में आये हुए क्रोध आदि कषायों को विफल कर देना, उन्हें फल शून्य कर देना। ३. उपशान्त--कषाय का उदय में न आना। ४. परिनिर्वृत--पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति। ७. भारण्ड पक्षी की भांति अप्रमत्त (भारण्डपक्खीव अप्पमत्ते) प्रमत्तता और जागरूकता को बताने के लिए जैन साहित्य में इस उपमा का अनेकत्र प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत सूत्र में थावच्चापुत्र अनगार को भारण्डपक्षी की भांति अप्रमत्त बतलाया गया है। वृत्तिकार के अनुसार भारण्डपक्षी के एक शरीर में दो जीव होते हैं। उनके पेट एक होता है। गर्दन पृथक-पृथक होती है। वे अनन्य फलभक्षी होते हैं-दोनों में से कोई एक खाता है। उदर एक है इसलिए दोनों की पूर्ति हो जाती हैं। वे एक दूसरे के प्रति बड़ी सावधानी बरतते है। सतत जागरूक रहते हैं। ' विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य--उत्तरज्झयणाणि ४/६ का टिप्पण। सूत्र-३७ ८. वासी और चन्दन में सम चित्त (वासीचंदणकप्पे) विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य--उत्तरज्झयणाणि १९/९२ का टिप्पण। सूत्र-३८ ९ सामायिक आदि (सामाइयमाइयाई) इस वाक्यांश में सामायिक का प्रयोग ग्यारह अंगों के साथ नहीं किया गया है। १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-११०--पच्छाउरस्सेत्यादि--पश्चात् अस्मिन् राजादौ प्रव्रजिते सति आतुरस्यापि च द्रव्याद्यभावाद् दुःस्थस्य से'--तस्य तदीयस्येत्यर्थः मित्र-ज्ञाति-निजक--सम्बन्धि-परिजनस्य। २. वही--योगक्षेमवार्तमानी प्रतिवहति, तत्रालब्धस्येप्सितस्य वस्तुनो लाभो योगो लब्धस्य परिपालनं क्षेमस्ताभ्यां वर्तमानकालभवा वार्तमानी वार्ता योगक्षेमवार्त्तमानी। ३. वही--सन्ते--सौम्यमूर्त्तित्वात्, पसन्ते--कषायोदयस्य विफलीकरणात्, उपसन्ते--कषायोदयाभावात्, परिनिव्वुडे--स्वास्थ्यातिरेकात् । ४. वही--ज्ञातावृत्ति, पत्र-११०-'खग्गिविसाणं व एगजाए'-खड्गि: आरण्य: पशुविशेषः, तस्य विषाणं शृङ्गं तदेकं भवति, तद्वदेकीजातो योऽसंगत: सहायत्यागेन स। ५. सुत्तनिपात, ३/१३, १४ ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-११०--भारण्डपक्खीव अप्पमत्ते--भारण्डपक्षिणो हि एकोदरा: पृथग्ग्रीवा अनन्यफलभक्षिणो जीवद्वयरूपा भवन्ति. ते च सर्वदा चकितचित्ता भवन्तीति। Jain Education Intemational Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र-१०६ नायाधम्मकहाओ १५९ पांचवां अध्ययन : टिप्पण ९-१८ सामाइयमाइयाई चोद्दसपुव्वाइं--इस वाक्यांश में सामायिक का प्रयोग चौदह १३. चातुर्याम रूप गृहस्थधर्म (चाउज्जामिए गिहिधम्मे) पूर्वो के साथ किया गया है। अर्हत अरिष्टनेमि के समय साधु और गृहस्थ के लिए चातुर्याम धर्म जहां अंगों के साथ सामायिक का प्रयोग है वहां 'सामाइयमाइयाई' का ही विधान था। भगवान महावीर ने गृहस्थ धर्म की व्यवस्था की। वह का अर्थ आचारांग किया जा सकता है किन्तु जहां पूर्वो के साथ सामायिक मध्यवर्ती तीर्थंकरों के समय में नहीं थी इसीलिए यहां गृहस्थ के लिए भी का प्रयोग है वहां सामायिक का अर्थ आचारांग नहीं किया जा सकता। चाउज्जामिए गिहिधम्मे का प्रयोग किया गया है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि सामायिक एक स्वतंत्र अध्ययन रहा है। आवश्यक के संकलन के समय उसे आवश्यक का एक अंग/अध्ययन सूत्र-८३ बना दिया गया। १४. पुण्डरीक पर्वत (पुंडरीयं पव्वयं) प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के गणधर पुण्डरीक ने सर्वप्रथम उस सूत्र-४७ पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया था अत: उपलक्षण से शत्रुजय पर्वत का १०. प्रेमानुराग से अनुरक्त अस्थि, मज्जा वाला .... पोषध व्रत का पुण्डरीक नाम प्रचलित हुआ। सम्यक् अनुपालन करने वाला (अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ते.. पोसहं सम्म अणुपालेमाणे) श्रमणोपासक के विषय में आए हुए उपर्युक्त विशेषणों के लिए १५. प्रस्तुत सूत्र में अंत, प्रांत, निस्सार, रूक्ष और अरस, विरस भोजन द्रष्टव्य-भगवई, खण्ड१, पृष्ठ २१७, २१८. की सम्यक् जानकारी मिलती है अंत--बेर, चने आदि सामान्य अन्न से निष्पन्न भोजन । सूत्र-५२ प्रांत--बचा खुचा भोजन अथवा बासी भोजन। ११. प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त त्रिदण्ड, कमण्डलु, छत्र, त्रिकाष्ठिका, अंकुश, तुच्छ--निस्सार । तांबे की अंगुठी आदि शब्दों के लिए द्रष्टव्य--भगवई,, खण्ड १, पृष्ठ रूक्ष--रूखा भोजन। २१७, २१८ अरस--हींग आदि के बधार से रहित--असंस्कृत भोजन । विरस--पुराना हो जाने के कारण विस्वाद ।" सूत्र-५५ १२. शुक (सुए) सूत्र-१०७ शुक व्यास के पुत्र थे। प्रस्तुत सूत्र में सांख्य दर्शन, उसके १६. रूखा (भुक्खे) सिद्धान्त और सांख्य श्रमणों की विहार-चर्या एवं वेशभूषा पर पर्याप्त यह देशी शब्द है। यहां यह रूक्ष के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्रकाश डाला गया है। यहां निर्दिष्ट कतिपय शब्द मननीय हैंशौच प्रधान दस प्रकार का परिव्राजक धर्म-- सूत्र-११३ पांच यम और पांच नियम--इस प्रकार उसके दस भेद होते हैं-- १७. अपने भाण्ड, पात्र आदि उपकरण (सभंडमत्तोवगरण-मायाए) यम--अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अकिञ्चनता। यहां भाण्ड और अमत्र शब्द पात्र और वस्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। नियम--शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान। 'उपकरण' वर्षाकल्प आदि विशेष वस्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। शुक ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञाता था। अध्ययन आठ में चोक्खा परिव्राजिका के लिए भी ऐसा ही उल्लेख है सूत्र-११७ (८/१३९)। किन्तु इतिहास की दृष्टि से यह आलोच्य है। हो सकता है १८. प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त कुछ शब्द मुनि की संयम के प्रति उदासीनता यह ग्रन्थरचना की एक शैली ही हो कि चारों वेदों का उल्लेख एक साथ और प्रमत्तता के द्योतक हैं। जो मुनि संयम में श्लथ होकर मुनि की चर्या होने लगा। और क्रिया में उपेक्षा भाव बरतने लगता है उसे इन विशेषणों से १. नंदी, सूत्र ७५ का टिप्पण ५. वही, पत्र-११९--अतै--वल्लचणकादिभिः, प्रान्ते:--तैरेव भुक्तावशेषैः २. ज्ञातावृत्ति, पत्र-११६--शुको व्यासपुत्रः । पर्युषितैर्वा, रूक्षैः--नि:स्नेहै:, तुच्छे:--अल्पैः, अरसे:--हिावादिभिरसंस्कृतै-- ३. वही, पत्र-११६, ११७-तत्र पञ्च यमा:--प्राणातिपातविरमणादय:, नियमास्तु विरसै:--पुराणत्वाद् विगतरसैः। शौच--सन्तोष-तप:-स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि शौचमूलकं यमनियममीलनाद् ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-११९--सभंडमत्तोवगरणमायाए त्तिभांड मात्रापतदग्रहपरिच्छदश्च दशप्रकारम्। उकरणं च--वर्षाकल्पादि भाण्डमत्रोपकरणं स्वं च-तदात्मीयंभंड मत्रोपकरणं ४. वही, पत्र-११७--पुण्डरीकेण आदिदेवगणधरेण निर्वाणत उपलक्षित: पर्वतः तदादाय--गृहीत्वा। तस्य तत्र प्रथमं निर्वृतत्वात् पुण्डरीकपर्वतः शत्रुजयः । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां अध्ययन : टिप्पण १८-१९ १६० विशेषित किया गया है। प्रमाद अनेक विषयों में अनेक प्रकार का होता है है लम्बे समय तक प्रतिसेवना करना । इसीलिए उन विभिन्न अवस्थाओं को अभिव्यक्त करने के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है। ओसन्ने, ओसन्नविहारी - विहित अनुष्ठान के सम्पादन में आलस्य करने वाला । आवश्यक, स्वाध्याय, प्रत्युपेक्षणा, ध्यान आदि को सम्यक्तया सम्पादित न करने वाला।' पासत्थे पासत्थविहारी पार्श्वस्थ - ज्ञान आदि की आराधना के पार्श्व से बाहर रहने वाला। पार्श्वस्थ विहारी - बहुत दिनों तक पार्श्वस्थ बनकर वर्तन करने वाला -- रहने वाला। यहां 'विहारी' शब्द के प्रयोग में अतिरिक्त तात्पर्य निहित है, वह यह है कि बीमारी आदि कारण के बिना प्रमादवश यदि कोई मुनि शय्यातर, अभ्याहृत आदि पिण्डग्रहण रूप प्रतिसेवना का कदाचित् सेवन कर ले तो वह पार्श्वस्थ विहारी नहीं कहलाता। यहां 'विहार' से तात्पर्य १. जस्तावृत्ति पत्र १२० अवसन्नो विवक्षितानुष्ठानालसः, आवश्यकस्वाध्याय-प्रत्युप्रेक्षणाध्यानादीनामसम्यकुमारीत्यर्यः । २. वही पार्श्वे ज्ञानादीनां वहिष्ट पार्श्वस्यः । ३. वही पार्श्वस्थानां यो विहारो बहूनि दिनानि यावत् तथा वर्तनं स पार्श्वस्यविहारः योऽस्यास्तीति पार्श्वस्थविहारी। ही है। नायाधम्मकहाओ यहां 'विहारी' शब्द का अर्थ सर्वत्र दीर्घकालीन प्रतिसेवना पत्ते, पमत्तविहारी - मद्य, विषय आदि पांच प्रकार के प्रमाद स्थानों का सेवन करने वाला। कुसीले, कुसील विहारी--काल, विनय आदि भेद-भिन्न ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विराधक । संसत्ते, संसत्तविहारी -- कदाचित् संविग्न गुणों और कदाचित् पार्श्वस्थदोषों का सेवन करने के कारण ऋद्धि, रस और साता - इस गौरव त्रयी से संसक्त रहने वाला।' सूत्र - १२१ १९. प्रतिक्रमण के पांच प्रकार हैं---१. दैवसिक २. रात्रिक ३. पाक्षिक ४. चातुर्मासिक ५. सांवत्सरिक । प्रस्तुत सूत्र में एक साथ दो प्रतिक्रमण करने का उल्लेख है। ४. वही - प्रमत्तः पञ्चविध प्रमादयोगात् । ५. वही कुशील: कालाविनयादि भेदभिन्नानां ज्ञान दर्शन- चारित्राचाराणां विराधक इत्यर्थः । ६. वहीत कदाचित् सविन गुणानां कदाचित् पार्श्वस्यादिद सम्बन्धात् गौरवत्रयसंसजनाच्चेति । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख जयन्ती ने भगवान महावीर से पूछा- भते! जीव भारी कैसे होता है? भगवान ने कहा जयन्ती ! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य रूप उद्धारह पापस्थानों के सेवन से जीव भारी होता है प्राणातिपात आदि के विरमण से जीव हल्का होता है। भार व्यक्ति को नीचे ले जाता है। जो हल्का होता है, वह ऊपर आ जाता है। आचार्य भिक्षु ने इसी तथ्य को उदाहरण से समझाते हुए कहा -- ढब्बुशाही पैसा' पानी में डालो, वह डूब जाएगा । उस पैसे की कटोरी बनाओ, वह तर जाएगी। पैसे को कटोरी का नया आयाम मिला, वह तर गया। चित्त जैसे-जैसे भारी होता है, अधोगामी हो जाता है । चित्त को नया आयाम देकर उसे हल्का बना दें। वह ऊपर आ जाएगा। हल्कापन अधोगामी चित्त को ऊर्ध्वगामी बना देता है। प्रस्तुत अध्ययन 'तुम्ब' का प्रतिपाद्य भी यही है । सूत्रकार ने उदाहरण की भाषा में कहा--तुम्बा हल्का होता है । कोई व्यक्ति यदि उस तुम्बे को डाभ और कुश से आवेष्टित कर उस पर मिट्टी का लेप लगाए और उसे धूप में सुखाए तो वह कुछ भारी हो जाएगा। पानी में डालते ही डूब जाएगा । जल में प्रक्षिप्त तुम्बा जब आर्द्रता को प्राप्त करता है, मिट्टी के लेप उतरने लगते हैं। क्रमशः आठों लेपों के आर्द्र, कुधित और परिशटित हो जाने पर वह पूर्णतया हल्का होकर पुन: पानी की सतह पर आ जाता है । जीव अट्ठारह पापों से विरत होकर क्रमशः आठों कर्मप्रकृतियों को क्षीण कर देता है एक क्षण आता है वह पूर्णतया कर्ममुक्त होकर लोक के अग्रभाग पर प्रतिष्ठित हो जाता है। प्रस्तुत विवेचन का निष्कर्ष यही है हल्के बनो। ऊर्ध्वारोहण की बहुत बड़ी बाधा है कर्मों का भारीपन भोगासक्ति व्यक्ति भारी बनाती है । भोगासक्त व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता है । जो भोग से त्याग की ओर प्रस्थान कर देता है, वह हल्का होकर ऊर्ध्वारोहण कर लेता है। भोगासक्ति से ऊपर उठना ही अध्यात्म का प्रशस्त मार्ग है। १. ढब्बुशाही पैसा -- अस्सी तोलों का एक सेर। एक सेर के बीस ढब्बुशाही पैसे होते हैं। एक पैसा लगभग ५० ग्राम का समझना चाहिए। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठें अज्झयणं : छठा अध्ययन तुम्बे : तुम्ब उक्खेव-पदं १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, छट्ठस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अढे पण्णते? उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के पांचवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते! उन्होंने ज्ञाता के छठे अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं। ___ परिसा निग्गया। २. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह में समवसरण जुड़ा। परिषद ने निर्गमन किया। ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते जाव सुक्कज्झाणोवगए विहरइ।। ३. उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नाम के अनगार श्रमण भगवान महावीर के न दूर न निकट यावत् शुक्लध्यान को प्राप्त हो, विहार कर रहे थे। गरुयत्त-लहुयत्त-पदं ४. तए णं से इंदभूई नामं अणगारे जायसड्ढे माव एवं वयासी--कहण्णं भंते! जीवा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा हव्वमागच्छंति? गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे एगं महं सुक्कतुंब निच्छिदं निरुवहयं दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढेत्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ, लिंपित्ता उण्हे दलयइ, दलयित्ता सक्कं समाणं दोच्चंपि दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, वेढेत्ता मट्टियालेवेणं लिंपइ, लिपित्ता उण्हे दलयइ, दलयित्ता सुक्कं समाणं तच्चपि दब्भेहि य कुसेहि य वेढेइ, मट्टियालेवेणं लिंपइ, उण्हे दलयइ । एवं खलु एएणुवाएणं अंतरा वेढेमाणे अंतरा लिंपमाणे अंतरा सुक्कवेमाणे जाव अट्ठहिं मट्टियालेवेहि लिंपइ, अत्थाहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा। से नूणं गोयमा! से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं मट्टियालेवेणं गरुट गए भारिययाए गरुय-भारिययाए उप्पिं सलिलमइवइत्ता अहे णियल-पइट्ठाणे भवइ।। ___एवामेव गोयमा! जीवा वि पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिण्णादाणेणं मेहुणेणं परिग्गहेणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ समज्जिणित्ता तासिं गरुययाए भारिययाए गरुय-भारिययाए कालमासे कालं किच्चा धरणियलमइवइत्ता अहे नरगतल-पइट्ठाणा भवंति । एवं खलु गोयमा! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति । अह णं गोयमा! से तुंबे तंसि पढमिल्लुगंसि मट्टियालेवंसि तित्तंसि कुहियंसि परिसडियंसि ईसिं धरणियलाओ उप्पतित्ता णं चिट्ठइ। तयाणंतरं दोच्चं पि मट्टियालेवे तित्ते कुहिए परिसडिए ईसिं घरणियलाओ उप्पतित्ता णं चिट्ठइ। एवं खलु एएणं उवाएणं तेसु अट्ठसु मट्टियालेवेसु गुरुत्व-लघुत्व पद ४. इन्द्रभुति अनगार के मन में एक श्रद्धा उत्पन्न हुई यावत् वे इस प्रकार बोले--भन्ते! जीव गुरुता और लघुता को कैसे प्राप्त होते हैं? ___ गौतम! जैसे कोई पुरुष एक निश्छिद्र, निरुपहत, सूखे हुए बड़े से तुम्बे को डाभ और कुश से आवेष्टित करता है। आवेष्टित कर उस पर मिट्टी का लेप करता है। लेप कर उसे धूप में रखता है और धूप में रखने पर जब वह सूख जाता है तो दूसरी बार भी उसे डाभ और कुश से आवेष्टित करता है, उस पर मिट्टी का लेप करता है, मिट्टी का लेप कर उसे धूप में रखता है और धूप में रखने पर जब वह सूख जाता है तो तीसरी बार भी उसे डाभ और कुश से आवेष्टित करता है, उस पर मिट्टी का लेप करता है और धूप में रखता है। इस प्रकार इस उपाय से बीच-बीच में डाभ-कुश से आवेष्टित करता हुआ, लेप करता हुआ, सुखाता हुआ यावत् आठ बार मिट्टी का लेप करता है। तत्पश्चात् उसे अथाह, अतर और पुरुष प्रमाण से भी अधिक गहरे पानी में प्रक्षिप्त करता है। गौतम! वह तुम्बा मिट्टी के लेप की उन आठ आवृत्तियों के कारण गुरु और भारी हो जाता है। गुरुता और भारीपन के कारण वह पानी सतह को छोड़कर नीचे धरती के तल में प्रतिष्ठित हो जाता है। गौतम ! इसी प्रकार जीव भी प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के कारण क्रमश: आठ कर्म प्रकृतियों का अर्जन करते हैं। उन (कर्म प्रकृतियों) की गुरुता और भारीपन के कारण वे गुरु और भारी हो जाते हैं और इसीलिए मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर वे धरणीतल का अतिक्रमण कर नीचे नरकतल में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। गौतम! इस प्रकार जीव गुरुता को Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १६३ तित्तेसु कुहिएसु परिसडिएसु (से तुबे?) विमुक्कबंधणे अहे घरणियलमइवइत्ता उप्पिं सलिलतल-पइट्ठाणे भवइ। ___ एमामेव गोयमा! जीवा पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्ल-वेरमणेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ खवेत्ता गगणतलमुप्पइत्ता उप्पिं लोयग्ग-पइट्ठाणा भवंति। एवं खलु गोयमा! जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति।। छठा अध्ययन : सूत्र ४-५ प्राप्त होते हैं। गौतम! उस पहले मिट्टी के लेप के आर्द्र, कुथित और परिशटित हो जाने पर वह तुम्बा धरती के तल से कुछ ऊपर आ जाता है। तदनन्तर दूसरे मिट्टी के लेप के भी आर्द्र, कुथित और परिशटित हो जाने पर वह धरती के तल से कुछ (और) ऊपर आ जाता है। इस प्रकार इस उपाय से मिट्टी के उन आठों ही लेपों के आर्द्र, कुथित और परिशटित हो जाने पर (वह तुम्बा?) बन्धन मुक्त होकर धरती के निम्न तल का अतिक्रमण कर ऊपर पानी की सतह पर प्रतिष्ठित हो जाता है। गौतम! इसी प्रकार जीव प्राणातिपात विरमण यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विरमण के कारण क्रमश: आठ कर्म प्रकृतियों को क्षीण कर गगनतल में उत्पात कर ऊपर लोकान में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। गौतम! इस प्रकार जीव लघुता को प्राप्त होते हैं। निक्खेव-पदं ५. एवं खलु जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छठुस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। --त्ति बेमि॥ निक्षेप-पद ५. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के छठे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया --ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा जह मिउलेवालित्तं, गुरुयं तुंबं अहो वयइ। एवं कय-कम्मगुरू, जीवा वच्चंति अहरगइं।।१।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धत निगमनगाथा१. जैसे मिट्टी के लेप से उपलिप्त तुम्बा भारी होने से नीचे चला जाता है। वैसे ही कृतकर्मों से भारी हुए जीव अधोगति में जाते हैं। तं चेव तविमुक्कं, जलोवरिं ठाइ जाय-लहुभावं। जह तह कम्म-विमुक्का, लोयग्ग-पइट्ठिया होति ।।२।। २. जैसे वही तुम्बा मिट्टी के लेप से मुक्त हो हल्का होकर पानी की सतह पर आ जाता है, वैसे ही कर्ममुक्त जीव लोकान में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। Jain Education Intemational Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख अस्तित्व की दृष्टि से सभी जीव समान हैं। फिर भी व्यवहार जगत में भिन्नता अथवा तारतम्य दृष्टिगोचर होता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में योग्यता का तारतम्य होता है, समझ और मस्तिष्कीय क्षमता का अन्तर होता है, ग्रहणशीलता और पुरुषार्थ में भी भेद होता है। एक ही विषय को पढ़ने वाले विद्यार्थियों में ज्ञान की तरतमता रहती है वैसे ही मनुष्यों में चिन्तन, समझ और भविष्य दर्शन की तरतमता होती है। रोहिणी का दृष्टान्त साधना के क्षेत्र में संवेग और चित्तवृत्ति की तरतमता को समझाने के लिए सुन्दर दृष्टान्त है। सेठ ने अपनी चारों पत्रवधुओं को पांच-पांच चावल दिए और कहा--जब मैं मांगू, इन्हें लौटा देना। उज्झिता के संवेग संतुलित नहीं थे। उसने सोचा--पांच चावलों का क्या? उसने उन्हें फेंक दिया। भोगवती ने उज्झिता की अपेक्षा सन्तुलित मनोवृत्ति का परिचय दिया। ससुर के हाथ से प्राप्त चावलों को फैंका नहीं, खा लिया। रक्षिता ने सेठ की बात का आदर किया। मुझे यही दाने लौटाने हैं अत: उनका सम्यक् संरक्षण कर अपने नाम को सार्थक कर दिया। रोहिणी ने सेठ द्वारा प्राप्त चावलों का संगोपन, संवर्द्धन किया। साधना के क्षेत्र में भी उपर्युक्त चारों मनोवृत्तियां देखी जा सकती हैं। कुछ साधक प्रतिकूल परिस्थिति आते ही सन्तुलन खो देते हैं, स्वीकृत महाव्रतों का परित्याग कर देते हैं। कुछ व्रत ग्रहण करके भी अपनी आसक्ति का परित्याग नहीं कर पाते अत: परमार्थपथ में अपनी वरीयता स्थापित नहीं कर पाते। कुछ साधक रोहणी के समान नया विकास करते हैं, प्रगति में पुरुषार्थ का नियोजन करते हैं। भिन्न भिन्न देश, काल और भाषाओं में इस कथा का संक्रमण हुआ है। वृत्तिकार ने निगमन गाथाओं में इसके विभिन्न पात्रों की प्रतीक योजना प्रस्तुत की है-- प्रतीक गुरु पात्र धन सार्थवाह जातिजन पांच शालिकण उज्झिता भोगवती रक्षिता रोहिणी श्रमणसंघ पंच महाव्रत मोह के वशीभूत होकर महाव्रतों का त्याग करने वाला साधक जीविकोपार्जन, आहार आदि के लिए महाव्रतों का पालन करने वाला साधक महाव्रतों का निरतिचार पालन करने वाला साधक तीर्थप्रभावना में कुशल साधक । Jain Education Intemational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्लेव पदं - सत्तमं अज्झयणं : सप्तम अध्ययन रोहिणी : रोहिणी १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं छट्ठस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, सत्तमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? २. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे हत्था। सुभूमिभागे उज्जाणे ।। धणसत्थवाह-पदं ३. तत्थ णं रायगिहे नयरे धणे नामं सत्यवाहे परिवसइ -- अड्ढे जाव अपरिभूए । भद्दा भारिया -- अहीणपंचिंदियसरीरा जाव सुरूवा ।। ४. तस्स णं धणस्स सत्यवाहस्स पुत्ता भद्दाए भारियाए अत्तया चत्तारि सत्यवाहदारगा होत्या, तं जहा धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरखिए। ५. तस्स णं धणस्स सत्यवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुहाओ होत्या, तं जहा -- उज्झिया भोगवझ्या रक्खिया रोहिणिया ।। घणस्स परिक्खापओग-पदं ६. तए णं तस्स धणस्स सत्थवाहस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि इमेयारूये अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकष्ये समुप्यज्जित्था एवं खतु अहं रायविहे नयरे बहूणं ईसर - तलवर - माडंबिय - कोडुबिय- इब्म - सेट्ठि - सेणावइ-सत्यवाहपभितीणं सयस्स य कुटुंबस्स बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य कोडुबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे परिपृच्छणिज्जे, मेढी पमाणं आहारे आलंबणे चक्लू, मेढीभूते पमाणभूते आहारभूते आलंबणभूते चालूभूए सव्वकज्जवडावए । तं न नज्जइ णं मए गयंसि वा चुयंसि वा मयंसि वा भग्गंसि वा लुग्गंसि वा सडियंसि वा पडियंसि वा विदेसत्यंसि वा विप्पवसियंसि वा इमस्स कुटुंबस्स के मन्ने आहारे वा आलंबे वा पहिबंधे वा भविस्सह? तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उड्डियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते विपुलं असणं पाण साइमं साइमं उक्क्खडावेता मित्त-नाइ-नियम-सयण-संबंधि उत्क्षेप-पद १. भन्ते ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के छठे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते ! उन्होंने ज्ञाता के सातवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. जम्बू ! उस काल और समय राजगृह नाम का नगर और सुभूमिभाग उद्यान था। धन सार्थवाह पद ३. उस राजगृह नगर में धन नाम का सार्थवाह रहता था। वह आढ्य यावत् अपराजित था। उसके भद्रा नाम की भार्या थी। वह अन पंचेन्द्रिय शरीर वाली यावत् सुरूपा थी। ४. उस धन सार्थवाह के पुत्र, भद्रा भार्या के आत्मज चार सार्थवाहथे जैसे धनपाल, धनदेव, धनगोप और धनरक्षित । ५. धन सार्थवाह के चारों पुत्रों की चार भार्याए-चार बहुएं थी। जैसे-उज्झिता, भोगवती, रक्षिता और रोहिणी । धन द्वारा परीक्षा प्रयोग- पद ६. किसी समय मध्यरात्रि के समय धन सार्थवाह के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-राजगृह नगर में बहुत से ईश्वर तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि के एवं स्वयं अपने कुटुम्ब बहुत से कार्यों, कारणों, कर्त्तव्यों, मन्त्रणाओं, गोपनीय कार्यों, रहस्यों, निश्चयों और व्यवहारों में मेरा मत पूछा जाता है, बार-बार पूछा जाता है। मैं उनके लिए मेढ़ी, प्रमाण, आधार, आलम्बन और चक्षु हूँ। मेढ़ीभूत, प्रमाणभूत, आधारभूत, आलम्बनभूत और चक्षुभूत हूँ तथा उनके समस्त कार्यों का संवर्द्धन करने वाला हूँ। अतः न जाने मेरे चले जाने, च्युत हो जाने, मर जाने, भग्न और रुग्ण हो जाने, सड़ जाने, गिर जाने, विदेश चले जाने या प्रवासी बन जाने पर इस कुटुम्ब का आधार, आलम्बन अथवा प्रतिबंध कौन होगा? अतः मेरे लिए उचित है, मैं उषाकाल में पौ फटने पर यावत्सहस्त्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ परियणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेत्ता तं मित्त-नाइनियम- सयण-संबंधि-परियणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गं विपुलेणं असण पाणखाइम साइमेणं धूव पुप्फ-वत्य-गंधमल्लालंकारेण य सक्कारेता सम्माणेता तस्सेव मित्त-नाइनियम- सपण संबंधि परियणस्स चउण्ड व सुण्हाणं कुलघरवग्गस्त पुरओ उन्हं सुण्हाणं परिवखगट्टयाए पंच-पंच सालिअक्स्त्रए दलता जाणामि ताव का किह वा सारखे वा ? संगोवे वा ? संवड्ढेइ वा ? एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, मित्त-नाइ - नियगसयण-संबंधि-परियणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेइ, तओ पच्छा पहाए भोषणमंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्त-नाइनियम- सयण संबंधि- परिवणेणं चठण्ड व सुण्हाणं कुलधरवगेणं सद्धिं तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसादेमाणे जाव सक्कारेड, सक्कारेत्ता तस्सेव मिलना नियग-रायण संबंधि मित्त-नाइपरियणस्स चउन्हय सुम्हाणं कुलधरवग्गस्स पुरओ पंच सालिजक्खए गेण्डर, गेण्हित्ता जे सुन्हं उज्झियं सदावेद, सहावेत्ता एवं क्यासी तुमं णं पुत्ता! मम हत्याओ इमे पंच सालिजक्लए गेहाहि, अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी विहराहि । जया अहं पुत्ता! तुमं इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जा, तया णं तुमं मम इमे पंच सालिअक्सए पडिनिज्जाएज्जासि त्ति कट्टु सुहाए हत्ये दलयइ, दलइत्ता पडिविसज्जेइ ।। -- - ७. तए गं सा उज्झिया धणस्स तह त्ति एवम पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता धणस्स सत्यवाहस्स हत्याओ ते पंच सालिअक्लए गेण्ड गेण्डित्ता एतमवक्कमइ, एगंतमवक्कमियाए इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकल्ये समुप्यज्जित्था एवं खलु तायाणं कोद्वागारंसि बहवे पल्ला सालीणं परिपुष्णा चिट्ठति, सं जपा गं मम ताओ इमे पंच सालिअक्खए जाएसइ, तया णं अहं पल्लंतराओ अण्णे पंच सालिअक्खए गहाय दाहामि त्ति कट्टु एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता ते पंच सालिअक्खए एगंते एडेइ, सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्या ।। ८. एवं भोगवइयाए वि, नवरं सा छोल्लेह, छोल्लेत्ता अणुगिलह अणुगिलित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्या ।। १६७ ९. एवं रक्खियाए वि, नवरं - गेण्हइ, गेण्हित्ता एगंतमवक्कमइ, , सप्तम अध्ययन सूत्र ६-९ जाने पर विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तैयार करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी परिजनों और चारों बहुओं के पीहर वालों को आमन्त्रित कर उन मित्र ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों को विपुल, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा धूप, पुम, वस्त्र, गन्धचूर्ण माला और अंलकारों सत्कृत सम्मानित कर उन्हीं मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने चारों बहुओं की परीक्षा के लिए उन्हें पांच-पांच शातिकण देकर यह जानूं कि कौन किस प्रकार उनका संरक्षण, संगोपन अथवा संवर्धन करती है। उसने ऐसी सप्रेक्षा की । सप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्त्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर, विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाए। मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों को आमन्त्रित किया। उसके बाद उसने स्नान कर भोजन मंडप में प्रवर सुखासन में बैठ उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के साथ उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन किया यावत् उनको सत्कृत किया। सत्कृत कर उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने ही पाँच शालिकण ग्रहण किए। ग्रहण कर बड़ी बहू उज्झिता को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा -- बेटी! तू मेरे हाथ से ये पांच शालिकण ग्रहण कर और क्रमशः इनका संरक्षण और संगोपन करती रह। बेटी ! मैं जब से तुझ पांच शालिक मागू, तब तू मुझे ये पांच शालिकण लौटा देना- ऐसा कहकर उसने बहू के हाथ में शालिकण दिए। देकर उसे प्रतिविसर्जित कर दिया। ७. उज्झिता ने 'तथास्तु' कहकर धन सार्थवाह के इस कथन को स्वीकार किया। स्वीकार कर उसने धन सार्थवाह के हाथ से पाँच शालिकण लिए । लेकर एकान्त में गई । एकान्त में जाने पर उसके मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ पिताजी के कोष्ठागार में चावलों के बहुत पल्प भरे हैं। अतः यदि पिताजी मुझसे ये पाँच शालिकण मांगेंगे तो मैं किसी पल्य में से पांच शालिकण निकालकर दे दूंगी-उसने ऐसी संप्रेक्षा की संप्रेक्षा कर उन पाँच शालिकणों को एकान्त में फेंक दिया और अपने काम में लग गई। 1 11 ८. भोगवती का भी ऐसा ही वर्णन है। इतना विशेष है-उसने शालिकणों को छीला ( निस्तुष किया) छीलकर निगल गई और अपने काम में लग गई। ९. रक्षिता का भी ऐसा ही वर्णन है। इतना विशेष है उसने शालिकम Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन सूत्र ९-१२ १६८ एतमवक्कमियाए इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुष्यज्जित्या एवं खलु ममं ताओ इमस्स मित्त-नाइनियम- सण-संबंध परियणस्स चउण्ड व सुण्हाणं कुलधरवणस्स पुरओ सद्दावेता एवं वयासी--तुमं णं पुत्ता! मम हत्याओ इमे पंच सालिञ्जयखए गेण्डाति, अणुपुब्वेगं सारक्खमाणी संगोवेमाणी विहराहि । जया णं अहं पुत्ता! तुमं इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जा, तया गं तुमं मम इमे पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएज्जासि कट्टु मम हत्याँस पंच सालिअक्लए दलवई । तं भवियव्यमेत्य कारणेणं ति कट्टु एवं सपेहेछ, सपेहेत्ता ते पंच सालिअक्लए सुद्धे वत्थे बंध, बंधित्ता रयणकरंडियाए पक्खिवइ, पक्खिवित्ता उसीसामूले ठावे, ठावेता तिनं पहिजागरमाणी- पहिजागरमाणी विहर।। -- १०. तए गं से धणे सत्यवाहे तहेब मित्त-नाइ नियग-सयणसंबंधि- परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ पंच सालिअक्खए गेह, गेन्हित्ता चउत्थं रोहिणीयं सुण्हं सहावे, सदावेत्ता एवं वयासी तुमं णं पुत्ता! मम हत्याओ इमे पंच सालिअक्खए गेहाहि, जाव गेण्हइ, गेण्हित्ता एगंतमवक्कमइ, एतमवक्कमियाए इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्यज्जित्था एवं खलु ममं ताओ इमस्त मित्त नाइ नियम- सयण संबंधि परियणस्स चउन्ह व सुण्हाणं कुलधरवग्यस्स पुरओ सदावेता एवं क्यासी तुमं णं पुत्ता! मम हत्याओ इमे पंच सालिअक्सए मेण्हारि, अणुपुब्वेणं सारक्खमाणी गोमाणी विहराहि । जया णं अहं पुत्ता! तुमं इमे पंच सालिअक्खए जाएजा तथा गं तुमं मम इमे पंच सालिजक्लए परिनिज्जा एज्जासि त्ति कट्टु मम हत्पति पंच सातिअक्लए दलय । तं भविय एत्थ कारणेणं । तं सेयं खलु मम एए पंच सालिअक्खए सारक्खमाणीए संगोवेमाणीए संवड्ढेमाणीए त्ति कट्टु एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कुलघर पुरिसे सदावे सहावेत्ता एवं क्यासी तुम्भे गं देवाप्पिया! एए पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता पढमपाउसंसि महाबुद्विकार्यसि निवइयसि समाणसि खुट्टागं केयारं सुपरिकम्मियं करेह, करेत्ता इमे पंच सालिअक्सए वावेह, वाक्ता दोच्चं पि तन्वं पि उक्खय-निहए करेह, करेत्ता वाडिपक्खेवं करेह, करेत्ता सारक्खमाणा संगोवेमाणा अणुपुष्येणं संवद्वेश ।। -- ११. लए णं ते कोडुबिया रोहिणीए एयमहं पडिसुर्णेति ते पंच सालिअक्सए गेहंति, अणुपुब्वेगं सारक्खति, संगोविंति ।।. १२. तए णं कोडुबिया पदमपाउससि महावुट्ठिकार्यसि निवइयंसि समाणसि खुट्टागं पारं सुपरिकम्मियं करेति, ते पंच सालिअक्खए ववंति, दोच्चं पि तच्च पि उक्खय-निहाए करेंति, वाडिपरिक्लेव करेति, नायाधम्मकहाओ लिए लेकर एकान्त में गई। एकान्त में जाने पर उसके मन में इस । प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-- पिताजी ने इन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने बुलाकर मुझे इस प्रकार कहा--बेटी ! तू मेरे हाथ से ये पांच शालिकण ले और क्रमश: इनका संरक्षण, संगोपन करती रह। बेटी! जब मैं तुमसे ये पांच शालिकण मांगू, तब, तू मुझे ये पांच शालिकण लौटा देना ऐसा कहकर उन्होंने मेरे हाथ में पांच शालिकण दिए । अतः यहाँ कोई न कोई कारण होना चाहिए उसने ऐसी सप्रेक्षा की सप्रेक्षा कर उन पांच शालिकणों को शुद्ध वस्त्र में बांधा। बांधकर उसे रत्न निर्मित डिबिया में रखा । रखकर उसे अपने तकिये (सिरहाने) के नीचे रखा । रखकर तीनों संध्याओं में उसकी देखभाल करती हुई विहार करने लगी I, 1 ! १०. धन सार्थवाह ने उसी प्रकार मित्र, जाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने पांच शालिकण लिए। लेकर चौथी बहू रोहिणी को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा -- बेटी! तू मेरे हाथ से ये पांच शालिकण ले यावत् उसने लिए । लेकर एकान्त में गई। एकान्त में जाने पर उसके मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-ताजी ने इन मित्र ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने बुला कर मुझे इस प्रकार कहा---बेटी ! तू मेरे हाथ से ये पांच शालिकण ग्रहण कर और क्रमश: इनका संरक्षण, संगोपन करती रह बेटी! मैं जब तुझसे ये पांच शलिकण मागूं, तब तू मुझे ये पांच शालिकण लौटा देना - ऐसा कहकर मेरे हाथ में पांच शालिकण दिए। अतः यहां कोई न कोई कारण होना चाहिए। अत: मेरे लिए उचित है, मैं इन पांच शालिकणों का संरक्षण, संगोपन और संवर्धन करूं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर अपने पीहर वाले पुरुषों को बुलाया। बुलाकर वह इस प्रकार बोली--देवानुप्रियो ! तुम ये पांच शालिकण लो। इन्हें लेकर प्रथम पावस में महावृष्टि होने पर एक छोटे खेत को भलीभांति परिकर्मित करो। परिकर्मित कर ये पांच शालिकण बोओ। बोकर उन्हें दूसरी-तीसरी बार शालि निष्पन्न हो जाने पर वहां से उखाड़ कर दूसरे स्थान में रोपो । रोपकर खेतों के बाड़ लगाओ। बाड़ लगाकर उनका संरक्षण, संगोपन करते हुए क्रमश: संवर्धन करो। ११. उन कौटुम्बिक जनों ने रोहिणी के इस कथन को स्वीकार किया। उन पांच शालिकणों को ग्रहण किया और क्रमशः उनका संरक्षण, संगोपन करने लगे । १२. उन कौटुम्बिक जनों ने प्रथम पावस में महावृष्टि होने पर एक छोटे खेत को भली-भांति परिकर्मित किया। उसमें वे पांच शालिकण बोए दूसरी-तीसरी बार भी उन्हें उखाड़कर दूसरे स्थान में रोपा। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ नायाधम्मकहाओ अणुपुव्वेणं सारक्खेमाणा संगोवेमाणा संवड्ढेमाणा विहरति ।। सप्तम अध्ययन : सूत्र १२-१८ खेतों के बाड़ लगाई और क्रमश: उनका संरक्षण, संगोपन और संवर्द्धन करने लगे। १३. तए णं ते साली अणुपुव्वेणं सारक्खिज्जमाणा संगोविज्जमाणा १३. इस प्रकार वे (खेत में बोए गए) शालिकण क्रमश: संरक्षण, संगोपन संवड्ढिज्जमाणा साली जाया--किण्हा किण्होभासा नीला नीलोभासा और संवर्द्धन पाते हुए शालि बन गए। वे (खेतों में लहलहाते शालि) हरिया हरिओभासा सीया सीओभासा णिद्धा णिद्धोभासा तिव्वा कृष्ण, कृष्ण प्रभावाले, नील, नील प्रभा वाले, हरित, हरित प्रभावाले, तिब्वोभासा किण्हा किण्हच्छाया नीला नीलच्छाया हरिया शीत, शीत प्रभावाले, स्निग्ध, स्निग्ध प्रभा वाले, तीव्र, तीव्र प्रभा वाले, हरियच्छाया सीया सीयच्छाया णिद्धा णिद्धच्छाया तिव्वा तिब्वच्छाया कृष्ण, कृष्ण छाया वाले, नील, नील छाया वाले, हरित, हरित छाया घणकडियकडच्छाया रम्मा महामेह-निउरंबभूया पासाईया वाले, शीत, शीत छाया वाले, स्निग्ध, स्निग्ध छाया वाले, तीव्र, तीव्र दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा।। छाया वाले, सघन और चटाई के पट्टों की भांति परस्पर सटी हुई छाया वाले, सुरम्य, महामेघ-पटली के समान मन को प्रसन्न करने वाले. दर्शनीय, सुन्दर और असाधारण बन गए। १४. तए णं ते साली पत्तिया वत्तिया गब्भिया पसूइया आगयगंधा खीराइया बद्धफला पक्का परियागया सल्लइय-पत्तइया । हरिय-फेरंडा जाया यावि होत्था।। १४. उन शालि-क्षुपों (छोटी शाखा वाले वृक्षों) के पत्ते आए, वे गोल हुए। गर्भित हुए। प्रसूत हुए। उनमें सुगन्ध फूटी। उनमें दूधिया द्रव-रस पैदा हुआ। दाने पडे। दाने पके। वे निष्पन्नप्राय: हुए। पत्ते सूखकर, मुड़ कर सल्लकी (सलई पेड़) के पत्तों जैसे हो गए और पर्व काण्ड हरित हो गए। १५. तए णं ते कोडुंबिया ते साली पत्तिए वत्तिए गम्भिए पसूइए आगयगंधे खीराइए बद्धफले पक्के परियागए सल्लइय-पत्तइए जाणित्ता तिक्खेहिं नवपज्जणएहिं असिएहिं लुणंति, लुणित्ता करयलमलिए करेंति, करेत्ता पुर्णति । तत्थ णं चोक्खाणं सूइयाणं अखंडाणं अफुडियाणं छडछडापूयाण सालीणंमागहए पत्थए जाए। १५. जब उन कौटुम्बिकों ने जाना कि शालि-क्षुपों के क्रमश: पत्ते आ गये हैं। वे गोल हो गए हैं। गर्भित हो गये हैं। प्रसूत हो गए हैं। दाने पक गये हैं। शालि निष्पन्नप्राय: हो गये हैं। पत्ते सूखकर मुड़कर सल्लकी (सलई पेड़) के पत्तों जैसे हो गए हैं। उन्होंने नव निर्मित तीखे दात्रों से उनको काट लिया। काटकर हथेलियों से मला । मलकर साफ किया। उनमें से अच्छे, साफ, अखण्ड, अस्फुटित और छाज से फटके (छड़छडाए) हुए शाली मगध देश प्रसिद्ध प्रस्थ प्रमाण हुए! १६. तए णं ते कोडुंबिया ते साली नवएसु घडएसु पक्खिवंति पक्खिवित्ता ओलिंपति, ओलिंपित्ता लंछिय-मुद्दिए करेंति, करेत्ता कोडागारस्स एगदेससि ठावेंति, ठावेत्ता सारक्खमाणा संगोवेमाणा विहरति । १६. कौटुम्बिक पुरुषों ने उन चावलों (शालि) को नये घड़ों में डाला, डालकर उन्हें लीपा। लीपकर लाञ्छित-रेखांकित और मुद्रित किया। उन्हें कोष्ठागार के एक कोने में रखा। रखकर उनका संरक्षण, संगोपन करने लगे। १७. तए णं ते कोडुंबिया दोच्चंसि वासारत्तसि पढमपाउसंसि महावुट्ठिकायंसि निवइयंसि (समाणंसि?) खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेंति, ते साली ववंति, दोच्चंपि उक्खय-णिहए करेंति जाव असिएहिं लुणंति लुणित्ता चलणतलमलिए करेंति करेत्ता पुणंति । तत्थ णं सालीणं बहवे कुडवा जाया।। १७. उन कौटुम्बिकों ने दूसरे वर्षारात्र में भी प्रथम पावस में महावृष्टि होने पर, एक छोटे से खेत को भली-भांति परिकर्मित किया। उन शालिकणों को बोया। दूसरी बार भी उन्हें उखाड़कर दूसरे स्थान में रोपा, यावत् उन्हें दात्रों से काटा। काटकर उन्हें पांवों के तलवों से मला । मलकर साफ किया। इस बार बहुत कुडव परिमित शालि हुए। १८. तएणं ते कोडुबिया ते साली नवएस घडएसु पक्खिर्वति, पक्खिवित्ता ओलिंपति, ओलिंपित्ता लंछिय-मुद्दिए करेंति, करेत्ता कोट्ठागारस्स एगदेससि ठावेंति, ठावेत्ता सारक्खमाणा संगोवेमाणा विहरति ।। १८. कौटुम्बिक पुरुषों ने उन चावलों को नये घड़ों में डाला। डालकर घड़ों को लीपा। लीपकर उन्हें लाञ्छित -रेखांकित और मुद्रित किया। मुद्रित कर उन्हें कोष्ठागार के एक देश में रखा। रखकर उनका संरक्षण, संगोपन करने लगे। Jain Education Intemational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० सप्तम अध्ययन : सूत्र १९-२३ नायाधम्मकहाओ १९. तए णं ते कोडुंबिया तच्चसि वासारत्तंसि महावुट्टिकासि १९. कौटुम्बिक पुरुषों ने तीसरे वर्षारात्र में भी प्रथम पावस में महावृष्टि निवइयंसि(समाणसि?) केयारे सुपरिकम्मिए करेंति जाव असिएहिं होने पर कई खेतों को भली-भांति परिकर्मित किया, यावत् दात्रों से लुणति, लुणित्ता संवहति, संवहित्ता खलयं करेंति, मलेति, पुणति । काटा। काटकर खलिहान में लाए। लाकर खला निकाला, मला और तत्थ णं सालीणं बहवे कुंभा जाया। साफ किया। इस बार बहुत कुम्भ परिमित चावल हुए। २०. तए णं ते कोडुबिया ते साली कोट्ठागारंसि पल्लसि पक्खिवंति, २०. कौटुम्बिक पुरुषों ने उन चावलों को कोष्ठागार स्थित धान के पल्य पक्खिवित्ता ओलिंपंति ओलिंपित्ता, लंछिय-मुद्दिए करेंति, करेता में डाला। डालकर उन्हें लीपा। लीपकर लाञ्छित-रेखांकित और सारक्खमाणा संगोवेमाणा विहरंति॥ मुद्रित किया। मुद्रित कर उनका सरंक्षण, संगोपन करने लगे। २१. चउत्थे वासारत्ते बहवे कुंभसया जाया॥ २१. चौथे वर्षारात्र में चावलों के सैकड़ों कुम्भ भर गये। परिक्खा-परिणाम-पदं २२. तए णं तस्स धणस्स पंचमयंसि संवच्छरंसि परिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु मए इओ अतीते पंचमे संवच्छरे चउण्हं सुण्हाणं परिक्खणट्ठयाए ते पंच-पंच सालिअक्खया हत्थे दिन्ना । तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते पंच सालिअक्खएपरिजाइत्तएजाव जाणामितावकाए किह सारक्खिया वा संगोविया वा संवड्ढिया वत्ति कटु एवं सपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरेतेयसा जलते विपुलं असणंपाणंखाइमसाइमं उवक्खडाक्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गंजाव सम्माणित्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ जेटुं उझियं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी--एवं खलु अहं प्रत्ता! इओ अतीते पंचमम्मि संवच्छरे इमस्स मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स यपुरओ तव हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयामि । जया णं अहं पुत्ता! एए पंच सालिअक्खए जाएज्जा तया णं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएसि । सेनूणं पुत्ता! अढे समढे? हंता अत्थि। तंणं तुमं पुत्ता! मम ते सालिअक्खए पडिनिज्जाएसि ।। परीक्षा-परिणाम-पद २२. पांचवे वर्ष के समाप्त-प्राय: होने पर अर्द्धरात्रि के समय धन सार्थवाह के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मैंने आज से पांच वर्ष पूर्व चारों बहुओं की परीक्षा के लिए उनके हाथों में पांच-पांच शालिकण दिए थे। अत: मेरे लिए उचित है-मैं उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर उनसे वे पांच शालिकण मागूं यावत् यह जानूं कि किसने किस प्रकार उनका संरक्षण, संगोपन अथवा संवर्द्धन किया है। उसने ऐसी संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर उसने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चार बहुओं के पीहर वालों को यावत् सम्मानित कर उन्हीं मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने बड़ी बहू उज्झिता को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-बेटी! मैंने आज से पांच वर्ष पूर्व इन्हीं मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने तेरे हाथ में पांच शालिकण दिये थे। (यह कहकर कि) बेटी! जब मैं इन पांच शालिकणों को मागू तब तू ये पांच शालिकण मुझे लौटा देना। बेटी! यह बात सही है? 'हां, सही है। तो बेटी। तू वे पांच शालिकण मुझे वापस दे। २३. तए णं सा उज्झिया एयमढे घणस्स सत्थवाहस्स पडिसुणेइ, जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पल्लाओ पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता धणं सत्थवाहं एवं वयासी--एए णं ताओ! पंच सालिअक्खए ति कटु धणस्स हत्यंसि ते पंच सालिअक्खए दलयइ॥ २३. उज्झिता ने धन सार्थवाह के इस कथन को स्वीकार किया। जहां कोष्ठागार था वहां आई। आकर पल्य से पांच शालिकण लिए। लेकर जहां धन सार्थवाह था, वहां आई। आकर धन सार्थवाह को इस प्रकार कहा--पिताजी! ये रहे पांच शालिकण--ऐसा कहकर उसने धन सार्थवाह के हाथ में वे पांच शालिकण दिए। Jain Education Intemational Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ नायाधम्मकहाओ २४. तए णं धणे सत्थवाहे उज्झियं सवह-सावियं करेइ, करेत्ता एवं वयासी--किण्णं पुत्ता! ते चेव पंच सालिअक्खए उदाहु अण्णे? सप्तम अध्ययन : सूत्र २४-२९ २४. धन सार्थवाह ने उज्झिता को सौगन्ध दिलाई। दिलाकर इस प्रकार कहा--बेटी! ये वे ही शालिकण हैं अथवा दूसरे हैं? २५. उज्झिता ने धन सार्थवाह से इस प्रकार कहा--पिताजी! आपने आज २५. तए णं उज्झिया धणं सत्थवाहं एवं वयासी--एवं खलु तुब्भे ताओ! इओ अतीए पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त-नाइ-नियगसयण-संबंधि-परिजणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ पंच सालिअक्खए गेण्हह, गेण्हित्ता ममं सद्दावेह, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुमं णं पुत्ता! मम हत्थाओ इमे पंच सालिमक्खए गेहाहि, अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी विहराहि । तए णंहं तुभं एयमटुं पडिसुणेमि, ते पंच सालिअक्खए गेण्हामि, एगंतमवक्कमामि। तए णं मम इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु ताताणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला सालीणं पडिपुण्णा चिट्ठति, तं जया णं मम ताओ इमे पंच सालिअक्खए जाएसइ, तया णं अहं पल्लंतराओ अण्णे पंच सालिअक्खए गहाय दाहामि त्ति कटु एवं सपेहेमि, सपेहेत्ता ते पंच सालिअक्खए एगते एडेमि, सकम्मसंजुत्ता यावि भवामि । तं नो खलु ताओ! ते चेव पंच सालिअक्खए, एए णं अण्णे।। और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने पांच शालिकण लिये। लेकर मुझे बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--बेटी! तू मेरे हाथ से ये पांच शालिकण ले और क्रमश: इनका संरक्षण, संगोपन करती रह। उस समय मैंने आपके कथन को स्वीकार किया। उन पांच शालिकणों को ग्रहण किया और एकान्त में गई। मेरे मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ–पिताजी के कोष्ठागार में शालि के बहुत से पल्य भरे पड़े हैं। अत: जब पिताजी मुझसे ये पांच शालिकण मागेंगे तब मैं किसी पल्य से अन्य पांच शालिकण ग्रहण कर उन्हें दे दूंगी--मैंने ऐसी संप्रक्षा की। सप्रेक्षा कर उन पांच शालिकणों को एकान्त में फेंक दिया और अपने काम में लग गई। अत: पिताजी! ये , पांच शालिकण वे नहीं हैं अपितु ये दूसरे हैं। २६. तए णं से धणे सत्थवाहे उज्झियाए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्मा आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उज्झियं तस्स मित्त-नाइ- नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुझियंच छाणुज्झियं च कयवरुज्झियं च संपुच्छियं च सम्मज्जियं च पाओवदाइयं च ण्हाणोवदाइयं च बाहिर-पेसणकारियं च ठवेइ।। २६. उज्झिता से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर धन सार्थवाह क्रोध से तमतमा उठा यावत् वह क्रोध से जलता हुआ--उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने उज्झिता को उस कुल-घर की राख फैंकने वाली, गोबर फेंकने वाली, कचरा निकालने वाली, साफी लगाने वाली, झाडू लगाने वाली, सबको पाद-प्रक्षालन या स्नान के लिए पानी प्रदान करने वाली और बाहर जाकर प्रेष्य कर्म करने वाली दासी के रूप में नियुक्त किया। २७. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय- उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, पंच य से महव्वयाइं उज्झियाई भवंति, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य हीलणिज्जे जाव चाउरंत-संसार-कंतारं भुज्जोभुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ--जहा सा उझिया। २७. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निम्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता है। कदाचित् उसके पांच महाव्रत उज्झित 'त्यक्त' हो जाते हैं वह इस भव में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय होता है, यावत् वह चार अन्त वाले संसार कान्तार में पुन: पुन: अनुपरिवर्तन करेगा--जैसे वह उज्झिता। २८. एवं भोगवइया वि, नवरं--छोल्लेमि, छोल्लित्ता अणुगिलेमि, अणुगिलित्ता सकम्मसंजुत्ता यावि भवामि । तं नो खलु ताओ! ते चेव पंच सालिअक्खए, एएणं अण्णे॥ २८. भोगवती का ऐसा ही वर्णन है। इतना विशेष है--उसने कहा--मैंने उन शालिकणों को छीला। उन्हें छीलकर निगल गई, निगलकर अपने काम में लग गई। अत: पिताजी! ये पांच शालिकण वे ही नहीं हैं अपितु ये दूसरे हैं। २९. तए णं से धणे सत्थवाहे भोगवइयाए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्मा आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे भोगवई तस्स २९. भोगवती से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर धन सार्थवाह क्रोध से तमतमा उठा यावत् वह क्रोध से जलता हुआ उन मित्र, ज्ञाति, निजक, Jain Education Intemational Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन सूत्र २९-३३ मित्त - नाइ - नियग- सयण-संबंधि-परियणस्स चउन्हं सुण्हाणं कुलधरवग्गरस य पुरओ तस्स कुलघरस्स कंडितियं च कोट्टेतियं च पीसंतियं च एवं - - संघतियं रंधतियं परिवेसंतियं परिभायंतियं अब्भितरियं पेसणकारिं महाणसिणिं ठवेइ ।। १७२ ३०. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए, पंच य से महव्वयाई फालियाई भवंति से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य हीतणिज्जे जाव चाउरंत संसार कतारं भुज्जो - भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ -- जहा व सा भोगवइया ।। ३१. एवं रक्सियावि, नवरं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छिता मंजू विहाडे, विहाडेला रयणकरंडगाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्es, गेण्हित्ता जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छिता पंच सालिअक्खए धणस्स हत्थे दलपद ।। ३२. तए णं से धणे सत्थवाहे रक्खियं एवं वयासी- - किं णं पुत्ता ! ते चैव एए पंच सालिअक्खए उदाहु अण्णे? ३३. तए णं रक्खिया धणं सत्यवाहं एवं वयासी ते चैव ताओ! एए पंच सालिअक्खए, नो अण्णे । कहण्णं? पुत्ता! -- एवं खलु ताओ! तुम्भे इस अतीते पंचमे संवच्छरे इमरस मित्त-नाइ नियग-सयण संबंधि परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ पंच सालिअक्खए गेण्हह, गेण्हित्ता ममं सदावेह सदावेत्ता ममं एवं वयासी तुमं णं पुत्ता! मम हत्याओ इमे पंच सालिअक्खए गिण्हाहि, अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी विहराहि । जया णं अहं पुत्ता! तुमं इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जा तथा णं तुमं मम इमे पंच सालिजक्लए पडिनिज्जारज्जासि ति कट्टु मम हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलह तं भवियन्वं एत्य कारणेणं ति कट्टु ते पंच सालिअक्सए सुद्धे वत्ये बंधेमि, बंधित्ता रयणकरडियाए पक्खिवेमि, पक्खिवित्ता उसीसामूले ठावेमि, ठावेत्ता तिसंझं पडिजागरणमाणी यावि विहरामि । तओ एएणं कारणेणं ताओ! ते चैव पंच सालिअक्खए, नो अण्णे ॥ नायाधम्मकहाओ स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने भोगवती को उस पर की ओखल कूटने वाली, तिलादि का चूर्ण करने - वाली, (घट्टी) चक्की पीसने वाली तथा इसी प्रकार - दाल धोने वाली, यंत्र विशेष से चने को द्रव आदि से निस्तुष करने वाली, भोजन पकाने वाली परोसने वाली (मिष्टान्नादि) वितरित करने वाली घर का आन्तरिक प्रेष्यकर्म करने वाली और रसोई बनाने वाली (दासी) के रूप में नियुद कर दिया । ३०. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य - उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता है (कदाचित) उसके पांच महाव्रत खण्डित हो जाते हैं, तो वह इस भव में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय होता है यावत् वह चार अन्त वाले संसार कान्तार में पुनः पुनः अनुपरिवर्तन करेगा जैसे वह भोगवती । ३१. रक्षिता का भी ऐसा ही वर्णन है इतना विशेष है- रक्षिता जहां उसका वासघर था वहां आई। वहां आकर मंजूषा को खोला। खोलकर रत्न निर्मित डिबिया से वे पांच शालिकण लिए। पांच शालिकण ले, जहां धन सार्थवाह था, वहां आई। वहां आकर पांच शालिकण धन सार्थवाह के हाथ में दे दिए। ३२. धन सार्थवाह रक्षिता से इस प्रकार बोला- बेटी! ये वे ही पांच शालिकण हैं अथवा दूसरे ? ३३. रक्षिता ने धन सार्थवाह से इस प्रकार कहा - पिताजी! ये वे ही पांच शालिकण हैं, दूसरे नहीं। यह कैसे बेटी? पिताजी! आपने आज से पांच वर्ष पूर्व इन्हीं मित्र, जाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने पांच शालिकण लिये । लेकर मुझे बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- बेटी! तू मेरे हाथ से ये पांच शालिकण ले और क्रमशः इनका संरक्षण, संगोपन करती रह। बेटी ! जब मैं तुझसे ये पांच शालिकण मागू तब तू ये पांच शालिकग मुझे लौटा देना ऐसा कहकर मेरे हाथ में पांच शालिकण दिये थे। अतः यहां कोई न कोई कारण होना चाहिए--यह सोच मैंने उन पांच शालिकणों को शुद्ध वस्त्र में बांधा। बांधकर उसे रत्ननिर्मित डिबिया में रखा। रखकर उसे अपने तकिये के नीचे (सिराहने) स्थापित किया। स्थापित कर तीनों संध्याओं में उसकी देखभाल करती हुई विहार करने लगी। पिताजी! इसी कारण से ये वे ही पांच शालिकण हैं, दूसरे नहीं। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १७३ सप्तम अध्ययन : सूत्र ३४-४० ३४. तए णं से धणे सत्थवाहे रक्खियाए अंतियं एयमढे सोच्चा ३४. रक्षिता से यह अर्थ सुनकर हृष्ट तुष्ट हुए धन सार्थवाह ने रक्षिता हट्ठतुढे तस्स कुलघरस्स हिरण्णस्स य कंस-दूस-विपुल-धण-कणग- को उस घर की चांदी तथा कांस्य, दूष्य, विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण-संत-सार- मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, पद्मराग मणियां, श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्य सावए-ज्जस्स य भंडागारिणी ठवेइ। और दान भोग आदि के लिए स्वापतेय के खजाने की स्वामिनी के रूप में नियुक्त कर दिया। ३५. एवामेव समणाउसो! जो अहं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, पंच य से महव्वयाइंरक्खियाई भवंति, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे जाव चाउरंतं संसारकतारं वीईवइस्सइ--जहा व सा रक्खिया॥ ३५. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता है और उनके पांच महाव्रत सुरक्षित रहते हैं तो वह इस भव में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय होता है यावत् वह चार अन्त वाले संसार कान्तार का पार पा लेता है जैसे--वह रक्षिता। ३६. रोहिणीया वि एवं चेव, नवरं--तुब्भे ताओ! मम सुबहुयं सगडि- सागडं दलाह, जा णं अहं तुब्भं ते पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएमि॥ ३६. रोहिणी का भी ऐसा ही वर्णन है। इतना विशेष है। उसने पिताजी से कहा-पिताजी! तुम मुझे छोड़े-बड़े वाहन दो जिससे मैं तुम्हारे वे पांच शालिकण लाऊँ। ३७. तए णं से धणे सत्थवाहे रोहिणिं एवं वयासी--कहं णं तुम पुत्ता! ते पंच सालिअक्खए सगडि-सागडेणं निज्जाइस्ससि?॥ ३७. तब धन सार्थवाह ने रोहिणी से इस प्रकार कहा--बेटी! तू उन पांच शालिकणों को छोटे-बड़े वाहनों से कैसे लाएगी? ३८. तए णं सा रोहिणी धणं सत्थवाहं एवं वयासी--एवं खलु ताओ। तुब्भे इओ अतीते पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त-नाइ- नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ पंच सालिअक्खए गेण्हह, गेण्हित्ता ममं सद्दावेह, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुम णं पुत्ता मम हत्थाओ इमे पंच सालिअक्खए गेण्हाहि, अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी विहराहि । जया णं अहं पुत्ता! तुम इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जा, तया णं तुम इमे पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएज्जासि ति कटु मम हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयह। तं भवियव्वं एत्थ कारणेणं । तं सेयं खलु मम एए पंच सालिअक्खए सारक्खमाणीए संगोवेमाणीए संवड्ढेमाणीए जाव बहवे कुंभसया जाया तेणेव कमेण। एवं खलु ताओ! तुब्भे ते पंच सालिअक्खए सगडि-सागडेणं निज्जाएमि। ३८. रोहिणी ने धन सार्थवाह से इस प्रकार कहा--पिताजी! आपने आज से पांच वर्ष पहले इन्हीं मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने पांच शालिकण लिए। लेकर मुझे बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--बेटी! तू मेरे हाथ से ये पांच शालिकण ले और क्रमश: इनका संरक्षण, संगोपन करती रह । बेटी! जब मैं तुझसे ये पांच शलिकण मागू तब तू मुझे ये पांच शालिकण लौटा देना--ऐसा कहकर आपने मेरे हाथ में पांच शालिकण दिये थे। यहां कोई न कोई कारण होना चाहिए अत: मेरे लिए उचित है--मैं इन पांच शालिकणों का संरक्षण, संगोपन और संवर्द्धन करती हुई विहार करूं यावत् उसी क्रम से शालि के अनेक शत कुम्भ भर गये। इसलिए पिताजी मैं आपके उन पांच शालिकणों को छोटे-बड़े वाहनों से लाऊँगी। ३९. धन सार्थवाह ने रोहिणी को बहुत सारे छोटे-बड़े वाहन दिये। ३९. तए णं से घणे सत्थवाहे रोहिणीयाए सुबहुयं सगडि-सागडं दलाति।। ४०. तए णं से रोहिणी सुबहुं सगडि-सागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कोट्ठागारे विहाडेइ, विहाडित्ता पल्ले उभिदइ, उभिदित्ता सगडि-सागडं भरेइ, भरेत्ता रायगिह नगरं मझमझेणं जेणेव सए गिहे जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ।। ४०. रोहिणी बहुत सारे छोटे-बड़े वाहन लेकर जहां उसका पीहर था, वहां आयी। वहां आकर कोष्ठागारों को खोला। खोलकर कोठों का उद्भेदन किया। उद्भेदन कर छोटे-बड़े वाहनों को भरा। उन्हें भरकर राजगृह नगर के बीचोंबीच होती हुई जहां अपना घर था, जहां धन सार्थवाह था, वहां आयी। Jain Education Intemational Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : सूत्र ४१-४४ १७४ नायाधम्मकहाओ ४१. तए णं रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर- चउम्मुह--महापहपहेसु बहुजणो अण्णमण्णं एवमाइक्खइ-धण्णे णं देवाणुप्पिया! धणे सत्थवाहे, जस्स णं रोहिणीया सुण्हा पंच सालिमक्खए सगडि-सागडेणं निज्जाएइ। ४१. राजगृह नगर के दोराहों, तिराहों, चोराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में जन समूह ने परस्पर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! धन्य है धन सार्थवाह, जिसकी पुत्रवधू रोहिणी पांच शालिकणों को छोटे-बड़े वाहनों से लौटा रही है। ४२. तए णं से घणे सत्थवाहे ते पंच सालिअक्खए सगडि-सागडेणं निज्जाइए पासइ, पासित्ता हतुढे पडिच्छइ, पडिच्छित्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ रोहिणीयं सुण्हं तस्स कुलघरस्स बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य कुडुबेसु य मतसुय गुज्झेसुय रहस्सेसुय आपुच्छणिज्जं पडिपुच्छणिज्जं मेढिं पमाणं आहारं आलबणं चक्खु, मेढीभूयं पमाणभूयं आहारभूयं आलंबणभूयं चक्खुभूयं सव्वकज्जवड्ढावियं पमाणभूयं ठवेइ।। ४२. धन सार्थवाह ने उन पांच शालिकणों को छोटे-बड़े वाहनों से लाया जाता हुआ देखा। देखकर हृष्ट तुष्ट हो उन्हें स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर उन्हीं मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने पुत्रवधू रोहिणी को उस घर के बहुत से कार्यों, कारणों, कर्तव्यों, मंत्रणाओं, गोपनीय कार्यों और रहस्यों में परामर्शदात्री, पुन: पुन: परामर्शदात्री, मेढ़ी, प्रमाण, आधार, आलम्बन, चक्षु, मेढीभूत, प्रमाणभूत, आधारभूत, आलम्बनभूत, चक्षुभूत, समस्त कार्यों का संवर्द्धन करने वाली और प्रमाणभूत घोषित किया। ४३. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, पंच से महव्वया संवड्ढिया भवंति, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे जाव चाउरतं संसारकंतारं वीईवइस्सइ--जहा व सा रोहिणीया॥ ४३. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी ____ आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड होकर, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता है और उसके पांच महाव्रत संवर्धित होते हैं तो वह उस भव में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय होता है यावत् वह चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार पार पा लेता है, जैसे--वह रोहिणी। निक्खेव-पदं ४४. एवं खलु जंबा समजेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्यगरेणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। -त्ति बेमि।। निक्षेप-पद ४४. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता तीर्थकर यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के सातवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। --ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धता निगमनगाथा जह सेट्ठी तह गुरुणो, जह नाइ-जणो तहा समणसंघो। जह बहुया तह भव्वा, जह सालिकणा तह वयाई ।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा १. सेठ के समान गुरु है। ज्ञातिजन के समान श्रमण-संघ है। बहुओं के समान भव्यजीव हैं और शालिकणों के समान व्रत हैं। उज्झिया जह सा उज्झियनामा, उज्झियसाली जहत्थमभिहाणा। पेसणगारित्तेणं, असंखदुक्खक्खणी जाया।R|| तह भव्वो जो कोई, संघसमक्खं गुरु-विदिण्णाई। पडिवज्जिउं समुज्झइ, महव्वयाई महामोहा।।३।। सो इह चेव भवम्मि, जणाण धिक्कार-भायणं होइ। परलोए उ दुहत्तो, नाणा-जोणीसु संचरइ।४॥ २-४ उज्झिता जैसे शलिकणों को फेंककर अपने नाम को चरितार्थ करने वाली उज्झिता नाम की बहू प्रेष्यकारिता को प्राप्त कर असंख्य दुःखों की खान बन गई, वैसे ही जो कोई भव्य संघ के समक्ष गुरु द्वारा प्रदत्त व्रतों को स्वीकार कर मोहवश पुन: छोड़ देता है, वह इस जीवन में भी जन-जन के धिक्कार का पात्र होता है और परलोक में भी दु:खों से पीडित हो नाना योनियों में संचरण करता है। Jain Education Intemational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ भोगवती जह वा सा भोगवती, जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा। पेसणविसेसकारित्तणेण पत्ता दुहं चेव ।।५।। तह जो महव्वणाई, उवभुंजइ जीवियत्ति पालितो। आहाराइसु सत्तो, चत्तो सिवसाहणिच्छाए।।६।। सो एत्थ जहिच्छाए, पावइ आहारमाइ लिंगित्ता। विउसाण नाइपुज्जो, परलोयंसी दुही चेव ।।७।। १७५ सप्तम अध्ययन : सूत्र ४४ भोगवती ५-७. जैसे शालिकणों को निगलकर अपने नाम को चरितार्थ करने वाली भोगवती विशेष प्रेष्यकारिता के रूप में नियुक्त हो दुःख को ही प्राप्त हुई, वैसे ही जीविका की दृष्टि से महाव्रतों का पालन करता हुआ भी जो (मात्र सुविधाओं का) उपभोग करता है, वह आहार आदि में आसक्त हो, शिव साधन की इच्छा भी त्याग देता है। वह यहां साधुवेष के कारण मनचाहा आहार आदि तो पा लेता है, पर विद्वानों में पूज्य नहीं होता और परलोक में भी दुःखी होता है। रक्खिया जह वा रक्खियबहुया, रक्खियसालीकणा जहत्थक्खा। परिजणमण्णा जाया, भोगसुहाई च संपत्ता ।।। तह जो जीवो सम्म, पडिवज्जित्ता महव्वए पंच। पालेइ निरइयारे, पमाय-लेसंपि वज्जेंतो।। सो अप्पहिएक्करई, इहलोयम्मिवि विऊहिं पणयपओ। एगंतसुही जायइ, परम्मि मोक्खंपि पावे।।१०।। रक्षिता ८-१०. जैसे शलिकणों की रक्षा कर अपने नाम को चरितार्थ करने वाली रक्षिता नाम वाली बहू परिजनों में सम्मानित भोग-सुखों को प्राप्त हुई, वैसे ही जो जीव पांच महाव्रतों को सम्यक् स्वीकार कर अंशमात्र भी प्रमाद न करता हुआ उसका निरतिचार पालन करता है वह एक मात्र आत्महित में रमण करने वाला मुनि इस लोक मे भी विद्वत्पूज्य और एकान्त सुखी होता है तथा आगे भी मोक्ष को प्राप्त करता है। रोहिणी जह रोहिणी उ सुण्हा, रोवियसाली जहत्थमभिहाणा। वड्ढित्ता सालिकणे, पत्ता सव्वस्स सामित्तं ।।११।। तह जो भव्वो पाविय, वयाइ पालेइ अप्पणा सम्म । अण्णेसि वि भव्वाणं, देइ अणेगेसि हियहेउं ।।१२।। सो इह संघप्पहाणो, जुगप्पहाणोत्ति लहइ संसदं । अप्पपरेंसि कल्लाण-कारओ गोयमपहुव्व ।।१३।। तित्थस्स वुड्ढिकारी, अक्खेवणओ कुतित्थियाईणं । विउस-नरसेविय-कमो, कमेण सिद्धिं पि पावेइ।R४ || रोहिणी ११-१४, जैसे शालिकणों को रोपकर अपने नाम को चरितार्थ करने वाली रोहिणी नाम वाली बहू ने शालिकणों का संवर्द्धन कर सबके स्वामित्व को प्राप्त किया, वैसे ही जो भव्य स्वीकृत व्रतों को स्वयं सम्यक् पालन करता है और बहुतों के हित के लिए अन्य भव्यों को भी व्रती बनाता है(उस पथ पर प्रतिष्ठित करता है) वह इस संघ में संघ-प्रधान युग-प्रधान जैसे श्लाघ्य वचनों को प्राप्त करता है और गौतम स्वामी की भांति अपना और दूसरों का कल्याण करता है। वह तीर्थ की श्रीवृद्धि करता है। कुतीर्थिकों (के मिथ्या-दर्शन) का निरसन करता है। विद्वज्जन उसके चरणों की सेवा करते हैं और इस क्रम से वह सिद्धि को भी प्राप्त कर लेता है। Jain Education Intemational Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र १४ १. (वत्तिया) गोल हुए ब्रीहि के पत्ते मध्यगत शलाका को परिवेष्टित करने के कारण नाल जैसे होते हैं। सूत्र १९ ३. खला (खलयं) वह भूमि जहां कटाई होने के पश्चात् धान का खला निकाला जाता है, धान का मर्दन कर धान्यकणों को तुषों से अलग किया जाता है। सूत्र १५ २. मगधदेश प्रसिद्ध प्रस्थ प्रमाण (मागहए पत्थए) मागध प्रस्थ एक माप विशेष का वाचक है। जैसे-- दो असईओ पसई, दो पसइओ उ सेइया होइ। चउसेइयो उ कुडओ, चउकुडओ पत्थओ नेउ।। इस प्रमाण से मगधदेश में व्यवहृत होने वाला प्रस्थ मागध प्रस्थ कहलाता है। ४. कुम्भ (कुंभ) कुंभ का सामान्य अर्थ है--घड़ा। पर यहां यह परिमाण विशेष का वाचक है। उसके तीन प्रकार हैं-- जघन्य-साठ आढक (एक आढक-चार प्रस्थ) मध्यम-अस्सी आढक उत्कृष्ट-सौ आढक। १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१२५ --वत्तिय त्ति व्रीहीणां पत्राणिमध्यशलाकापरिवेष्टनेन ३. वही--खलकं धान्यमलनस्थण्डिलम् । नालरूपतया वृत्तानि भवन्ति तद्वृत्ततया जातवृत्तत्वाद्वर्तित्ता: शाखादीनां वा ४. वही--चतुष्प्रस्थं आढकः, आढकानां षष्ट्या जघन्य: कुम्भः, अशीत्या समतया वृत्तीभूता: सन्तो वर्तिता अभिधीयन्ते। मध्यमः, शतेनोत्कृष्ट इति। २. वही, पत्र-१२६--अनेन प्रमाणेन मगधदेश व्यवहृतः प्रस्थो मागध प्रस्थः । Jain Education Intemational Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख आगम साहित्य में तीर्थंकरों का जीवन चरित्र उल्लिखित है। कल्पसूत्र में भगवान महावीर का विस्तार व शेष तीर्थंकरों का संक्षिप्त में वर्णन मिलता है। __ भगवान ऋषभ का जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में, महावीर का आयारो व आयारचूला में वर्णन है। प्रश्न उठता है ज्ञातधर्मकथा में अन्य तीर्थंकरों का जीवनवृत्त नहीं, केवल मल्लिनाथ पर ही विवेचन क्यों? अनुमान किया जा सकता है कि चौबीस ही तीर्थंकरों का जीवन-चरित्र लिखा गया होगा। अन्य तीर्थंकरों का अन्य आगमों में विवेचन होने से ज्ञातधर्मकथा में नहीं दिया गया और मल्लिनाथ का वर्णन अन्यत्र विस्तार से न होने के कारण ज्ञातधर्मकथा में दे दिया गया है। प्रस्तुत अध्ययन के केन्द्र में विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली है। मल्ली का जीव गर्भ में आने पर रानी प्रभावती को माल्य-शयनीय का दोहद उत्पन्न हुआ। रानी के दोहद की पूर्ति होने से इस अध्ययन का नाम भी मल्ली रख दिया गया। २३६. सूत्रों में आवंटित यह अध्ययन जितना विस्तृत है, उतना ही प्रेरणादायी और सरस । प्रतिबुद्धि, चन्द्रच्छाय, शंख, रुक्मी, अदीनशत्रु और जितशत्रु राजा किस प्रकार राजकुमारी मल्ली के प्रति अनुरक्त होते हैं और मल्ली किस प्रकार उनके राग को विराग में बदलती है। इसका मनोवैज्ञानिक व प्रयोगात्मक ढंग से बहुत ही सुन्दर विश्लेषण किया गया है। मल्ली के विषय में एक बड़ा विवाद है। १९ वें तीर्थंकर मल्लीनाथ स्त्री थे। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार स्त्री की मुक्ति हो सकती है किन्तु दिगम्बर परम्परा में स्त्री की मुक्ति मान्य नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन की संग्रहणी गाथा में उल्लेख है--महाबल के भव में तीर्थंकर नाम गोत्र का बंधन होते हुए भी तप विषयक अल्प माया मल्ली के स्त्रीत्व का कारण बन गयी।' प्रस्तुत गाथा पर मनन करने से एक प्रश्न उभरता है कि माया स्त्री बंध का कारण है, इसका हेतु क्या है? माया करने से तिर्यञ्च योनि का बंध होता है ऐसा ठाणं सूत्र व तत्त्वार्थ सूत्र में उल्लेख है किन्तु माया करने से स्त्री गोत्र का बंध होता है यह आज भी शोध का विषय है। उत्तराध्ययन सूत्र में उल्लेख है--'ऋजुभाव से युक्त अमाई स्त्रीवेद और नपुंसक वेद का बंधन नहीं करता किन्तु माया से स्त्री गोत्र का बंध होता है ऐसा उल्लेख वहां भी नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन का प्रतिपाद्य है--तपस्या की आराधना में भी माया का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उत्कृष्ट तप करने वाले के लिए भी माया अनर्थ का हेतु बन जाती है। Jain Education Intemational Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमं अज्झयणं : आठवां अध्ययन मल्ली उक्खेव-पदं १. जइणं भते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते, अट्ठमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अटे पण्णते? उत्क्षेप पद १. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के सातवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते! उन्होंने ज्ञाता के आठवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? बलराज पद बलराय-पदं २. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, निसढस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, सीओदाए महानदीए दाहिणेणं, सहावहस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्यिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं सलिलावई नामं विजए पण्णत्ते। २. जम्बू! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप द्वीप और महाविदेह वर्ष में मन्दर पर्वत के पश्चिम में निषध नाम के वर्षधर पर्वत के उत्तर में, सीतोदा महानदी के दक्षिण में, सुखावह नाम के वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में और पश्चिमी लवण-समुद्र के पूर्व में सलिलावती नाम की विजय थी। ३. तत्थ णं सलिलावईविजए वीयसोगा नाम रायहाणी-- नवजोयणवित्थिण्णा जाव पच्चक्खं देवलोगभूया। ३. उस सलिलावती विजय की वीतशोका नाम की राजधानी थी। वह नौ योजन चौड़ी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक तुल्य थी। ४. तीसे णं वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए इंदकुंभे नामं उज्जाणे॥ ४. उस वीतशोका राजधानी के ईशानकोण में इन्द्रकुंभ नाम का उद्यान था। ५. तत्थ णं वीयसोगाए रायहाणीए बले नामं राया। तस्स धारिणीपामोक्खं देवीसहस्सं ओरोहे होत्था ।। ५. उस वीतशोका राजधानी में बल नाम का राजा था। उसके अन्त:पुर में धारिणी प्रमुख हजार देवियां थीं। ६. तए णं सा धारिणी देवी अण्णया कयाइ सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा जाव महब्बले दारए जाए--उम्मुक्कबालभावे जाव भोगसमत्थे। ६. किसी समय धारिणी देवी सिंह का स्वप्न देखकर प्रतिबुद्ध हुई यावत् उसने महाबल बालक को जन्म दिया। वह शैशव को लांघकर यावत् पूर्ण भोग-समर्थ हुआ। ७. तए णं तं महब्बलं अम्मापियरो सरिसियाणं कमलसिरिपामोक्खाणं पंचण्हं रायवरकन्नासयाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेंति। पंच पासायसया। पंचसओ दाओ जाव माणुस्सए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणे विहरइ॥ ७. महाबल के माता-पिता ने कमलश्री प्रमुख एक जैसी पांच सौ प्रवर राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में महाबल का पाणिग्रहण करवा दिया। पांच सौ प्रासाद। पांच सौ (वस्तु-श्रेणियों) का प्रीतिदान यावत् वह मनुष्य संबंधी काम-भोगों का अनुभव करता हुआ विहार करने लगा। ८. तेणं कालेणं तेणं समएणं इंदकुंभे उज्जाणे थेरा समोसढा । परिसा निग्गया। बलो वि निग्गओ। धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुटे थेरे तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता ८. उस काल और उस समय इन्द्रकुम्भ उद्यान में स्थविर समवसृत हुए। परिषद ने निर्गमन किया। बलराजा ने भी निर्गमन किया। धर्म को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हुए बल ने स्थविरों को Jain Education Intemational Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १७९ नमंसित्ता एवं वयासी--सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं जाव नवरं महब्बलं कुमारं रज्जे ठावेमि । तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि । ___ अहासुहं देवाणुप्पिया! जाव एक्कारसंगवी । बहूणि वासाणि परियाओ। जेणेव चारुपव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मासिएणं भत्तेणं सिद्धे।। अष्टम अध्ययन : सूत्र ८-१४ तीन बार दायीं ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना-नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार कहा--भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं यावत् केवल एक बात-महाबल कुमार को राज्य सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दूं। उसके पश्चात् देवानुप्रिय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित बनूंगा। जैसा तुम्हें सुख हो देवानुप्रिय! यावत् वह ग्यारह अंगों का ज्ञाता हो गया। बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय पालकर जहां चारु पर्वत था, वहां आया। वहां आकर मासिक-भक्त के परित्याग पूर्वक सिद्ध हो गया। महब्बल-राय-पदं ९. तए णं सा कमलसिरी अण्णया कयाइ सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा जाव । बलभद्दो कुमारो जाओ। जुवराया यावि होत्था ।। महाबल राजा-पद ९. किसी समय वह कमलश्री सिंह का स्वप्न देखकर प्रतिबुद्ध हुई यावत् कुमार बलभद्र जन्मा। वह युवराज बना। १०. तस्स णं महब्बलस्स रण्णो इमे छप्पि य बालवयंसगा रायाणो होत्या, तंजहा-- ___ अयले धरणे पूरणे वसू वेसमणे अभिचंदे-सहजायया सहवड्डियया सहपंसुकीलियया सहदारदरिसी अण्णमण्णमणुरत्तया अण्णमण्णमणुव्वयया अण्णमण्णच्छंदाणुवत्तया अण्णमण्णहियइच्छियकारया अण्णमण्णेसुरज्जेसु किच्चाईकरणिज्जाइंपच्चणुब्भवमाणा विहरति ।। १०. उस महाबल राजा के ये छह बाल-वयस्य राजा थे, जैसे--अचल, धरण, पूरण, वसु, वैश्रमण, अभिचन्द्र--ये सहजात, सहसंवर्द्धित, सहपांशुक्रीडित, सहविवाहित (सह यौवन-प्रविष्ट) एक-दूसरे में अनुरक्त, एक दूसरे का अनुगमन करने वाले, एक-दूसरे के अभिप्राय का अनुवर्तन करने वाले और एक-दूसरे की आन्तरिक इच्छा को पूर्ण करने वाले थे। वे अपने करणीय कार्य को एक-दूसरे के राज्य में सम्पादित करते हुए विहार करने लगे। ११. तएणंतेसिं रायाणं अण्णया कयाइं एगयओ सहियाणं समुवागयाणं सण्णिसण्णाणं सण्णिविट्ठाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था--जण्णं देवाणुप्पिया! अम्हं सुहं वा दुक्खं वा पवज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जइ, तण्णं अम्मेहिं एगयओ समेच्चा नित्थरियव्वे त्ति कटु अण्णमण्णस्स अयमढे पडिसुणेति ।। ११. किसी समय एकत्र सम्मिलित, समुपागत, सन्निषण्ण और सन्निविष्ट उन राजाओं के मध्य परस्पर इस प्रकार वार्तालाप हुआ-देवानुप्रियो! हमारे सामने सुख या दुःख, प्रव्रज्या या विदेश-गमन--कोई भी प्रसंग उपस्थित हो, हमें मिल-जुलकर एक साथ उसको पार करना है--उन्होंने परस्पर इस अर्थ को स्वीकार किया। १२. तेणं कालेणं तेणं समएणं इंदकुंभे उज्जाणे थेरा समोसढा। परिसा निग्गया। महब्बले णं धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतढे । जं नवरं--छप्पि य बालवयंसए आपुच्छामि, बलभदं च कुमारं रज्जे ठावेमि, जाव ते छप्पि य बालवयंसए आपुच्छइ।। १२. उस काल और उस समय इन्द्रकुम्भ उद्यान में स्थविर समवसृत हुए। परिषद ने निर्गमन किया। महाबल भी धर्म को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हुआ। केवल एक बात छहों बाल वयस्यों (बाल-साथियों) से पूछ लेता हूं और कुमार बलभद्र को राज्य सिंहासन पर प्रतिष्ठित करता हूं, यावत् उसने उन छहों बाल-वयस्यों से पूछा। १३. तए णं ते छप्पिय बालवयंसगा महब्बलं रायं एवं क्यासी--जइ गं देवाणुप्पिया! तुम्भे पव्वयह, अम्हं के अण्णे आहारे वा आलबे वा? अम्हे वि य णं पव्वयामो॥ १३. छहों बाल वयस्यों ने राजा महाबल से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यदि तुम प्रव्रजित होते हो तो हमारा कौन दूसरा आधार होगा? कौन आलम्बन होगा? हम भी चाहते हैं प्रव्रजित हो जाएं। साबले राया तगच्छह, ज १४. तए णं से महब्बले राया ते छप्पिय बालवयंसए एवं वयासी--जइ णं तुम्भे मए सद्धिं पव्वयह, तं गच्छह, जेट्टपुत्ते सएहि-सएहिं रज्जेहिं ठावेह, पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउन्भवह । तेवि तहेव पाउन्भवति॥ समाणाम १४, राजा महाबल ने उन छहों बाल-वयस्यों से इस प्रकार कहा--यदि तुम मेरे साथ प्रव्रजित होते हो तो जाओ, ज्येष्ठ पुत्रों को अपने-अपने राज्यों में प्रतिष्ठापित करो और हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविकाओं पर आरूढ़ होकर मेरे समक्ष उपस्थित हो जाओ। वे वैसे ही उपस्थित हो गये। Jain Education Intemational Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० नायाधम्मकहाओ अष्टम अध्ययन : सूत्र १५-१८ १५. तए णं से महब्बले राया छप्पि य बालवयंसए पाउन्भूए पासइ, पासित्ता हट्ठतुढे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ जाव बलभद्दस्स अभिसेओ। जाव बलभदं रायं आपुच्छइ ।। १५. महाबल राजा ने उन छहों बाल-वयस्यों को उपस्थित हुए देखा। देखकर उसने हृष्ट तुष्ट हो कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया यावत् बलभद्र का अभिषेक किया। यावत् राजा बलभद्र से पूछा। महब्बलादीणं पव्वज्जा-पदं १६. तए णं से महब्बले छहिं बालवयंसगेहिं सद्धिं महया इड्डीए पव्वइए। एक्कारसंगवी । बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।। महाबल आदि की प्रव्रज्या-पद १६. महाबल छहों बाल-वयस्यों के साथ महान ऋद्धिपूर्वक प्रव्रजित हुआ। ग्यारह अंगों का ज्ञाता बना। वह बहुत सारे चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त, अष्टम-भक्त, दशम-भक्त, द्वादश भक्त, मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को भावित करता हुआ विहार करने लगा। १७. तए णं तेसिं महब्ब्लपामोक्खाणं सत्तण्हं अणगाराणं अण्णया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था--जण्णं अहं देवाणुप्पिया! एगे तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तण्णं अम्हेहिं सव्वेहिं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमढें पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरति ।। १७. किसी समय एकत्र सम्मिलित उन महाबल प्रमुख सातों अनगारों के मध्य आपस में इस प्रकार का वार्तालाप हुआ--देवानुप्रियो! हम में से ___कोई एक जिस तप:कर्म को स्वीकार कर विहार करता है, हम सब उसी तप:कर्म को स्वीकार कर विहार करें--इस प्रकार उन्होंने एकदूसरे के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर बहुत सारे चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त, अष्टम-भक्त, दशम-भक्त, द्वादश-भक्त, मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। महब्बलस्स तवविसय-माया-पदं १८. तए णं से महब्बले अणगारे इमेणं कारणेणं इत्थिनामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसु-जइ णं ते महब्बलवज्जा छ अणगारा चउत्थं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, तओ से महब्बले अणगारे छटुं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। जइणं ते महब्बलवज्जा छ अणगारा छटुं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, तओ से महब्बले अणगारे अट्ठमं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। एवं अह अट्ठमं तो दसम, अह दसमं तो दुवालसमं । इमेहि य णं वीसाए णं कारणेहिं आसेवियबहुलीकएहिं तित्थयर-नामगोयं कम्मं निव्वत्तिंसु, तं जहा-- महाबल का तपोविषयक माया-पद १८. महाबल अनगार ने इस कारण से स्त्री नाम-गोत्र कर्म का का उपार्जन किया-महाबल के अतिरिक्त उन छह अनगारों ने यदि चतुर्थ-भक्त स्वीकार कर विहार किया तो महाबल अनगार षष्ठ-भक्त स्वीकार कर विहार करता। महाबल के अतिरिक्त वे छह अनगार यदि षष्ठ-भक्त स्वीकार कर विहार करते, तो वह महाबल अनगार अष्टम-भक्त स्वीकार कर विहार करता। इस प्रकार वे अष्टम-भक्त करते, तो वह दशम-भक्त करता। वे दशम-भक्त करते तो, वह द्वादश-भक्त करता। इन बीस कारणों से आसेवन और बहुलीकरण (अभ्यास करने । से और पुन: पुन: अभ्यास करने) से उसने तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन किया जैसे-- संगहणी-गाहा अरहंत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुय-तवस्सीसु । वच्छल्लया य तेसिं, अभिक्ख नाणोवओगे य ।। दंसण-विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारो। खणलवतवच्चियाए, वेयावच्चे समाहिए।।२।। अपुन्वनाणगहणे, सुयभत्ती पवयण-पहावणया। एएहि कारणेहिं, तित्थयरत्तं लहइ सो उ।।३।। वच्छन्त्या य लेखि, अभियन नाणोकझोप या संग्रहणी-गाथा १. अर्हत् २. सिद्ध ३. प्रवचन ४. गुरु ५. स्थविर ६. बहुश्रुत ७. तपस्वी-इनके प्रति वत्सलता, ८. अभीक्ष्ण--ज्ञानोपयोग ९. दर्शन १०. विनय ११. आवश्यक १२. शील (उत्तरगुण) और व्रतों (महाव्रत) का निरतिचार पालन १३. क्षण-लव मात्र भी प्रमाद न करना १४. तप १५. त्याग १६, वैयावृत्य १७. समाधि १८. अपूर्व-ज्ञान ग्रहण १९. श्रुतभक्ति २०. प्रवचन-प्रभावना--इन कारणों से उसने भी तीर्थंकरत्व को प्राप्त किया। Jain Education Intemational Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १८१ अष्टम अध्ययन : सूत्र १९-२४ महब्बलादीणं विविहतवचरण-पदं महाबल आदि का विविध तपश्चरण-पद १९. तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा मासियं भिक्खुपडिमं १९. महाबल प्रमुख सात अनगार मासिक भिक्षु-प्रतिमा को स्वीकार कर उवसंपज्जित्ता णं विहरति जाव एगराइयं ।। विहार करते । यावत् एक रात्रि की भिक्षु प्रतिमा स्वीकार कर विहार करते। २०. तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरंति, तं जहा-- चउत्थं करेंति, सव्वकामगुणियं पारेति । छटुं करेंति, चउत्थं करेंति । अट्ठमं करेंति, छटुं करेंति। दसमं करेंति, अट्ठमं करेंति । दुवालसमं करेंति, दसमं करेंति। चोद्दसमं करेंति, दुवालसमं करेंति । सोलसमं करेंति, चोद्दसमं करेंति । अट्ठारसमं करेंति, सोलसमं करेंति । वीसइमं करेंति, अट्ठारसमं करेंति । वीसइमं करेंति, सोलसमं करेंति। अट्ठारसमं करेंति, चोद्दसमं करेंति । सोलसमं करेंति, दुवालसमं करेंति। चोद्दसमं करेंति, दसमं करेंति । दुवालसमं करेंति, अट्ठमं करेंति। दसमं करेंति, छटुं करेंति। अट्ठमं करेंति, चउत्थं करेंति । छटुं करेंति, चउत्थं करेंति, करेत्ता सव्वत्थ सव्वकामगुणिएणं पारेंति। एवं खलु एसा खुड्डागसीहनिक्कीलियस्स तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी छहिं मासेहिं सत्तहि य अहोरत्तेहिं अहासुत्तंजाव आराहिया भवइ।। २०. उसके बाद वे महाबल प्रमुख सात अनगार लघुसिंहनिष्क्रीडित' नाम का तप: कर्म स्वीकार कर विहार करते, जैसे-- चतुर्थ भक्त करते, सर्वकाम गुणित (अभिलषणीय रसोपेत आहार से पारणा करते। (इस प्रकार मध्य में एक-एक दिन के भोजन के अन्तराल से वे) षष्ठ भक्त करते, चतुर्थ भक्त करते। अष्टम भक्त करते, षष्ठ भक्त करते। दशम भक्त करते, अष्टम भक्त करते। द्वादश भक्त करते, दशम भक्त करते। चर्तुदश भक्त करते, द्वादश भक्त करते। षोडश भक्त करते, चतुर्दश भक्त करते। अष्टादश भक्त करते. षोडश भक्त करते। विंशति भक्त करते, अष्टादश भक्त करते। विंशति भक्त करते, षोडश भक्त करते। अष्टादश भक्त करते, चतुर्दश भक्त करते। षोडश भक्त करते, द्वादश भक्त करते। चतुर्दश भक्त करते, दशम भक्त करते। द्वादश भक्त करते, अष्टम भक्त करते। दशम भक्त करते, षष्ठ भक्त करते। अष्टम भक्त करते, चतुर्थ भक्त करते। षष्ठ भक्त करते, चतुर्थ भक्त करते। करके सर्वत्र सर्वकाम गुणित आहार से पारणा करते। इस प्रकार यह लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तपः कर्म की प्रथम परिपाटी छ: मास और सात अहोरात्र से सूत्रानुसार............... यावत् आराधित होती है। २१. तयाणंतरं दोच्चाए परिवाडीए चउत्थं करेंति, नवरं--विगइवज्जं पारेति॥ २१. तदन्तर वे दूसरी परिपाटी में चतुर्थ भक्त करते। विशेष--विकृति वर्जित आहार से पारणा करते। २२. एवं तच्चा वि परिवाडी, नवरं--पारणए अलेवाडं पारेंति॥ २२. इस प्रकार तीसरी परिपाटी भी करते। विशेष--पारणा में लेप रहित आहार से पारणा करते। २३. एवं चउत्था वि परिवाडी, नवरं--पारणए आयंबिलेण पारेति॥ २३. इस प्रकार चौथी परिपाटी भी करते। विशेष--पारणा में आचाम्ल से पारणा करते। २४. तएणं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खुड्डागंसीहनिक्कीलियं २४. वे महाबल प्रमुख सातों अनगार लघुसिंहनिष्क्रीड़ित तप:कर्म की दो Jain Education Intemational Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अष्टम अध्ययन : सूत्र २४-२७ तवोकम्मं दोहिं संवच्छरेहिं अट्ठवीसाए अहोरत्तेहिं अहासुत्तं जाव आणाए आराहेता जेणेव थेरे भगवते तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता थेरे भगवते वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--इच्छामो णं भंते! महालयं सीहनिक्कीलियं तवोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। तहेव जहा खुड्डागं, नवरं--चोत्तीसइमाओ नियत्तइ। एगाए परिवाडीए कालो एगेणं संवच्छरेणं छहिं मासेहिं अट्ठारसहि य अहोरत्तेहिं समप्पेइ । सव्वंपि (महालयं?) सीहनिक्कीलियं छहिं वासेहिं दोहिं मासेहिं बारसहि य अहोरत्तेहिं समप्पेइ। नायाधम्मकहाओ वर्ष अठावीस अहोरात्र तक सूत्रानुसार यावत् आज्ञा से आराधना कर जहां स्थविर भगवान थे, वहां आए। वहां आकर स्थविर भगवान को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले--भन्ते! हम चाहते हैं महासिंहनिष्क्रीड़ित तप:कर्म स्वीकार कर विहार करें। वह वैसे ही होता है जैसे लघु। विशेष--उसका निवर्तन चौतीसवें भक्त से होता है। एक परिपाटी का काल एक वर्ष, छ: मास और अठारह अहोरात्र से सम्पन्न होता है। सम्पूर्ण (महा?) सिंहनिष्क्रीड़ित तप छह वर्ष, दो मास और बारह अहोरात्र से सम्पन्न होता है। २५. तएणं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालयं सीहनिक्कीलियं २५. तब महाबल प्रमुख वे सातों अनगार महासिंहनिष्क्रीड़ित तप:कर्म की अहासुत्तं जाव आराहिता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति, सूत्रानुसार यावत् आराधना कर जहां स्थविर भगवान थे, वहां आए। उवागच्छित्ता थेरे भगवते वदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता वहां आकर स्थविर भगवान को वन्दना की। नमस्कार किया। बहूणि चउत्थ-छट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं वन्दना नमस्कार कर अनेक चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त, अष्टम-भक्त, भावमाणा विहरति॥ दशम-भक्त, द्वादश-भक्त, मासिकं और पाक्षिक तप: कर्म से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। समाहिमरण-पदं २६. तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा तेणं उरालेणं तवोकम्मेणं सुक्का भुक्खा निम्मंसा किडिकिडियाभूया अट्ठिचम्मावणद्धा किसा धमणिसंतया जाया यावि होत्था। जहा खंदओ नवरं--थेरे आपुच्छित्ता चारुपव्वयं सणियं-सणियं दुरुहंति जाव दोमासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता, सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेएत्ता, चतुरासीइं वाससयसहस्साई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, चुलसीइं पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववण्णा । तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं महब्बलवज्जाणं छण्हं देवाणं देसूणाई बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई। महब्बलस्स देवस्स य पडिपुण्णाई बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई। समाधिमरण-पद २६. उस उदार तप:कर्म से महाबल प्रमुख सातों अनगार सूखे, रूखे और मांस रहित हो गये। उठने-बैठने में कट-कट शब्द होने लगा। वे चर्म मढ़ा हड्डियों का ढांचा भर और कृश होने से मात्र धमनियों के जाल जैसे रह गये, जैसे--स्कन्दक।* विशेष-स्थविरों से पूछकर धीरे-धीरे चारु-पर्वत पर चढ़े यावत् दो महीने की संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर अनशन काल में एक-सौ बीस भक्तों का परित्याग कर चौरासी लाख वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर चौरासी लाख पूर्व की परिपूर्ण आयु को भोग, जयन्त विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए। वहां कुछ देवों की स्थिति बत्तीस सागरोपम बतलाई गयी है। उनमें महाबल के अतिरिक्त छह देवों की स्थिति बत्तीस सागरोपम से कुछ कम है। महाबल देव की स्थिति परिपूर्ण बत्तीस सागरोपम है। पच्चायाति-पदं २७. तए णं ते महब्बलवज्जा छप्पि देवा जयंताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विसुद्धपिइमाइक्सेसु रायकुलेसु पत्तेयं-पत्तेयं कुमारत्ताए पच्चायाया, तं जहा-- पडिबुद्धि इक्खागराया, चंदच्छाए अंगराया, प्रत्यागमन-पद २७. महाबल के अतिरिक्त वे छह देव आयु-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनन्तर जयन्त देवलोक से च्युत हो पुन: इसी जम्बूद्वीप द्वीप के भारतवर्ष में, विशुद्ध पितृ-मातृ-वंश वाले राजकुलों में एक-एक कुमार के रूप में जन्मे, जैसे-- इक्ष्वाकुराज प्रतिबुद्धि। अंगराज चन्द्रच्छाय। * भगवती २/१६४-६८1 ज्ञाताधर्मकथा १/१/२०३-२०६ मेघकुमार का वर्णन । Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ नायाधम्मकहाओ संखे कासिराया, रुप्पि कुणालाहिवई, अदीणसत्तू कुरुराया, जियसत्तू पंचालाहिवई॥ अष्टम अध्ययन : सूत्र २७-३२ काशीराज शंख। कुणाला का अधिपति रुक्मी। कुरुराज अदीनशत्रु। पाञ्चाल का अधिपति जितशत्रु । २८. तए णं से महब्बले देवे तिहिं नाणेहि समग्गे उच्चाट्ठाणगएK गहेसुं, सोमासु दिसासु वितिमिरासु विसुद्धासु, जइएसु सउणेसु पयाहिणाणुकूलसि भूमिसपिसि मास्यसि पवायंसि, निष्फण्ण-सस्समेइणीयसि कालसि पमुइय-पक्कीलिएसु जणवएसु अद्धरत्तकालसमयंसि अस्सिणीनक्खत्तेणं जोगमुवागएणं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे अट्ठमे पक्खे, तस्स णं फग्गुणसुद्धस्स चउत्थीपक्खेणं जयंताओ विमाणाओ बत्तीसं सागरोवमठिइयाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभस्स रण्णो पभावतीए देवीए कुच्छिसि आहारवक्कंतीए भववक्कंतीए सरीरवक्कंतीए गब्भत्ताए वक्कते।। २८. उस समय ग्रह उच्चस्थानीय थे। दिशाएं सौम्य, तिमिररहित और निर्मल थी। शकुन विजय सूचक थे। दक्षिणावर्त और अनुकूल हवाएं भूमि का स्पर्श करती हुई बह रही थी। धरती पर पकी हुई फसलें लहलहा रही थी। जनपद प्रमुदित और नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में निरत थे। अर्धरात्रि का समय था, अश्विनी नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग था। हेमन्त का चौथा महिना, आठवां पक्ष, फाल्गुन शुक्ल पक्ष और चतुर्थी तिथि थी। उस समय वह महाबल देव आहार-अवक्रांति, भव-अवक्रांति और शरीर-अवक्रांति के अनन्तर बत्तीस सागरोपम स्थिति वाले जयन्त विमान से च्युत हो, इसी जम्बूद्वीप द्वीप भारतवर्ष और मिथिला राजधानी में कुम्भराजा की प्रभावती देवी की कुक्षि में तीन ज्ञान के साथ गर्भ रूप में उत्पन्न हुआ। २९. जं रयणिं च णं महब्बले देवे पभावतीए देवीए कुच्छिसि गब्भत्ताए वक्कते, तं रयणिं च णं सा पभावती देवी चोद्दस महासुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा । भत्तार-कहणं । सुमिणपाढगपुच्छा जाव विपुलाई भोगभोगाइं जमाणी विहरइ॥ २९. जिस रात्रि में महाबल देव प्रभावती देवी की कुक्षि में गर्भ रूप में उत्पन्न हुआ, उस रात्रि में प्रभावती देवी चौदह महास्वप्न देखकर प्रतिबुद्ध हुई। उसने पति से कहा। स्वप्न पाठकों से पूछा--यावत् वह विपुल भोगार्ह भोगों को भोगती हुई विहार करने लगी। ३०. तए णं तीसे पभावईए देवीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमेयारूवे डोहले पाउन्भूए--धण्णाओणं ताओ अम्मयाओ जाओ णं जल-थलय-भासरप्पभूएणं दसद्धवण्णेणं मल्लेणं अत्थुय-पच्चत्थुयंसि सयणिज्जसि सण्णिसण्णाओ निवण्णाओ य विहरति, एगं च मह सिरिदामगंडं पाडल-मल्लिय-चंपग-असोगपुन्नाग-नाग-मख्यग-दमणग-अणोज्जकोज्जय-पउरं परमसुहफासं दरिसणिज्जं महया गंधद्धणिं मुयंत अग्घायमाणीओ डोहलं विणेति ॥ ३०. पूरे तीन माह बीत जाने पर प्रभावती देवी को यह विशेष प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ--धन्य हैं वे माताएं जो उस प्रकार के शयनीय में बैठी हुई और सोई हुई विहरण करती हैं जिस पर जल, स्थल में खिले हुए प्रभूत पंचरंगे पुष्प बिछे हुए हैं। वे पाटल, मोगरा (मल्लिका) चम्पक, अशोक, पुन्नाग, नाग, मरुवा, दमनक, निर्दोष-कुज्जक आदि पुष्प समूह से निर्मित, परम-सुखद स्पर्श वाले, दर्शनीय और घ्राण को महान तृप्ति देने वाले गन्धमय परमाणुओं को बिखेरती हुई एक महान श्री दामकाण्ड नाम की माला को सूंघती हुई अपना दोहद पूरा करती ३१. तए णं तीसे पभावईए इमं एयारूवं डोहलं पाउब्भूयं पासित्ता अहासण्णिहिया वाणमंतरा देवा खिप्पामेव जल-थलय-भासरप्पभूयं दसद्धवण्णं मल्लं कुंभग्गसो य भारग्गसा य कुंभस्स रण्णो भवर्णसि साहरंति, एगं च णं महं सिरिदामगंडं जाव गंधद्धणिं मुयंतं उवणेति॥ ३१. प्रभावती देवी को इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ है--यह जानकर आस-पास के वानव्यंतर देव तत्काल जल और स्थल में खिलने वाले प्रभूत कुम्भ परिमित और भार परिमित पंचरंगे पुष्प समूह कुम्भ राजा के घर में लाए और यावत् घ्राण को महान तृप्ति देने वाले गंधमय परमाणुओं को बिखेरती हुई एक महान श्रीदामकाण्ड नाम की माला भी लाए। ३२. तए णंसा पभावई देवी जल-थलय-भासरप्पभूएणं दसद्धवण्णेणं मल्लेणं दोहलं विणेइ॥ ३२. प्रभावती देवी ने जल और स्थल में खिलने वाले प्रभूत पंचरंगे पुष्प समूह से अपना दोहद पूरा किया। Jain Education Interational For Private & Personal use only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र ३३-४० १८४ नायाधम्मकहाओ ३३. तए णं सा पभावई देवी पसत्थदोहला सम्माणियदोहला ३३. प्रभावती देवी ने दोहद को प्रशस्त किया। उसका सम्मान किया, विणीयदोहला संपुण्णदोहला संपत्तदोहला विउलाई माणुस्सगाइं उसका विनयन किया, उसे पूरा किया और संप्राप्त किया। वह मनुष्य भोगभोगाइं पच्चणुभवमाणी विहरइ।। संबंधी विपुल भोगार्ह भोगों का अनुभव करती हुई विहार करने लगी। ३४. तए णं सा पभावई देवी नवण्हं मासाणं (बहुपडिपुण्णाणं?) अट्ठमाण य राइंदियाणं (वीइक्कंताणं?) जे से हेमंताणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे मग्गसिरसुद्धे, तस्स णं एक्कारसीए पुव्वरत्तावरत्त-कालसमयंसि अस्सिणीनक्खत्तेणं (जोगमुवागएणं?) उच्चट्ठाणगएसुं गहेसु जाव पमुइय-पक्कीलिएसु जणवएसु आरोयारोयं एगूणवीसइमं तित्थयरं पयाया। ३४. पूरे नौ मास और साढ़े सात दिन रात बीतने पर हेमन्त ऋतु के प्रथम मास दूसरा पक्ष मृगसर शुक्ल एकादशी तिथि को मध्यरात्रि के समय जब अश्विनी नक्षत्र के साथ (चन्द्र का योग) था, ग्रह उच्चस्थानीय थे, यावत् जनपद प्रमुदित और नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में निरत थे, उस समय स्वस्थ प्रभावती देवी ने स्वस्थ उन्नीसवें तीर्थंकर को जन्म दिया। ३५. तेणं कालेणं तेणं समएणं अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीम- हयरियाओ जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए जम्मणुस्सवं, नवरं मिहिलाए कुंभस्स पभावईए अभिलाओ संजोएयव्वो जाव नंदीसरवरदीवे महिमा॥ ३५. उस काल और उस समय अधोलोक निवासिनी आठ प्रधान दिशा कुमारियों ने जन्मोत्सव किया, जैसे--जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में जन्मोत्सव का वर्णन है। विशेष इतना है--यथास्थान मिथिला, कुम्भ और प्रभावती के नाम संयोजनीय हैं--यावत् नंदीश्वर द्वीप में महिमा। ३६. तया णं कुंभए राया बहूहिं भवणवइ-वाणमंतर-जोइस- वेमाणिएहिं देवेहिं तित्थयर-जम्मणाभिसेयमहिमाए कयाए समाणीए पच्चूसकालसमयंसि नगरगुत्तिए सद्दावेइ जायकम्म जाव नामकरणं--जम्हा णं अम्हं इमीसे दारियाए माऊए मल्लसयणिज्जसि डोहले विणीए, तं होउ णं (अम्हं दारिया?) नामेणं मल्ली। ३६. तब बहत से भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिक देवों द्वारा तीर्थंकर की जन्माभिषेक महिमा सम्पन्न हो जाने पर राजा कुम्भ ने प्रभातकाल में नगर-आरक्षक-दल को बुलाया। जातकर्म यावत् नामकरण संस्कार सम्पन्न किया, जैसे हमारी इस बालिका की. माँ का माल्यशयनीय का दोहद पूरा हुआ है, अत: (हमारी इस बालिका) इसका नाम 'मल्ली' हो। ३७. तए णं सा मल्ली पंचधाईपरिक्खित्ता जाव सुहंसुहेणं परिवड्डई। ३७. वह मल्ली पांच धाय-माताओं से घिरी हुई यावत् सुखपूर्वक बढ़ने लगी। ३८. तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना उम्मुक्कबालभावा विण्णय- परिणयमेत्ता जोव्वणगमणुपत्ता रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य अईव-अईव उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्था॥ ३८. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली शैशव को लांघकर विज्ञ और कला की पारगामी बनकर यौवन में प्रविष्ट हुई। वह रूप, यौवन और लावण्य से अतिशय उत्कृष्ट एवं उत्कृष्ट शरीर वाली हुई। ३९. तए णं सा मल्ली देसूणवाससयजाया ते छप्पि य रायाणो विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी-आभोएमाणी विहरइ, तं जहा-पडिबुद्धिं इक्खागरायं, चंदच्छायं अंगरायं, संखं कासिरायं, रुप्पिं कुणालाहिवई, अदीणसत्तुं कुरुरायं, जियसत्तुं पंचालाहिवई॥ ३९. वह मल्ली कुछ कम सौ वर्ष की हुई तब अपने विपुल अवधिज्ञान से इक्ष्वाकुराज प्रतिबुद्धि, अंगराज चन्द्रच्छाय, काशीराज शंख, कुणाला के अधिपति रुक्मी, कुरुराज अदीनशत्रु और पांचाल देश के अधिपति जितशत्रु इन छहों राजाओं के विषय में जानने लगी। मल्लिस्स मोहणघर-निम्माण-पदं ४०. तए णं सा मल्ली कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! असोगवणियाए एगं महं मोहणघरं करेह--अणेगखंभसयसण्णिविटुं । तस्स णं मोहणघरस्स बहुमझदेसभाए छ गन्भघरए करेह । तेसि णं गब्भघरगाणं बहुमज्झदेसभाए जालघरयं करेह। तस्स णं जालघरयस्स मल्ली के रतिघर का निर्माण-पद ४०. मल्ली ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--"देवानुप्रियो ! तुम अशोक वनिका में एक विशाल रतिघर का निर्माण कराओ, जो अनेक शत खम्भों पर सन्निविष्ट हो। उस रतिघर के ठीक मध्यभाग में छह तलघर बनाओ। उन छहों तलघरों के ठीक मध्यभाग में जालक-गृह बनाओ। उस जालक-गृह के ठीक Jain Education Intemational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १८५ बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियं करेह । एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तेवि तहेव पच्चप्पिणंति॥ अष्टम अध्ययन : सूत्र ४०-४७ मध्यभाग में मणि-निर्मित पीठिका बनाओ। इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया। ४१. तए णं सा मल्ली मणिपेढियाए उवरिं अप्पणो सरिसियं सरित्तयं सरिब्वयं सरिस-लावण्ण-रूव-जोव्वण-गुणोववेयं कणगामई मत्थयच्छिडं पउमुप्पल-पिहाणं पडिमं करेइ, करेत्ता जं विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं आहारेइ, तओ मणुण्णाओ असण-पाणखाइम-साइमाओ कल्लाकल्लिं एगमेगं पिंडं गहाय तीसे कणगामईए मत्थयछिड्डाए पउमुप्पल-पिहाणाए पडिमाए मत्थयंसि पक्खिवमाणी-पक्खिवमाणी विहरइ॥ ४१. मल्ली ने उस मणिपीठिका पर स्वयं के सदृश, समान त्वचा, समान वय, समान लावण्य, समान रूप, समान यौवन और गुणसम्पन्न एक स्वर्णमयी प्रतिमा स्थापित की, जिसके मस्तक में छेद और पद्म-कमल का ढक्कन था। मल्ली जिस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आहार करती, उस मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य में से प्रतिदिन प्रात:काल एक-एक ग्रास मस्तक में छेद और पद्म-कमल के ढक्कन वाली उस स्वर्णमयी प्रतिमा के मस्तक में डाल देती। ४२. तए णं तीसे कणगामईए मत्थयछिड्डाए पउमुप्पल-पिहाणाए पडिमाए एगमेगसि पिडे पक्खिप्पमाणे-पक्खिप्पमाणे तओ गंधे पाउन्भवेइ, से जहाणामए--अहिमडे इ वा गोमडे इ वा सुणहमडे इवा मज्जारमडे इ वा मणुस्समडे इ वा महिसमडे इ वा मूसगमडे इवा आसमडे इ वा हत्थिमडे इ वा सीहमडे इ वा वग्घमडे इ वा विगमडे इ वा दीविगमडे इ वा। मय-कुहिय-विट्ठदुरभिवावण्ण-दुन्भिगंधे किमिजालाउलसंसत्ते असुइ-विलीणविगय-बीभत्सदरिसणिज्जे भवेयारूवे सिया? नो इणद्वे समटे । एत्तो अणिट्ठतराए चेव अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुण्णतराए चेव अमणामतराए चेव।। ४२. मस्तक में छेद और पद्म-कमल के ढक्कन वाली उस स्वर्णमयी प्रतिमा में प्रतिदिन एक-एक ग्रास डालने के कारण ऐसी गन्ध फूटने लगी, मानो कोई मृत सांप, मृत बैल, मृत कुत्ता, मृत बिलाव, मृत मनुष्य, मृत भैंस, मृत चूहा, मृत घोड़ा, मृत हाथी, मृत सिंह, मृत बाघ, मृत भेड़िया अथवा मृत गेंडा हो। जैसे कोई मृत, कुथित, विनष्ट, दुर्गन्धपूर्ण, तीव्रतम दुर्गन्धयुक्त शृगाल आदि के खा जाने से विरूप तथा कृमि-समूह से आकीर्ण और संसक्त हो जाने से अशुचि, घृणाजनक, विकृत और देखने में बीभत्सर दिखाई देता है। क्या वह गन्ध ऐसी ही थी? यह अर्थ समर्थ नहीं है। वह गन्ध उससे भी अनिष्टतर, अकमनीयतर, अप्रियतर, अमनोज्ञतर और अमनोगततर लगती थी। पडिबुद्धिराय-पदं ४३. तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसला नामं जणवए। तत्थ णं सागेए नामं नयरे।। प्रतिबुद्धिराज-पद ४३. उस काल और उस समय कौशल नाम का जनपद था। उसमें साकेत नाम का नगर था। ४४. तस्स णं उत्तपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं महेगे नागघरए होत्या--दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सण्णिहिय-पाडिहेरे॥ ४४. उसके ईशानकोण में एक विशाल नागगृह था। वह दिव्य सत्य, सत्य अवपात वाला और सन्निहित प्रातिहार्य (किसी प्रहरी व्यन्तरदेव द्वारा अधिष्ठित) था। ४५. तत्थ णं सागेए नयरे पडिबुद्धी नाम इक्खागराया परिवसइ। पउमावई देवी। सुबुद्धि अमच्चे साम-दंड-भेय-उवप्पयाणनीति-सुप्पउत्त-नय-विहण्णू विहरइ॥ ४५. उस साकेत नगर में इक्ष्वाकुवंशीय प्रतिबुद्धि नाम का राजा निवास करता था। उसके पद्मावती देवी-थी और सुबुद्धि नाम का अमात्य था, वह साम, दण्ड, भेद, उपप्रदान नीतियों के सम्यक् प्रयोग और न्याय की विद्याओं का ज्ञाता था। ४६. तए णं पउमावईए देवीए अण्णया कयाइ नागजण्णए यावि होत्था। ४६. किसी समय पद्मावती देवी के यहां नागपूजा का प्रसंग उपस्थित हुआ। ४७. तए णं सा पउमावई देवी नागजण्णमुवट्ठियं जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धी राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं ४७. नागपूजा को उपस्थित जानकर वह पद्मावती देवी, जहां राजा प्रतिबुद्धि था, वहां आयी। वहां आकर उसने दोनों हथेलियों से Jain Education Intemational Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र ४७-५२ १८६ नायाधम्मकहाओ दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु सामी! मम कल्लं नागजण्णए भविस्सइ । तं इच्छामि णं सामी! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी नागजण्णयं गमित्तए। तुब्भे वि णं सामी! मम नागजण्णयसि समोसरह। निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से राजा का वर्धापन किया। वर्धापन कर इस प्रकार कहा--स्वामिन् ! कल मेरे नागपूजा होगी, इसलिए स्वामिन्! मैं चाहती हूं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर नागपूजा में जाऊं ! स्वामिन्! तुम भी मेरी नागपूजा में चलो। ४८. तए णं पडिबुद्धी पउमावईए एयमट्ठ पडिसुणेइ।। ४८. प्रतिबुद्धि ने पद्मावती के इस अर्थ को स्वीकार किया। पणहा ४९. तए णं पउमावई पडिबुद्धिणा रण्णा अब्भणुण्णाया समाणी हट्ठतुट्ठा कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मम कल्लं नागजण्णं भविस्सइ, तं तब्भे मालागारे सद्दावेह, सद्दावेत्ता एवं वदाह--एवं खलु पउमावईए देवीए कल्लं नागजण्णए भविस्सइ, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया! जल-थलयभासरप्पभूयं दसद्धवण्णं मल्लं नागघरयंसि साहरह, एगं च णं महं सिरिदामगंडं उवणेह। तए णं जल-थलय-भासरप्पभूएणं दसद्धवण्णेणं मल्लेणं नाणाविह-भत्ति-सुविरइयं हंस-मिय-मयूर-कोंच-सारसचक्कवाय-मयणसाल-कोइल-कुलोववेयं ईहामिय-उसभ-तुरयनर-मगर-विहग-बालग-किंनर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजरवणलय-पउमलय-भत्तिचित्तं महग्धं महरिहं विउलं पुष्फमंडवं विरएह । तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एगं महं सिरिदामगंडं जाव गंधद्धणिं मुयंतं उल्लोयंसि ओलएह, पउमावइं देविं पडिवालेमाणा चिट्ठह ।। ४९. प्रतिबुद्धि राजा से अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्ट तुष्ट हुई, पद्मावती देवी ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! कल मेरे नाग पूजा होगी, अत: तुम माली को बुलाओ। उसे बुलाकर ऐसा कहो--कल पद्मावती देवी के नागपूजा होगी। अत: देवानुप्रिय! तुम जल और स्थल में खिलने वाले प्रभूत पंचरंगे पुष्प समूह को नागघर में लाओ और एक विशाल श्री दामकाण्ड नाम की माला भी उपस्थित करो। ____ जल और स्थल में खिलने वाले प्रभूत पंचरंगे पुष्प समूह की नाना भांतों से सुविरचित, हंस, मृग, मयूर, कोंच, सारस, चक्रवाक, मदन-सारिका और कोकिल कुल से युक्त, भेड़िये, बैल, घोड़े, मनुष्य, मगरमच्छ, पक्षी, सर्प, किन्नर, मृग, अष्टापद, चमरीगाय, हाथी तथा अशोक आदि की लता और पद्मलता--इनके भांत चित्रों (विविध भांत के पंक्तिबद्ध चित्रों) से युक्त महामूल्य और महान अर्हता वाले विपुल पुष्प-मंडप की रचना करो। उस पुष्प मंडप के ठीक मध्य भाग में घ्राण को महान तृप्ति देने वाले गन्धमय परमाणुओं को बिखेरती हुई एक महान श्रीदामकाण्ड नाम की माला को चन्दोवे के नीचे लटकाओ और वहां पद्मावती देवी की प्रतीक्षा करो। ५०. तए णं ते कोडुबिया जाव पउमावतिं देविंपडिवालेमाणा चिटुंति॥ ५०. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् पद्मावती देवी की प्रतीक्षा की। ५१. तए णं सा पउमावई देवी कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते कोडुबिए पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सागेयं नयरं सब्भितरबाहिरियं आसिय-सम्मज्जिओवलित्तं जाव गंधवट्टिभूयं करेह, कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चपिणह । ते वि तहेव पच्चपिणंति॥ ५१. उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर उस पद्मावती देवी ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही साकेत नगर के बाहर और भीतर जल का छिड़काव कर, बुहार-झाड़, गोबर लीप, साफ-सुथरा कराओ यावत् उसे सुगन्धित गन्धवर्तिका जैसा करो और कराओ। इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया। ५२. तए णं सा पउमावई देवी दोच्चंपि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! लहुकरणजुत्तं जाव धम्मियं जाणप्पवरं उवट्ठवेह । ते वि तहेव उवट्ठति ।। ५२. पद्मावती देवी ने दूसरी बार भी कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! गतिक्रिया की दक्षता से युक्त यावत् धार्मिक यान प्रवर को तैयार कर शीघ्र उपस्थित करो। उन्होंने भी वैसे ही उपस्थित किया। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १८७ अष्टम अध्ययन : सूत्र ५३-५९ ५३. तए णं सा पउमावई देवी अंतो अंतेउरंसि बहाया जाव धम्मियं ५३. पद्मावती देवी ने अपने अन्त:पुर के भीतर स्नान किया यावत् जाणं दुरूढा॥ धार्मिक यान पर आरूढ़ हुई। ५४. तए णं सा पउमावई देवी नियग-परियाल-संपरिवुडा सागेयं नयरं मझमज्झेणं निज्जाइ, जेणेव पोक्खरणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोक्खरणिं ओगाहति, ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ जाव परमसुइभूया उल्लपडसाडया जाइं तत्थ उप्पलाई जाव ताई गेण्हइ, जेणेव नागघरए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। ५४. पद्मावती देवी अपने परिकर से संपरिवृत हो साकेत नगर के बीचोंबीच से गुजरती हुई निकली। जहां पुष्करिणी थी, वहां आयी। आकर पुष्करिणी में अवगाहन किया। अवगाहन कर जल में मज्जन किया यावत् परम शुचिभूत होकर गीले कपड़े पहने ही वहां जो उत्पल यावत् सहस्रपत्र थे, उन्हें ग्रहण किया और जहां नागघर था उधर जाने का संकल्प किया। ५५. तए णं पउमावईए देवीए दासचेडीओ बहूओ पुप्फपडलग- हत्थगयाओ धूवकडच्छुय-हत्थगयाओ पिट्ठओ समणुगच्छंति॥ ५५. पद्मावती देवी की बहुत सी दासियां हाथों में पुष्प-पटल और धूपदानियां लिए हुए उसके पीछे-पीछे चल रही थी। ५६. तए णंपउमावई देवी सव्विड्डीए जेणेवनागघरए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नागघरं अणुप्पविसइ, लोमहत्थगं परामुसइ जाव धूवं डहइ, पडिबुद्धिं पडिवालेमाणी-पडिवालेमाणी चिट्ठइ। ५६. पद्मावती देवी अपनी सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ जहां नागघर था, वहां आयी। वहां आकर नागघर में प्रवेश किया। प्रमार्जनी को हाथों में लिया यावत् धूप खेया और प्रतिबुद्धि की प्रतीक्षा करने लगी। ५७. तए णं से पडिबुद्धी हाए हत्थिखंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं वीइज्जमाणे हय-गयरह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिडे महया भड-चडगर-रह-पहकर-विंदपरिक्खित्ते सागेयं नगरं मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव नागघरए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता आलोए पणामं करेइ, करेत्ता पुप्फमंडवं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता पासइ तं एगं महं सिरिदामगंडं। ५७. प्रतिबुद्धि राजा ने स्नान कर प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हो कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया और प्रवर श्वेत चामरों से वीजित होता हुआ वह अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना से संपरिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों और पथदर्शक वृन्द से घिरा हुआ साकेत नगर के बीचोंबीच से गुजरता हुआ निकला। जहां नागघर था, वहां आया। वहां आकर हस्ति-स्कन्ध से उतरा। उतर कर नाग प्रतिमा को देखते ही प्रणाम किया। प्रणाम कर पुष्प-मंडप में प्रवेश किया। प्रवेश कर उसने एक महान श्रीदामकाण्ड नाम की माला को देखा। ५८. तए णं पडिबुद्धी तं सिरिदामगंडं सुचिरं कालं निरिक्खइ। तसि सिरिदामगंडसि जायविम्हए सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी--तुम देवाणुप्पिया! मम दोच्चेणं बहूणि गामागर जाव सण्णिवेसाई आहिंडसि, बहूण य राईसर जाव सत्थवाहपभिईणं गिहाई अणुप्पविससि, तं अत्थि णं तुमे कहिंचि एरिसए सिरिदामगडे दिट्ठपुव्वे, जारिसए णं इमे पउमावईए देवीए सिरिदामगडे? ५८. प्रतिबुद्धि ने उस श्रीदामकाण्ड माला को सुचिर काल तक निहारा। उस श्रीदामकाण्ड माला पर अनुरक्त होकर उसने अमात्य सुबुद्धि को इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम हमारे दौत्य कर्म के लिए ग्राम, आकर यावत् सन्निवेशों में घूमते हो और बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के घरों में प्रवेश करते हो, तो क्या तुमने ऐसी श्रीदामकाण्ड नाम की माला कहीं पहले देखी है, जैसी कि इस पद्मावती देवी की यह श्रीदामकाण्ड नाम की माला है। ५९. तए णं सुबुद्धी पडिबुद्धिं रायं एवं वयासी--एवं खलु सामी! अहं अण्णया कयाइ तुब्भं दोच्चेणं मिहिलं रायहाणिं गए। तत्थ णं मए कुंभयस्स रण्णो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए संवच्छर-पडिलेहणगंसि दिव्वे सिरिदामगडे दिट्ठपव्वे । तस्स णं सिरिदामगंडस्स इमे पउमावईए देवीए सिरिदामगडे सयसहस्सइमपि कलंन अग्घइ॥ ५९. सुबुद्धि ने प्रतिबुद्धि राजा से इस प्रकार कहा--स्वामिन् ! किसी समय मैं आपके दौत्य कर्म के लिए मिथिला राजधानी गया था। वहां मैंने कुम्भ राजा की, प्रभावती देवी की आत्मजा मल्ली के जन्म दिवस के दिन दिव्य श्रीदामकाण्ड माला देखी थी। पद्मावती देवी की यह श्रीदामकाण्ड माला उस श्रीदामकाण्ड माला के लक्षांश में भी नहीं आती। Jain Education Intemational Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र ६०-६६ १८८ नायाधम्मकहाओ ६०. तए णं पडिबुद्धी सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी--केरिसिया णं ६०. प्रतिबुद्धि ने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! कैसी है देवाणुप्पिया! मल्ली विदेहरायवरकन्ना, जस्स णं संवच्छर- वह विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली, जिसके जन्म-दिन पर निर्मित पडिलेहणयंसि सिरिदामगंडस्स पउमावईए देवीए सिरिदामगडे श्रीदामकाण्ड माला के पद्मावती देवी की श्रीदामकाण्ड माला लक्षांश सयसहस्सइमपि कलंन अग्घइ? में भी नहीं आती? ६१. तए णं सुबुद्धी पडिबुद्धिं इक्खागरायं एवं वयासी--एवं खलु सामी! मल्ली विदेहरायवरकन्ना सुपइट्ठियकुम्मुण्णय-चारुचरणा जाव पडिरूवा।। ६१. सुबुद्धि ने इक्ष्वाकुराज प्रतिबुद्धि से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली सुप्रतिष्ठित, कुर्मोन्नत, सुन्दर चरणों वाली यावत् असाधारण है। ६२. तए णं पडिबुद्धी सुबुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए एयमटुं सोच्चा निसम्म सिरिदामगंड-जणियहासे दूयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छाहि णं तुमं देवाणुप्पिया! मिहिलं रायहाणिं । तत्थ णं कुंभगस्स रण्णो घूयं पभावईए अत्तयं मल्लिं विदेहरायवरकन्नं मम भारियत्ताए वरेहि, जइ वि यणं सा सयं रज्जसुंका।। ६२. अमात्य सुबुद्धि के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर प्रतिबुद्धि ने उस श्रीदामकाण्ड माला पर प्रमुदित होकर दूत को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम मिथिला राजधानी जाओ। वहां राजा कुम्भ की पुत्री, प्रभावती की आत्मजा, विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का मेरी भार्या के रूप में वरण करो। फिर उसका मूल्य राज्य जितना भी क्यों न हो। ६३. तए णं से दूए पडिबुद्धिणा रण्णा एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुढे पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता जेणेव सए गिहे जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटे आसरहं पडिकप्पावेइ, पडिकप्पाक्ता दुरुढेहय-गय-रह-पवर-जोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे महया भड-चडगरेणं साएयाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव विदेहजणवए जेणेव मिहिला रायहाणी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। ६३. राजा प्रतिबुद्धि के ऐसा कहने पर दूत ने हृष्ट तुष्ट होकर उसे स्वीकार किया। स्वीकार कर जहां अपना घर था, जहां चार घंटों वाला अश्व-रथ था, वहां आया। वहां आकर चार घंटो वाले अश्व-रथ को सजाया। सजाकर उस पर आरूढ़ हुआ। अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना से संपरिवृत होकर महान सैनिकों की विभिन्न टुकड़ियों से घिरे हुए उसने साकेत नगर से निर्गमन किया। निर्गमन कर जहां विदेह जनपद था। जहां मिथिला राजधानी थी, उधर जाने का संकल्प किया। चंदच्छाय-राय-पदं ६४. तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगनामंजणवए होत्था। तत्थ णं चंपा नाम नयरी होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था। तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहण्णगपामोक्खा बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति--अड्डा जाव बहुजणस्स अपरिभूया। चन्द्रच्छायराज-पद ६४. उस काल और उस समय अंग नाम का जनपद था। उसमें चम्पा' नाम की नगरी थी। उस चम्पा नगरी में अंग देश का राजा चन्द्रच्छाय था। उस चम्पानगरी में अर्हन्नक प्रमुख सांयात्रिक पोतवणिक रहते थे। वे आढ्य यावत् बहुत व्यक्तियों से अपराजित ६५. तए णं से अरहण्णगे समणोवासए यावि होत्था-- अहिगयजीवाजीवे वण्णओ।। ६५. अर्हन्नक श्रमणोपासक भी था। वह जीव-अजीव को जानने वाला था--वर्णक। ६६. तए णं तेसिं अरहण्णगपामोक्खाणं संजत्ता-नावावाणियगाणं अण्णया कयाइ एगयओ सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा समुल्लावे समुप्पज्जित्था-सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुदं पोयवहणेणं ओगाहित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता गणिमं च धरिमं च मेजं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गेण्हंति, गेण्हित्ता ६६. किसी समय एकत्र सम्मिलित अर्हन्नक प्रमुख सांयात्रिक पोतवणिकों में परस्पर इस प्रकार वार्तालाप हुआ--हमारे लिए उचित है, हम गणनीय, धरणीय, मेय और परिच्छेद्य-क्रयाणक (किराने) को लेकर, पोतवहन से लवण समुद्र का अवगाहन करें। सबने परस्पर इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर गणनीय, धरणीय, मेय और परिच्छेद्य-कयाणक लिया। लेकर बहुत से छोटे-बड़े वाहन तैयार Jain Education Intemational Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकाओ सगड़ी-सागडवं सज्जेति, सज्जेत्ता मणिमस्स घरिमस्स मेज्जस्त पारिच्छेज्जरस य भंडगल्ल सगही सामहिय भति, भरेता सोहनसि तिहि करण नक्खत्त-मुहुत्तसि विउलं असणं पाणं साइमं साइमं उवक्खडावेंति, उपपलडावेता मित्त-नाइ नियग-सयणसंबंधि-परिजणं भोएणवेलाए भुंजावेंति, भुंजावेत्ता मित्त-नाइनियग-सयण-संबंधि- परिजणं आपुच्छंति, आपुच्छित्ता सगडीसागडियं जोति, जोइता चंगाए नयरीए मजमणं निगच्छति, निग्गच्छित्ता जेणेव गंभीरए पोपपट्टणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता सगहीसागडियं मोयति, पोयवहणं सज्जेति सज्जेता गणिमस्स धरिमस्स मेज्जस्स पारिच्छेज्जस्स य भंडगस्स (पोयवहणं?) भरेति, तंदुताण य समियरस य तेल्लरस य पयस्स य गुलस् य गोरसस्स य उदगस्स य भायणाण य ओसहाण य सज्जा य तणस्स य कट्ठस्स य आवरणाण य पहरणाण य अण्णेसिं च बहूणं पोयवहणपाउग्गाणं दव्वाणं पोयवहणं भरेंति । सोहांसि तिहि करण नक्सत्त मुत्तसि विउलं असणं पाण साइमं उवक्खडावेति उक्खडावेता मित्त-नाइ नियम-सपणसंबंधि-परियणं भोयणवेलाए भुंजावेंति, भुंजावेत्ता मित्त-नाइनियम- सयण संबंधि परियणं आपुच्छति, जेणेव पोयद्वाणे तेणेव उवागच्छंति ।। १८९ ६७. तए णं तेसिं अरहण्णग- पामोक्खाणं बहूणं संजत्ता - नावा वाणियगाणं मित्त-नाइ नियगसपण संबंधि परियणा ताहिं हिं कंताहिं पियाहिं मणुष्णाहिं मणामाहिं ओरालाहिं वग्गूहिं अभिनंदता व अभिसंपुणमाणा य एवं क्यासी--अज्ज! ताय! भाय! माउल! भाइणेज्ज! भगवया समुदेणं अभिरक्खिज्जमानाअभिरक्खिज्जमाणा चिरं जीवह, भदं च भे, पुणरवि लद्धट्ठे कथकज्जे अणहसमग्गे नियमं परं हन्यमागए पासामो त्ति कट्टु ताहिं सोमाहिं निद्धाहिं दीहाहिं सप्पिवासाहिं पप्पुयाहिं दिट्ठीहिं निरिक्खमाणा मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठति । तओ समाणिएसु पुप्फबलिकम्मेसु दिन्नेसु सरसरत्त चंदन दद्दर-पंचगुलितलेसु अणुक्खित्तंसि धूवंसि, पूइएसु समुद्दवाएसु, संसारियासु वलयासु, ऊसिएस सिसु झयग्गेसु, पहुप्पवाइएसु तूरेतु जइएसु सव्वसउणेसु, गहिए रायवरसासणेसु महया उनिक-सीहनायबोल - कलकलरवेणं पक्खुभियमहासमुद्द- रवभूयं पिव मेहणिं करेमाणा एगदिसिं एगाभिमुहा अरहण्णगपा - मोक्खा संजता नावावाणियगा नावाए दुरूढा ।। - ६८. तओ पुस्समाणवो वक्कमुदाहु--हं भो! सव्वेसिमेव भे अत्यसिद्धी, उवद्वियाई कल्लागाई, पडिहवाई सव्वपावाई जुत्ता पूसो, विजओ मुहुतो अयं देसकालो || अष्टम अध्ययन : सूत्र ६६-६८ 1 किए तैयार कर गणनीय, धरणीय, मेय और परिच्छेद्य कयाणक से छोटे बड़े वाहनों को भरा । भरकर शोभन तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया । तैयार करवाकर मित्र, जाति, निजक, स्वजन संबंधी और परिजनों को भोजन के समय भोजन करवाया। भोजन करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से पूछा। पूछकर छोटे बड़े वाहन जोते। जोतकर चम्पा नगरी के ठीक बीचोंबीच से होकर निकले। निकलकर जहां गंभीरक बन्दरगाह था, वहां आए। आकर छोटे बड़े वाहनों को मुक्त किया। पोतवहन को सज्जित किया। सज्जित कर उसमें गणनीय, धरणीय, मेय और परिच्छेद्य रूप क्रमाणक को भरा। चावल, गेहूं का आटा, तेल, घी, गुड़, दूध, दही, पानी, बर्तन औषध, भेषज्य, तृणकाष्ठ, आवरण, प्रहरण तथा अन्य भी अनेक प्रकार के पोतवहन प्रायोग्य पदार्थों से जहाज को भरा पुनः शोभन तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को तैयार करवाया। तैयार करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों को भोजन के समय भोजन करवाया। भोजन करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों से पूछा और जहां पोत स्थान था, वहां आए । 3 1 ६७. उन अर्हक प्रमुख अनेक सांयात्रिक पोतवगिकों के मित्र, जाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों ने इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज, मनोगत और उदार वाणी से उनका अभिनन्दन और गुणोत्कीर्तन करते हुए कहा - हे आर्य ! हे तात! हे भ्रात ! हे मातुल! हे भागिनेय! भगवान समुद्र के संरक्षण में तुम चिरजीवी हो तुम्हारा भद्र हो। हम तुम्हें अपना प्रयोजन सिद्ध कर, कृतार्थ हो, निष्कलंक तथा ऐश्वर्य और परिवार से सम्पन्न हो, शीघ्र अपने घर आये हुए देखें-- इस प्रकार उन सौम्य, स्नेहिल, दीर्घ, प्यासी और अश्रुपूरित आंखों से उन्हें निहारते हुए वे मुहूर्त भर तक वहीं खड़े रहे । पुष्प पूजा सम्पन्न की। पांचों अंगुलियों समेत हथेली से सरस चन्दन के छापे (हत्थक) लगाए। धूप खेया समुद्री हवाओं का पूजन किया। पतवारें उचित स्थान में नियोजित की। श्वेत पताकाओं के ध्वजाग्र ऊपर उठे । वाद्य-कला निपुण व्यक्तियों द्वारा बाजे बजाए जाने लगे विजय सूचक सभी शकुन हुए। प्रवर राज-शासन (पार-पत्र) मिल चुके तब एक दिशा एवं एक लक्ष्य के अभिमुख वे अर्हन्नक प्रमुख सांयात्रिक पोत वणिक् उत्कृष्ट सिंहनाद जनित कोलाहल पूर्ण शब्दों द्वारा प्रक्षुभित महासागर की भांति धरती को शब्दायमान करते हुए नौका पर आरूढ़ हुए । I ६८. मंगल- पाठकों ने मंगल-वाक्य कहा- हे समुद्र यात्रियो! आप सभी के अर्थ सिद्ध हों (कामनाएं पूर्ण हों ) । कल्याण उपस्थित हों । सर्व पाप ( विघ्न) प्रतिहत हों। इस समय चन्द्र के साथ पुष्य नक्षत्र" का योग Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र ६८-७२ १९० नायाधम्मकहाओ है। विजय मुहूर्त है। अत: (आपके प्रस्थान के लिए) यह देशकाल सर्वथा उचित है। ६९. ताओ पुस्समाणवेणं वक्कमुदाहिए हट्ठतुट्ठा कण्णधार-कुच्छि- धार-गन्भिज्जसंजत्ता-नावावाणियगा वावारिंसु, तं नावं पुण्णुच्छंगं पुण्णमुहिं बंधणेहितो मुंचंति॥ ६९, मंगल-पाठक द्वारा यह बात कहते ही हृष्ट तुष्ट हुए कर्णधार (नौ चालक) कुक्षिधार (नौका के पार्श्व भाग में नियुक्त पतवार चालक) कर्मचारी और सांयात्रिक पोतवणिक् अपने-अपने कार्यों में व्याप्त हो गए। जिसका मध्य भाग और अग्रिम भाग विक्रेय वस्तुओं और मांगलिक वस्तुओं से भरा हुआ था, उस नौका को चालकों ने बन्धन मुक्त किया। ७०. तए णं सा नावा विमुक्कबंधणा पवणबल-समाहया ऊसियसिया विततपक्खा इव गरुलजुवई गंगासलिल-तिक्ख-सोयवेगेहिं संखुब्भमाणी-संखुन्भमाणी उम्मी-तरंग-मालासहस्साइं समइच्छमाणी- समइच्छमाणी कइवएहिं अहोरत्तेहिं लवणसमुदं अणेगाइं जोयणसयाई ओगाढा ।। ७०. बन्धन-मुक्त वायु बल प्रेरित वह नौका उन्नतपट के कारण ऐसी प्रतीत होती थी, मानो अपने पंख फैलाए कोई गरुड़ युवती खड़ी हो।" वह गंगा-सलिल की तीक्ष्ण धाराओं के वेग से पुन: पुन: संक्षुब्ध होती (टकराती) हुई, हजारों-हजारों उर्मियों और तरंगों को चीरती हुई कतिपय दिनों में लवण-समुद्र में अनेक शत-योजन तक पहुंच गयी। ७१. तए णं तेसिं अरहण्णगपामोक्खाणं संजत्ता-नावावाणियगाणं लवणसमुदं अणेगाइं जोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं बहूई उप्पाइयसयाई पाउन्भूयाई, तं जहा--अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अकाले थणियसद्दे अब्भिक्खणं-अभिक्खणं आगासे देवयाओ नचंति ।। ७१. जब वे अर्हन्नक प्रमुख सांयात्रिक पोतवणिक, लवण-समुद्र में अनेक शत-योजन तक पहुंच गये, तब उनके समक्ष अनेक शत-उत्पात प्रादुर्भूत हुए, जैसे-अकाल में गर्जन, अकाल विद्युत, अकाल में मेघ गंभीर ध्वनि होती और बार-बार आकाश में देव नर्तन करते। ७२. तएणं ते अरहण्णगवज्जा संजत्ता-नावावाणियगा एगचणं महं तालपिसायं पासंति-तालजंघं दिवंगयाहिं बाहाहिं फुट्टसिरं भमर-निगर-वरमासरासि-महिसकालगंभरिय-मेहवण्णं सुप्पणहं फाल-सरिस-जीह लंबोद्वंधवलवट्ट-असिलिट्ठ-तिक्ख-थिर-पीणकुडिल-दाढोवगूढवयणं विकोसिय-धारासिजुयल-समसरिसतणुय-चंचल-गलंतरसलोल-चवल-फुरुफुरेत-निल्लालियग्गजीहं अवयत्थिय-महल्ल-विगय-बीभच्छ-लालपगलंत-रत्ततालुयं हिंगुलय-सगब्भ-कंदरबिलंव अंजणगिरिस्स अग्गिज्जालुग्गिलंतक्यणं आऊसिय-अक्खचम्म-उइट्ठगंडदेसं चीण-चिमिढ-वंक-भग्गनासं रोसागय-धमधमेंत-मास्य-निठुर-खर-फरुसझुसिरं ओभुग्गनासियपुडं घाहुब्भड-रइय-भीसणमुहं उद्धमुहकण्ण-सक्कुलियमहंतविगय-लोम-संखालग-लंबंत-चलियकण्णं पिंगल-दिप्पंतलोयणं भिउडि-तडिनिडालं नरसिरमाल-परिणद्धचिंधं विचित्तगोणससुबद्धपरिकर अवहोलंत-फुप्फुयायंत-सप्प-विच्छुय-गोधुदुरनउल-सरड-विरइय-विचित्तक्यच्छमालियागंभोगकूर-कण्हसप्पधमधमेंत-लंबंतकण्णपूरं मज्जार-सियाल-लइयखधं दित्त-घुघुयंतघूय-कय-भुंभरसिरं, घंटारवेणंभीम-भयंकरं कायर-जणहिययफोडणं दित्तं अट्टहासं विणिम्मुयंत, वसा-रुहिर-पूय-मंस-मलमलिण-पोच्चडत[उत्तासणयं विसालवच्छं पेच्छंता भिन्ननखमुह-नयण-कण्णं वरवग्घ-चित्त-कत्ती-णियंसणं सरस-रुहिर ७२. अर्हन्नक को छोड़ सभी सांयात्रिक पोत-वणिकों ने एक विशालकाय ताल पिशाच को देखा। उसकी जंघाएं ताड़ वृक्ष जैसी लम्बी थी, भुजाएं आकाश को छू रही थी, सिर के बाल बिखरे हुए थे। उसका रंग भौंरों का समूह, प्रवरमाष-राशि और भैंसे के समान काला तथा पानी से भरे बादलों जैसा था। उसके नख छाज जैसे, जीभ लोहे के फाल जैसी और होठ लम्बे थे। उसका मुंह सफेद, गोल, एक दूसरी से अलग-अलग तीखी, स्थिर, मोटी, और टेढ़ी-मेढ़ी दाढ़ाओं से भरा हुआ था। उसकी पतली, चंचल, लालीयुक्त रसलोलुप प्रकम्पित और लपलपाती हुई दो जिह्वाएं कोप से बाहर निकली हुई तीक्ष्ण धार वाली दो तलवारों जैसी लगती थी। उसका तालु मोटा, विकृत, बीभत्स, लारें टपकाता, टेढ़ा-मेढ़ा और लाल था। अग्नि ज्वाला उगलता उसका लाल मुख अञ्जनगिरि के हिंगुल भरे कन्दरा विवर जैसा लगता था। उसके गण्डस्थल सिकुड़ी हुई पखाल जैसे चिपके हुए थे। उसकी नासिका छोटी, चिपटी, टेढ़ी और भान थी तथा रोष से धमधमायमान होने के कारण उसका नासा-विवर निष्ठुर, खर और परुष हवा छोड़ रहा था। नासा-पुट अवभान था। मस्तक के अवयवों की विकराल रचना के कारण उसका मुख डरावना लग रहा था। उसकी कर्णपाली ऊपर उठी हुई थी। कनपटी पर, लम्बे और विकृत रोम उगे हुए थे और उसके कान लटक रहे थे, हिल रहे थे। उसकी आंखें पिंगल और प्रदीप्त थी। ललाट पर भृकुटि रूप बिजली चमक रही थी। Jain Education Intemational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ गयचम्म - वियय-ऊसविय - बाहुजुयलं ताहि य खर-फरुसअसिद्धि दित्त-अणिट्ट असुभ अप्पिय अनंत वग्गूहि य तज्जयंतं तं तालपिसायरूवं एज्जमाणं पासति, पासिता भीया तत्था तसिया उब्विग्गा संजायभया अण्णमण्णस्स कायं समतुरंगमाणा-समतुरंगमाणा बहूणं इंदाण व खंदाण य रुहाण य सिवाण य वेसमणाण य नागाण य भूयाण य जक्खाण य अज्ज - कोट्टकिरियाण य बहूणि उवाइयसयाणि उवाइमाणा चिट्ठति ।। - १९१ ७३. तए णं से अरहणए समणोवासए तं दिव्वं पिसायरूवं एज्जमाणं पास पातित्ता अभीए अतत्ये अचलिए असंभते अणाउले अणुब्बिगे अभिण्णमुहराम नयनवणे आदीण-विमण माणसे पोपवहणस्स एगदेसंसि वत्यंतेणं भूमिं पमज्जइ, पमज्जित्ता ठाणं ठाइ, ठाइत्ता करयल - परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं क्यासिनोत्यु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्ताणं । जइ णं हं एत्तो उवसग्गाओ मुंचामि तो मे कप्पइ पारितए, अह णं एत्तो उवसग्गाओ न मुंचामि तो मे तहा पच्चक्लाएयन्ने ति कट्टु सागारं भत्तं पच्चस्खाइ ।। ७४. तए गं ते पिसायरूवे जेणेव अरहण्णगे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहण्णगं एवं क्यासी-- हंभो अरहण्णगा! अपत्थियपत्थया दुरंत पंत लक्खणा! हीणपुण्ण चाउदसिया ! सिरि-डिरि चिह्न कित्ति परिवज्जिया! नो खलु कप्पद तव सील-व्यय-गुण- वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं चालितए वा खोभित्तए वा खंडित्तए वा भंजित्तए वा उज्झित्तए वा परिच्चत्त वा । तं जइ गं तुमं सील-व्यय-गुण- वेरमण अष्टम अध्ययन : सूत्र ७२-७४ नरमुण्डमाल का चिह्न पहना हुआ था। उसका परिकर फण-रहित विचित्र सांपों से कसा हुआ था वह डोलते फुफकारते हुए सांप, बिच्छू, गोह, चूहे, नेवले, गिरगिट आदि से विरचित विचित्र प्रकार की छाती पर तिरछी लटकती हुई माला तथा फण से रौद्र और क्रोध से धमधमायमान कृष्ण भुजंगों के लटकते हुए कर्णपूर पहने हुए था। उसके कंधों पर मार्जार और गीदड़ बैठे थे उसने दृप्त और धू-धू शब्द करते हुए उल्लू को सिर का सेहरा बना रखा था। वह घंटारव से भी भीम, भयंकर तथा कायर मनुष्यों के हृदय को विदीर्ण कर देने वाला दृप्त अट्टहास कर रहा था । उसका शरीर, वसा, रधिर, पीव, मांस और मल से मलिन तथा लिप्त था । उसका विशाल वक्ष त्रासदायी था वह प्रवर व्याघ्र चर्म से निर्मित विचित्र न्यंशुक पहने हुए था, जिससे नस, मुख, नयन और कर्ण पृथक्-पृथक् दिखाई दे रहे थे। वह गीली और खून से सनी हस्ति - चर्म ओढ़े, दोनों भुजाओं को ऊपर उठाए सर परुष, स्नेह रहित दृप्त, अनिष्ट, अशुभ, अप्रिय और अकमनीय वाणी से उन यात्रियों को ललकारता हुआ उनके सामने आ रहा था। उन सब ( यात्रियों) ने उस ताड़ जैसे पिशाच रूप को देखा। उसे देखकर भीत, त्रस्त, तृषित, उद्विग्न और भयाक्रान्त होकर वे सब एक दूसरे के शरीर का आश्लेष करते हुए, बहुत से इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण, नाग, भूत, यक्ष, आर्या अथवा कोहक्रिया की नाना प्रकार से मनौतियां करने लगे। । ७३. उस अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस दिव्य पिशाचरूप को अपनी ओर आते हुए देखा देखकर अभीत, अत्रस्त, अचलित, असभ्रांत अनाकुल और अनुद्विग्न रहा । न उसके मुंह का रंग बदला और न आंखों का वर्ण। उसने अदीन और अनातुर मन से जहाज के एक भाग में वस्त्राञ्चल से भूमि का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन कर कायोत्सर्ग में स्थित हुआ । स्थित होकर दोनों हाथों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोला - नमस्कार हो अर्हत भगवान को यावत् जो सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके । यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त हो जाऊं तो मैं कायोत्सर्ग पूरा कर सकता हूं और यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त नहीं होता हूं, तो मेरे प्रत्याख्यान इसी रूप में रहेंगे-- ऐसा कहकर उसने सविकल्प भक्त प्रत्याख्यान किया । ७४. वह पिशाच रूप जहां अर्हन्नक श्रमणोपासक था वहां आया। वहां आकर उसने अर्हन्नक को इस प्रकार कहा --अरे! ओ! अर्हन्नक! अप्रार्थित के प्रार्थी दुरन्त प्रान्त-लक्षण हीन पुण्य चातुर्देशक! श्री. ही, धृति और कीर्ति से शून्य! तेरे शील, व्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान पौषधोपवास" इनसे तुझको चलित नहीं किया जा सकता, क्षुब्ध नहीं किया जा सकता। इनका खण्डन, भञ्जन, त्याग और परित्याग नहीं कराया जा सकता।“ अतः यदि तूं अपने शील, व्रत, गुण, विरमण, -- Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ अष्टम अध्ययन : सूत्र ७४-७८ पच्चक्खाण-पोसहोववासाइं न चालेसि न खोभेसि न खडेसि न भंजेसि न उज्झसि न परिच्चयसि, तो ते अहं एवं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गेण्हामि, गेण्हित्ता सत्तद्वतलप्पमाण-मेत्ताई उडढं वेहासं उव्विहामि अंतोजलसि निव्वोलेमि, जेणं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि ।। नायाधम्मकहाओ प्रत्याख्यान, पौषधोपवास से चलित नहीं होता, क्षुब्ध नहीं होता, तूं इसका खण्डन, भजन, त्याग और परित्याग नहीं करता तो मैं तेरे इस जहाज को इन दो अंगुलियों से पकड़ता हूं। पकड़कर सात-आठ तल-प्रमाण ऊपर आकाश में उछालता हूं और फिर समुद्र में डुबोता हूं जिससे तूं आर्त, दुःखार्त्त और वासना से आर्त हो२० असमाधि को प्राप्त कर असमय में ही मृत्यु को प्राप्त करेगा। ७५. तए णं अरहण्णगे समणोवासए तं देवं मणसा चेव एवं वयासी--अहं णं देवाणुप्पिया! अरहण्णए नाम समणोवासए अहिगयजीवाजीवे। नो खलु अहं सक्के केणइ देवेण वा दाणवेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, तमं णं जा सद्धा तं करेहि त्ति कटु अभीए जाव अभिन्नमुहराग-नयणवण्णे अदीण-विमणमाणसे निच्चले निप्फदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ।। ७५. उस अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस देव को मन ही मन इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! मैं जीव और अजीव का ज्ञाता अर्हन्नक नाम का श्रमणोपासक हूं। मैं किसी भी देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग या गन्धर्ब द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलित, क्षुब्ध और विपरीत परिणाम वाला नहीं हो सकता। तुम्हारी जैसी रुचि हो, करो--ऐसा कहकर वह अभीत रहा यावत् न उसके मुंह का रंग बदला, न आंखों का वर्ण। वह अदीन और अनातुर मन वाला अर्हन्नक निश्चल, नि:स्पन्द और मौन भाव से धर्म्य-ध्यान में लीन हो गया। ७६. तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहण्णगं समणोवासगं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी--हंभो अरहण्णगा! जाव धम्मज्झाणोवगए विहरइ॥ ७६. उस दिव्य पिशाच रूप ने अर्हन्नक श्रमणोपासक से दूसरी बार, तीसरी बार भी इस प्रकार कहा--अरे! ओ! अर्हन्नक! यावत् वह धर्म्य-ध्यान में लीन हो गया। ७७. तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहण्णगं धम्मज्झाणोवगयं पासइ, ७७. उस दिव्य पिशाच रूप ने अर्हन्नक श्रमणोपासक को धर्म्य-ध्यान में पासित्ता बलियतरागं आसुरत्ते तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं लीन देखा। लीन देखकर उसने प्रबल क्रोध से तमतमाते हुए उस गेण्हइ, गेण्हित्ता सत्तट्ठतल-प्पमाणमेत्ताई उड्ढे वेहासं उव्विहइ, जहाज को दो अंगुलियों से पकड़ा। पकड़कर सात-आठ तल-प्रमाण उन्विहित्ता अरहण्णगं एवं वयासी--हंभो अरहण्णगा! ऊपर आकाश में उठाया। उठाकर अर्हन्नक से इस प्रकार बोला--अरे! अपत्थियपत्थया! नो खलु कप्पइ तव सील-व्वय-गुण-वेरमण- ओ! अर्हन्नक! अप्रार्थित का प्रार्थी! तेरे शील, व्रत, गुण, विरमण, पच्चक्खाण-पोसहोववासाइंचालित्तए वा खोभित्तए वा खंडित्तए प्रत्याख्यान, पौषधोपवास-इनसे तुझको चलित नहीं किया जा सकता, वा भंजित्तए वा उज्झित्तए वा परिच्चइत्तए वा । तं जइ णं तुमं क्षुब्ध नहीं किया जा सकता। इनका खण्डन, भंजन, त्याग और सील-व्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाइंन चालेसि परित्याग नहीं कराया जा सकता। अत: यदि तू अपने शील, व्रत, गुण, न खोभेसि न खडेसि न भंजेसि न उज्झसि न परिच्चयसि, तो विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास--इनसे चलित नहीं होता, क्षुब्ध नहीं ते अहं एवं पोयवहणं अंतो जलसि निब्बोलेमि, जेणं तुम अट्ट-दुहट्ट- होता। तू इनका खण्डन, भञ्जन, त्याग और परित्याग नहीं करता तो वसट्टे असमाहिपत्ते अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि।। मैं तेरे इस जहाज को पानी में डूबोता हूं, जिससे तूं आर्त, दुःखात और वासना से आर्त हो, असमाधि को प्राप्त कर, असमय में ही मृत्यु को प्राप्त करेगा। ७८. तए णं से अरहण्णगे समणोवासए तं देवं मणसा चेव एवं वयासी--अहं णं देवाणुप्पिया! अरहण्णए नाम समणोवासए-- अहिगयजीवाजीवे। नो खलु अहं सक्के केणइ देवेण वा दाणवेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, तुमं णं जा सद्धा तं करेहि त्ति कटु अभीए जाव अभिन्नमुहराग-नयणवण्णे अदीण-विमण-माणसे ७८. उस अर्हन्नक श्रमणोपासक ने उस देव को मन ही मन इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! मैं जीव और अजीव का ज्ञाता अर्हन्नक नाम का श्रमणोपासक हूं। मैं किसी भी देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग या गन्धर्व के द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलित क्षुब्ध और विपरीत परिणाम वाला नहीं हो सकता। तुम्हारी जैसी रुचि हो, करो--ऐसा कहकर वह अभीत रहा यावत् न उसके मुंह का रंग बदला, न आंखों का वर्ण। वह अदीन और अनातुर मन वाला Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ निच्चले निष्फदे तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ ।। ७९. तए गं से पिसावरूवे अरहण्णमं जाहे नो संचाएह निधाओ पावयणाओ चालित वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, ताहे संते तंते परितंते निव्विण्णे तं पोयवहणं सणियं-सणियं उवरिं जलस्स ठवेइ, ठवेत्ता तं दिव्वं पिसायरूवं पहिसाहरेड, पहिसाहरेत्ता दिव्यं देवरूवं विउव्वइ-अंतलिक्खपडिवन्ने संखिखिणीयाई दसद्धवण्णाई वत्थाई पवरपरिहिए अरहण्णगं समणोवासगं एवं क्यासी हं भो अरहणगा! समणोवासया! धन्नेसि गं तुमं देवागुप्पिया! पुण्णेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! कयत्वेति णं तुम देवाप्पिया! कयलक्खणेसि णं तुमं देवाणुप्पिया! सुलदृधे णं तव देवापिया! माणुस्सए जम्मजीवियफले, जस्स णं तव निग्ांचे पावणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया । -W एवं खलु देवाणुप्पिया! सक्के देविदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिस विमाणे सभाए सुहम्माए बहूणं देवाणं मज्झगए महया महया संदेणं एवं आइक्लड, एवं भासेइ, एवं पण्णवे एवं परूवे एवं खलु देवा! जंबूदीवे दीवे भारहे वाले चंपाए नयरीए अरहण्णए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे । नो खलु सक्के केणइ देवेण वा दाणवेणवा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधब्बेण वा निगंधाओं पाक्यणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा । तए णं अहं देवाप्पिया! सक्करस देविंदस्स देवरण्णो नो एवम सद्दहामि, पत्तियामि, रोएमि तए णं मम इमेवारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थर मगोगए संकपे समुष्यजित्यागच्छामि णं अहं अरहण्णगस्स अंतियं पाउब्भवामि, जाणामि ताव अहं अरहण्णगं-- किं पियधम्मे नो पिपाम्मे दधम्मे नो दधम्मे? सीत-व्यय-गुण- वेरमणपच्चक्लाण-पोसहोववासाई किं चाले नो चालेड? सोभेड नो खोइ ? खडेइ नो खडेइ ? भंजेइ नो भंजेइ ? उज्झइ नो उज्झइ ? परिच्चयइ नो परिच्चयइ त्ति कट्टु एवं सपेहेमि, सपेहेत्ता ओहिं पज्जामि, परंजित्ता देवाणुप्पियं ओहिणा आभोएमि, आभोएत्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमामि उत्तरवेउब्वियं रूवं विव्यामि विउब्वित्ता ताए उक्किट्ठाए देवगईए जेणेव लवणसमुद्दे जेणेव देवाणुप्पिए लेगेव उपागच्छामि, उवागच्छित्ता देवाप्पियस्स उवसग्गं करेमि, नो चेवणं देवाणुप्पिए भीए तत्ये चलिए संभ आउले उब्विणे भिण्णमुहराम नवणवण्णे दोणविमणमाणसे जाए। तं जं णं सक्के देविदे देवराया एवं वयइ, सच्चे णं एसमट्ठे । तं दि गं देवाणुप्पियस्स इड्डी जुई जसो बलं वीरियं पुरिसकार- परक्कमे तद्धे पत्ते अभिसमण्णागए। तं सामेमि णं देवाणुप्पिया । खमेसु णं देवाणुप्पिया! संतुमरिहसि णं देवाणुप्पिया! नाइ भुज्जो एवंकरणयाए ति कट्टु पंजलिउडे पायवडिए एयमहं विणएणं भुज्जो - भुज्जो खामेइ, अरहण्णगस्स य दुवे कुंडलजुयले दलय, १९३ -- अष्टम अध्ययन : सूत्र ७८-७९ अर्हन्नक निश्चल, निःस्पन्द और मौन भाव से धर्म्य ध्यान में लीन हो गया। ७९. वह पिशाच रूप अर्हन्नक को निर्ग्रन्ध प्रवचन से चलित, क्षुब्ध और विपरीत परिणाम वाला नहीं कर पाया, तो उसने श्रान्त, क्लान्त, परिक्लान्त और खेद खिन्न होकर उस जहाज को धीरे-धीरे पानी पर रख दिया। रखकर उस दिव्य पिशाच रूप को प्रतिसंहृत किया । प्रतिसंहत कर दिव्य देवरूप की विक्रिया की छोटी-छोटी घटिकाओं से युक्त सुन्दर पंधर वस्त्र पहने हुए वह अन्तरिक्ष में स्थित हो पंचरंगे अर्हन्नक श्रमणोपासक से इस प्रकार बोला हे अर्हन्नक! श्रमणोपासक! I -- धन्य हो तुम देवानुप्रिय! पुण्यशाली हो तुम देवानुप्रिय ! कृतार्थ हो तुम देवानुप्रिय! कृतलक्षण हो तुम देवानुप्रिय! तुमने ही मनुष्य के जन्म और जीवन का फल पाया है देवानुप्रिया जो तुम्हें निर्बन्ध प्रवचन में इस प्रकार की प्रतिपत्ति उपलब्ध है, प्राप्त और अभिसमन्वागत है । देवानुप्रिय! देवेन्द्र देवराज शक ने सौधर्म कल्प, सौधर्मावतंसक विमान और सुधर्मासभा में बहुत से देवों के मध्य ऊंचे-ऊंचे शब्द से इस प्रकार आख्यान किया, भाषण किया, प्रज्ञापना की और प्ररूपण किया - हे देवो! जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और चम्पानगरी में जीव और अजीव का ज्ञाता अर्हन्नक नाम का श्रमणोपासक रहता है। उसे कोई देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गन्धर्व निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलित, क्षुब्ध और विपरीत परिणाम वाला नहीं कर सकता। देवानुप्रिय ! देवेन्द्र, देवराज शक्र के इस कथन पर मुझे न श्रद्धा हुई, न प्रतीति हुई और न रुचि हुई । तब मेरे मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-- मैं जाऊं, अर्हन्नक के समक्ष प्रकट होकर उसके सम्बन्ध में यह जानूं-- अर्हन्नक प्रियधर्मा है अथवा प्रियधर्मा नहीं है ? वह दृढधर्मा है अथवा दृढधर्मा नहीं है? वह शील, व्रत, गुण, विरमण, प्रत्यास्थान, पौषधोपवास से चलित होता है अथवा नहीं? शुब्ध होता है अथवा नहीं? उनका खंडन करता है अथवा नहीं? उनका भञ्जन करता है अथवा नहीं? उनका त्याग करता है अथवा नहीं? उनका परित्याग करता है अथवा नहीं? मैंने इस प्रकार की सप्रेक्षा की, सप्रेक्षा कर अवधिज्ञान का प्रयोग किया प्रयोग कर देवानुप्रिय को अवधिज्ञान से जाना। जानकर ईशानकोण में गया। उत्तर- वैक्रिय रूप की विक्रिया की । विक्रिया कर उस उत्कृष्ट देव- गति से जहां लवण समुद्र था और जहां देवानुप्रिय था वहां आया। वहां आकर देवानुप्रिय के सामने उपसर्ग उपस्थित किया किन्तु देवानुप्रिय भीत त्रस्त, चलित, सम्भ्रान्त, आकुल और उद्विग्न नहीं हुए। न तुम्हारे मुंह का रंग बदला और न आंखों का वर्ण । तुम अदीन और अनातुर मन रहे । अतः देवेन्द्र, देवराज शक्र ने जो कहा, वह अर्थ सत्य है। मैंने देख लिया है देवानुप्रिय! तुमने ऋद्धि, धुति, यश, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम को उपलब्ध प्राप्त और अभिसमन्वागत किया है। अतः मैं खमाता हूं देवानुप्रिय ! क्षमा करें देवानुप्रिय ! तुम क्षमा कर , Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ अष्टम अध्ययन : सूत्र ७९-८४ दलइत्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। नायाधम्मकहाओ - सकते हो देवानुप्रिय! मैं पुन: ऐसा नहीं करूंगा--ऐसा कहकर वह प्राञ्जलिपुट हो अर्हन्नक के चरणों में गिर पड़ा और विनयपूर्वक इस अपराध के लिए पुन: पुन: खमाने लगा। अर्हन्नक को दो कुण्डल-युगल दिए। देकर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। ८०. तए णं से अरहण्णए निरुवसग्गमिति कटु पडिम पारेइ॥ ८०. उपसर्ग निवृत्त हो चुका है'--यह जानकर अर्हन्नक ने प्रतिमा को पूरा किया। ८१. तए णं ते अरहण्णगपामोक्खा संजत्ता-नावावाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता पोयं लबेंति, लंबेत्ता सगडि-सागडं सज्जेंति, तं गणिमं धरिमं मेज्जं परिच्छेज्जं च सगडि-सागडं संकामेंति, संकामेत्ता सगडि-सागडं जोविंति, जोवित्ता जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मिहिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुज्जाणंसि सगडि-सागडं मोएंति, मोएत्ता महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायारिहं पाहुडं दिव्वं कुंडलजुयलं च गेण्हंति, गेण्हित्ता (मिहिलाए रायहाणीए?) अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता जेणेव कुंभए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु महत्थं महग्धं महरिहं विउलं रायारिहं पाहुडं दिव्वं कुंडलजुयलं च उवणेति।। ८१. वे अर्हन्नक प्रमुख सांयात्रिक पोतवणिक् दक्षिणानुकूल पवन के साथ जहां 'गंभीरक' बन्दरगाह था वहां आए। वहां आकर जहाज की लंगर डाली। लंगर डालकर छोटे-बड़े वाहन तैयार किए। उनमें गणनीय, धरणीय, मेय और परिच्छेद्य रूप क्रयाणक संक्रमित किए। संक्रमित कर उन छोटे-बड़े वाहनों को जोता। जोतकर जहां मिथिला थी वहां आए। वहां आकर मिथिला की राजधानी के बाहर प्रधान उद्यान में छोटे-बड़े वाहन खोले। खोलकर महान अर्थ, महामूल्य और महान अर्हता वाला राजाओं के योग्य विपुल उपहार और दिव्य कुण्डल-युगल लिए। लेकर (मिथिला राजधानी में?) प्रवेश किया। प्रवेश कर जहां कुम्भराजा था, वहां आए। वहां आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर महान अर्थवान, महामूल्य और महान अर्हतावाला राजाओं के योग्य विपुल उपहार और दिव्य कुण्डल-युगल राजा को उपहृत किया। ८२. तए णं कुंभए राया तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं तं महत्थं महग्धं महरिहं विउलंरायारिहं पाहुडं दिव्वं कुंडलजयलंच पडिच्छइ, पडिच्छित्ता मल्लि विदेहवररायकन्नं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं मल्लीए विदेहरायकन्नगाए पिणद्धेइ, पिणद्धत्ता पडिविसज्जेइ।। ८२. राजा कुम्भ ने उन सांयात्रिक पोतवणिकों का वह महान अर्थवान महामूल्य और महान अर्हता वाला राजाओं के योग्य विपुल उपहार और वह दिव्य कुण्डल-युगल स्वीकार किया। स्वीकार कर विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली को बुलाया। बुलाकर दिव्य कुण्डल-युगल विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली को पहनाया। पहनाकर उसे प्रतिविसर्जित किया। ८३. तए णं से कुंभए राया ते अरहण्णगपामोक्खे संजत्ता-नावा- वाणियगे विपुलेणं वत्थ-गंध-मल्लालंकारेण य सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता उस्सुक्कं वियरइ, वियरित्ता रायमग्गमोगाढे य आवासे वियरइ, वियरित्ता पडिविसज्जेइ।। ८३. उस राजा कुम्भ ने अर्हन्नक प्रमुख सांयात्रिक पोतवणिकों को विपुल वस्त्र, गन्धचूर्ण, माला और अलंकारों से सत्कृत किया। सम्मानित किया। सत्कृत सम्मानित कर उन्हें कर-मुक्त किया। उनको राजमार्ग के समीपवर्ती आवास-स्थान देने की आज्ञा दी और उन्हें प्रतिविसर्जित किया। ८४. तए णं अरहण्णगपामोक्खा संजत्ता-नावावाणियगा जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छंत, उवागच्छित्ता भंडववहरणं करेंति, पडिभडे गेहंति, गेण्हित्ता सगडी-सागडं भरेंति, भरेत्ता जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागति , उवागच्छित्ता पोयवहणं सज्जेंति, सज्जेत्ता भंडं संकामेंति, संकामेत्ता दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव चंपाए पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता ८४. अर्हन्नक प्रमुख सांयात्रिक पोत-वणिक जहां राजमार्ग के समीपवर्ती आवास थे, वहां आये। वहां आकर वे क्रयाणक का व्यापार करने लगे। दूसरा माल खरीदा। खरीदकर उसे छोटे बड़े वाहनों में भरा। भरकर जहां गम्भीरक' बन्दरगाह था, वहां आये, वहां आकर जहाज को तैयार किया। तैयार कर क्रयाणिक को उसमें संक्रमित किया। संक्रमित दक्षिणानुकूल पवन के साथ जहां चम्पा का बन्दरगाह था, Jain Education Intemational Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १९५ पोयं लंबेंति, लंबेत्ता सगडी-सागडं सज्जेंति, सज्जेत्ता तं गणिमं धरिमं मेज्जं परिच्छेज्जं च सगडी-सागडं संकामेंति, संकामेत्ता सगडि - सागडं जोविंति जोवित्ता जेणेव चंपानयरी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता चंपाए रायहाणीए बहिया अग्गुज्जाणसि सगडि - साग मोएति, मोएत्ता महत्वं महग्धं महरिहं विउलं रायारिहं पाहुडे दिव्वं च कुंडलजुयलं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव चंदच्छाए अंगराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं महत्यं महग्धं महरिहं विउलं रायारिहं पाहुडं दिव्वं च कुंडलजुपलं उवर्णेति ।। ८५. तए णं चंदच्छाए अंगराया तं महत्यं पाहुडं दिव्वं च कुंडलजुयलं पढिच्छ, पडिच्छिता ते अरहण्णगपामोक्ले एवं क्यासी तुन्भे णं देवाप्पिया! बहूणि गामागर जाव सण्णिवेसाई आहिंडह, लवणसमुद्दे च अभिक्खणं - अभिक्खणं पोयवहणेहिं ओगाहेह, तं अस्थिया भे केइ कहिंचि अच्छेरए दिट्ठपुव्वे? ८६. तए णं ते अरहण्णगपामोक्खा चंदच्छायं अंगरायं एवं वयासी--एवं खतु सामी! अम्हे इहेव चंपाए नयरीए अरहणगपामोक्ला बहने संजत्तगा नावावाणियगा परिवसामो । तए णं अम्हे अण्णया क्याइ गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेनं च गेण्हामो तहेब अहो अइरितं जाव कुंभगस्स रण्णो उवणेमो तए गं से कुंभए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तं दिव्वं कुंडलजुयलं पिणद्धेइ, पिणद्धेत्ता पडिविसज्जेइ । तं एस णं सामी ! अम्हेहिं कुंभगरायभवणंसि मल्ली विदेहरायवरकन्ना अच्छेरए दिखे। तं नो स्वतु अण्णा कावि तारिसिया देवकन्ना वा असुरकन्ना वा नागकन्ना वा जक्खकन्ना वा गंधव्वकन्ना वा रायकन्ना वा जारिसिया णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना ।। ८७. तए णं चंदच्छाए अरहण्णगपामोक्खे सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता उसुक्कं विचरह विपरिता पडिक्सिज्जेइ ।। ८८. तए णं चंदच्छाए वाणियग-जनियहासे दूयं सहावे सहावेत्ता एवं वपासी जान मल्लिं विदेहरायवरकन्नं मम भारिमत्ताए वरेहि, जइ वि यणं सा सयं रज्जका ।। ८९. तए णं से दूए चंदच्छाएणं एवं वृत्ते समाणे हट्ठतुट्ठे जाव पहारेत्थ गमणाए । अष्टम अध्ययन : सूत्र ८४-८९ / वहां आये। वहां आकर जहाज की लंगर डाली। छोटे बड़े वाहनों को तैयार किया तैयार कर गणनीय, धरणीय, मेय और परिच्छेद्य रूप क्रयाणिक को छोटे बड़े वाहनों में संक्रमित किया। संक्रमित कर छोटे बड़े वाहनों को जोता । जोत कर जहां चम्पा नगरी थी, वहां आये । आकर चम्पा राजधानी के बाहर प्रधान उद्यान में छोटे बड़े वाहनों को मुक्त किया। उन्हें मुक्त कर महान अर्थवान महामूल्य और महान अर्हता वाला राजाओं के योग्य विपुल उपहार और दिव्य कुण्डल युगल को लिया । उसे लेकर, जहां अंगराज चन्द्रच्छाय था, वहां आये । वहां आकर वह महान अर्थवान, महामूल्यवान और महान अर्हता वाला राजाओं के योग्य विपुल उपहार और दिव्य कुण्डल युगल राजा को उपहृत किया। ८५. अंगराज चन्द्रच्छाय ने उस महान अर्थवान उपहार और दिव्य कुण्डल- युगल को स्वीकार किया। स्वीकार कर, अर्हन्नक प्रमुख उन ( यात्रियों) को इस प्रकार कहा -- देवानुप्रियो ! तुम बहुत से गांव आकर यावत् सन्निवेशों में घूमते हो, लवण समुद्र का बार-बार जहाज से अवगाहन करते हो तो क्या कहीं कोई आश्चर्य तुमने देखा है ? ८६. वे अर्हन्नक प्रमुख (यात्री) अंगराज चन्द्रच्छाय से इस प्रकार बोले स्वामिन्! हम अर्हन्नक प्रमुख बहुत से सांपात्रिक पोत वणिक इसी चम्पा नगरी में रहते हैं। इसलिए हम ने किसी समय गणनीय, धरणीय, मेय और परिच्छेद्य रूप क्रयाणक लिया। उसी प्रकार न कम न अधिक (पूरी बात को कहा) यावत् राजा कुम्भ को उपहृत किया। तब उस कुम्भ ने विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली को वह दिव्य कुण्डल युगल पहनाये पहनाकर उसे प्रतिविसर्जित किया। स्वामिन्! हमने राजा कुम्भ के राजभवन में विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली को हो आश्चर्य रूप में देखा है क्योंकि अन्य कोई भी देवकन्या, असुरकन्या, नागकन्या, यक्षकन्या, गन्धर्वकन्या अथवा राजकन्या वैसी नहीं है जैसी कि विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली। 1 ८७. चन्द्रच्छाय ने अर्हन्नक प्रमुख (वणिकों) को सत्कृत किया। सम्मानित किया। सत्कृत, सम्मानित कर उन्हें कर मुक्त किया। करमुक्त कर प्रतिविसर्जित किया। ८८. वणिकों द्वारा उक्त अर्थ को सुनकर चन्द्रच्छाय के मन में मल्ली के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। उसने तत्काल दूत को बुलाया। बुलाकर इ प्रकार कहा -- यावत् विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली को मेरी भार्या के रूप में वरण करो। फिर उसका मूल्य राज्य जितना भी क्यों न हो। ८९. चन्द्रच्छाय के ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट होकर यावत् दूत ने प्रस्थान किया । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ अष्टम अध्ययन : सूत्र ९०-९६ रुप्पि-राय-पदं ९०. तेणं कालेणं तेणं समएण कुणाला नाम जणवए होत्था। तत्थ णं सावत्थी नाम नयरी होत्था। तत्थ णं रुप्पी कुणालाहिवई नाम राया होत्था। तस्स णं रुप्पिस्स धूया धारिणीए देवीए अत्तया सुबाहू नाम दारिया होत्था-सुकुमाल-पाणिपाया रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्था। नायाधम्मकहाओ रुक्मि-राज-पद ९०. उस काल और उस समय कुणाला नाम का जनपद था। वहां श्रावस्ती नाम की नगरी थी। वहां कुणाला का अधिपति रुक्मी नाम का राजा था। उस रुक्मी राजा की पुत्री धारिणी देवी की आत्मजा सुबाहु नाम की बालिका थी। उसके हाथ, पांव सुकुमार थे। वह रूप, यौवन और लावण्य से उत्कृष्ट एवं उत्कृष्ट शरीर वाली थी। ९१. तीसे णं सुबाहूए दारियाए अण्णया चाउम्मासिय-मज्जणए ९१. किसी समय उस सुबाहु बालिका का चातुर्मासिक-मज्जन (महोत्सव) जाए यावि होत्था॥ उपस्थित हुआ। ९२. तए णं से रुप्पी कुणालाहिवई सुबाहूए दारियाए चाउम्मासिय- ९२. उस कुणाला के अधिपति रुक्मी ने सुबाहु बालिका का चातुर्मासिक-मज्जन मज्जणयं उवट्ठियं जाणइ, जाणित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दाक्ता (महोत्सव) उपस्थित हुआ जाना। जानकर उसने कौटुम्बिक पुरुषों एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! सुबाहूए दारियाए कल्लं को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! कल सुबाहु चाउम्मासिय-मज्जणए भविस्सइ, तं तुन्भेणं रायमग्गमोगादसि बालिका का चातुर्मासिक-मज्जन होगा। अत: तुम राजमार्ग के समीपवर्ती चउक्कसि जल-थलय-दसद्धवण्णं मल्लं साहरह जाव एणं महं चौक में जल और स्थल में खिलने वाला पंचरंगा पुष्प-समूह लाओ सिरिदामगंडं गंधद्धणिं मुयंतं उल्लोयंसि ओलएह । ते वि तहेव यावत् घ्राण को तृप्ति देने वाले गन्धमय परमाणुओं को बिखेरती एक ओलयंति।। महान श्रीदामकाण्ड माला चन्दोवे के नीचे लटकाओ। उन्होंने भी वैसे ही लटकाया। ९३. तए णं से रुप्पी कुणालाहिवई सुवण्णगार-सेणिं सद्दावेइ, सद्दाक्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! रायमग्गमोगाढंसि पुप्फमंडवंसि नाणाविहपंचवण्णेहिं तंदुलेहिं नगरं आलिहह, तस्स बहुमझदेसभाए पट्टयं रएह, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । ते वि तहेव पच्चप्पिणति॥ ९३. उस कुणाला के अधिपति रुक्मी ने स्वर्णकार-श्रेणि को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही राजमार्ग के समीपवर्ती पुष्प-मंडप में नाना प्रकार के पंचवर्ण तन्डुलों से नगर का आलेखन करो। उसके बीचोंबीच एक पट्ट की रचना करो। इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया। ९४. तए णं से रुप्पी कुणालाहिवई हत्थिखंधवरगए चाउरंगिणीए सेणाए महया भड-चडगर-रह-पहकर-विंदपरिक्खित्ते अंतेउरपरियाल-संपरिवुडे सुबाहुं दारियं पुरओ कटु जेणेव रायमग्गे जेणेव पुप्फमंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्यि-खंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता पुष्फमंडवे अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे।। ९४. वह कुणाला का अधिपति रुक्मी प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हो, चतुरंगिणी सेना, महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों और मार्ग बताने वाले राजपुरुषों से परिक्षिप्त और अन्त:पुर परिवार से संपरिवृत हो, सुबाहु बालिका को आगे कर, जहां राजमार्ग था, जहां पुष्पमंडप था, वहां आया। वहां आकर हस्तिस्कन्ध से उतरा। उतरकर पुष्प-मंडप में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर पूर्वाभिमुख हो प्रवर-सिंहासन पर आसीन हो गया। ९५. तए णं ताओ अंतेउरियाओ सुबाहुं दारियं पट्टयंसि दुरुहेंति, ९५. उन अन्त:पुर की महिलाओं ने सुबाहु बालिका को पट्ट पर बिठाया। दुरुहेत्ता सेयापीयएहिं कलसेहिंण्हाणेति, ण्हाणेत्ता सव्वालंकारविभूसियं बिठाकर उसे चांदी-सोने के कलशों से नहलाया। नहलाकर सब करेंति, करेत्ता पिउणो पायवंदियं उवणेति ।। प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। विभूषित कर पाद-वंदन (प्रणाम) के लिए पिता के पास ले गईं। ९६. तए णं सुबाहू दारिया जेणेव रुप्पी राया तेणेव उवागच्छइ, ९६. वह सुबाहु बालिका जहां राजा रुक्मी था, वहां आई। वहां आकर उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ।। उसने पिता के चरण-ग्रहण किए। Jain Education Intemational Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १९७ अष्टम अध्ययन : सूत्र ९७-१०४ ९७. तए णं से रुप्पी राया सुबाहुं दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता ९७. राजा रुक्मी ने कन्या सुबाहु को अपनी गोद में बिठाया। बिठाकर सुबाहूए दारियाए रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य जायविम्हए कन्या सुबाहु के रूप, यौवन और लावण्य से विस्मित होकर उसने वरिसधरं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-तुम णं देवाणुप्पिया! कञ्चुकी को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम मेरे मम दोच्चेणं बहूणि गामागर-नगर जाव सण्णिवेसाई आहिंडसि, दौत्यकार्य से अनेक गांव, आकर, नगर यावत् सान्निवेशों में घूमते हो, बहूण य राईसर जाव सत्थवाहपभिईणं गिहाणि अणुप्पविससि, तं अनेक राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के घरों में प्रवेश करते हो, अत्थियाइं ते कस्सइ रण्णो वा ईसरस्स वा कहिंचि एयारिसए तो क्या तुमने किसी भी राजा, ईश्वर आदि के यहां या अन्यत्र भी कहीं मज्जणए दिठ्ठपुव्वे, जारिसए णं इमीसे सुबाहूए दारियाए मज्जणए? ऐसा मज्जन (महोत्सव) देखा है, जैसा इस सुबाहु बालिका का 'मज्जन' (महोत्सव) हुआ है? ९८. तए णं से वरिसघरे रुप्पिं रायं करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवं खलु सामी! अहं अण्णया तुभं दोच्चेणं मिहिलं गए। तत्थ णं मए कुंभगस्स रण्णो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायवरकन्नगाए मज्जणए दिढे । तस्स णं मज्जणगस्स इमे सुबाहूए दारियाए मज्जणए सयसहस्सइमपि कलंन अग्घइ। ९८. कञ्चुकी ने सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिका कर राजा रुक्मी से इस प्रकार कहा--स्वामिन् ! मैं एक बार आपके दौत्यकर्म से मिथिला गया था। वहां मैने राजा कुम्भ की पुत्री, प्रभावती देवी की आत्मजा, विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का मज्जन-महोत्सव देखा था। सुबाहु बालिका का यह मज्जन तो मल्ली के उस मज्जन के लक्षांश में भी नहीं आता। ९९. तए णं से. रुप्पी राया वरिसधरस्स अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म मज्जणगजणिय-हासे दूयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--जाव मल्लिं विदेहरायवरकन्नं मम भारियत्ताए वरेहि, जइ वि य णं सा सयं रज्जसुंका।। ९९. कञ्चुकी के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर राजा रुक्मी के मन में उस 'मज्जन' के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। उसने दूत को बुलाया। दूत को बुलाकर इस प्रकार कहा यावत् विदेह की प्रवर-राजकन्या मल्ली को मेरी भार्या के रूप में वरण करो। फिर उसका मूल्य राज्य जितना भी क्यों न हो। १००. तए णं से दूए रुप्पिणा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे जाव जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। १००. रुक्मी द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट होकर दूत ने यावत्-प्रस्थान किया। संख-राय-पदं १०१. तेणं कालेणं तेणं समएणं कासी नामंजणवए होत्था । तत्थ णं वाणारसी नाम नयरी होत्था। तत्थ णं संखे नाम कासीराया होत्था॥ शंखराज-पद १०१. उस काल और उस समय काशी नाम का जनपद था। वहां वाराणसी नाम की नगरी थी। वहां शंख नाम का काशी का राजा था। १०२. तए णं तीसे मल्लीए विदेहवररायकन्नाए अण्णया कयाइं तस्स १०२. किसी समय विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के उस दिव्य दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए यावि होत्था॥ कुण्डल-युगल की सन्धि खुल गई। १०३. तए णं से कुंभए राया सुवण्णगारसेणिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुब्भेणं देवाणुप्पिया। इमस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधिं संघाडेह, (संघाडेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह?)॥ १०३. उस राजा कुम्भ ने स्वर्णकार श्रेणि को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम इस दिव्य कुण्डल-युगल की सन्धि को जोड़ दो। (जोड़कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो?)। १०४. तएणंसा सुवण्णगारसेणी एयमद्वं तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव सुवण्णगार-भिसियाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुवण्णगार-भिसियासु निवेसेइ, निवेसेत्ता बहूहिं आएहि य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मयाहि य पारिणामियाहि य बृद्धीहिं परिणामेमाणा इच्छंति १०४. उस स्वर्णकार श्रेणि ने इस अर्थ को 'तथेति' कहकर स्वीकार किया। स्वीकार कर उस दिव्य कुण्डल-युगल को लिया । लेकर जहां स्वर्णकारों का आसन था वहां आए। वहां आकर स्वर्णकार-वृषिकाओं (आसन) पर बैठे। वहां बैठकर अनेक आय-उपायों द्वारा तथा औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी बुद्धियों के प्रयोगों Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ अष्टम अध्ययन : सूत्र १०४-१०९ १९८ तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधिं घडित्तए, नो चेव णं संचाएइ घडित्तए॥ द्वारा उस दिव्य कुण्डल-युगल की सन्धि को जोड़ना चाहा, किन्तु जोड़ नहीं पाए। १०५. तए णं सा सुवण्णगारसेणी जेणेव कुंभए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु सामी! अज्ज तुम्हे अम्हे सद्दावेह, जाव संधि संघाडेता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं अम्हे तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हामो, गेण्हित्ता जेणेव सुवण्णगार-भिसियाओ तेणेव उवागच्छामो जाव नो संचाएमो संधि संघाडेत्तए। तए णं अम्हे सामी! एयस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स अण्णं सरिसयं कुंडलजुयलं घडेमो॥ १०५. वह स्वर्णकार-श्रेणी जहां राजा कुंभ था वहां आई। वहां आकर उसने दोनों हथेलियां से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से राजा का वर्धापन किया। वर्धापन कर इस प्रकार कहा--स्वामिन् ! आज आपने हमें बुलाया और कहा कि दिव्यकुण्डल-युगल की सन्धि को जोड़ो। जोड़कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। तब हमने उस दिव्यकुण्डल-युगल को लिया। लेकर जहां स्वर्णकारों के आसन थे वहां गए। यावत् हम उसे जोड़ नहीं पाए तो स्वामिन् ! हम इस दिव्य-कुण्डल-युगल जैसा दूसरा कुण्डल-युगल बना दें। १०६. तए णं से कुंभए राया तीसे सुवण्णगारसेणीए अंतिए एयम? सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते रुटे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहटु एवं वयासी--केस णं तुब्भे कलाया णं भवह, जेणं तुन्भे इमस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स नो संचाएह संधि संघाडित्तए? ते सुवण्णगारे निव्विसए आणवेइ।। १०६. वह राजा कुम्भ स्वर्णकार-श्रेणि से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर क्रोध से तमतमा उठा। वह रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलता हुआ, त्रिवलीयुक्त भृकुटि को ललाट पर चढ़ाकर इस प्रकार बोला--कैसे स्वर्णकार हो तुम, जो इस दिव्य कुण्डल की सन्धि को भी नहीं जोड़ सकते। उसने उन स्वर्णकारों को निर्वासन का आदेश दिया। १०७. तए णं ते सुवण्णगारा कुंभगेणं रण्णा निव्विसया आणत्ता समाणा जेणेव साइ-साइंगिहाईतेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाए रायहाणीए मझमज्झेणं निक्खमंति, निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मज्झमझेणं निक्खमंति, निक्खमित्ता जेणेव कासी जणवए जेणेव वाणारसी नयरी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अग्गुज्जाणंसि सगडीसागडं मोएंति, मोएत्ता महत्थं जाव पाहुडं गेहंति, गेण्हित्ता वाणारसीए नयरीए मझमझेणं जेणेव संखे कासीराया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेति, वद्धावेत्ता पाहुडं उवणेति, उवणेत्ता एवं वयासी--अम्हे णं सामी! मिहिलाओ कुंभएणं रण्णा निव्विसया आणत्ता समाणा इह हव्वमागया। तं इच्छामो णं सामी! तुब्भं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया निरुव्विग्गा सुहंसुहेणं परिवसिउं॥ १०७. वे स्वर्णकार राजा कुम्भ से निर्वासन का आदेश पाकर, जहां अपने-अपने घर थे, वहां आए। वहां आकर अपने-अपने भाण्ड, भाजन और उपकरणों को लेकर, मिथिला नगरी के बीचोंबीच से होकर निकले। निकलकर विदेह जनपद के बीचोंबीच से होकर निकले। वहां से निकलकर जहां काशी जनपद था, जहां वाराणसी नगरी थी, वहां आए। वहां आकर प्रधान उद्यान में छोटे-बड़े वाहनों को मुक्त किया। मुक्त कर महान अर्थवान यावत् उपहार लिए। उपहार लेकर वाराणसी नगरी के बीचोंबीच से होते हुए, जहां काशीराज शंख था, वहां आए। वहां आकर दोनों हाथों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से राजा का वर्धापन किया। वर्धापन कर उपहार उपहृत किए। उपहृत कर इस प्रकार कहा-स्वामिन! राजा कुम्भ द्वारा मिथिला से निर्वासन का आदेश प्राप्त कर हम तत्काल यहां चले आए। अत: स्वामिन्! हम चाहते हैं कि आपकी बाहुच्छाया से परिगृहीत हो, निर्भीक, निरुद्विग्न और सुखपूर्वक रहें। १०८. तए णं संखे कासीराया ते सुवण्णगारे एवं वयासी--किं णं तुब्भे देवाणुप्पिया! कुंभएणं रण्णा निव्विसया आणत्ता? १०८. काशीराज शंख ने उन स्वर्णकारों से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो किस कारण से राजा कुम्भ ने तुम्हें निर्वासन का आदेश दिया? १०९. तए णं ते सुवण्णगारा संखं कासीराय एवं वयासी--एवं खलु सामी! कुंभगस्स रणो धूयाए पभावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए । तए णं से १०९. उन स्वर्णकारों ने काशीराज शंख से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! राजा कुम्भ की पुत्री प्रभावती देवी की आत्मजा विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के कुण्डल-युगल की सन्धि खुल गयी। तब उस राजा Jain Education Intemational Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १९९ कुंभए राया सुवण्णगारसेणिं सद्दावेइ जाव निविसया आणत्ता। तं एएणं कारणेणं सामी! अम्हे कुंभएणं रण्णा निव्विसया आणत्ता।। अष्टम अध्ययन : सूत्र १०९-११८ कुम्भ ने स्वर्णकार श्रेणि को बुलाया यावत् हमें निर्वासन का आदेश दे दिया। स्वामिन्! इस कारण से राजा कुम्भ ने हमें निर्वासन का आदेश दिया। ११०. तए णं से संखे कासीराया सुवण्णगारे एवं वयासी--केरिसिया णं देवाणुप्पिया! कुंभगस्स रण्णो धूया पभावईदेवीए अत्तया मल्ली विदेहरायवरकन्ना? ११०. उस काशीराज शंख ने स्वर्णकारों से इस प्रकार कहा-कैसी है देवानुप्रियो! राजा कुम्भ की पुत्री प्रभावती देवी की आत्मजा विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली? १११. तए णं ते सुवण्णगारा संखं कासीरायं एवं वयासी--नो खलु सामी! अण्णा कावि तारिसिया देवकन्ना वा असुरकन्ना वा नागकन्ना वा जक्खकन्ना वा गंधव्वकन्ना वा रायकन्ना वा जारिसिया णं मल्ली विदेहवररायकन्ना॥ १११. वे स्वर्णकार काशीराज शंख से इस प्रकार बोले--स्वामिन्! अन्य कोई भी देवकन्या, असुरकन्या, नागकन्या, यक्षकन्या, गन्धर्वकन्या अथवा राजकन्या वैसी नहीं है जैसी विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली ११२. तए णं से संखे कासीराया कुंडल-जणिय-हासे दूयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--जाव मल्लि विदेहरायवरकन्नं मम भारियत्ताए वरेहि, जइ वि य णं सा सयं रज्जसुंका।। ११२. काशीराज शंख के मन में कुण्डल के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। उसने दूत को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा---यावत् विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली को मेरी भार्या के रूप में वरण करो। फिर उसका मूल्य राज्य जितना भी क्यों न हो। -११३. तए णं से दूए संखेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतढे जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। ११३. शंख द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट होकर दूत ने यावत् प्रस्थान किया। अदीणसत्तु-राय-पदं ११४. तेणं कालेणं तेणं समएणं कुरुनामंजणवए होत्था। तत्थ णं हत्थिणाउरे नाम नयरे होत्था। तत्थ णं अदीणसत्तू नाम राया होत्था जाव पसासेमाणे विहरइ।। अदीनशत्रुराज-पद ११४. उस काल और उस समय कुरु नाम का जनपद था। वहां हस्तिनापुर नाम का नगर था। अदीनशत्रु नाम का राजा था यावत् वह राज्य का प्रशासन करता हुआ विहार कर रहा था। ११५. तत्थ णं मिहिलाए तस्स णं कुंभगस्स रण्णो पुत्ते पभावईए देवीए अत्तए मल्लीए अणुमग्गजायए मल्लदिन्ने नाम कुमारे सुकुमालपाणिपाए जाव जुवराया यावि होत्था॥ ११५. उस मिथिला में राजा कुम्भ का पुत्र, प्रभावती देवी का आत्मज, मल्ली का अनुजात मल्लदत्त नाम का कुमार था। वह सुकुमार हाथ-पावों वाला यावत् युवराज भी था। ११६. तए णं मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाइ कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, ११६. किसी समय मल्लदत्त कुमार ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें सद्दावेत्ता एव वयासी--गच्छह णं तुब्भे मम पमदवणंसि एगं महं बुलाकर इस प्रकार कहा--जाओ, तुम मेरे प्रमदवन में एक महान चित्तसभं करेह--अणेगखंभसयसण्णिविट्ठ एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। चित्रसभा कराओ। वह अनेक शत खम्भों पर सन्निविष्ट हो। इस तेवि तहेव पच्चप्पिणंति ।। आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया। ११७. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे चित्तगर-सेणिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! चित्तसभं हाव-भावविलास-बिब्बोयकलिएहिं रूवेहिं चित्तेह, चित्तेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।। ११७. मल्लदत्त कुमार ने चित्रकार श्रेणि को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम चित्र सभा को हाव-भाव-विलास और विब्बोक (दर्पवश इष्ट वस्तु में अनादर का भाव) युक्तर रूपों से चित्रित करो। चित्रित कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। ११८. तए णं सा चित्तगर-सेणी एयमढे तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता ११८. चित्रकार-श्रेणि ने इस अर्थ को 'तथेति' कहकर स्वीकार किया। Jain Education Intemational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन सूत्र ११८-१२४ जेणेव सवाइ गिहाई तेणेव उवागच्छद्र, उवागच्छित्ता तुलियाओ वण्णए य गेहइ, गेण्हित्ता जेणेव चित्तसभा तेणेव अणुप्पविसइ, अणुपविसित्ता भूमिभागे विरचति, विरचित्ता भूमिं सज्जेइ, सज्जेत्ता चित्तसभं हाव-भाव - विलास - बिब्बोयकलिएहिं रूवेहिं चितेउं पवत्ता यानि होत्या ।। ११९. तए णं एगस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगर-लद्धी लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया--जस्स णं दुपयस्स वा चउप्पयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि पासइ, तस्स णं देसाणुसारेणं तयाणुरूवं निव्वत्तेइ ॥ २०० १२०. तए णं से चित्तगरे मल्लीए जवणियंतरियाए जालंतरेण पायगुडं पास। तए णं तस्स चित्तगरस्त इमेयारूवे अज्झत्विए जाव समुप्पज्जित्था -- सेयं खलु ममं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पायंगुट्ठाणुसारेणं सरिसगं सरित्तयं सरिव्वयं सरिसलावण्ण-रूवजोम्यग-गुणोववेवं रूवं निव्यत्तित्तए एवं सपेहेड, सपेहेत्ता भूमिभागं सज्जेइ, सज्जेत्ता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पायंगुट्टाणुसारेण सरिसगं जाव रूवं निव्वत्तेइ ।। १२१. तए णं सा चित्तगर-सेगी वित्तसभ हाव-भाव-विलासदिब्योपकलिएहिं रूवेहिं चित्ते, चित्तेत्ता जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उपागच्छइ उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पच्चपिणइ ।। १२२. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे चित्तगर-सेणिं सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेता विपुलं जीविचारिहं पोइदाणं दलबद्द दतदत्ता पडिविसज्जे ।। १२३. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे पहाए अंतेउर - परियाल - संपरिवुडे अम्मधाईए सद्धिं जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छद् उवागच्छिता चित्तसभं अणुष्पविसह, अणुष्यविसित्ता हाव-भाव-विलासबिब्बोय - कलियाई रुवाइं पासमाणे- पासमाणे जेणेव मल्लीए विदेहरायवर कन्नाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए तेणेव पहारेत्य गमणाए । १२४. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरूवं रूवं निव्वत्तियं पासइ, पासित्ता इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्यज्जित्था एस गं मल्ली विदेहरायवरकन्ने ति कट्टु सज्जिए विलिए वेडे सणियं सणियं पच्चीसक्कइ ।। -- नायाधम्मकहाओ स्वीकार कर जहां अपने घर थे वहां आयी। वहां आकर तुलिकाएं और रंग लिए । लेकर जहां चित्रसभा थी, वहां प्रवेश किया। प्रवेश कर भूमिभाग पर विभिन्न रचनाएं (रेखांकन) की रचना कर भूमि को सज्जित (चित्रकर्म योग्य) किया । सज्जित कर चित्र सभा को हाव-भाव-विलास और विब्बोक युक्त रूपों से चित्रित करने के लिए प्रयत्नशील हो गई। -- ११९. एक चित्रकार को यह विशेष प्रकार की चित्रकार लब्धि उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत थी जिस द्विपद, चतुष्पद अथवा अपद के एक भाग को भी देखता तो उस एक भाग के अनुसार उसका तदनुरूप चित्र बना लेता । १२०. उस चित्रकार ने गवाक्ष से यवनिका के भीतर बैठी मल्ली के पांव का अंगूठा देखा। उस चित्रकार के मन में इस प्रकार का आन्तरिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ-मेरे लिए उचित है, मैं विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के पांव के अंगूठे के अनुसार उसी के सदृश, समान त्वचा, समान वय, समान लावण्य, रूप, यौवन और गुणों से युक्त रूप का आलेखन करूं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की सप्रेक्षा कर भूमिभाग को सज्जित (चित्रकर्म योग्य) किया । सज्जित कर विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के पांव के अंगूठे के अनुसार उसी के सदृश यावत् रूप का आलेखन कर दिया। " १२१. उस चित्रकार श्रेणि ने उस चित्रसभा को हाव-भाव-विलास और विब्बोक युक्त रूपों से चित्रित किया। चित्रित कर जहां मल्लदत्त कुमार था, वहां आयी। वहां आकर इस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया । १२२. कुमार मल्लदत्त ने उस चित्रकार श्रेणि को सत्कृत किया, सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर विपुल जीविका योग्य प्रीतिदान दिया । प्रीतिदान देकर उसे विसर्जित कर दिया। १२३. कुमार मल्लदत्त स्नान कर अन्तःपुर परिवार से संपरिवृत हो, धायमाता के साथ जहां वह चित्रसभा थी वहां आया। वहां आकर चित्रसभा में प्रवेश किया। प्रवेश कर हाव, भाव, विलास और विब्बोक से युक्त 'रूपों को देखता देखता जहां विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का जो तदनुरूप चित्र आलेखित था, उधर जाने का निश्चय किया। १२४. वहां कुमार मल्लदत्त ने विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का जो तदनुरूप चित्र आलेखित था, उसे देखा। उसे देखकर उसके मन में इस प्रकार का आन्तरिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ-- यह तो विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली है - ऐसा सोचकर वह लज्जित, व्रीडित और अपमानित अनुभव करता हुआ धीरे-धीरे वहां से सरक गया। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २०१ १२५. तए णं तं मल्लदिन्नं कुमारं अम्मधाई सणियं-सणियं पच्चोसक्कंतं पासित्ता एवं वयासी--किण्णं तुमं पुत्ता! लज्जिए विलिए वेड्डे सणियं-सणियं पच्चोसक्कसि? अष्टम अध्ययन : सूत्र १२५-१३१ १२५. कुमार मल्लदत्त को चित्रसभा से धीरे-धीरे सरकते हुए देखकर उसकी धायमाता ने पूछा--पुत्र! तू लज्जित, व्रीडित और अपमानित अनुभव करता हुआ चित्रसभा से धीरे-धीरे क्यों सरक रहा है? १२६. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे अम्मधाई एवं वयासी--जुत्तं णं अम्मो! मम जेट्ठाए भगिणीए गुरु-देवयभूयाए लज्जणिज्जाए मम चित्तसभं अणुपविसित्तए? १२६. मल्लदत्त कुमार ने धायमाता से इस प्रकार कहा--अम्मा! जिससे लज्जा करना उचित है, उस देव और गुरु तुल्य ज्येष्ठ भगिनी के रहते, चित्रसभा में प्रवेश करना क्या मेरे लिए उचित है? १२७. तए णं अम्मधाई मल्लदिन्नं कुमार एवं वयासी--नो खलु पुत्ता! एस मल्ली विदेहरायवरकन्ना । एस णं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए चित्तगरएणं तयाणरूवे रूवे निव्वत्तिए। १२७. धायमाता ने कुमार मल्लदत्त से इस प्रकार कहा--पुत्र! यह विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली नहीं है। यह तो चित्रकार द्वारा आलेखित विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का उसी जैसा चित्र है। १२८. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे अम्मधाईए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते एवं वयासी--केस णं भो! से चित्तारए अपत्थियपत्थए, दुरंत-पंत-लक्खणे, हीणपुण्णचाउद्दसिए, सिरिहिरि-धिइ-कित्ति-परिवज्जिए, जे णं मम जेट्ठाए भगिणीए गुरु-देवयभूयाए लज्जणिज्जाए मम चित्तसभाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए त्ति कटु तं चित्तगरं वझं आणवेइ। १२८. धायमाता से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर कुमार मल्लदत्त क्रोध से तमतमा उठा। वह इस प्रकार बोला--कौन है रे! वह अप्रार्थित का प्रार्थी, दुरन्त प्रान्त लक्षण, हीन पुण्य चातुर्दशिक, श्री, ही धृति और कीर्ति से शून्य, चितेरा जिसने, जिससे लज्जा करना उचित है उस देव और गुरु तुल्य ज्येष्ठ भगिनी का उसी के सदृश चित्र मेरी चित्रसभा में आलेखित किया है। ऐसा कहकर उसने उस चित्रकार के वध का आदेश दे दिया। १२९. तए णं सा चित्तगर-सेणी इमोसे कहाए लद्धट्ठा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ वद्धाक्ता एवं वयासी--एवं खलु सामी! तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगर-लद्धी लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया--जस्स णं दुपयस्स वा चउप्पयस्स वा अपयस्स वा एगदेसमवि पासइ, तस्स णं देसाणुसारेणं तयाणुरूवं रूवं निव्वत्तेइ। तं मा णं सामी! तुब्भे तं चित्तगरं वज्झं आणवेह । तं तुन्भे णं सामी! तस्स चित्तगरस्स अण्णं तयाणुरूवं दंडं निव्वत्तेह ।। १२९. जब उस चित्रकार श्रेणि को इस बात का पता चला तब वह जहां कुमार मल्लदत्त था, वहां आयी। वहां आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर इस प्रकार कहा--स्वामिन्! उस चित्रकार को यह विशिष्ट चित्रकार-लब्धि लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत है। वह जिस द्विपद, चतुष्पद अथवा अपद के एक भाग को भी देख लेता है, उस एक भाग के अनुसार तदनुरूप चित्र बना लेता है। इसलिए स्वामिन! तुम उस चित्रकार को वध का आदेश मत दो। स्वामिन्! तुम उस चित्रकार को तदनुरूप अन्य दण्ड दे दो। १३०. तए णं से मल्लदिन्ने कुमारे तस्स चित्तगरस्स संडासगं छिंदावेइ, छिंदावेत्ता निव्विसयं आणवेइ।। १३०. कुमार मल्लदत्त ने उस चित्रकार के संडासग (अंगूठे और अंगुली के पकड़ का भाग) का छेदन करवा दिया। छेदन करवाकर उसे निर्वासन का आदेश दे दिया। १३१. तए णं से चित्तगरे मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निव्विसए आणत्ते समाणे सभंडमत्तोवगरणमायाए मिहिलाओ नयरीओ निक्खमइ, निक्खमित्ता विदेहस्स जणवयस्स मझमझेणं जेणेव कुरुजणवए जेणेव हत्थिणाउरे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भंडनिक्खेवं करेइ, करेत्ता चित्तफलगं सज्जेइ, सज्जेत्ता मल्लीए १३१. चित्रकार कुमार मल्लदत्त द्वारा निर्वासन का आदेश प्राप्त कर, अपने भाण्ड, भाजन और उपकरण लेकर मिथिला नगरी से निकला। निकलकर विदेह जनपद के बीचोंबीच से होता हुआ वहां कुरु जनपद था, जहां हस्तिनापुर नगर था, वहां आया। जहां आकर भाण्ड रखे, रखकर चित्रपट को सज्जित किया। सज्जित कर विदेह की प्रवर Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र १३१-१३७ २०२ विदेहरायवरकन्नाए पायंगुट्ठाणुसारेण रूवं निव्वत्तेइ, निव्वत्तेत्ता कक्खंतरंसि छुब्भइ, छुब्भित्ता महत्थं जाव पाहुडं गेण्हइ, गेण्हिता हत्थिणाउरस्स नयरस्स मज्झमज्झेणं जेणेव अदीणसत्तू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ , वद्धावेत्ता पाहुडं उवणेइ, उवणेत्ता एवं वयासी--एवं खलु अहं सामी! मिहिलाओ रायहाणीओ कुंभगस्स रण्णो पुत्तेण पभावईए देवीए अत्तएणं मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निव्विसए आणत्ते समाणे इहं हव्वमागए। तं इच्छामि णं सामी! तुब्भं बाहुच्छाया-परिग्गहिए निब्भए निरुव्विग्गे सुहंसुहेणं परिवसित्तए॥ नायाधम्मकहाओ राजकन्या मल्ली का उसके पांव के अंगूठे के अनुसार चित्र बनाया। चित्र बनाकर उसे बगल में रखा। रखकर महान अर्थवान यावत् उपहार लिए। उपहार लेकर हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच से होता हुआ जहां अदीनशत्रु राजा था, वहां आया। वहां आकर सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर उपहार उपहृत किया। उपहृत कर इस प्रकार बोला--स्वामिन्! मैं मिथिला नगरी से राजा कुम्भ के पुत्र, प्रभावती देवी के आत्मज कुमार मल्लदत्त द्वारा निर्वासन का आदेश प्राप्त कर यहां चला आया। अत: स्वामिन्! मैं चाहता हूं तुम्हारी बाहुच्छाया से परिगृहीत हो, निर्भीक, निरुद्विग्न सुखपूर्वक रहूं। १३२. तए णं से अदीणसत्तू राया तं चित्तगरं एवं वयासी--किण्णं तुमं देवाणुप्पिया! मल्लदिन्नेणं निव्विसए आणते? १३२. राजा अदीनशत्रु ने उस चित्रकार से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! ___ किस कारण से मल्लदत्त ने तुझे निर्वासन का आदेश दिया? किस १३३. तए णं से चित्तगरे अदीणसत्तुं रायं एवं वयासी--एवं खलु सामी! मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाइ चित्तगर-सेणिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुन्भे णं देवाणुप्पिया! मम चित्तसभं हाव-भाव-विलास-बिब्बोयकलिएहिं रूवेहिं चित्तेह तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव मम संडासगं छिंदावेइ, छिंदावेत्ता निव्विसयं आणवेइ । एवं खलु अहं सामी! मल्लदिन्नेणं कुमारेणं निव्विसए आणत्ते।। १३३. चित्रकार ने राजा अदीनशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! कुमार मल्लदत्त ने किसी समय चित्रकार-श्रेणि को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम मेरी चित्रसभा को हाव-भाव-विलास __ और विब्बोक युक्त रूपों से चित्रित करो, वही सब कथनीय है यावत् मेरे संडासग (अंगूठा और अंगुली की पकड़) का छेदन करवा दिया। छेदन करवाकर निर्वासन का आदेश दे दिया। इस प्रकार स्वामिन्! कुमार मल्लदत्त द्वारा मुझे निर्वासन का आदेश दिया गया। १३४. तए णं अदीणसत्तू राया तं चित्तगरं एवं वयासी--से केरिसए णं देवाणुप्पिया! तुमे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए। १३४. अदीनशत्रु राजा ने उस चित्रकार से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुने विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का जो तदनुरूप चित्र बनाया है, वह कैसा है? १३५. तए णं से चित्तगरे कक्खंतराओ चित्तफलगं नीणेइ, नीणेत्ता अदीणसत्तुस्स उवणेइ, उवणेत्ता एवं वयासी--एस णं सामी मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरुवस्स रूवस्स केइ आगारभाव-पडोयारे निव्वत्तिए। नो खलु सक्का केणइ देवेण वा दाणवेण वा जक्खेण वा रक्खसेण वा किन्नेरण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तयाणुरूवे रूवे निव्वत्तित्तए। १३५. चित्रकार ने बगल से वह चित्रपट निकाला। निकालकर अदीनशत्रु के सामने प्रस्तुत किया। प्रस्तुत कर इस प्रकार कहा--स्वामिन्! विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के तदनुरूप रूप की आकृति और चेष्टा को मैंने इस चित्रपट पर उभारा है। वस्तुत: किसी भी देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गन्धर्व के द्वारा विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली का यथार्थ चित्र बनाना शक्य नहीं है। १३६. तए णं से अदीणसत्तू पडिरूव-जणिय-हासे दूयं सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी--जाव मल्लिं विदेहरायवरकन्नं मम भारियत्ताए वरेहि, जइ वि य णं सा सयं रज्जसुंका ।। १३६. तब अदीनशत्रु के मन में उस प्रतिच्छवि के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। उसने दूत को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--यावत् विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली को मेरी भार्या के रूप में वरण करो। फिर उसका मूल्य राज्य जितना भी क्यों न हो? १३७. तए णं से दूए अदीणसत्तुणा एवं वुत्ते समाणे हद्वतढे जाव जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। १३७. अदीनशत्रु के ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट हुए दूत ने जहां मिथिला नगरी थी, उधर प्रस्थान किया। Jain Education Intemational Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ जियसत्तु - राय-पदं १३८. तेण कालेन तेणं समएणं पंचाले जणवए। कंपिल्लपुरे नपरे । जियसत्तू नामं राया पंचालाहिवई । तस्स णं जियसत्तुस्स धारिणीपामोक्खं देवीसहस्सं ओरोहे होत्या ॥ २०३ १३९. तत्थ णं मिहिलाए चोक्खा नामं परिव्वाइया-रिउव्वेययज्जुब्वेद सामवेद - अहब्वणवेद- इतिहासपंचमाणं निघंटुछद्वाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चउन्हं वेदाणं सारगा जाव बंभण्णए व सत्येसु सुपरिणिट्ठिया यावि होत्या ।। १४०. तए णं सा बोक्सा परिव्वाइया मिहिलाए बहूणं राईसर जाव सत्यवाहपभिईण पुरओ दाणधम्मं च सोपधम्मं च तित्याभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवेमाणी परूवेमाणी उवदसेमाणी विहर।। ' १४१. तए णं सा चोक्खा अण्णया कयाइं तिदंडं च कुंडियं च जाव घाउरताओयु म्ह, हित्ता परिव्वाद्गाक्सहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पविरल-परिव्वाइया - सद्धिं संपरिवुडा मिहिलं रायहाणिं मज्झमज्झेणं जेणेव कुभगस्स रण्णो भवणे जेणेव कन्नतेउरे जेणेव मल्ली विदेहरायवरकन्ना तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता उदयपरिकोसियाए दम्भोवरिपच्चत्पुयाए भिसियाए निसीय, निसीइता मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पुरओ दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्याभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवेमाणी पदेमाणी उपदमाणी विहरह ।। १४२. तए णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना चोक्तं परिव्वाइयं एवं वयासी -- तुब्भण्णं चोक्खे! किंमूलए धम्मे पण्णत्ते ? १४३. तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया मल्लिं विदेहरायवरकन्नं एवं क्यासी- अहं णं देवापिए सोयमूलए धम्मे पण्णत्ते । जं अहं किंचि असुई भवइ तं णं उदएण य मट्टियाए य सुई भवद । एवं खतु अम्हे जलाभिसेय पूयष्याणो अविग्घेण सम्म मच्छामो ।। १४४. तए गं मल्ली विदेहरायवरकन्ना पोक्खं परिव्वाइयं एवं क्यासी-चोक्खे! से जहानामए केंद्र पुरिसे रुहिरकयं वत्यं रुहिरेणं चैव धोवेज्जा, अस्थि णं चोक्खे! तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेण धोव्वमाणस्स काइ सोही ? नो इट्टे समट्टे । एवामेव चोक्खे! तुब्भण्णं पाणाइवाएणं जाव मिच्छादंसण अष्टम अध्ययन : सूत्र १३८-१४४ जितशत्रुराज पद १३८. उस काल और उस समय पाञ्चाल जनपद । काम्पिल्यपुर नगर । पाञ्चाल का अधिपति जितशत्रु नाम का राजा था उस जितशत्रु राजा के अन्तःपुर में धारिणी प्रमुख हजार देवियां थी। १३९. उस मिथिला में चोक्षा नाम की परिव्राजिका थी। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-ये चार वेद, पांचवां इतिहास और छठा निघण्टु इनकी सांगोपांग रहस्य सहित सारक (प्रवर्तक) यावत् ब्राह्मण नय संबंधी ग्रन्थों में निष्णात थी । १४०. वह चोक्षा परिव्राजिका मिथिला में बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के सामने दान धर्म, शौच धर्म और तीर्थाभिषेक का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण और उपदर्शन करती हुई विहार करती थी । १४१. किसी समय चोक्षा परिव्राजिका ने त्रिदण्ड, कुण्डिका आदि उपकरण लिए यावत् गेरुए वस्त्रों को धारण किया। धारण कर परिव्राजिकामठ से निष्क्रमण किया। वहां से निष्क्रमण कर कुछ परिव्राजिकाओं के साथ, उनसे परिवृत हो, वह मिथिला राजधानी के बीचोंबीच होती हुई जहां राजा कुम्भ का भवन था, जहां कन्याओं का अन्तःपुर था, जहां विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली थी, वहां आयी। वहां आकर वह जल-सिक्त डाभ पर बिछी वृषिका पर बैठ गई। बैठकर विदेश की प्रवर राजकन्या मल्ली के सामने दान धर्म, शौच धर्म और तीर्थाभिषेक का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण और उपदर्शन करती हुई विहार करने लगी। १४२. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली ने परिव्राजिका चौक्षा से इस प्रकार कहा- पोक्षे! तुम्हारे धर्म का मूल क्या है? 1 १४३. चोक्षा परिव्राजिका ने विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली से इस प्रकार कहादेवानुप्रिय! हमारे शौचमूलक धर्म प्रज्ञप्त है हमारी जो कोई वस्तु अशुचि होती है, वह उदक और मिट्टी से शुचि हो जाती है। इस प्रकार हम जलाभिषेक से पवित्र आत्मा बन निर्विघ्न स्वर्ग जाते हैं। १४४ विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली ने परिव्राजिका चोक्षा से इस प्रकार कहा -- चोक्षे! जैसे कोई पुरुष खून से सने वस्त्र को खून से ही धोए तो बोले! उस खून से सने और खून से ही धुले वस्त्र की कोई शुद्धि होती है? यह अर्थ समर्थ नहीं है। इस प्रकार चोक्षे! प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र १४४-१५२ २०४ सल्लेणं नत्थि काइ सोही, जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव धोव्वमाणस्स ।। नायाधम्मकहाओ तुम्हारी भी कोई शुद्धि नहीं होती। जैसे खून से सने वस्त्र की शुद्धि खून से ही धोने पर नहीं होती। १४५. तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए एवं वुत्ता समाणी संकिया कंखिया वितिगिछिया भेयसमावण्णा जाया यावि होत्था, मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए नो संचाएइ किंचिवि पामोक्खमाइक्खित्तए, तसिणीया संचिट्ठ। १४५. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के ऐसा कहने पर वह चोक्षा परिव्राजिका शंकित, कांक्षित, विचिकित्सा प्राप्त और भेदसमापन्न हो गई। वह विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के प्रश्नों का कोई उत्तर" नहीं दे पाई, अत: मौन हो गई। १४६. तएणंतंचोक्खं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए बहूओ दासचेडीओ १४६. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली की बहुत सी दास-चेटियों ने चोक्षा हीलेंति निंदंति खिंसति गरिहंति, अप्पेगइयाओ हेरुयालेंति की अवहेलना, निन्दा, कुत्सा और गर्दा की। कुछ ने उसको कुपित अप्पेगइयाओ मुहमक्कडियाओ करेंति अप्पेगइयाओ वग्घाडियाओ किया। किसी ने मुंह बनाया। कोई ठहाका मारकर हंसने लगी और करेंति अप्पेगइयाओ तज्जेमाणीओ तालेमाणीओ निच्छुहति ।। कोई उसकी तर्जना-ताड़ना करती हुई बाहर निकल गई। १४७. तएणं सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए दासचेडियाहिं हीलिज्जमाणी निंदिज्जमाणी खिंसिज्जमाणी गरहिज्जमाणी आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणी मल्लीए विदेहरायवरकन्नयाए पओसमावज्जइ, भिसियं गेण्हइ, गेण्हित्ता कन्नतेउराओपडिणिक्खमई, पडिणिक्खमित्ता मिहिलाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता परिव्वाइया-संपरिखुडा जेणेव पंचालजणवए जेणेव कंपिल्लपुरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहूणं राईसर जाव सत्यवाहपभिईणं पुरओ दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवेमाणी परूवेमाणी उवदंसेमाणी विहरइ। १४७. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली की दास-चेटियों द्वारा हीलित निन्दित, कुत्सित, गर्हित होने के कारण वह चोक्षा क्रोध से तमतमा उठी यावत् क्रोध से जलती उसने विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली पर प्रद्वेष किया। उसने वृषिका को उठाया। उसे उठाकर कन्याओं के अन्त:पुर से वापस निकल गई। वहां से निकलकर मिथिला से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर परिव्राजिकाओं से परिवृत हो, जहां पाञ्चाल जनपद था, जहां काम्पिल्यपुर नगर था, वहां आयी। वहां आकर बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के सामने दानधर्म, शौचधर्म और तीर्थाभिषेक का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण और उपदर्शन करती हुई विहार करने लगी। १४८. तएणं से जियसत्तू अण्णया कयाइ अंतो अतउर-परियाल-सद्धिं संपरिबुडे सीहासणवरगए यावि विहरइ॥ १४८. किसी समय वह जितशत्रु राजा अपने अन्तरंग अन्त:पुर परिवार के साथ, उससे परिवृत हो प्रवर सिंहासन पर बैठा हुआ था। १४९. तए णं सा चोक्खा, परिव्वाइया-संपरिखुडा जेणेव जियसत्तुस्स १४९. परिव्राजिकाओं से परिवृत चोक्षा ने जहां राजा जितशत्रु का भवन रण्णो भवणे जेणेव जियसत्तू राया तेणेव अणुपविसइ, अणुपविसित्ता था, जहां राजा जितशत्रु था, वहां प्रवेश किया। वहां प्रवेश कर जियसत्तुंजएणं विजएणं वद्धावे॥ जय-विजय की ध्वनि से जितशत्रु का वर्धापन किया। १५०. तए णं से जियसत्तू चोक्खं परिब्वाइयं एज्जमाणं पासइ, १५०. जितशत्रु ने आती हुई परिव्राजिका चोक्षा को देखा। देखकर सिंहासन पासित्ता सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता चोक्खं सक्कारेइ से उठा। उठकर चोक्षा को सत्कृत किया। सम्मानित किया। सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता आसणेणं उवनिमंतेइ॥ सत्कृत-सम्मानित कर आसन से उपनिमन्त्रित किया। १५१. तए णं सा चोक्खा उदगपरिफोसियाए दब्भोवरिपच्चत्थुयाए १५१. वह चोक्षा जल-सिक्त डाभ पर बिछी वृषिका पर बैठ गई। बैठकर भिसियाए निविसइ, निविसित्ता जियसत्तू रायं रज्जे य द्धे य कोसे उसने राजा जितशत्रु से राज्य, राष्ट्र, कोष, कोष्ठागार, बल, वाहन, पुर य कोट्ठागारे य बलेय वाहणेय पुरेय अतउरेय कुसलोदंतं पुच्छइ॥ और अन्त:पुर के विषय में कुशल-समाचार पूछे। १५२. तए णं सा चोक्खा जियसत्तुस्स रण्णो दाणधम्मं च सोयधम्म १५२. चोक्षा राजा जितशत्रु के सामने दानधर्म, शौचधर्म और तीर्थाभिषेक च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवेमाणी परूवेमाणी का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण और उपदर्शन करती हुई विहार करने उवदंसेमाणी विहरइ॥ लगी। Jain Education Intemational Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २०५ अष्टम अध्ययन : सूत्र १५३-१५४ १५३. तए णं से जियसत्तू अप्पणो ओरोहंसि जायविम्हए चोक्खं एवं १५३. अपने अन्त:पुर में अनुरक्त हुए राजा जितशत्रु ने चोक्षा से इस वयासी--तुमणं देवाणुप्पिया! बहूणि गामागर जाव सण्णिवेससि प्रकार कहा-देवानुप्रिये! तुम बहुत से गांव, आकर यावत् सन्निवेशों आहिंडसि, बहूण य राईसर-सत्यवाहप्पभिईणं गिहाइं अणुप्पविससि, में घूमती हो और बहुत से राजा, ईश्वर, सार्थवाह इत्यादि के घरों में तं अत्थियाइं ते कस्सइ रणो वा ईसरस्स वा कहिंचि एरिसए प्रवेश करती हो तो क्या तुमने किसी राजा अथवा ईश्वर के कहीं भी ओरोहे दिट्ठपुव्वे, जारिसए णं इमे मम ओरोहे? ऐसा अन्त:पुर पहले देखा है जैसा मेरा यह अन्त:पुर है? १५४. तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया जियसत्तुणा एवं वृत्ता समाणी इस विहसियंकरेइ, करेता एवं क्यासी--सरिसए णं तुम देवाणुप्पिया! तस्स अगडददुरस्स। के णं देवाणुप्पिए! से अगडददुरे? जियसत्तू! से जहानामए अगडदछरे सिया। सेणं तत्थ जाए तत्थेव वुड्ढे अण्णं अगडं वा तलागंवा दहं वा सरं वा सागरं वा अपासमाणे मण्णइ--अयं चेव अगडे वा तलागे वा दहे वा सरे वा सागरे वा। तए णं तं कूवं अण्णे सामुद्दए दद्दुरे हव्वमागए। तए णं से कूवदद्दुरे तं सामुद्दयं ददुरं एवं वयासी--से के तुम देवाणुप्पिया! कत्तो वा इह हव्वमागए? तए णं से सामुद्दए ददुदुरे तं कूवददुरं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! अहं सामुद्दए ददुरे। तए णं से कूवदुरे तं सामुद्दयं ददुरं एवं वयासी--केमहालए णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे? तए णं से सामुद्दए ददुरे तं कूवददुदुरं एवं वयासी--महालए णं देवाणुप्पिया! समुद्दे। . तए णं से कूवददुरे पाएणं लीहं कड्ढेइ, कड्ढेत्ता एवं वयासी--एमहालए णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे? नो इणढे समढे । महालए णं से समुद्दे। तए णं से कूवददुरे पुरथिमिल्लाओ तीराओ उप्फिडित्ता णं पच्चत्थिमिल्लं तीरं गच्छइ, गच्छित्ता एवं वयासी--एमहालए णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे? नो इणढे समढे। एवामेव तुमपि जियसत्तू अण्णेसिं बहूर्ण राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईणं भज्जं वा भगिणिं वा धूयं वा सुण्हं वा अपासमाणे जाणसि जारिसए मम चेव णं ओरोहे, तारिसए नो अण्णेसिं । तं एवं खलु जियसत्तू! मिहिलाए नयरीए कुंभगस्स धूया पभावईए अत्तया मल्ली नाम विदेहरायवरकन्ना रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा, नो खलु अण्णा काइ (तारिसिया?) देवकन्ना वा असुरकन्ना वा नागकन्ना वा जक्खकन्ना वा गंधव्वकन्ना वा रायकन्ना वा जारिसिया मल्ली विदेहरायवरकन्ना (तीसे?) छिन्नस्स वि पायंगुट्ठगस्स इमे तवोरोहे सयसहस्सइमंपि कलंन अग्घइ त्ति कटु जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया। १५४. जितशत्रु के ऐसा कहने पर परिव्राजिका चोक्षा ने ईषद् हास्य किया। ईषद् हास्य कर उसने इस प्रकार कहा--तुम उस कूप-मण्डूक के समान हो, देवानुप्रिय! कौन है देवानुप्रिये! वह कूप-मण्डूक? जितशत्रु! जैसे कोई कूप-मण्डूक था। वह वहीं जन्मा, वहीं बढ़ा और अन्य कूप, तालाब, दह, सर अथवा सागर उसने नहीं देखा था। वह मानता था-यही कूप है, यही तालाब है, यही द्रह है, यही सरोवर है और यही सागर है। उस कूप में दूसरा समुद्र का मेंढ़क आ गया। उस कूप-मण्डूक ने समुद्र के मेढ़क से इस प्रकार कहा--कौन हो तुम देवानुप्रिय! कहां से यहां चले आए? समुद्र के मेंढ़क ने कूप-मण्डूक से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! मैं समुद्र का मेंढ़क हूं। कूप-मण्डूक ने उस समुद्र के मेंढ़क से इस प्रकार कहा--कितना बड़ा है देवानुप्रिय! वह समुद्र? ___ समुद्र के मेंढ़क ने कूप-मण्डुक से इस प्रकार कहा--बड़ा है देवानुप्रिय! समुद्र। कूप-मण्डूक ने पांव से लकीर खींची। खींचकर इस प्रकार कहा--इतना बड़ा है देवानुप्रिय! वह समुद्र? यह अर्थ समर्थ नहीं है। बड़ा है वह समुद्र । तब वह कूप-मण्डूक पूर्वी तट से छलांग भर कर पश्चिमी तट पर गया। जाकर इस प्रकार कहा--इतना बड़ा है देवानुप्रिय, वह समुद्र? यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार तुम भी जितशत्रु! बहुत से राजा, ईश्वर, सार्थवाह इत्यादि की भार्या, भगिनी, पुत्री अथवा पुत्रवधू को बिना देखे यही जानते हो,जैसे मेरा अन्त:पुर है, वैसा दूसरों का नहीं है। जितशत्रु! मिथिला नगरी में कुम्भ की पुत्री, प्रभावती की आत्मजा मल्ली नाम की विदेह की प्रवर राजकन्या रूप से, यौवन से और लावण्य से उत्कृष्ट तथा उत्कृष्ट शरीर वाली है। अन्य कोई भी देवकन्या, असुरकन्या, नागकन्या, यक्षकन्या, गन्धर्वकन्या अथवा राजकन्या वैसी नहीं है, जैसी विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली। तुम्हारा यह अन्त:पुर तो उसके छिन्न पादांगुष्ठ के लक्षांश में भी नहीं आता--ऐसा कहकर, वह जिस दिशा से आयी थी, उसी दिशा में चली गयी। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र १५५-१६१ २०६ नायाधम्मकहाओ १५५. तए णं से जियसत्तू परिवाइया-जणिय-हासे दूयं सद्दावेइ, १५५. उस परिव्राजिका ने जितशत्रु के मन में अनुराग उत्पन्न कर दिया। सद्दावेत्ता एवं वयासी--जाव मल्लि विदेहरायवरकन्नं मम राजा ने दूत को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--यावत् विदेह भारियत्ताए वरेहि, जइ वि य णं सा सयं रज्जसुंका।। की प्रवर राजकन्या मल्ली को मेरी भार्या के रूप में वरण करो। फिर उसका मूल्य राज्य जितना भी क्यों न हो? १५६. तए णं से दूए जियसत्तुणा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे जाव जेणेव मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए।। १५६. जितशत्रु के ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट हुए दूत ने यावत् जहां मिथिला नगरी थी, उस ओर प्रस्थान कर दिया। याणं संदेस-निवेदण-पदं दूतों द्वारा सन्देश निवेदन-पद १५७. तए णं तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जेणेव १५७. जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं के दूतों ने जहां मिथिला नगरी मिहिला तेणेव पहारेत्य गमणाए। थी, उस ओर प्रस्थान किया। १५८. तए णं छप्पि दूयगा जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुज्जासि पत्तेयं-पत्तेयं खंधावारनिक्स करेंति, करेत्ता लिहिलं रायहाणिं अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पत्तेयं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु साणं-साणं राईणं वयणाई निवेदेति॥ १५८. वे छहों दूत जहां मिथिला थी, वहां आए। वहां आकर मिथिला के प्रधान उद्यान में अपनी-अपनी सेना का पड़ाव डाला। पड़ाव डालकर मिथिला राजधानी में प्रवेश किया। प्रवेश कर जहां कुम्भ था, वहां आए। वहां आकर प्रत्येक ने दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर अपने-अपने राजाओं के सन्देश अलग-अलग निवेदित किए। कुंभएण दूयाणं असक्कार-पदं १५९. तए णं से कुंभए तेसिं दूयाणं अंतियं एयमढे सोच्चा आसुरुत्ते रुटे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडि निडाले साहटु एवं वयासी--न देमि णं अहं तुभं मल्लि विदेहरायवरकन्न ति कटु ते छप्पि दूए असक्कारिय असम्माणिय अवद्दारेणं निच्छुभावे॥ कुम्भ द्वारा दूतों का असत्कार-पद १५९. उन दूतों से यह अर्थ सुनकर कुम्भ क्रोध से तमतमा उठा। वह रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलता हुआ त्रिवलित भृकुटी को ललाट पर चढ़ाता हुआ इस प्रकार बोला--मैं नहीं देता तुम्हें विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली--ऐसा कहकर उसने छहों दूतों को असत्कृत, असम्मानित कर पार्श्वद्वार से निकलवा दिया। १६०. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया कुंभएणं रण्णा असक्कारिय असम्माणिय अवदारेणं निच्छ्भाविया समाणा जेणेव सगा-सगा जणवया जेणेव सयाई-सयाइं नगराइं जेणेव सया-सया रायाणो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-- एवं खलु सामी! अम्हे जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जमगसमगं चेव जेणेव मिहिला तेणेव उवागया जाव अवद्दारेणं निच्छुभावेइ। "तं न देइ णं सामी! कुंभए मल्लि विदेहरायवरकन्न" साणं-साणं राईणं एयमटुं निवेदेति॥ १६०. वे जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं के दूत राजा कुम्भ द्वारा असत्कृत, असम्मानित कर पार्श्वद्वार से निकाल दिये जाने पर वे जहां अपने-अपने जनपद थे, जहां अपने-अपने नगर थे और जहां अपने-अपने राजा थे, वहां आए। वहां आकर सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोले-स्वामिन्! हम जितशत्रु प्रमुख छह राजाओं के दूत एक ही साथ जहां मिथिला थी, वहां गये यावत् वहां हमें पार्श्वद्वार से निकलवा दिया गया। अत: स्वामिन्! राजा कुम्भ विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली को नहीं देता--इस प्रकार अपने-अपने राजा से यह अर्थ निवेदन किया। जियसत्तुपामोक्खाणं कुंभएणं जुज्झ-पदं १६१. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो तेसिं याणं अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया जितशत्रु प्रमुखों का कुम्भ के साथ युद्ध-पद १६१. जितशत्रु प्रमुख वे छहों राजा उन दूतों से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर क्रोध से तमतमा उठे। रुष्ट, कुपित, चण्ड और Jain Education Intemational Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २०७ अष्टम अध्ययन : सूत्र १६१-१६६ मिसिमिसेमाणा अण्णमण्णस्स यसपेसणं करेंति, करेत्ता एवं क्रोध से जलते हुए उन्होंने एक दूसरे के पास दूतों को संप्रेषित किया। वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं छण्हं राईणं दूया जमगसमगं संप्रेषित कर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! हम छहों राजाओं के दूत चेव मिहिला तेणेव उवागया जाव अवद्दारेणं निच्छूढा । तं सेयं एक साथ, जहां मिथिला थी, वहां गये यावत् पार्श्वद्वार से निकलवा खलु देवाणुप्पिया! कुंभगस्स जत्तं गेण्हित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स दिये गए। अत: देवानुप्रियो! उचित है कुम्भ के साथ युद्ध करने के एयमटुं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता ण्हाया सण्णद्धा हत्यिखंधरवरगया लिए प्रयाण करें--ऐसा कहकर उन्होंने एक दूसरे के इस प्रस्ताव को सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं स्वीकार किया। स्वीकार कर, स्नान कर, सन्नद्ध हो, प्रवर हस्तिवीइज्जमाणा महया हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए स्कन्ध पर आरूढ़ हुए। कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त सेणाए सद्धिं संपरिखुडा सव्विड्डीए जावटुंदभि-नाइयरवेणं सएहितो- छत्र धारण किया। प्रवर श्वेत चामरों से वीजित होते हुए, वे महान सएहितो नगरेहितो निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता एगयओ मिलायंति, अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना जेणेव मिहिला तेणेव पहारेत्थ गमणाए। के साथ उससे परिवृत हो सम्पूर्ण ऋद्धि यावत् दुन्दुभि के निनादित स्वरों के साथ अपने-अपने नगरों से निकले, वहां से निकलकर एक स्थान में मिले और जहां मिथिला थी, उधर प्रस्थान कर दिया। १६२. तए णं कुंभए राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे बलवाउयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव हय-गय-रहपवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सन्नाहेहि, सन्नाहेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि सेवि जाव पच्चप्पिणति।। १६२. जब राजा कुम्भ को इस बात का पता चला, तब उसने सेनाध्यक्ष को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! शीघ्र ही अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध करो। सन्नद्ध कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उसने भी यावत् प्रत्यार्पित किया। १६३. तए णं कुंभए राया हाए सण्णद्धे हत्थिखंधवरगए सकोरेंटमल्ल- दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं वीइज्जमाणे महया हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरितुड़े सव्विड्डीए जाव दुंदुभि-नाइयरवेणं मिहिलं मझमझेणं निज्जाइ, निज्जावेत्ता विदेहजणवयं मझमझेणं जेणेव देसग्गं तेणेव खंघावारनिवेसं करेइ, करेत्ता जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे पडिचिट्ठइ।। १६३. राजा कुम्भ स्नान कर, सन्नद्ध हो प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हुआ। कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया। प्रवर श्वेत चामरों से वीजित होता हुआ महान अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना के साथ उससे परिवृत हो, सम्पूर्ण ऋद्धि यावत् दुन्दुभि के निनादित स्वरों के साथ मिथिला के बीचोंबीच से होकर निर्माण किया। निर्याण कर विदेह जनपद के बीचोंबीच होता हुआ जहां देश की सीमा थी, वहां सेना का पड़ाव डाला। पड़ाव डालकर जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं की प्रतीक्षा करता हुआ, युद्ध के लिए सन्नद्ध होकर बैठ गया। १६४. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेणेव कुंभए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कुंभएण रण्णा सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था। १६४. जितशत्रु प्रमुख, वे छहों राजा जहां राजा कुम्भ था, वहां आए। वहां आकर वे राजा कुम्भ के साथ युद्ध-संलग्न हो गये। १६५. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो कुंभयं रायं हय-महिय-पवरवीर-घाइय-विवडियचिंध-धय-पडागं किच्छोवगयपाणं दिसोदिसिं पडिसेहेति॥ १६५. जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं ने राजा कुम्भ को हत और मथित कर डाला। उसके प्रवर वीरों को यमधाम पहुंचा दिया। सेना के चिह-ध्वजाओं और पताकाओं को गिरा दिया। उसके प्राण संकट में डाल दिए और सब दिशाओं से उसके प्रहारों को विफल कर दिया। १६६. तए णं से कुंभए जियसत्तुपामोक्खेहिं छहिं राईहिं हय-महिय- पवरवीर-घाइय-विवडियचिंध-धय-पडागे किच्छोवगयपाणे दिसोदिसिं पडिसेहिए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए १६६. जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं द्वारा राजा कुम्भ हत और मथित हो गया। उसके प्रवर वीर युद्ध में काम आ गए। सेना के चिह्न-ध्वजाएं और पताकाएं नीचे गिर गयी। उसके प्राण संकट में पड़ गये और Jain Education Intemational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ अष्टम अध्ययन : सूत्र १६८-१७२ अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कटु सिग्धं तुरियं चवलं चंडं जइणं वेइयं जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मिहिलं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता भिहिलाए दुवाराइं पिहेइ, पिहेत्ता रोहसज्जे चिट्ठ। नायाधम्मकहाओ सब दिशाओं से उसके प्रहार विफल कर दिये गये। तब वह प्राणहीन, बलहीन, वीर्यहीन तथा पुरुषकार और पराक्रमहीन हो गया। अब (रण भूमि में) डटे रहना अशक्य है--ऐसा सोचकर वह शीघ्र, त्वरित, चपल, चण्ड, जयी और वेगपूर्ण गति से, जहां मिथिला थी, वहां आया। वहां आकर मिथिला में प्रवेश किया। प्रवेश कर मिथिला के द्वार बन्द कर लिए। द्वार बन्द कर घेरा डालकर बैठ गया। सार १६७. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेणेव मिहिला १६७. जितशत्रु प्रमुख वे छहों राजा-जहां मिथिला थी, वहां आए। वहां तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता मिहिलं रायहाणिं निस्संचारं आकर उन्होंने मिथिला राजधानी को संचार रहित, उच्चार निरुच्चारं सव्वओ समंता ओलंभित्ता णं चिटुंति॥ रहित -(उत्सर्ग के लिए भी बाहर जाना रोककर)बनाकर चारों ओर से घेर लिया। १६८. तए णं से कुंभए राया मिहिलं रायहाणिं ओरुद्धं जाणित्ता अभितरियाए उवट्ठाणसालाए सीहासणवरगए तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य मम्माणि य अलभमाणे बहूहिं आएहि य उवाएहि य, उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मयाहि य पारिणामियाहि य--बुद्धीहिं परिणामेमाणे-परिणामेमाणे किंचि आयं वा उवायं वा अलभमाणे ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए झियायइ ।। १६८. वह राजा कुम्भ मिथिला राजधानी को अवरुद्ध जानकर अन्तरंग सभा मण्डप में प्रवर सिंहासन पर बैठा हुआ जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं को पराजित करने का उचित अवसर, छिद्र, सुराख और मर्म को उपलब्ध नहीं हुआ, बहुत से मार्गों और उपायों से तथा औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी--इस बुद्धि चतुष्टय से बार-बार परिणमन करने पर भी किसी मार्ग अथवा उपाय को उपलब्ध नहीं हुआ, तब वह भग्न हृदय हो, हथेली पर मुंह टिकाए, आर्तध्यान में डूबा हुआ चिन्तामग्न हो गया। मल्लीए चिंताहेउ-पुच्छा-पदं १६९. इमं च णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगलपायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया बहूहिं खुज्जाहिं संपरिवुडा जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कुंभगस्स पायग्गहणं करेइ।। मल्ली द्वारा चिन्ता का कारण पृच्छा-पद १६९. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली स्नान बलिकर्म और कौतुक मंगल रूप प्रायश्चित्त कर समस्त अलंकारों से विभूषित और बहुत सी कुब्जाओं से परिवृत हो, जहां कुम्भ था वहां आयी। वहां आकर कुम्भ को पाद-वंदन किया। १७०. तए णं कुंभए मल्लिं विदेहरायवरकन्नं नो आढाइ नो परियाणाइ १७०. कुम्भ ने विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली को न आदर दिया, न तुसिणीए चिट्ठइ॥ उसकी ओर ध्यान दिया। वह चुपचाप बैठा रहा। १७१. तए णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना कुंभगं एवं वयासी--तुन्भे णं ताओ! अण्णया ममं एज्जमाणिं पासित्ता आढाह परियाणाह अंके निवेसेह । इयाणिं ताओ! तुब्भे ममं नो आढाह नो परियाणाह नो अंके निवेसेह । किण्णं तुब्भं अज्ज ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुहा अट्टज्झाणोवगया झियायह? १७१. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली ने कुम्भ से इस प्रकार कहा--तात! जब कभी मुझे आती हुई देखते हो, तुम मेरा आदर करते हो, मेरी ओर ध्यान देते हो और मुझे गोद में बैठाते हो। तात! इस समय तुम न मेरा आदर करते हो, न मेरी ओर ध्यान देते हो और न मुझे गोद में बिठाते हो। आज तुम भग्न हृदय हो, हथेली पर मुंह टिकाए, आर्तध्यान में डूबे हुए क्यों चिन्तामग्न हो रहे हो? कुंभगस्स चिंताहेउ-कहण-पदं १७२. तए णं कुंभए मल्लिं विदेहरायवरकन्नं एवं वयासी--एवं खलु पुत्ता! तव कज्जे जियसत्तुपामोक्खेहिं छहिं राईहिं या संपेसिया। तेणं मए असक्कारिय असम्माणिय अवदारेणं निच्छूढा । तए णं कुम्भ द्वारा चिन्ता का कारण कथन-पद १७२. कुम्भ ने विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली से इस प्रकार कहा--पुत्री! बात ऐसी है--तेरे लिए जितशत्रु प्रमुख छह राजाओं ने दूत भेजे थे। उनको मैंने असत्कृत, असम्मानित कर पार्श्वद्वार से निकलवा दिया। Jain Education Intemational Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ जियसत्तुपामोक्स्खा छप्पि रायाणो तेसिं दूयाणं अंतिए एपम सोच्चा परिकुविया समाणा मिहिलं रायहाणिं निस्संचारं निरुच्चारं सव्यओ समता ओभित्ता णं चिति । तए णं अहं पुत्ता तेसिं जियसत्तुपामोक्लाणं उन्हं राई अंतराणि (य छिद्राणि य विवराणि य मम्माणि य?) अलभमाणे जाव अट्टज्झाणोवगए झियामि ।। २०९ मल्लीए उवायनिरूवण-पदं १७३. तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना कुंभगं राय एवं क्यासीमा णं तुम्मे ताओ! ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्यमुहा अट्टज्झाणोवगया झियाबह तुम्भे णं ताओ! तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्डं राईणं पत्तेयं-पत्तेयं रहस्सिए दूयसपैसे करेह, एगमेगं एवं वयह-- तव देमि मल्लि विदेहरायवरकन्नं ति कट्टु संझकालसमयंसि पविरल- मणूसंसि निसंत- पडिनिसंतसि पत्तेयं - पत्तेयं मिहिलं रायहाणि अणुप्पवेसेह, अणुप्पवेसेत्ता गन्धरसु अणुष्पवेसेह, अणुप्यवेसेत्ता मिहिलाए रापहाणीए दुवारा पिह, पित्ता रोहासज्जा चिट्ठह ।। १७४. तए णं कुंभए तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं पत्तेयंपत्तेयं रहस्सिए दूयसपैसे करेइ जाव रोहासज्जे चिट्ठइ ॥ मल्लीए जियसत्तुपामोक्लाणं संबोह-पदं १७५. ताए णं ते जियसत्तुपायोक्खा छप्पि रायाणो कल्लं पाउप्पभायाए रगीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयता जलते जातंतरेहिं कणगमहं मत्ययछि पउमुप्पल-पिहाणं पहिमं पासंति-- एस णं मल्ली विदेहरायवरकन्नत्ति कट्टु मल्लीए रायवरकन्नाए रूवे व जोब्वणे य लावण्णे य मुच्छिया गिद्धा मडिया अज्झोववण्णा अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणा पेहमाणा चिट्ठति ॥ १७६. तए गं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय - मंगल पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया बहूहिं खुज्जाहिं जाव परिक्खित्ता जेणेव जालघरए, जेणेव कणगमई मत्थयछिड्डा पउमुप्पल-पिहाणा पडिमा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तीसे कणगमईए मत्ययछिड्डाए पउमुप्पलपिहाणाए पहिमाए मत्ययाओ तं पउमुप्पल-पिहाणं अवणेइ तओ गं गंधे निद्धावे से जहाणामए-अहिमडे इ वा जाव एत्तो असुभतराए देव ।। अष्टम अध्ययन सूत्र १७२-१७६ तब उन दूतों से यह अर्थ सुनकर परिकुपित हुए वे जितशत्रु प्रमुख छहों राजा मिथिला राजधानी को संचार रहित, उच्चार रहित कर उसे चारों ओर से घेरे हुए बैठे हैं। पुत्री ! मुझे उन जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं को पराजित करने का उचित अवसर (छिद्र, सुरास और मर्म) उपलब्ध नहीं हो रहा है यावत् मैं आर्त्तध्यान में डूबा हुआ, चिन्तामग्न हो रहा हूं। मल्ली द्वारा उपाय- निरूपण-पद १७३. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली ने राजा कुम्भ से इस प्रकार कहातात! तुम भग्न हृदय हो, हथेली पर मुंह टिकाए, आर्तध्यान मे डूबे हुए चिन्तामग्न मत बनो। तात! तुम जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं के पास एकान्त में पृथक-पृथक दूतों को भेजो एक-एक राजा को इस प्रकार कहो --तुझे विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली देता हूं--ऐसा कहकर सन्ध्याकाल के समय, जब मनुष्यों का गमनागमन कम हो जाए, घर से बाहर गये लोग पुनः अपने-अपने घरों में लौट आये, तब तुम उन्हें पृथक-पृथक रूप से राजधानी मिथिता में प्रविष्ट कराओ। प्रविष्ट कराकर तलघरों में प्रविष्ट कराओ। तलघरों में प्रविष्ट कराकर राजधानी मिथिला के द्वार बन्द कर दो। द्वार बन्द कर घेरा डालकर बैठ जाओ। १०४. तब कुम्भ ने जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं के पास एकान्त में पृथक-पृथक दूत भेजे यावत् घेरा डालकर बैठ गया । मल्ली द्वारा जितशत्रु प्रमुखों को संबोध पद १७५. उषा काल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं ने मस्तक में छेद और पद्मकमल के ढक्कन वाली उस स्वर्णमयी प्रतिमा को जाली के छिद्रों से देखा । यही विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली है-- ऐसा सोचकर वे प्रवर राजकन्या मल्ली के रूप, यौवन और लावण्य पर मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन्न होकर उसे अनिमिष दृष्टि से बार-बार देखने लगे। I १७६. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली स्नान कर, बलिकर्म तथा कौतुक - मंगल रूप प्रायश्चित्त कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित और बहुत सी कुवाओं से यावत् परिवृत हो, जहां जालक गृह था, जहां मस्तक में छेद और पद्म-कमल के ढ़क्कन वाली स्वर्णमयी प्रतिमा थी, वहां आयी। वहां आकर मस्तक में छेद और पद्म-कमल के ढ़क्कन वाली उस स्वर्णमयी प्रतिमा के मस्तक पर से पद्म-कमल के उस ढ़क्कन को हटाया। उससे ऐसी गन्ध फूटी जैसे कोई मृत प हो, यावत् वह गन्ध उससे भी अशुभतर थी। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र १७७-१८० २१० नायाधम्मकहाओ १७७. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो तेणं असुभेणं १७७. जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं ने उस अशुभ गन्ध से अभिभूत गंधेणं अभिभूया समाणा सएहिं-सएहिं उत्तरिज्जेहिं आसाइं होकर अपने-अपने उत्तरीय-वस्त्रों से मुंह को ढंक लिया। मुंह ढंक पिहेंति, पिहेत्ता परम्मुहा चिट्ठति ।। कर पीठ फेर ली। १७८. तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियसत्तुपामोक्खे एवं १७८, विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली ने जितशत्रु प्रमुख उन छहों वयासी--किण्णं तुब्भे देवाणुप्पिया! सएहि-सएहिं उत्तरिज्जेहिं राजाओं से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम अपने-अपने उत्तरीय-वस्त्रों आसाइं पिहेत्ता परम्मुहा चिट्ठह? से मुंह ढंक कर और पीठ फेर कर क्यों बैठे हो? १७९. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा मल्लिं विदेहरायवरकन्नं एवं वयंति--एवं खलु देवाणुप्पिए! अम्हे इमेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सएहि-सएहिं उत्तरिज्जेहिं आसाइं पिहेत्ता परम्मुहा चिट्ठामो॥ १७९. वे जितशत्रु प्रमुख राजा विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली से इस प्रकार बोले--देवानुप्रिये! हम इस अशुभ गन्ध से अभिभूत होकर अपने-अपने उत्तरीय वस्त्रों से मुंह ढंक कर बैठे हैं। १८०. तए णं मल्ली विहेहरायवरकन्ना ते जियसत्तुपामोक्खे एवं वयासी--जइ ताव देवाणुप्पिया! इमीसे कणगमईए मत्थयछिड्डाए पउमुप्पल-पिहाणाए पडिमाए कल्लाकल्लि ताओ मणुण्णाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणेपक्खिप्पमाणे इमेयारूवे असुभे पोग्गल-परिणामे, इमस्स पुण ओरालियसरीरस्स खेलासवस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्कासवस्स सोणियपूयासवस्स दुरुय-ऊसास-नीसासस्स दुरुयमुत्त-पूइय-पुरीस-पुण्णस्स सडण-पडण-छेयण-विद्धसणधम्मस्स केरिसए य परिणामे भविस्सइ? तंमा णं तुब्भे देवाणुप्पिया! माणुस्सएसु कामभोगेसु सज्जह रज्जह गिज्झह मुज्झह अझोववज्जह । एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे इमाओ तच्चे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावतिसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामोक्खा सत्तवि य बालवयंसया रायाणो होत्था--सहजाया जाव पव्वइया । तए णं अहं देवाणुप्पिया! इमेणं कारणेणं इत्थीनामगोयं कम्मं निव्वत्तेमि--जइ णं तब्भे चउत्थं उवसंपज्जित्ता णं विहरह, तए णं अहं छठें उवसंपज्जित्ता णं विहरामि सेसं तहेव सव्वं । तए णं तुब्भे देवाणुप्पिया! कालमासे कालं किच्चा जयंते विमाणे उववण्णा । तत्थ णं तुम्भं देसूणाई बत्तीसं सागरोवमाइं ठिई। तए णं तुब्भे ताओ देवलोगाओ अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे जाव साइं-साई रज्जाई उवसंपज्जित्ता णं विहरह । तएणं अहं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जाव दारियत्ताए पच्चायाया। १८०. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली जितशत्रु प्रमुख उन (छहों राजाओं) से इस प्रकार बोली--देवानुप्रियो! यदि मस्तक में छेद और पद्म-कमल के ढ़क्कन वाली इस स्वर्णमयी प्रतिमा में, प्रतिदिन प्रभातकाल में उस मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य में से प्रक्षिप्त एक-एक पिण्ड का यह इस प्रकार का अशुभ पुद्गल परिणमन है तो ____ इस औदारिक शरीर का--जिससे कफ, वमन, पित्त, शुक्र, शोणित और पीव झरते हैं, उच्छवास-नि:श्वास से दुर्गन्ध आती है जो दुर्गन्धित मल-मूत्र और पीव से प्रतिपूर्ण है, जो सड़ने, गिरने, कटने और विध्वस्त होने वाला है, का--कैसा परिणमन होगा? इसलिए देवानुप्रियो! तुम मनुष्य संबंधी काम भोगों में आसक्त, अनुरक्त, गृद्ध, मुग्ध और अध्युपपन्न८ मत बनो। देवानुप्रियो! इससे पूर्व तीसरे भव में हम सातों ही अपर विदेह वर्ष, सलिलावती विजय और वीतशोका राजधानी में महाबल प्रमुख सात बालवयस्य राजा थे--सहजात यावत् सहदीक्षित थे। देवानुप्रियो! उस समय मैंने इस कारण से स्त्री नाम-गोत्र-कर्म का निवर्तन किया यदि तुम चतुर्थ-भक्त स्वीकार कर विहार करते तो मैं षष्ठ-भक्त स्वीकार कर विहार करती। इसी प्रकार शेष सम्पूर्ण वर्णन । तत्पश्चात् देवानुप्रियो! तुम मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर जयंत-विमान में उत्पन्न हुए। वहां तुम्हारी स्थिति कुछ कम बत्तीस सागरोपम थी। तुम उस देवलोक से च्युत होकर सीधे इसी जम्बूद्वीप द्वीप में उत्पन्न हुए यावत् अपने-अपने राज्यों का संचालन करने लगे। मैं उस देवलोक से आयुक्षय होने पर यावत् बालिका के रूप में यहां आई हूं। गाथा गाहा किंथ तयं पम्हुटुं, जंथ तया भो! जयंतपवरम्मि। वुत्था समय-णिबद्धा, देवा तं संभरह जाई।।१।। हे राजाओ! क्या तुम उसे भूल गए। उस समय हम संकेत में बंधे हुए२५ (एक-दूसरे को प्रतिबोध देंगे) देव प्रवर जयन्त-विमान में निवास करते थे। उस जन्म को याद करो। Jain Education Intemational Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २११ अष्टम अध्ययन : सूत्र १८१-१८८ जियसत्तुपामोक्खाणं जाइसरण-पदं जितशत्रु प्रमुखों का जाति-स्मरण-पद १८१. तए णं तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं मल्लीए १८१. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली से यह अर्थ सुनकर, अवधारण विदेहरायवरकन्नाए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म सभेणं कर, शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्यमान लेश्याओं के परिणामेणं पसत्थेणं अज्झवसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं कारण तदावरणीय (जाति-स्मृति के आवारक) कर्मों का क्षयोपशम तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवेसणं होने से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते-करते जितशत्रु प्रमुख करेमाणाणं सण्णिपुव्वे जाइसरणे समुप्पण्णे, एयमटुं सम्म उन छहों राजाओं को समनस्क जन्मों को जानने वाला जाति स्मरण अभिसमागच्छति॥ ज्ञान उत्पन्न हो गया। उन्होंने यह अर्थ भली-भांति जान लिया। मल्लीए पव्वज्जा-पदं मल्ली की प्रव्रज्या-पद १८२. तए णं मल्ली अरहा जियसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो १८२. जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं को जाति-स्मरण-ज्ञान समुत्पन्न हुआ समुप्पण्णजाईसरणे जाणित्ता गम्भघराणं दाराइं विहाडेइ।। जानकर अर्हत मल्ली ने तलघरों के द्वार खोल दिए। १८३. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेणेव मल्ली १८३. जितशत्रु प्रमुख वे छहों राजा जहां अर्हत मल्ली थी, वहां आए। अरहा तेणेव उवागच्छति ।। १८४. तए णं महब्बलपामोक्खा सत्तवि य बालवयंसा एगयओ १८४. महाबल प्रमुख सातों ही बालवयस्य एकत्र अभिसमन्वागत हो गए। अभिसमण्णागया वि होत्था। १८५. तए णं मल्ली अरहा ते जियसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो एवं वयासी--एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! संसारभउब्विग्गा जाव पव्वयामि । तं तुम्भे णं किं करेह? किं ववसह? किं वा भे हियइच्छिए सामत्थे? १८५. अर्हत मल्ली ने जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! मैं इस संसार के भय से उद्विग्न हूं यावत् प्रव्रजित होती हूं। तुम क्या करते हो? क्या निश्चय करते हो अथवा तुम्हारे अन्तर्मन की अभ्यर्थना क्या है? १८६. तए णं जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो मल्लि अरहं एवं वयासी--जइ णं तुन्भे देवाणुप्पिया! संसारभउब्विग्गा जाव पव्वयह, अम्हंणं देवाणुप्पिया! के अण्णे आलंबणे वा आहारे वा पडिबंधे वा? जह चेव णं देवाणुप्पिया! तुन्भे अम्हं इओ तच्चे भवग्गहणे बहूसु कज्जेसु य मेढी पमाणं जाव धम्मधुरा होत्था, तह चेव णं देवाणुप्पिया! इण्हिं पि जाव धम्मधुरा भविस्सह। अम्हे वि णं देवाणुप्पिया! संसारभउव्विग्गा भीया जम्मणमरणाणं देवाणुप्पिया-सद्धिं मुंडा भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वयामो॥ १८६. जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं ने अर्हत मल्ली से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये! यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हो यावत् प्रव्रजित होती हो तो देवानुप्रिये! हमारा अन्य कौन आलम्बन, आधार अथवा प्रतिबन्ध है? देवानुप्रिये! जैसे इससे पूर्व तीसरे भव में तुम ही हमारे बहुत से कार्यों में मेढ़ी, प्रमाण यावत् धर्म की धुरा थी। वैसे ही देवानुप्रिये! इस जन्म में भी यावत् धर्म की धुरा बनोगी। देवानुप्रिये! हम भी संसार के भय से उद्विग्न और जन्म-मरण से भीत हैं। अत: देवानुप्रिया के साथ मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रवजित होते हैं। १८७. तए णं मल्ली अरहा ते जियसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो एवं वयासी--जइणं तुब्भे संसारभउव्विगा जाव मए सद्धिं पव्वयह, तं गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! सएहि-सएहिं रज्जेहिं जेट्ठपुत्ते ठावेह, ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरुहह, मम अंतियं पाउब्भवह॥ १८७. अर्हत मल्ली ने जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं से इस प्रकार कहा--यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हो यावत् मेरे साथ प्रव्रजित होते हो तो देवानुप्रियो! तुम जाओ, अपने-अपने राज्यों में ज्येष्ठ पुत्रों को स्थापित करो। उन्हें स्थापित कर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविकाओं पर आरोहण करो और मेरे समीप उपस्थित हो जाओ। १८८. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो मल्लिस्स अरहओ १८८. जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं ने अर्हत मल्ली के इस अर्थ को एयमद्वं पडिसुणेति ।। स्वीकार किया। Jain Education Intemational Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र १८९-१९४ २१२ नायाधम्मकहाओ १८९. तए णं मल्ली अरहा ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो १८९. अर्हत मल्ली जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं को लेकर जहां राजा गहाय जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कुंभगस्स कुम्भ था, वहां आयी। वहां आकर उन्हें कुम्भ के चरणों में झुकाया। पाएसु पाडेइ। १९०. तए णं कुंभए ते जियसत्तुपामोक्खे विउलेणं असण-पाण- १९०. राजा कुम्भ ने जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं को विपुल अशन, खाइम-साइमेणं पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ पान, खाद्य और स्वाद्य से तथा पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, माला और सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ ।। अलंकारों से सत्कृत एवं सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर उन्हें प्रतिविसर्जित किया। १९१. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो कुंभएणं रण्णा विसज्जिया समाणा जेणेव साइं-साइं रज्जाइंजेणेव (साइं-साइं?) नगराइं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सगाई-सगाइं रज्जाइं उवसंपज्जित्ता णं विहरति । १९१. राजा कुम्भ द्वारा प्रतिविसर्जित होकर जितशत्रु प्रमुख वे छहों राजा जहां अपने-अपने राज्य थे, जहां (अपने-अपने) नगर थे, वहां आए। वहां आकर अपने-अपने राज्यों का संचालन करने लगे। १९२. तए णं मल्ली अरहा संवच्छरावसाणे निक्खमिस्सामि त्ति मणं पहारेइ ।। १९२. अर्हत मल्ली ने एक वर्ष पूरा होने पर अभिनिष्क्रमण करूंगी-ऐसा मानसिक संकल्प किया। १९३. तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्कस्स आसणं चलइ। १९३. उस काल और उस समय शक्र का आसन चलित हुआ। १९४. तए णं से सक्के देविदे देवराया आसणं चलियं पासइ, पासित्ता १९४. देवेन्द्र देवराज शक्र ने आसन को चलित देखा। यह देखकर उसने ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता मल्लिं अरहं ओहिणा आभोएइ । इमेयारूवे अवधि (ज्ञान) का प्रयोग किया। प्रयोग कर अवधि से अर्हत मल्ली को अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं । देखा। उसके मन में यह विशेष प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए नयरीए कुंभगस्स रण्णो अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--इसी जम्बूद्वीप द्वीप भारतवर्ष (धूया पभावईए देवीए अत्तया?) मल्ली अरहा निक्खमिस्सामित्ति और मिथिला नगरी में राजा कुम्भ की पुत्री (प्रभावती देवी की मणं पहारेइ । तंजीयमेयं तीय-पच्चप्पण्ण-मणागयाणं सक्काणं आत्मजा?) अर्हत् मल्ली ने 'अभिनिष्क्रमण करूंगी' ऐसा मानसिक अरहंताणं भगवंताणं निक्खममाणाणं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं संकल्प किया है। इसलिए अतीत, वर्तमान और भविष्य के जितने भी दलइत्तए, (तं जहा-- शक हैं उन सबका यह जीत (आचार या परम्परागत व्यवहार) है कि वे अभिनिष्क्रमण करने वाले अर्हत भगवान को यह विशिष्ट प्रकार की अर्थ-सम्पदा प्रदान करें। जैसे-- संगहणी-गाहा तिण्णेव य कोडिसया, अट्ठासीइंच हुति कोडीओ। असिइं च सयसहस्सा, इंदा दलयंति अरहाणं ।।१।। एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता वेसमणं देवं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स रण्णो धूया पभावईए देवीए अत्तया मल्ली अरहा निक्खमिस्सामित्ति मणं पहारेइ जाव इंदा दलयंति अरहाणं। तं गच्छह णं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणिं गच्छह णं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहांणि कुंभगस्स रण्णो भवणंसि इमेयारूवं अत्थ-संपयाणं साहराहि, साहरित्ता खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि।। संग्रहणी गाथा इन्द्र तीन सौ अठासी करोड़, अस्सी लाख स्वर्ण-मुद्राएं अर्हतों को प्रदान करते हैं। शक्र ने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर वैश्रवण देव को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और मिथिला की राजधानी में राजा कुम्भ की पुत्री प्रभावती देवी की आत्मजा अर्हत मल्ली ने अभिनिष्क्रमण करूंगी--ऐसा मानसिक संकल्प किया है यावत् इन्द्र अर्हतों को प्रदान करते हैं। अत: देवानुप्रियो! जाओ जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और मिथिला राजधानी और कुम्भ नरेश के भवन में इस प्रकार अर्थ-सम्पदा पहुंचाओ, पहुंचाकर शीघ्र ही इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। en Jain Education Intemational Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २१३ अष्टम अध्ययन सूत्र १९५-२०० १९५. तए णं से वेसमणे देवे सक्केणं देविदेणं देवरण्णा एवं वृत्ते समाणे करयलपरिम्महिषं दसनहं सिरसावतं मत्यए अंजलिं कट्टु एवं देवो! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता जंभए देवे सदावेद, सहावेत्ता एवं वयासी गच्छहणं तुम् देवागुप्पिया! जंबुद्दीव दीवं भारतं वासं मिहिलं रायहाणिं कुंभगस्स रण्णो भवणंसि तिणि कोडिसया अट्ठासीइं च कोडीओ असीइं सयसहस्साइं इमेयारूवं अत्य-संपयाणं साहरह, साहरिता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।। १९५. देवेन्द्र देवराज शक्र के ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट हुआ वैश्रवण देव सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को टिकाकर इस प्रकार बोला- 'तथास्तु देव' इस प्रकार उसने इन्द्र के आज्ञा वचन को विनय पूर्वक स्वीकार किया। स्वीकार कर जृम्भक देवों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा -- देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष, मिथिला राजधानी में कुम्भ नरेश के भवन में तीन सौ अठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्रा यह विशेष प्रकार की अर्थ सम्पदा पहुंचाओ। पहुंचाकर शीघ्र ही इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। १९६. तए णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं देवेणं एवं वृत्ता समाणा जाव परिसुणेत्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अववकमित्ता वेव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णति, समोहणित्ता संखेज्जाई जोषणाई दंड निसिरंति जाव उत्तरवेउव्वियाइं ख्वाइं विउव्वंति, विउव्वित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए वीईवयमाणा-वीईवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता कुंभगस्स रण्णो भवणंसि तिण्णि कोडिसया जाव साहरति, साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करवलपरिग्यहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्यए अंजलिं कट्टु तमाणलियं पच्चप्पिगति ।। १९७. तए णं से बेसमणे देवे जेणेव सक्के देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव तमाणत्तियं पचणि ।। १९८. तए णं मल्ली अरहा कल्ला कल्लि जाव मागहओ पायरासो ति बहू सणाहाण य अणाहाण व पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडिं अट्ठ य अणूणाई सयसहस्साइं इमेघारूवं अत्थ-संपवाणं दलपद ।। १९९ तए कुंभए राया मिहिलाए रायहाणीए तत्व- तत्थ तहिं तहिं देसे देते बहूओ महाणससालाओ करेइ। तत्य णं बहवे मणुया दिण्णभइ भत्त-वेयणा विउलं असण- पाण- खाइम - साइमं उवक्खडेति । जे जहा आगच्छति, तं जहा पंथिया वा पहिया वा करोडिया वा कप्पाडिया वा पासंडत्था वा गिहत्या वा, तस्स य तहा आसत्यस्स वीसत्यस्स सुहासणवरगयस्स तं विउलं असण-पाणखाइम - साइमं परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरंति ।। -- २०० तए णं मिहिलाए नवरीए सिंघाडग-तिग- चउक्क चच्चरचउम्मुह महापहपहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं स्वतु देवाणुष्पिया! कुंभगस्स रण्णो भवनंसि सव्वकामगुणियं 1 १९६. वैश्रवण देव के ऐसा कहने पर वे जृम्भक देव यावत् आज्ञा वचन को स्वीकार कर ईशानकोण में गए। वहां जाकर वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुए। समवहत होकर संख्यात योजन का एक दण्ड निर्मित किया यावत् उत्तर वैकिय रूपों की विक्रिया की विक्रिया कर उस उत्कृष्ट यावत् देवगति से चलते-चलते जहां जम्बूद्वीप द्वीप था, जहां भारतवर्ष था, जहां मिथिला राजधानी थी और जहां राजा कुम्भ का भवन था, वहां आए। वहां आकर राजा कुम्भ के भवन में तीन सौ अठासी करोड़ अस्सी लाख यावत् अर्थ सम्पदा पहुंचाई। पहुंचाकर जहां वैश्रवण देव था, वहां आए। वहां आकर सटे हुए दस नखों वाली अंजलि को मस्तक पर टिकाकर उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। १९७. वह वैश्रवण देव, जहां देवेन्द्र देवराज शक्र था, वहां आया। वहां आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को यावत् उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया । - १९८. अर्हत मल्ली प्रतिदिन मगध प्रदेश के प्रभातकालीन भोजन के समय तक (प्रथम दो प्रहर तक) बहुत से सनायों को अनाथों को, पान्थों को", पथिकों को २, कापालिकों को और कन्थाधारियों को एक-एक करोड़ और पूरी आठ लाख स्वर्ण मुद्राएं इस प्रकार की अर्थ-सम्पदा का दान करने लगी। १९९. राजा कुम्भ ने मिथिला राजधानी के उन उन विशिष्ट स्थानों में बहुत सी महानस शालाएं चालू करवाई। वहां भृति, भोजन और वेतन प्राप्त करने वाले बहुत से मनुष्य विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करते। वहां जो व्यक्ति जैसे ही आता, यथा-- पान्थ, पथिक, कापालिक, कन्थाधारी, पाषण्डस्थ अथवा गृहस्थ उसको उसी रूप में जब वह आश्वस्त-विश्वस्त हो प्रवर सुखासन में बैठ जाता, विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को बांटते और परोसते रहते । २००. मिथिला नगरी के दौराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में जन-समूह परस्पर इस प्रकार कहता- देवानुप्रियो! राजा कुम्भ के भवन में बहुत से श्रमणों को, ब्राह्मणों को, सनाथों को, Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन सूत्र २००-२०३ किमिच्छयं विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं बहूणं समणाण य माहणाण य सणाहाण य अणाहाण य पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य परिभाइजद परिवेसिज्ज । संग्रहणी गाहा वरवरिया घोसिज्ज, किमिच्छ्यिं दिज्जए बहुविहीपं । सुर-असुर-देव-दाणव- नरिंद- महियाण निक्खमणे ॥ १ ॥। २०१. तए णं मल्ली अरहा संवच्छरेणं तिण्णि कोडिसया अट्ठासीइं च कोडीओ असी सयसहस्सा - इमेयारूवं अत्य-संपयाणं दलइत्ता निक्खमामिति मणं पहारेद ।। २०२. तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिट्टे विमाणपत्थडे सएहिं सएहिं विमाणेहिं सएहिं सएहिं पासायवडिसएहिं पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्त्रीहिं तिहिं परिसाहिं सतहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवह सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहि य बहूहिं लोगंतिएहिं देवेहिं सद्धिं संपरिवुडा महवाहय न गीय-वाइय तंती तल-ताल-तुडिय घण-मुइंग-पहुप्पवाइयरवेणं (विउताई भोगभोगाई ? ) भुजमाणा विहरति, तं जहा- संग्रहणी-गाहा २१४ - सारस्सयमाइच्चा, वही वरुणा य गहतोया य तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिरचा चेव रिट्ठा य ॥१॥ २०३. तए णं तेसिं लोगतियाणं देवाएं पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलति तहेव जाय तं जीयमेयं लोगतिया देवागं अरहंताणं भगवंताणं निक्लममाणाणं संवोहणं करितए ति । तं गच्छामो णं अम्हे वि मल्लिएस अरहओ संबोहणं करेमो ति कट्टु एवं सपेर्हेति, सपेहेत्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णंति, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंड निसिरति, एवं जहा जंभगा जाब जेणेव मिहिला रापहाणी जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवण्णा सखिंखिणियाई दसद्धवण्णाई वत्थाई पवर परिडिया करपलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थाए अंजलिं कट्टु ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं वहिं एवं क्यासी बुझाहि भगवं लोगणाहा पयत्तेहि धम्मतित्यं जीवाणं हियसुहनिस्सेयसकरं भविस्सइ त्ति कट्टु दोच्चंपि तच्चपि एवं वयंति, मल्लिं अरहं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता जामेव नायाधम्मकहाओ अनाथों को, पान्थों को, पथिकों को, कापालिकों को और कन्थाधारियों को इच्छानुसार सर्वकामगुणित विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य बांटा जाता है, परोसा जाता है। संग्रहणी गाया सुर-असुर-देव-दानव और नरेन्द्रों द्वारा पूजित अर्हतों के अभिनिष्क्रमण के अवसर पर 'मांगो-मांगो' यह घोषणा की जाती है। और 'तुम क्या चाहते हो' ऐसा पूछकर बहुविध दान दिया जाता है। २०१. एक वर्ष में तीन सौ अठासी करोड़ और अस्सी साल अर्थ सम्पदा का दान कर अर्हत मल्ली ने निष्क्रमण करने का मानसिक संकल्प किया। 1 २०२. उस काल और उस समय ब्रह्मलोक कल्प में, रिष्ट विमान के प्रस्तट में, लोकान्तिक देव विहार करते थे वे अपने-अपने विमानों और अपने-अपने प्रासादावतंसों में चार-चार हजार सामानिक देवों, तीन-तीन परिषदों, सात-सात सेनाओं, सात-सात सेनापतियों, सोलह-सोलह हजार आत्मरक्षक देवों और अन्य अनेक लोकान्तिक देवों के साथ उनसे परिवृत हो, महान आहत, नाट्य, गीत, वारा, संत्री, सत, ताल, तूरी और घन मृदंग इनके पटु प्रवादित स्वरों के साथ भोगाई विपुल भोगों का उपभोग करते हुए विहार कर रहे थे। जैसे- संग्रहणी गाथा - १. सारस्वत २. आदित्य ३. वह्नि ४ वरुण ५ गर्ततोय ६. तुषित ७. अव्याबाध ८. आग्नेय ९. रिष्ट (ये नौ प्रकार के लोकान्तिक देव हैं) I २०३. उन लोकान्तिक देवों में से प्रत्येक के आसन कम्पित हुए। यावत् यह लोकान्तिक देवों का जीत आधार है कि वे निष्क्रमणाभिमुख अर्हत भगवान को सम्बोधित करें। इसलिए जाएं हम भी अर्हत मल्ली को सम्बोधित करे। उन्होंने ऐसी सप्रेक्षा की सप्रेक्षा कर ईशानकोण में आए। वहां आकर वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुए। समवहत होकर संख्यात योजन का एक दण्ड निर्मित किया। इसी प्रकार जृम्भक देवों की भांति यावत् जहां मिथिला राजधानी थी, जहां राजा कुम्भ का भवन था, जहां अर्हत मल्ली थी, वहां आए। वहां आकर अन्तरिक्ष में अवस्थित हो, घुंघरू लगे पंचरंगे प्रवर वस्त्र पहने, सटे हुए दस नखों वाली, दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आदर वाली अञ्जलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर उस इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत वाणी से इस प्रकार कहा- लोकनाथ ! भगवन्! संबुद्ध हों। धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करें। वह जीवों के लिए हित, सुख और निःश्रेयस्कर होगा - उन्होंने दूसरी बार, तीसरी बार भी इस प्रकार Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ नायाधम्मकहाओ दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया।। अष्टम अध्ययन : सूत्र २०३-२११ कहा। अर्हत मल्ली को वन्दना की, नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस चले गये। २०४. तए णं मल्ली अरहा तेहिं लोगतिएहिं देवेहिं संबोहिए समाणे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासी-- इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह ।। २०४. अर्हत मल्ली उन लोकान्तिक देवों से संबोधित होने पर, जहां माता-पिता थे, वहां आई। वहां आकर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा--माता-पिता! मैं चाहती हूं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर, मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित बनू। जैसा सुख हो देवानुप्रिये! प्रतिबन्ध मत करो। २०५. तए णं कुंभए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अट्ठसहस्सेणं सोवणियाणं कलसाणं जाव अट्ठसहस्सेणं भोमेज्जाणं कलसाणं अण्णं च महत्थं महाघं महरिहं विउलं तित्थयराभिसेयं उवट्ठवेह । तेवि जाव उवट्ठति ॥ २०५. राजा कुम्भ ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही आठ हजार स्वर्णमय कलश यावत् आठ हजार मिट्टी के कलश तथा अन्य भी महान अर्थवान, महान मूल्यवान, महान अर्हता वाले विपुल तीर्थंकर-अभिषेक (योग्य सामग्री) की उपस्थापना करो। उन्होंने भी यावत् उपस्थापना की। २०६. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे जाव अच्चुयपज्जवसाणा आगया। २०६. उस काल और उस समय असुरेन्द्र चमर यावत् अच्युत कल्प तक के इन्द्र आये। २०७. तए णं सक्के देविदे देवराया आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अट्ठसहस्सेणं सोवणियाणं कलसाणं जाव अण्णं च महत्थं महाधं महरिहं विउलं तित्थयराभिसेयं उवट्ठवेह । तेवि जाव उवट्ठवेंति । तेवि कलसा तेसु चेव कलसेसु अणुपविट्ठा ।। २०७. देवेन्द्र देवराज शक्र ने आभियोगिक देवों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही आठ हजार स्वर्णमय कलश यावत् अन्य भी महान अर्थवान, महान मूल्यवान, महान अर्हता वाले विपुल तीर्थंकर-अभिषेक (योग्य सामग्री) की उपस्थापना करो। उन्होंने भी यावत् उपस्थापना की। वे (इन्द्र द्वारा मंगाए गए) कलश भी उन्हीं (कुम्भ के) कलशों में अनुप्रविष्ट हो गये। २०८. तए णं से सक्के देविदे देवराया कुंभए य राया मल्लि अरहं सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहं निवेसेंति, अट्ठसहस्सेणं सोवणियाणं कलसाणं जाव तित्थयराभिसेयं अभिसिंचंति ।। २०८. देवेन्द्र देवराज शक्र और राजा कुम्भ ने अर्हत मल्ली को सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बिठाया। आठ हजार स्वर्णमय कलशों से यावत् तीर्थंकर अभिषेक से अभिषिक्त किया। २०९. तए णं मल्लिस्स भगवओ अभिसेए वट्टमाणे अप्पेगइया देवा मिहिलं च सभिंतरबाहिरियं जाव सव्वओ समंता आधावंति परिधावंति।। २०९. भगवान मल्ली का अभिषेक हो रहा था, उस समय कुछ देव मिथिला नगरी को भीतर-बाहर (सजा रहे थे) यावत् चारों ओर भाग दौड़ कर रहे थे। २१०. तए णं कुंभए राया दोच्चंपि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावेइ, जाव सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! मणोरमं सीयं उवट्ठवेह । तेवि उवट्ठवेंति॥ २१०. राजा कुम्भ ने दूसरी बार उत्तराभिमुख सिंहासन स्थापित करवाया। यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। विभूषित कर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो शीघ्र ही मनोरम शिविका उपस्थित करो। उन्होंने भी उपस्थित की। २११. तए णं सक्के देविदे देवराया आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभसय-सण्णिविट्ठ २११. देवेन्द्र देवराज शक्र ने आभियोगिक देवों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही सैकड़ों खम्भों पर सन्निविष्ट Jain Education Intemational Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ नायाधम्मकहाओ अष्टम अध्ययन : सूत्र २११-२१७ जाव मणोरमं सीयं उवट्ठवेह । तेवि जाव उवट्ठवेति । सावि सीया तं चेव सीयं अणुप्पविट्ठा।। यावत् मनोरम शिविका उपस्थित करो। उन्होंने भी यावत् प्रस्तुत की। वह (दिव्य) शिविका भी (राजा कुम्भ द्वारा आनीत) उस शिविका में अनुप्रविष्ट हो गई। २१२. तए णं मल्ली अरहा सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मणोरमं सीयं अणुपयाहिणीकरेमाणे मणोरमं सीयं दुरुहइ, दुरुहित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे।। २१२. अर्हत मल्ली सिंहासन से उठी। उठकर जहां मनोरम शिविका थी, वहां आयी। वहां आकर अनुकूलता के लिए उस मनोरम शिविका को अपनी दाहिनी ओर लेती हुई, वह उस मनोरम शिविका पर आरूढ़ हो गई। आरूढ़ होकर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर सम्यक् रूप से आसीन हुई। २१३. तए णं कुंभए अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुब्भेणं देवाणुप्पिया! ण्हाया जाव सव्वालंकारविभूसिया मल्लिस्स सीयं परिवहह । तेवि जाव परिवहति ।। २१३. राजा कुम्भ ने अठारह श्रेणि-प्रश्रेणियों (शिविका वाहक अवान्तर जातीय पुरुषों) को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो मल्ली की शिविका का परिवहन करो यावत् उन्होंने परिवहन किया। २१४. तए णं सक्के देविदे देवराया मणोरमाए सीयाए दक्खिणिल्लं उवरिल्लं बाहं गेण्हइ, ईसाणे उत्तरिल्लं उवरिल्लं बाहं गेण्हइ, चमरे दाहिणिल्लं हेट्ठिल्लं, बली उत्तरिल्लं हेट्ठिल्लं, अवसेसा देवा जहारिहं मणोरमं सीयं परिवहति । २१४. देवेन्द्र देवराज शक्र ने मनोरम शिविका का दक्षिण उपरितन दण्ड पकड़ा। ईशान ने उत्तर का उपरितन दण्ड पकड़ा। चमर ने दक्षिण का अधस्तन दण्ड पकड़ा। बली ने उत्तर का अधस्तन दण्ड पकड़ा। अवशिष्ट देवों ने उसका यथायोग्य भाग पकड़कर मनोरम शिविका का परिवहन किया। संगहणी-गाहा पुज्विं उक्खित्ता, माणुसेहिं साहट्टरोमकूवेहिं । पच्छा वहति सीयं, असुरिंदसुरिंदनागिंदा ।।१।। चलचवलकुंडलधरा, सच्छंदविउव्वियाभरणधारी। देविंददाणविंदा, वहति सीयं जिणिंदस्स ।।२।। संग्रहणीय-गाथा १. उस शिविका को आगे से मनुष्यों ने उठाया। उनके रोमकूप विकस्वर हो रहे थे। पीछे से असुरेन्द्र, सुरेन्द्र और नागेन्द्र उसका वहन कर रहे थे। २. वे चल और चपल कुण्डल धारण किए हुए अपनी इच्छा से निर्मित आभरण पहने हुए थे। देवेन्द्र और दानवेन्द्र जिनेन्द्र की शिविका का वहन कर रहे थे। २१५. तए णं मल्लिस्स अरहओ मणोरमं सीयं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगला पुरओ अहाणुपुव्वीए संपत्थिया--एवं निग्गमो जहा जमालिस्स। २१५. मनोरम शिविका पर आरूढ़ अर्हत मल्ली के आगे ये आठ-आठ मंगल क्रमश: संप्रस्थित हुए। वैसे ही निर्गम हुआ जैसे--जमालि का।' २१६. तए णं मल्लिस्स अरहओ निक्खममाणस्स अप्पेगइया देवा मिहिलं रायहाणिं अभिंतरबाहिरं आसिय-संमज्जिय-संमट्ठ-सुइरत्यंतरावणवीहियं करेंति जाव परिधावंति।। २१६. अर्हत मल्ली के निष्क्रमण करने पर कुछ देवों ने मिथिला राजधानी के भीतर-बाहर जल का छिड़काव कर, बुहार, झाड़, गोबर लीप उसे साफ सुथरा कर, गलियों में आपण-वीथी की रचना की, यावत् चारों ओर भाग-दौड़ करने लगे। २१७. तए णं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, आभरणालंकारं ओमुयइ। २१७ अर्हत मल्ली जहां सहस्राम्रवन उद्यान था, जहां प्रवर अशोक वृक्ष था, वहां आयी। वहां आकर शिविका से उतरी। आभरण और अलंकारों को उतारा। *भगवाई ९/३३ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २१८. तए णं पभावई हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणालंकारं पडिच्छइ ।। २१९. तए णं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुद्वियं लोयं करेइ ।। २२०. तए णं सक्के देविदे देवराया मल्लिस्स केसे पडिच्छइ, पडिच्छित्ता खीरोदगसमुद्दे साहरइ । २२१. तए णं मल्ली अरहा नमोत्थु णं सिद्धाणं ति कट्टु सामाइयचरितं पडिवज्जइ । जं समयं च णं मल्ली अरहा सामाइयचरित्तं पडिवज्जइ, तं समयं च णं देवाण माणुसाण य निग्घोसे तुडिय - णिणाए गीय वाइय- निन्योसे य सक्कवयणसदेसेणं निलुक्के यावि होत्या । जं समयं च णं मल्ली अरहा सामाइयचारित्तं पडिवण्णे तं समयं च मल्लिएस अरहओ माणुसधम्माओ उत्तरिए मणपज्जवणाने समुप्पण्णे ॥ २२२. मल्ली गं अरहा जे से हेमंताणं दोच्चे मासे चडत्ये पक्खे पोससुद्धे तस्स णं पोससुद्धस्स एक्कारसीपक्खेणं पुव्वण्हकालसमयसि अमेण भत्ते अपाणएणं अस्सिणीहिं नक्खत्तेणं जोगमुवागएणं तिहिं इत्थीसएहिं अतिरियाए परिसाए, तिहिं पुरिससएहिं-बाहिरियाए परिसाए सद्धिं मुडे भवित्ता पव्वइए । । २२३. मल्तिं अहं इमे अट्ठ नायकुमारा अणुपव्वसु तं जहा- गाहा नदेय नंदिमित्ते, सुमित्त बलमित्त भाणुमित्ते य अमरवइ अमरसेणे, महसेणे चेव अट्ठमए ।। २१७ २२४. तए णं ते भवणवइ - वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया देवा मल्लिक्स अरहओ निक्खमण-महिमं करेति, करेता जेणेव नंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अट्ठाहियं महिमं करेंति, करेत्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया । । मल्लिस्स केवलणाण-पदं २२५. तए णं मल्ली अरहा जं चेव दिवसं पव्वइए, तस्सेव दिवसस्स पच्चावरण्हकालसमयंसि असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहासणवरगयस्स सुहेणं परिणामेणं पसत्याहिं लेसाहिं तयावरणकम्मरय-विकरणकरं अपुव्वकरणं अणुपविद्वस्त अणते अणुत्तरे निव्वाधार निरावरणे कसिणे पडिपुणे केवल वरनाणदंसणे सपणे ।। - अष्टम अध्ययन सूत्र २१८-२२५ २१८. प्रभावती ने हंस लक्षण वाले पट-शाटक में आभरण और अलंकार स्वीकार किए। २१९ अर्हत मल्ली ने स्वयं ही पंचमौष्टिक लंघन किया। I २२०. देवेन्द्र देवराज शक ने मल्ती के केश लिए लेकर क्षीरोदक समुद्र में विसर्जित कर दिया। २२१. अर्हत मल्ली ने 'सिद्धों को नमस्कार हो' ऐसा कहकर सामायिक चारित्र स्वीकार किया। जिस समय अर्हत मल्ली ने सामायिक चारित्र, स्वीकार किया उस समय देवों और मनुष्यों के निर्दोष, त्रुटित-निनाद गीत और वादित्र के निर्घोष शक्र के संदेश-वचन के साथ ही रुक गए। जिस समय अर्हत मल्ली ने सामायिक चारित्र स्वीकार किया, उस समय उसे मनुष्य धर्मता युक्त (केवल मनुष्य को होने वाला) श्रेष्ठ मन:पर्यव ज्ञान समुत्पन्न हुआ। २२२ अर्हत मल्ली हेमन्त के दूसरे मास, चौथे पक्ष, पौष शुक्ल पक्ष, उस पौष शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन पूर्वाह्न के समय, निर्जल अष्टमभक्त पूर्वक, अश्विनी नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग होने पर, तीन सौ स्त्रियों की अतरंग परिषद् के साथ तीन सौ पुरुषों की बहिरंग परिषद् के साथ मुण्ड हो प्रव्रजित हो गई। २२३, अर्हत मल्ली के साथ ये आठ नाग कुमार" प्रव्रजित हुए। जैसे- गाथा नंद नदिमित्र सुमित्र, बलमित्र भानुमित्र । अमरपति, अमरसेन और आठवां महासेन ।। २२४ भवनपति वाणमन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिक देवों ने अर्हत मल्ली की निष्क्रमण महिमा की ऐसा करके वे जहां नंदीश्वर द्वीप था वहां आए वहां आकर अष्टान्हिक-महिमा की महिमा करके जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में चले गए । 1 मल्ली का केवलज्ञान- पद २२५. अर्हत मल्ली जिस दिन प्रव्रजित हुई उसी दिन प्रत्यापराह्नकाल के समय वह प्रवर अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी शिलापट्ट पर प्रवर में आसीन थी। शुभ परिणामों और प्रशस्त लेश्याओं के कारण तदावरणीय कर्म- रजों का विकिरण करने वाले अपूर्व करण में अनुप्रविष्ट होने पर अर्हत् मत्ती को अनन्त, अनुत्तर, निर्व्यापात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, प्रवर केवलज्ञान और दर्शन समुत्पन्न हुए। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र २२६-२३३ २१८ नायाधम्मकहाओ २२६. तेणं कालेणं तेणं समएणं सव्वदेवाणं आसणाइं चलेंति, समोसढा २२६. उस काल और उस समय सब देवों के आसन कम्पित हो गए। धम्म सुणेति, सुणेत्ता जेणेव नंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छंति, उन्होंने समवसृत हो, धर्म को सुना। धर्म सुनकर, जहां नंदीश्वर द्वीप उवागच्छित्ता अट्ठाहियं महिमं करेंति, करेत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूया था, वहां आए। वहां आकर अष्टाह्निक महिमा की। महिमा कर जिस तामेव दिसिं पडिगया। कुंभए वि निग्गच्छइ।। दिशा से आए थे, उसी दिशा में चले गए। कुम्भ ने भी निष्क्रमण किया। जियसत्तुपामोक्खाणं पव्वज्जा-पदं २२७. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा. छप्पि रायाणो जेट्ठपुत्ते रज्जे ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीयाओ (सीयाओ?) दुरूढा (समाणा?) सव्विड्डीए जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति जाव पज्जुवासति । जितशत्रु प्रमुखों की प्रव्रज्या-पद २२७. जितशत्रु प्रमुख वे छहों राजा ज्येष्ठ पुत्रों को राज्य (सिंहासन) पर स्थापित कर, हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली (शिविकाओं पर?) आरूढ़ हो, सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ, जहां अर्हत मल्ली थी, वहां आए यावत् पर्युपासना की। २२८. तए णं मल्ली अरहा तीसे महइमहालियाए परिसाए, कुंभगस्स रणो, तेसिंच जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं धम्म परिकहेइ। परिसा जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। कुंभए समणोवासए जाव पडिगए, पभावई य॥ २२८. अर्हत मल्ली ने उस सुविशाल परिषद् को, राजा कुम्भ को और जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं को धर्म का परिकथन किया। जन-समूह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस चला गया। कुम्भ श्रमणोपासक बना यावत् वापस चला गया। प्रभावती भी श्राविका बनी। २२९. तए णं जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो धम्म सोच्चा निसम्म एवं वयासी--आलित्तए णं भंते! लोए, पलित्तए णं भंते! लोए, आलित्त-पलित्तए णं भंते! लोए जराए मरणेण य जाव पव्वइया जाव चोद्दसव्विणो। अणते वरनाणदंसणे केवले (समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा?) सिद्धा॥ २२९. जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं ने धर्म सुनकर, अवधारण कर इस प्रकार कहा-भन्ते! यह लोक जल रहा है। भन्ते! यह लोक प्रज्ज्वलित हो रहा है। भन्ते! यह लोक जरा और मृत्यु से जल रहा है, प्रज्ज्वलित हो रहा है यावत् वे प्रव्रजित हुए, यावत् चौदहपूर्वी बने। अनन्त प्रवर केवलज्ञान और दर्शन को (समुत्पादित कर तत्पश्चाद्?) सिद्ध हुए। मल्लिस्स सिस्ससंपदा-पदं २३०. तए णं मल्ली अरहा सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ निक्खमइ, निक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ।। मल्ली की शिष्य-सम्पदा-पद २३०. अर्हत मल्ली ने सहस्राम्रवन उद्यान से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर बाहर जनपद विहार करने लगी। २३१. अर्हत मल्ली के भिषक् प्रमुख अठाईस गण और अठाईस गणधर थे। २३१. मल्लिस्स णं अरहओ भिसगपामोक्खा अट्ठावीसं गणा अट्ठावीसं गणहरा होत्था॥ २३२. मल्लिस्स णं अरहओ चत्तालीसं समणसाहस्सीओ उक्कोसिया २३२. अर्हत मल्ली के चालीस हजार श्रमणों की उत्कृष्ट श्रमण-सम्पदा समणसंपया होत्था, बंधुमइपामोक्खाओ पणपन्नं अज्जियासाहस्सीओ थी। बन्धुमती प्रमुख पचपन हजार आर्यिकाओं की उत्कृष्ट उक्कोसिया अज्जियासंपया होत्था, सावयाणं एगा सयसाहस्सी आर्यिका-सम्पदा थी। एक लाख चौरासी हजार श्रावक, तीन लाख चुलसीई सहस्सा, सावियाणं तिण्णि सयसाहस्सीओ पण्णढेि च पैंसठ हजार श्राविकाएं, छ: सौ चौदहपूर्वी, दो हजार अवधिज्ञानी, तीन सहस्सा, छस्सया चोद्दसपुव्वीणं, वीसं सया ओहिनाणीणं बत्तीसं हजार दो सौ केवलज्ञानी, तीन हजार पांच सौ वैक्रिय लब्धिधारी, आठ सया केवलनाणीणं, पणतीसंसया वेउब्बियाणं, अट्ठसया मणपज्जव- सौ मन:पर्यवज्ञानी, चौदह सौ वादी और दो हजार अनुत्तरोपपातिक नाणीणं, चोद्दससया वाईणं, वीसं सया अणुत्तरोववाइयाणं ।। थे। २३३. मल्लिस्स णं अरहओ दुविहा अंतकरभूमी होत्था, तं जहा- जुगंतकरभूमी परियायतकरभूमी य। जाव वीसइमाओ पुरिसजुगाओ जुगंतकरभूमी दुवासपरियाए अंतमकासी। २३३. अर्हत मल्ली के दो प्रकार की अन्तकर-भूमि" थी, जैसे-युगान्तकर भूमि और पर्यायान्तकर-भूमि । बीसवें पुरुष-युग तक युगान्तकर-भूमि रही। पर्यायान्तकर भूमि उनकी केवलिपर्याय के दो वर्ष पश्चात् प्रारम्भ हुई। Jain Education Intemational Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २३४. मल्ली णं अरहा पणुवीसं धणूइं उङ्कं उच्चत्तेणं, वण्णेणं पियंगुसामे समचउरंसठाणे वज्जरिसहनाराय संघयणे मज्झदेसे सुहंहेणं विहरित्ता जेणेव सम्मेए पब्वए तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता सम्मेयसेलसिहरे पाओवगमणणुवन्ने ।। २१९ अष्टम अध्ययन सूत्र २३४ - २३६ २३४, अर्हत मल्ली की ऊंचाई पचीस धनुष्य थी। उनका वर्ण प्रियंगु जैसा श्याम, संस्थान समचतुरस्र और संहनन वज्रऋषभनाराच था। वे मध्य देश में सुख- पूर्वक विहरण कर जहां सम्मेद - पर्वत था, वहां आयी । वहां आकर सम्मेदशैल के शिखर पर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार किया । मल्लिस्स निव्वाण-पदं २३५. मल्ली णं अरहा एवं वाससर्व अगारवासमजले पणपन् वाससहस्साइं वाससयऊणाइं केवलिपरियागं पाउणित्ता पणपण्णं वाससहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोच्चे पक्ले चेत्तसुद्धे, तस्स णं चेत्तसुद्धस्स चउत्पीए पक्लेगं भरणीए नक्खत्तेणं (जोगमुवागएणं ?) अद्धरत्तकालसमयंसि पंचहिं अज्जियासहिं-- अतिरियाए परिसाए, पंचहिं अणगारसएहिं-बाहिरियाए परिसाए, मासिएणं भत्तेणं अपागएणं वधारियपाणी पाए साहट्टु खीणे वेयणिज्जे आउए नामगोए सिद्धे । एवं परिनिव्वाणमहिमा भाणियव्वा जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए, नंदीसरे अठ्ठाहियाओ पडिगयाओ ।। निक्लेव पदं २३६. एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते । -ति बेमि ॥ वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा उग्गतवसंजमवजो, पगिट्ठफलसाहगस्स वि जयिस्स। धम्मविस वि सुहमा वि, होइ माया अणत्थाय ॥ ॥ ॥ ॥ जह मल्लिरस महाबल-भवम्मि तित्थपरनामबंधे वि तव विसय थेवमाया जाया जुवइत्त हेउति ॥ २ ॥ मल्ली का निर्वाण पद २३५. अर्हत मल्ली एक सौ वर्ष गृहवास में रही । पचपन हजार वर्षों में सौ वर्ष कम केवलि-पर्याय में रहकर, पचपन हजार वर्ष की सम्पूर्ण आयु को भोगकर, ग्रीष्म के प्रथम मास, दूसरा पक्ष, चैत्र शुक्ल पक्ष, उस चैत्र शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को भरणी नक्षत्र के साथ (चन्द्र का योग होने पर ? ) अर्धरात्रि के समय, पांच सौ साध्वियों की अन्तरंग परिषद् और पांच सौ अनगारों की बहिरंग परिषद् के साथ निर्जल - मासिक - भक्त पूर्वक, जब वे भुजाओं को प्रलम्बित कर और दोनों पैरों को सटाकर (ध्यानरत ) थी तब वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र कर्म को क्षीण कर सिद्ध बनी जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति की भांति परिनिर्वाणमहिमा की वक्तव्यता नंदीश्वर द्वीप में अष्टानिक महोत्सव किया गया। निक्षेप-पद २३६. जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के आठवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया। --ऐसा मैं कहता हूं। वृतिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाया- १. उग्र तप और संयम के धनी, प्रकृष्ट फल के साधक मुनि की धर्म के क्षेत्र में सूक्ष्म माया भी अनर्थ का हेतु बन जाती है। २. जैसे महाबल के भव में, तीर्थंकर नाम गोत्र का बन्धन होते हुए भी तप विषयक अल्प माया मल्ली के स्त्रीत्व का कारण बन गयी । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र-२४ सूत्र-१८ १. स्त्रीनाम गोत्र (इत्थिनामगोयं) स्त्रीनाम का एक अर्थ है स्त्रीपरिणाम अथवा जिस कर्म के उदय से स्त्री ऐसा अभिधान प्राप्त होता है वह स्त्रीनाम गोत्र कर्म है। इसका दूसरा अर्थ है--स्त्रीप्रायोग्य नाम और गोत्र । अर्हत मल्ली ने महाबल की अवस्था में मुनि पर्याय में स्त्रीनाम गोत्र कर्म का बन्धन किया था। वृत्तिकार का मन्तव्य है कि उस समय तपस्वी महाबल ने अवश्य ही मिथ्यात्व या सास्वादन गुणस्थान का अनुभव किया था क्योंकि स्त्रीनाम गोत्र का बन्धन अनन्तानुबन्धी मिथ्यात्व की स्थिति में ही संभव है। ३. स्थविर (थेरे) स्थविर के तीन प्रकार होते हैं-- जातिस्थविर--साठ वर्ष की वय वाला। श्रुतस्थविर--समवायधर। पर्यायस्थविर--बीस वर्ष का दीक्षित । सूत्र-२० २. सिंहनिकोडित (सीहनिक्कीलियं) यह एक विशेष प्रकार का तपोनुष्ठान है। जैसे सिंह चलता हुआ, अपने पृष्ठभाग का अवलोकन करता है वैसे ही तपस्वी जिस तप में प्राक्तन तप की आवृत्ति कर, फिर उत्तर उत्तर तप का अनुष्ठान करता है उसको सिंहनिष्क्रीडित तप कहा गया है। वह दो प्रकार का होता है--१. लघुसिंहनिष्क्रीडित २. महासिंहनिष्क्रीडित। इनका प्रस्तार इस प्रकार है-- सत्र-२८ ४. दिशाएं सौम्य, तिमिर रहित (सोमासु वितिमिरासु) सौम्य-दिग्दाह आदि उत्पात रहित दिशाएं सौम्य कहलाती हैं। दिग्दाह के आधार पर भावी शुभाशुभ का विचार किया जाता है। इस विषय में प्रचलित श्लोक है-- दाहो दिशां राजभयाय पीतो, देशस्य नाशाय हुताशवर्णः । यश्चारुण: स्यादपसव्य वायुः, शस्यस्य नाशं स करोति दुष्ट ।। वितिमिर--तीर्थकरों के गर्भाधान के प्रभाव से दिशाओं का अन्धकार समाप्त हो जाता है। ५. शकुन विजय सूचक थे (जइएसु सउणेसु) प्रस्थान करते समय यदि कौवा दो, तीन, अथवा चार शब्द बोलता है तो वह शुभ फलकारक होता है। ६. दक्षिणावर्त और अनुकूल हवाएं (पयाहिणानुकूलंसि) ___ अर्हत मल्ली के गर्भाधान के समय हवाएं प्रदक्षिणावर्त होने के कारण प्रदक्षिण और सुरभित, शीतल एवं मन्द होने के कारण अनुकूल थीं। १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१२९--इत्थीनामगोयं ति स्त्रीनाम: स्त्रीपरिणाम:, स्त्रीत्वं यदुदयाद् भवति गोत्र--अभिधानं यस्य तत् स्त्रीनामगोत्रं अथवा यत् स्त्रीप्रायोग्यं नामकर्म गोत्रं च तत् स्त्रीनामगोत्रं कर्म निवर्तितवान् तत्काले च मिथ्यात्वं सास्वादनं वा अनुभूतवान् स्त्रीनामकर्मणो मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिप्रत्ययत्वात्। २. वही, पत्र-१३०--स्थविरा:--जातिश्रुत-पर्याय-भेदभिन्नास्तत्र जातिस्थविरः षष्टिवर्षः, श्रुतस्थविर: समवायधरः, पर्यायस्थविरो विंशतिवर्षपर्यायः । ३. वही, पत्र-१३२--सौम्यासु--दिग्दाहाद्युत्पातवर्जितासु । ४. वही--वितिमिरासु -तीर्थकरगर्भाधानानुभावेन गतान्धकारासु। ५. वही--जयिकेषु--राजादीनां विजयकारिषु शकुनेषु, यथा काकानां श्रावणे द्वित्रिचतुः शब्दा: शुभावहा इति। ६. वही--प्रदक्षिण: प्रदक्षिणावर्तत्वात् अनुकूलश्च य: सुरभिशीतमन्दत्वात्। Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ अष्टम अध्ययन : टिप्पण ७-१५ नायाधम्मकहाओ ७. अवक्रान्ति (वक्कंतीए) प्रस्तुत सूत्र में अवक्रान्ति के तीन प्रकारों का निरूपण है१. आहार अवक्रान्ति--मनुष्य भवयोग्य आहर का ग्रहण । २. भव अवक्रान्ति--मनुष्य भवयोग्य गति का संग्रहण । ३. शरीर अवक्रान्ति--मनुष्य के योग्य औदारिक शरीर का ग्रहण। वृत्तिकार ने--'वक्कंतीए' का संस्कृत रूपान्तर अपक्रान्ति मानकर उसका अर्थ परित्याग किया है। वैकल्पिक अर्थ में व्युत्क्रान्ति शब्द मानकर उसकी व्याख्या उत्पत्ति के रूप में भी की है। वक्कंती का संस्कृत रूप अवक्रान्ति होना चाहिए। अशुचि--अस्पृश्य होने के कारण अपवित्र । विलीन--जुगुप्सा-उत्पादक। विकृत--विकारयुक्त। बीभत्स--जिसे देखते ही मन में ग्लानि पैदा हो।' सूत्र-५९ १२. जन्म दिवस के दिन (संवच्छरपडिलेहणगंसि) जन्म दिन से लेकर पूरे वर्ष की प्रतिलेखना की जाए, उसे संवत्सर प्रतिलेखन दिन कहा जाता है। अर्थात् जिस दिन अमुक व्यक्ति की आयु का अमुक संख्या वाला (जैसे सातवां, आठवां) संवत्सर पूरा हो गया है--ऐसा निरूपण कर महोत्सवपूर्वक संवत्सर की प्रत्युपेक्षा की जाती है, उस दिन को संवत्सर प्रतिलेखन दिन कहा जाता है। वर्ष की संख्या का ज्ञान स्मरण में रहे, इसलिए प्रतिवर्ष एक गांठ बांध दी जाती थी। इसीलिए जन्मदिन के अर्थ में वर्षगांठ शब्द रूढ हो गया। सूत्र-३० ८. पुष्प समूह से (मल्लेणं) ___ माल्य का अर्थ कुसुमसमूह है। जातिवाचक होने से एक वचन का प्रयोग है। जिससे माला बने, जो माला के काम आए, वह माल्य सूत्र-६२ १३. श्रीदामकाण्ड माला पर प्रमुदित होकर (सिरिदामगंडजणियहासे) हास का संस्कृत रूप हर्ष बनता है। वृत्तिकार के अनुसार हर्ष के ९. श्री दामकाण्ड नाम की माला को (सिरिदामगंड) सिरिदामगंड के संस्कृत रूप दो बनते हैं--श्रीदामकाण्ड और श्रीदामगण्ड। श्रीदामकाण्ड का अर्थ है--विशिष्ट शोभा सम्पन्न मालाओं का समूह । श्रीदामगण्ड का अर्थ है--विशिष्ट शोभा सम्पन्न मालाओं से निर्मित एक दण्ड। यह एक विशिष्ट प्रकार की माला होती है जो अनेक सुन्दर मालाओं को मिलाकर बनाई जाती है। प्रस्तुत सन्दर्भ में प्रमोद अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है।" सूत्र-६४ १४. सांयांत्रिक पोतवणिक (संजत्ता-नावावाणियगा) सांयात्रिक का अर्थ है--मिलजल कर-समह के साथ यात्रा-देशान्तर गमन करने वाले। पोतवणिक् का अर्थ है--जहाजों द्वारा समुद्र पार जाकर व्यापार करने वाले--समुद्री यात्री।' सूत्र-४२ १०. विनष्ट ( विट्ठ) प्रस्तुत प्रसंग में विनष्ट का अर्थ पूर्ण नष्ट हो जाना नहीं है किन्तु विकृत हो जाने के कारण उसके मूल रूप का बदल जाना है।' ११. अशुचि.......बीभत्स (असुइ......बीभत्स) अशुचि, विलीन, विकृत और बीभत्स ये चारों ही शब्द निर्दिष्ट वस्तु नापट वस्तु के प्रति घृणा प्रदर्शित करने वाले हैं। फिर भी इनमें अवस्थाकृत भेद है-- १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१३२--आहारापक्रान्त्या--देवाहारपरित्यागेन, भवापकान्त्या-- देवगतित्यागेन, शरीरापक्रान्त्या--वैक्रियशरीरत्यागेन; अथवाआहारव्युत्क्रान्त्या--अपूर्वाहारोत्पादेन मनुष्योचिताहारग्रहणेणेत्यर्थः, एवमन्यदपि पदद्वयमिति, गर्भतया व्युत्क्रान्त:--उत्पन्नः। २. वही--मालाभ्यो हितं माल्य-कुसुमं जातावेकवचनम्। ३. वही--श्रीदाम्नां-शोभावन्मालानां काण्डं समूह: श्रीदामकण्डम्, अथवा ___गण्डो-दण्डः ......... । श्रीदाम्नां गण्ड: श्रीदामगण्डः । ४. वही, पत्र-१३६--विनष्टं-उच्छूनत्वादिभिर्विकारैः स्वरूपादपेतम्। ५. वही--अशुचि--अपवित्रमस्पृश्यत्वात्, विलीनं-जुगुप्सासमुत्पादकत्वात्, विकृतं- विकारत्वात्, बीभत्सं-द्रष्टुमयोग्यत्वात् । सूत्र-६८ १५. पुष्य नक्षत्र (पूसो) पुष्य नक्षत्र को यात्रा में सिद्धिदायक माना जाता है। वैसे बारहवां चन्द्र घातक-विनाशक माना जाता है, किन्तु बारहवें चन्द्र के साथ यदि पुष्य नक्षत्र का योग हो तो वह सर्वार्थसाधक होता है। ६. वही, पत्र-१३८-संवच्छरपडिलेणगंसि त्ति--जन्मदिनादारभ्य संवत्सरः प्रत्युपेक्ष्यते-एतावतिथ: संवत्सरोद्य पूर्ण इत्येवं निरूप्यते महोत्सवपूर्वक यत्र दिने तत् संवत्सर-प्रत्युपेक्षणक, यत्र वर्ष वर्ष प्रति संख्याज्ञानार्थ ग्रन्थिबन्धः क्रियते, यदिदानीं वर्षग्रन्थिरिति रूढम्। ७. वही--सिरिदामगंड-जणियहासेत्ति--श्रीदामकाण्डेन जनितो-हर्ष:- प्रमोदोऽनुरागो यस्य स। ८. वही, पत्र-१४२--संजत्ता णावावाणियगा-संगता यात्रा-देशान्तरगमनं संयात्रा, तत्प्रधाना नौवाणिजका:-पोतवणिज: संयात्रानौवाणिजकाः। ९. वही, पत्र-१४३--पुष्यो नक्षत्रविशेष: चन्द्रमसा इहावसरे इति गम्यते, पुष्यनक्षत्रं हि यात्रायां सिद्धिकरं यदाह--अपि द्वादशमे चन्द्रे पुष्य:सर्वार्थसाधनः । Jain Education Intemational Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ अष्टम अध्ययन : टिप्पण १६-२२ सूत्र-७० १६. मानो अपने पंख फैलाए कोई गरुड़ युवती खड़ी हो (विततपक्खा विव गरुलजुवई) समुद्री जहाज जब बन्धन मुक्त हो, वायुबल से प्रेरित हो आगे बढ़ रहा था, तब हवा को नियन्त्रित रखने के लिए लगाए हुए पालों के कारण ऐसा लग रहा था, मानो कोई गरुड़ युवती अपने पंख फैलाए उड़ी जा रही हो। यह एक बहुत ही स्वाभाविक उपमा है। नायाधम्मकहाओ ५. उज्झित्तए--एक संकल्प से ही नहीं, सम्पूर्ण देशविरति-श्रावक धर्म से भी भ्रष्ट हो जाना। ६. परिच्चइत्तए--केवल व्रत से ही नहीं, सम्यग् दर्शन से भी भ्रष्ट हो जाना। चालित्तए, खोभित्तए आदि चारित्रिक पतन की क्रमिक भूमिकाएं है। १९. सात-आठ तल प्रमाण (सत्तट्ठतलप्पमाणमेत्ताइं) यहां तल का अर्थ है--हस्ततल अथवा-'ताल' नाम का बहुत लम्बा वृक्ष । अत: इसका वाच्यार्थ है--सात-आठ ताडवृक्ष परिमित ऊंचा। सूत्र-७४ १७. पौषधोपवास (पोसहोववासाई) पौषधोपवास का सामान्य अर्थ है--पौषध पूर्वक उपवास । उपवास में मात्र आहार परिहार किया जाता है वहां पौषधोपवास में आहार और शरीर सत्कार का वर्जन कर, ब्रह्मचर्य की साधना पूर्वक सावद्य व्यापार मात्र का परिवर्जन किया जाता है। जैन श्रमणोपासक के लिए अष्टमी आदि पर्व दिनों में इस आध्यात्मिक अनुष्ठान का विशेष रूप से विधान है। विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य--भगवई, खण्ड १ पृष्ठ २६६, २६७. २०. आर्त, दुखार्त और वासना से आर्त हो (अह-दुहट्ट-वसट्टे) वृत्तिकार के अनुसार आर्तध्यान की दुर्निवार पराधीनता से पीड़ित ।' सत्र-७५ २१. विपरीत परिणाम वाला (विपरिणामित्तए) अध्यवसाय के स्तर पर भी विपरिणमित कर देना। अध्यवसाय का अर्थ है--सूक्ष्म-शरीर के साथ काम करने वाला सूक्ष्म भाव। अच्छे और बुरे व्यक्तित्व के निर्माण में अध्यवसाय की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। जिसका आन्तरिक भावतन्त्र विकृत नहीं होता, उस व्यक्ति को अनेक दिव्य शक्तियां भी अपने पथ और संकल्प से च्युत नहीं कर सकती। १८. चलित नहीं ............. कराया जा सकता। (चालित्तए, खोभित्तए.........परिच्चइत्तए) १. चालित्तए--विपरिणामित अथवा विचलित करने का अर्थ है-जिस करण और योग के विकल्प से व्रत स्वीकार किए हों, परिस्थिति से बाध्य होकर उस विकल्प को परिवर्तित कर लेना। २. खोभित्तए--क्षुब्ध का अर्थ है--स्वीकृत व्रतों का पालन करूं या त्याग दूं इस प्रकार की दुविधापूर्ण मानसिकता का निर्माण। संशयपूर्ण मन: स्थिति का निर्माण। ३. खंडित्तए--स्वीकृत संकल्प का आंशिक विनाश।' ४. भंजित्तए--स्वीकृत संकल्प का सर्वात्मना विनाश । सूत्र-११७ २२. हाव-भाव विलास .........युक्त (हाव-भाव-विलास-बिब्बोय) ये चारों शब्द स्त्रियों की विभिन्न काम-चेष्टाओं के वाचक हैं। तथापि सब अपने-अपने विशेष अर्थ का वहन करते हैं-- • हाव-मुख से प्रकट होने वाला काम विकार-चेष्टा। • भाव-चित्त की भूमिका पर उभरने वाला काम-विकार । • विलास-नेत्र से व्यक्त होने वाला विकार । • विभ्रम-भोहों से व्यक्त होने वाला विकार । १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१४६--अष्टम्यादिषु पर्वदिनेषूपवसनं आहारशरीरसत्कारा- ब्रह्मव्यापारपरिवर्जनमित्यर्थः। २. वही--भंगकान्तर-गृहीतान् भंगकान्तरेण कर्तुम्..... । ३. वही, पत्र-१४६--क्षोभयितुं-एतान्येवं परिपालयाम्युतोज्झामीति क्षोभविषयान् कर्तुम्। ४. वही--खण्डयितुं-देशत: भक्तुम्। ५. वही--उज्झितुं-सर्वस्या देशविरत्यात्यागेन, परित्यक्तुं-सम्यक्त्वस्यापि त्यागत इति। ६. वही--सत्तद्वतलप्पमाणमेत्तायं ति-तलो-हस्ततलः तालाभिधानो वाऽतिदीर्घवृक्षविशेष: स एव प्रमाणं-मानं तलप्रमाणं सप्ताष्टौ वा सप्ताष्टानि तलप्रमाणानि परिमाणं येषां ते। ७. वही-अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे ति-आर्तस्य-ध्यानविशेषस्य यो दुहट्ट ति दुर्घट: दुःस्थगो दुर्निरोधो वश:-पारतन्त्र्यं, तेन ऋत:-पीडित: आर्त दुर्घटवशातः किमुक्तं भवति? असमाधिप्राप्तः। ८. वही--विपरिणामित्तए, त्ति-विपरिणामयितुं विपरीताध्यवसायोत्पादनतः । ९. वही, पत्र-१५०-हावभावविलासबिब्बोयकलिएहि त्ति-हावभावादय: सामान्येन स्त्रीचेष्टा-विशेषाः, विशेष: पुनरयम्-- हावो मुखविकार: स्याद्, भावश्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ।। Jain Education Intemational Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २२३ अष्टम अध्ययन : टिप्पण २२-२८ _ विब्बोक--दर्पवश प्रिय-वस्तुओं के प्रति होने वाला अनादर का शत्रुसेना के विनाश के कारण हत एवं मान-मर्दन के कारण मथित भाव। होता है। विलास का मतान्तर सम्मत वैकल्पिक अर्थ प्रस्तुत करते हुए जब सेना के प्रमुख सुभट योद्धा वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं या वृत्तिकार लिखते हैं--स्थान, आसन, गमन तथा हाथों, भोहों, आंखों और रणभूमि से भाग जाते हैं तब सेना के चिह्न स्वरूप ध्वज और पताकाएं नीचे अन्य प्रवृत्ति के माध्यम से जो श्लिष्ट भावों की अभिव्यक्ति होती है, वह गिर जाती हैं अथवा अपनी पराजय स्वीकार करने की सूचना देने के लिए सारा विलास' है। वे झुका दी जाती हैं। ध्वजा और पताका का अन्तर सूत्र-१२४ सेना की विभिन्न टुकड़ियों की अलग पहचान के लिए गरुड़ आदि २३. लज्जित, वीडित और अपमानित (लज्जिए-विलिए-वेडे) विविध चिह्नों से अंकित झंडे ध्वज कहलाते हैं। लज्जित, व्रीडित और वेड्ड--ये तीनों शब्द पर्यायवाची हैं, फिर भी हाथियों के ऊपर फहराने वाली पताकाएं होती हैं। लज्जा के उत्तरोत्तर प्रकर्ष के वाचक हैं। वेड देशी शब्द है। सूत्र-१४५ सूत्र-१६७ २४. उत्तर (पामोक्खं) २७. संचार रहित, उच्चार रहित (निस्संचारं निरुच्चार) प्रश्न का उत्तर, समाधान। उत्तराध्ययन में भी 'उत्तर' के नगर के मुख्य द्वार और पार्श्व द्वार से नागरिकों का गमनागमन अर्थ में 'पामोक्ख' शब्द का प्रयोग है। रोक देना निस्संचार है और नगर के प्राकार के ऊपर से गमनागमन को प्रमोक्ष शब्द का प्रयोग प्रधानत: दो अर्थों में होता है--१. मोक्ष' रोक देना निरुच्चार है।३० २. उत्तर (समाधान) सूत्र १८० सूत्र १४६ २८. आसक्त, अनुरक्त, गृद्ध, मुग्ध और अध्युपपन्न (सज्जह रज्जह २५. निंदा, कुत्सा और गर्दा की (निन्दति, खिसंति गरिहति) गिज्झह मुज्झह अज्झोववज्जह) मन से कुत्सा करना निंदा, आपस में एक दूसरे पर दोषारोपण सामान्यत: उक्त शब्द एकार्थक ही हैं, फिर भी इनमें अवस्थाकृत करना कुत्सा और सबंधित व्यक्ति के सामने ही उसका दोषोद्घाटन करना भेद है। गर्दा है। सज्ज--आसक्त होना, निशीथ चूर्णि के अनुसार निष्ठुर और स्नेह रहित वचन खिसा है।" रज्ज--अनुरक्त होना, गृद्ध--प्राप्त भोगों में अतृप्त रहना, सूत्र-१६५ मुग्ध--भोगों में दोष जानते हुए भी उनमें मूढ रहना। २६. प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त हय-महिय-पवरवीर-धाइय-विवडियचिंध अध्युपपन्न--अप्राप्त भोगों की प्राप्ति के लिए एकाग्रचित्त धम-पडागं-वाक्य शत्रु सेना को पछाड़ देने के अर्थ में एक मुहावरा-सा रहना । प्रयुक्त हुआ है। निशीथ चूर्णिकार ने भी इन शब्दों को एकार्थक माना है, फिर १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१५०--विब्बोकलक्षणं चेदम्-- ८. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१५५--हयमहियपवरवीर-घाइय-विवडिय-चिंधद्धयइष्टानामर्थानां प्राप्तावभिमानगर्भ-सम्भूतः । पड़ागे-त्ति-हत:--सैन्यस्य हतत्वात्, मथितो-मानस्य निर्मथनात्, स्त्रीणामनादरकृतो विब्बोको नाम विज्ञेयः ।। प्रवरवीरा-भटा घातिता--विनाशिता यस्स स तथा। २. वही-अन्यत्वेवं विलासमाहुः-- ९. वही--चिह्रध्वजा:-चिह्नभूतगरुङ-सिंहधरा वलकध्वजादय: पताकाश्च स्थानासनगमनानां हस्तभूनेत्रकर्मणां चैव। हस्तिनामुपरिवर्तिन्यः। उत्पद्यते विशेषो य: श्लिष्टोऽसौ विलास: स्यात् ।। १०. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१५६--'निस्संचार' ति-द्वारापद्वारैः जनप्रवेशनिमिवर्जितं ३. वही--लज्जितो वीडितो व्यईः इत्येते त्रयोऽपि पर्यायशब्दा: लज्जाप्रकर्षाभि- यथा भवति, 'निरुच्चारं'-प्राकारस्योर्ध्व जनप्रवेशनिर्गमवर्जितं यथा भवति धानायोक्ताः। अथवा उच्चार:-पुरीष तद्विसर्गार्थं यज्जनानां बहिनिर्गमनं तदपि स ४. आयारो ५/३६--बन्धपमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव। एवेति तेन वर्जितम्। ५. उत्तरज्झयाणाणि २५/१३ तस्सऽक्खेवपमोक्खं । ११. वही--सज्जत-संगं कुरुत, रज्यत--रागं कुरुत, गिज्झह-गृध्यत गृद्धि ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१५५--निन्दन्ति-मनसा कुत्सन्ति, खिंसति-परस्परस्याग्रत: प्राप्तभोगेष्वतृप्तिलक्षणां कुरुत, मुज्झह-मुह्यत मोहं तद्दोषदर्शन मूढत्वं तद्दोषकीतनन, गर्हन्ते-तत्समक्षमेव। कुरुत अज्झोववज्जह-अध्युपद्धं तदप्राप्तप्रापणायाध्युपपत्ति- तदेकाग्रता७. निशीथ भाष्य-भाग ३, पृ. ६--निठुरं णिण्हेहवयणं खिंसा। लक्षणां कुरुत। Jain Education Intemational Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन टिप्पण : २८-३४ भी इनके भिन्न-भिन्न अर्थों की व्याख्या की है, जैसे- संग- आसवेन की भावना । अनुराग मानसिक प्रीति । गृद्धि--विषय सेवन के दोषों को जानते हुए भी उससे विराम न अध्युपपात -- अगम्य का गमन एवं आसेवन । लेना । -- २९. संकेत में बन्धे हुए ( समय - निबद्धा) २. वृत्तिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ किया है- हमने एक साथ अनुत्तर देव जाति प्राप्त की थी। २ समय निबद्धा का मूल अर्थ है --संकेत में बंधे हुए । १. अर्हत मल्लि प्रमुख सातों मित्र देव भव में इस संकेत में बंधे हुए थे कि भूमि भी है। हम एक दूसरे को प्रतिबोध देंगे। सूत्र- १९८ ३०. प्रभातकालीन भोजन ( मागहओ पायरासो) उस समय मगधदेश में दिन के प्रथम दो प्रहर तक का समय प्रातराश-- प्रभातकालीन भोजन का समय था । ३१. पान्थों को (पंथियाणं) पाधिक और पान्थ इनमें प्रवृत्तिलभ्य अर्थभेद है। आवश्यकता वश यदा कदा पथ पर चलने वाले पथिक और सतत भ्रमणशील पान्थ कहलाते थे। ३२. पथिकों को (पहियाणं) २२४ -- 'पहिय' के संस्कृत रूप दो बनते हैं--पथिक और प्रहित । पथिक -- पथ पर चलने वाले राहगीर प्रहित किसी के द्वारा कहीं प्रेषित।" -- १. निशीथ भाष्य, भाग-३, पृ. ३५० - सज्जणादी पदा एगट्टिया अहवा- आसेवणभावे सज्जनता, मणसा पीतिगमणं रज्जणता, सदोसुवलद्धे वि अविरमो गेधी, अगमगमणासेवणे वि अज्जुववातो । २. ज्ञातावृत्ति, पत्र- १५६ समयनिबद्धं मनसा निबद्ध-संकेतं यथा प्रतिबोधनीया वयं परस्परेणेति । समक-निबद्धां वा सहितैर्या उपात्ता जातिस्तां देवा अनुत्तरसुराः सन्तः । ३. वही, पत्र- १५९ मागको पारासो त्ति मगधदेशसम्बन्धिन प्रातराशं प्राभातिकं भोजनकालं यावत् प्रहरद्वयादिकमित्यर्थः । ४. वही -- पंथियाणं-ति- पन्थानं नित्यं गच्छतीति पान्थास्त एव पान्थिकास्तेभ्यः । यही पहियाणं पथि गच्छन्तीति पविकास्तेभ्यः प्रहितेभ्यो वा केनापि क्वचित् प्रेषितेभ्यः । - ३३. नागकुमार (नायकुमारा) इसका वाच्यार्थ है इक्ष्वाकुवंश में समुद्भूत क्षत्रियों के राज्य संचालन की क्षमता वाले कुमार। सूत्र २२३ ३४. अन्तकरभूमि (अंतकरभूमि) अन्तकरभूमि का अर्थ है--भव-परम्परा का अन्त कर निर्वाण प्राप्त करने वालों की भूमि - समय। इसलिए इसका दूसरा नाम कालान्तर नायाधम्मकहाओ सूत्र २३३ अन्तकर भूमि दो प्रकार की होती है--युगान्तकर भूमि और पर्यायान्तकर भूमि। | युगान्तकर भूमि-युग का अर्थ है --विशेष कालमान। युग क्रमवर्ती होते हैं उसके साधर्म्य से गुरु शिष्य प्रशिष्य आदि के रूप में होने वाली क्रमभावी पुरुष परम्परा को भी युग कहा जाता है। उस युग प्रमित अन्तकर भूमि को युगान्तकर भूमि कहा गया है। पर्यायान्तकर भूमि - तीर्थंकर के केवलित्व काल के अश्रित जो अन्तकर भूमि होती है उसे पर्यायान्तकर भूमि कहा गया है।" - I अर्हत मल्ली के बीसवें पुरुषयुग अर्थात् बीसवीं शिष्य परम्परा तक युगान्तकर भूमि रही । तात्पर्य की भाषा में अर्हत मल्ली से लेकर उनके तीर्थ में बीसवी शिष्य परम्परा तक साधु सिद्ध हुए, उसके पश्चात् सिद्धिगति का व्यवच्छेद हो गया। उनके तीर्थ में पर्यायान्तकर भूमि दो वर्ष पश्चात् प्रारम्भ हुई। अर्थात् मल्ली को कैवल्य प्राप्त हुए जब दो वर्ष सम्पन्न हुए, तब उनके तीर्थ में साधु सिद्ध हुए। उससे पहले किसी श्रमण मुक्ति प्राप्त नहीं की । मतान्तर से केवलिपर्याय के दो मास अथवा चार मास से भी पर्यायान्तकर भूमि का उल्लेख है I ६. वहीं, पत्र- १६०-- गायकुमार ति जाताः इष्वाकुवंश-विशेषभूताः तेषां कुमारा:- राज्याह ज्ञातकुमाराः । ७. वही, पत्र - १६१ - - अन्तकराः भवान्तकराः निर्वाणयायिनस्तेषां भूमिकालान्तर भूमिः । ८. शतावृत्ति पत्र- १६१ युगानि कालमानविशेषास्तानि च क्रमवतीनि तत्साधन्यधि क्रमवर्तिनो गुरुशिष्यप्रशिष्यादिरूपाः पुरुषास्तेऽपि युगानि तैः प्रमितान्तरकरभूमिः युगान्तकरभूमिः परियायतकरभूमीति पर्याय:तीर्थकरस्य केवलित्वातरतमाश्रित्यान्तकरभूमिर्या सा - Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत अध्ययन में माकन्दी सार्थवाह के पुत्र -- जिनपालित और जिनरक्षित के चरित्र का निरूपण है । प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अनुकूल व प्रतिकूल दोनों तरह के प्रसंग आते रहते हैं । प्रतिकूलता में अविचल रहने वाला कभी-कभी अनुकूलता में विचलित हो जाता है । रत्नद्वीपदेवी ने बहुत सारे प्रतिकूल उपसर्गों से उन माकन्दिक - पुत्रों को विचलित -- विपरिणामित करने का प्रयास किया। उसका वह प्रयास विफल रहा। उसने अनुकूल उपसर्गों का आलम्बन लिया। रत्नद्वीप देवी के मधुर व कामोत्तेजक वचनों से जिनरक्षित का मन पिघल गया। भयोत्पादक तर्जना से अभीत रहने वाला जिनरक्षित कामाशंसा से विचलित हो गया । इसलिए उसे अकालमृत्यु से मरना पड़ा। आमुख जिनपालित अपने संकल्प पर दृढ़ रहा । उसके वज्र सदृश संकल्प को रत्नद्वीपदेवी के कामबाण भी बींध नहीं सके। वह सकुशल अपने घर लौट आया। इस दृष्टान्त के द्वारा संबोध दिया गया है कि मुनि के जीवन में अनुकूल व प्रतिकूल दोनों प्रकार के उपसर्ग आते हैं । प्रतिकूल उपसर्गों की अपेक्षा अनुकूल उपसर्गों को सहन करना अधिक कठिन होता है। जो मुनि दीक्षित होकर अनुकूल उपसर्गों पर विजय पा लेते हैं, लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। अनुकूल उपसर्गों पर विजय न पाने वाले विचलित हो जाते हैं । जिनरक्षित ने रत्नद्वीपदेवी का करुण विलाप सुना। उसके मन में उसके प्रति करुणा का भाव उदित हुआ । यहां उल्लेखनीय है कि जिनरक्षित की वह करुणा किसी धार्मिक प्रेरणा से उद्भूत नहीं थी । वह वस्तुतः मोहावेशजन्य थी । अतः धार्मिक दृष्टि से उसे उपादेय नहीं कहा जा सकता । प्राचीन काल में समुद्र यात्राओं का बहुत प्रचलन था । लोग अर्थार्जन के उद्देश्य से लम्बी-लम्बी समुद्रयात्राएं किया करते थे। प्रस्तुत अध्ययन में माकन्दिक पुत्रों की समुद्रयात्रा का सरस प्रतिपादन है। सूत्रकार ने समुद्रयात्रा के दौरान कालिक वात (तूफान ) से प्रकम्पित नौका के लिए अनेक सजीव व हृदयग्राही उपमाओं का प्रयोग किया है। प्रस्तुत अध्ययन के अंत में निगमन-गाथाओं के द्वारा दृष्टान्त का सार तत्त्व निरूपित किया गया है । इस दृष्टि से निम्नोक्त तालिका द्रष्टव्य है- रत्नद्वीपदेवी लाभार्थी वणिक् वधस्थान में अवस्थित पुरुष भयभीत व्यापारी शैलकयक्ष द्वारा व्यापारियों का निस्तार समुद्र पार कर घर पहुंचना जिनरक्षित जिनपालित Jain Education Intemational अविरति सुखार्थी जीव धर्मकी मुि संसार के दुःखों से भीत प्राणी जिनप्रज्ञप्त धर्म द्वारा प्राणियों का निस्तार संसार समुद्र को पारकर निर्वाण को प्राप्त करना चरित्रभ्रष्ट व्यक्ति । चरित्रसंपन्न मुनि । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमं अज्झयणं : नवां अध्ययन मायंदी : माकन्दी उक्खेव पदं १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, नवमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? २. एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी। पुण्णभद्दे चेइए । ३. तत्थ णं मायंदी नाम सत्थवाहे परिवसइ - अड्ढे । तस्स णं भद्दा नाम भारिया । तीसे णं भद्दाए अत्तया दुवे सत्थवाहदारया होत्या, तं जहा जिणपालिए य जिणरक्खिए य ।। मागंदिय-दारगाणं समुद्द-जत्ता-पदं ४. तए णं तेसिं मार्गदिप दारगाणं अण्णया कंयाइ एगयज सहियाणं इमेवारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्यज्जित्था एवं सतु अम्हे लवणसमुदं पोपवहणेणं एक्कारसवाराओ ओगाटा । सव्वत्थ वि य णं लद्धट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुणरवि नियघरं हव्वमागया । तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! दुवालसंपि लवणसमुद्द पोयवहणेणं ओगाहित्तए ति कट्टु अग्णमण्णस्स एपमहं परिसुति पढिसुणेत्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छति, उपागच्छता एवं वयासी--एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! लवणसमुद्दे पोयवहणेणं एक्कारसवाराओ ओगाढा । सव्वत्थ वि य णं लद्धट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुणरवि नियचरं हव्वमागया। तं इच्छामो णं अम्मयाओ! तुम्भेहिं अन्भणुण्णाया समाणा दुवालसपि लवणसमुदं पोयवहणेण ओगाहित्तए । ५. तए णं ते मांगदिय-दारए अम्मापियरो एवं वयासी--इमे भे जाया! अजय-जय पिउपज्जयागए सुबहु हिरणे य सुवण्णे य कैसे य दूसे य मणिमोत्तिय संख - सिल प्पवाल- रत्तरयण- संतसारसावज्जेय अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दाउं पगामं भोत्तुं पगामं परिभाएउं। तं अणुहोह ताव जाया! विपुले माणुस्ताए इटीसक्कारसमुदए। किं भे सपच्चावाएणं निरालंवगेणं लवणसमुद्दोत्तारेण ? एवं खलु पुत्ता! दुवालसमी जत्ता सोवसग्गा यावि भवइ । तं मा णं तुब्भे दुवे पुत्ता! दुवालसंपि लवणसमुद्द पोयवहणेणं ओगाह मा हु तुम्भं सरीरस्स वावत्ती भविस्सइ ।। उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के आठवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते ! उन्होंने ज्ञाता के नौंवे अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. जम्बू उस काल और उस समय चम्पा नाम की नगरी थी । पूर्णभद्र चैत्य था । 1 ३. वहां माकन्दी नाम का सार्थवाह रहता था, वह आढ्य था । उसके भद्रा नाम की भार्या थी । उस भद्रा के आत्मज दो सार्थवाह बालक थे, जैसे -- जिन पालित और जिनरक्षित । माकन्दिक पुत्रों की समुद्र यात्रा - पद ४. किसी समय एकत्र सम्मिलित उन माकन्दिक पुत्रों के मध्य परस्पर यह विशिष्ट प्रकार का वार्तालाप हुआ हमने पोत बहन से ग्यारह बार लवण समुद्र का अवगाहन कर लिया। सभी जगह हमने प्रचुर मात्रा - धन कमाया, कृतकार्य हुए और निर्विघ्न रूप से हम पुनः अपने घर लौट आए। अतः देवानुप्रियो! हमारे लिए उचित है, बारहवीं बार भी हम पोत- वहन से लवणसमुद्र का अवगाहन करें। इस प्रकार उन्होंने परस्पर इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर जहां माता-पिता थे वहां आए। वहां आकर इस प्रकार कहा- माता-पिता! हमने पोत- वहन से ग्यारह बार लवण समुद्र का अवगाहन कर लिया। सभी जगह हमने प्रचुर मात्रा में धन कमाया, वृतकार्य हुए और निर्विघ्न रूप से हम पुनः अपने घर लौट आए। अतः माता-पिता! हम चाहते हैं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर बारहवीं बार भी पोत - वहन से लवण समुद्र का अवगाहन करें । ५. माता-पिता ने माकन्दिक - पुत्रों से इस प्रकार कहा -- पुत्रो! तुम्हारे पितामह प्रपितामह और प्रपितामह से परम्परा प्राप्त यह बहुत सारा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, दूष्य, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, रक्तरत्न तथा श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्य एवं दान भोग आदि के लिए स्वापतेय है, जो यावत् सात पीढ़ी तक प्रचुर मात्रा में दान करने, प्रचुर मात्रा में भोगने और प्रचुर मात्रा में बांटने (विभाग करने) में पर्याप्त है । अतः जात! तुम इस मनुष्य-संबंधी विपुल ऋद्धि, सत्कार और समुदय का अनुभव करो विघ्न बहुत, निरालम्बन लवण समुद्र को तैरने से तुम्हें क्या प्रयोजन है? । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २२७ ६. तए गं ते मागंदिय दारगा अम्मापिपरो दोच्चपि तच्चपि एवं क्पासी एवं खलु अम्हे अम्मयाओ! एक्कारसवाराज लवणसमुद्द पोयवहणेणं ओगाढा । सव्वत्थ वि य णं लद्धट्ठा कयकज्जा अणहसमग्गा पुणरवि नियघरं हव्वमागया । तं सेयं खलु अम्हं अम्मयाओ! दुवालसपि लवणसमुद्र पोपवहणेणं ओगाहित्तए । ७. तए णं ते मार्गदिय दारए अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य आधवित्तए वा पण्णवित्तए वा ताहे अकामा चैव एवम अणुमण्णित्मा ।। ८. सए णं ते मार्गदिय दारगा अम्माषिकहिं अन्भणुष्णाया समाणा गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं व भंडगं गेण्डति, जहा अरहन्नगस्स जाव लवणसमुद्द बहूइं जोयणसयाइं ओगाढा ।। नावा-भंग-पदं ९. तए णं तेसिं मागंदिय- दारगाणं लवणसमुदं अणेगाइं जोयणसयाई ओगाणं समाणानं अनेगाई उपाइयसयाई पाउब्याई तं जहा-अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अकाले धणियसद्दे कालियवाए जाव समुट्ठिए । १०. तए णं सा नावा तेणं कालियवाएणं आहुणिज्नमाणीआहुणिज्जमाणी संचालिज्जमाणी संचालिज्जमाणी संखोभिज्जमाणी- संखोभिज्जमाणी सलिलतिक्ख-वेगेहिं अइअट्टिज्जमाणीअइजट्टिज्जमानी कोड्रिमसि करतलाहते विव तिसए तत्येव तत्येव ओवयमाणी य उप्पयमाणी य, उप्पयमाणी विव धरणीयलाओ सिद्धविज्जा विज्जाहरकन्नगा, ओक्यमाणी विव गगणतलाओ भट्टविज्जा विज्जाहरकन्नगा, विपलायमाणी विव महागरुल-वेगवित्तासिय भुपगवरकन्नगा, धायमाणी विव महाजण रसियसवित्तत्था ठाणभट्ठा आसकिसोरी, निगुंजमाणी विव गुरुजणदिट्ठावराहा सुजणकुलकन्नगा, धुम्ममाणी विव वीचि -पहार-सयतालिया, गलिय-लंबणा विव गगणतलाओ, रोयमाणी विव सलिलगंधी- विप्पइरमाण पोरंसुवाएहिं नववहू उवरयभत्तुया, विलवमाणी विव परचक्करायाभिरोहिया परममहब्भयाभिदुया महापुरवरी, झायमाणी विव कवड-च्छोमण-पओगजुत्ता जोगपरिव्वाइया, नीससमाणी विव महाकंतार - विणिग्गय-परिस्संता परिणयवया अम्मया, सोयमाणी विव तव चरण- खीण- परिभोगा नवम अध्ययन सूत्र ५-१० पुत्रो! बारहवीं यात्रा में उपसर्ग भी होता है। अतः पुत्रो ! तुम दोनों बारहवीं बार पोत-वहन से लवण समुद्र का अवगाहन मत करो । तुम्हारे शरीर की व्यापत्ति न हो। ६. उन माकन्दिकपुत्रों ने दूसरी बार तीसरी बार भी माता-पिता से इस प्रकार कहा--माता-पिता! हमने ग्यारह बार पोत-वहन से लवण समुद्र का अवगाहन कर लिया। सभी जगह हमने प्रचुर मात्रा में धन कमाया, कृतकार्य हुए और निर्विघ्न रूप से हम पुनः अपने घर लौट आए। अतः माता-पिता! हमारे लिए उचित है हम बारहवीं बार भी पोत वहन से लवण समुद्र का अवगाहन करें। ७. माता-पिता माकन्दिक पुत्रों को बहुत-सी आख्यापनाओं और प्रज्ञापनाओं के द्वारा आस्थापित और प्रज्ञापित करने में समर्थ नहीं हुए तो उन्होंने न चाहते हुए भी अनुमति दे दी । ८. माता-पिता से अनुज्ञा प्राप्त कर माकन्दिक - पुत्रों ने गणनीय, धरणीय, मेय और परिच्छेद्य रूप क्रयाक (किराना) लिए। अन्नक की भांति यावत् वे लवण समुद्र में अनेक शत योजन तक पहुंच गए। नावा-भंग-पद ९. वे माकन्दिक - पुत्र जब लवण समुद्र में अनेक शत योजन तक पहुंच गये, तब उनके सामने अनेक शत उत्पात प्रादुर्भूत हुए, जैसे--अकाल में गर्जन, अकाल में विद्युत, अकाल में मेघ की गंभीर ध्वनि यावत् कालिक वात (तूफान उठा। १०. वह नौका उस कालिक वात से बार-बार कम्पित संचालित, संक्षुब्ध हो रही थी । पानी के तेज प्रवाह से बार-बार आक्रान्त होती हुई पक्के आंगन में करतल से आहत गेंद की भांति वहीं वहीं गिरकर उछल रही थी, विद्यासिद्ध विद्याधर- कन्या की भांति भूतल से ऊपर उछल रही थी, विद्याभ्रष्ट विद्याधर कन्या की भांति गगनतल से नीचे गिर रही थी । महागरुड़ की तेज गति से वित्रासित प्रवर नाग - कन्या की भांति इधर-उधर भाग रही थी । जन-समूह के कोलाहल से वित्रस्त स्थानभ्रष्ट अव-किशोरी की भांति दौड़ रही थी। गुरुजनों को अपराध का पता लग जाने के कारण (लज्जावनत) कुलीन - कन्या की भांति झुकी हुई थी । लहरों के सैकड़ों प्रहारों से प्रताड़ित होकर कांपती हुई, बन्धन मुक्त होकर मानों गगनतल से गिर रही थी । जल से भीगी हुई गांठों से टपकते जल-कणों के कारण किसी परित्यक्ता नवोढ़ा की भांति रो रही थी परम महाभय से अभिद्भुत होने के कारण शत्रु राजा की सेना से घिरी हुई महानगरी की भांति विलाप कर रही थी। कपट और छद्म प्रयोग से युक्त योग-परिव्राजिका की भांति ध्यान कर रही थी। महाकान्तार को पार करने के श्रम से Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ नवम अध्ययन : सूत्र १०-१३ चवणकाले देववरबहू, संचुण्णियकट्ठ-कूवरा, भग्गमेढि-मोडिय- सहस्समाला, सूलाइय-वंकपरिमासा, फलहंतर-तडतडेंत-फुटुंतसंधिक्यिलंत-लोहकीलिया, सव्वंग-वियंभिया, परिसडियरज्जुविसरंतसव्वगत्ता, आमगमल्लगभूया, अकयपुण्ण-जणमणोरहो विव चिंतिज्जमाणगुरुई हाहाक्कय-कण्णधार-नाविय-वाणियगजणकम्मकर-विलविया नाणाविह-रयण-पणिय-संपुण्णा बहूहिं पुरिससएहिं रोयमाणेहिं कंदमाणेहिं सोयमाणेहिं तिप्पमाणेहिं विलवमाणेहिं एगं महं अंतोजलगयं गिरिसिहरमासाइत्ता संभग्गकूवतोरणा मोडियज्झयदंडा वलयसयखंडिया करकरस्स तत्थेव विद्दवं उवगया। नायाधम्मकहाओ परिश्रान्त पुत्रवती प्रौढ़ महिला की भांति नि:श्वास छोड़ रही थी। च्यवन काल में तपश्चरण जनित परिभोगों के क्षीण होने पर (चिन्ताकुल) प्रवर देववधू की भांति चिन्ता कर रही थी। उस नौका के काष्ठ और मुखभाग चूर चूर हो गए। मेढ़ी भग्न हो गई। अकस्मात उसकी छत टूट गई। परिमर्श--नौका का काष्ठ वक्र और शूल जैसा हो गया। फलक के विवरों में तड़ तड़ आवाज करती हुई संधियां टूट गई। संधियों में लगी लोह की कीलें निकल गयी। उसके सारे अंग खुल गये। फलक को बांधकर रखनेवाली रस्सियां टूटकर गिर गई। फलत: नौका के सारे अवयव चरमरा गए। वह कच्ची मिट्टी के शिकोरे के समान विगलित हो गई। पुण्यहीन व्यक्ति के मनोरथ की भांति चिन्तनीय होने से भारी हो गयी। उसमें हाहाकार करते कर्णधारों, नाविकों, व्यापारियों और कर्मचारियों का विलाप होने लगा। नाना प्रकार के रत्नों तथा क्रयाणक से भरी हुई वह नौका रोते-चिल्लाते, चिन्ता करते, आंसू बहाते और विलपते हुए अनेक शत-पुरुषों सहित जलगत एक विशाल गिरि-शिखर से टकरा गयी। उसका मस्तूल और तोरण भग्न हो गया। ध्वज दण्ड टूट गए। वह सैंकड़ों वलयाकार टुकड़ों में बिखर गयी और कर-कर शब्द करती हुई वहीं डूब गयी। ११. तए णं तीए नावाए भिज्जमाणीए ते बहवे पुरिसा विपुल-पणिय- भंडमापाए अंतोजलंमि निमज्जाविया यावि होत्था। १. उस भग्न नौका ने उन बहुत से पुरुषों को जल में डुबो दिया जो विपुल क्रयाणक के पात्र लेकर आए थे। १२. तए णं ते मागंदिय-दारगा छेया दक्खा पत्तट्ठा कुसला मेहावी निउणसिप्पोवगया बहूस पोयवहण-संपराएस कयकरणा लद्धविजया अमूढ़ा अमूढहत्था एगं महं फलगखंडं आसार्देति॥ १२. तब छेक, दक्ष, अनुभवी, कुशल, मेधावी, तैरने की कला में निपुण, बहुत से पोत-वहन के विघ्नों को पार करने के कारण अनुभव प्राप्त, विजयी, अमूढ और अमूढ़ हाथों वाले उन माकन्दिक-पुत्रों ने एक विशाल फलक-खण्ड को प्राप्त किया। रयणदीव-पदं १३. जंसि च णं पएसंसि से पोयवहणे विवण्णे तंसि च णं पएसंसि एगे महं रयणदीवे नाम दीवे होत्था--अणेगाई जोयणाई आयामविक्खंभेणं अणेगाई जोयणाई परिक्खेवेणं नाणामसंडमंडिउद्देसे सस्सिरीए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। तस्स बहुमझदेसभाए, एत्थ णं महं एगे पासायवडेंसए यावि होत्था--अब्भुग्गयमूसिय-पहसिए जाव सस्सिरीयरूवे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। तत्थ णं पासायवडेंसए रयणदीव-देवया नाम देवया परिवसइ--पावा चंडा रुद्दा खुद्दा साहस्सिया।। तस्स णं पासायवडेंसयस्स चउद्दिसिं चत्तारि वणसंडा-किण्हा किण्होभासा।। रत्नद्वीप-पद १३. जिस प्रदेश में वह पोत-वहन भान हुआ था, उस प्रदेश में एक महान रत्नद्वीप नाम का द्वीप था। उसका आयाम विष्कम्भ अनेक योजन परिमित था। उसकी परिधि भी अनेक योजन-परिमित थी। वह नाना द्रुम खण्डों से परिमंडित, श्रीसम्पन्न, चित्त को आल्हादित करने वाला, दर्शनीय, सुन्दर और असाधारण था। उस द्वीप के बीचों-बीच एक महान, श्रेष्ठ प्रासाद भी था। वह अभ्युद्गत, समुन्नत, प्रहसित यावत् श्री-सम्पन्न, चित्त को आल्हादित करने वाला, दर्शनीय, सुन्दर और असाधारण था। उस श्रेष्ठ प्रासाद में 'रत्न द्वीप देवता' नाम की एक देवी रहती थी। वह दुष्ट, चण्ड, रौद्र, क्षुद्र और साहसिक थी। उस श्रेष्ठ प्रासाद के चारों ओर कृष्ण और कृष्णप्रभा वाले चार वनखण्ड थे। Jain Education Intemational Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २२९ नवम अध्ययन : सूत्र १४-१९ १४. तए णं ते माकंदिय-दारगा तेणं फलयखडेणं ओवुज्झमाणा- १४. वे माकन्दिक-पुत्र उस फलक-खण्ड के सहारे तैरते-तैरते उस __ ओवुज्झमाणा रयणदीवंतेणं संवूढा यावि होत्था। रत्नद्वीप के किनारे पहुंच गए। १५. तए णं ते मागंदिय-दारगा थाहं लभंति, मुहुत्तंतरं आससंति, फलगखंडं विसज्जेंति, रयणदीवं उत्तरंति, फलाणं मग्गण-गवसणं करेंति, फलाइं आहारेंति, नालिएराणं मग्गण-गवेसणं करेंति, नालिएराइंफोडेंति, नालिएरतेल्लेणं अण्णमण्णस्स गायाई अब्भगति, पोक्खरणीओ ओगाहेंति, जलमज्जणं करेंति, पोक्खरणीओ पच्छ्रुतति, पुढविसिलावट्टयंसि निसीयंति, निसीइत्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया चंपंनयरिं अम्मापिउआपुच्छणंच लवणसमुद्दोतारणं च कालियवायसम्मुच्छणं च पोयवहणविवत्तिं च फलयखंडस्सासायणं च रयणदीवोत्तारंच अणुचितमाणा-अणुचितमाणा ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुहा अट्टज्झाणोवगया झियायंति।। १५. उन माकन्दिक-पुत्रों ने समुद्र का थाह पा लिया। मुहूर्त भर आश्वस्त हुए। फलक-खण्ड को विसर्जित किया। रत्नद्वीप पर उतरे। फलों की मार्गणा-गवेषणा की। फल खाए। नारियलों की मार्गणा-गवेषणा की। नारियल फोड़े। नारियल के तेल से एक दूसरे के शरीर पर मालिश की। पुष्करिणी में उतरे। जल-स्नान किया। पुष्करिणी से बाहर आए। पृथ्वी-शिला पट्ट पर बैठे। बैठकर आश्वस्त-विश्वस्त हुए। प्रवर सुखासन में बैठ गए। चम्पानगरी, माता-पिता से अनुमति लेना, लवण-समुद्र को तैरना, तूफानी हवाओं का संमूर्छन, नौका की व्यापत्ति, फलक-खण्ड को पाना, रत्न-द्वीप पर उतरना इत्यादि घटनाओं का बार-बार अनुचिन्तन करते हुए वे भान-हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए, आर्त्तध्यान में डूबे हुए चिन्तामग्न हो रहे थे। रयणदीवदेवया-पदं १६. तए णं सा रयणदीवदेवया ते मार्गदिय-दारए ओहिणा आभोएइ, असि-खेडग-वग्ग-हत्था सत्तट्ठतलप्पमाणं उड्ढं वेहासं उप्पयइ, उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए वीईक्यमाणी-वीईवयमाणी जेणेव मागंदिय-दारया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आसुरत्ता ते मागंदिय-दारए खर-फरुस-निठुर-वयणे एवं वयासी--हंभो मागंदिय-दारया! जइणं तुन्भे मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरह, तो भे अस्थि जीवियं । अहण्णं तब्भे मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणा नो विहरह, तो भे इमेणं नीलुप्पल-गवलगुलिय - अयसिकुसुमप्पगासेणं खुरधारेणं असिणा रत्तगंडमंसुयाई माउआहिं उवसोहियाइं तालफलाणि व सीसाई एगते एडेमि॥ रत्नद्वीपदेवता-पद १६. उस रत्नद्वीपदेवी ने उन माकन्दिक-पुत्रों को अवधिज्ञान से देखा। तलवार और ढ़ाल से व्यग्र हाथों वाली वह सात-आठ हस्त-तल प्रमाण ऊपर आकाश में उछली। उछलकर उस उत्कृष्ट यावत् देवगति से चलती-चलती जहां माकन्दिक-पुत्र थे, वहां आयी। वहां आकर क्रोध से तमतमाती हुई खर, परुष और निष्ठुर शब्दों से उन माकन्दिक पुत्रों से इस प्रकार बोली--हे माकन्दिक-पुत्रो ! यदि तुम लोग मेरे साथ विपुल भोगार्ह भोगों को भोगते हुए रहते हो तो तुम्हारा जीवन है। यदि मेरे साथ विपुल भोगार्ह भोगों को भोगते हुए नहीं रहते हो, तो मैं इस नीलोत्पल, भैंसे के सींग और अतसी पुष्प के समान प्रभा और तेज धार वाली तलवार से तुम्हारे रक्ताभ कपोल, दाढ़ी और मूछों से उपशोभित मस्तकों को काटकर तालवृक्ष के फल की भांति एकान्त में फेंक दूंगी। १७. तए णं ते मागंदिय-दारगा रयणदीवदेवयाए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म भीया करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी--जण्णं देवाणुप्पिया वइस्संति तस्स आणाउववाय-वयण-निदेसे चिट्ठिस्सामो॥ १७. उस रत्नद्वीपदेवी के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर भयभीत हुए उन माकन्दिक पुत्रों ने जुड़ी हुई, सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिया जिसके लिए कहेगी हम उसी की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में रहेंगे। १८. तए णं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय-दारए गेण्हइ, जेणेव पासायवडेंसए तेणेव उवागच्छइ, असुभपोग्गलावहारं करेइ, सुभपोग्गल-पक्खेवं करेइ, तओ पच्छा तेहिं सद्धिं विउलाइंभोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ, कल्लाकल्लिंच अमयफलाई उवणेइ॥ १८. रत्नद्वीपदेवी ने उन माकन्दिक पुत्रों को (साथ) लिया। जहां श्रेष्ठ प्रासाद था, वहां आयी। अशुभ पुद्गलों का अपहार किया। शुभ पुद्गलों का प्रक्षेप किया। तत्पश्चात् उनके साथ विपुल भोगार्ह भोगों को भोगती हुई विहार करने लगी और प्रतिदिन उन्हें अमृतफल लाकर देने लगी। रयणदीवदेवयाए मागंदिय-पुत्ताणं निद्देस-पर्द १९. तए णं सा रयणदीवदेवया सक्कवयण-संदेसेणं सुट्ठिएणं रत्नद्वीपदेवी का माकन्दिक-पुत्रों को निर्देश-पद १९. शक्र के सन्देश वचन के अनुसार लवणसमुद्र के अधिपति सुस्थित देव Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : सूत्र १९-२० २३० लवणाहिवइणा लवणसमुद्दे तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेयव्वे त्ति जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कयवरं वा असुइ पूइयं दुरभिगंधमचोक्खं, तं सव्वं आहुणिय-आहुणिय तिसत्तखुत्तो एगते एडेयव्वं ति कटु निउत्ता। नायाधम्मकहाओ ने उस रत्नद्वीपदेवी को एक विशेष कार्य के लिए नियुक्त किया--तुम्हें इक्कीस बार लवण-समुद्र के चक्कर लगाने हैं, वहां जो कुछ घास, पात, काठ, कचरा, अशुचि, पीव और दुर्गन्ध पूर्ण खराब पदार्थ हो, उसे इक्कीस बार उठा उठाकर एकान्त में फेंकना है। २०. तए णं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय-दारए एवं वयासी--एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! सक्कवयण-संदेसेणं सुट्टिएणं लवणाहिवइणा तं चेव जाव निउत्ता। तं जाव अहं देवाणुप्पिया! लवणसमुद्दे तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कयवरं वा असुइ पूइयं दुरभिगंधमचोक्खं, तं सव्वं आहुणियआहुणिय तिसत्तखुत्तो एगते एडेमि ताव तुब्भे इहेव पासायवडेंसए सुहंसुहेणं अभिरममाणा चिट्ठह । जइ णं तुम्भे एयंसि अंतरंसि उब्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे पुरत्थिमिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह । तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा, तं जहा--पाउसे य वासारत्ते य। २०. उस रत्नद्वीपदेवी ने उन माकन्दिक-पुत्रों से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शक के सन्देश वचन के अनुसार लवण-समुद्र के अधिपति सुस्थित देव ने मुझे एक विशेष कार्य के लिए नियुक्त किया है। अत: देवानुप्रियो! जब तक मैं इक्कीस बार लवण-समुद्र का चक्कर लगाकर वहां जो कुछ घास, पात, काठ, कचरा, अशुचि, पीव और दुर्गन्ध पूर्ण खराब पदार्थ हैं, उसे इक्कीस बार उठा-उठाकर एकान्त में फेंककर वापस आऊं, तब तक तुम यहीं श्रेष्ठ प्रासाद में सुखपूर्वक रमण करते रहो। यदि तुम इस अन्तराल में उद्विग्न, उत्सुक, उत्प्लुत (भयभीत) हो जाओ तो पूर्व वाले वन-खण्ड में चले जाना। वहां दो ऋतुएं सदा उपलब्ध रहती हैं जैसे--प्रावृट् और वर्षा ।' गाहा-- तत्थ उ-- कंदल-सिलिंध-दंतो, निउर-वरपुप्फपीवरकरो। कुडयज्जुण-नीव-सुरभिदाणो, पाउसउऊ गयवरो साहीणो।। तत्थ य-- सुरगोवमणि-विचित्तो, दद्द्वरकुलरसिय-उज्झररवो। बरहिणवंद-परिणद्धसिहरो, वासारत्तउऊ पव्वओ साहीणो||| गाथा-- १. वहां कन्दल और सिलिन्ध्र रूप दांतों वाला प्रवर पुष्पों से लदे निकुर वृक्ष रूप शुण्डादण्ड वाला और कुटज, अर्जुन एवं कदम्ब वृक्षों के फूलों की सुरभि रूप मद जल वाला, पावस ऋतु रूप प्रवर गज विद्यमान है। २. वहां इन्द्रगोप रूप मणियों से विचित्र, मेढ़कों के टर-टर ध्वनि रूप झरनों के कलरव और मयूर समूह सेवित वृक्ष रूप शिखरों वाला वह वर्षा ऋतु रूप पर्वत विद्यमान है। देवानुप्रियो! वहां तुम बहुत-सी वापियों यावत् सरोवर से संलग्न सरपंक्तियों में और बहुत से आलिगृहों, मालिगृहों यावत् कुसुमगृहों में सुखपूर्वक अभिरमण करते रहना । यदि तुम वहां भी उद्विग्न, उत्सुक, उत्प्लुत हो जाओ तो तुम उत्तर वाले वन-खण्ड में चले जाना। वहां दो ऋतुएं सदा विद्यमान हैं, जैसे--शरद और हेमन्त। तत्थ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! बहूसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु य बहूसु आलीघरएसु य मालीघरएसु य जाव कुसुमघरएसु य सुहंसुहेणं अभिरममाणा अभिरममाणा विहरिज्जाह । जइणं तुब्भे तत्थ वि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे उत्तरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह । तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा, तं जहा--सरदो य हेमंतो य। गाहा-- तत्थ उ-- सण-सत्तिवण्ण-कउहो, नीलुप्पल-पउम-नलिण-सिंगो। सारस-चक्काय-रवियघोसो, सरयउऊ गोवई साहीणो।।३।। तत्थ य-- सियकुंद-धवलजोण्हो, कुसुमिय-लोद्धवणसंड-मंडलतलो। तुसार-दगधार-पीवरकरो, हेमंतउऊ ससी सया साहीणो।।४॥ गाथा-- १. वहां सन और सप्तवर्ण रूप ककुद वाला, नीलोत्पल, पद्म और नलिन रूप सींगों वाला और सारस एवं चक्रवाक के शब्द रूप घोष वाला शरद् ऋतु रूप वृषभ विद्यमान है। २. वहां श्वेत कुन्द-पुष्प रूप धवल ज्योत्स्ना वाला, कुसुमित लोध्र-वन-खण्ड-रूप मण्डल वाला और तुषार, जलधार रूप पुष्ट किरणों वाला हेमन्त ऋतु रूप चन्द्रमा सदा विद्यमान है। तत्थ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! बहूसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु देवानुप्रियो! वहां तुम बहुत-सी वापियों यावत् सरोवर से संलग्न Jain Education Intemational Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २३१ नवम अध्ययन : सूत्र २०-२१ य बहूसु आलीघरएसु य मालीघरएसु य जाव कुसुमघरएसु य सरपंक्तियों में और बहुत से आलिगृहों, मालिगृहों यावत् कुसुमगृहों में सुहंसहेणं अभिरममाणा-अभिरममाणा विहरिज्जाह । जइ णं तुब्भे सुखपूर्वक अभिरमण करते रहना। यदि तुम वहां भी उद्विग्न, उत्सुक, तत्थ वि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे उत्प्लुत हो जाओ तो तुम पश्चिम वाले वनखण्ड में चले जाना। वहां अवरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह । तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा तं दो ऋतुएं सदा विद्यमान हैं, जैसे--वसन्त और ग्रीष्म । जहा--वसंते य गिम्हे य। गाहा-- गाथा-- तत्थ उ-- १. वहां सहकार रूप सुन्दर हार वाला, किंशुक, कर्णिकार और अशोक सहकार-चारुहारो, किंसुय-कण्णियारासोगमउडो। (वृक्ष) रूप मुकुट वाला एवं समुन्नत तिलक और बकुल (वृक्ष) रूप ऊसियतिलग-बकुलायवत्तो, वसंतउऊ नरवई साहीणो।५।। छत्र वाला बसंत रूप राजा विद्यमान है। तत्थ य-- २. वहां गुलाब और शिरीष के पुष्प रूप जल वाला, मल्लिका और पाडल-सिरीस-सलिलो, मल्लिया-वासंतिय-धवलवेलो। वसन्तिका लता रूप उज्ज्वल बेला वाला और शीतल, सुवासित पवन सीयलसुरभि-निल-मगरचरिओ, गिम्हउऊ सागरो साहीणो।६।। रूप मकर-संचार वाला ग्रीष्म ऋतु रूप सागर विद्यमान है। तत्थ णं बहूसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु य बहूसु आलीघरएसु य मालीघरएसु य जाव कुसुमघरएसु य सुहंसुहेणं अभिरममाणा-अभिरममाणा विहरेज्जाह। जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! तत्थ वि उब्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तओ तुम्भे जेणेव पासायवडेंसए तेणेव उवागच्छेज्जाह मम पडिवालेमाणा-पडिवालेमाणा चिट्ठज्जाह, मा णं तुब्भे दक्खिणिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह । तत्थ णं महं एगे उग्गविसे चंडविसे घोरविसे अइकाए महाकाए मसि-महिस-मूसा-कालए नयणविसरोसपण्णे अंजणपुंज-नियरप्पगासे रत्तच्छे जमल-जुयलचंचल-चलंतजीहे धरणितल-वेणिभूए उक्कड-फुड-कुडिलजडुल-कक्खड-वियड-फडाडोव-करणदच्छे लोहागर-धम्ममाणधमधमेंतघोसे अणागलिय-चंडतिव्वरोसे समुहिय-तुरिय-चवलं धमते दिट्ठीविसे सप्पे परिवसइ । मा णं तुब्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ--ते मागंदिय-दारए दोच्चंपि तच्चपि एवं वदति, वदित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता ताए उक्किट्ठाए देवगईए लवणसमुदं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेउं पयत्ता यावि होत्था॥ वहां तुम बहुत सी वापियों यावत् सरोवर से संलग्न सर-पंक्तियों में और बहुत से आलिगृहों, मालिगृहों यावत् कुसुमगृहों में सुखपूर्वक अभिरमण करते रहना। देवानुप्रियो! यदि तुम वहां भी उद्विग्न उत्सुक, उत्प्लुत हो जाओ तो तुम जहां श्रेष्ठ प्रासाद है, वहां चले जाना और मेरी प्रतीक्षा करते रहना, लेकिन-तुम दक्षिण दिशा वाले वन-खण्ड में मत जाना। वहां एक महान दृष्टिविष सर्प रहता है। वह उग्रविष, चण्डविष, घोर-विष, अतिकाय, महाकाय, स्याही, महिष और मूषा (स्वर्ण को तपाने वाला भाजन) जैसा काला, विष और रोष से परिपूर्ण आंखों वाला, अंजन पुज्ज के निकर जैसी प्रभा वाला, रक्त-लोचन, अपनी दो जिह्वाओं को चपलतापूर्वक एक साथ भीतर बाहर ले जाने वाला, धरणि-तल की वेणी जैसा, उत्कट, स्फुट, कुटिल, जटिल, कर्कश और विकट फटाटोप करने में दक्ष, भट्टी में तपते हुए लोहे की भांति धमधमायमान, दुर्निवार, चण्ड और तीव्र रोष वाला और कुत्ते के भौंकने जैसा त्वरित, चपल शब्द करने वाला है। अत: कहीं तुम्हारे शरीर की व्यापत्ति न हो जाए--उसनेमाकन्दिक-पुत्रों को दूसरी बार, तीसरी बार भी इस प्रकार कहा। ऐसा कहकर वैक्रिय-समुद्घात से समवहत हुई। समवहत होकर उस उत्कृष्ट देवगति से इक्कीस बार लवण-समुद्र के चक्कर लगाने में प्रवृत्त हो गई। मादियपुत्ताणं वणसंडगमण-पदं २१. तए णं ते मागंदिय-दारया तओ मुहुत्तंतरस्स पासायवडेंसए सई वा रइं वा घिई वा अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! रयणदीव-देवया अम्हे एवं वयासी--एवं खलु अहं सक्कवयण-सदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा निउत्ता जाव मा णं तुम्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ । तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! पुरथिमिल्लं वणसंडं गमित्तए-अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव पुरथिमिल्ले वणसडे तेणेव उवागच्छंति । तत्थ माकन्दिक-पुत्रों का वनखण्ड गमन-पद २१. मुहूर्त भर के बाद ही वे माकन्दिक-पुत्र जब उस श्रेष्ठ प्रासाद में स्मृति, रति और धृति को उपलब्ध नहीं हुए, तो वे एक दूसरे से इस प्रकार कहने लगें--देवानुप्रिय! रत्नद्वीप देवी ने हमें इस प्रकार कहा था-शक के संदेश-वचन के अनुसार लवणद्वीप के अधिपति सुस्थित देव ने मुझे एक विशेष कार्य के लिए नियुक्त किया है, यावत् कहीं तुम्हारे शरीर की व्यापत्ति न हो जाए। अत: देवानुप्रिय! हमारे लिए उचित है हम पूर्व दिशा वाले वनखण्ड में जाएं। उन्होंने परस्पर Jain Education Intemational Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : सूत्र २१-२६ २३२ णं वावीसु यजाव आलीघरएसु य जाव सुहंसुहेणं अभिरममाणाअभिरममाणा विहरति । नायाधम्मकहाओ इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर जहां पूर्व दिशा वाला वनखण्ड था वहां आए। वहां आकर वापियों में यावत् आलिगृहों में यावत् सुखपूर्वक अभिरमण करते हुए विहार करने लगे। २२. तए णं ते मागंदिय-दारगा तत्थ वि सई वा रई वा धिई वा अलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले वणसडे तेणेव उवागच्छति । तत्थ णं वावीसु य जाव आलीघरएस य सुहंसुहेणं अभिरममाणाअभिरममाणा विहरंति।। २२. वे माकन्दिक-पुत्र वहां भी जब स्मृति, रति और धति को उपलब्ध नहीं हुए तो वे जहां उत्तर दिशा वाला वन-खण्ड था वहां गए। वहां जाकर वापियों में यावत् आलिगृहों में सुखपूर्वक अभिरमण करते हुए विहार करने लगे। २३. तए णं ते मागंदिय-दारगा तत्थ वि सई वा रई वा घिई वा अलभमाणा जेणेव पच्चस्थिमिल्ले वणसडे तेणेव उवागच्छति । तत्थ णं वावीसु य जाव आलीघरएस य सुहंसुहेणं अभिरममाणाअभिरममाणा विहरति॥ २३. वे माकन्दिक-पुत्र वहां भी जब स्मृति, रति और धृति को उपलब्ध नहीं हुए, तो वे जहां पश्चिम दिशा वाला वनखण्ड था वहां गए। वहां जाकर वापियों में यावत् आलिगृहों में सुखपूर्वक अभिरमण करते हुए विहार करने लगे। २४. तए णं ते मागंदिय-दारगा तत्थ वि सई वा रई वा धिई वा अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे रयणदीवदेवया एवं वयासी--एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! सक्कवयण-संदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा निउत्ता जाव मा णं तुब्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ । तं भवियव्वं एत्य कारणेणं । तं सेयं खलु अम्हं दक्खिणिल्लं वणसंडं गमित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव दक्खिणिल्ले वणसडे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तओ णं गंधे निद्धाइ, से जहानामए--अहिमडे इ वा जाव अणिद्वतराए चेव।। २४. वे माकन्दिक पुत्र वहां भी जब स्मृति, रति और धृति को उपलब्ध नहीं हुए, तो उन्होंने एक दूसरे से इस प्रकार कहा--रत्नद्वीप देवी ने हमें इस प्रकार कहा था--देवानुप्रियो! शक्र के संदेश वचन के अनुसार लवणसमुद्र के अधिपति सुस्थित देव ने मुझे एक विशेष कार्य के लिए नियुक्त किया है। यावत् कहीं तुम्हारे शरीर की व्यापत्ति न हो जाए। तो यहां कोई कारण होना चाहिए। अत: हमारे लिए उचित है, हम दक्षिण दिशा वाले वनखण्ड में जाएं। उन्होंने परस्पर इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर जहां दक्षिण दिशा वाला वनखण्ड था, वहां जाने का संकल्प किया। वहां मृत सर्प जैसी दुर्गन्ध फूटने लगी, यावत् वह गन्ध उससे भी अनिष्टतर थी। २५. तए णं ते मागंदिय-दारगा तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सएहि-सएहिं उत्तरिज्जेहिं आसाइं पिहेंति, पिहेत्ता जेणेव दक्खिणिल्ले वणसडे तेणेव उवागया। तत्थ णं महं एगं आघयणं पासति--अट्ठियरासि-सय-संकुलं भीम-दरिसणिज्ज । एगंच तत्य सूलाइयं पुरिसं कलुणाई कट्ठाई विस्सराइंकूवमाणं पासंति, भीया तत्था तसिया उब्विग्गा संजायभया जेणेव से सूलाइए पुरिसे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं सूलाइयं पुरिसं एवं वयासी--एस णं देवाणुप्पिया! कस्साघयणे? तुमंच णं के कओ वा इहं हव्वमागए? केण वा इमेयारूवं आवयं पाविए? २५. उस अशुभ गंध से अभिभूत होकर उन माकन्दिक-पुत्रों ने अपने-अपने उत्तरीय वस्त्रों से मुंह ढक लिए। मुंह ढककर वे जहां दक्षिण दिशा वाला वनखण्ड था वहां आए। वहां आकर एक महान वधस्थान को देखा। वह हड्डियों के सैकड़ों ढेरों से संकुल और देखने में भीम था। वहां उन्होंने शूली पर चढ़े हुए एक पुरुष को देखा। वह पुरुष करुण, कष्टकर और विरूप स्वर से क्रन्दन कर रहा था। उसे देख वे भीत, त्रस्त, तृषित, उद्विग्न और भयाक्रान्त होकर, जहां शूली पर चढ़ा हुआ पुरुष था, वहां आए। वहां आकर शूली पर चढ़े हुए पुरुष से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यह वधस्थान किसका है? तुम कौन हो? यहां कहां से आए हो? और तुम्हें इस प्रकार की विपदा में किसने डाला? २६. तए णं से सूलाइए पुरिसे ते मागंदिय-दारगे एवं वयासी--एस णं देवाणुप्पिया! रयणदीवदेवयाए आघयणे । अहं णं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ कागदए आसवाणियए विपुलं पणियभंडमायाए पोयवहणेणं लवणसमुदं ओयाए। तएणं अहं पोयवहण-विवत्तीए निब्बुड-भंडसारे एग फलगखंडं आसाएमि। २६. शूली पर चढ़ा हुआ वह पुरुष उन माकन्दिक-पुत्रों से इस प्रकार बोला--देवानुप्रियो! यह वध-स्थान रत्नद्वीपदेवी का है। देवानुप्रियो! मैं जम्बूद्वीपद्वीप भारतवर्ष और काकन्दी नगरी का अश्व-वणिक् (घोड़ों का व्यापारी) हूँ। मैं वहां से विपुल पण्य, क्रयाणक लेकर पोत-वहन से लवण-समुद्र में उतरा था। पोत-वहन के भग्न हो जाने Jain Education Intemational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २३३ तएणं अहं ओवुज्झमाणे-ओवुज्झमाणे रयणदीवंतेणं संवूढे । तए णं सा रयणदीवदेवया ममं पासइ, पासित्ता ममं गेण्हइ, गेण्हित्ता मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणी विहरइ । तए णं सा रयणदीवदेवया अण्णया कयाइ अहालहुसगसि अवराहसि परिकुविया समाणी ममं एयारूवं आवयं पावेइ । तंन नज्जइ णं देवाणुप्पिया! तब्भं पि इमेसिं सरीरगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ? नवम अध्ययन : सूत्र २६-२९ और माल के डूब जाने पर मैं एक फलक-खण्ड को प्राप्त हुआ और उसके सहारे तैरता-तैरता मैं रत्नद्वीप के तट पर पहुंचा। रत्नद्वीपदेवी ने मुझे देखा। देखकर मुझे अपने साथ लिया और मेरे साथ विपुल भोगार्ह भोगों को भोगती हुई विहार करने लगी। किसी समय मुझसे छोटा सा अपराध हो जाने पर परिकुपित हुई रत्नद्वीपदेवी ने मुझे इस प्रकार की विपदा मे डाल दिया। ___पता नहीं, देवानुप्रियो! तुम्हारे भी इन शरीरों पर क्या आपदा आएगी? २७. तए णं ते मागंदिय-दारगा तस्स सूलाइगस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म बलियतरं भीया तत्था तसिया उब्विग्गा संजायभया सूलाइयं पुरिसं एवं वयासी--कहण्णं देवाणप्पिया! अम्हे रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थिं नित्थरेज्जामो? २७, वे माकन्दिक-पुत्र शूली पर चढ़े हुए पुरुष के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर अत्यधिक भीत, त्रस्त, तृषित, उद्विग्न और भयाक्रान्त हो शूली पर चढ़े हुए पुरुष से इस प्रकार बोले--देवानुप्रिय! हम रत्नद्वीपदेवी के हाथ से कैसे निकलें? वाया और पूर्णिमा है। वह शैलक बत होने पर २८. तए णं से सूलाइए पुरिसे ते मागंदिय-दारगे एवं क्यासी--एस णं देवाणुप्पिया! पुरथिमिल्ले वणसडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नाम आसरूवधारी जक्खे परिवसइ । तए णं से सेलए जक्खे चाउद्दसट्ठमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु आगयसमए पत्तसमए महया-महया सद्देणं एवं वदइ--कं तारयामि? कं पालयामि? तं गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! पुरथिमिल्लं वणसंडं सेलगस्स जक्खस्स महरिहं पुप्फच्चणियं करेह, करेत्ता जन्नुपायवडिया पंजलिउडा विणएणं पज्जुवासमाणा विहरह । जाहे णं से सेलए जक्खे आगयसमए पत्तसमए एवं वएज्जा--कं तारयामि? कं पालयामि? ताहे तुब्भे एवं वदह-- अम्हे तारयाहि अम्हे पालयाहि। सेलए भे जक्खे परं रयणदीवदेवयाए हत्याओ साहत्थिं नित्यारेज्जा। अण्णहा भेन याणामि इमेसिं सरीरगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ? २८. वह शूलि पर चढ़ा हुआ पुरुष उन माकन्दिक-पुत्रों से इस प्रकार बोला--देवानुप्रियो! पूर्व दिशावाले वनखण्ड में शैलकयक्ष का यक्षायतन है। वहां अश्वरूपधारी शैलक नाम का यक्ष रहता है। वह शैलक यक्ष चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा का समय निकट या उपस्थित होने पर ऊंचे-ऊंचे स्वर से इस प्रकार कहता है--किसको तारूं? किसकी रक्षा करूं? इसलिए देवानुप्रियो! तुम पूर्व दिशावाले वन-खण्ड में जाओ। वहां शैलक यक्ष की महान् अर्हता वाली पुष्प-पूजा करो। फिर घुटनों के बल बैठ, यक्ष के चरणों में मस्तक रख, प्राञ्जलिपुट हो, विनयपूर्वक उसकी पर्युपासना करो। जब समय निकट होने या उपलब्ध होने पर शैलक यक्ष यह कहे कि--किसको तारूं? किसकी रक्षा करूं? तब तुम इस प्रकार कहना--हमें तारो। हमारी रक्षा करो। __ वह शैलक यक्ष निश्चित ही तुमको रत्नद्वीपदेवी के हाथों से बचा लेगा। अन्यथा न जाने तुम्हारे इन शरीरों पर क्या आपदा आएगी? सेलगजक्ख-पदं शैलक यक्ष-पद २९. तए णं ते मागंदिय-दारगा तस्स सूलाइयस्स पुरिसस्स अंतिए रिसम्म तिा २९. वे माकन्दिक पुत्र उस शूली पर चढ़े हुए पुरुष से यह अर्थ सुनकर, एयमढे सोच्चा निसम्म सिग्घं चंडं चवलं तुरियं वेइयं जेणेव । अवधारण कर, शीघ्र, चण्ड, चपल, त्वरित और वेगपूर्ण गति से जहां पुरथिमिल्ले वणसडे जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति, पूर्व दिशा वाला वन-खण्ड था, जहां पुष्करिणी थी वहां आए। आकर उवागच्छित्ता पोक्खरिणिं ओगाति, ओगाहेत्ता जलमज्जणं करेंति, पुष्करिणी में उतरे, उतरकर जलमज्जन किया। जलमज्जन कर वहां करेता जाइं तत्थ उप्पलाइं जाव ताई गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव जो उत्पल यावत् जो भी शत-पत्र, सहस्रपत्र थे, उन्हें लिया। लेकर वे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता जहां शैलक यक्ष का यक्षायतन था, वहां आए। वहां आकर शैलक यक्ष आलोए पणामं करेंति, करेत्ता महरिहं पुप्फच्चणियं करेंति, करेत्ता को देखते ही प्रणाम किया। प्रणाम कर महान अर्हता वाली पुष्पपूजा जन्नुपायवडिया सुस्सूसमाणा नमसमाणा पज्जुवासंति।। की। पुष्पपूजा कर घुटनों के बल बैठ, शुश्रूषा करते हुए नमन की मुद्रा में पर्युपासना करने लगे। Jain Education Intemational Education International Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ नायाधम्मकहाओ नवम अध्ययन : सूत्र ३०-३७ ३०. तए णं से सेलए जक्खे आगयसमए पत्तसमए एवं वयासी--कं तारयामि? कं पालयामि? ३०. वह शैलक यक्ष समय के निकट और उपस्थित होने पर इस प्रकार बोला--किसको तारूं? किसकी रक्षा करूं? ३१. तए णं ते मागंदिय-दारगा उट्ठाए उद्वेति, उद्वेत्ता करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--अम्हे तारयाहि अम्हे पालयाहि ।। ३१. वे माकन्दिकपूत्र स्फूर्ति के साथ उठे। उठकर सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा--हमें तारो। हमारी रक्षा करो। ३२. तए णं से सेलए जक्खे ते मागंदिय-दारए एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! तुब्भं मए सद्धिं लवणसमुई मज्झमज्झेणं वीईवयमाणाणं सा रयणदीवदेवया पावा चंडा रुद्दा खुद्दा साहसिया बहहिं खरएहि य मउएहि य अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहिं उवसग्गं करेहिइ । तं जए णं तुब्भे देवाणुप्पिया! रयणदीवदेवयाए एयमढे आढाह वा परियाणह वा अवयक्खह वा तो भे अहं पट्ठाओ विहुणामि । अह णं तुन्भे रयणदीवदेवयाए एयमद्वं नो आढाह नो परियाणह नो अवयक्खह तो भे रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थिं नित्थारेमि ।। ३२. वह शैलक यक्ष उन माकन्दिकपुत्रों से इस प्रकार बोला--देवानुप्रियो! जब तुम मेरे साथ लवण-समुद्र के बीचों-बीच से होकर चलोगे, तब वह दुष्ट, चण्ड, रौद्र, क्षुद्र, साहसिक रत्नद्वीपदेवी नाना पकार के कठोर, कोमल, अनुकूल, प्रतिकूल, कामोत्पादक, करुणा-जनक उपसर्गों (वचनों) से उपसर्ग करेगी। देवानुप्रियो! यदि तुम रत्नद्वीप देवी के इस अर्थ को आदर दोगे, उसकी ओर ध्यान दोगे या उसकी ओर देखोगे तो मैं तुम्हें अपनी पीठ से नीचे पटक दूंगा। इसके विपरीत यदि तुम रत्नद्वीपदेवी के अर्थ को आदर नहीं दोगे, उसकी ओर ध्यान नहीं दोगे तथा उसकी ओर नहीं देखोगे तो मैं रत्नद्वीपदेवी के हाथों से तुम्हारा निस्तार कर दूंगा। ३३. तए णं ते मागंदिय-दारगा सेलगं जक्खं एवं वयासी--जंणं ३३. वे माकन्दिक-पत्र शैलक यक्ष से इस प्रकार बोले--देवानप्रिय! जिसके देवाणुप्पिया वइस्संति तस्स णं (आणा?) उववाय-वयण-निद्देसे लिए कहेंगे, हम उसी की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में रहेंगे। चिट्ठिस्सामो॥ ३४. तए णं से सेलए जक्खे उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता संखेज्जाइंजोयणाइंदंड निस्सिरइ, दोच्चंपि वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता एगं महं आसरूवं विउव्वइ, विउवित्ता मागंदिय-दारए एवं वयासी--हं भो मागंदिय-दारया! आरुहह णं देवाणुप्पिया! मम पटुंसि ।। ३४. वह शैलक-यक्ष ईशान कोण में गया। वहां जाकर वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुआ। समवहत होकर संख्यात योजन का एक दण्ड निर्मित किया, यावत् दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुआ। समवहत होकर एक महान अश्वरूप की विक्रिया की। विक्रिया कर माकन्दिक पुत्रों से इस प्रकार कहा--माकन्दिक-पुत्रो! देवानुप्रियो! मेरी पीठ पर आरूढ़ हो जाओ। ३५. तए णं ते मागंदिय-दारया हट्ठा सेलगस्स जक्खस्स पणाम करेंति, करेत्ता सेलगस्स पढे दुरूढा॥ ३५. माकन्दिक-पुत्रों ने हर्षित होकर शैलक यक्ष को प्रणाम किया। प्रणाम कर वे शैलक की पीठ पर आरूढ़ हो गए। ३६. तए णं से सेलए ते मागंदिय-दारए पट्टे दुरुढे जाणित्ता सत्तद्वतलप्पमाणमेत्ताई उड्ढं वेहासं उप्पयइ, उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए दिव्वाए देवगईए लवणसमुदं मझमझेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव चंपा नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए।। ३६. वह शैलक उन माकन्दिक-पुत्रों को अपनी पीठ पर आरूढ़ हआ जानकर सात-आठ हस्ततल-प्रमाण ऊपर आकाश में उछला। उछलकर उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, दिव्य देवगति से लवणसमुद्र के बीचोंबीच से गुजरता हुआ जहां जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और चम्पानगरी थी, वहां जाने का संकल्प किया। रयणदीवदेवया-उवसग्ग-पदं रत्नद्वीपदेवी का उपसर्ग-पद ३७. तए णं सा रयणदीवदेवया लवणसमुदं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टइ, ३७. रत्नद्वीपदेवी ने इक्कीस बार लवणसमुद्र के चक्कर लगाए। वहां जं तत्थ तणं वा जाव एगंते एडेइ, जेणेव पासायवडेंसए तेणेव घास यावत् जो कुछ था उसे उठा-उठाकर एकान्त में फेंका। जहां Jain Education Intemational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २३५ नवम अध्ययन : सूत्र ३७-४० उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते मागंदिय-दारए पासायवडेंसए श्रेष्ठ प्रासाद था वहां आयी। आकर उस श्रेष्ठ प्रासाद में माकन्दिक-पुत्रों अपासमाणी जेणेव पुरथिमिल्ले वणसडे तेणेव उवागच्छइ जाव को न देख वह जहां पूर्व दिशा वाला वनखण्ड था वहां आयी यावत् सव्वओ समंता मग्गण-गवसणं करेइ, करेत्ता तेसिं मार्गदिय-दारगाणं सब ओर मार्गणा-गवेषणा की। मार्गणा-गवेषणा करने के उपरान्त भी कत्थइ सुई वा खुइं वा पउत्तिं वा अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले, जब उन माकन्दिक-पुत्रों का कहीं भी कोई सुराख, चिह्न अथवा एवं चेव पच्चत्थिमिल्ले विजाव अपासमाणी ओहिं पउंजइ, ते वृत्तान्त नहीं मिला, तब वह जहां उत्तर दिशा वाला वनखण्ड था, वहां मागंदिय-दारए सेलएणं सद्धिं लवणसमुदं मझमझेणं वीईवयमाणे आयी। इसी प्रकार पश्चिम दिशा वाले वनखण्ड में आयी यावत् वे पासइ, पासित्ता आसुरुत्ता असिखेडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता सत्तट्ठ दिखाई नहीं दिए तब अवधिज्ञान का प्रयोग किया। उन माकन्दिक-पुत्रों तलप्पमाणमेत्ताई उड्ढं वेहासं उप्पयइ, उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए को शैलक के साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जाते हुए देखा, देवगईए जेणेव मागंदिय-दारया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देखकर क्रोध से तमतमा उठी। उसने तलवार और ढाल ली। उसे एवं वयासी--हंभो मागंदिय-दारगा! अपत्थियपत्थया! किण्णं तुन्भे लेकर सात-आठ हस्ततल-प्रमाण ऊपर आकाश में उछली। उछलकर जाणह ममं विप्पजहाय सेलएणं जक्खेणं सद्धिं लवणसमुदं उस उत्कृष्ट देवगति से जहां वे माकन्दिक-पुत्र थे, वहां आयी। वहां मझमझेणं वीईवयमाणा? तं एवमवि गए। जइणं तुब्भे मम आकर उसने इस प्रकार कहा-अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले अवयक्खह तो भे अस्थि जीवियं । अह णं नावयक्खह तो भे इमेणं माकन्दिक पुत्रो! क्या तुम समझते हो कि मुझे छोड़कर शैलक यक्ष के नीलुप्पल गवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासेणं खुरधारेणं असिणा साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जा सकोगे? यदि तुम मेरी ओर रत्तगंडमंसुयाई माउआहिं उवसोहियाई तालफलाणि व सीसाई देखते हो तो तुम्हारा जीवन है। यदि तुम मेरी ओर नहीं देखते हो एगते एडेमि। तो इस नीलोत्पल भैंसे के सींग और अतसी पुष्प के समान प्रभा और तेज धार वाली तलवार से तुम्हारे रक्ताभ कपोल, दाढ़ी और मूछों से उपशोभित मस्तकों को काटकर तालवृक्ष के फल की भांति एकान्त में फेंक दूंगी। ३८. तए णं ते मागंदिय-दारगा रयणदीवदेवयाए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म अभीया अतत्था अणुव्विग्गा अक्खुभिया असंभंता रयणदीवदेवयाए एयमढें नो आढति नो परियाणंति नो अवयखंति अणाढायमाणा अपरियाणमाणा अणवयक्खमाणा सेलएणं जक्खेणं सद्धिं लवणसमुदं मझमज्झेणं वीईवयंति॥ ३८. रत्नद्वीप देवी के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर अभीत, अत्रस्त, अनुद्विग्न, अक्षुब्ध और असम्भ्रान्त उन माकन्दिक-पुत्रों ने रत्नद्वीपदेवी के इस अर्थ को न आदर दिया, न उसकी ओर ध्यान दिया और न उसकी ओर देखा। वे उसको आदर न देते हुए, उसकी ओर ध्यान न देते हुए तथा उसकी ओर न देखते हुए शैलक यक्ष के साथ लवण-समुद्र के बीचोंबीच जा रहे थे। ३९. तए णं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय-दारए जाहे नो संचाएइ लोमेहिं उवसग्गेहिं चालित्तए वा लोभित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे महुरेहिं सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहिं उवसग्गेउं पयत्ता यावि होत्था--हंभो मार्गदिय-दारगा! जइणं तुब्भेहि देवाणुप्पिया! मए सद्धिं हसियाणि य रमियाणि य ललियाणि य कीलियाणि य हिंडियाणि य मोहियाणि य ताहे णं तुब्भे सव्वाइं अगणेमाणा ममं विप्पजहाय सेलएणं सद्धिं लवणसमुदं मझमझेणं वीईवयह।। ३९, वह रत्नद्वीपदेवी बहुत सारे प्रतिकूल उपसर्गों से उन माकन्दिक-पुत्रों को विचलित, लुब्ध, क्षुब्ध और विपरिणामित करने में समर्थ नहीं हुई, तब वह उन्हें मधुर, कामोत्तेजक और करुण उपसर्गों (वचनों) से उपसर्ग देने का प्रयत्न करने लगी--हे माकन्दिक-पुत्रो! देवानुप्रियो! यदि तुमने मेरे साथ हास्य, रति, लीला, क्रीड़ा, परिभ्रमण और मोहन क्रियाएं की हैं, तो भी तुम उन सबको उपेक्षित कर मुझे छोड़, शैलक-यक्ष के साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच जा रहे हो। ४०.तएणंसा रयणदीवदेवया जिणरक्खियस्स मणं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता एवं वयासी--निच्चंपियणं अहं जिणपालियस्स अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा। निच्चं मम जिणपालिए अणिढे अकते अप्पिए अमणुण्णे अमणामे। निच्चंपि य णं अहं जिणरक्खियस्स इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा।निच्चपियणं ४०. उस रत्नद्वीपदेवी ने जिनरक्षित के मन को अवधिज्ञान से देखा। देखकर वह इस प्रकार बोली--जिनपालित को मैं सदा अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और मन को न लुभाने वाली रही हूं। जिनपालित भी मुझे सदा अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और मन को न लुभाने वाला रहा है। Jain Education Intemational Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन सूत्र ४०-४४ २३६ ममं जिणरक्खिए इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मणामे । जइ णं ममं जिणपालिए रोयमाणि कंदमाणि सोयमाणिं तिप्पमाणिं विलवमाणिं नाव्यक्खड़, किणं तुमपि जिगरक्खिया! ममं रोपमाणिं कंदमाणिं सोयमाणिं तिप्पमाणिं विलवमाणिं नावयक्खसि ? जिणरक्खियविवत्ति-पदं ४१. तए गं से जिणरक्लिए चलमणे तेणेव भूसणरवेणं कण्णसुहमणहरेणं तेहि य सम्पणय-सरल-महुर भणिएहिं संजायविउण राए रयणदीवत्स देवपाए तीसे सुंदरपण जहण-वणकर-चरण- नयण - लावण्ण-रूव- जोवण्णसिरिं च दिव्वं सरभसउपगूहियाई विब्बोय - विलसियाणि य विहसिय सफडक्खदिट्ठनिस्ससिय-मलिय उवलतिय थिय-गमण पणयखिज्जियपसाइयाणि य सरमाणे रागमोहियमती अवसे कम्मवसगए अवयक्खइ मग्गतो सविलियं ।। ४२. तए णं जिणरक्खियं समुप्पण्णकलुणभावं मच्चु-गलत्थल्लगोल्लियमई अवयक्स्वंतं तहेव जवस्त्रे उ सेलए जाणिऊण सणियं-सणियं उव्विहइ नियगपट्ठाहि विगयसद्धे ।। ४३. लए गं सा रणदीवदेवया निस्संसा कलुगं जिगरक्खियं सकलुसा सेलगपद्वाहि ओवयंतं दास! मजोसि त्ति जपमाणी अपत्तं सागरसलिलं गेण्हिय वाहाहिं आरसंत उद्धं उवह अंबरतते ओवयमाणं च मंडलग्गेण परिच्छित्ता नीलुप्यत गवलगुलिय अयसिकुसुमप्यगासेण असिवरेण खंडालडिं करेड़, करेता तत्येव विलवाणं तस्स य सरस - वहियस्स घेत्तूणं अंगमंगाई सरुहिराई उक्खित्तबलिं चउद्दिसिं करेइ, सा पंजली पहिट्ठा ॥ ४४. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अतिए मुडे भक्त्तिा अगाराज अणगारिवं पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसयइ पत्थ नायाधम्मकहाओ मैं निरक्षित को सदा इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मन को लुभाने वाली रही हूँ जिनरक्षित भी मुझे सदा इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मन को लुभाने वाला रहा है। 1 यदि निपालित मुझको रोती, कलपती, शोक करती, आंसू बहाती और विलपती हुई को नहीं देखता है तो क्या जिनरक्षित तुम भी मुझको रोती, कलपती, शोक करती, आंसू बहाती और वितपती हुई को नहीं देखोगे? जिनरक्षित का विपत्ति-पद ४१. जिनरक्षित का मन विचलित हो गया। उस कर्णसुखद, मनोहर, आभूषणों की शंकार से एवं उन प्रणय भरे सरल, मधुर वचनों से उसका कामराग द्विगुणित हो गया। उस रत्नद्वीपदेवी के सुन्दर स्तन, जथन, मुख, हाथ, पैर, नयन, लावण्य, रूप और दिव्य यौवनश्री, स्नेहिल आलिंगन, विभ्रम, विलास, मुस्कान, कटाक्ष- युक्त दृष्टिक्षेप निःश्वास, मर्दन, क्रीड़ा, बैठना, हंस गति से चंक्रमण करना तथा प्रणय के समय होने वाली नाराजगी और प्रसन्नता इन सबको याद करते-करते उसकी मति राग से मोहित हो गयी। विवश और कर्मों के अधीन हो उसने संकोच के साथ पीछे देखा । ४२. जिनरक्षित के मन में करुणा उत्पन्न हो गई। मृत्यु गले में बांह डालकर उसकी मति को प्रेरित कर रही थी, वह रत्नद्वीपदेवी की ओर देख रहा था--यह सब कुछ जानकर शैलक-यक्ष का उस पर से विश्वास उठ गया और उसने उसे अपनी पीठ से धीरे-धीरे ऊपर उछाल दिया। ४३. जिनरक्षित शैलकयक्ष की पीठ से गिरने के साथ-साथ करुण विलाप करने लगा। यह देख नृशंस और कलुष हृदय वाली रत्नद्वीप देवी बोली-- हे दास! अब तूं मर गया। यह कहकर उसने समुद्र के जल में गिरने से पहले ही अपनी बाहों में जकड़ लिया। जिनरक्षित चिल्लाने लगा। रत्नद्वीपदेवी ने उसे आकाश की ओर उछाला। आकाश से गिरने लगा तब उसे तलवार की नोक से बींधकर नीलोत्पल, भैंसे के सींग और अतसी पुष्प के समान प्रभा वाली तलवार से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। टुकड़े करते समय वह विलाप कर रहा था । उसको देवी ने रस लेते हुए मार डाला । उसके रुधिर-सने अंगोपांग को लेकर बलि के रूप में चारों दिशाओं में उछाला और वह अञ्जलिबद्ध होकर हर्षातिरेक का अनुभव करने लगी। - ४४. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य - उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो, पुनरपि मनुष्य-सम्बन्धी काम भोगों का आश्रय लेता है, प्रार्थना, - Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २३७ नवम अध्ययन : सूत्र ४४-५० पीहेइ अभिलसइ, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं स्पृहा और अभिलाषा करता है, वह इस जीवन में भी बहुत श्रमणों, समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य हीलणिज्जे जीव बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय चाउरतं संसारकतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ--जहा व होता है यावत् वह चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार में पुन: पुन: से जिणरक्खिए। अनुपरिवर्तन करेगा। जैसे--जिनरक्षित। गाहा गाथाछलिओ अवयक्खंतो, निरवयक्खो गओ अविग्घेणं। १. भोगों की ओर पीछे मुड़कर देखने वाला जिनरक्षित छला गया। भोगों तम्हा पवयणसारे, निरावयक्खेण भवियव्वं ।।१॥ को पीछे मुड़कर न देखने वाला जिनपालित निर्विघ्न ईप्सित स्थान भोगे अवयक्खंता, पडंति संसारसागरे घोरे। में पहुंच गया। अत: प्रवचन-सार (चारित्र) को प्राप्त कर परित्यक्त भोगेहिं निरवयक्खा, तरंति संसारकतारं ।।२।। काम-भोगों से निरपेक्ष रहें। २. भोगों को पीछे मुड़कर देखने वाले घोर संसार-सागर में गिरते हैं और भोगों को पीछे मुड़कर न देखने वाले संसार-कान्तार का पार पा जाते जिणपालियस्स चंपागमण-पदं ४५. तए णं सा रयणदीवदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेव उवागच्छइ, बहूहिं अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खरएहि य मउएहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य य उवसग्गेहिं जाहे नो संचाइए चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे संता तंता परितंता निविण्णा समाणा जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। जिनपालित का चम्पागमन-पद ४५. वह रत्नद्वीपदेवी जहां जिनपालित था, वहां आयी। बहुत सारे अनुकूल, प्रतिकूल, कठोर, मधुर, कामोत्तेजक करुण उपसर्गों (वचनों) से जब वह उसको विचलित, क्षुब्ध और विपरिणामित नहीं कर सकी, तो वह श्रान्त, क्लान्त, परिक्लान्त और उदास होकर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में चली गयी। ४६. तए णं से सेलए जक्खे जिणपालिएण सद्धिं लवणसमुदं मझमझेणं वीईवयइ, वीईवइत्ता जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चपाए नयरीए अगुज्जार्णसि जिणपालियं पट्ठाओ ओयारेइ, ओयारेत्ता एवं वयासी--एस णं देवाणुप्पिया! चंपा नयरी दीसइ त्ति कटु जिणपालियं पुच्छइ, जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। ४६. वह शैलक-यक्ष जिनपालित के साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर गया। जाकर जहां चम्पा नगरी थी वहां आया। आकर चम्पानगरी के प्रधान उद्यान में जिनपालित को अपनी पीठ से उतारा। उतारकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यह चम्पानगरी दिखाई दे रही है--ऐसा कहकर उसने जिनपालित से पूछा और उसके पश्चात् जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। ४७. तए णं से जिणपालिए चंपं नयरिं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता अम्मापिऊणं रोयमाणे कंदमाणे सोयमाणे तिप्पमाणे विलवमाणे जिणरक्खिय-वावत्तिं निवेदेइ ।। ४७. जिनपालित ने चम्पानगरी में प्रवेश किया। प्रवेश कर जहां अपना घर था, जहां माता-पिता थे, वहां आया। वहां आकर उसने रोते, कलपते, शोक करते, आंसू बहाते और विलपते हुए माता-पिता से जिनरक्षित के मरण की बात कही। ४८. तए णं जिणपालिए अम्मापियरो (य?) मित्त-नाइ-नियग- सयण-संबंधि परियणेण सद्धिं रोयमाणा कंदमाणा सोयमाणा तिप्पमाणा विलवमाणा बहूई लोइयाइं मयकिच्चाई करेंति, करेत्ता कालेणं विगयसोया जाया। ४८. जिनपालित और उसके माता-पिता ने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ रोते, कलपते, शोक करते, आंसू बहाते और विलपते हुए बहुत सारे लौकिक मृतक कार्य किए और यथासमय वे शोक-मुक्त हो गए। ४९. तए णं जिणपालियं अण्णया कयाइंसुहासणवरगयं अम्मापियरो एवं वयासी--कहण्णं पुत्ता! जिणरक्खिए कालगए? ४९. किसी समय प्रवर सुखासन में बैठे हुए जिनपालित से माता-पिता ने इस प्रकार कहा--पुत्र! जिनरक्षित कैसे काल को प्राप्त हुआ? ५०. तएणं से जिणपालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तारंच कालियवाय- ५०. जिनपालित ने लवण-समुद्र को तैरना, कालिक वात का उठना, नौका Jain Education Intemational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : सूत्र ५०-५४ २३८ संमुच्छणं च पोयवहण-विवत्तिं च फलहखंड-आसायणं च रयणदीकुत्तारं च रयणदीवदेवया-गिण्हणं च भोगविभूइंच रयणदी- वदेवया-आघयणं च सूलाइयपुरिसदरिसणं च सेलगजक्खआरुहण च रयणदीवदेवया-उवसग्गं च जिणरक्खियवावत्तिं च लवणसमुद्दउत्तरणं च चंपागमणं च सेलगजक्खआपुच्छणं च जहाभूयमवितहमसंदिद्धं परिकहेइ।। नायाधम्मकहाओ का डूबना, फलक खण्ड की प्राप्ति, रत्नद्वीप पर उतरना, रत्नद्वीपदेवी द्वारा ग्रहण (उसकी) भोग-विभूति, रत्नद्वीपदेवी का वध-स्थान शूली पर चढ़े पुरुष का दर्शन, (अश्व-रूपधारी) शैलकयक्ष पर आरोहण, रत्नद्वीपदेवी का उपसर्ग, जिनरक्षित की मौत, लवणसमुद्र को पार करना, चम्पा पहुंचना और शैलक यक्ष द्वारा पूछना--ये सारी बातें यथाभूत अवितथ और असंदिग्ध रूप से माता-पिता को सुना दी। ५१. तए णं से जिणपालिए अप्पसोग (जाए?) जाव' विपुलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ।। ५१. जिनपालित शोक-मुक्त हुआ यावत् वह विपुल भोगार्ह भोगों को भोगता हुआ विहार करने लगा। ५२. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे। जिणपालिए धम्म सोच्चा पव्वइए। एगारसंगवी। मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेता, सर्टि भत्ताई अणसणाए छेएत्ता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववण्णे। दो सागरोवमाई ठिई। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ।। ५२. उस काल और उस समय 'श्रमण भगवान महावीर' समवसृत हुए। धर्म सुनकर जिनपालित प्रव्रजित हुआ। ग्यारह अंगों का ज्ञाता बना। मासिक संलेखना में स्वयं का समर्पण और अनशन-काल में साठ भक्तों का परित्याग कर, मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर वह सौधर्म कल्प में देवरूप में उपपन्न हुआ। उसकी स्थिति दो सागरोपम है। वह महाविदेह वर्ष में सिद्ध होगा यावत् सब दु:खों का अन्त करेगा। ५३. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे माणुस्सए कामभोगे नो पुणरवि आसयइ पत्थयइ पीहेइ, सेणं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जेजाव चाउरतं संसारकतारं वीईवइस्सइ-जहा व से जिणपालिए। ५३. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो भी निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होकर पुनरपि मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों का आश्रय नहीं लेता। उनकी प्रार्थना और स्पृहा नहीं करता, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय होता है, यावत् वह चार अन्त वाले संसार-रूपी कान्तार का पार पा लेगा। जैसे--जिनपालित। निक्खेव-पदं ५४. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं नवमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। --त्ति बेमि। निक्षेप-पद५४. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता, तीर्थकर यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के नौंवे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। --ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा जह रयणदीवदेवी, तह एत्थं अविरई महापावा। जह लाहत्थी वणिया, तह सुहकामा इहं जीवा।।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा१. जैसे रत्नद्वीपदेवी है, वैसे यहां (अध्यात्म प्रसंग में) महान पाप की हेतुभूत अविरति है। जैसे लाभार्थी वणिक् है वैसे यहां सुखार्थी जीव है। जह तेहिं भीएहिं, दिट्ठो आघायमंडले पुरिसो। संसारदुक्खभीया, पासंति तहेव धम्मकहं ।।२।। जह तेण तेसि कहिया, देवी दुक्खाण कारणं घोरं। तत्तो चिय नित्थारो, सेलगजक्खाउ नन्नत्तो।।३।। २. जैसे उन भयभीत व्यापारियों ने वध-स्थान में एक पुरुष को देखा, वैसे ___ ही संसार के दुःखों से भीत प्राणी धर्मकथी को देखते हैं। ३. जैसे उस पुरुष ने उन व्यापारियों से कहा--देवी घोर दुःखों का कारण है और उसके हाथों से शैलकयक्ष द्वारा ही निस्तार हो सकता है, दूसरे से नहीं। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ तह धम्मकही भव्वाण, साहए दिट्ठअविरइसहावा। सयलदुहहेउभूया, विसया विरयंति जीवा णं ।।४।। २३९ नवम अध्ययन : सूत्र ५४ ४. वैसे ही अविरति के स्वभाव को साक्षात् देखने वाले धर्मकथी कहते हैं--विषय समस्त दुःखों के हेतुभूत हैं--यह बताकर वे भव्य-जीवों को उन से विरत करते हैं। सत्ताण दुहत्ताणं, सरणं चरणं जिणिंदपण्णत्तं । आणंदरूव-निव्वाण-साहणं तह य दंसेइ।।५।। ५. जिनेन्द्र प्रज्ञप्त चारित्र ही दुःखार्त्त प्राणियों की शरण और आनंद स्वरूप निर्वाण का साधन है, ऐसा वे निदेशन करते हैं। जह तेसिं तरियन्वो, रुद्दसमुद्दो तहेह संसारो। जह तेसि सगिहगमणं, निव्वाणगमो तहा एत्थ ।।६।। ६. जैसे उन व्यापारियों का लक्ष्य है--रुद्र समुद्र को पार करना और अपने घर पहुंचना, वैसे ही यहां (अध्यात्म साधक का) लक्ष्य है--संसार-समुद्र का पार पाना, निर्वाण को प्राप्त करना। जह सेलगपट्ठाओ, भट्ठो देवीए मोहियमई उ। सावय-सहस्सपउरम्मि, सायरे पाविओ निहणं ।।७।। ७-८. जैसे देवी के प्रति मोहित-मति वाला जिनरक्षित शैलक की पीठ से भ्रष्ट होकर, हजारों हिंस्र-जन्तुओं से संकुल समुद्र में निधन को प्राप्त हुआ वैसे ही अविरति से भ्रमित व्यक्ति चारित्र से भ्रष्ट हो दुःख रूप हिंस्र जन्तुओं से आकीर्ण हो जाता है, वह अनन्त-काल तक अगाध संसार-सागर में गिरता रहता है। तह अविरईई नडिओ, चरणचुओ दुक्खसावयाइण्णो। निवडइ अगाह-संसार-सागरं अणंतमविकालं ।।। जह देवीए अक्खोहो, पत्तो सट्ठाण-जीवियसुहाई। तह चरणठिओ साहू, अक्खोहो जाइ निव्वाणं IR || ९. जैसे देवी से क्षुब्ध न होने वाला जिनपालित अपने स्थान पर पहुंच गया और जीवन के सुखों को उपलब्ध हुआ, वैसे ही चरण में स्थित मुनि (विषयानुराग से) क्षुब्ध न हो निर्वाण को प्राप्त करता है। Jain Education Intemational Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र-२० १. सूत्रकार ने छह ऋतुओं के छह रूपक बतलाए हैं-- orm प्रावृट् वर्षा शरद् ऋतु | मास रूपक आषाढ़, श्रावण | हाथी (गजवर) भाद्रपद, आश्विन | पर्वत कार्तिक, मृगशिर वृषभ हेमन्त | पोष, माघ चन्द्रमा बसन्त फाल्गुन, चैत्र । नरपति ग्रीष्म | वैशाख, ज्येष्ठ सागर Jain Education Intemational Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन द्रव्य की अपेक्षा जीव अनन्त हैं। प्रदेश परिमाण की दृष्टि से प्रत्येक जीव के असंख्य प्रदेश होते हैं। इन दोनों दृष्टियों से जीव न घटते हैं और न बढ़ते हैं फिर भी प्राचीनकाल से जीव की वृद्धि और हानि का प्रश्न पूछा जाता रहा है। प्रस्तुत का प्रारम्भ भी गौतम के इसी प्रश्न से हुआ है।' गुणों की अपेक्षा जीव की वृद्धि भी होती है और हानि भी चन्द्रमा के रूपक से साधनागत हानि एवं वृद्धि का निरूपण किया गया है इसलिए प्रस्तुत अध्ययन का नाम चन्दिमा (चन्द्रमा) रखा गया। व्यक्ति के उत्थान और पतन में कर्म के उदय और परिस्थिति दोनों की ही अपनी भूमिका है। वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि ने व्यक्ति के अपकर्ष के चार कारण बतलाए हैं- १. कुशील व्यक्तियों का संसर्ग । २. सद्गुरु की उपासना का अभाव । ३. प्रतिदिन प्रमाद का आसेवन। आमुख ४. चारित्र मोहनीय कर्म का उदय । २ उपर्युक्त कारणों से साधक के क्षान्ति आदि गुणों की क्रमशः हानि होती जाती है फलतः वह कृष्णपक्ष के चन्द्रमा के समान घटता चला जाता है जो साधक कुशील संसर्ग, प्रमाद आदि का परिवर्जन करता है उसके क्षान्ति आदि गुणों का विकास होता है। फलत: विकास को प्राप्त करता हुआ शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान पूर्णता को प्राप्त कर लेता है । 1 साधनागत ह्रास - विकास का निरूपण करने के लिए प्रस्तुत रूपक अत्यन्त सरस एवं समीचीन है, विषयवस्तु को सम्यक् प्रकार से स्पष्ट करने वाला है। १. नायाधम्मकहाओ १/१०/२ २. ज्ञातावृत्ति, पत्र- १७८ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं अज्झयणं दसवां अध्ययन : चंदिमा : चंद्रमा उक्खेव पदं १. जइ णं भंते! समणं भगवया महावीरेणं नवमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, दसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? परिहायमाण-पदं २. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गोयमो एवं क्यासी कहण्णं भंते! जीवा वदंति वा हायंति वा? गोयमा ! से जहानामए बहुलपक्खस्स पाडिवय- चंदे पुण्णिमा - चंदं पणिहाय होणे करणेणं हीणे सोम्माए हीणे निद्धयाए ही कंतीए एवं दित्तीए जुत्तीए छायाए पभाए ओयाए लेखाए ही मंडलेणं । -- तयाणंतरं च णं बीयाचदे पाडिवय- चंदं पणिहाय हीणतराए वण्णेणं जाव हीणतराए मंडलेणं । तयानंतरं च णं तयाचंदे जीवाचंदं पणिहाय होणतराए वण्णेणं जाव हीणतराए मंडलेणं । एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे परिहायमाणे जाव अमावसाचंदे चाउहसिचंदं पणिहाय नडे वण्णेणं जाव नट्टे मंडलेणं ।। ३. एवामेव समणाउसो! जो अहं निग्धो वा निग्गंधी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणमारिय पव्वइ समाणे होणे खंतीए एवं--मुत्तीए गुत्तीए अज्जवेणं मद्दवेणं लाघवेणं सच्चेणं तवेणं चियाए अकिंचनयाए होणे बंभचेरवासेणं । तयाणंतरं च णं हीणतराए खंतीए जाव हीणतराए बंभचेरवासेणं । एवं खलु एएणं कमेणं परिहायमाणे परिहायमाणे नट्टे खंतीए जाव नट्टे बंभचेरवालेणं ।। परिवड्ढमाण-पदं ४. से जहा वा सुक्कपक्खस्स पाडिवय- चंदे अमावसा - चंदं पणिहाय अहिए वण्णेणं अहिए सोम्माए अहिए निद्धयाए अहिए कंतीए एवं दित्तीए जुत्तीए छायाए पभाए ओपाए तेसाए अहिए मंडलेगं । तयानंतरं च णं बीयाचदे पाडिक्यचंदं पणिहाय अहियपराए वणेणं जाव अहिययराए मंडलेणं । उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के नौवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते ! उन्होंने ज्ञाता के दसवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? परिहायमान पद २. जम्बू उस काल और उस समय राजगृह नगर में गौतम ने इस प्रकार कहा भन्ते! जीव जैसे बढ़ते हैं, कैसे हीन होते हैं? -- गौतम ! जैसे कृष्णपक्ष की प्रतिपदा का चन्द्र पूर्णिमा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से हीन, सौम्यभाव से हीन, स्निग्धता से हीन और कान्ति से हीन होता है, इसी प्रकार दीप्ति, राति छाया, प्रभा, ओज और लेश्या से हीन होता है। मण्डल से हीन होता है। तदनन्तर द्वितीया का चन्द्र प्रतिपदा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से हीनतर यावत् मण्डल से हीनतर होता है। तदनन्तर तृतीया का चन्द्र द्वितीया के चन्द की अपेक्षा वर्ण से हीनतर यावत् मण्डल से हीनतर होता है। इस क्रम से हीन होते-होते यावत् अमावस्या का चंन्द्र चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से नष्ट यावत् मण्डल से नष्ट हो जाता है। ३. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्य अथवा निर्द्वन्धी आचार्य - उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अनगार से अनगारता में प्रव्रजित होकर क्षान्ति से हीन होता है। इसी प्रकार मुक्ति, गुप्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, तप, त्याग और अकिंचनता से हीन होता है। ब्रह्मचर्य वास से हीन होता है। तदनन्तर वह क्षान्ति से हीनतर होता है, यावत् ब्रह्मचर्य वास से हीनतर होता है। इस क्रम से हीन होते-होते क्षान्ति से नष्ट हो जाता है यावत् ब्रह्मचर्यवास से नष्ट हो जाता है। परिवर्द्धमान पद 1 ४. जैसे शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का चन्द्र अमावस्या के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से अधिक, सौम्यभाव से अधिक, स्निग्धता से अधिक और कान्ति से अधिक होता है, इसी प्रकार दीप्ति, द्युति, छाया, प्रभा, ओज और लेश्या से अधिक प्रशस्त होता है। मण्डल से अधिक प्रशस्त होता है । तदनन्तर द्वितीया का चन्द्र प्रतिपदा के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २४३ एवं खलु एएणं कमेणं परिवड्ढेमाणे- परिवड्ढेमाणे जाव पुण्णमाचदे चाउरिचंदं पणिहाय पडिपुण्णे वण्णेणं जाव पडिपुणे मंडलेगं ॥ ५. एवामेव समणाउसो! जो अहं निग्गंयो वा निग्गंधी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुडे भक्तिा अगाराओ अणगारिवं पव्वइए समाणे अहिए खंतीए एवं मुत्तीए गुत्तीए अज्जवेणं मद्दवेगं लाघवेणं सच्चेणं तवेणं चियाए अकिंचणयाए अहिए बंभचेरवासेणं । तयानंतर च णं अहिययराए खंतीए जाव अहिययराए बंभचेरवासेणं । एवं खलु एएणं कमेणं परिवड्ढेमाणे- परिवड्ढेमाणे पडिपुणे तीए जाव परिपुण्णे वंभचेरवासेणं । एवं खलु जीवा वर्द्धति वा हायति वा ।। निक्खेव पदं ६. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स नायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते । --for afir 11 वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा जह चंदो तह साहू, राहुवरोहो जहा तह पमाओ । वण्णागुणगणो जह, तहा स्वमाइसमणधम्मो ॥१ ॥ पुण्णोवि पइदिणं जह, हायंतो सव्वहा ससी नस्से । तह पुण्णचरित्तो वि हु, कुसीलसंसग्गिमाईहिं ॥ २ ॥ जणिय माओ साहू, हायंतो पददिणं खमाईहिं । जावइ नद्वचरितो, ततो दुवस्वा पावेइ ॥ ३ ॥ गुणो वि हु होउ, सुहगुरुजोगाइ - जणियसंवेगो । पुण्णसरूवो जायइ, विवद्धमाणो ससहरोव्व ॥ ४ ॥ दसवां अध्ययन : सूत्र ४-६ से अधिक यावत् मण्डल से अधिक प्रशस्त होता है । इस क्रम से बढ़ते-बढ़ते...... यावत् पूर्णिमा का चन्द्र चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से प्रतिपूर्ण यावत् मण्डल से प्रतिपूर्ण होता है। ५. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्बन्ध अथवा निर्मान्धी आचार्य - उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में ि होकर क्षान्ति से अधिक होता है, इसी प्रकार मुक्ति, गुप्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, तप, त्याग और अकिंचनता से अधिक होता है, ब्रह्मवास से अधिक होता है। तदनन्तर वह क्षान्ति से अधिकतर होता है, यावत् ब्रह्मचर्यवास से अधिकतर होता है । इस क्रम से बढ़ते-बढ़ते वह शान्ति से प्रतिपूर्ण होता है, यावत् ब्रह्मचर्यवास से प्रतिपूर्ण होता है। इस प्रकार जीव बढ़ते हैं यावत् हीन होते हैं । निक्षेप-पद ६. जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के दसवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। -- ऐसा मैं कहता हूँ । वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा १. चन्द्रमा के समान साधु हैं। राहु के अवरोध के समान प्रमाद है। वर्ण आदि गुण-समूह के समान क्षमा आदि भ्रमण धर्म है। २. जैसे प्रतिपूर्ण चन्द्रमा भी प्रतिदिन हीन होते-होते सर्वथा नष्ट हो जाता है, वैसे ही चरित्र से प्रतिपूर्ण मुनि भी कुशील संसर्ग आदि कारणों से नष्ट हो जाता है। ३. प्रमादी साधु प्रतिदिन क्षमा आदि गुणों से हीन होता हुआ चरित्र से नष्ट हो जाता है और उससे दुःख आदि को प्राप्त करता है। ४. गुणों से हीन होते हुए भी सद्गुरु के योग से संवेग उत्पन्न हो जाने पर वह विवर्द्धमान चन्द्रमा की भांति पूर्ण स्वरूप वाला हो जाता है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र २ १. युति (जुत्तीए) 'जुत्ती' का अर्थ है - - द्युति । वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या 'युक्ति' रूपान्तरण मानकर की है । युक्ति का अर्थ है -- योग । हीनतर चन्द्रमा अपने मण्डल से अल्पतर आकाश-प्रदेशों के साथ ही अभिसम्बद्ध होता है। १. जातावृति पत्र १०८ तीए ति क्या आकाशसंयोगेन सण्डेन हि -त्तिमण्डलेनाल्पतरमाकाशं युज्यते न पुनर्यावत्सम्पूर्णेन । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन का नाम दावद्रव है। समुद्र के तट पर पैदा होने वाले दावद्रव वृक्षों के आधार पर इसका यह नाम दिया गया है । आराधक विराधक का प्रयोग सापेक्ष है स्वीकृत लक्ष्य की साधना करने वाला आराधक और उसकी साधना न करने वाला विराधक होता है। प्रस्तुत अध्ययन का प्रतिपाद्य है मुनि के आराधक और विराधक जीवन का निरूपण आराधना और विराधना को पवन से प्रभावित दावद्रव वृक्ष के उदाहरण द्वारा समझाया गया है। मोक्ष मार्ग की साधना का एक महत्त्वपूर्ण साधन है क्षमा तितिक्षा की भावना सामुदायिक जीवन में अनेक स्थितियों को सहन करना जरूरी होता है। सहिष्णुता साधना की कसौटी है दूसरों को सहन करना सरल है स्वपक्ष को सहन करना बहुत कठिन है। यह एक मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक तथ्य है कि व्यक्ति जिन्हें अपना नहीं मानता उनके कटु वचनों को सहन कर लेता है और जिनको अपना मानता है उनके प्रतिकूल वचनों को सहन नहीं कर सकता। प्रस्तुत अध्ययन में यह सच्चाई बहुत ही सहजता और सरसता के साथ उजागर हुई है। सहिष्णुता के आधार पर मुनि की चार श्रेणियां की गई हैं- १. देश विराधक २. देश आराधक ३. सर्व विराधक ४. सर्व आराधक स्वपक्ष को सहन करता है । स्वपक्ष को सहन नहीं करता । स्वपक्ष को सहन नहीं करता । स्वपक्ष को सहन करता है। वृत्तिकार के अनुसार दावद्रव वृक्षों के समान मुनि है । द्वीप से उठने वाली हवाओं के समान स्वपक्षी - श्रमणों आदि के वचन हैं। सामुद्रिक हवाओं के समान परपक्षी - अन्यतीर्थिकों आदि के वचन हैं और कुसुम आदि की सम्पदा के समान मोक्ष मार्ग की आराधना है। परपक्ष को सहन नहीं करता । परपक्ष को सहन करता है। परपक्ष को सहन नहीं करता । परपक्ष को सहन करता है। प्रस्तुत अध्ययन जितना लघुकाय है उतना ही महत्त्वपूर्ण इसमें दृष्टांत के माध्यम से मुनि के तितिक्षा धर्म का बहुत ही सम्यक् और हृदयग्राही प्रतिपादन किया गया है। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसमं अज्झयणं ग्यारहवां अध्ययन दावद्दवे : दावद्रव उवखेव पदं १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, एक्कारसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पणते? देसविराहय-पदं २. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे गोयमो एवं क्यासी कहणणं भंते! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति ? गोयमा! से जहानामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा नामं रुक्खा पण्णत्ता -- किण्हा जाव निउरंबभूया पत्तिया पुम्फिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणाउवसोभेमाणा चिट्ठति । जया णं दीविच्चगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुफिया फलिया हरियग रेरिज्जमाणा सिरोए अईव उवसोभेमाणाउसोभेमाणा चिट्ठति । अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा परिसाहिय पंडुपत्त- पुष्फ-फला सुक्कस्क्लओ विव मिलायमाणामिलायमाणा चिट्ठति । । ३. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आपरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भविता अगाराओ अणगारिय पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण व सम्मं सहद्द स्वमइ तितिक्खड़ अहियासेड हू उत्थिया बहूणं गिहत्थाणं नो सम्मं सहइ जाव नो अहियासेइ एस णं मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते ।। देसाराहय-पदं ४. समणाउसो जया गं सामुदगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं बहवे दावद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा परिसडिय पंडुपत्त- पुप्फ-फला सुक्करुक्खओ विव मिलायमाणामिलायमाणा चिट्ठति । अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुप्फिया : उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के दसवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते ! उन्होंने ज्ञाता के ग्यारहवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है। देश विराधक पद २. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह नगर में गौतम ने इस प्रकार कहा--भन्ते! जीव आराधक अथवा विराधकर कैसे होते हैं? 1 गौतम! जैसे एक समुद्र तट पर 'दावद्रव' नाम के वृक्ष होते हैं । वे कृष्ण यावत् सघन मेघ पटली के समान पल्लवित पुष्पित, फलित, हरीतिमा से अतिशय आकर्षक और पत्र, पुष्पादि की श्री से अतीव उपशोभित, अतीव उपशोभित होते हैं। जब द्वीप से उत्पन्न होने वाली कुछ पूर्वी हवाएं चलती हैं, पश्चिमी हवाएं चलती हैं, मन्द हवाएं चलती हैं और महावात' उठते है तब बहुत से दावद्रव वृक्ष पल्लवित पुष्मित, पलित, हरीतिमा से आकर्षक और पत्र - पुष्पादि की श्री से अतीव उपशोभित, अतीव उपशोभित होते हैं। कुछ दावद्रव वृक्ष, जो जीर्ण हैं, टूठ हैं, जिनके पत्ते, फूल और फल गिर चुके हैं, पीले पड़ गये हैं, सूखे वृक्षों की भांति ग्लान हो जाते हैं। ३. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो भी निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रति होकर बहुत श्रमणों, बहुत श्रमगियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं सम्यक् सहन करता है, उन्हें सहने में समर्थ होता है, तितिक्षा रखता है और अविचल रहता है तथा बहुत अन्यतीर्थिकों और गृहस्थों को सम्यक् सहन नहीं करता यावत् अविचल नहीं रहता-- ऐसे पुरुष को मैंने देशविराधक कहा है। देश आराधक - पद ४. आयुष्मन् श्रमणो! जब समुद्र से उठने वाली कुछ पूर्वी हवाएं चलती हैं, पश्चिमी हवाएं चलती हैं, मन्द हवाएं चलती हैं, महावात उठते हैं, तब बहुत से दावद्रव वृक्ष जो जीर्ण हैं, ठूंठ है, जिनके पत्ते, फूल और फल गिर चुके हैं या पीले पड़ गये हैं वे सूखे वृक्षों की भाति ग्लान Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २४७ फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा- उवसोभेमाणा चिट्ठति। ग्यारहवां अध्ययन : सूत्र ४-९ हो जाते हैं। कुछ दावद्रव वृक्ष पल्लवित, पुष्पित, फलित, हरीतिमा से आकर्षक और पत्र, पुष्पादि की श्री से अतीव उपशोभित, अतीव उपशोभित रहते हैं। ५. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ, बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य नो सम्मं सहइ जाव नो अहियासेइ--एस णं मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते।। ५. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होकर बहुत से अन्यतीर्थिकों और बहुत से गृहस्थों को सम्यक् सहन करता है, सहने में समर्थ होता है, तितिक्षा रखता है और अविचल रहता है। बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं को सम्यक् सहन नहीं करता यावत् अविचल नहीं रहता--ऐसे पुरुष को मैंने देश आराधक कहा है। सव्वविराहय-पदं ६. समणाउसो! जया णं नो दीविच्चगा नो सामुद्दगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा परिसडिय-पंडूपत्त-पुप्फ-फला सुक्करुक्खओ विव मिलायमाणा-मिलायमाणा चिट्ठति । अप्पेगइया दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुफिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठति ।। सर्व विराधक-पद ६. आयुष्मन् श्रमणो! जब द्वीप से उठने वाली और समुद्र से उठने वाली न कोई पूर्वी हवाएं चलती हैं, न पश्चिमी हवाएं चलती हैं, न मन्द हवाएं चलती हैं, न महावात उठते हैं तब सब दावद्रव वृक्ष जो जीर्ण हैं, ठूठ हैं, जिनके पत्ते, फूल और फल गिर चुके हैं, पीले पड़ गये हैं वे सूखे वृक्षों की भांति ग्लान हो जाते हैं। कुछ दावद्रव वृक्ष जो पल्लवित, पुष्पित, फलित, हरीतिमा से आकर्षक और पत्र, पुष्पादि की श्री से अतीव उपशोभित, अतीव उपशोभित रहते हैं। ७. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय- उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं नो सम्म सहइ जाव नो अहियासेइ--एस णं मए पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते॥ ७. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो भी निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होकर बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों, बहुत श्राविकाओं तथा बहुत अन्यतीर्थिकों और बहुत गृहस्थों को सम्यक् सहन नहीं करता यावत् अविचल नहीं रहता--ऐसे पुरुष को मैंने सर्व विराधक कहा है। सव्वाराहय-पदं ८. समणाउसो! जया णं दीविच्चगा वि सामुद्दगा वि ईसिं पुरेवाया पच्छावाया मंदावाया महावाया वायंति, तया णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया पुष्फिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठति ॥ सर्व आराधक-पद ८. आयुष्मन् श्रमणो! जब द्वीप से उठने वाली एवं समुद्र से उठने वाली दोनों ही प्रकार की कुछ पूर्वी हवाएं चलती हैं, पश्चिमी हवाएं चलती हैं, मन्द हवाएं चलती हैं तथा महावात उठते हैं, तब सभी दावद्रव वृक्ष, पल्लवित, पुष्पित, फलित, हरीतिमा से आकर्षक तथा पत्र, पुष्पादि की श्री से अतीव उपशोभित, अतीव उपशोभित रहते हैं। ९. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं अण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्म ९. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होकर बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों, बहुत श्राविकाओं तथा बहुत अन्यतीर्थिकों और बहुत गृहस्थों को सम्यक् सहन करता Jain Education Intemational Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ग्यारहवां अध्ययन : सूत्र ९-१० २४८ सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ--एस णं मए पुरिसे सव्वआराहए पण्णत्ते । एवं खलु गोयमा! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति ॥ है, सहने में समर्थ होता है, तितिक्षा रखता है और अविचल रहता है--ऐसे पुरुष को मैंने सर्व आराधक कहा है। गौतम! जीव इस प्रकार आराधक अथवा विराधक होते हैं। निक्खेव-पदं १०. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं एक्कारसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। --त्ति बेमि।। निक्षेप-पद १०. जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के ग्यारहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। --ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा १-२. दावद्रव वृक्षों के समान साधु हैं। द्वीप से उठने वाली हवाओं के समान श्रमणों आदि के लिए स्वपक्ष वचन दुःसह-सहना कठिन है। सामुद्रिक हवाओं के समान अन्यतीर्थिकों आदि के कटु-वचन हैं। कुसुम आदि की सम्पदा के समान मोक्ष-मार्ग की आराधना है। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा जह दावद्दव-तरुणो, एवं साहू जहेह दीविच्चा। वाया तह समणा इय, सपक्ख-वयणाई दुसहाई।।१॥ जह सामुद्दय-वाया, तहण्णतित्थाइ-कडुयवयणाई। कुसुमाइं संपया जह, सिवमग्गाराहणा तह उIR ।। जह कुसुमाइ-विणासो, सिवमग्ग-विराहणा तहा णेया। जह दीववायु-जोगे, बहु इड्डी ईसि य अणिड्डी ।।३।। तह साहम्मिय-वयणाण, सहणमाराहणा भवे बहुया। इयराणमसहणे, पुण सिवमग्ग-विराहणा योवा।।४।। जह जलहिवाय-जोगे, थेविड्डी बहुयरा अणिड्डी य। तह परपक्खक्खमणे, आराहणमीसि बहु इयरं ।।५।। जह उभयवाय-विरहे, सव्वा तरुसंपया विणट्ठत्ति। अणिमित्तोभय-मच्छर-रूवेह विराहणा तह य ।।। जह उभयवाय-जोगे, सव्वसमिद्धी वणस्स संजाया। तह उभयवयण-सहणे सिवमग्गाराहणा पुण्णा।७।। ता पुण्णसमणधम्माराहणचित्तो सया महापुण्णो। सव्वेण वि कीरतं, सहेज्ज सव्वं पि पडिकूलं ।।। ३-४. कुसुम आदि के विनाश के समान मोक्ष-मार्ग की विराधना है। जैसे द्वीप की हवा के योग से वन-सम्पदा में अधिक वृद्धि होती है, कम हानि होती है, वैसे ही साधर्मिकों के दुर्वचनों को सहन करना बहुत आराधना है और अन्यतीर्थिकों के दुर्वचनों को सहन न करना मोक्ष-मार्ग की स्वल्प विराधना है। ५. जैसे समुद्री-हवाओं के योग से वन-सम्पदा में कुछ वृद्धि होती है और बहुतर हानि होती है, वैसे ही पर-पक्ष के वचनों को सहन करने और स्व-पक्ष के वचनों को सहन न करने से आराधना कम होती है विराधना अधिक होती है। ६. जैसे द्वीप और समुद्र--दोनों की हवाओं के अभाव में सम्पूर्ण तरु-सम्पदा विनष्ट हो जाती है, वैसे ही स्वपक्ष और परपक्ष दोनों से अकारण ही मत्सर भाव रखने से मोक्ष-मार्ग की सम्पूर्ण विराधना होती है। ७. जैसे दोनों ही प्रकार की हवाओं के योग से वन-सम्पदा सम्पूर्णत: समृद्ध हो जाती है, वैसे ही स्वपक्ष और परपक्ष दोनों के दुर्वचनों को सहन करने से मोक्ष-मार्ग की सम्पूर्ण आराधना होती है। ८. इसीलिए श्रमण-धर्म की पूर्ण आराधना में दत्तचित्त महापुण्यशाली मुनि स्वपक्ष और परपक्ष--दोनों द्वारा किये गये सब प्रकार के प्रतिकूल व्यवहारों को सहन करे। Jain Education Intemational ersonal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र - २ १. आराधक, विराधक (आराहना / विराहगा)। मोक्ष मार्ग के तीन अंग हैं--ज्ञान, दर्शन और चारित्र । इन तीनों की स्वीकृत साधना का अनुपालन करने वाला आराधक और इनका अतिक्रमण करने वाला विराधक कहलाता है।" २. द्वीप से उत्पन्न होने वाली (दीविच्चगा) द्वीप से उठने वाली हवा' वनस्पति जगत के लिए बहुत अनुकूल रहती है। प्रस्तुत सूत्र में उसके चार प्रकार बतलाए गए हैं--पुरेवाया, पच्छावाया, मंदावाया और महावाया। ३. पूर्वी हवा (पुरेवाया) इसका शाब्दिक अर्थ है पूर्वदिशा की हवा, किन्तु वृत्तिकार ने मुख्य अर्थ किया है कुछ स्नेह युक्त पवन, नम हवा । ' -- १. ज्ञातावृत्ति, पत्र - १७९ -- आराधका ज्ञानादिमोक्षमार्गस्य विराधका - अपि तस्यैव । २. वहीदीविच्चाप्या द्वीपसम्भवा । ३. वही -- ईषत् पुरोवाता:-मनाक् सस्नेहवाता इत्यर्थः, पूर्वदिक्-सम्बन्धिनो वा । ४. पश्चिमी हवा (पच्छावाया) वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या दो प्रकार से की है- पथ्यावाता और पश्चात् वाता। सामान्यतः यह हवा वनस्पति के लिए हितकर होती है। राजस्थानी भाषा में पूर्वी और पश्चिमी हवा के लिए क्रमश: पुरवाई और परवाई अथवा पुरवा और परवा शब्दों का प्रयोग होता है। ५. मंद हवा (मंदावाया ) मंद मंद पवन । ६. महावात (महावाया ) महावात का अर्थ है -- उद्दण्डवात । आंधी, तूफान ४. वही पथ्या वाता वनस्पतीनां सामान्येन हिता वायवः पश्चाद्वाता वा । ५. वही - - मन्दा :- शनै: सञ्चारिणः । ६. वही - महावाता: उद्दण्डवाताः । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख अनेकान्त का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है--परिणामवाद । जड़ व चेतन सभी में परिणमन होता है। परिणमन द्रव्य का अनिवार्य अंग है। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण परिणमन अथवा पर्यायान्तर गमन का सिद्धांत स्पष्ट होता है। स्थूल दृष्टि से विचार करें तो इष्ट वर्ण, गंध, रस, स्पर्श का अनिष्ट वर्ण आदि के रूप में तथा अनिष्ट वर्ण आदि का इष्ट वर्ण आदि के रूप में परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तन स्वगत भी होता है और निमित्तों से भी होता है। वह स्वभाव से भी होता है और प्रयत्न से भी होता है। प्रस्तुत अध्ययन में प्रयत्नजन्य परिवर्तन के सिद्धान्त को एक सुन्दर उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है। परिखा का जल वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से अमनोज्ञ था। जिसकी गंध मृत सांप जैसी अथवा उससे भी अधिक अमनोगत थी। सुबुद्धि मंत्री ने प्रक्रिया विशेष के द्वारा उसे मनोज्ञ बना दिया। दुर्गंधयुक्त पानी भी पथ्य, निर्मल, आरोग्यवर्धक और बलवर्धक बन गया। वर्तमान युग में पानी को फिल्टर करने का प्रचलन है। फिल्टर किए गए पानी को स्वास्थ्य के लिए उत्तम माना गया है। प्राचीन काल में इसकी अपनी पूरी विधि थी। प्रस्तुत अध्ययन को उस विधि का निदर्शन माना जा सकता है। वृत्तिकार ने निगमन में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण संकेत दिया है। जिस प्रकार मलिन जल को प्रयोग से निर्मल बनाया जा सकता है, उसी प्रकार गुरु विगुण को गुणवान बना देते हैं। Jain Education Intemational Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्लेव पदं १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं एक्कारसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, बारसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्टे पण्णत्ते ? बारसमं अज्झयणं बारहवां अध्ययन उदगणाए : उदकज्ञात २. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी । पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तू राया । धारिणी देवी । अदीणसत्तू कुमारे जुवराया वि होत्या । सुबुद्धि अमच्चे जाव रज्जघुराचिंतए, समणोवासए || फरिहोदग-पदं ३. तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरत्थिमेणं एगे फरिहोदए यावि होत्या मे सादहिर मंस-पू पडत पोच्चडे मयगकलेवर संछष्णे अमणुण्णे वण्णेणं अमगुण्णे गंधेणं अमणुष्णे रसे अणुणे फासेणं, से जहानामए--अहिमडे इ वा गोमडे इ वा जाव मय कुहिय विणट्ठ किमिण वावण्ण दुरभिगंधे - किमिजालाउले संसत्ते असुइ विगय बीमच्छ दरिसणिज्जे । भवेयारूये सिया? - नो इणट्ठे समट्ठे । एत्तो अणिट्ठतराए चेव अकंततराए चेव अप्पियतराए चैव अमगुण्णतराए चैव अमणामतराए चैव गंधेणं पण्णत्ते ॥ जियसत्तुणा पाणभोयणपसंसा-पदं ४. तए णं से जियसत्तू राया अण्णया कयाइ ण्हाए कयबलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे बहूहिं ईसर जाव सत्यवाहपसिद्धिं भोयणमंडवस भोषणकेलाए सुहासणवरगए विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे एवं च णं विहरइ । जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयते चोक्ले परमसुइभूए तंसि विपुलसि असणपाण- खाइम - साइमंसि जायविम्हए ते बहवे ईसर जाव सत्यवाहपभिइओ एवं क्यासी- अहो णं देवाणुपिया! इमे मणुण्णे असण- पाण- खाइम - साइमे वण्णेणं उववेए गघेणं उववेए रसेणं उबवेए फासेणं उबवे अस्सावणिज्जे विसावणिज्जे 'पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे बिंहणिज्जे सव्विंदियगायपल्हायणिज्जे ।। : उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के ग्यारहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते ! उन्होंने ज्ञाता के बारहवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. जम्बू ! उस काल और उस समय चम्पा नाम की नगरी थी । पूर्णभद्र चैत्य था । जितशत्रु राजा था। धारिणी रानी थी । अदीनशत्रु कुमार युवराज था। सुबुद्धि मंत्री था यावत् वह राज्य धुरा की चिन्ता करने वाला और श्रमणोपासक था । परिखोदक (खाई का पानी) पद ३. उस चम्पा नगरी के बाहर ईशानकोण में एक खाई में जल भरा हुआ था। वह मेद, वसा, रुधिर, मांस और पीव-पटल जैसा सड़ा हुआ, मृत कलेवरों से संच्छन, वर्ण से अमनोश, गन्ध से अमनोज, रस से अमनोश और स्पर्श से अमनोज था जैसे कोई सांप का मृत कलेवर यावत् गो का मृत कलेवर कुथित, विनष्ट, कृमिल, व्यापन्न, दुर्गन्ध पूर्ण, कृमिसमूह से आकीर्ण एवं संसक्त अशुचि, विकृत और देखने में बीभत्स होता है, क्या वह जल भी ऐसा ही है? यह अर्थ समर्थ नहीं है। वह इससे भी अनिष्टतर, अकमनीयतर, अप्रियतर, अमनोज्ञतर और अमनोगततर गन्ध वाला प्रज्ञप्त है। जितशत्रु द्वारा पान भोजन की प्रशंसा-पद ४. किसी समय जितशत्रु राजा ने स्नान, बलिकर्म यावत् अल्पभार और महामूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। वह बहुत-से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के साथ भोजन - मण्डप में भोजन की बेला में प्रवर सुखासन में बैठ विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करता हुआ, विशेष स्वाद लेता हुआ, बांटता हुआ और खाता हुआ विहार करने लगा। भोजनोपरान्त आचमन कर, साफ सुथरा और परम पवित्र होकर, उस विपुल, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से विस्मित होकर वह उन बहुत से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से इस प्रकार बोला- अहो देवानुप्रियो! यह मनोज्ञ अशान, पान, खाद्य और स्वाद्य वर्ण से उपेत, गन्ध से उपेत, रस से उपेत, स्पर्श से उपेत, स्वाद लेने योग्य, विशेष स्वाद लेने योग्य, धातु साम्य करने वाला, अग्नि-दीपन करने वाला, पुष्टिकारक, वीर्य को बढ़ाने वाला, धातुओं को उपचित करने वाला तथा सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २५३ बारहवां अध्ययन : सूत्र ५-११ ५. तए णं ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभिइओ जियसत्तुं रायं एवं बयासी तहेव णं सामी! जण्णं तुन्भे वयह- अहो णं इमे मणुण्णे असण- पाण- खाइम- साइमे वण्णेणं उववेए जाव सव्विंदियगायपल्हाणिज्जे ।। ५. वे बहुत से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि राजा जितशत्रु से इस बोले--स्वामिन्! यह भोजन वैसा ही है, जैसा तुम कह रहे हो । अहो ! यह मनोज्ञ, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य वर्ण से उपेत है... यावत् सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला है। सुबुद्धिस्स उवेहा-पदं ६. तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं बयासी अहो णं देवाप्पिया सुबुद्धि! इमे मणुष्णे असण पाणखाइम साइमे जाव सव्विदियाय पहायनिज्जे ७. तए णं सुबुद्धी जियसत्तुरस रण्णो एयमहं नो आढाइ नो परियाणा तुसिणीए सचिद ८. तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी -- अहो णं देवाप्पिया सुबुद्धि इमे मगुण्णे असण पाणखाइम साइमे जाव सव्विंदियगायपल्हायणिज्जे ।। ९. तए णं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुणा रण्णा दोच्चपि तच्चपि एवं बुत्ते समाणे जिवसत्तुं रामं एवं क्यासीनो खलु सामी! अम्हं एसि मणुस असण- पाण- खाइमं साइमंसि केइ विम्हए । एवं खलु सामी! सुब्भिसद्दा वि पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुब्भिसद्दा वि पोग्गला सुब्भिसद्दत्ताए परिणमति । सुरूवा वि पोगाला दुरूवत्ताए परिणमंति, दुरूवा वि पोग्गला सुरुवताए परिणमति । सुगंधा व पोग्ला दुब्भिगंधत्ताए परिणमंति, दुब्भिगंधावियोगाला सुब्भगंधत्ताए परिणमति । सुरता वि पोग्गला दुरसत्ताए परिणमंति, दुरसा वि पोग्गला सुरसत्ताए परिणमति । सुहफासा वि पोग्गला दुहफासत्ताए परिणमंति, दुहफासा वि पोग्गला सुहफासत्ताए परिणमंति, पओग-वीससा - परिणयावि यणं सामी! पोग्गला पण्णत्ता ।। १०. तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयमठ्ठे नो आढाइ नो परियाणइ तुसिणीए संचिट्ठइ ।। जियसत्तुणा फरिहोदगस्स गरहा-पदं ११. तए णं से जियसत्तू राया अण्णया कयाइ व्हाए आसखंधवरगए महयाभडचडगर- आसवाहिणिआए निजायमाणे तस्स फरीहोदयस्स अदूरसामंतेणं वीईवयइ ।। सुबुद्धि की उपेक्षा-पद ६. राजा जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि से इस प्रकार कहा -- अहो देवानुप्रिय सुबुद्धि! यह मनोज्ञ, अशन, पान, साद्य और स्वाद्य वर्ग से उपेत यावत् सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला है। ७. सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु के इस अर्थ को न आदर दिया, न उसकी ओर ध्यान दिया किन्तु वह मौन रहा । ८. राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि से दूसरी, तीसरी बार भी इस प्रकार कहा -- अहो देवानुप्रिय सुबुद्धि! यह मनोज्ञ, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य वर्ण से उपेत यावत् सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला है। ९. राजा जितशत्रु के दूसरी, तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर अमात्य सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु से इस प्रकार कहा -स्वामिन्! हमें तो इस मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य में कोई विस्मय नहीं होता । स्वामिन्! प्रशस्त शब्द- पुद्गल भी अप्रशस्त शब्दों के रूप में परिणत हो जाते हैं और अप्रशस्त शब्द - पुद्गल भी प्रशस्त शब्दों के रूप में परिणत हो जाते हैं। सुरूप पुद्गल भी कुरूपता में परिणत हो जाते हैं और कुरूप पुद्गल भी सुरूपता में परिणत हो जाते हैं। सुरभिगन्ध- पुद्गल भी दुरभिगन्धता में परिणत हो जाते हैं और दुरभि गन्ध-पुद्गल भी सुरभिगन्धता में परिणत हो जाते हैं। सुरस पुद्गल भी विरसता में परिणत हो जाते हैं और विरस पुद्गल भी सुरसता में परिणत हो जाते हैं। सुखद स्पर्श वाले पुद्गल भी, दु:खद स्पर्श के रूप में परिणत हो जाते हैं और दुःखद स्पर्श वाले पुद्गल भी सुखद स्पर्श के रूप में परिणत हो जाते हैं। स्वामिन्! पुद्गल प्रयत्न परिणत भी हैं और विससा - परिणत भी हैं--ऐसा प्रज्ञप्त है। ' १०. जितशत्रु राजा ने इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना और प्ररूपणा करते हुए सुबुद्धि अमात्य के इस अर्थ को न आदर दिया न उसकी ओर ध्यान दिया किन्तु वह मौन रहा । जितशत्रु द्वारा परिखोदक की गर्हा - पद ११. किसी समय वह जितशत्रु राजा स्नान कर, प्रवर अश्व-स्कन्ध पर आरूढ़ हो, महान सैनिकों की टुकड़ियों के साथ घुड़सवारी के लिए जाता हुआ, उस परिखा के जल के आसपास से होकर गया । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ नायाधम्मकहाओ बारहवां अध्ययन : सूत्र १२-१७ १२. तए णं जियसत्तू राया तस्स फरिहोदगस्स असुभेणं गंधेणं अभिभूए समाणे सएणं उत्तरिज्जगेणं आसगं 'पिहेइ, पिहेत्ता' एगंतं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभियओ एवं वयासी--अहो णं देवाणुप्पिया! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं अमणुण्णे गंघेणं अमणुण्णे रसेणं अमणुण्णे फासेणं, से जहानामए--अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णत्ते॥ १२. जितशत्रु राजा ने परिखा के जल की उस अशुभ गंध से अभिभूत होकर अपने उत्तरीय-वस्त्र से मुँह ढंक लिया। मुँह ढंक कर वह एकान्त में चला गया। एकान्त में जाकर वह बहुत से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से इस प्रकार बोला--अहो देवानुप्रियो! यह परिखा का जल वर्ण से अमनोज्ञ है, गन्ध से अमनोज्ञ है, रस से अमनोज्ञ है और स्पर्श से अमनोज्ञ है--जैसे कोई मृत सांप हो यावत् यह उससे भी अमनोगततर गन्ध वाला है। १३. तए णं ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभियओ एवं वयासी--तहेव णं तं सामी! जंणं तुब्भे वयह--अहोणं इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं अमणुण्णे गंधेणं अमणुण्णे रसेणं अमणुण्णे फासेणं, से जहानामए--अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णत्ते॥ १३. बहुत से ईश्वर यावत् सार्थवाद आदि ने राजा जितशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! यह जल वैसा ही है जैसा तुम कह रहे हो। यह परिखा का जल वर्ण से अमनोज्ञ है, गन्ध से अमनोज्ञ है, रस से अमनोज्ञ है और स्पर्श से अमनोज्ञ है, जैसे कोई मृत सांप हो...यावत् यह उससे भी अमनोगततर गन्ध वाला है। १४. तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी--अहो णं सुबुद्धि! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं अमणुण्णे गंधेणं अमणुण्णे रसेणं अमणुण्णे फासेणं, से जहानामए--अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंघेणं पण्णत्ते॥ १४. राजा जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि से इस प्रकार कहा--अहो सुबुद्धि! यह परिखा का जल वर्ण से अमनोज्ञ है, गन्ध से अमनोज्ञ है, रस से अमनोज्ञ है और स्पर्श से अमनोज्ञ है, जैसे कोई मृत सांप हो...यावत् यह उससे भी अमनोगततर गन्ध वाला है। सुबुद्धिस्स उवेहा-पदं १५. तए णं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुस्स रण्णो एयमढें नो आढाइ नो परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठइ।। सुबुद्धि की उपेक्षा पद १५. सुबुद्धि अमात्य ने राजा जितशत्रु के इस अर्थ को न आदर दिया, न उसकी ओर ध्यान दिया किन्तु वह मौन रहा। १६. तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी--अहो णं सुबुद्धि! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं अमणुण्णे गंधेणं अमणुण्णे रसेणं अमणुण्णे फासेणं, से जहानामए--अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णत्ते॥ १६. जितशत्रु राजा ने दूसरी बार, तीसरी बार भी अमात्य सुबुद्धि से इस प्रकार कहा--अहो सुबुद्धि! यह परिखा का जल वर्ण से अमनोज्ञ है, गन्ध से अमनोज्ञ है, रस से अमनोज्ञ है, स्पर्श से अमनोज्ञ है जैसे कोई मृत सांप हो यावत् यह उससे भी अमनोगततर गन्ध वाला है। १७. तए णं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुणा रण्णा दोच्चंपि तच्चंपि १७. राजा जितशत्रु के दूसरी, तीसरी बार भी ऐसा कहने पर अमात्य एवं वुत्ते समाणे एवं वयासी--नो खलु सामी! अम्हं एयंसि सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! हमें तो इस फरिहोदगंसि केइ विम्हए। एवं खलु सामी! सुब्भिसद्दा वि परिखा के जल में कोई विस्मय नहीं होता। स्वामिन्! प्रशस्त शब्द पुद्गल पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुन्भिसद्दा वि पोग्गला भी अप्रशस्त शब्दों के रूप में परिणत हो जाते हैं और अप्रशस्त शब्द सुन्भिसद्दत्ताए परिणमति । सुरूवा वि पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति, पुद्गल भी प्रशस्त शब्दों के रूप में परिणत हो जाते हैं। सुरूप पुद्गल दुरूवा वि पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमंति । सुब्भिगंधा वि पोग्गला भी कुरूपता में परिणत हो जाते हैं और कुरूप पुद्गल भी सुरूपता में दुन्भिगंधत्ताए परिणमंति, दुन्भिगंधा वि पोग्गला सुन्भिगंधत्ताए परिणत हो जाते हैं। सुरभि गन्ध-पुद्गल भी दुरभिगन्धता में परिणत परिणमंति । सुरसा वि पोग्गला दुरसत्ताए परिणमंति, दुरसा वि हो जाते हैं और दुरभि गन्ध-पुद्गल भी सुरभिगन्धता में परिणत हो जाते पोग्गला सुरसत्ताए परिणमंति । सुहफासा वि पोग्गला दुहफासत्ताए हैं। सुरस पुद्गल भी विरसता में परिणत हो जाते हैं और विरस पुद्गल परिणमंति, दुहफासा वि पोग्गला सुहफासत्ताए परिणमंति। भी सुरसता में परिणत हो जाते हैं। सुखद स्पर्श वाले पुद्गल भी दुःखद पओग-वीससा-परिणया विय णं सामी! पोग्गला पण्णत्ता। स्पर्श के रूप में परिणत हो जाते हैं और दु:खद स्पर्श वाले पुद्गल भी सुखद स्पर्श के रूप में परिणत हो जाते हैं। स्वामिन्! पुद्गल प्रयत्न-परिणत भी हैं और विस्रसा-परिणत भी हैं--ऐसा प्रज्ञप्त है। Jain Education Intemational ducation Intemational For Private & Personal use only For Private & Personal Use On Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ नायाधम्मकहाओ जियसत्तुस्स विरोध-पदं १८. तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी--मा णं तुम देवाणुप्पिया! अप्पाणं च परं च तदुभयं च बहूणि य असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेण य वुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे विहराहि॥ बारहवां अध्ययन : सूत्र १८-१९ जितशत्रु का विरोध-पद १८. राजा जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम इस प्रकार असद्भूत तत्त्व की उद्भावनाओं और मिथ्या-अभिनिवेश से स्व' को 'पर' को तथा 'स्व-पर' दोनों को आग्रही और भ्रान्त' मत बनाओ। सुबुद्धिणा जलसोधण-पदं १९. तए णं सुबुद्धिस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--अहो णं जियसत्तू राया संते तच्चे तहिए अवितहे सब्भूए जिणपण्णत्ते भावे नो उवलभइ। तं सेयं खलु मम जियसत्तुस्स रण्णो संताणं तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं सब्भूयाणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणट्ठयाए एयमटुं उवाइणावेत्तए-- एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता पच्चइएहिं पुरिसेहिं सद्धिं अंतरावणाओ नवए घडए य पडए य गेण्हइ, गेण्हित्ता संझाकालसमयंसि विरलमणूसंसि निसंत-पडिनिसंतसि जेणेव फरिहोदए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं फरिहोदगं गेण्हावेइ, गेण्हावित्ता नवएसु पडएसु गालावेइ, गालावेत्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता सज्जखारं पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता लंछियमुद्दिए कारावेइ, काराकेता सत्तरत्तं परिवसावेइ, परिवसाक्ता दोच्चंपि नवएसु पडएसु गालावेइ, गालावेत्ता नवएसु घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता सज्जखारं पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता लंछिय-मुद्दिए कारावेइ, कारावेत्ता सत्तरतं परिवसावेइ, परिवसावेत्ता तच्चपि नवएस पडएस गालावेइ, गालावेत्ता नवएस घडएसु पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता सज्जरवारं पक्खिवावेइ, पक्खिवावेत्ता लंछिय-मुद्दिए कारावेइ, कारावेत्ता सत्तरतं संवसावेइ । एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा गालावेमाणे अंतरा पक्खिवावेमाणे अंतरा य संवसावेमाणे सत्तसत्त य राइंदियाई परिवसावेइ । तएणं से फरिहोदए सत्तमंसि सत्तयसि परिणममाणसि उदगरयणे जाए यावि होत्था--अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फालियवण्णाभे वण्णेणं उववेए गंधेणं उववेए रसेणं उववेए फासेणं उववेए आसायणिज्जे विसायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे बिहणिज्जे सव्विंदियगाय-पल्हाय-णिज्जे॥ सुबुद्धि द्वारा जल शोधन-पद १९. सुबुद्धि के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--अहो! राजा जितशत्रु सत्, तत्त्व, तथ्य, अवितथ, सद्भूत जिनप्रज्ञप्त भावों को उपलब्ध नहीं हो रहा है। अत: मेरे लिए उचित है, मैं राजा जितशत्रु को सत्, तत्त्व, तथ्य, अवितथ, सद्भुत जिन-प्रज्ञप्त भावों की अवगति के लिए, उसे वस्तुओं के इस परिणमन-धर्म को समझाऊं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर अपने विश्वास-पात्र पुरुषों के साथ मार्गवर्ती दुकान से नए घड़े और नये कपड़े लिए। उन्हें लेकर संध्या काल के समय जब मनुष्यों का गमनागमन कम हो गया और बाहर गये हुए व्यक्ति अपने घरों में लौट आए तब वह जहां परिखा का जल था वहां आया। वहां आकर परिखा के जल को पात्र में भरवाया। भरवाकर नये कपड़ों (गलनों) से छनवाया। छनवाकर नये घड़ों में प्रक्षिप्त करवाया। करवाकर उसमें साजी का क्षार प्रक्षिप्त करवाया। प्रक्षिप्त करवाकर घड़ों को लाञ्छित-मुद्रित करवाया। मुद्रित करवाकर सात रात तक उस जल को परिवासित करवाया। परिवासित करवाकर उसे दूसरी बार भी नये कपड़ों से छनवाया। छनवाकर नए घड़ों में प्रक्षिप्त करवाया। प्रक्षिप्त करवाकर उसमें साजी का क्षार प्रक्षिप्त करवाया। करवाकर घड़ों को लाञ्छित-मुद्रित करवाया। करवाकर सात रात तक उस जल को परिवासित करवाया। परिवासित करवाकर उसे तीसरी बार भी नये कपड़ों से छनवाया। छनवाकर नये घड़ों में प्रक्षिप्त करवाया। करवाकर उसमें साजी का क्षार प्रक्षिप्त करवाया। करवाकर घड़ों को लाञ्छित-मुद्रित करवाया। करवाकर सात रात तक उस जल को परिवासित करवाया। ____ क्रमश: इस उपाय से वह बीच -बीच में (नितरे हुए) पानी को छनवाता हुआ, दूसरे घड़ों में प्रक्षिप्त करवाता हुआ, साजी का क्षार प्रक्षिप्त करवाता हुआ और सम्यक् वासित करवाता हुआ सात सप्ताह तक उसे परिवासित करवाता रहा। इस प्रकार वह परिखा का जल परिणमित होते-होते सातवें सप्ताह में उदक-रत्न बन गया। वह निर्मल पथ्य (आरोग्य वर्द्धक) जात्य (उत्तम गुणों से युक्त) हल्का (सुपाच्य) और वर्ण से स्फटिक जैसी आभा वाला हो गया। वह वर्ण से उपेत, गंध से उपेत, रस से उपेत और स्पर्श से उपेत हो गया। वह स्वाद लेने-योग्य, विशेष स्वाद लेने योग्य, धातु साम्य करने वाला, अग्नि-दीपन करने वाला, बल बढ़ाने वाला, वीर्य बढ़ाने वाला, मांस को पुष्ट करने वाला तथा सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला बन गया। Jain Education Intemational Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां अध्ययन : सूत्र २०-२६ २५६ नायाधम्मकहाओ सुबुद्धिणा जलपेसण-पदं सुबुद्धि-द्वारा-जल-प्रेषण-पद २०. तए णं सुबुद्धी जेणेव से उदगरयणे तेणेव उवागच्छइ, २०. सुबुद्धि जहां वह उदक-रत्न था, वहां आया। वहां जाकर उसे हथेली उवागच्छित्ता करयलंसि आसादेइ, आसादेत्ता तं उदगरयणं वण्णेणं में लेकर चखा। चखकर उस उदक-रत्न को वर्ण से उपेत, उववेयं गंधेणं उववेयं रसेणं उववेयं फासेणं उववेयं आसायणिज्जं गन्ध से उपेत, रस से उपेत और स्पर्श से उपेत, स्वाद लेने योग्य, विसायणिज्जं पीणणिज्जं दीवणिज्जं दप्पणिज्जं मयणिज्जं विशेष स्वाद लेने योग्य, धातु साम्य करने वाला, अग्नि-दीपन करने बिहणिज्जं सब्विंदियगाय-पल्हायणिज्जं जाणित्ता हट्ठतुढे बहूहिं वाला, बल बढ़ाने वाला, वीर्य बढ़ाने वाला, मांस को पुष्ट करने वाला उदगसंभा- रणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारेइ, संभारेत्ता जियसत्तुस्स तथा सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला हो गया रण्णो पाणियपरियं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुम णं है--ऐसा जानकर हृष्ट-तुष्ट हुआ। जल को सुगन्धित करने वाले देवाणुप्पिया! इमं उदगयरणं गेण्हाहि, गेण्हित्ता जियसत्तुस्स रणो बहुत से गन्ध द्रव्यों से उसे सुगन्धित किया। सुगन्धित कर जितशत्रु भोयणवेलाए उवणेज्जासि ।। राजा के जलगृह के अधिकारी को बुलाया। उसको बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम यह उदक-रत्न लो। लेकर भोजन बेला में जितशत्रु राजा के समक्ष प्रस्तुत करो। जियसत्तुणा उदगरयणपसंसा-पदं २१. तए णं से पाणियधरिए सुबुद्धिस्स एयमढे पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तं उदगरयणं गेण्हइ, गेण्हित्ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवट्ठवेइ।। जितशत्रु द्वारा उदक-रत्न की प्रशंसा-पद २१. जलगृह के अधिकारी ने सुबुद्धि के इस कथन को स्वीकार किया। स्वीकार कर उस उदक-रत्न को लिया। उसे लेकर भोजन की वेला में जितशत्रु राजा के समक्ष प्रस्तुत किया। २२. तए णं से जियसत्तू राया तं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे, एवं च णं विहरइ । जिमियभुत्तुत्तरागए वि य णं समाणे आयते चोक्खे परमसुइभूए तंसि उदगरयणंसि जायविम्हए ते बहवे राईसर जाव सत्थवाहपभिइओ एवं वयासी--अहो णं देवाणुप्पिया! इमे उदगरयणे अच्छे जाव सव्विंदियगाय-पल्हायणिज्जे। २२. राजा जितशत्रु उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करता हुआ, विशेष स्वाद लेता हुआ और बांटता हुआ भोजन कर रहा था। वह भोजनोपरान्त आचमन कर, साफ सुथरा और परम पवित्र हो उस उदक-रत्न में विस्मित होकर उन बहुत सारे राजा ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से इस प्रकार बोला--अहो देवानुप्रियो यह उदक-रत्न निर्मल यावत् सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला है। २३. तए णं ते बहवे राईसर जाव सत्यवाहपभिइओ एवं वयासी--तहेव णं सामी! जण्णं तुब्भे वयह--इमे उदगरयणे अच्छे जाव सव्विंदियगाय-पल्हायणिज्जे।। २३. वे बहुत से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि इस प्रकार बोले--स्वामिन्! यह जल वैसा ही है जैसा तुम कह रहे हो--यह उदक-रत्न निर्मल यावत् सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला है। जियसत्तुणा उदगाणयणपुच्छा-पदं २४. तए णं जियसत्तू राया पाणिय-घरियं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एस णं तुमे देवाणुप्पिया! उदगरयणे को आसादिते? जितशत्रु द्वारा जल लाने के सम्बन्ध में पृच्छा-पद २४. राजा जितशत्रु ने जलगृह के अधिकारी को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुझे यह उदक-रत्न कहां से प्राप्त हुआ? २५. तए णं से पाणियघरिए जियसत्तुं एवं वयासी--एस णं सामी! मए उदगरयणे सुबुद्धिस्स अंतियाओ आसादिते।। २५. जलगृह के अधिकार ने जितशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! मुझे यह उदक-रत्न सुबुद्धि के यहां से प्राप्त हुआ है। २६. तए णं जियसत्तू सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-- अहो णं सुबुद्धि! केणं कारणेणं अहं तव अणिढे अकते अप्पिए अमणुण्णे अमणामे जेणं तुम मम कल्लाकल्लिं भोयणवेलाए इमं उदगरयणं न उवववेसि? तं एस णं तुमे देवाणुप्पिया! उदगरयणे कओ उवलद्धे? २६. जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--अहो सुबुद्धि! क्या कारण हैं मैं तुझे अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत लगता हूँ, जिससे तू मेरे लिए प्रतिदिन भोजन की वेला में यह उदक-रत्न प्रस्तुत नहीं करता? देवानुप्रिय! तुझे यह उदक-रत्न कहां से उपलब्ध हुआ? Jain Education Intemational Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ नायाधम्मकहाओ सुबुद्धिस्स उत्तर-पदं २७. तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी--एस णं सामी! से फरिहोदए। बारहवां अध्ययन : सूत्र २७-३२ सुबुद्धि का उत्तर-पद २७. सुबुद्धि ने जितशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्। यह वही परिखा का जल है। २८. तए णं से जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी--केणं कारणेणं सुबुद्धी! एस से फरिहोदए? २८. जितशत्रु ने सुबुद्धि से इस प्रकार कहा--सुबुद्धि! यह वही परिखा का जल है, इसका हेतु क्या है? २९. तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी--एवं खलु सामी! तुब्भे तया मम एवमाइक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयमटुं नो सद्दहह । तए णं मम इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपज्जित्था--अहोणं जियसत्तू राया संते तच्चे तहिए अवितहे सन्भूए जिणपण्णत्ते भावे नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ। तं सेयं खलु मम जियसत्तुस्स रणो संताणं तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं सब्भूयाणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणट्ठयाए एयमटुं उवाइणाक्तए-- एवं सपेहेमि, सपेहेत्ता तं चेव जाव पाणिय-घरियं सद्दावेमि, सद्दावेत्ता एवं वदामि--तुमणं देवाणुप्पिया! उदगरयणं जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवणेहि । तं एएणं कारणेणं सामी! एस से फरिहोदए। २९. सुबुद्धि ने जितशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! उस समय ऐसा आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना और प्ररूपणा करते हुए मेरे इस अर्थ पर तुम्हें श्रद्धा नहीं हुई। तब मेरे मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलाषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--अहो! राजा जितशत्रु सत्, तत्त्व, तथ्य, अवितथ, सद्भूत, जिनप्रज्ञप्त भावों में श्रद्धा नहीं करता, प्रतीति नहीं करता और उसे यह रुचिकर नहीं लगता। अत: मेरे लिए उचित है, मैं राजा जितशत्रु को सत्, तत्त्व, तथ्य, अवितथ, सद्भुत, जिनप्रज्ञप्त भावों की अवगति के लिए उसे वस्तुओं के इस परिणमन धर्म को समझाऊं। मैंने यह संप्रेक्षा की यावत् जल गृह अधिकारी को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम यह उदक-रत्न भोजन की बेला में राजा जितशत्रु के समक्ष प्रस्तुत करो। स्वामिन्! इस हेतु के आधार पर मैं कहता हूँ यह वही परिखा का जल है। जियसत्तुणा जलसोधण-पदं ३०. तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स एवमाइक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयमद्वं नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे अभिंतरठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! अंतरावणाओ नवए घडए पडए य गेण्हह जाव उदगसंभारणिज्जेहिं दव्वेहिं संभारेह । तेवि तहेव संभारेंत, संभारेत्ता जियसत्तुस्स उवणेति॥ जितशत्रु द्वारा जल-शोधन-पद ३०. राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि के उस आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना और प्ररूपण पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, उसे वह रुचिकर नहीं लगा। उसे सुबुद्धि के आख्यान पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं हुई इसलिए उसने अपने अंतरंग सेवकों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ, नगर के मध्यवर्ती बाजार से नये घड़े और नये कपड़े लाओ यावत् जल को सुगन्धित करने वाले बहुत से द्रव्यों से उसे सुगन्धित करो। उन्होंने वैसे ही सुगन्धित किया। सुगन्धित कर जितशत्रु के समक्ष प्रस्तुत किया। जियसत्तुस्स जिण्णासा-पदं ३१. तए णं से जियसत्तू राया तं उदगरयणं करयलंसि आसाएइ, आसाएत्ता आसायणिज्जं जाव सब्विंदियगाय-पल्हायणिज्जं जाणित्ता सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--सुबुद्धी! एए णं तुमे संता तच्चा तहिया अवितहा सब्भूया भावा कओ उवलद्धा? जितशत्रु का जिज्ञासा-पद ३१. राजा जितशत्रु ने उस उदक-रत्न को हथेली में लेकर चखा। चखकर उसे स्वाद लेने योग्य यावत् सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला जानकर अमात्य सुबुद्धि को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--सुबुद्धि! ये सत्, तत्त्व, तथ्य, अवितथ, सद्भूत भाव तुम्हें कहां से उपलब्ध हुए? सुबुद्धिस्स उत्तर-पदं ३२. तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी--एए णं सामी! मए संता तच्चा तहिया अवितहा सब्भूया भावा जिणवयणाओ उवलद्धा॥ सुबुद्धि का उत्तर पद ३२. सुबुद्धि ने जितशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! ये सत्, तत्त्व, तथ्य, अवितथ और सद्भूत भाव मुझे जिन-प्रवचन से उपलब्ध हुए हैं। Jain Education Intemational Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां अध्ययन : सूत्र ३३-३९ २५८ ३३. तए णं जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी--तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तव अंतिए जिणवयणं निसामित्तए । जियसत्तुस्स समणोवासयत्त-पदं ३४. तए णं सुबुद्धी जियसत्तुस्स विचित्तं केवलिपण्णत्तं चाउज्जामं धम्मं परिकरोद || ३५. तए णं जियसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्टे सुबुद्धिं अमच्चं एवं क्यासी सद्दहामि णं देवाणुप्पिया! निगचं पावयणं । पत्तियामि णं देवाणुप्पिया! निग्गंथं पावयणं । रोएमि णं देवाणुप्पिया! निग्गंध पावयणं । अन्भुमि णं देवाणुप्पिया! निग्गंथं पावयणं । एवमेवं देवाणुप्पिया! तहमेयं देवाणुप्पिया ! अवितहमेयं देवाणुप्पिया! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया! पडिच्छिमेयं देवाप्पिया! इच्छिय-पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया! से जहेयं तुब्भे वयह। तं इच्छामि णं तव अंतिए 'चाउञ्जामियं गिहिधम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । अहासुरं देवाणुप्पिया! मा परिबंध करेह ।। ३६. तए णं से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए चाउज्जामियं गिहिधम्मं परिवजइ । ३७. तए णं जियसत्तू समणोवासए जाए अहिगयजीवाजीवे जाव पहिलाभेमाणे विहरई ।। पव्वज्जा पर्द ३८. तेण कालेन तेणं समएणं घेरागमणं जियसत्तू राया सुबुद्धी य निग्गच्छइ । सुबुद्धी धम्मं सोच्चा निसम्म एवं वयासी--जं नवरं -- जियसत्तुं आपुच्छामि तओ पच्छा मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वयामि । अहासुहं देवाप्पिया! ३९. तए गं सुबुद्धी जेणेव जिवसत्तू तेणेव उवागच्छ, उवागच्छिता एवं वयासी--एवं खलु सामी! मए थेराणं अंतिए धम्मे निसंते । सेवि य धम्मे 'इए परिच्छिए अभिरुए'। तए णं अहं सामी! नायाधम्मक हाओ ३३. जितना ने सुबुद्धि से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! मैं तुमसे जिन-प्रवचन सुनना चाहता हूँ। जितशत्रु की श्रमणोपासकता पद ३४. सुबुद्धि ने जितशत्रु को विचित्र केवली - प्रज्ञप्त, चातुर्याम-धर्म समझाया।" ३५. सुबुद्धि के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हुआ जितशत्रु अमात्य सुबुद्धि से इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ । देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्य प्रवचन पर प्रतीति करता हूँ। देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर रुचि करता हूँ । देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रन्य प्रवचन में अभ्युत्थान करता हूँ। यह ऐसा ही है देवानुप्रिय! यह तथ्य है देवानुप्रिय! यह अवितथ है देवानुप्रिय ! यह इष्ट है देवानुप्रिय! यह ग्राह्य है देवानुप्रिय! यह इष्ट और ग्राह्य दोनों है देवानुप्रिय ! जैसा तुम कह रहे हो मैं चाहता हूँ तुम्हारे पास चातुर्याम रूप गृहस्थ धर्म को स्वीकार कर विहार करूं । जैसा सुख हो देवानुप्रिय ! प्रतिबन्ध मत करो । ३६. जितशत्रु ने सुबुद्धि के पास चातुर्याम रूप गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया। ३७. जितशत्रु श्रमणोपासक बन गया वह जीवाजीव को जानने वाला यावत् (श्रमणों को) प्रतिलाभित करता हुआ विहार करने लगा। प्रव्रज्या पद ३८. उस काल और उस समय स्थविरों का आगमन हुआ। राजा जितशत्रु और सुबुद्धि वहां गए । धर्म सुनकर, अवधारण कर सुबुद्धि ने इस प्रकार कहा विशेष इतना मैं जितशत्रु से पूछता हूँ सत्पात् मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता हूँ। -- जैसा सुख हो देवानुप्रिय ३९. सुबुद्धि, जहां जितशत्रु था, वहां आया। वहां आकर इस प्रकार बोला--स्वामिन्! मैंने स्थविरों के पास धर्म सुना है। वही धर्म मुझे इष्ट, ग्राह्य और रुचिकर है। अतः स्वामिन्! मैं संसार के भय से Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ नायाधम्मकहाओ संसारभउव्विग्गे भीए जम्मणजर-मरणाणं इच्छामि णं तुन्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे राणं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। बारहवां अध्ययन : सूत्र ३९-४६ उद्विग्न हूँ। जन्म, जरा और मृत्यु से भीत हूँ। मैं चाहता हूँ तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर स्थविरों के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित बनूं। ४०. तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिं एवं वयासी-अच्छसु ताव देवाणुप्पिया! कइवयाई वासाइं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणा तओ पच्छा एगयो थेराणं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सामो॥ ४०. राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि से इस प्रकार कहा--ठहरो देवानुप्रिय! कुछ वर्षों तक हम मनुष्य सम्बन्धी प्रधान भोगार्ह भोगों का अनुभव करें। तत्पश्चात् हम एक साथ स्थविरों के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होंगे। ४१. तए णं सुबुद्धि जियसत्तुस्स रण्णो एयमढे पडिसुणेइ। ४१. सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु के इस अर्थ को स्वीकार कर लिया। ४२. तए णं तस्स जियसत्तुस्स रणो सुबुद्धिणा सद्धिं विपुलाई ४२. राजा जितशत्रु को सुबुद्धि के साथ मनुष्य-सम्बन्धी विपुल कामभोगों माणुस्सगाई कामभोगाई पच्चणुब्भवमाणस्स दुवालस वासाइं का अनुभव करते हुए बारह वर्ष बीत गए। वीइक्कंताई। ४३. तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं । जियसत्तू राया धम्म सोच्चा निसम्म एवं वयासी--जं नवरं--देवाणुप्पिया! सुबुद्धिं अमच्चं आमंतेमि, जेट्टपुत्तं रज्जे ठावेमि, तए णं तुब्भण्णं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वयामि । --अहासुहं देवाणुप्पिया! ४३. उस काल और उस समय स्थविरों का आगमन हुआ। जितशत्रु राजा ने धर्म सुनकर, अवधारण कर इस प्रकार कहा--विशेष--देवानुप्रिय! मैं अमात्य सुबुद्धि को बुलाता हूँ। ज्येष्ठ पुत्र को राज्य (सिंहासन) पर स्थापित करता हूं और उसके पश्चात् तुम्हारे पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता हूं। --जैसा सुख हो देवानुप्रिय! ४४. तए णं जियसत्तू राया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुबुद्धिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु मए थेराणं अंतिए धम्मे निसंते जाव पव्वयामि । तुम णं किं करेसि? ४४. राजा जितशत्रु जहां अपना घर था, वहां आया। आकर सुबुद्धि को बुलाया। उसको बुलाकर इस प्रकार कहा--मैने स्थविरों के पास धर्म सुना है यावत् मैं प्रव्रजित हो रहा हूँ। तुम क्या करोगे? ४५. तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं रायं एवं वयासी--जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! संसारभउव्विगा जाव पव्वयह, अम्हंणं देवाणुप्पिया! के अण्णे आहारे वा आलंबे वा? अहं वि य णं देवाणुप्पिया! संसारभउब्विगे जाव पव्वयामि । तं जइणं देवाणुप्पिया! जाव पव्वाहि । गच्छह णं देवाणुप्पिया! जेट्ठपत्तं कुटुंबे ठावेहि, ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरुहित्ता णं ममं अंतिए पाउन्भवउ । सो वि तहेव पाउब्भवइ॥ ४५. सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हो यावत् प्रव्रजित हो रहे हो तो देवानुप्रिय! हमारा दूसरा आलम्बन और आधार ही क्या है? देवानुप्रिय मैं भी संसार के भय से उद्विग्न हूं......यावत् प्रव्रजित होता हूं। तुम संसार के भय से उद्विग्न हो यावत् प्रव्रजित हो रहे हो तो देवानुप्रिय ! जाओ, ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करो। उसे स्थापित कर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका पर आरूढ़ होकर मेरे समक्ष उपस्थित हो जाओ। वह भी वैसे ही उपस्थित हुआ। ४६. तए णं जियसत्तू राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! अदीणसत्तुस्स कुमारस्स रायाभिसेयं उवट्ठवेह । ते वि तहेव उवट्ठति जाव अभिसिंचति जाव पव्वइए। ४६. राजा जितशत्रु ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--जाओ देवानुप्रियो! तुम कुमार अदीनशत्रु के राज्याभिषेक की उपस्थापना करो। उन्होंने वैसे ही उपस्थापना की यावत् अभिषेक किया, यावत् वह प्रव्रजित हुआ। Jain Education Intemational Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां अध्ययन : सूत्र ४७-४९ २६० नायाधम्मकहाओ ४७. तए णं जियसत्तू रायरिसी एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, ४७. राजार्षि जितशत्रु ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन कर अहिज्जित्ता, बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन कर मासिक संलेखना की संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता जाव सिद्धे।। आराधना में स्वयं को समर्पित कर यावत् सिद्ध हुआ। ४८. तए णं सुबुद्धी एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता, बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता जाव सिद्धे। ४८. सुबुद्धि ने ग्यारह अंगों का अध्ययन कर बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन कर मासिक संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर यावत् सिद्ध हुआ। निक्खेव-पदं ४९. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं बारसमस्स नायज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते। --त्ति बेमि। निक्षेप-पद ४९. जम्बू! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के बारहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। --ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धृत्ता निगमनगाथा-- मिच्छत्त-मोहियमणा, पावपसत्ता वि पाणिणो विगुणा। फरिहोदगं व गुणिणो, हवंति वरगुरुपसायाओ ।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धत निगमन गाथा जिनका मन मिथ्यात्व से मूढ और पाप में आसक्त है वे गुणहीन प्राणी भी गुरु के प्रवर प्रसाद से गुणी बन जाते हैं, जैसे वह परिखा का जल। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र- ९ १. प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि पुद्गल परिवर्तनशील है। उसके परिवर्तन के दो हेतु हैं--प्रयोग परिणत प्रयोग से परिणत और विवसा परिणत - स्वभाव से परिणत । -- परिणत का अर्थ है -- एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त करना । सूत्र - १८ २. भ्रान्त (वुप्पाएमाणे) टीकाकार ने इसका अर्थ किया है-अव्युत्पन्न मति को व्युत्पन्न करना। यहां अव्युत्पन्न को व्युत्पन्न करने का तात्पर्य है--उल्टी सीख देना अर्थात् भ्रान्ति में डालना। टिप्पण सूत्र - १९ ३. साजी का खार (सज्जखारं) सज्ज के संस्कृत रूप सर्ज और सद्य दोनों बनते हैं खार के १. ज्ञातावृत्ति, पत्र - १८४ पओगवीससापरिणय त्ति प्रयोगेण जीवव्यापारेण, विस्रसया च - स्वभावेन परिणताः - अवस्थान्तरमापन्ना ये ते । २. दही व्युत्पादयन् अव्युत्पन्नमतिं व्युत्पन्नां कुर्वन् । साथ सज्ज का प्रयोग है अतः यहां सर्ज रूप अधिक उपयुक्त ( सलई का पेड़) से साजी खार बनता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ सद्यो भस्म किया है।' सूत्र २० ४. जल को सुगंधित करने वाले (उदगसंभारणिज्जेहिं) जल को परिवासित या संस्कृत करने वाले द्रव्य । वृत्तिकार के अनुसार वालक (नेत्रवाला) मुस्ता (नागरमोथा) आदि से जल परिवासित होता है। सूत्र - ३४ ५. चातुर्याम धर्म (चाउज्जामं धम्मं ) पार्श्व के समय साधु व गृहस्थ दोनों के लिए चातुर्याम धर्म की व्यवस्था थी इसीलिए श्रावक को चातुर्याम धर्म की देशना दी गई। बारह व्रत की व्यवस्था महावीर की देन है । द्रष्टव्य ५/५९ का टिप्पण । I ३. वही सज्जखार त्ति सद्यो भस्मः । ४. वही उदकवास वालकमुस्तादिभिः । है। सर्ज - Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'मंडुक्के' है। सूत्र ३२ से अग्रिम अनेक सूत्रों में दर्दुर शब्द का प्रयोग मिलता है । मण्डूक और दर्दुर एकार्थक हैं पर मूल अध्ययन का नाम दर्दुर नहीं है। समवायांग सूत्र में जहां ज्ञातधर्मकथा के १९ अध्ययनों के नाम बतलाए गए हैं वहां तेरहवें अध्ययन का नाम 'मण्डुक्क' है। आमुख प्रस्तुत अध्ययन में नन्द मणिकार के जीवन के दो पक्षों का निरूपण है - १. वापी का निर्माण और उसके प्रति ममत्व । २. दर्दुर के भव में व्रत स्वीकार । - नन्द मणिकार ने भगवान महावीर से श्रावक व्रत ग्रहण किया। पर कालान्तर में वह सम्यक्त्व से च्युत हो गया। मिथ्यात्व की प्रतिपत्ति हो गई। सूत्रकार ने उसके चार कारण बतलाए हैं १. साधुओं के दर्शन का अभाव २. साधुओं की पर्युपासना का अभाव ३. शुश्रूषा का अभाव ४. अनुशासन का अभाव। तेले की तपस्या में पौषध अवस्था में क्षुधा और पिपासा परीषह से अभिभूत होकर उसने पुष्करिणी के निर्माण का संकल्प कर लिया। पुष्करिणी, उसके चारों ओर वनखण्ड तथा उनमें क्रमशः चित्रसभा, महानसशाला, चिकित्सा शाला और अलंकार सभा का निर्माण करवाया। जन-जन के मुख से प्रशंसा सुन वह उस वापी में अत्यन्त आसक्त हो गया । नन्द मणिकार ने मनुष्य जन्म में व्रतों की सम्यक् आराधना नहीं की फलतः उसे तिर्यक् योनि में जाना पड़ा। मेंढ़क के भव में जातिस्मृति प्राप्त की। शुभ परिणामधारा के क्षण में उसकी मृत्यु हुई। उसने देवयोनि प्राप्त की। प्रस्तुत अध्ययन में नन्द मणिकार के दो जन्मों की आसक्ति और अनासक्ति का सुन्दर चित्रण है। इसमें हमारे चिन्तन मनन की पर्याप्त सामग्री है। १. समवाओ १९ / १ २. नायाधम्मकहाओ १/१३/१३. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं अज्झयणं : तेरहवां अध्ययन मंडुक्के : मण्डूक उक्खे व-पदं १. जइ णं भते! समणेणं भगवया महावीरेणं बारसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, तेरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अढे पण्णत्ते? उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के बारहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते! उन्होंने ज्ञाता के तेरहवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। समोसरणं। परिसा निग्गया। २. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह नगर था। गुणशिलक चैत्य था। समवसरण जुड़ा। जन-समूह ने निर्गमन किया। ३. तेणं कालेणं तेणं समऐणं सोहम्मे कप्पे ददुरवडिंसए विमाणे ३. उस काल और उस समय सौधर्म-कल्प, दर्दुरावतंसक विमान और सभाए सुहम्माए ददुरंसि सीहासणंसि दवरे देवे चउहिं सुधर्मा-सभा में दर्दुर-सिंहासन पर दर्दुर नाम का देव चार-हजार सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिसाहिं एवं जहा सामानिक देवों तथा सपरिषद् चार अग्र-महीषियों के साथ सूर्याभदेव सूरियाभे जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । इमं च णं की भांति यावत् दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगता हुआ विहार कर रहा केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे जाव था। वह इस परिपूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप को विपुल अवधि-ज्ञान से देखता नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगए, जहा--सूरियाभे॥ हुआ यावत् नाट्य विधि का प्रदर्शन कर चला गया, जैसे--सूर्याभ । गोयमस्स गुच्छा-पदं ४. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी--अहोणं भते! ददरे देवे महिड्डिए महज्जुईए महब्बले महायसे महासोक्खे महाणुभागे।। गौतम का पृच्छा-पद ४ भन्ते! इस प्रकार भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार कहा--अहो भन्ते! दर्दुरदेव महान ऋद्धि, महान द्युति, महान बल, महान यश, महान सुख और महान अनुभाग वाला है। ५. दद्द्वरस्स णं भंते! देवस्स सा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवाणुभावे कहिं गए? कहिं अणुपविढे? गोयमा! सरीरं गए सरीरं अणुपविढे कूडागारदिटुंतो।। ५. भन्ते! दर्दुरदेव की वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव कहां गया? कहां अनुप्रविष्ट हो गया? गौतम! वह शरीरगत हो गया। शरीर में अनुप्रविष्ट हो गया। यहां कूटागार' दृष्टान्त ज्ञातव्य है। ६. दद्दुरेणं भंते! देवेणं सा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवाणुभावे किण्णा लद्धे? किण्णा पत्ते? किण्णा अभिसमण्णागए? ६. भन्ते! दुर्दुरदेव को वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देव-द्युति और दिव्य देवानुभाव कैसे उपलब्ध हुआ? कैसे प्राप्त हुआ? कैसे अभिसमन्वागत हुआ? भगवओ उत्तरे दगुरदेवस्स नंदभव-पदं ७. एवं खलु गोयमा! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए । सेणिए राया। भगवान का उत्तर, दर्दुर देव का नन्दभव-पद ७. गौतम ! इसी जम्बूद्वीप द्वीप और भारतवर्ष में राजगृह नगर, गुणशिलक चैत्य और श्रेणिक राजा। ८. तत्थ णं रायगिहे नदे नामं मणियारसेट्ठी--अड्ढे दित्ते।। ८. उस राजगृह नगर में 'नन्द' नाम का मणिकार श्रेष्ठी रहता था। वह आढय और दीप्त था। Jain Education Intemational Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २६५ तेरहवां अध्ययन : सूत्र ९-१५ नंदस्स धम्मपडिवत्ति-पदं नन्द का धर्म प्रतिपत्ति-पद ९. तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा! समोसढे। परिसा निग्गया। ९. गौतम! उस काल और उस समय मैं वहां समवसृत हुआ। जन-समूह सेणिए वि निग्गए। ने निर्गमन किया। श्रेणिक भी गया। १०. तए णं से नदे मणियारसेट्ठी इमीसे कहाए लद्धढे समाणे पायविहारचारेणं जाव पज्जुवासइ॥ १०. जब नन्द मणिकार श्रेष्ठी को यह संवाद मिला तो उसने भी पांव-पांव चलकर यावत् पर्युपासना की। ११. नदे मणियारसेट्ठी धम्म सोच्चा समणोवासए जाए।। ११. धर्म को सुनकर नन्द मणिकार श्रेष्ठी श्रमणोपासक बन गया। १२. मैं राजगृह से निष्क्रमण कर बाहर जनपद विहार करने लगा। १२. तए णंऽहं रायगिहाओ पडिनिक्खंते बहिया जणवयविहारेणं विहरामि।। मिच्छत्तपडिवत्ति-पदं १३. तए णं से नदे मणियारसेट्ठी अण्णया कयाइ असाहुदंसणेण य अपज्जुवासणाए य अणणुसासणाए य असुस्सूसणाए य सम्मत्तपज्जवेहि परिहायमाणेहि-परिहायमाणेहि मिच्छत्तपज्जवेहि परिवड्डमाणेहिं-परिवड्डमाणेहिं मिच्छत्तं विप्पडिवण्णे जाए यावि होत्था। मिथ्यात्व-प्रतिपत्ति-पद १३. एक समय ऐसा आया उसे साधुओं के दर्शन, पर्युपासना, अनुशासना का योग नहीं मिला तथा सुनने की इच्छा भी नहीं रही। फलस्वरूप सम्यक्त्व के पर्यव हीन होने लगे। मिथ्यात्व के पर्यव बढ़ने लगे। वह गाढ़ मिथ्यात्वी हो गया। १४. तए णं नदे मणियारसेट्ठी अण्णया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूलसि माससि अट्ठमभत्तं परिगेण्हइ, परिगेण्हित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभचारी उमुक्कमणिसुवण्णे ववगयमालावण्णगविलेवणे निक्खित्तसत्थमुसले एगे अबीए दब्भसंथारोवगए विहरइ ।। १४. किसी समय नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने ग्रीष्मकाल के समय, ज्येष्ठ मास में, अष्टम-भक्त तप स्वीकार किया। स्वीकार कर, पौषध-शाला में ब्रह्मचर्य पूर्वक, मणि-सुवर्ण से विमुक्त, माला, वर्ण, विलेपन आदि से दूर रह, शस्त्र, मूसल का परित्याग कर अकेला, अद्वितीय, डाभ के बिछौने पर बैठ पौषध निरत होकर विहार कर रहा था। पोक्खरिणी-निम्माण-पदं १५. तए णं नंदस्स अट्ठमभत्तसि परिणममाणंसि तण्हाए छुहाए य अभिभूयस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--धण्णा णं ते ईसरपभियओ, संपुण्णा णं ते ईसरपभियओ, कयत्था णं ते ईसरपभियओ, कयपुण्णा णं ते ईसरपभियओ, कयलक्खणाणं ते ईसरपभियओ, कयविभवा णं ते ईसरपभियओ, जेसिं णं रायगिहस्स बहिया बहूओ वावीओ पोक्खरिणीओ दीहियाओ गुंजालियाओ सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ, जत्थ णं बहुजणो 'हाइ य पियइ य पाणियं च संवहइ। तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते सेणियं रायं आपुच्छित्ता रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे वेब्भारपब्वयस्स अदूरसामंते वत्थुपाढग-रोइयंसि भूमिभागंसि नंदं पोक्खरिणिं खणावेत्तए त्ति कटु एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते पोसह पारेइ, पारेत्ता बहाए कयबलिकम्मे मित्त-नाइ- नियग-सयण पुष्करिणी का निर्माण-पद १५. अष्टम-भक्त परिणमित हो रहा था, प्यास और भूख से अभिभूत नन्द के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--धन्य हैं वे ईश्वर आदि, पुण्यशाली हैं वे ईश्वर आदि, कृतार्थ हैं--वे ईश्वर आदि, कृतपुण्य हैं वे ईश्वर आदि, कृतलक्षण हैं वे ईश्वर आदि, वैभवशाली हैं वे ईश्वर आदि, जिनकी राजगृह नगर के बाहर बहुत-सारी वापिकाएं, पुष्करिणियां, दीर्घिकाएं, गुजालिकाएं, सर: पंक्तिकाएं और सरोवर से संलग्न सर: पंक्तिकाएं हैं। जहां जन-समूह नहाता है, पानी पीता है और पानी ले जाता है। अत: मेरे लिए उचित है, मैं उषाकाल में, पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर राजा श्रेणिक से अनुज्ञा प्राप्त कर राजगृह नगर के बाहर ईशान कोण में वैभार-पर्वत के आसपास वास्तुशास्त्रविद् के मनपसन्द भू-भाग में नन्दा' नाम की पुष्करिणी खुदवाऊं--उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ तेरहवां अध्ययन : सूत्र १५-२० २६६ संबंधि-परियणेणं सद्धिं संपरितुडे महत्थं महाधं महरिहं रायारिहं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ जाव पाहुडं उवट्ठवेइ, उवट्ठवेत्ता एवं वयासी--इच्छामि णं सामी! तुब्भेहिं अन्भणुण्णाए समाणे रायगिहस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे वेब्भारपव्वयस्स अदूरसामंते वत्थुपाढग-रोइयंसि भूमिभागंसि नंदं पोक्खरिणिं खणावेत्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! जाने पर पौषध-व्रत को संपन्न किया। संपन्न कर स्नान और बलिकर्म कर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ, उनसे परिवृत हो महान अर्थवान, महान मूल्यवान, महान अर्हता वाला, राजाओं के योग्य उपहार लिया। उपहार लेकर जहां राजा श्रेणिक था, वहां आया यावत् उपहार दिया। उपहार देकर इस प्रकार बोला-- स्वामिन्! मैं चाहता हूँ आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर, राजगृह नगर के बाहर ईशान-कोण में वैभार-पर्वत के आसपास वास्तु-शास्त्रविदों के मन पसन्द भू-भाग में नन्दा' पुष्करिणी खुदवाऊं। जैसा तुम्हें सुख हो देवानुप्रिय! १६. तए णं से नदे मणियारसेट्ठी सेणिएणं रण्णा अब्भणुण्णाए १६. राजा श्रेणिक से अनुज्ञा प्राप्त होने पर वह नन्द मणिकार श्रेष्ठी समाणे हद्वतढे रायगिह नगरं मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता हृष्ट-तुष्ट हुआ राजगृह नगर के बीचों-बीच होकर निकला। वत्थुपाठय-रोइयंसि भूमिभागसि नंद पोक्खरिणिं खणावेउं पयत्ते निकलकर वह वास्तु-शास्त्रविदों के मन-पसन्द भू-भाग में नन्दा यावि होत्था॥ पुष्करिणी खुदवाने में प्रयत्नशील हो गया। १७. तए णं सा नंदा पोक्खरिणी अणुपुव्वेणं खम्ममाणा-खम्ममाणा १७. वह नन्दा पुष्करिणी क्रमश: खुदाई करते-करते पुष्करिणी बन गई। पोक्खरिणी जाया यावि होत्था--चाउक्कोणा समतीरा अणुपुव्वं वह चतुष्कोण, समान तीरों वाली क्रमश: सुनिर्मित वप्र और शीतल सुजायवप्पसीयलजला संछन्नपत्त-भिसमुणाला बहुउप्पल-पउम- जल वाली, कमल-दल, कमल-कन्द और कमल-नाल से संच्छन्न, कुमुद-नलिण-सुभग-सोगंधिय-पुंडरीय-महापुंडरीय-सयपत्त- प्रफुल्लित और केशर प्रधान बहुत से उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सहस्सपत्त-पप्फुल्लकेसरोववेया परिहत्थ-भमंत-मत्तछप्पय- सुभग, सौगन्धिक पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र और सहस्रपत्र अणेग-सउणगण-मिहुण-वियरिय-सदुन्नइय-महुरसरनाइया कमलों से उपेत, रस लुब्ध, मंडराते हुए मत्त भ्रमरों से व्याप्त, पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा॥ पक्षी-समूहों के अनेक युगलों द्वारा कृत प्रकृष्ट मधुर, सरस शब्दों से निनादित, चित्त को आल्हादित करने वाली दर्शनीय, सुन्दर और असाधारण थी। वणसंड-पदं १८. तए णं से नदे मणियारसेट्ठि नंदाए पोक्खरिणीए चउदिसिं चत्तारि वणसडे रोवावेइ ।। वन-खण्ड-पद १८. नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने नन्दा पुष्करिणी के चारों ओर चार वन-खण्ड लगवाए। १९. तए णं ते वणसंडा अणुपुव्वेणं सारक्खिज्जमाणा संगोविज्जमाणा संवडिज्जमाणा य वणसंडा जाया--किण्हा जाव महामेह-निउरंबभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियग-रेरिज्जमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा-उवसोभेमाणा चिट्ठति ।। १९. वे वनखण्ड क्रमश: संरक्षित, संगोपित और संवर्द्धित होते-होते पूर्ण वनखण्ड के रूप में विकसित हो गये। वे कृष्ण यावत् महामेघ-पटल के समान पल्लवित, पुष्पित, फलित, हरीतिमा से आकर्षक तथा पत्र, पुष्पादि की श्री से अतीव उपशोभित अतीव उपशोभित हो रहे थे। चित्तसभा-पदं २०. तए णं नदे मणियारसेट्ठी पुरथिमिल्ले वणसडे एगं महं चित्तसभं कारावेइ--अणेगखंभसयसण्णिविटुं पासाईयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं । तत्थ णं बहूणि किण्हाणि य नीलाणि य लोहियाणि य हालिद्दाणि य सुक्किलाणि य कट्ठकम्माणि य पोत्थकम्माणि य चित्त-लेप्प-गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमाइं उवदेसिज्जमाणाईउवदंसिज्जमाणाइं चिट्ठति। चित्रसभा-पद २०. नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने पूर्व दिशा वाले वन-खण्ड में एक महान चित्रसभा बनवायी। वह अनेक शत खम्भों पर सन्निविष्ट, चित्त को आल्हादित करने वाली, दर्शनीय, सुन्दर और असाधारण थी। उस चित्रसभा में बहुत सारे कृष्ण, नील, लोहित, पीत और श्वेत रंगों वाले काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म, लेप्यकर्म तथा ग्रंथित, वेष्टित, पूरित और संघात्य कलाकृतियां थी। जिन्हें दर्शक एक दूसरे को दिखाते रहते थे। Jain Education Interational Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २६७ तेरहवां अध्ययन : सूत्र २०-२४ तत्थ णं बहूणि आसणाणि य सयणाणि य अत्थुय-पच्चत्युयाई वहां बहुत सारे आसन और शयन बिछे रहते थे। चिट्ठति। __ वहां भृति, भोजन और वेतन पर काम करने वाले बहुत-से नट, तत्थ णं बहवे नडा य नट्टा य जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबग- नर्तक, कोड़ी से जूआ खेलने वाले, पहलवान, मुष्टि युद्ध करने वाले, कहग-पवग-लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्ल-तुंबवीणिया शुभाशुभ बताने वाले, बड़े बांस पर चढ़कर खेल करने वाले, चित्रपट य दिन्नभइ-भत्त-वेयणा तालायरकम्मं करेमाणा-करेमाणा दिखाकर आजीविका करने वाले (मंखलि), तूण (मशक के आकार का विहरंति। वाद्य) वादक, तम्बूरा-वादक, तालाचर कम (नाट्यकर्म) करने वाले रायगिहविणिग्गओ एत्थ णं बहुजणो तेसु पुव्वन्नत्थेसु रहते थे। आसण-सयणेसु सण्णिसण्णो य संतुयट्टो य सुयमाणो य पेच्छमाणो वहां राजगृह से विनिर्गत जन-समूह उन पूर्वन्यस्त आसनों और य साहेमाणो य सुहंसुहेणं विहरइ।। शयनीयों पर बैठता, सोता, सुनता, देखता और चित्रसभा को सराहता हुआ सुखपूर्वक विहार करता। महाणससाला-पदं २१. तएणं नदे मणियारसेट्ठी दाहिणिल्ले वणसडे एगं महं महाणससालं कारावेइ--अणेगखंभसयसण्णिविटुंजाव पडिरूवं । तत्थ णं बहवे पुरिसा दिन्नभइ-भत्त-वेयणा विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडेंति, बहूणं समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगाणं परिभाएमाणा-परिभाएमाणा विहरति ।। महानसशाला-पद २१. नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने दक्षिण दिशा वाले वन-खण्ड में एक महान महानसशाला बनवायी। वह अनेक शत खम्भों पर सन्निविष्ट यावत् असाधारण थी। वहां भृति, भोजन और वेतन पर काम करने वाले बहुत से पुरुष विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करते और बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और वनीपकों को वितरित करते रहते। तिगिच्छियसाला-पदं २२. तण णं नदे मणियारसेट्ठी पच्चत्थिमिल्ले वणसडे एगं महं तिगिच्छियसालं कारावेइ--अणेगखंभसयण्णिविटुंजाव पडिरूवं। तत्थ णं बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य जाणुयपुत्ता य कुसला य कुसलपुत्ता य दिन्नभइ-भत्त-वेयणा बहूणं वाहियाण य गिलायाण य रोगियाण य दुब्बलाण य तेइच्छकम्म करेमाणा-करेमाणा विहरति । अण्णे य एत्थ बहवे पुरिसा दिन्नभइ-भत्त-वेयणा तेसिं बहूणं वाहियाण य गिलाणाण य रोगियाण य दुब्बलाण य ओसह-भेसज्ज-भत्तपाणेणं पडियारकम्म करेमाणा विहरंति॥ चिकित्साशाला-पद २२. नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने पश्चिम वाले वन-खण्ड में एक विशाल चिकित्साशाला बनवायी। वह अनेक शत खम्भों पर सन्निविष्ट यावत् असाधारण थी। वहां भृति, भोजन और वेतन पर काम करने वाले बहुत वैद्य, वैद्य-पुत्र, चिकित्सा-शास्त्रज्ञ, चिकित्सा-शास्त्रज्ञ-पुत्र, कुशल-कुशल-पुत्र बहुत से व्याधितों, ग्लानों, रोगियों और दुर्बलों की चिकित्सा करते रहते थे। वहां भृति, भोजन और वेतन पर काम करने वाले अन्य बहुत से परिचारक पुरुष उन व्याधितों, ग्लानों, रोगियों और दुर्बलों की औषध, भैषज्य एवं भक्त-पान से परिचर्या करते रहते थे। अलंकारियसभा-पदं २३. तए णं नदे मणियारसेट्ठी उत्तरिल्ले वणसडे एगं महं अलंकारियसभं कारावेइ--अणेगखंभसयसण्णिविटुं जाव पडिरूवं । तत्थ णं बहवे अलंकारिय-मणुस्सा दिन्नभइ-भत्त-वेयणा बहूणं समणाण य अणाहाण य गिलाणाण य रोगियाण य दब्बलाण य अलंकारियकम्म करेमाणा- करेमाणा विहरति ।। आलंकारिकसभा-पद २३. नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने उत्तर वाले वन-खण्ड में एक महान आलंकारिक सभा' बनवायी। वह अनेक शत खम्भों पर सन्निविष्ट यावत् असाधारण थी। वहां भृति, भोजन और वेतन पर काम करने वाले बहुत से आलंकारिक-पुरुष बहुत से श्रमणों, अनाथों, ग्लानों, रोगियों और दुर्बलों का अलंकरण करते रहते थे। नंदस्स पसंसा-पदं २४. तए णं तीए नंदाए पोक्खरिणीए बहवे सणाहा य अणाहा य पंथिया य पहिया य करोडिया य तणहारा य पत्तहारा य कट्ठहारा नन्द का प्रशंसा-पद २४. उस नन्दा पुष्करिणी में अनेक सनाथ, अनाथ, पान्थ, पथिक, कापालिक, तृणहारक, पत्रहारक, काष्ठहारक व्यक्ति आते। उनमें से Jain Education Intemational Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : सूत्र २४-२८ २६८ नायाधम्मकहाओ य--अप्पेगइया पहायंति अप्पेगइया पाणियं पियंति अप्पेगइया कुछ स्नान करते, कुछ पानी पीते, कुछ पानी ले जाते और कुछ वहां पाणियं संवहति अप्पेगइया विसज्जियसेय-जल्ल-मल-परिस्सम- पसीना, जल्ल, मल, परिश्रम, नींद और भूख-प्यास का अपनयन कर निद्द-खुप्पिवासा सुहंसुहेणं विहरति । सुखपूर्वक क्रीड़ा करते। रायगिहविणिग्गओ वि यत्थ बहुजणो किं ते जलरमण राजगृह नगर से विनिर्गत जन-समूह भी अनेक शकुनि-समूहों विविहमज्जण-कयलिलयाहरय-कुसुम-सत्थरय-अणेगसउणगण- द्वारा कृत मधुर कलरव से संकुल उन जल-क्रीड़ा-गृहों, स्नान-गृहों, कयरिभियसंकुलेसु सुहंसुहेणं अभिरममाणो-अभिरममाणो कदली-गृहों, लता-गृहों और पुष्प-शय्याओं में सुख-पूर्वक अभिरमण विहरइ॥ करता हुआ अभिरमण करता हुआ विहार करने लगा। २५. तए णं नंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो य पियमाणो २५. नन्दा पुष्करिणी में स्नान करता हुआ, पानी पीता हुआ और पानी ले य पाणियं च संवहमाणो य अण्णमण्णं एवं वयासी--धण्णे णं जाता हुआ जन-समूह परस्पर इस प्रकार कहतादेवाणुप्पिया! नदे मणियारसेट्ठी, कयत्थे णं देवाणुप्पिया! नदे धन्य है देवानुप्रियो! नन्द मणिकार श्रेष्ठी, मणियारसेट्ठी, कयलक्खणे णं देवाणुप्पिया! नदे मणियारसेट्ठी, कृतार्थ है देवानुप्रियो! नन्द मणिकार श्रेष्ठी, कयपुण्णे णं देवाणुप्पिया! नदे मणियारेसेट्ठी, कया णं लोया! कृतलक्षण है देवानुप्रियो! नन्द मणिकार श्रेष्ठी, सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले (नंदस्स मणियारस्स?) ? कृतपुण्य है देवानुप्रियो! नन्द मणिकार श्रेष्ठी। जस्स णं इमेयारूवा नंदा पोक्खरिणी चाउक्कोणा जाव पडिरूवा लोगों! मनुष्य-जन्म और जीवन का फल किसने प्राप्त किया है? जाव रायगिहविणिग्गओ जत्थ बहुजणो आसणेसु य सयणेसु य (नन्द मणिकार ने?) जिसने इस विशिष्ट प्रकार की चतुष्कोण यावत् सण्णिसण्णो य संतुयट्टो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सुहंसुहेणं असाधारण नन्दा पुष्करिणी बनवाई, यावत् राजगृह से विनिर्गत विहरइ । तं धन्ने णं देवाणुप्पिया! नदे मणियारसेट्ठी, कयत्थे जन-समूह वहां आसनों और शयनीयों पर बैठता हुआ, सोता हुआ, णं देवाणुप्पिया! नदे मणियारसेट्ठी, कयलक्खणे णं देवाणुप्पिया! देखता हुआ और सराहता हुआ सुखपूर्वक विहार करता। नदे मणियारसेट्ठी, कयपुण्णे णं देवाणुप्पिया! नदे मणियारसेट्ठी, इसलिए धन्य है देवानुप्रियो! नन्द मणिकार श्रेष्ठी, कया णं लोया! सुलद्धे माणुस्सए जम्मजीवियफले नंदस्स कृतार्थ है देवानुप्रियो! नन्द मणिकार श्रेष्ठी, मणियारस्स? कृतलक्षण है देवानुप्रियो। नन्द मणिकार श्रेष्ठी, कृतपुण्य है देवानुप्रियो! नन्द मणिकार श्रेष्ठी। लोगों ! मनुष्य जन्म और जीवन का फल किसने प्राप्त किया है, नंद मणिकार ने? २६. तए णं रायगिहे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह- २६. राजगृह में दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और महापह-पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ मार्गों में जन-समूह परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना और एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ--धन्ने णं देवाणुप्पिया! नदे मणियारसेट्ठी प्ररूपणा करता--धन्य है देवानुप्रियो! नन्द मणिकार श्रेष्ठी...वर्णन सो चेव गमओ जाव सुहंसुहेणं विहरइ।। पूर्ववत् यावत् सुखपूर्वक विहार करता। २७. तए णं से नदे मणियारसेट्ठी बहुजणस्स अंतिए एयमहूँ सोच्चा २७. वह नन्द मणिकार श्रेष्ठी जन-समूह से यह अर्थ सुनकर, अवधारण निसम्म हट्ठतुढे धाराहत-कलंबगं विव समूसवियरोमकूवे परं कर, हृष्ट तुष्ट होता। उसके रोमकूप धारा से आहत कदम्ब-कुसुम सायासोक्खमणुभवमाणे विहरइ।। की भांति उच्छ्वसित हो उठते। वह परम साता और सुख का अनुभव करता हुआ विहार करने लगा। नंदस्स रोगुप्पत्ति-पदं २८. तए णं तस्स नंदस्स मणियारसेविस्स अण्णया कयाइ सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउन्भूया । तं जहा-- गाहा-- सासे कासे जरे दाहे, कुच्छिसूले भगंदरे । अरिसा अजीरए, दिट्ठी-मुद्धसूले अकारए ।। अच्छिवेयणा कण्णवेयणा कंडू दउदरे कोढे ।।१।। नन्द के शरीर में रोगोत्पत्ति-पद २८. एक समय उस नन्द मणिकार श्रेष्ठी के शरीर में सोलह रोगातंक प्रादुर्भूत हुए। जैसे-- गाथा-- श्वास, कास, ज्वर, दाह, उदर-शूल, भगंदर, अर्श, अजीर्ण, दृष्टि-शूल, शिरःशूल, अरुचि, अक्षि-वेदना, कर्ण-वेदना, कण्डू, जलोदर और कुष्ठ। Jain Education Intemational Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २६९ तेरहवां अध्ययन : सूत्र २९-३२ तिगिच्छा-पदं चिकित्सा-पद २९. तए णं से नदे मणियारसेट्ठी सोलसहिं रोगायंकेहिं अभिभए २९. नन्द मणिकार श्रेष्ठी ने सोलह रोगातंकों से अभिभूत होकर कौटुम्बिक समाणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-गच्छह णं पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम तुब्भे देवाणुप्पिया! रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर- जाओ और राजगृह नगर में दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, चउम्मुह-महापह-पहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा- राजमार्गों, और मार्गों पर ऊंचे स्वर से उद्घोषणा करते-करते इस उग्घोसेमाणा एवं वयह--एवं खलु देवाणुप्पिया! नंदस्स मणियारस्स प्रकार कहो--देवानुप्रियो! नन्द मणिकार के शरीर में सोलह रोगातक सरीरगंसि सोलस रोयायंका पाउब्भूया। (तं जहा--सासे जाव प्रादुर्भूत हुए हैं। (जैसे-श्वास यावत् कुष्ठ) अत: देवानुप्रियो! जो भी कोढे) तं जो णं इच्छइ देवाणुप्पिया! विज्जो वा विज्जपुत्तो वा वैद्य अथवा वैद्य-पुत्र, चिकित्सा शास्त्रज्ञ अथवा चिकित्सा शास्त्रज्ञ-पुत्र, जाणुओ वा जाणुअपुत्तो वा कुसलो वा कुसलपुत्तो वा नंदस्स कुशल अथवा कुशल-पुत्र नन्द मणिकार के उन सोलह रोगातकों में से मणियारस्स तेसिं च णं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायक एक भी रोगातंक को उपशांत करना चाहे, नन्द मणिकार श्रेष्ठी उसे उवसामित्तए, तस्स णं नदे मणियारसेट्ठी विउलं अत्थसंपयाणं विपुल अर्थ-सम्पदा प्रदान करेगा। इस प्रकार दूसरी, तीसरी बार भी दलयइ त्ति कटु दोच्चंपि तच्चंपि घोसणं घोसेह, घोसेत्ता घोषणा करो। घोषणा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । तेवि तहेव पच्चप्पिणति ।। भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया। वच ३०. तए णं रायगिहे नगरे इमेयारूवं घोसणं सोच्चा निसम्म बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य जाणुयपुत्ता य कुसला य कुसलपुत्ता य सत्थकोसहत्थगया य सिलियाहत्थगया य गुलियाहत्थगया य ओसह-भेसज्जहत्थगया य सएहिं-सएहिं गिहेहिंतो निक्खमंति, निक्खमित्ता रायगिहं मझमझेणं जेणेव नंदस्स मणियारसेट्ठिस्स गिहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता नंदस्स मणियारसेट्ठिस्स सरीरं पासंति, पासित्ता तेंसि रोगायंकाणं नियाणं पुच्छंति, पुच्छित्ता नंदस्स मणियारसेट्ठिस्स बहूहिं उव्वलणेहि य उव्वट्टणेहि य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य विरेयणेहि य सेयणेहि य अवदहणेहि य अवण्हावणेहि य अणुवासणाहि य वत्थिकम्मेहि य निरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणाहि य पच्छणाहि य सिरावत्थीहि य तप्पणाहि य पुडवाएहि य छल्लीहि य वल्लीहि य मूलेहि य कदेहि य पत्तेहि य पुप्फेहि य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छंति तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, नो चेव णं संचाएंति उवसामेत्तए।। ३०. राजगृह नगर में यह घोषणा सुनकर, अवधारण कर बहुत से वैद्य और वैद्य-पूत्र, चिकित्सा-शास्त्रज्ञ और चिकित्सा शास्त्रज्ञ-पुत्र, कुशल और कुशल-पुत्र अपने हाथों में शस्त्र-कोश, शिलिका,' गुलिका तथा औषध-भेषज्य लेकर अपने-अपने घरों से निकले। निकलकर राजगृह नगर के बीचो-बीच होते हुए जहां नन्द मणिकार श्रेष्ठी का घर था, वहां आए। वहां आकर नन्द मणिकार श्रेष्ठी के शरीर को देखा। देखकर रोगातंक का कारण पूछा। पूछकर बहुत से उपलेपन, उबटन, स्नेह-पान, वमन, विरेचन, स्वेदन, अवदहन, अपस्नापन, अनुवासन, वस्तिकर्म, निरूह (द्रव्य पक्व तेल की एनिमा-विरेचन विशेष), शिरावेध, तक्षण, प्रतक्षण, शिरोवस्ति, तर्पण, पुटपाक तथा छाल, बेल, मूल, कन्द, पत्र, पुष्प, फल, बीज, शिलिका, गुलिका, औषध, भेषज्य के द्वारा नन्द मणिकार श्रेष्ठी के सोलह रोगातंकों में से एक रोगातक को भी उपशान्त करना चाहा, किन्तु वे उपशान्त नहीं कर पाए। ३१. तए णं ते बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य जाणुयपुत्ता य कुसला य कुसलपुत्ता य जाहे नो संचाएंति तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायक उवसामित्तए, ताहे संता तंता परितंता निविण्णा समाणा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया।। ३१. वे बहुत से वैद्य, वैद्य-पुत्र, चिकित्सा-शास्त्रज्ञ, चिकित्सा-शास्त्रज्ञ-पुत्र, कुशल और कुशल-पुत्र उन सोलह रोगातंकों में से एक भी रोगातंक को उपशांत नहीं कर पाए, तो वे श्रान्त, क्लान्त, परिक्लान्त और उदास होकर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में चले गए। भगवओ उत्तरे दद्दुरदेवस्स ददुरभव-पदं ३२. तए णं नदे मणियारसेट्ठी तेहिं सोलसेहिं रोगायंकेहिं अभिभूए समाणे नंदाए पुक्खरिणीए मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे तिरिक्खजोणिएहिं निबद्धाउए बद्धपएसिए अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे कालमासे कालं किच्चा नंदाए पोक्खरिणीए ददुरीए कुच्छिंसि ददुरत्ताए उववण्णे॥ भगवान के उत्तर के अन्तर्गत दर्दुरदेव का दर्दुर-भव-पद ३२. वह नन्द मणिकार श्रेष्ठी उन सोलह रोगातंकों से अभिभूत होकर, नन्दा पुष्करिणी में मूर्छित, ग्रथित, गृद्ध और अध्युपन्न होकर प्रदेशबन्धपूर्वक तिर्यक् योनिक आयुष्य का बन्धन कर आर्त, दुःखार्त और वासना से आर्त हो, मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर, नन्दा पुष्करिणी में एक मण्डूकी की कुक्षि में दर्दुर के रूप में उत्पन्न हुआ। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : सूत्र ३३-३६ २७० नायाधम्मकहाओ ३३. तए णं नदे ददुरे गब्भाओ विणिमुक्के समाणे उम्मुक्कबालभावे ३३. गर्भ से विनिर्मुक्त होने पर वह नन्द-दर्दुर शैशव को लांघकर विज्ञ विण्णय-परिणयमित्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते नंदाए पोक्खरिणीए और परिपक्व हो, यौवन को प्राप्त कर उस नन्दा पुष्करिणी में अभिरममाणे-अभिरममाणे विहरइ।। अभिरमण करता हुआ अभिरमण करता हुआ विहार करने लगा। ३४. तए णं नंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो ण्हायमाणो य पियमाणो ३४. नन्दा पुष्करिणी में स्नान करता हुआ, पानी पीता हुआ और पानी य पाणियं च संवहमाणो य अण्णमण्णं एवमाइक्खइ एवं भासइ ले जाता हुआ जनसमूह परस्पर यह आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन एवं एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ--धन्ने णं देवाणुप्पिया! नदे मणियारे, प्ररूपण करता--धन्य है देवानुप्रियो! नन्द मणिकार श्रेष्ठी, जिसकी यह जस्स णं इमेयारूवा नंदा पुक्खरिणी--चाउक्कोणा जाव पडिरूवा॥ नंदा पुष्करिणी चतुष्कोण यावत् असाधारण है। ददुरस्स जाइसरण-पदं ३५. तए णं तस्स ददुरस्स तं अभिक्खणं-अभिक्खणं बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--कहिं मन्ने मए इमेयारूवे सद्दे निसंतपुव्वे त्ति कटु सुभेणं परिणामेणं पसत्येणं अज्झवसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णिपुवे जाईसरणे समुप्पण्णे, पुव्वजाई सम्म समागच्छइ ।। दर्दुर का जातिस्मरण-पद ३५. जन-समूह से बार-बार इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर उस दर्दुर के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--लगता है, इस प्रकार के शब्द मैंने कहीं पहले भी सुने हैं। इस प्रकार चिन्तन करते-करते शुभपरिणामों, प्रशस्त अध्यवसायों और विशुद्धयमान लेश्याओं के कारण तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए उसे समनस्क जन्मों को जानने वाला जाति-स्मरण ज्ञान समुत्पन्न हुआ। वह पूर्व-जन्म को भली-भांति जानने लगा। ३६. तए णं तस्स ददुरस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु अहं इहेव रायगिहे नयरे नदे नाम मणियारे-अड्ढे । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे। तए णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइए सत्तसिक्खावइए--दुवालसविहे गिहिधम्मे पडिवण्णे । तए णं अहं अण्णया कयाइ असाहुदंसणेण य जाव मिच्छत्तं विप्पडिवण्णे। तए णं अहं अण्णया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जाव पोसहं उवसंपज्जित्ता णं विहरामि । एवं जहेव चिंता। आपुच्छणा। नंदापुक्खरिणी। वणसंडा। सभाओ। तं चेव सव्वं जाव नंदाए दद्यरत्ताए उववण्णे। तं अहो णं अहं अधण्णे अपुण्णे अकयपुण्णे निग्गंथाओ पावयणाओ नटे भट्ठ परिन्भटे। तं सेयं खलु मम सयमेव पुन्वपडिवण्णाइं पंचाणुव्वयाई उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए--एवं सपेहेइ, संपेहेत्ता पुव्वपडिवण्णाई पंचाणुव्वयाई आरुहेइ, आरुहेत्ता इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ--कप्पइ मे जावज्जीवं छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स विहरितए, छट्ठस्स वि य णं पारणगंसि कप्पइ मे नंदाए पोक्खरिणीए परिपेरतेसु फासुएणं ण्हाणोदएणं उम्मदणालोलियाहि य वित्तिं कप्पेमाणस्स विहरित्तए--इमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ, जावज्जीवाए छटुंछटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ।। ३६. उस दर्दुर के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--मैं इसी राजगृह नगर में 'नन्द' नाम का मणिकार था--आढ्य । उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर समवसृत हुए। मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत--इस बारह प्रकार का गृही-धर्म स्वीकार किया था। किसी समय साधु-दर्शन के अभाव में यावत् मैं गाढ़ मिथ्यात्व को प्रतिपन्न हो गया। ___मैं एक बार ग्रीष्म-ऋतु के समय यावत् पौषध स्वीकार कर विहार कर रहा था। इस प्रकार चिन्तन, आपृच्छना, नन्दा पुष्करिणी, वन-खण्ड, सभाएं इत्यादि वह सम्पूर्ण दृश्य उसकी स्मृति में उभर आये यावत् नन्दा में दर्दुर रूप में उत्पन्न हुआ। अत: अहो! मैं अधन्य हूँ, अपुण्य हूँ, अकृतपुण्य हूँ जो कि निर्ग्रन्थ प्रवचन से नष्ट, भ्रष्ट और परिभ्रष्ट हो गया। अत: मेरे लिए उचित है मैं स्वयमेव पूर्व स्वीकृत पांच अणुव्रतों को स्वीकार कर विहार करूं--उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर पूर्व स्वीकृत पांच अणुव्रतों का आरोपण किया। आरोपण कर यह अभिग्रह स्वीकार किया--मैं जीवनपर्यन्त निरन्तर षष्ठ-षष्ठ तप:कर्म (दो-दो दिन का उपवास) से स्वयं को भावित करते हुए विहार करूंगा। षष्ठ भक्त के पारणक में नन्दा पुष्करिणी के आसपास प्रासुक स्नानोदक तथा इधर-उधर बिखरी हुई पिष्टिका (पीठी) से वृत्ति का निर्वाह करते हुए विहार करूंगा--ऐसा अभिग्रह स्वीकार किया और जीवनपर्यन्त निरन्तर षष्ठ-षष्ठ भक्त तपःकर्म से स्वयं को भावित करता हआ विहार करने लगा। Jain Education Intemational Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ भगवओ रायगिहे समवसरण-पदं ३७. तेण कालेणं तेण समएणं अहं गोयमा! गुणसिलए समोसढे । परिसा निग्गया ।। -- ३८. तए णं नंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो व्हायमाणो य पियमाणो य पाणियं च संवहमाणो य अण्णमण्णं एवमाइक्स एवं खलु समणे भगवं महावीरे इहेब गुणसिलए चेइए समोसटे । तं गच्छामो देवाप्पिया । समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो । एयं णे इहभवे परभवे य हियाए सुहाए समाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ ।। ददुरस्त समवसरणं पइ गमण-पदं ३९. तए णं तस्स ददुरस्त बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा निसम्म अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मनोगए संकष्पे समुप्पज्जित्था -- एवं खलु समणे भगवं महावीरे समोसढे । तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि-- एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता नंदाओ पोक्खरिणीओ सणियं सणियं पच्चुत्तरेह, जेणेव रायमो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता ताए उक्किट्ठाए दद्दुरगईए वीईवयमाणे - वीईवयमाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव पहारेत्थ गमणाए ।। ४०. इमं च णं सेणिए राया भंभसारे व्हाए जाव सब्वालंकारविभूसिए हत्यिसंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छलेणं धरिज्जमागेणं सेयवरचामरेहि व उद्घव्यमाणेहिं महपाहयगय रह भड चडगर- (कलियाए ? ) चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरितुटे मम पायवंदए हव्वमागच्छइ ।। दद्दुरस्त मच्चु - पदं ४१. तए णं से ददुरे सेणियस्स रण्णो एगेणं आसकिसोरएणं वामपाणं अक्कंते समाणे अंतनिग्घाइए कए यावि होत्या ।। २७१ ४२. तए णं से ददुरे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कट्टु एगतमवक्कमइ, करयलपरिगहियं सिरसावत्तं मत्वए अंजलिं कट्टु एवं वयासी--नमोत्पु णं अरहंताणं जान सिद्धिगइनामपेज्जं ठाणं संपत्ताणं । नमोत्यु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सिद्धिगइनामघेज्जं ठाणं संपाविउकामस्स | पुव्विपि य णं मए समणस्स भगवजो महावीरस्स अंतिए पूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए, थूलए मुसावाए पच्चक्खाए, थूलए अदिण्णादाणे पच्चवखाए, पूलए मेहुणे पच्चक्लाए, बूलए परिहे तेरहवां अध्ययन : सूत्र ३७-४२ भगवान का राजगृह में समवसरण पद ३७. गौतम ! उस काल और उस समय मैं गुणशिलक चैत्य में हुआ। जन-समूह ने निर्गमन किया। समवत ३८. नन्दा पुष्करिणी पर स्नान करता हुआ, पानी पीता हुआ और पानी ले जाता हुआ जन-समूह परस्पर इस प्रकार कह रहा था -- श्रमण भगवान महावीर यहीं गुणशिलक चैत्य में समवतृत हैं। इसलिए देवानुप्रियो ! हम चलें। श्रमण भगवान महावीर को वंदना करें, नमस्कार करें। उनका सत्कार करें, सम्मान करें। वे कल्याण-कारक, मंगलमय धर्मदेव और ज्ञानमय हैं, अतः उनकी पर्युपासना करें। यह हमारे इस भव और परभव-- दोनों में हित, सुख, क्षेम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा। F दर्दुर का समवसरण की ओर गमन-पद ३९. जन-समूह से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर उस दर्दुर के मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-- श्रमण भगवान महावीर समवसृत हुए हैं। अतः मैं जाऊं और श्रमण भगवान महावीर को वन्दना करूं--ऐसी संप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर नन्दा पुष्करिणी से धीरे-धीरे बाहर निकला। जहां राजमार्ग था वहां आया। वहां आकर वह उस उत्कृष्ट दर्दुर गति से चलता चलता जहां मैं था वहां मेरे पास आने का संकल्प किया। ४०. श्रेणिक राजा भंभासार स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, प्रवर हस्ति-स्कन्ध पर आरूढ़ हो, कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण कर, प्रवर श्वेत चामर डुलाते हुए अश्व, गज, रथ तथा पदाति सैनिकों की नाना टुकड़ियों से यात् चतुरंगिणी सेना के साथ, उससे परिवृत हो मेरे पाद-वन्दन के लिए शीघ्रता से आया। दर्दुर का मृत्यु-पद ४१. वह दर्दुर, राजा श्रेणिक के एक अश्व- किशोर के बांए पांव से आक्रान्त होने पर भीतर तक आहत हो गया। ४२. वह दर्दुर शक्ति - हीन, बल-हीन, वीर्य-हीन तथा पुरुषाकार और पराक्रम से हीन हो गया। यह शरीर अधारणीय है--ऐसा सोचकर वह एकान्त में गया। वहां जाकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा- नमस्कार हो, धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को संप्राप्त अर्हत भगवान को नमस्कार हो सिद्धि गति नामक स्थान को संप्राप्त करने वाले श्रमण भगवान महावीर को । 1 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ तेरहवां अध्ययन : सूत्र ४२-४५ २७२ पच्चक्खाए। तं इयाणिं पि तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि जावज्जीवं, सव्वं असण-पाण-खाइम-साइमं पच्चक्खामि जावज्जीवं । जपि य इमं सरीरं इ8 कंतं जाव मा णं विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतु एयंपि य णं चरिमेहिं ऊसासेहिं वोसिरामि त्ति कटु ।। पहले भी मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया था। स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान किया था। स्थूल अदत्तादान का प्रत्याख्यान किया था। स्थूल मैथुन का प्रत्याख्यान किया था। स्थूल परिग्रह का प्रत्याख्यान किया था। अत: इस समय भी मैं उन्हीं के परिपार्श्व में जीवनपर्यंत सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ। यावत् सर्व परिग्रह का प्रत्याख्यान करता है। मैं जीवनपर्यन्त सर्व अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रत्याख्यान करता हूँ और जो यह शरीर मुझे इष्ट, कमनीय है यावत् इसे विविध प्रकार के रोग, आतंक तथा परीषह और उपसर्ग न छू पाएं, इस का भी अन्तिम श्वास-प्रश्वास तक व्युत्सर्ग करता हूँ। ४३. तए णं से ददुरे कालमासे कालं किच्चा जाव सोहम्मे कप्पे ददुरवडिंसए विमाणे उववायसभाए ददुरदेवत्ताए उववण्णे। एवं खलु गोयमा! ददुरेणं सा दिव्वा देविड्ढी लद्धा पत्ता अभिसमण्णागया। ४३. वह दुर्दुर मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर यावत् सौधर्म कल्प और दुर्दुरावतंसक-विमान की उपपात सभा में दर्दुर-देव के रूप में उपपन्न हुआ। गौतम! इस प्रकार दर्दुर को वह दिव्य देवर्द्धि उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत है। ४४. ददुरस्स णं भंते! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । से णं ददुरे देवे महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ मुच्चिहिइ परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेहिइ।। ४४, भन्ते! दर्दुर-देव की स्थिति कितने काल की बतलायी गयी है? गौतम! उसकी स्थिति चार पल्योपम बतलायी गयी है। वह दर्दुर देव महाविदेह वर्ष में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वत होगा तथा सब दुःखों का अन्त करेगा। निक्खेव-पदं ४५. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तेरसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। --त्ति बेमि॥ निक्षेप-पद ४५. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के तेरहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। --ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा संपन्नगुणो वि जओ, सुसाहु-संसग्गवज्जिओ पायं। पावइ गुणपरिहाणिं, ददुरजीवोव्व मणियारो ।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धत निगमन-गाथा १. गुण-सम्पन्न व्यक्ति भी सुसाधुओं के ससंर्ग के अभाव में प्राय: गुण-परिहानि को प्राप्त होता है, जैसे--दर्दुर का जीव मणिकार। अथवा-- तित्थयर-वंदणत्थं, चलिओ भावेण पावए सग्गं । जह ददुरदेवेणं, पत्तं वेमाणिय-सुरत्तं ।।२।। अथवा--- तीर्थंकर को वन्दना करने के लिए चलने वाला (शुभ) भावना के कारण स्वर्ग को पा लेता है, जैसे--दर्दुर देव ने वैमानिक सुर की अवस्था को प्राप्त किया। Jain Education Intemational al For Private & Personal use only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र-२३ ५. आलंकारिकसभा (आलंकारिकसभा) सौन्दर्य-प्रसाधन सभा (Beauty parlor) वृत्तिकार ने इसका अर्थ नापित कर्मशाला किया है।' सूत्र-३ १. परिपूर्ण (केवलकप्पं) अपना कार्य करने की सामर्थ्य से परिपूर्ण अथवा परिपूर्ण ।' प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि दर्दुर देव परिपूर्ण जम्बू द्वीप को जानता, देखता है। स्थानांगवृत्ति में केवलकल्प के तीन अर्थ किए गए हैं-- १. अपना कार्य करने की सामर्थ्य से परिपूर्ण। २. केवल ज्ञान की भांति परिपूर्ण। ३. समय के (आगम के) सांकेतिक शब्द के अनसार केवल कल्प अर्थात् परिपूर्ण। सूत्र-३० ६. शिलिका (सिलिया) शस्त्र को तीखा करने के लिए किरात (चिराईता), खदिर आदि तृण वृक्षों का प्रयोग किया जाता था। इसी प्रकार पत्थर का भी प्रयोग किया जाता था। सूत्र-५ २. कूटागार (कूडागार) विवरण हेतु द्रष्टव्य--भगवई खण्ड १. पृ. १९ सूत्र-२० ३. तालाचर कर्म (तालायरकम्म) तालाचर कर्म का अर्थ है नाट्य कर्म । इसका अर्थ अभिनय भी मिलता है।' सूत्र-३० ७. प्रस्तुत सूत्र में आयुर्वेद की पद्धति से की जाने वाली चिकित्सा का प्रतिपादन किया गया है। पंचकर्म की प्रक्रिया में स्नेहपान, वमन, विरेचन, स्वेदन, अनुवासन तथा निरुहवस्ति आदि करने का विधान है। उपलेपन आदि उस चिकित्सा के प्रयोग और साधन हैं-- १. उपलेपन--औषधियों का लेप। २. उद्वर्तन--उबटन ३. स्नेहपान--स्निग्ध द्रव्यों--घृत आदि को पकाकर पिलाना। ४. पुटपाक--औषधि द्रव्य के कल्प को भेषज्य विधि से पकाकर औषध तैयार करने की विधि। ५. विरेचन--अधो विरेचक । ६. स्वेदन--रोग की शान्ति के लिए सात प्रकार के धान्य की पोटली बांधना। ७. अपदहन--रोग प्रतिकार के लिए रुग्ण अंग पर डाम लगाना। ८. अपस्नान--शरीर की चिकनाई दूर करने वाले द्रव्यों से मिश्रित जल से स्नान करना। ९. अनुवासन--चर्मयन्त्र के प्रयोग से अपानमार्ग द्वारा जठर में तैल आदि का प्रवेशन। १०. वस्तिकर्म--चर्म वेष्टन प्रयोग से सिर आदि में स्नेहद्रव्य को भरना अथवा गुदा में बत्ती आदि लगाना। सूत्र २२ ४. व्याधितों, ग्लानों, रोगियों (वाहियाण-गिलाण-रोगियाण य) व्याधि--शारीरिक रोग। वृत्तिकार ने व्याधित का अर्थ विशिष्ट चैतसिक पीडायुक्त अर्थात् शोक आदि के कारण विक्षिप्तचित्त, मनोरोगी तथा वैकल्पिक अर्थ--विशिष्ट व्याधि--कुष्ठादि स्थिररोगों से पीड़ित किया है। ग्लान--अशक्त, जिनका हर्ष क्षीण हो चुका है। रोगी--ज्वर, कुष्ठ आदि रोगों से पीड़ित अथवा आशुघाती रोगों से पीड़ित। १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१८७--केवल: परिपूर्ण: स चासौ कल्पश्च स्वकार्यकरण-समर्थः ५. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१८७--वाहियाणं ति व्याधितानां विशिष्टचित्तपीडावतां इति केवलकल्पः, केवल एव वा कल्प: केवलकल्पः । शोकादि-विप्लुतचित्तानामित्यर्थः अथवा--विशिष्टा आधिर्यस्मात् स २. स्थानांगवृत्ति, पत्र-५७--केवल:-- परिपूर्णः स चासौ स्वकार्यसामर्थ्यात् व्याधिः स्थिररोग: कुष्ठादिस्तद्वताम्। कल्पश्च केवलज्ञानमिव वा परिपूर्णतयेति केवलकल्पः, अथवा कल्पः ६. वही--ग्लानाना--क्षीणहर्षाणामशक्तानामित्यर्थः । समयभाषया परिपूर्णः। ७. वही--रोगिताना-सञ्जातज्वरकुष्ठादिरोगाणामाशुधातिरोगाणां वा। ३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१८७-तालाचरकम ति प्रेक्षणककर्मविशेषः । ८. वही, पत्र-१८८--अलंकारियसहं ति--नापितकर्मशाला। ४. आप्टे ९. वही, पत्र-१९०--शिलिका:-किराततिक्तादितृणरूपाः प्रततपाषाणरूपा वा शस्त्रतीक्ष्णीकरणाः । Jain Education Intemational Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां अध्ययन : टिप्पण ७-११ २७४ नायाधम्मकहाओ ११. निरूह--यह अनुवासन का ही एक प्रकार है। मात्र द्रव्यकृत सूत्र-४१ भेद है। १०. भीतर तक आहत (अंतनिग्घाइए) १२. शिरावेधन--नाड़ी वेधन-विस्तार हेतु द्रष्टव्य सूयगडो १/९/२२ इस पद में अन्त शब्द को अन्तस् मानकर उसका अनुवाद किया का टिप्पण। गया है अत: इसका अर्थ है भीतर तक । इसका आन्त्र अर्थ भी किया जा १३. तक्षण--क्षुरप्र आदि से त्वचा को पतला करना। सकता है--आन्त्र तक आहत हो गया। १४. प्रतक्षण--त्वचा को कुछ विदीर्ण करना। इससे ज्ञात होता है उस समय शल्य चिकित्सा भी प्रचलित थी। १५. शिरोवस्ति--सिर पर चर्ममय कोश बांधकर उसे संस्कारित सूत्र-४२ तेल से भरना। ११. सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं (सव्वं पाणाइवायं १६. तर्पणा--स्नेह द्रव्य विशेष से उपबृंहण बल आदि का संवर्धन पच्चक्खामि) प्रस्तुत सूत्र में मेंढ़क अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में सब प्रकार करना। के प्राणातिपात आदि का प्रत्याख्यान करता है। यहां सर्व शब्द का ग्रहण सूत्र-३२ हुआ है, फिर भी यह सर्वविरति का बोधक नहीं है। क्योंकि तिर्यंच गति ८. आयुष्य का बन्धन कर (निबद्धाउए) में देशविरति ही होती है। आयुष्य कर्म की प्रकृति, स्थिति और अनुभाग का बन्ध । दर्दुर ने “सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ'-ऐसा संकल्प बंधपएसिए-आयुष्यकर्म संबन्धी प्रदेश बन्ध। किया--यह विमर्शनीय है। विमर्श का हेतु एक सिद्धान्त है-तिर्यक् जीवों के सर्वविरति नहीं होती। सूत्र-४० वृत्तिकार ने इस समस्या पर विमर्श किया है। उन्होंने दो गाथाएं ९. भंभासार (भभसारे) उद्धृत कर इस समस्या को सुलझाने का प्रयास किया है। उद्धृत गाथा का भंभासार श्रेणिक का नाम है। विस्तार हेतु द्रष्टव्य--उत्तरज्झय- प्रतिपादन यह है--तिर्यंचों में महाव्रत का सद्भाव होने पर भी उनमें णाणि २, परिशिष्ट ४, पृ.५६-५७ चारित्र का परिणाम नहीं होता। १. (क) ज्ञातावृत्ति, पत्र-१९० (ख) आयुर्वेदीय शब्दकोष २. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१९०--निबद्धाउए त्ति-प्रकृतिस्थित्यनुभागबन्धापेक्षया । ३. वही--बंधपएसिए त्ति-प्रदेशबन्धापेक्षयेति । ४. वही--'अंतनिघाइए त्ति-निर्घातितान्तः । ५. भगवई ६/६५, ७/५४-५६ ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१९०--सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि' इत्यनेन यद्यपि सर्वग्रहणं तथापि तिरश्चां देशविरतिरेव, इहार्थे गाथे-- तिरियाणं चारित्तं निवारियं अह य तो पुणो तेसिं । सुव्वइ बहुयाणंपि हु महव्वयारोहणं समए ।।१।। न महव्वयं सब्भावेवि चरणपरिणामसम्भवो तेसिं । न बहुगुणाणंपि जओ केवलसंभूइ परिणामो ।।२।। Jain Education Interational Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन में तेतलीपुत्र का आख्यान वर्णित है। इसलिए इसका यह नाम रखा है । इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है--दु:ख भी वैराग्य का एक हेतु बनता है। जीवन में दुःख या प्रतिकूलता आने पर व्यक्ति को धर्म के मर्म को समझने का अवसर मिलता है। धर्म का हार्द समझ में आने पर अहंकार और ममकार का विलय हो जाता है। दुःख सुख में बदल जाता है और आनंद की अनुभूति होने लगती है। I तेलीपुत्र का आख्यान एक रोमांचकारी आख्यान है । प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में प्रकर्ष एवं अपकर्ष की स्थितियां आती हैं। अनुकूलता और प्रतिकूलता की परिस्थिति में, आरोह-अवरोह की स्थिति में व्यक्ति की क्या मनोदशा होती है? उसे कैसी अनुभूति होती है ? किस प्रकार प्रियता अप्रियता में बदल जाती है और उस अवस्था में व्यक्ति का व्यवहार कैसा हो जाता है। प्रस्तुत अध्ययन में इन सब प्रश्नों का बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण किया गया है। 1 व्यक्ति के भीतर जब क्रूरता और महत्वाकांक्षा जाग्रत होती है तब मानवीय संवेदना और करुणा का स्रोत सूख जाता है। राजा कनकरथ राज्यासक्ति में आसक्त होकर अपने पुत्रों को पैदा होते ही विकलांग कर देता पदलिप्सा की आकांक्षा व्यक्ति को कितनी क्रूर बना देती है। यह अध्ययन इसका हृदयविदारक निदर्शन है। गुणीजनों की संगत से व्यक्ति को सही मार्गदर्शन मिल जाता है। पतन उत्थान में बदल जाता है और जीवन क्रम उत्कर्ष को प्राप्त करता है । तेलीपुर में सुव्रता आर्या का आगमन पोट्टिला के लिए वरदान बन गया और उसके जीवन में एक नया मोड़ आ गया। पोहिला का यह वृतान्त अन्तः चेतना को झकझोरने वाला है। | देवता के द्वारा तेतलीपुत्र को संबोध देना संबोध के समय अप्रिय वातावरण का निर्माण करना व उस समय की मनोदशा का चित्रण भी बड़ा रोचक और उत्सुकता पैदा करने वाला है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोद्दसमं अज्झयणं : चौदहवां अध्ययन तेयली : तेतली उक्खे व-पदं १. जइ णं भते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं तेरसमस्स नायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते, चोद्दसमस्स णं भते! नायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते? उत्क्षे प पद १. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता, सिद्धि गति संप्राप्त यावत् श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के तेरहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो उन्होंने ज्ञाता के चौदहवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं तेयलिपुरं नाम नयरं। पमयवणे उज्जाणे । कणगरहे राया। २. जम्बू ! उस काल और उस समय तेतलीपुर नाम का नगर, प्रमदवन उद्यान और कनकरथ राजा था। ३. तस्स णं कणगरहस्स पउमावई देवी।। ३. उस कनकरथ के पद्मावती देवी थी। ४. तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते नाम अमच्चे--‘साम-दंड- भेय-उवप्पयाण-नीति-सुपउत्त-नयविहण्णू विहरइ ।। ४. उस कनकरथ के तेतलीपुत्र नाम का अमात्य था। वह साम, दण्ड, भेद और उपप्रदान आदि नीतियों तथा सुप्रयुक्त नयविधियों का ज्ञाता था। ५. तत्थ णं तेयलिपुरे कलादे नामं मूसियारदारए होत्था--अड्ढे जाव अपरिभूए॥ ५. तेतलीपुर में कलाद नाम का स्वर्णकार-पुत्र था। वह आढ्य यावत् अपराजित था। ६. तस्स णं भद्दा नाम भारिया ।। ६. उसके भद्रा नाम की भार्या थी। ७. तस्स णं कलायस्स मूसियारदारगस्स घूया भद्दाए अत्तया पोट्टिला नामंदारिया होत्था--रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा॥ ७. उस स्वर्णकार-पुत्र कलाद की पुत्री, भद्रा की आत्मजा पोट्टिला नाम की बालिका थी। वह रूप , यौवन और लावण्य से उत्कृष्ट तथा उत्कृष्ट शरीर वाली थी। पोट्टिलाए कीडा-पदं ८.तए णं सा पोट्टिला दारिया अण्णया कयाइ ण्हाया सव्वालंकार- विभूसिया चेडिया-चक्कवाल-संपरिवुडा-उप्पिं पासायवरगया आगासतलगंसि कणगतिंदूसएणं कोलमाणी-कीलमाणी विहरइ।। पोट्टिला का कीड़ा-पद ८. किसी समय वह पोट्टिला बालिका स्नान कर, सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित और दासियों के समूह से परिवृत हो प्रवर प्रासाद के ऊपर खुले आकाश में सोने की गेंद से क्रीड़ा करती हुई विहार कर रही थी। तेयलिपुत्तस्स आसत्ति-पदं ९. इमं च णं तेयलिपुत्ते अमच्चे ण्हाए आसखंधवरगए महया भड-चडगर-आसवाहणियाए निज्जायमाणे कलायस्स मूसियारदारगस्स गिहस्स अदूरसामंतेणं वीईवयइ।। तेतलीपुत्र का आसक्ति-पद ९. अमात्य तेतलीपुत्र स्नान कर, प्रवर अश्व-स्कन्ध पर आरूढ़ हो, महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों के साथ, अश्व वाहिनिका (क्रीड़ा) के लिए निर्याण करता हुआ स्वर्णकार-पुत्र कलाद के घर के आसपास से होकर गुजरा। Jain Education Intemational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २७७ चौदहवां अध्ययन : सूत्र १०-१६ १०. तए णं से तेयलिपुत्ते अमच्चे मूसियारदारगस्स गिहस्स १०. स्वर्णकार-पुत्र के घर के आसपास से गुजरते-गुजरते अमात्य तेतलीपुत्र अदूरसामतेणं वीईवयमाणे-वीईवयमाणे पोट्टिलं दारियं उप्पिं ने ऊपर खुले में सोने की गेंद से क्रीड़ा करती हुई पोट्टिला बालिका आगासतलगंसि कणग-तिंदूसएणं कीलमाणिं पासइ, पासित्ता को देखा। देखकर पोट्टिला बालिका के रूप, यौवन और लावण्य पर पोट्टिलाए दारियाए रूवे य जोव्वणे य लावण्णे य अज्झोववण्णे अध्युपपन्न होकर उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एस णं देवाणुप्पिया! प्रकार पूछा--देवानुप्रियो! वह बालिका किसकी है? इसका नाम क्या कस्स दारिया किं नामधेज्जा वा? ११. तए णं कोडुंबियपुरिसा तेयलिपुत्तं एवं वयासी--एस णं सामी! लायस्स मूसियारदारयस्स धूया भद्दाए अत्तया पोट्टिला नामं दारिया--रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्टा उक्किट्टसरीरा॥ ११. वे कौटुम्बिक पुरुष तेतलीपूत्र से इस प्रकार बोले--स्वामिन्! यह स्वर्णकार पुत्र कलाद की पुत्री और भद्रा की आत्मजा पोट्टिला नाम की बालिका है। वह रूप, यौवन और लावण्य से उत्कृष्ट तथा उत्कृष्ट-शरीर वाली है। पोट्टिलाए वरण-पदं १२. तए णं से तेयलिपुत्ते आसवाहणियाओ पडिणियत्ते समाणे अभिंतरठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता, एवं वयासी--गच्छह, णं तुब्भे देवाणुप्पिया! कलायस्स मूसियारदारयस्स धूयं भद्दाए अत्तयं पोट्टिलं दारियं मम भारियत्ताए वरेह ।। पोट्टिला का वरण-पद १२. तेतलीपुत्र ने अश्व-वाहिनिका से लौटकर अपने आभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ और स्वर्णकार पुत्र कलाद की पुत्री और भद्रा की आत्मजा पोट्टिला नाम की बालिका का मेरी भार्या के रूप में वरण करो। १३. तए णं ते अभिंतरठाणिज्जा पुरिसा तेयलिणा एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठा करयल परिग्गहियं दसणहं सिरसावतं मत्थए अंजलिं कटु "एवं सामी"! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता तेयलिस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव कलायस्स मूसियारदारयस्स गिहे तेणेव उवागया। १३. तेतलीपुत्र के ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए आभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों ने सटे हुए दस नखों वाली सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर ऐसा ही होगा स्वामिन्!' यह कहकर उस आज्ञा-वचन को विनयपूर्वक स्वीकार किया। स्वीकार कर तेतलीपुत्र के पास से उठकर गए। जाकर जहां स्वर्णकार-पुत्र कलाद का घर था वहां आए। १४. तए णं ते कलाए मूसियारदारए ते पुरिसे एज्जमाणे पासइ, पासित्ता हट्ठतुढे आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुतॄत्ता सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता आसणेणं उवणिमतेइ, उवणिमंतेत्ता आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासी--संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! किमागमणप-ओयणं? १४. स्वर्णकार-पुत्र कलाद ने उन पुरुषों को आते हुए देखा। उन्हें देखकर वह हृष्ट-तुष्ट होकर आसन से उठा। उठकर सात-आठ पद सामने गया। जाकर उन्हें आसन से उपनिमन्त्रित किया। उपनिमन्त्रित कर आश्वस्त-विश्वस्त हो प्रवर सुखासन पर बैठ इस प्रकार कहा-- कहें देवानुप्रियो! किस प्रयोजन से आगमन हुआ है? १५. तए णं ते अभिंतरठाणिज्जा पुरिसा कलायं मूसियारदारयं एवं वयासी--अम्हे णं देवाणुप्पिया! तव धूयं भद्दाए अत्तयं पोट्टिलं दारियं तेयलिपुत्तस्स भारियत्ताए वरेमो । तं जइ णं जाणसि देवाणुप्पिया! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो वा दिज्जउणं पोट्टिला दारिया तेयलिपुत्तस्स । तो भण देवाणुप्पिया! किं दलामो सुकं॥ १५. उन आभ्यन्तर स्थानीय-पुरुषों ने स्वर्णकार-पुत्र कलाद से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! हम तुम्हारी पुत्री, भद्रा की आत्मजा पोट्टिला बालिका को तेतलीपुत्र की भार्या के रूप में वरण करना चाहते हैं। अत: देवानुप्रिय! यदि इस (संबंध) को युक्त, पात्र, सराहनीय और समान संयोग के रूप में जानो तो बालिका पोट्टिला को तेतलीपुत्र के लिए दे दो। देवानुप्रिय! कहो, हम क्या शुल्क दें? . १६. तए णं कलाए मूसियारदारए ते अभिंतरठाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी--एस चेव णं देवाणुप्पिया! मम सुंके जण्णं तेयलिपुत्ते मम दारियानिमित्तेणं अणुग्गहं करेइ। ते अभिंतरठाणिज्जे पुरिसे १६. स्वर्णकारपुत्र कलाद ने उन आभ्यन्तर-स्थानीय पुरुषों से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यही मेरा शुल्क है कि तेतलीपुत्र मेरी बालिका के निमित्त से मुझ पर अनुग्रह कर रहा है। उसने उन आभ्यन्तर Jain Education Intemational Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां अध्ययन सूत्र १६-२१ विपुलेणं असण पाणखाइम साइमेणं पुप्फ-वत्य-गंध- मल्लालंकारेण सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेद ।। १७. (तए णं ते अतिरठाणिज्जा पुरिसा ?) क्लायरस मूसियारदारयत्स गिहाओ पडिनियत्तति, जेणेव तेयलिपुते अमच्चे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तेयलिपुत्तं अमच्चं एयमठ्ठे निवेइंति ।। पोट्टिलाए विवाह - पदं १८. तए णं कलाए मूसियारदारए अण्णया क्याई सोहणस तिहि करण - नक्खत्त- मुहुत्तंसि पोट्टिलं दारियं ण्हायं सव्वालंकारविभूसियं सीयं दुरुत्ता मित्त-नाइ - नियग-सयण-संबंधि- परियणेणं सद्धिं संपरिवुडे साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्लमित्ता सव्विदीए तेयलिपुरं नगरं मज्मज्मेणं जेणेव तेपतिस्स मिहे तेणेव उवागच्छइ, पोट्टिलं दारियं तेयलिपुत्तस्स सयमेव भारियत्ताए दलयइ ।। २७८ १९. लए णं तेयलिपुत्ते पोट्टिलं दारियं भारिषत्ताए उवणीयं पास, पासित्ता हट्ठट्ठे पोट्टिलाए सद्धिं पट्टयं दुरुहइ, दुरुहित्ता सेयापी हिं कलसेहिं अप्पाणं मज्जावेद, मज्जावेत्ता अग्गिहोमं कारेड, कारेत्ता पाणिग्गाहणं करेह, करेता पोड़िलाए भारियाए मित्त-नाइ नियगसयण-संबंधि- परियणं विउलेणं असण- पाण- खाइम - साइमेणं पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेता पडिविसज्जे ।। २०. तए णं से तेयलिपुत्ते पोट्टिलाए भारियाए अणुरते अविर उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरद्द ।। कणगरहस्स रज्जासत्ति-पदं २१. तए णं से कणगरहे राया रज्जे य रट्टे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्टागारे य 'पुरे व अतिउरे य मुछिए गढ़िए गिद्धे अशोकवणे जाए, जाए पुत्ते वियंगे - अप्पेगझ्याणं इत्यंगुलियाओ छिंद, अप्पेगइया हत्यगुडए छिंद, अप्येमाणं पायंगुलियाओ छिंदर, अप्पेगइयाणं पायंगुट्ठए छिंदइ अप्पेगइयाणं कण्णसक्कुलीओ पायंगुट्ठए छिंदइ, अप्पेगइयाणं नासापुडाइं फालेइ अप्पेगइयाणं अंगोवंगाई विद्यते ॥ नायाधम्मकहाओ स्थानीय पुरुषों को विपुल अशन, पान खाद्य और स्वाद्य से तथा पुष्प, वस्त्र, गन्ध-चूर्ण, माला और अलंकारों से सस्कृत किया, सम्मानित किया। सत्कृत सम्मानित कर प्रतिविसर्जित कर दिया। १७. वे (आभ्यन्तर स्थानीय पुरुष?) स्वर्णकार पुत्र कलाद के घर से लौटे। लौटकर जहां अमात्य तेतलीपुत्र था, वहां आए। वहां आकर अमात्य तेलीपुत्र को यह अर्थ निवेदित किया। पोट्टला का विवाह पद १८. किसी समय वह स्वर्णकार - र-पुत्र कलाद शोभन तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में बालिका पोट्टिला को स्नान करा, सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित कर, शिविका पर चढ़ा अपने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वाजन, संबंधी और परिजनों के साथ उनसे परिवृत हो अपने घर से निकला । निकल कर सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ तेतलीपुर नगर के बीचोंबीच होता हुआ जहां तेतली का घर था वहां आया। आकर पोट्टिला बालिका को तेलीपुत्र की भार्या के रूप में स्वयं ही प्रदान कर दिया। १९. तेतलीपुत्र ने भार्या के रूप में उपनीत बालिका पोट्टिला को देखा । देखकर हृष्ट-तुष्ट हो, पोट्टिला के साथ पट्ट पर आरोहण किया । आरोहण कर रजत और स्वर्णमय कलशों से स्वयं का मज्जन करवाया। मज्जन करवा कर अग्नि होम करवाया। अग्नि होम करवा कर पाणिग्रहण किया। पाणिग्रहण कर पोट्टिला भार्या के मित्र, शांति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, माला और अलंकारों से कृ किया सम्मानित किया। सत्कृत सम्मानित कर उन्हें प्रतिविसर्जित २०. वह तेलीपुत्र पोट्टिता भार्या में अनुरक्त और अविरक्त रहता हुआ, उसके साथ प्रधान मनुष्य-सम्बन्धी भोगाई भोगों को भोगता हुआ विहार करने लगा । कनकरथ का राज्यासक्ति-पद २१. राजा कनकरथ राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोष कोष्ठागार, पुर और अन्तःपुर में मूर्च्छित प्रथित, गृद्ध और अध्युपपन्न हो गया। वह अपने पुत्रों को पैदा होते ही विकलांग बना देता । वह किन्हीं के हाथों की अंगुलियां काट देता। किन्हीं के हाथों के अंगूठे काट देता। किन्हीं के पावों की अंगुलियां काट देता । किन्हीं के पावों के अंगूठे काट देता । किन्हीं की कर्णपाली काट देता। किन्हीं के नासापुट चीर देता और किन्हीं के अंगोपांग विकृत कर देता । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ नायाधम्मकहाओ चौदहवां अध्ययन : सूत्र २२-२६ पउमावईए अमच्चेण मंतणा-पदं पद्मावती का अमात्य के साथ मन्त्रणा-पद २२. तए णं तीसे पउमावईए देवीए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकाल- २२. किसी समय पद्मावती के मन में मध्यरात्रि के समय इस प्रकार का समयंसि अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--इस समुप्पज्जित्था--एवं खलु कणगरहे राया रज्जे य रट्टे य बले य प्रकार राजा कनकरथ राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोष, कोष्ठागार, वाहणे य कोसे य कोट्ठागारे य पुरे य अंतेउरे य मुच्छिए गढिए पुर और अन्त:पुर में मूछित, ग्रथित, गृद्ध और अध्युपपन्न हो रहा गिद्धे अज्झोववण्णे जाए, जाए पत्ते वियंगेइ--अप्पेगइयाणं है। वह अपने पुत्रों को पैदा होते ही विकलांग बना देता है। वह किन्हीं हत्थंगुलियाओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुट्ठए छिंदइ, अप्पेगइयाणं के हाथों की अंगुलियां काट देता है। किन्हीं के हाथों के अंगूठे काट पायंगुलियाओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं पायंगुट्ठए छिंदइ, अप्पेगइयाणं देता। किन्हीं के पांवों की अंगुलियां काट देता। किन्हीं के पावों के कण्णसक्कुलीओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं नासापुडाई फालेइ, अप्पेगइयाणं ___अंगूठे काट देता है। किन्हीं की कर्णपाली काट देता है, किन्हीं के अंगमंगाई वियत्तेइ । तं जइ णं अहं दारयं पयायामि, सेयं खलु नासापुट चीर देता है और किन्हीं के अंगोपांग विकृत कर देता है। मम तं दारगं कणगरहस्स रहस्सिययं चेव सारक्खमाणीए अत: यदि मैं बालक का प्रसव करूं तो मेरे लिए उचित है मैं मेरे संगोवेमाणीए विहरित्तए त्ति कटु एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता तेयलिपुत्तं उस बालक को कनकरथ से गुप्त रखकर ही उसका संरक्षण, संगोपन अमच्चं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! करती हुई विहार करूं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर अमात्य कणगरहे राया रज्जे य रट्टे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्ठागारे तेतलीपुत्र को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! इस य पुरे य अतेउरे य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे जाए, जाए प्रकार राजा कनकरथ राज्य, राष्ट्र, बल, वाहन, कोष, कोष्ठागार, पुर पुत्ते वियंगेइ--अप्पेगइयाणं हत्थंगुलियाओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं और अन्तःपुर में मूर्च्छित, ग्रथित, गृद्ध और अध्युपपन्न हो रहा है। हत्थंगुट्ठए छिंदइ, अप्पेगइयाणं पायंगुलियाओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं वह अपने पुत्रों को पैदा होते ही विकलांग बना देता है, वह किन्हीं के पायंगुट्ठए छिंदइ, अप्पेगइयाणं कण्णसक्कुलीओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं हाथों की अंगुलियां काट देता है। किन्हीं के हाथों के अंगूठे काट देता नासापुडाई फालेइ, अप्पेगइयाणं अंगोवंगाई वियत्तेइ । तं जइ णं है। किन्हीं के पावों की अंगुलियां काट देता है, किन्हीं के पावों के अंगूठे अहं देवाणुप्पिया! दारगं पयायामि, तए णं तुमं कणगरहस्स काट देता है। किन्हीं की कर्णपाली काट देता है। किन्हीं के नासापुट रहस्सिययं चेव अणुपुव्वेणं सारक्खमाणे संगोवेमाणे संवड्ढेहि। चीर देता है और किन्हीं के अंगोपांग विकृत कर देता है। तए णं से दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णय-परिणयमेत्ते ___ अत: देवानुप्रिय! यदि मैं बालक का प्रसव करूं तो, तुम राजा जोव्वणगमणुप्पत्ते 'तव मम य भिक्खाभायणे भविस्सइ ।। कनकरथ से गुप्त रख कर ही क्रमश: संरक्षण, संगोपन करते हुए उसका संवर्धन करना। वह बच्चा शैशव को लांघकर विज्ञ और कला पारगामी बन यौवन को प्राप्त कर तेरे और मेरे--दोनों के लिए भिक्षापात्र (के समान) होगा। २३. तए णं से तेयलिपुत्ते अमच्चे पउमावईए देवीए एयमट्ठ पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता पडिगए। २३. अमात्य तेतलीपुत्र ने पद्मावती देवी के इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार कर वह चला गया। अवच्च-परिवत्तण-पदं २४. तए णं पउमावई देवी पोट्टिला य अमच्ची सममेव गभं गेण्हंति, सममेव परिवहति ।। अपत्य-परिवर्तन पद २४. देवी पद्मावती और अमात्य-पत्नी पोट्टिला दोनों ने एक साथ गर्भ धारण किया और एक साथ ही गर्भ का परिवहन करने लगी। २५. तए णं सा पउमावई देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव पियदंसणं सुरूवं दारगं पयाया। जं रयणिं च णं पउमावई देवी दारयं पयाया तं रयणिं च णं पोट्टिला वि अमच्ची नवण्हं मासाणं विणिहायमावन्नं दारियं पयाया।। २५. पूरे नौ मास पश्चात् यावत् पद्मावती देवी ने प्रियदर्शन और सुरूप बालक को जन्म दिया। जिस रात्रि में पद्मावती देवी ने पुत्र को जन्म दिया उसी रात्रि में अमात्य-पत्नी पोट्टिला ने नौ मास पूर्ण होने पर एक मृत बालिका को जन्म दिया। २६. तए णं सा पउमावई देवी अम्मधाइं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी--गच्छह णं तुमं अम्मो! तेयलिपुतं रहस्सिययं चैव सद्दावेहि॥ २६. पद्मावती देवी ने धायमाता को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--अम्मा! तुम जाओ और गुप्त रूप से तेतलीपुत्र को बुलाओ। Jain Education Intemational Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां अध्ययन सूत्र २७-३१ २७. तए गं सा अम्मधाई तहत्ति पठिसुणेइ, पडिसुणेत्ता अंतेउरस्स अवदारेण निग्गच्छ, निग्गच्छित्ता जेणेव तेयतिस्स गिहे जेणेव तेयलिपुत्तं तेणेव उवागच्छद्द, उनागच्छिता करयलपरिगहिव सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं क्यासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! पउमावई देवी सहावे ।। २८. तए णं तेयतिपुत्ते अम्मधाईए अंतिए एयम सोच्चा हडतुडे हट्टतुट्ठे अम्माईए सद्धिं साओ गिहाओ निच्छ, निम्माच्छित्ता अनेउरस्स अवदारेणं रहस्सिययं चेव अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावतं मत्यए अंजलि कट्टु एवं क्यासी-संदितंतु णं देवाप्पिया! जं मए कायव्वं ।। २९. तए णं पउमावई देवी तेयलिपुत्तं एवं क्यासी एवं खलु कणगरहे राया जाव पुत्ते वियंगेइ । अहं च णं देवाणुप्पिया! दारगं पाया। तं तुमं णं देवाणुप्पिया! एवं दारणं येण्हाहि जाव तब मम य भिक्वाभाषणे भविस्सइ ति कट्टु तेयतिपुत्तस्स हत्थे दलयइ ॥ २८० -- ३०. तए णं तेयलिपुत्ते पउमावईए हत्याओ दारगं गेहइ, उत्तरिज्जेणं पिहेइ, अंतेउरस्स रहस्तिययं अवदारेणं नियच्छ, निग्गच्छित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव पोट्टिला भारिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोट्ठिलं एवं बयासी एवं खलु देवाणुपए कणगरहे राया जाव पुत्ते वियंगेइ । अयं च णं दारए कणगरहस्स पुत्ते पउमावईए अत्तए । तन्नं तुमं देवाणुप्पिया! इमं दारणं कणगरहस्स रहस्तिययं चैव अणुपुष्येणं सारक्लाहि व संगोवेहि य संबद्धेहि व तणं एस दारए उम्मुक्कबालभावे तव य मम य पउमावईए य आहारे भवित्सइ ति कट्टु पोट्टिताए पासे निक्खिवह, निक्लिवित्ता पोट्टलाए पासाओ तं विणिहायमावण्णियं दारियं गेहइ, गेण्हित्ता उत्तरिज्जेण पिहेड, पित्ता अतिउरल्स अवदारेणं अणुप्पविसइ, अणुष्यवित्तित्ता जेणेव पउमावई देवी तेणेव उपागच्छद् उवागच्छित्ता पउमावईए देवीए पासे ठावेह जाव पडिनिग्गए । -- दारियाए मयकिच्च पदं ३१. तए णं तीसे पउमावईए देवीए अंगपडियारियाओ पउमावई देविं विणिहायमावण्णियं च दारियं पयायं पासंति, पासित्ता जेणेव कणगरहे राया तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी--एवं खलु सामी ! पउमावई देवी मएल्लियं दारियं पयाया ।। नायाधम्मकहाओ २७. तब धायमाता ने ऐसा ही होगा' कहकर स्वीकार किया। स्वीकार कर अन्त: पुर के पार्श्वद्वार से निकली। निकलकर जहां तेतली का घर था, जहां तेलीपुत्र था, वहां आयी। वहां आकर सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलिको मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा -- देवानुप्रिय ! देवी पद्मावती बुला रही है। -- २८. धायमाता से यह अर्थ सुनकर हृष्ट-तुष्ट हुआ तेतलीपुत्र घायमाता के साथ अपने घर से निकला । निकलकर अन्त: पुर के पार्श्वद्वार से गुप्त रूप से भीतर आया। भीतर आकर जहां पद्मावती देवी थी वहां आया। वहां आकर सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहाकहें, देवानुत्रिये! जो मुझे करना है। २९. देवी पद्मावती ने तेलीपुत्र से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! इस प्रकार राजा कनकरथ यावत् पुत्रों को विकलांग बना देता है। देवानुप्रिय ! मैंने बालक को जन्म दिया है। अतः देवानुप्रिय ! तुम इस बालक को लो, यावत् यह तेरे और मेरे दोनों के लिए भिक्षापात्र होगा--यह कहकर उसने बालक को तेतलीपुत्र के हाथ में दिया । -- ३०. तेलीपुत्र ने पद्मावती के हाथ से बातक को लिया। उसे उत्तरीय वस्त्र से ढका। गुप्त रूप से अन्तःपुर के पार्श्वद्वार से निकला। निकलकर जहां उसका घर था, जहां पोट्टिला आर्या थी, वहां आया। वहां आकर पोट्टिला से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिये! राजा कनकरथ यावत् पुत्रों को विकलांग बनाता है। यह बालक राजा कनकरथ का पुत्र और देवी पद्मावती का आत्मज है। अतः देवानुप्रिये! तूं राजा कनकरण से गुप्त रखकर ही इस बालक का क्रमशः संरक्षण, संगोपन करती हुई संवर्धन कर । यह बालक शैशव को लांघकर तेरा मेरा और पद्मावती देवी का आधार बनेगा- यह कहकर बालक को पोट्टिला के पास रखा। रखकर पोट्टिला के पास से उस मृत बालिका को लिया । लेकर उत्तरीय वस्त्र से ढंका। ढककर अन्त: पुर के पार्श्वद्वार से भीतर प्रवेश किया। प्रवेश कर जहां प्रद्मावती देवी थी, वहां आया। वहां आकर उस बालिका को देवी पद्मावती के पास रखा यावत् वापस चला गया। बालिका का मृतकार्य-पद ३१. जब देवी पद्मावती की अंग परिचारिकाओं ने देखा, देवी पद्मावती मृत बालिका को जन्म दिया है तो वे जहां राजा कनकरथ था, वहां आयीं। आकर सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोली- स्वामिन्! देवी पद्मावती ने मृत बालिका को जन्म दिया है। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २८१ चौदहवां अध्ययन : सूत्र ३२-३९ ३२. तए णं कणगरहे राया तीसे मएल्लियाए दारियाए नीहरणं ३२. राजा कनकरथ ने उस मृत-बालिका का निर्हरण किया। नाना प्रकार करेइ, बहूई लोगियाइं मयकिच्चाई करेइ, करेत्ता कालेणं विगयसोए के लौकिक मृतक-कार्य सम्पन्न किए और सम्पन्न कर यथासमय वह जाए। शोक-मुक्त हो गया है। अमच्चपुत्तस्स उस्सव-पदं ३३. तए णं से तेयलिपुत्ते कल्लं कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चारगसोहणं करेह जाव ठिइपडियं दसदेवसियं करेह, कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह॥ अमात्य पुत्र का उत्सव-पद ३३. तेतलीपुत्र ने प्रभातकाल में कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही चारक-शोधन (बन्दी-जनों को मुक्त) करो यावत् कुल परम्परा के अनुसार दस दैवसिक उत्सव करो और करवाओ। इस आज्ञा को पुन: मुझे प्रत्यर्पित करो। ३४. तेवि तहेव करेंति, तहेव पच्चप्पिणंति।। ३४. उन्होंने भी वैसे ही किया, वैसे ही आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। ३५. जम्हा णं अम्हं एस दारए कणगरहस्स रज्जे जाए तं होउ णं दारए नामेणं कणगच्झए जाव अलंभोगसमत्थे जाए। ३५. हमारा यह बालक राजा कनकरथ के राज्य में जन्मा है अत: इसका नाम कनकध्वज' हो यावत् वह कनकध्वज पूर्ण भोग समर्थ हुआ। पोट्टिलाए अप्पियत्त-पदं ३६. तए णं सा पोट्टिला अण्णया कयाइ तेयलिपुत्तस्स अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणण्णा अमणामा जाया यावि होत्था--नेच्छइणं तेयलिपुत्ते पोट्टिलाए नामगोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? पोट्टिला का अप्रियता-पद ३६. वह पोट्टिला किसी समय तेतलीपुत्र को अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत लगने लगी। तेतलीपुत्र पोट्टिला का नाम-गोत्र भी सुनना नहीं चाहता दर्शन और परिभोग की तो बात ही कहां? ३७. तए णं तीसे पोट्टिलाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु अहं तेयलिस्स पुव्विं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा जाया। नेच्छइ णं तेयलिपुत्ते मम नामगोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? (ति कटु?) ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियायइ। ३७. एक बार मध्यरात्रि के समय पोट्टिला के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--मैं तेतलीपुत्र को पहले इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, और मनोगत थी। अब अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत हो गई हूं। तेतलीपुत्र मेरा नाम-गोत्र भी सुनना नहीं चाहता, दर्शन और परिभोग की तो बात ही कहां? (इस प्रकार?) वह भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्त ध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न हो रही थी। पोट्टिलाए दाणसाला-पदं ३८. तए णं तेयलिपुत्ते पोट्टिलं ओहयमणसंकप्पं करतलपल्हत्थमूहि अट्टज्झाणोवगयं झियायमाणिं पासइ, पासित्ता एवं वयासी--मा णं तुम देवाणुप्पिए! ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियाहि । तुमं णं मम महाणसंसि विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेहि, उवक्खडावेत्ता बहूणं समण-माहण-अतिहि-किवण- वणीमगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य विहराहि।। पोट्टिला का दानशाला-पद ३८. तेतलीपुत्र ने पोट्टिला को भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न देखा। देखकर इस प्रकार ___बोला--देवानुप्रिये! तुम भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्त-ध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न मत बनो। तुम मेरी पाकशाला में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को तैयार कराओ। तैयार करवाकर बहुत-से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, कृपणों और वनीपकों को दान देती और दिलाती हुई विहार करो। ३९. तए णं सा पोट्टिला तेयलिपुत्तेणं अमच्चेणं एवं वृत्ता समाणी हट्ठा तेयलिपुत्तस्स एयमद्वं पडिसणेइ, पडिसणेत्ता कल्लाकल्लिं महाणससि ३९. अमात्य तेतलीपुत्र के ऐसा कहने पर हर्षित हुई पोट्टिला ने तेतलीपुत्र के इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार कर वह प्रतिदिन पाकशाला Jain Education Intemational Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां अध्ययन : सूत्र ३९-४३ २८२ विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता बहूणं समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य विहरइ।। नायाधम्मकहाओ में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को तैयार कराती। तैयार कराकर बहुत से श्रमणों, ब्राह्मणों, अतिथियों, कृपणों और वनीपकों को दान देती और दिलाती हुई विहार करने लगी। अज्जा-संघाडगस्स भिक्खायरियागमण-पदं ४०. तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नाम अज्जाओ इरियासमियाओ भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाण-भंड-मत्तणिक्खेवणासमियाओ उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावणियासमियाओ मणसमियाओ वइसमियाओ कायसमियाओ मणगुत्ताओ वइगुत्ताओ कायगुत्ताओ गुत्ताओ गुत्तिंदियाओ गुत्तबंभचारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुब्विं चरमाणीओ जेणामेव तेयलिपुरे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरति ।। आर्या-संघाटक का भिक्षा के लिए आगमन-पद ४०. उस काल और उस समय सुब्रता नाम की आर्या थी। वह ईर्या-समिति, भाषा-समिति, एषणा-समिति, आदान-भाण्ड अमत्रनिक्षेपणा-समिति, उच्चार-प्रस्रवण-क्ष्वेड-सिंघाण-जल्ल- परिष्ठापनिका समिति, मन समिति, वचन समिति और काय समिति से समित, मन गुप्ति, भाषा-गुप्ति, काय गुप्ति से गुप्त, गुप्तेन्द्रिय, गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत और बहु परिवार वाली थी। वे क्रमश: संचार करती हुई जहां तेतलीपुर नगर था, वहां आयी। वहां आकर समुचित आवास को प्राप्त किया। प्राप्त कर संयम और तप से स्वयं को भावित करती हुई विहार करने लगी। ४१. तए णं तासिं सुव्वयाणं अज्जाणं एगे संघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, भायणवत्थाणि पडिलेहेइ, भायणाणि पमज्जेइ, भायणाणि ओग्गाहेइ, जेणेव सुव्वयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, सुव्वयाओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--इच्छामो णं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए तेयलीपुरे नयरे उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि।। ४१. आर्या सुव्रता का एक संघाटक प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करता, दूसरे प्रहर में ध्यान करता, तीसरे प्रहर में अत्वरित, अचपल एवं असंभ्रान्त-भाव से मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करता। भाजन-वस्त्रों का प्रतिलेखन करता। पात्रों का प्रमार्जन करता और पात्रों को लेकर जहां आर्या सुव्रता थी वहां आता। आर्या सुव्रता को वन्दना करता। नमस्कार करता। वन्दना-नमस्कार कर आर्या सुव्रता से इस प्रकार कहता--हम आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर, तेतलीपुर नगर के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों के घरों में सामुदानिक भिक्षा के लिए जाना चाहती हैं। जैसा सुख हो देवानुप्रिये! प्रतिबंध मत करो। ४२. तए णं ताओ अज्जाओ सुव्वयाहिं अज्जाहिं अब्भणुण्णाया समाणीओ सुन्वयाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिस्सयाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंताए गतीए जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणीओ तेयलीपुरे नयरे उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुदाणस्स भिक्खायरियं अडमाणीओ तेयलिस्स गिहं अणुपविट्ठाओ। ४२. आर्या सुव्रता से अनुज्ञा प्राप्त कर उन आर्याओं ने आर्या सुव्रता के पास से उठकर उपाश्रय से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर अत्वरित, अचपल और असंभ्रान्त गति से युग-परिमित भूमि का प्रलोकन करने वाली दृष्टि से आगे-आगे ईर्या का शोधन करते हुए, तेतलीपुर नगर के ऊंच, नीच और मध्यम कुल के घरों में सामुदानिक भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए तेतली के घर में प्रवेश किया। . पोट्टिलाए अमच्चपसायोवाय-पुच्छा-पदं ४३. तए णं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पासइ, पासित्ता हद्वतुट्ठा आसणाओ अब्भुढेइ, वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेइ, पडिलाभेत्ता एवं वयासी--एवं खलु अहं अज्जाओ! तेयलिपुत्तस्स अमच्चस्स पुव्विं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अर्कता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा जाया। नेच्छइ णं तेयलिपुत्ते मम नामगोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? तं पोट्टिला द्वारा अमात्य को प्रसन्न करने का उपाय पृच्छा-पद ४३. पोट्टिला ने उन आर्याओं को आते हुए देखा। देखकर वह हृष्ट-तुष्ट हो आसन से उठी। वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से उन्हें प्रतिलाभित किया। प्रतिलाभित कर वह इस प्रकार बोली--आर्याओ! मैं पहले अमात्य तेतलीपुत्र को इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत थी। अब अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत हो गई हूँ। तेतलीपुत्र मेरा नाम-गोत्र भी सुनना नहीं चाहता, दर्शन और Jain Education Intemational Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २८३ तुन्भेणं अज्जाओ बहुनायाओ बहुलिक्खियाओ बहुपडियाओ बहूणि गामागर-नगर-खेड-कब-दोगमुह-मब-ण-आसम-नियमसंबाह-सण्णिवेसाइं आहिंडह, बहूणं राईसर- तलवर - माडंबिय - कोडुबिय- इब्भ-सेट्टि - सेणावइ-सत्थवाहपभिईणं गिहाई अणुपविसह । तं अत्पिपाइं भे अज्जाओ! केद्र कहिंचि पुण्णजोए वा मंतजोगे वा कम्मणजोए वा कम्मजोए वा हियउड्डावणे वा काउड्डावणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा कोउयकम्मे वा भूयकम्मे वा मूले वा कदे वा खल्लीबल्ली खिलिया वा गुलिया वा ओतहे वा भेसज्जे वा उवलद्धपव्वे, जेणाहं तेयलिपुत्तस्स पुणरवि इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा भवेज्जामि ? अज्जा-संघाडगस्स उत्तर-पदं ४४. तए णं ताओ अज्जाओ पोट्टिलाए एवं वुत्ताओ समाणीओ दोवि कण्णे ठएंति, ठवेत्ता पोहिलं एवं क्यासी अम्हे णं देवाणुप्पिए! समणीओ निगांधीओ जाव गुत्तबंभचारिणीओ। नो खलु कप्पद अम्हं एप्पमारं कण्णेहिं वि निसामित्तए, किमंग पुण उवदसित्तए वा आयरितए वा ? अम्हे णं तव देवाणुप्पिए! विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्मं परिकहिज्जामो ॥ -- पोट्टिलाए साविया - पदं ४५. तए णं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एवं वयासी - - इच्छामि गं अज्जाओ! सुब्धं अंतिए केवलिपण्णत्तं धम्मं निसामित्तए । ४६. तए णं ताओ अज्जाओ पोट्टिलाए विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्मं परिकहेंति ।। ४७. तए णं सा पोट्टिता धम्मं सोच्या निसम्म हड्डा एवं वयासी -- सद्दाहामि णं अज्जाओ! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वयह। इच्छामि णं अहं तुब्भं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिरिधम्मं पडिवज्जित्तए । अहासुहं देवाप्पिए! ४८. तए णं सा पोट्टिता तासिं अज्जाणं अतिए पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्मं परिवज्जइ, ताओ अज्जाओ बंद नमसइ, वंदित्ता सत्ता पडिविसज्जेइ ।। ४९. तए णं सा पोड़िता समणोवासिया जाया जाव समणे निग्गंधे फासुए एसगिज्जे असण- पाण- साइम साइमेण कत्य-पटियाहकंबल - पायपुंछणेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीट - फलग सेज्जा संधारएणं पहिलाभेमाणी विहरह ।। चौदहवां अध्ययन : सूत्र ४३-४९ परिभोग की तो बात ही कहां? अतः आर्याओ! तुम बहुत जानकार हो, बहुत शिक्षित हो, बहुत पढ़ी-लिखी हो और अनेक गांव आकर, नगर, सेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडम्ब, पत्तन, आश्रम, निगम, संबाह और सन्निवेशों में घूमती हो, तथा बहुत से राजा, ईश्वर, तलवर, माइम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति सार्थवाह आदि के घरों में प्रवेश करती हो. तो आर्याओ! कही कोई चूर्णयोग, मंत्रयोग, कार्मणयोग, कर्मयोग, चित्ताकर्षण, शरीराकर्षण, पराभिभवन, वशीकरण, कौतुककर्म, भूतिकर्म, मूल, कंद, छल्ली वल्ली, शिलिका गुटिका, औषध अथवा भेषज्य उपलब्ध हुआ है, जिससे मैं तेलीपुत्र को पुनः इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत हो जाऊ आर्या संघाटक का उत्तर-पद ४४. पोट्टिला के ऐसा कहने पर उन आर्याओं ने दोनों कान बंद कर लिए। दोनों कान बंद कर वे पोहिला से इस प्रकार बोली- देवानुप्रिये! हम श्रमणियां निग्रन्यिकाएं यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणियां हैं। हमें इस प्रकार का शब्द सुनना भी नहीं कल्पता, फिर उपदेश और आचरण का तो प्रश्न ही कहां ? देवानुप्रिये! हम तुझे विचित्र केवली - प्रज्ञप्त धर्म सुनाती हैं। पोहिला का श्राविका पद ४५. पोहिला ने उन आर्याओं से इस प्रकार कहा- आर्याओ! मैं चाहती हूँ तुमसे केवली - प्रज्ञप्त धर्म सुनूं । ४६. उन आर्याओं ने पोट्टिला को विचित्र केवली -प्रशप्त धर्म सुनाया। ४७. धर्म को सुनकर, अवधारण कर हर्षित हुई पोट्टिला ने इस प्रकार कहा-- आर्याओ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ, यावत् वह वैसा ही है जैसा तुम कह रही हो। मैं तुम्हारे पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृही-धर्म स्वीकार करना चाहती हूँ । जैसा तुम्हें सुख हो देवानुप्रिये! ४८. पोट्टिला ने उन आर्याओं के पास पांच अणुव्रत यावत् गृही-धर्म को स्वीकार किया। उन आर्याओं को वन्दना की । नमस्कार किया। वन्दना - नमस्कार कर उन्हें प्रतिविसर्जित कर दिया। ४९. पोट्टला श्रमणोपासका बन गई यावत् वह श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रामुक्त, एषणीय, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद- प्रोञ्छन, औषध, भेषज्य तथा प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक से प्रतिलाभित करती हुई विहार करने लगी । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां अध्ययन सूत्र ५०-५३ पोट्टिलाए पव्वज्जा - पदं ५०. लए गं सीसे पोट्टिलाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरतकालसमयसि कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए कप्पे समुपज्जित्था एवं खलु तेपलिपुत्तस्स पुब्बिं पड्डा कंता पिया मनुष्णा मणामा आणि इयाणिं अणिट्टा अकंता अप्पिया अण्णा अमणामा जाया । नेच्छइ णं तेयलिपुत्ते मम नामगोयमवि सवणयाए किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? तं सेयं खलु ममं सुब्ववाणं अज्जाणं अंतिए पव्वइत्तए एवं सपेहेइ, सत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मए सुव्वयाणं अजाण अंतिए धम्मेनिसते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पटिच्छिए अभिरुइए । तं इच्छामि णं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया पव्वइत्तए ।। २८४ -- ५१. तए णं तेपलिपुत्ते पोट्टिलं एवं क्यासी एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए! मुंडा पव्वश्या समाणी कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोसु देवताए उववज्जिहिसि । तं जइ गं तुमं देवाणुप्पिए ममं ताओ देवलगाओ आगम्म केवलिपण्णत्ते धम्मे बोहेहि, तो हं विसज्जेमि । अह गं तुमं ममं न संबोहेसि, तो ते न विसज्जेमि ॥ ५२. तए णं सा पोट्टिला तेयलिपुत्तस्स एयमट्ठे पडिसुणेइ ।। ५३. तए णं तेयलिपुते विडलं असणं पाणं खाइमं साइमं उक्क्खडावे, उपक्खडावेत्ता मित्त-नाइ नियग-सयण संबंधि परियणं आमतेइ जाव सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पोट्टिलं हायं सव्वालंकारविभूसियं पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरुहित्ता मित्त-नाइ नियग-सयण संबंधि परियणेणं सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्डी जाव दुंदुहिनिग्घोसनाइय-रवेणं तेयलिपुरं मज्झमज्झेणं जेणेव सुब्वयाणं उवरसए तेणेव उवागच्छद्र, उवागच्छित्ता सीमाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता पोट्टिलं पुरओ कट्टु जेणेव सुव्वया अज्जा तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छिता वंदइ नमसह वंदित्ता नमसत्ता एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिया! मम पोट्टिला भारिया इट्ठा कंता पिया मणुष्णा मणामा एस णं संसारभब्बिग्गा भीया जम्मण जर मरणाणं इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता अगाराज अणगारियं पव्वइत्तए पडिच्यांतु गं देवागुप्पिया! सिस्सिणिभिक्लं अहासुहं मा पडिबंधं करेहि ।। नायाधम्मकहाओ पोहिला का प्रव्रज्या पद , ५०. एक बार कुटुम्ब जागरिका करते हुए पोट्टिला के मन में मध्यरात्रि के समय इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ मैं रोतलीपुत्र को पहले इष्ट, कमनीय, प्रिय मनोज्ञ और मनोगत थी। अब अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत हो गई हूँ। तेतलीपुत्र मेरा नाम गोत्र भी सुनना नहीं चाहता, दर्शन और परिभोग की तो बात ही कहां? अत: मेरे लिए उचित है मैं आर्या सुव्रता के पास प्रव्रजित बनूं। उसने ऐसी की। सप्रेक्षा कर उषा काल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर जहां तेलीपुत्र था, वहां आयी। वहां आकर सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय! मैंने आर्या सुव्रता से धर्म सुना है और वही धर्म मुझे इष्ट, ग्राह्य और रुचिकर है । अते: मैं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर प्रब्रजित होना चाहती हूँ। ५१. तेतलीपुत्र ने पोट्टिला से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिये! तू मुण्ड और प्रव्रजित हो, मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होगी। अतः यदि देवानुप्रिये! तू उस देवलोक से आकर मुझे केवली प्रज्ञाप्त धर्म का संबोध दो तो मैं तुझे विसर्जित करूं। यदि तू मुझे संबोध नहीं देगी तो मैं तुझे विसर्जित नहीं करूंगा । ५२. पोट्टिला ने तेलीपुत्र के इस अर्थ को स्वीकार कर लिया। ५३. तेतलीपुत्र ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया । तैयार करवाकर अपने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को आमन्त्रित किया यावत् उनको सत्कृत और सम्मानित किया। सत्कृत-र - सम्मानित कर स्नान कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित पोट्टिला को हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका पर चढ़ाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों के साथ उन से परिवृत हो, सम्पूर्ण ऋऋद्धि यावत् दुन्दुभिनिर्घोष से निनादित स्वरों के साथ तेतलीपुर नगर के बीचोंबीच गुजरता हुआ, जहां आर्या सुव्रता का उपाश्रय था, वहां आया। वहां आकर शिविका से उतरा। उतरकर पोट्टिला को आगे कर जहां आर्या सुव्रता थी, वहां आया। वहां आकर आर्या सुव्रता को वन्दना की। नमस्कार किया । वन्दना - नमस्कार कर इस प्रकार कहा- देवानुप्रिये ! यह पोट्टिला भार्या मुझे इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत है। यह संसार के भय से उद्विग्न है। जन्म, जरा और मृत्यु से भीत है । अत: यह देवानुप्रिया के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होना चाहती है। देवानुप्रिये! यह शिष्या की भिक्षा स्वीकार करो जैसा सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो। 1 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २८५ चौदहवां अध्ययन : सूत्र ५४-५७ ५४. तए णं पोट्टिला सुव्वयाहिं अज्जाहिं एवं वुत्ता समाणी हट्ठा ५४. आर्या सुव्रता के ऐसा कहने पर हर्षित हुई पोट्टिला ईशान-कोण में उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव गई। वहां जाकर स्वयं आभरण, माला और अलंकार उतारे। उतारकर आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं स्वयं ही पंचमौष्टिक लुञ्चन किया। जहां आर्या सुव्रता थी वहां आई। करेइ, जेणेव सुव्वयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, वंदइ नमसइ, वहां आकर वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर इस वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी--आलित्ते णं अज्जा! लोए एवं जहा प्रकार बोली--आर्य! यह लोक जल रहा है यावत् उसने देवानन्दा की देवाणंदा जाव एक्कारस्स अंगाई अहिज्जइ, बहूणि वासाणि भांति ग्यारह अंगो का अध्ययन किया। बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं का पालन किया। पालन कर मासिक संलेखना की आराधना में स्वयं झोसेत्ता, सहिँ भत्ताई अणसणेणं छेएत्ता आलोइय-पडिक्कत्ता को समर्पित किया। अनशन-काल में साठ-भक्तों का परित्याग समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए किया। आलोचना की, प्रतिक्रमण किया और समाधि को प्राप्त हो, उववण्णा ॥ मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर किसी देवलोक में देव रूप में उत्पन्न कणगरहस्स मच्चु-पदं ५५. तए णं से कणगरहे राया अण्णया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्था । कनकरथ का मृत्यु-पद ५५. किसी समय राजा कनकरथ भी काल-धर्म को प्राप्त हो गया। ५६. तए णं ते ईसर-तलवर-मार्डबिय-कोडुबिय-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइ- सत्थवाह-पभिइणो रोयमाणा कंदमाणा विलवमाणा तस्स कणगरहस्स सरीरस्स महया इड्ढी-सक्कार-समुदएणं नीहरणं करेंति, करेत्ता अण्णमण्णं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे राया रज्जे य जाव मुच्छिए पत्ते वियंगित्था। अम्हे णं देवाणुप्पिया! रायाहीणा रायाहिट्ठिया रायाहीणकज्जा । अयं च णं तेयली अमच्चे कणगरहस्स रण्णो सब्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु लद्धपच्चए दिन्नवियारे सव्वकज्जवड्ढावए यावि होत्था। तं सेयं खलु अम्हं तेयलिपुत्तं अमच्चं कुमार जाइत्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव तेयलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेयलिपुत्तं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे राया रज्जेय जाव मुच्छिए पत्ते विगित्था। अम्हे णं देवाणुप्रिया! रायाहीणा रायाहिट्ठिया रायाहीणकज्जा। तुमं च णं देवाणुप्पिया! कणगरहस्स रणो सव्वठाणेसु सव्वभूमियासु लद्धपच्चए दिन्नवियारे रज्जधुराचिंतए होत्था। तं जइ णं देवाणुप्पिया! अत्थि केइ कुमारे रायलक्खणसंपण्णे अभिसेयारिहे तण्णं तुम अम्हं दलाहि, जण्णं अम्हे महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचामो॥ ५६. ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह प्रभृति ने रोते, कलपते और विपलते हुए कनकरथ राजा के शरीर का महान ऋद्धि और सत्कार-समुदय के साथ निर्हरण किया। निर्हरण कर परस्पर इस प्रकार बोले--देवानुप्रियो! राजा कनकरथ ने राज्य में यावत् मूञ्छित हो, पुत्रों को विकलांग कर दिया। देवानुप्रियो! हम राजा के अधीन हैं, राजा के द्वारा अधिष्ठित हैं और हमारा प्रत्येक कार्य राजा के अधीन है और यह अमात्य तेतली कनकरथ राजा के सभी स्थानों और सभी भूमिकाओं में विश्वास-पात्र, परामर्श देने वाला तथा सब कार्यों को बढ़ाने वाला था। अत: हमारे लिए उचित है, हम अमात्य तेतलीपुत्र से कुमार की याचना करें। इस प्रकार उन्होंने परस्पर यह प्रस्ताव स्वीकार किया। स्वीकार कर जहां अमात्य तेतलीपुत्र था, वहां आए। वहां आकर तेतलीपुत्र से इस प्रकार बोले--देवानुप्रिय! राजा कनकरथ ने राज्य में यावत् मूञ्छित हो पुत्रों को विकलांग कर दिया। देवानुप्रिय! हम राजा के अधीन हैं, राजा के द्वारा अधिष्ठित हैं और हमारा प्रत्येक कार्य राजा के अधीन है। देवानुप्रिय! तुम राजा कनकरथ के सभी स्थानों और सभी भूमिकाओं में विश्वास-पात्र, परामर्श देने वाले और राज्य-धुरा के चिन्तक थे। अत: देवानुप्रिय! यदि कोई राजलक्षण सम्पन्न, अभिषेक के योग्य कुमार हो, तो तुम हमें दो, जिससे हम उसे महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त करें। कणगज्झयस्स रायाभिसेय-पदं ५७. तए णं तेयलिपुत्ते तेसिं ईसरपभिईणं एयमढे पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता कणगज्झयं कुमारं हायं जाव सस्सिरीयं करेइ, करेत्ता तेसिं कनकध्वज का राज्याभिषेक-पद ५७. तेतलीपुत्र ने उन ईश्वर प्रभृति अधिकारियों के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर उसने कुमार कनकध्वज को नहलाकर Jain Education Intemational Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां अध्ययन सूत्र ५७-६३ -- ईसरपभिईण उवणे, उवणेत्ता एवं वपासी एस णं देवाणुप्पिया! कणगरहस्त रण्णो पुत्ते पउमावईए देवीए अत्तए कणगज्झए नाम कुमारे अभिसेयारिहे रायलक्ससंपण्णे, भए कणगरहस्त रण्णो रहस्सिययं संवडिए । एवं गं तुम्भे महया महया रायाभिसेएन अभिसिंह । सव्वं च से उद्वाणपरियावणियं परिकहेइ ॥ २८६ ५८. तए णं ते ईसरपभिइओ कणगज्मयं कुमारं महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचति ।। ५९. तए णं से कणगज्झए कुमारे राया जाए--महया हिमवंतमहंत मलय-मंदर-महिंदसारे जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ || तेयलिपुत्तस्स सम्माण- पदं ६०. तए णं सा पउमावई देवी कणगज्जयं राय सहावे सहावेता एवं क्यासी एस णं पुत्ता! तव रज्जे व रहे य बते य वाहणे य कोसे य कोट्ठागारे य पुरे य अंतेउरे य, तुमं च तेयलिपुत्तस्स अमच्चस्स पभावेणं । तं तुमं णं तेयलिपुत्तं अमच्चं आढाहि परिजानाहि सक्कारेहि सम्माणेहि, इंतं अन्भुद्वेहि, ठिपं पज्जुवासेडि वच्चतं पडिससाहेहि, अद्धासणेण उवणिमंतेहि भोगं च से अणुवड्ढेहि ।। ६१. तए णं से कणगज्झए पउमावईए तहत्ति वयणं पडिसुणेइ, परिसुणेत्ता तेयलितं अमच्चं आढाइ परिजाणाइ सक्कारेइ सम्माणेइ, इंतं अब्भुट्ठेद्द, ठियं पज्जुवासेइ, वच्चतं पडिसंसाहेद, अद्धासणेणं उवणिमंते, भोगं च से अणुवद्देद्र ।। पोट्ठिलदेवेण तेयलिपुत्तस्स संबोह-पदं ६२. तए णं से पोट्टिले देवे तेयलिपुत्तं अभिक्खणं अभिवखणं केवलिपण्णत्ते धम्मे संबोहेड, नो चेव णं से तेयलिपुत्ते बुझाइ ।। ६३. तए णं तस्स पोट्टिलदेवस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए कप्पे समुपज्जित्वा एवं सतु कणगाए राया तेपलितं आढाइ जाव भोगं च से अणुवट्टेइ, तए णं से तेयलिपुते अभिक्लणं अभिक्खणं संबोहिज्जमाणे वि धम्मे नो संबुदाइ । तं सेयं खलु ममं कणगज्जायं तेयलिपुत्ताओ विप्परिणामित्तए ति नायाधम्मकहाओ यावत् श्रीसम्पन्न किया । श्रीसंपन्न कर उन ईश्वर प्रभृति अधिकारियों के पास ले गया। ले जाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! यह राजा कनकरथ का पुत्र और पद्मावती देवी का आत्मज कनकध्वज नाम का कुमार है। यह अभिषेक के योग्य और राजलक्षणों से सम्पन्न है। मैंने इसका संवर्धन राजा कनकरथ से गुप्त रखकर किया है। इसे तुम महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त करो। तेतलीपुत्र ने उसके जन्म से लेकर वर्तमान तक की सम्पूर्ण घटना कह सुनायी । ५८. ईश्वर प्रभृति अधिकारियों ने कनकध्वज कुमार को महान राज्यभिषेक से अभिषिक्त किया। ५९. कनकध्वज कुमार राजा बन गया। वह महान हिमालय, महान मलय, मेरू और महेन्द्र पर्वत के समान उन्नत था यावत् वह राज्य का प्रशासन करता हुआ विहार करने लगा। तेलीपुत्र का सम्मान पद ६०. पद्मावती देवी ने राजा कनकध्वज को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-पुत्र ! तुम्हारा यह राज्य राष्ट्र, बल, वाहन, कोष, कोष्ठागार, पुर, अन्तःपुर और तुम स्वयं अमात्य तेलीपुत्र के प्रभाव से ही अस्तित्व में हो। अत: तुम अमात्य तेतलीपुत्र का आदर करो, उसकी ओर ध्यान दो, उसका सत्कार करो और सम्मान करो। जब वह आये तो खड़े हो जाओ, जब वह सहा रहे तो उसकी पर्युपासना करो, वह जाए तो उसका अनुगमन करो। उसे अपने आधे अप्सन से उपनिमन्त्रित करो और उसके भोगों का संवर्धन करो। ६१. पद्मावती के वचन को कनकध्वज ने 'तथेति' कहकर स्वीकार किया । स्वीकार कर वह अमात्य तेतलीपुत्र को आदर देता, उसकी ओर ध्यान देता, सत्कार करता, सम्मान करता, जब वह आता तो खड़ा होता, जब वह खड़ा रहता तो पर्युपासना करता, जब वह जाता तो अनुगमन करता, उसे आधे आसन से उपनिमन्त्रित करता और उसके भोगों का संवर्धन करता । पोहिलदेव द्वारा तेतलीपुत्र को संबोधपद ६२. वह पोट्टिल देव तेलीपुत्र को बार-बार केवली प्रज्ञप्त धर्म का संबोध देता, किन्तु तेतलीपुत्र संबुद्ध नहीं होता । ६३. उस पोट्टिल देव के मन में इस प्रकार आन्तरिक चिन्तित अभिलचित मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--राजा कनकध्वज तेतलीपुत्र को आदर देता है यावत् उसके भोगों का संवर्धन करता है, इसलिए बार-बार संबोध देने पर भी तेतलीपुत्र धर्म में संबुद्ध नहीं हो रहा है। अतः मेरे लिए उचित है मैं कनकध्वज को तेतलीपुत्र से विपरीत कर Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २८७ कट्टु एवंसपे सत्ता कगगज्जयं तेपलिपुत्ताओं विपरिणामेइ ।। ६४. तए णं तेयलिपुत्ते कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते व्हाए कयवलिकम्मे कयकोउय-मंगल- पायच्छिते आससंधवरगए बहूहिं पुरिसेहिं सद्धिं संपरिवुडे साओ गिहाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कणगज्झए राया तेणेव पहारेत्य गमगाए । ६५. तए णं तेयलिपुत्तं अमचं जे जहा बहवे राईसर - तलवर माविय- कोडुबियइम सेट्ठि सेणावद्द सत्यवाहपभियओ पासंति ते तव आढायंति परियाणंति अब्भुट्ठेति, अंजलिपग्गहं करेंति, इडाहिं कंताहिं जाव वग्गूहिं आलवमाणा व संलवमाणा व पुरजो यपिओ य पासओ य समणुगच्छति ।। ६६. तए णं से तेयलिपुते जेणेव कणगज्झए तेणेव उवागच्छइ ।। ६७. तए गं से कणाए तेयलिपुत्तं एज्जमाणं पास पासित्ता नो आढाए, नो परिमाणाइ, नो अम्भुद अगाठायमाणे अपरिमाणमाणे अणभुट्टेमाणे परम्मुहे संचिट्ठइ ।। ६८. तए गं से तेयलिपुते अमच्चे कणमज्झयस्स रन्गो अंजलि करे । तओ य णं से कणमज्झए राया अणाढायमाणे अपरियाणमाणे अणभुट्टेमाणे तुशिणीए परम्मुहे सचिइ ।। ६९. तए णं तेयलिपुत्ते कणगज्झयं रायं विप्परिणयं जाणित्ता भीए तत्थे तसिए उब्बिग्गे संजायभए एवं क्यासी णं मम कमाए राया। हीणे णं मम कणगज्झए राया। अवज्झाए णं मम कणगज्झए राया । तं न नज्जइ णं मम केणइ कुमारेण मारेहिइ ति कट्टु भीए तत्वे जाव सनियं-सणियं पच्चोसक्कछ, पच्चोसक्कित्ता तमेव आसखंधं दुरूहइ, दुरूहित्ता तेयलिपुरं मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पहारेत्य गमणाए । ७०. तए णं तेयलिपुतं जे जहा ईसर जाव सत्यवाहपभियओ पासंति तहानो आढायंति नो परियाणंति नो अब्भुट्ठेति नो अंजलिपगहं करेंति, इट्ठाइं जाव वग्गूहिं नो आलवंति नो संलवंति नो पुरओ य पिओ य पासओ य समणुगच्छति ।। चौदहवां अध्ययन : सूत्र ६३-७० दूं- उसने ऐसी सप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर कनकध्वज को तेतलीपुत्र के प्रति विपरीत परिणाम वाला कर दिया। ६४. उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर तेतलीपुत्र स्नान, बलि कर्म और कौतुक मंगल रूप प्रायश्चित्त कर प्रवर अश्व स्कंध पर आरूढ़ हो, बहुत से पुरुषों के साथ उनसे परिवृत हो, अपने घर से निकला। निकलकर जहां कनकध्वज राजा था, वहां जाने का संकल्प किया। " ६५. अमात्य तेतलीपुत्र को बहुत से राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति सार्थवाह प्रभृति अधिकारियों ने जैसे ही देखा वैसे ही उसका आदर किया, उसकी ओर ध्यान दिया, खड़े हुए हाथ जोड़े एवं प्रष्ट, कमनीय यावत् वचनों से आलाप संलाप करते हुए उसके आगे-पीछे, दाएं-बाएं, साथ-साथ चलने लगे । ६६. तेतलीपुत्र जहां राजा कनकध्वज था, वहां आया। ६७. कनकध्वज ने तेतलीपुत्र को आते हुए देखा। उसे देखकर न आदर दिया, न उसकी ओर ध्यान दिया और न वह खड़ा हुआ। वह उसे आदर न देता हुआ, उसकी ओर ध्यान न देता हुआ, खड़ा न होता हुआ, मुंह फेर कर बैठ गया । ६८. अमात्य तेतलीपुत्र ने राजा कनकध्वज को हाथ जोड़े, तो भी राजा कनकध्वज ने उसका न आदर किया, न उसकी ओर ध्यान दिया और न खड़ा हुआ। वह मुंह फेर कर मौन बैठा रहा। ६९. राजा कनकध्वज के विपरीत भावों को जानकर तेतलीपुत्र ने भीत `त्रस्त, तुषित, उद्विग्न और भयाक्रान्त होकर इस प्रकार कहा--राजा कनकध्वज मुझ से रुष्ट है। राजा कनकध्वज मुझे हीन मानने लगा है। राजा कनकध्वज मेरे प्रति दुश्चिन्तन करता है । नहीं, यह मुझे कैसी कुमौत मरवा दे ऐसा सोचकर वह भीत, जस्त हो यावत् वहां से धीरे-धीरे पीछे सरक गया। वहां से पीछे सरक कर उसने उसी अश्व-स्कन्ध पर आरोहण कर तेलीपुत्र के बीचोंबीच होता हुआ, जहां अपना घर था वहां जाने का संकल्प किया । ७०. तेलीपुत्र को ईश्वर यावत् सार्थवाह प्रभृति अधिकारियों ने जैसे ही देखा वैसे ही न उसको आदर दिया, न उसकी ओर ध्यान दिया, न खड़े हुए, न हाथ जोड़े और न इष्ट यावत् वचनों से आलाप-संलाप किया तथा न आगे-पीछे या दाएं-बाएं रह, उसका अनुगमन किया 1 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां अध्ययन : सूत्र ७१-७७ २८८ नायाधम्मकहाओ ७१. तए णं तेयलिपुत्ते अमच्चे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागए। जा ७१. तेतलीपुत्र अमात्य जहां अपना घर था, वहां आया। वहां उसकी जो विय से तत्थ बाहिरिया परिसा भवइ, तं जहा--दासे इ वा पेसे भी बहिरंग-परिषद् थी, जैसे--दास, प्रेष्य, भागीदार उसने भी उसे न इ वा भाइल्लए इ वा, सा वि यणं नो आढाइ नो परियाणाइ नो ___आदर दिया, न उसकी ओर ध्यान दिया और न ही खड़ी हुई। उसकी अब्भुटेइ । जा वि य से अभिंतरिया परिसा भवइ, तं जहा--पिया जो अंतरंग परिषद थी, जैसे--माता-पिता, भाई-बहिन, भार्या, पुत्र, इ वा माया इ वा भाया इ वा भगिणी इ वा भज्जा इ वा पुत्ता पुत्री, पुत्रवधू--उसने भी उसे न आदर दिया, न उसकी ओर ध्यान इ वा धूया इ वा, सुण्हा इ वा, सा वि य णं नो आढाइ नो दिया और न ही खड़ी हुई। परियाणाइ नो अब्भुढेइ॥ तेयलिपुत्तस्स मरणचेट्ठा-पदं ७२. तए णं से तेयलिपुत्ते जेणेव वासघरे जेणेव सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणिज्जंसि निसीयइ, निसीइत्ता एवं वयासी--एवं खलु अहं सयाओ गिहाओ निग्गच्छामि तं चेव जाव अभितरिया परिसा नो आढाइ नो परियाणाइ नो अब्भुटेइ । तं सेयं खलु मम अप्पाणं जीवियाओ ववरोवित्तए त्ति कटु एवं सपहेइ, सपेहेत्ता तालउडं विसं आसगंसि पक्खिवइ । से य विसे नो कमइ॥ तेतलीपुत्र की मरण-चेष्टा-पद ७२. वह तेतलीपुत्र जहां उसका वास-गृह था, जहां शयनीय था, वहां आया। वहां आकर शयनीय पर बैठा। बैठकर इस प्रकार बुदबुदाया--मैं अपने घर से निकला हूँ, वही सम्पूर्ण वर्णन यावत् मेरी अंतरंग परिषद ने मुझे न आदर दिया, न मेरी ओर ध्यान दिया और न खड़ी हुई। इसलिए मेरे लिए उचित है मैं जीवन को समाप्त कर दूं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर उसने अपने मुंह में तालपुट विष रखा किन्तु वह विष मारक रूप में परिणत नहीं हुआ। ७३. तए णं से तेयलिपुत्ते अमच्चे नीलुप्पल-गवलगुलिय-अयसिकुसुम- प्पगासं खुरधारं असिं खंधंसि ओहरइ। तत्थ वि य से धारा ओएल्ला॥ ७३. अमात्य तेतलीपुत्र ने अपने कन्धे पर नीलोत्पल, भैंसे का सींग और अतसी कुसुम के समान प्रभा तथा तीक्ष्णधार वाली तलवार का प्रहार किया, किन्तु वहां भी उसकी धार कुण्ठित हो गई। ७४. तए णं से तेयलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पासगं गीवाए बंधइ, बंधित्ता रुक्खं दुरुहइ, दुरुहित्ता पासगं रुक्खे बंधइ, बंधित्ता अप्पाणं मुयइ । तत्थ वि य से रज्जू छिन्ना।। ७४. वह तेतलीपुत्र जहां अशोक-वनिका थी, वहां आया। वहां आकर गले में फन्दा डाला। डाल कर वृक्ष पर चढ़ा। फन्दे को वृक्ष से बांधा और स्वयं नीचे कूद गया, किन्तु वहां भी फांसी की रस्सी टूट गई। ७५. तए णं से तेयलिपुत्ते महइमहालियं सिलं गीवाए बंधइ, बंधित्ता अत्थाहमतारमपोरिसीयंसि उदगंसि अप्पाणं मुयइ । तत्थ वि से थाहे जाए। ७५. तेतलीपुत्र ने एक सुविशाल शिला को अपने गले में बांधा। बांधकर वह अथाह, अतार एवं पुरुष प्रमाण से भी अधिक गहरे पानी में कूद गया, किन्तु वह अगाध-जल भी स्ताघ--थाह वाला बन गया। ७६. तए णं से तेयलिपुत्ते सुक्कसि तणकूडसि अगणिकायं पक्खिवइ, पक्खिवित्ता अप्पाणं मुयइ। तत्थ विय से अगणिकाए विज्झाए। ७६. तेतलीपुत्र ने सूखी घास के ढेर में आग लगायी। आग लगाकर स्वयं उसमें प्रविष्ट हो गया, किन्तु वहां भी आग बुझ गई। तेयलिपुत्तस्स विम्हयकरण-पदं ७७. तए णं से तेयलिपुत्ते एवं वयासी--सद्धेयं खलु भो! समणा वयंति । सद्धेयं खलु भो! माहणा वयंति। सद्धेयं खलु भो! समण-माहणा वयंति । अहं एगो असद्धेयं वयामि । एवं खलु-- अहं सह पुत्तेहिं अपुत्ते । को मेदं सद्दहिस्सइ? सह मित्तेहिं अमित्ते। को मेदं सद्दहिस्सइ? सह अत्थेणं अणत्थे। को मेदं सद्दहिस्सइ? सह दारेणं अदारे । को मेदं सद्दहिस्सइ? तेतलीपुत्र का विस्मयकरण पद ७७. तब वह तेतलीपुत्र इस प्रकार बोला वह श्रद्धेय है, जो श्रमण कहते हैं। वह श्रद्धेय है, जो ब्राह्मण कहते हैं। वह श्रद्धेय है, जो श्रमण-ब्राह्मण कहते हैं। एक मैं अश्रद्धेय वचन कह रहा हूं। वह इसलिए कि पुत्र होते हुए भी मैं अपुत्र हूं। मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा? मित्र होते हुए भी मैं अमित्र हूं। मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा Jain Education Intemational Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २८९ सह दासेहिं अदासे । को मेंद सद्दहिस्सइ? सह पेसेहिं अपेसे । को मेदं सद्दहिस्सइ? सह परिजणेणं अपरिजणे । को मेदं सद्दहिस्सइ? एवं खलु तेयलिपुत्तेणं अमच्चेणं कणगज्झएणं रण्णा अवज्झाएणं समाणेणं तालपुडगे विसे आसगंसि पक्खित्ते । से वि य नो कमइ । को मेयं सद्दहिस्सइ? तेयलिपुत्तेणं नीलुप्पल-गवलगुलिय-अयसि-कुसुमप्पगासे खुरधारे असी खंघसि ओहरिए । तत्थ विय से धारा ओएल्ला। को मेयं सद्दहिस्सइ? तेयलिपुत्तेणं पासगं गीवाए बंधित्ता रुक्खं दुरूढे, पासगं रुक्खे बंधित्ता अप्पा मुक्के । तत्थ वि य से रज्जू छिन्ना। को मेयं सद्दहिस्सइ? तेयलिपुत्तेणं महइमहालियं सिलं गीवाए बंधित्ता अत्याहमतारमपोरिसीयंसि उदगंसि अप्पा मुक्के । तत्थ वि य णं से थाहे जाए। को मेयं सद्दहिस्सइ? । तेयलिपुत्तेणं सुक्कंसि तणकूडंसि अगणिकायं पक्खिवित्ता अप्पा मुक्के। तत्थ वि य से अग्गी विज्झाए। को मेयं सद्दहिस्सइ?-ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए झियायइ। चौदहवां अध्ययन : सूत्र ७७-७९ करेगा? ___धन होते हुए भी मैं निर्धन हूं। मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा? पत्नी होते हुए भी मैं पत्नी-रहित हूं। मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा? दास संपन्न होते हुए भी मैं दास विपन्न हूं। मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा? प्रेष्य संपन्न होते हुए भी में प्रेष्य से विपन्न हूं। मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा? परिजनों के होते हुए भी मैं परिजन-रहित हूं। मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा? इस प्रकार राजा कनकध्वज के दुश्चिन्तन के कारण अमात्य तेतलीपुत्र ने अपने मुंह में तालपुट विष रख लिया किन्तु वह विष भी मारक रूप में परिणत नहीं हुआ, मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा? तेतलीपुत्र ने अपने कंधे पर नीलोत्पल, भैंसे का सींग और अतसि कुसुम के समान प्रभा तथा तीक्ष्ण धार वाली तलवार से प्रहार किया किन्तु वहां भी उसकी धार कुण्ठित हो गई। मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा? तेतलीपुत्र गले में फन्दा डालकर वृक्ष पर चढ़ा, फन्दे को वृक्ष पर बांधकर स्वयं नीचे कूद गया। वहां भी फांसी की रस्सी टूट गई। मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा? तेतलीपुत्र एक सुविशाल शिला को गले में बांधकर अथाह, अतार एवं पुरुष प्रमाण से भी अधिक गहरे पानी में कूद गया। किन्तु वहां भी वह अगाध जल उसके लिए स्ताघ--थाह वाला बन गया। मेरी इसी बात पर कौन श्रद्धा करेगा? तेतलीपुत्र सूखी घास के ढेर में आग लगाकर स्वयं उसमें प्रविष्ट हो गया। किन्तु वहां भी आग बुझ गई। मेरी इस बात पर कौन श्रद्धा करेगा? इस प्रकार वह भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबा हुआ, चिन्ता मग्न हो रहा था। पोट्टिलदेवस्स संवाद-पदं ७८. तए णं से पोट्टिले देवे पोट्टिलारूवं विउब्वइ, विउव्वित्ता तेयलिपुत्तस्स अदूरसामते ठिच्चा एवं वयासी--हं भो तेयलिपुत्ता! पुरओ पवाए, पिट्ठओ हत्थिभयं, दुहओ अचक्खुफासे, मझे सराणि वरिसंति । गामे पलिते रण्णे झियाइ, रण्णे पलित्ते गामे झियाइ। आउसो तेयलिपुत्ता! कओ वयामो? पोट्टिल देव का संवाद-पद ७८. पोट्टिल देव ने पोट्टिला के रूप की विक्रिया की। विक्रिया कर तेतलीपत्र के न दर न निकट स्थित होकर इस प्रकार कहा--हंभो! तेतलीपुत्र! आगे प्रपात है, पीछे हाथी का भय है, दोनों ओर गाढ़ अंधकार है और मध्य में बाणों की वर्षा हो रही है। गांव में आग लगने पर व्यक्ति जंगल में जाने की सोचता है और जंगल में आग लगने पर गांव में जाने की सोचता है। आयुष्मन् तेतलीपुत्र ! बोलो, अब हम कहां जाएं? ७९. तए णं से तेयलिपुत्ते पोट्टिलं एवं वयासी--भीयस्स खलु भो! ७९. तेतलीपुत्र ने पोट्टिला से इस प्रकार कहा--पोट्टिले भयभीत के लिए Jain Education Intemational Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां अध्ययन : सूत्र ७९-८४ २९० पव्वज्जा, उक्कट्ठियस्स सदेसगमणं, छुहियस्स अन्नं, तिसियस्स पाणं, आउरस्स भेसज्जं, माइयस्स रहस्सं, अभिजुत्तस्स पच्चयकरणं, अद्धाणपरिसंतस्स वाहणगमणं, तरिउकामस्स पवहणकिच्चं, परं अभिउंजिउकामस्स सहायकिच्चं। खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स एत्तो एगमवि न भवइ॥ नायाधम्मकहाओ प्रव्रज्या ही शरण है, जैसे उत्कंठित प्रवासी के लिए स्वदेश गमन, भूखे के लिए अन्न, प्यासे के लिए पानी, रोगी के लिए भेषज्य, मायावी के लिए रहस्य, अभियुक्त के लिए प्रत्ययकरण (साक्षी), पथ परिश्रान्त के लिए वाहन-गमन, तैरने के इच्छुक के लिए नौका तथा शत्रु पर आक्रमण करने के इच्छुक के लिए सहायता शरणभूत होती है। ___क्षान्त, दान्त और जितेन्द्रिय के लिए इन में से एक भी भय नहीं होता। ८०. तए णं से पोट्टिले देवे तेयलिपुत्तं अमच्चं एवं वयासी--सुठुणं तुमं तेयलिपुत्ता! एयमढें आयाणाहि त्ति कटु दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए।। ८०. पोट्टिलदेव ने अमात्य तेतलीपुत्र से इस प्रकार कहा--तेतलीपुत्र ! तुमने यह अर्थ भलीभांति जान लिया है? उसने दूसरी-तीसरी बार भी इस प्रकार कहा। यह कहकर वह जिस दिशा से आया, उसी दिशा में चला गया। तेयलिपुत्तस्स जाईसरणपुव्वं पव्वजा-पदं ८१. तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स सुभेणं परिणामेणंजाईसरणे समुप्पन्ने॥ तेतलीपुत्र का जातिस्मरण पूर्वक प्रव्रज्या-पद ८१. शुभ परिणामों के कारण तेतलीपुत्र को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। ८२. तए णं तेयलिपुत्तस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु अहं इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे पोक्खलावईए विजए पोंडरीगिणीए रायहाणीए महापउमे नामंराया होत्था। तएणं हं थेराणं अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइए सामाइयमाझ्याइं चोद्दसपुब्वाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए महासुक्के कप्पे देवत्ताए उववण्णे। तए णं हं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरंचयं चइत्ता इहेव तेयलिपुरे तेयलिस्स अमच्चस्स भद्दाए भारियाए दारगत्ताए पच्चायाए। तं सेयं खलु मम पुवुद्दिवाइं महव्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए--एवं संपेहेइ, सपहेत्ता सयमेव महव्वयाई आरुहेइ, आरुहेत्ता जेणेव पमयवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयसि सुहनिसण्णस्स अणुचितमाणस्स पुव्वाहीयाई सामाइयमाइयाइं चोद्दसपुव्वाइं सयमेव अभिसमण्णागयाई।। ८२. तेतलीपुत्र के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--इस प्रकार जम्बूद्वीप द्वीप, महाविदेह वर्ष, पुष्करावती विजय और पुण्डरीकिणी राजधानी में मैं महापद्म नाम का राजा था। वहां मैं स्थविरों के पास मुण्ड हो, प्रव्रजित हुआ। सामायिक आदि चौदहपूर्वो का अध्ययन कर, बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर मैं मासिक संलेखना पूर्वक महाशुक्र विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। उसके पश्चात् आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्युत होकर, इसी तेतलीपुर नगर में अमात्य तेतली की भार्या भद्रा के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ हूं । अत: मेरे लिए उचित है मैं पूर्व-उद्दिष्ट महाव्रतों को स्वयं ही स्वीकार कर, विहार करूं--उसने ऐसी संप्रक्षा की। संप्रेक्षा कर स्वयं महाव्रतों का आरोपण किया। आरोपण कर, जहां प्रमदवन उद्यान था, वहां आया। वहां आकर प्रवर अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वी शिलापट्ट पर सुखासन में बैठा। अनुचिन्तन करते-करते उसे पूर्व अधीत सामायिक आदि चौदह पूर्व स्वयं ही अभिसमन्वागत हो गये। केवलणाण-पदं ८३. तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्येणं अज्झवसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं कम्मरयविकरणकरं अपव्वकरणं पविट्ठस्स केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे। केवलज्ञान-पद ८३. तत्पश्चात् शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध्यमान लेश्याओं के कारण तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने से, कर्मरजों का विकिरण करने वाले अपूर्वकरण में प्रविष्ट तेतलीपुत्र अनगार को प्रवर केवलज्ञान और केवलदर्शन समुत्पन्न हुए। ८४. तए णं तेयलिपुरे नयरे अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं ८४. तेतलीपुत्र नगर में यथोचित सानिध्य देने वाले वााणव्यन्तर देव और Jain Education Intemational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २९१ देवीहि य देवद्वंद्वहीओ समाहयाओ, दसद्धवण्णे कुसुमे निवाइए, चेलुक्खेवे दिव्वे गीयगंधव्वनिनाए कए यावि होत्था। चौदहवां अध्ययन : सूत्र ८४-८९ देवियों ने देव-दुन्दुभियां बजाई। पंचरंगे फूल बरसाये, वस्त्रों की वर्षा की, दिव्य गीत गाये और गान्धर्व निनाद भी किया। कणगझयस्स सावगधम्म-पदं ८५. तए णं से कणगज्झए राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे एवं वयासी--एवं खलु तेयलिपुत्ते मए अवज्झाए मुडे भवित्ता पव्वइए। तं गच्छामि गं तेयलिपुत्तं अणगारं वंदामि नमसामि, वंदित्ता नमंसित्ता एयमटुं विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेमि--एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता ण्हाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं जेणेव पमयवणे उज्जाणे जेणेव तेयलिपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेयलिपुत्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एयमटुं च णं विणएणं भुज्जो-भुज्जो खामेइ, खामेत्ता नच्चासण्णे नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमंसमाणे पंजलिउडे अभिमुहे विणएणं पज्जुवासइ।। कनकध्वज राजा का श्रावक-धर्म पद ८५. राजा कनकध्वज को इस बात का पता चला तो उसने इस प्रकार कहा--मेरे दुश्चिन्तन के कारण ही तेतलीपुत्र मुण्ड हो, प्रद्रजित हुआ। अत: मैं जाऊं और तेतलीपुत्र अनगार को वन्दना-नमस्कार करूं। वन्दना-नमस्कार कर इस अर्थ के लिए विनयपूर्वक पुन: पुन: क्षमायाचना करूं। उसने ऐसी सप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर स्नान कर यावत् चतुरंगिणी सेना के साथ जहां प्रमदवन उद्यान था, जहां तेतलीपुत्र अनगार था, वहां आया। आकर तेतलीपुत्र को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर अपने अपराध के लिए पुन: पुन: विनयपूर्वक क्षमायाचना की। क्षमायाचना कर न अति दूर न अति निकट बैठ कर शुश्रूषा और नमन की मुद्रा में प्राञ्जलिपुट और अभिमुख हो विनय पूर्वक पर्युपासना करने लगा। ८६. तए णं से तेयलिपुत्ते अणगारे कणगज्झयस्स रण्णो तीसे य महइमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ। ८६. तेतलीपुत्र अनगार ने राजा कनकध्वज और उस सुविशाल परिषद को धर्म की देशना दी। ८७. तए णं से कणगज्झए राया तेयलिपुत्तस्स केवलिस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्मा पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं--दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता समणोवासए जाए-- अभिगयजीवाजीवे॥ ८७. केवली तेतलीपुत्र से धर्म को सुनकर, अवधारण कर राजा कनक ध्वज ने पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप-बारह प्रकार का श्रावक-धर्म स्वीकार किया। स्वीकार कर वह श्रमणोपासक बन गया--जीव और अजीव को जानने वाला। तेयलिपुत्तस्स सिद्धि-पदं ८८. तए णं तेयलिपुत्ते केवली बहूणि वासाणि केवलिपरियागं पाउणित्ता जाव सिद्धे॥ तेतलीपुत्र का सिद्धि-पद ८८. केवली तेतलीपुत्र बहुत वर्षों तक केवलीपर्याय का पालन कर यावत् सिद्ध बना। निक्खेव-पदं ८९. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं चोद्दसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। -त्ति बेमि॥ निक्षेप-पद ८९. जम्बू ! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के चौदहवें अध्ययन का यह अर्थ किया है। --ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धता निगमनगाथा जाव न दुक्खं पत्ता, माणभंसं च पाणिणो पायं। ताव न धम्मं गेहंति भावओ तेयलिसुयव्व ।।।।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा १. प्राणी जब तक दु:ख को प्राप्त नहीं होते और जब-तक उनका अहं विगलित नहीं होता तब तक वे प्राय: भाव से धर्म को स्वीकार नहीं करते, जैसे--तेतलीपुत्र। Jain Education Intemational Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र-४० १. चूर्णयोग--स्तम्भन, वशीकरण आदि के लिए किया जाने वाला १. समिति और गुप्ति के दो वर्गीकरण मिलते हैं-- औषधियों के चूर्ण का प्रयोग। (अ) उत्तराध्ययन में आठ समितियां बतलाई गई हैं-- औषधि आदि के द्वारा बनाया गया वासक द्रव्य । वशीकरण आदि १. ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा आदि समितियां ।' के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। स्तम्भन के द्वारा व्यक्ति को जड़वत (ब) दूसरे वर्गीकरण में पांच समितियां और तीन गुप्तियों का उल्लेख विवेकशून्य कर दिया जाता है। है--१. ईर्या समिति, भाषा समिति आदि। २. मन्त्रयोग--मन्त्र का प्रयोग। प्रस्तुत सूत्र में प्रथम वर्गीकरण के अनुसार मन, वचन और काय ३. कार्मणयोग--मन्त्र आदि योगविद्या । मूलकर्म-मंत्र, औषधि आदि के समिति का उल्लेख है। द्वारा वशीकरण आदि का प्रयोग। ४. कर्मयोग--कम्म शब्द के दो संस्कृत रूप किए जा सकते हैं--काम्य सूत्र-४३ और कर्म। इन दोनों का तात्पर्यार्थ मोहनकर्म किया जा सकता है। यह २. (सूत्र ४३) सम्मोहन की विद्या है। इसके द्वारा व्यक्ति को सम्मोहित कर अपनी (अ) तंत्रशास्त्र में कामना की पूर्ति के लिए कर्म का विधान है। इच्छानुसार कार्य करवाया जा सकता है। उसके दो वर्गीकरण मिलते हैं-- ५. हृदयोड्डापन-कायोड्डापन--ये दोनों मोहनकर्म के अन्तर्गत प्राचीन वर्गीकरण के अनुसार कर्म के दस प्रकार हैं--शान्तिकर्म, आते हैं। पुष्टिकर्म, आकर्षणकर्म, मोहनकर्म, वशीकरणकर्म, जम्भणकर्म, उच्चाटनकर्म, ६. आभियोगिक--दूसरे को अभिभूत अथवा पराजित करने वाला स्तम्भनकर्म, विद्वेषणकर्म और मारण कर्म। प्रयोग। अर्वाचीन वर्गीकरण के अनुसार कर्म के छह प्रकार हैं--शान्तिकर्म, आकर्षणकर्म, वशीकरणकर्म, उच्चाटनकर्म, स्तम्भनकर्म और मरणकर्म । सूत्र-५६ (ब) मंत्र और तंत्र से संबंधित अनेक प्रयोगों का उल्लेख प्रस्तुत ३. राजलक्षण सम्पन्न (रायलक्खणसंपन्ने) प्रकरण में किया गया है-- ____सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार राजा के लक्षण, चक्र स्वस्तिक, चूर्णयोग, मंत्रयोग, कार्मणयोग काम्ययोग, हृदयोड्डापन, कायोड्डापन, अंकुश आदि होते हैं और योग्यता की दृष्टि से त्याग, सत्य, शौर्य आदि आभियोगिक, वशीकरण, कौतुकर्म ओर भूतिकर्म। गुण हैं। १. उत्तरज्झयणाणि २४/३ २. वही २४/१ ३. भारतीय तंत्र विद्या, पृ. ६६, ७४ ४. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१९५--चुण्णजोए त्ति--द्रव्यचूर्णानां योग: स्तम्भनादि कर्मकारी। ५. उत्तराध्ययन बृहवृत्ति पत्र-४८९--राजेव राजा तस्य लक्षणानि चक्रस्वस्तिकाकुशादीनि त्यागसत्यशौर्यादीनि वा। Jain Education Intemational Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन में नन्दीवृक्ष के फल की प्रियता और परिणाम के माध्यम से इन्द्रियविषयों की प्रियता व परिणाम का संबोध कराया गया है। इसलिए इस अध्ययन का नाम नन्दीफल है। नन्दीफल दिखने में सुन्दर, खाने में स्वादिष्ट पर परिणाम में विरस होते हैं। जो इन वृक्षों के मूल, कन्द, फल, फूल आदि का उपभोग करता है अथवा उनकी छाया में विश्राम करता है, वह कुछ समय के लिए प्रियता और तृप्ति का अनुभव करता है। कुछ समय पश्चात् परिणति होने पर वह असमय में ही मृत्यु का ग्रास बन जाता है। धर्म की आराधना का लक्ष्य है--मोक्ष। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए यात्रा करने वाला यदि विषयों की प्रियता में ही लुब्ध हो जाता है, लक्ष्य तक पहुंच नहीं पाता। इसलिए दृष्टि हमेशा परिणाम पर रहे, प्रियता पर नहीं। यह इस अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य है। प्राचीन काल में यात्राएं होती तो पूरा सार्थ एक साथ चलता। अनेक साधु-सन्यासी, परिव्राजक आदि भी उस सार्थ के साथ ही यात्रा करते। सार्थवाह जो निर्देश देता, सार्थ का हर सदस्य उसका पालन करता। मार्ग में सभी सदस्यों की सुरक्षा का दायित्व सार्थवाह के कंधों पर होता। प्रस्तुत अध्ययन में धन सार्थवाह की जागरूकता और दायित्वशीलता का सुन्दर प्रतिपादन है। वृत्तिकार ने धन सार्थवाह की आज्ञा के समान तीर्थंकर की देशना को माना है। जिन यात्रियों ने सार्थवाह की आज्ञा के शिरोधार्य कर नन्दीफलों का भोग नहीं किया, वे अपनी नगरी में सुरक्षित लौट आए। इसी प्रकार जो तीर्थंकरों की आज्ञा की आराधना करता है, अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सफल हो जाता है। Jain Education Intemational Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्खेव पदं १. जइ णं भत्ते! समणं भगवया महावीरेणं चोद्दसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, पण्णरसमस्स णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्टे पण्णत्ते ? पण्णरसमं अज्झयणं पन्द्रहवां अध्ययन नंदीफले : नन्दीफल २. एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्या । पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तू राया ।। ३. तत्य णं चंपाए नयरीए धणे नामं सत्यवाहे होत्था -- अड्ढे जाव अपरिभूए ॥ ४. तीसे णं चंपाए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अहिच्छत्ता नाम नयरी होत्या -- रिद्धत्थिमिय- समिद्धा वण्णओ ।। ५. तत्य णं अहिच्छत्ताए नयरीए कणगकेऊ नामं राया होत्या--महा वण्णओ ॥ धणस्स घोसणा - पदं -- ६. तए णं तस्स धणस्स सत्यवाहस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरतकालसमयंसि इमेयारूये अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकपे समुप्पज्जित्था -- सेयं खलु मम विपुलं पणियभंडमायाए अहिच्छ नयरिं वाणिज्जाए गमित्तए एवं सपेहेड, सपेहेत्ता गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च-- चउव्विहं भंडं गेण्हइ, गेण्हित्ता सगडी - सागडं सज्जेइ, सज्जेत्ता सगडी-सागडं भरेइ, भरेत्ता कोडुबियपुरिसे सहावे सहावेत्ता एवं वयासी - गच्छह गं तुम्भे देवागुप्पिया! चंपाए नयरीए सिंघाडग जाव महापापहेतु (उग्घोसेमाणा - उग्घोसेमाणा ?) एवं वयह--एवं खलु देवाणुप्पिया! धणे सत्यवाहे विपुलं पणियं आदाय इच्छा अहिच्छतं नयरिं वाणिज्जा गमित्तए । तं जो णं देवाणुप्पिया! चरए वा चीरिए वा चम्मसंडिए वा भिच्छुडे वा पंडुरंगे वा गोयमे वा गोव्वतिए वा मिहिधम्मे वा धम्मचिंतए वा अविरुद्ध विरुद्धवुडसावग-रत्तप-निगंधप्यभिई पासंहत्थे वा निहत्थे वा घणेणं सत्यवाहेणं सद्धिं अहिच्छत्तं नयरिं गच्छइ, तस्स णं धणे सत्यवाहे अच्छत्तगस्स छत्तगं दलयइ, अणुवाहणस्स उवाहणाओ दलयइ, अकुंडियस्स कुडियं दतयद्द, अपत्ययणस्स पत्थयणं दलपद, --- - उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के चौदहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते! उन्होंने ज्ञाता के पन्द्रहवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. जम्बू! उस काल और उस समय चम्पा नाम की नगरी थी । पूर्णभद्र चैत्य था । जितशत्रु राजा था । ३. उस चम्पा नगरी में धन नाम का सार्थवाह था -- आढ्य यावत् अपराजित । ४. उस चम्पा नगरी के ईशान कोण में अहिच्छत्रा नाम की नगरी थी । वह ऐक्यर्वशाली, शान्त और समृद्ध थी-वर्णन वाची आलापक। ५. उस अहिच्छत्रा नगरी में कनककेतु नाम का राजा था, वह महान था - वर्णन वाची आलापक । -- धन का घोषणा पद ६. एक बार मध्यरात्रि के समय धन सार्थवाह के मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ मे --मेरे लिए उचित है, मैं विपुल पण्यरूयाणक लेकर वाणिज्य के लिए अहिच्छत्रा नगरी जाऊं - उसने ऐसी सप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर गणनीय, धरणीय, मेय और परिच्छेद्य-रूप चतुर्विध क्रमाणक ग्रहण किया। ग्रहण कर छोटे-बड़े वाहन सज्जित किए। सज्जित कर छोटे-बड़े वाहन भरे । भर कर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा -- देवानुप्रियो ! तुम जाओ और चम्पानगरी के दोराहों यावत् राजमार्गों और मार्गों में बार-बार उद्घोषणा करते हुए? इस प्रकार कहो -- देवानुप्रियो ! धन सार्थवाह विपुल पण्य लेकर वाणिज्य के लिए अहिच्छत्रा नगरी जाना चाहता है। अतः जो भी चरक, चीरिक, चर्मखण्डिक, भिक्षाजीवी, पाण्डुरंग, गौतम, गौव्रतिक, गृहिधर्मा, धर्मचिन्तक, अविरुद्ध वैनयिक, विरुद्ध अक्रियावादी वृद्धश्रावक रक्तपट और निर्ग्रन्थ आदि सम्प्रदायों के पाषण्डी - व्रती अथवा गृहस्थ धन सार्थवाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी जाएगा, तो धन सार्थवाह जिसके पास छत्र नहीं है, उसे छत्र देगा। जिसके पास जूते नहीं है, उसे जूते देगा। जिसके पास कुण्डिका नहीं है, उसे कुण्डिका -- -- Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २९५ अपक्खेवगस्स पक्खेवं दलयइ, अंतरा वि य से पडियस्स वा भग्गलुग्गस्स साहेज्जं दलयइ, सुहंसुहेण य अहिच्छत्तं संपावेइ ि कट्टु दोच्चपि तच्चपि घोसणं घोसेह, घोसेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिह ॥ ७. तणं ते कोडुंबियपुरिसा धणेणं सत्थवाहेणं एवं वृत्ता समाणा हडतुडा चंपाए नगरीए सिंघाडग जान महापापहे एवं क्यासीहृदि सुगंतु भगवंतो! चंपानगरीकत्थन्या! बहवे चरगा! वा जाव हत्या! वा, जो णं धणेणं सत्यवाहेणं सद्धिं अहिच्छतं नयरिं गच्छ तस्स णं धणे सत्यवाहे अच्छत्तगस्स छत्तगं दलयइ जाव सुहंसुहेण व अहिच्छत संपावेइ ति कट्टु दोच्चपि तच्चपि घोसणं घोसेत्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति ।। ८. तए णं तेसिं कोडुंबियपुरिसाणं अंतिए एयम सोच्चा चंपाए नयरीए बहवे चरगा य जाव गिहत्था य जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उपागच्छति । ९. तए णं धणे सत्थवाहे तेसिं चरगाण य जाव गिहत्थाण य अच्छत्तगस्स छत्तं दलयइ जाव अपत्थयणस्स पत्थयणं दलयइ, दलपित्ता एवं बयासी-बच्छह णं तुम्मे देवागुथिया! चंपाए नयरीए बहिया अग्गुज्जाणंसि ममं पडिवालेमाणा - पडिवालेमाणा चिद्वह। १०. तए गं से चरगा य जाव हित्वा य धणेणं सत्यवाहेणं एवं वृत्ता समाणा चंपाए नयरीए बहिया अग्गुज्जाणंसि धणं सत्यवाहं पडिवालेमाणा - पडिवालेमाणा चिट्ठति ।। धणस्स निद्देस - पदं ११. तए णं धणे सत्यवाहे सोहणंसि तिहि-करण - नक्खत्तंसि विउलं असण- पाणखाइम साइमं उपक्खडावे, उवक्खडावेत्ता मित्त - नाइ - नियम- सयण-संबंधि- परियणं आमते, आमतेत्ता भोयणं भोयावेद, भोयाक्ता आपुच्छ, आपुच्छिता सगडी-सागडं जोयावेह जोयावेता चंपाओ नवरीओ निगाच्छा, निमच्छित्ता नाइविप्यगिहिं अद्धाविसमाणे वसमाणे सुहेहिं सहि पायरासेहिं अंग जणवयं मज्मणं जेणेव देतां तेणेव उवागच्छद् उवागच्छित्ता सगडी-साग मोयावे, सत्यनिवेस करेह, करेत्ता कोदुवियपुरिसे सद्दावे, सद्दावेत्ता एयं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! मम सत्यनिवेससि महया महया सदेणं उग्घोसेमाणा- उन्घोसेमाणा एवं क्यह-- एवं खलु देवाणुप्पिया! इमीसे आगामियाए छिण्णावायाए दीहमद्धाए अडवीए बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं बहवे नंदिफला पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र ६-११ देगा। जिसके पास पाथेय नहीं है. उसे पाथेय देगा। जिसका पाथेय मार्ग में समाप्त हो जाएगा, उसके भोजन की पुनः व्यवस्था करेगा। मार्ग में भी वह पतित, भग्न और रुग्ण को सहयोग देगा और सुसपूर्वक उसे अहिच्छत्रा नगरी पहुंचाएगा इस प्रकार तुम दूसरी-तीसरी बार भी यह घोषणा करो। घोषणा कर इस आज्ञा को पुनः मुझे प्रत्यर्पित करो। ७. धन सार्थवाह के ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए कौटुम्बिक पुरुषों ने चम्पा नगरी के दोराहों यावत् राजमार्गों और मार्गों में घोषणा करते हुए कहा - हे भगवन्तो! सुनें, चम्पा नगरी निवासियों! चरको! यावत् गृहस्थो! जो व्यक्ति धन सार्थवाह के साथ अहिच्छत्रा नगरी जाएगा, तो धन सार्थवाह जिसके पास छत्र नहीं है, उसे छत्र देगा यावत् सुखपूर्वक अहिच्छत्रा पहुंचाएगा। उन्होंने इस प्रकार दूसरी-तीसरी बार भी यह घोषणा की और उस आज्ञा को पुनः प्रत्यर्पित किया। ८. कौटुम्बिक पुरुषों के पास यह अर्थ 'सुनकर चम्पानगरी के बहुत से चरक यावत् गृहस्थ जहां धन सार्थवाह था, वहां आए। ९. धन सार्थवाह ने उन चरकों यावत् गृहस्थों को जिनके पास छत्र नहीं थे, उन्हें छत्र दिये यावत् जिनके पास पाथेय नहीं था, उन्हें पाथेय दिया । देकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो! जाओ और चम्पानगरी के बाहर प्रधान उद्यान में मेरी प्रतीक्षा करते हुए ठहरो । १०. धन सार्थवाह के ऐसा कहने पर वे चरक यावत् गृहस्थ चम्पानगरी के बाहर प्रधान उद्यान में धन सार्थवाह की प्रतीक्षा करने लगे । धन का निर्देश पद ११. धन सार्थवाह ने शोभन तिथि, करण और नक्षत्र में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। तैयार करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को आमन्त्रित किया । आमन्त्रित कर भोजन करवाया। भोजन करवाकर उन्हें पूछा । पूछकर छोटे-बड़े वाहन जुताए । जुताकर चम्पा नगरी से निष्क्रमण किया । निष्क्रमण कर थोड़ी-थोड़ी दूर पर मार्ग में ठहरता - ठहरता सुखपूर्वक निवास करता-करता और प्रातराश करता-करता, अंग जनपद के बीचोंबीच होते हुए जहां अंग देश की सीमा थी, वहां आया। वहां आकर छोटे-बड़े वाहनों को मुक्त करवाया। सार्थ ठहराया। ठहराकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! तुम मेरे सार्थ के शिविर में ऊंचे-ऊंचे स्वर में बार-बार उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहो -- इस आने वाली, Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र ११-१३ नाम रुक्खा किन्हा जाव पत्तिया पुष्फिया फलिया हरिया रेरिजमाणा सिरीए अई अईव उवसोभेमाणा चितिमणुष्णा adi मण्णा गंधेणं मणुण्णा रसेणं मणुण्णा फासेणं मणुण्णा छायाए । तं जो णं देवाप्पिया! तेसिं नंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंदाणि वा तयाणि वा पत्ताणि वा पुप्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा आहारेइ, छायाए वा वीसमइ, तस्स णं आवाए भद्दए भवइ । तओ पच्छा परिणममाणा - परिणममाणा अकाले चैव जीविधाओ ववरोवेति । तं मा णं देवाणुप्पिया! केद्र T तेर्सि नदिफलाणं मूलाणि वा जाव हरियाणि वा आहरउ, छायाए या वीसमउ, मा णं से वि अकाले चैव जीविधाओं क्वरोविज्जिरसउ । तुब्भेणं देवाणुप्पिया! अण्णेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव हरियाणि य आहारेह, छायासु दीसमह त्ति घोसणं घोसेह, घोसेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चपिणह। ते वि तहेव घोसणं घोसेत्ता तमागत्तियं पच्चप्पिणंति ।। २९६ १२. तए णं धणे सत्यवाहे सगडी-सागडं जोएइ, जोएत्ता जेणेव नदिफला रुक्ला तेणेव उवागच्छद्र, उवागच्छित्ता तेसिं नदिफलागं अदूरसामते सत्यनिवेस करेड़, करेता दोच्चापि तप्यपि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! मम सत्यनिवेशसि महया महया सद्देणं उग्घोसेमाना उग्घोसेमाना एवं यह एए णं देवाणुपिया! ते नंदिफला स्वखा किन्हा जाव मणुष्णा छायाए । तं जो णं देवाप्पिया एएसं नदिफलाणं स्क्खाणं मूलाणि वा कंदाणि वा तयाणि वा पत्ताणि वा पुष्काणि वा फलानि वा बीयाणि वा हरियाणि वा आहारेइ जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेइ । तं मा णं तुब्भे तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि वा जाव आहारेह, छायाए वा वीसमह, मा णं अकाले चैव जीविधाओ वयरोविज्जिस्सह, अण्णेसिं रुक्खानं मूलाणि य जाव आहारेह, छायाए वा वीसमहत्ति कट्टु घोसणं घोसेह, घोसेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चपिणह । ते वि तहेव घोसणं घोसेता तमाणत्तियं पच्चप्पिणति । । निदेसपालणस्स निगमण-पदं १३. तत्य णं अत्येगइया पुरिसा धणस्स सत्यवाहस्स एयम सदहंति पत्तियंति रोयंति एयमद्वं सद्दहमाणा पत्तियमागा रोयमाणा तेसिं नंदिफलाणं दूरंदूरेणं परिहरमाणा-परिहरमाणा अण्णेसिं रुक्खाणं मूलाणि य जाव आहारति छायासु बीसमति । तेसि णं आवाए नो भए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणा - परिणममाणा सुभरूवत्ताए सुभगंधत्ताए सुभरसत्ताए सुभफासत्ताए सुभछायत्ताए भुज्जो - भुज्जो परिणमति ॥ नायाधम्मकहाओ आवागमन रहित, प्रलम्ब मार्ग वाली अटवी के ठीक मध्यभाग में यहां नन्दीफल नाम के बहुत से वृक्ष हैं। वे कृष्ण यावत् पल्लवित, पुष्पित, फलित, हरीतिमा से आकर्षक और श्री से अतीव-अतीव उपशोभित हैं। वे वर्ण से मनोज्ञ, गंध से मनोज्ञ, स्पर्श से मनोज्ञ और छाया से मनोज हैं। अतः देवानुप्रियो! जो उन नन्दीफत वृक्षों के मूल कन्द, छाल पत्ते, फूल, फल, बीज अथवा हरित खाता है अथवा छाया में विश्राम करता है, वह उसके लिए आपातभद्र होता है । तत्पश्चात् परिणत होते-होते वे असमय में ही जीवन का विनाश कर देते हैं। अतः देवानुप्रियो ! कोई भी उन नन्दीफलों के मूल यावत् हरित न खाए। उनकी छाया में विश्राम न करे। जिससे असमय में ही उसके जीवन का विनाश न हो देवानुप्रियो ! तुम अन्य वृक्षों के मूल यावत् हरित खाओ और उनकी छाया में विश्राम करो- तुम यह घोषणा करो। यह घोषणा कर इस आज्ञा को पुनः मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही घोषणा कर, उस आज्ञा को पुनः प्रत्यर्पित किया । १२. धन सार्थवाह ने छोटे-बड़े वाहन जुतवाए। जुतवाकर' जहां नन्दीफल वृक्ष थे, वहां पहुंचा पहुंचकर उन नन्दीफलों के आस-पास सार्थ को ठहराया। ठहराकर दूसरी-तीसरी बार भी कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रियो! तुम मेरे सार्थ के शिविर में ऊंचे-ऊंचे स्वर से बार-बार उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहादेवानुप्रियो ! ये ही वे नन्दीफल वृक्ष हैं, जो कृष्ण यावत् छाया से मनोज्ञ हैं । देवानुप्रियो जो भी इन नदीपल वृक्षों के मूल, कन्द, छाल, पत्ते, फूल, फल, बीज अथवा हरित खाता है यावत् वह अकाल में ही जीवन का विनाश करता है । अतः तुम लोग उन नन्दीफलों के मूल यावत् हरित मत खाना। उनकी छाया में विश्राम मत करना। जिससे अकाल में ही जीवन का विनाश न हो। तुम लोग अन्य वृक्षों के मूल यावत् हरित खाओ और उनकी छाया में विश्राम करो। ऐसी घोषणा करो। घोषणा कर इस आज्ञा को पुनः मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसी ही घोषणा कर उस आज्ञा को पुनः प्रत्यर्पित किया। । निर्देश पालन का निगमन-पद १३. वहां कुछ पुरुषों ने धन सार्थवाह के इस अर्थ पर श्रद्धा की प्रतीति की और रुचि की। उस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करते हुए, उन नन्दीफलों का दूर-दूर से ही परिहार करते हुए अन्य वृक्षों के मूल यावत् हरित खाया और उनकी छाया में विश्राम किया। वह उनके लिए आपातभद्र नहीं हुआ। उसके पश्चात् परिणत होते-होते शुभ रूप, शुभ गंध, शुभ रस, शुभ स्पर्श और शुभ छाया के रूप पुनः पुनः परिणत बे मेँ हुए । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २९७ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र १४-१८ १४. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंयो वा निग्गंथी वा आयरिय- १४. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निम्रन्थी उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए आचार्य, उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित समाणे पंचसु कामगुणेसु नो सज्जइ नो रज्जइ नो गिज्झइ नो हो, पांच काम गुणों में न आसक्त होता है, न अनुरक्त होता है, न मुज्झइ नो अज्झोववज्जइ, सेणं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं गृद्ध होता है, न मूढ होता है और न अध्युपपन्न होता है, वह इस समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे भवइ, जीवन में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत परलोए वि य णं नो बहूणि हत्थछेयणाणि य कण्णछेयणाणि य श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय होता है और परलोक में भी वह बहुत नासाछेयणाणि य एवं--हिययउप्पायणाणि य वसणुप्पायणाणि हस्त-छेदन, कर्ण-छेदन, नासा-छेदन तथा इसी प्रकार हृदय उत्पाटन, उल्लंबणाणि य पाविहिइ, पुणो अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं वृषण-उत्पाटन और फांसी को प्राप्त नहीं होता। वह अनादि-अनन्त, चाउरतं संसारकतारं वीईवइस्सइ--जहा व ते पुरिसा ।। प्रलम्ब-मार्ग और चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार का पार पा लेता है, जैसे वे पुरुष। निद्देसाऽपालणस्स निगमण-पदं १५. तत्थ णं अप्पेगइया पुरिसा धणस्स एयमद्वं नो सद्दहति नो पत्तियंति नो रोयंति, घणस्स एयमढे असद्दहमाणा अपत्तियमाणा अरोयमाणा जेणेव ते नंदिफला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेसिं नंदिफलाणं मूलाणि य जाव आहारंति, छायासु वीसमंति। तेसिणं आवाए भद्दए भवइ, तओपच्छा परिणममाणा-परिणममाणा अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेंति ।। निर्देश के अपालन का निगमन-पद १५. वहां कुछ पुरुषों ने धन सार्थवाह के इस अर्थ पर न श्रद्धा की, न प्रतीति की और न रुचि की। वे इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि न करते हुए जहां नन्दीफल थे, वहां आए। वहां आकर उन नन्दीफलों के मूल यावत् हरित खाए और उनकी छाया में विश्राम किया। वह उनके लिए आपातभद्र हुआ, उसके पश्चात् परिणत होते-होते अकाल में ही जीवन का विनाश कर दिया। १६. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिए-उवझायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंचसु कामगुणेसु सज्जइ रज्जइ गिज्झइ मुज्झइ अज्झोववज्जइ, से णं इहभवे जाव अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं संसारक्तारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ--जहा व ते पुरिसा॥ १६. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य, उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो, पांच काम गुणों में आसक्त होता है, अनुरक्त होता है, गृद्ध होता है, मूढ़ होता है और अध्युपपन्न होता है, वह इस जीवन में भी यावत् ___ अनादि-अनन्त, प्रलम्ब-मार्ग वाले संसार रूपी कान्तार में पुन:पुन: अनुपरिवर्तन करता है, जैसे वे पुरुष । धणस्स अहिच्छत्ताऽगमण-पदं १७. तए णं से धणे सत्थवाहे सगडी-सागडं जोयावेइ, जोयावेत्ता जेणेव अहिच्छत्ता नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहिच्छत्ताए नयरीए बहिया अग्गुज्जाणे सत्यनिवेसं करेइ, करेत्ता सगडी-सागडं मोयावेइ॥ धन का अहिच्छत्रा आगमन-पद १७. धन सार्थवाह ने छोटे-बड़े वाहन जुताए। जुतवाकर जहां अहिच्छत्रा नगरी थी, वहां आया। वहां आकर अहिच्छत्रा नगरी के बाहर प्रधान उद्यान में सार्थ को ठहराया। ठहराकर छोटे-बड़े वाहनों को मुक्त किया। १८. तए णं से धणे सत्यवाहे महत्थं महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता बहुपुरिसेहिं सद्धिं संपरिखुडे अहिच्छत्तं नयरिं मझमझेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता तं महत्थं महाघं महरिहं रायारिहं पाहुडं उवणेइ। १८. धन सार्थवाह ने महान अर्थवान, महान मूल्यवान, महान अर्हतावाला और राजाओं के योग्य उपहार लिया। उपहार लेकर बहुत से पुरुषों के साथ उनसे परिवृत हो, अहिच्छत्रा नगरी के बीचोंबीच प्रवेश किया। प्रवेश कर जहां कनककेतु राजा था, वहां आया। वहां आकर जुड़ी हुई, सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर, जय-विजय की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर महान अर्थवान, महान मूल्यवान, महान अर्हतावाला और राजाओं के योग्य उपहार भेंट किया। Jain Education Intemational ein Education Intemational Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां अध्ययन : सूत्र १९-२२ २९८ नायाधम्मकहाओ १९. तए णं से कणगकेऊ राया हद्वतुढे धणस्स सत्थवाहस्स तं महत्थं १९. राजा कनककेतु ने हृष्ट-तुष्ट हो धन सार्थवाह के महान अर्थवान, महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुई पडिच्छइ, पडिच्छित्ता धणं सत्यवाहं महान मूल्यवान, महान अर्हतावाला और राजाओं के योग्य उपहार सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता उस्सुक्कं वियरइ, को स्वीकार किया। स्वीकार कर धन सार्थवाह को सत्कृत किया। वियरित्ता पडिविसज्जेइ, भंडविणिमयं करेइ, करेत्ता पडिभंडं गेण्हई, सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर उसे करमुक्त किया। गेण्हित्ता सुहंसुहेणं जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ, करमुक्त कर प्रतिविसर्जित कर दिया। धन सार्थवाह ने क्रयाणक का उवागच्छित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धिं विनिमय किया। विनिमय कर दूसरा क्रयाणक लिया। लेकर सुखपूर्वक अभिसमण्णागए विपुलाइमाणुस्सगाई भोगभोगाइं पच्चणुभवमाणे जहां चम्पा नगरी थी, वहां आया। वहां आकर मित्र, ज्ञाति, निजक, विहरइ॥ स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से अभिसमन्वागत होकरं मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोगार्ह भोगों का अनुभव करता हुआ विहार करने लगा। धणस्स पव्वज्जा-पदं २०. तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं। धन का प्रव्रज्या-पद २०. उस काल और उस समय स्थविरों का आगमन हुआ। २१ घणे सत्थवाहे धम्म सोच्चा जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता पव्वइए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता, बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता, अण्णयरेसु देवलोएस देवत्ताए उववण्णे। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ मुच्चिहिइ परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणमंतं करेहिइ॥ २१. धन सार्थवाह धर्म को सुनकर, ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित कर प्रवजित हुआ। सामायिक आदि ग्यारह अंग पढ़कर बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया और मासिक संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर किसी एक देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वह महाविदेह वर्ष में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होगा तथा सब दुःखों का अन्त करेगा। निक्खेव-पदं २२. एवं खलु जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पण्णरसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। -त्ति बेमि ॥ निक्षेप-पद २२. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के पन्द्रहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। -ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा चंपा इव मणुयगई, धणोव्व भयवं जिणो दएक्करसो। अहिच्छत्ता नयरिसमं, इह निव्वाणं मुणेयव्वं ।।।। घोसणया इव तित्थंकरस्स सिवमग्गदेसणमहग्धं । चरगाइणो व्व एत्थं, सिवसुहकामा जिया बहवे।R| नंदिफलाइ व्व इहं, सिवपहपडिपण्णगाण विसया उ। तब्भक्खणाओ मरणं, जह तह विसएहि संसारो।।।। तव्वज्जणेण जह इट्टपुरगमो विसयवज्जणेण तहा। परमानंदनिबंधण-सिवपुरगमणं मुणयन्वं ।।४।। वृत्तिकार द्वारा समृद्धृत निगमन-गाथा १. चम्पा के समान मनुष्य गति है। धन सार्थवाह के समान एक मात्र दया रस से परिपूरित जिनेश्वर भगवान हैं। अहिच्छत्रा नगरी के समान निर्वाण है, ऐसा इस (उपनय) में समझना चाहिए। २. धन की घोषणा के समान, शिव-मार्ग-दर्शक महामूल्य तीर्थंकर की देशना है। चरक आदि के समान मोक्ष-सुख के अभिलाषी बहुत से जीव हैं। ३. शिव-पथ-प्रतिपन्न व्यक्तियों के लिए विषय नंदी-फलों के समान हैं। जैसे--नन्दीफलों के भक्षण से मृत्यु होती है, वैसे ही विषयों से संसार बढ़ता है। ४. जैसे नन्दीफलों के वर्जन से इष्ट नगरी में गमन हो सका, वैसे ही विषयों के वर्जन से मोक्ष-गमन हो सकता है, वह मोक्ष परमानन्द की प्राप्ति का हेतु है। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र - ६ १. चरक व्रती ( चरए ........ पासंडत्ये ) २. भगवन्तो (भगवंतो ) ******.. चरक, चीरिक आदि शब्दों के लिए द्रष्टव्य-- अणुओगदाराई सूत्र २० का टिप्पण । सूत्र- ७ टिप्पण सूत्र-१२ ३. जुतवाता है, जुतवाकर (जोएइ, जोएत्ता ) यहां भगवान शब्द का प्रयोग ऐश्वर्यशाली के लिए किया गया है। अर्थ की दृष्टि से यहां जोयावेइ जोयावेत्ता पाठ होना चाहिए। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित घटना का मुख्य स्थान अवरकंका है अत: इसका नाम अवरकंका रखा गया। ___ समय क्षेत्र (मनुष्य लोक) के मुख्य तीन विभाग हैं--जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड तथा पुष्करार्द्ध। अवरकंका राजधानी की अवस्थिति धातकीखण्ड द्वीप के भारतवर्ष में है। वहां के राजा पद्मनाभ ने नारद के मुख से द्रौपदी के सौन्दर्य का वर्णन सुना। उसमें आसक्त होकर उसने द्रौपदी का अपहरण करवा लिया। वासुदेव श्रीकृष्ण ने पद्मनाभ को पराजित कर द्रौपदी को मुक्त करवाया। __ अवरकंका ज्ञात में द्रौपदी के जीवन के दो वृत्तों का विस्तृत निरूपण हुआ है१. अतीत जीवन (सूत्र ४-११९) २. वर्तमान जीवन (सूत्र १२०-३२४) द्रौपदी के अतीत जीवन में मुख्यत: नागश्री ब्राह्मणी और श्रेष्ठी पुत्री सुकुमालिका का भव आता है। श्रेष्ठी पुत्री सुकुमालिका के भव में तपस्या और आतापना से उत्कृष्ट पुण्य का अर्जन किया। साथ ही शरीर के प्रति अति ममत्व एवं के प्रति अति ममत्व एवं बकुशवृत्ति से निदान कर आगामी भवपरम्परा का बीजारोपण भी किया। द्रौपदी के भव में उसके जन्म, स्वयंवर, अपहरण, खोज, युद्ध आदि का सविस्तर निरूपण हुआ है। पाण्डव वीर थे; पर संकल्प दृढ़ न होने के कारण विजय पद्मनाभ की हुई। वासुदेव श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को उनकी पराजय का कारण बताया और विजय का संकल्प किया-'अहं, णो पउमनाभे रायत्ति।' फलत: वे विजयी हुए। प्रस्तुत अध्ययन में अनेक घटनाओं का परिणाम सहित निरूपण हुआ हैघटना परिणाम धर्मरुचि मुनि की अहिंसात्मक दृष्टि सुगति और मोक्ष निदान और वाकुशिकता पंचपतित्व अपरीक्षणीय की परीक्षा निर्वासन इस अध्ययन में देव-आराधन विधि, समुद्र से मार्ग की याचना, कृष्ण का नृसिंह रूप, दो वासुदेवों का परोक्ष मिलन आदि अनेक घटनाओं का निरूपण हुआ है। Jain Education Intemational Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमं अज्झयणं : अध्ययन-सोलहवां अवरकंका : अवरकंका उक्खेव-पदं १. जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पण्णरसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, सोलसमस्स णं भते! नायज्झयणस्स के अटे पण्णते? उत्क्षेप पद १. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के पन्द्रहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भत! उन्होंने ज्ञाता के सोलहवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया २. एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। २. जम्बू! उस काल और उस समय, चम्पा नाम की नगरी थी। ३. तीसे णं चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए सुभूमिभागे नामं उज्जाणे होत्था॥ ३. उस चम्पा नगरी के बाहर ईशान कोण में सुभूमिभाग नाम का उद्यान था। नागसिरी-कहाणग-पदं ४. तत्थ णं चंपाए नयरीए तओ माहणा भायरो परिवसति, तं जहा--सोमे सोमदत्ते सोमभूई--अड्ढा जाव अपरिभूया रिउव्वेय-जउव्वेय-सामक्य-अथव्वणक्य जाव बंभण्णएसय सत्येसु सुपरिनिट्ठिया। नागश्री कथानक-पद ४. उस चम्पानगरी में तीन ब्राह्मण बन्धु रहते थे। जैसे--सोम, सोमदत्त, सोमभूति। वे आढ्य यावत् अपराजित थे। वे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववद यावत् ब्राह्मण संबंधी शास्त्रों में सुपरिनिष्ठित थे। ५. तेसि णं माहणाणं तओ भारियाओ होत्था, तं जहा--नागसिरी ५. उन ब्राह्मणों के तीन भार्या थी। जैसे--नागश्री, भूतश्री, यक्षश्री। वे तीनों भूयसिरी जक्खसिरी--सुकुमालपाणिपायाओ जाव तेसि णं माहणाणं सुकुमार हाथ-पांवों वाली यावत् उन ब्राह्मणों को इष्ट थीं। वे उन तीनों इट्ठाओ, तेहिं माहणेहिं सद्धिं विउले माणुस्सए कामभोए ब्राह्मणों के साथ मनुष्य सम्बन्धी विपुल कामभोगों का अनुभव करती पच्चणुभवमाणीओ विहरंति॥ हुई विहार करती थीं। नागसिरीए तित्तालाउय-उवक्खडण-पदं ६. तए णं तेसिं माहणाणं अण्णया कयाइ एगयओ समुवागयाणं जाव इमेयारूवे मिहोकहा--समुल्लावे समुप्पज्जित्था--एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं इमे विउले धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तियसंख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण-संत-सार-सावएज्जे, अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउं। तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! अण्णमण्णस्स गिहेसु कल्लाकल्लिं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडेउं परिभुजेमाणा णं विहरित्तए। अण्णमण्णस्स एयमटुं पडिसूणेति, कल्लाकल्लि अण्णमण्णस्स गिहेसु विपुलं असण-पाण-खाइमसाइमं उवक्खडावेंति, परिभुजेमाणा विहरति ।। नागश्री द्वारा तिक्त अलाबू का निष्पादन-पद ६. किसी समय एकत्र सम्मिलित उन ब्राह्मणों में परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप हुआ--देवानुप्रियो! हमारे पास यह विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, पद्मराग-मणियां सार, (सुगन्धित द्रव्यवर्ग) और स्वापतेय है, जो सात पीढ़ी तक प्रचुर मात्रा में दान करने, प्रचुर मात्रा में भोगने और प्रचुर मात्रा में बांटने में पर्याप्त है। अत: देवानुप्रियो! हमारे लिए उचित है हम प्रतिदिन एक दूसरे के घर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार कर उसका परिभोग करते हुए विहार करें। उन्होंने परस्पर इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। प्रतिदिन एक दूसरे के घर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाते तथा उसका परिभोग करते हुए विहार करते। Jain Education Intemational Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ७. तए गं तीसे नागसिरीए माहणीए अग्नया कयाइ भोयगवारए जाए यावि होत्या ।। ३०३ सोलहवां अध्ययन सूत्र ७-१२ ७. किसी दिन उस नागश्री ब्राह्मणी का भोजन बनाने का क्रम आया । ८. तए णं सा नागसिरी विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं उवक्खडे, एवं महं सालइयं तित्तालाज्यं बहुसंभारसंजुत्तं नेहावगाढं उक्क्लडेछ, एवं बिंदुयं करयांसि आसाएइ, तं खारं कटुयं अखज्जं विसभूयं जाणता एवं क्यासी धिरत्यु णं मम नागसिरीए अधन्नाए अपुण्णाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभगनिंबोलियाए, जाए णं मए सालइए तित्तालाउए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उपवखटिए सुबहुदव्वक्खए नेहक्खए य कए । तं जइ णं ममं जाउयाओ जाणिस्सति तो णं मम लिंसिस्सति । तं जाव ममं जाउपाओ न जागति ताव मम सेयं एवं सालइयं तित्तालाज्यं बहुसंभारसोभिवं नेहावगाढं एगते गोवित्तए, अण्णं सालइयं महुरालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं उवक्लडित्तए एवं सपेहेड, सपेहेत्ता सं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं एगंते गोवेइ, गोवेत्ता अण्णं सालइयं महुरालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं उवक्खडे, उक्क्खडेत्ता तेसिं माहणाणं व्हायाणं भोषणमंडवंसि सुहास वरयाणं तं विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं परिवेसेइ ।। ९. तए णं ते माहणा जिमियभुत्तुत्तरागया समाणा आयंता चोक्खा परमसुरभूया सकम्बसंपउत्ता जाया यावि होत्या ।। १०. तए णं ताओ माहणीओ व्हायाओ जाव विभूसियाओ तं विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं आहारेंति, जेणेव सयाइं गिहाई तेणेव उपागच्छति, उवागच्छित्ता सकम्मसंपउत्ताओ जायाओ ।। धम्मरइस्स तित्तालाउय दाण-पदं ११. तेगं कालेगं तेगं समएणं धम्मघोसा नाम घेरा जाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा नयरी जेणेव सुभूमिभागे उज्जाणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता अहापरूिवं ओग्यहं ओगिण्डित्ता संजमेणं तवसा अप्पा भावेमाणा विहरति । परिसा निम्गया । धम्मो कहिजो । परिसा पडिगया ।। १२. तए णं तेसिं धम्मघोसाणं घेराणं अतेवासी धम्मरुई नाम अणगारे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभचेरवासी उच्छूदसरीरे ८. नागश्री ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार किया तथा वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न एक बड़े तिक्त तुम्बे का प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह (घी - तेल ) डालकर शाक बनाया। उसकी एक बून्द को हथेली में लेकर चखा। उसे खारा, कटु, अभक्ष्य और विष तुल्य जानकर इस प्रकार मन ही मन कहा- धिक्कार है, अधन्या, अपुण्या, दुर्भगा दुर्भगसत्त्वा, दुर्भगनिम्बोलिका मुझ नागश्री को जिसने वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न एक बड़े तिक्त तुम्बे का प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह डालकर शाक बनाया। बहुत से द्रव्यों को तथा स्नेह को खोया । अतः मेरी देवरानियां यह जानेंगी तो वे मेरी कुत्सा करेंगी। इसलिए जब तक मेरी देवरानियों को पता न चले, तब तक मेरे लिए उचित है, मैं वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए इस शाक को एकान्त में छिपा दूं और वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न मधुर तुम्बे का प्रचुर मसाला डालकर और भरपूर स्नेह डालकर दूसरा शाक बनाऊं । उसने ऐसी सप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए उस शाक को एकान्त में छिपा दिया। उसे छिपाकर मधुर तुम्बे का प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर दूसरा शाक बनाया। बनाकर स्नान कर भोजन- मण्डप में प्रवर सुखासन में आसीन ब्राह्मणों को विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य परोसा । ९. वे ब्राह्मण भोजनोपरान्त आचमन कर साफ सुथरे और परम पवित्र हो अपने-अपने कार्यों में संप्रयुक्त हो गये । १०. उन तीनों ब्राह्मणियों ने स्नान कर यावत् विभूषित हो, उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को खाया और जहां अपने-अपने घर थे वहां आयीं। वहां आकर अपने-अपने कार्यों में संप्रयुक्त हो गई। धर्मरुचि को तिक्त अलाबू का दान-पद ११. उस काल और उस समय धर्मघोष नाम के स्थविर यावत् बहुत परिवार के साथ जहां चम्पा नगरी थी, जहां सुभूभिभाग उद्यान था, वहां आए। वहाँ आकर यथोचित अवग्रह - - आवास को ग्रहण कर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। जनसमूह ने निर्गमन किया। धर्म कहा। ज चला गया। १२. उस समय स्थविर धर्मघोष के अन्तेवासी धर्मरुचि नाम के अनगार मास-मासखमण तप करते हुए विहार कर रहे थे। वे उदार, घोर Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ नायाधम्मकहाओ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १२-१६ संखित्त-विउल-तेयलेस्से मासंमासेणं खममाणे विहरइ।। घोर गुण वाले, घोर-तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी, लघिमा ऋद्धि से सम्पन्न तथा विपुल तेजोलेश्या को अपने भीतर समेटे हुए थे। १३. तए णं से धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, एवं जहा गोयमसामी तहेव भायणाई ओगाहेइ, तहेव धम्मघोसं थेरं आपुच्छइ जाव चंपाए नयरीए उच्च-नीअ-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे जेणेव नागसिरीए माहणीए गिहे तेणेव अणुपवितु ॥ १३. धर्मरुचि अनगार ने मासखमण के पारणक के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया। दूसरे प्रहर में ध्यान किया। इसी प्रकार गौतम स्वामी की भांति पात्र लिए, वैसे ही धर्मघोष स्थविर से पूछा यावत् चम्पा नगरी के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों के घरों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए अटन करते हुए जहां नागश्री ब्राह्मणी का घर था वहां अनुप्रविष्ट १४. तए णं सा नागसिरी माहणी धम्मरुई एज्जमाणं पासइ, १४. नागश्री ब्राह्मणी ने धर्मरुचि अनगार को आते हुए देखा । देखकर वह पासित्ता तस्स सालइयस्स तित्तालाउयस्स बहुसंभारसंभियस्स वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के उस प्रचुर मसाले भरकर नेहावगाढस्स एडणट्ठयाए हट्ठतुट्ठा उठाए उढेइ, उढेत्ता जेणेव और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए शाक को प्रक्षिप्त करने के लिए भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं सालइयं तित्तालाउयं हृष्ट-तुष्ट हो, स्फूर्ति के साथ उठी। उठकर जहां भक्तघर था वहां बहुसंभारसंभियं नेहावगाद धम्मरुइस्स अणगारस्स पडिग्गहसि आयी। आकर वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के उस प्रचुर सव्वमेव निसिरह। मसाले भर कर और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए पूरे के पूरे शाक को धर्मरुचि अनगार के पात्र में डाल दिया। १५. तए णं से धम्मरुई अणगारे अहापज्जत्तमित्ति कटु नागसिरीए १५. मुझे जितना भोजन चाहिये उसके लिए यह पर्याप्त है--यह सोचकर माहणीए गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता चपाए नयरीए धर्मरुचि अनगार ने नागश्री ब्राह्मणी के घर से प्रतिनिष्क्रमण किया। मझमज्झेणं पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सुभूमिभागे प्रतिनिष्क्रमण कर चम्पा नगरी के बीचोंबीच होकर चम्पा नगरी के उज्जाणे जेणेव धम्मघोसा थेरा तेणेव उवागच्छइ, धम्मघोसस्स बाहर गए। बाहर जाकर जहां सुभूमिभाग उद्यान था जहां धर्मघोष (धम्मघोसाणं?) अदूरसामते अन्नपाणं पडिलेडेइ, पडिलेहेत्ता स्थविर थे, वहां आये। धर्मघोष स्थविर के न दूर न निकट स्थित होकर अन्नपाणं करयलंसि पडिसेइ ।। अन्नपान का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर अन्न-पान के पात्र को हाथ में लेकर दिखलाया। त्तित्तालाउय-परिट्ठावण-पदं १६. तए णं धम्मघोसा थेरा तस्स सालइयस्स तित्तालाउयस्स बहुसंभारसंभियस्स नेहावगाढस्स गंधेणं अभिभूया समाणा तओ सालइयाओ तित्तालाउयाओ बहुसंभारसंभियाओ नेहावगाढाओ एगं बिंदुयं गहाय करयलंसि आसाति, तित्तगं खारं कडुयं अखज्ज अभोजं विसभूयं जाणित्ता धम्मरुइं अणगारं एवं वयासी--जइ णं तुमं देवाणुप्पिया! एयं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं आहारेसि तो णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि । तं मा णं देवाणुप्पिया! इमं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं आहरेसि, मा णं तमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि । तं गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! इमं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाद एगंतमणावाए अचित्ते थंडिले परिटुवेहि, अण्णं फासुयं एसणिज्ज असण-पाणखाइम-साइमं पडिगाहेत्ता आहारं आहारेहि। तिक्त अलाबू का परिष्ठापन-पद १६. धर्मघोष स्थविर वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए उस शाक की गंध से अभिभूत हो गए। वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गये उस शाक की एक बूंद को अपनी हथेली में लेकर चखा। उसे तिक्त, खारा, कटु, अखाद्य, अभोज्य और विष तुल्य जानकर धर्मरुचि अनगार से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यदि तुम वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए इस शाक का आहार करोगे तो तुम अकाल में ही जीवन का विनाश कर दोगे। अत: देवानुप्रिय! इस वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गये इस शाक का आहार मत करो। न तुम अकाल में ही अपने जीवन का विनाश करो। ___अत: देवानुप्रिय! तुम जाओ वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३०५ १७. तए णं से धम्मरुई अणगारे धम्मघोसेणं थेरेणं एवं वृत्ते समाणे धम्मघोसस्स थेरस्स अतियाज पहिनिक्लमद्द, पडिनिक्लमित्ता सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ अदूरसामते थंडिलं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता तओ सालइयाओ तित्तालाउयाओ बहुसंभारसंभियाओ नेहावगाढाओ एवं बिंदुगं गहाय थंडिलंसि निसिरइ ।। १८. लए णं तस्स सालइयस्स तित्तालाउयस्स बहुसंभारसभियस्त वगा गंधे बहूण पिपीलिगासहस्साणि पाउन्भूयाणि । जा जहा य णं पिपीलिगा आहारेइ, सा तहा अकाले चैव जीवियाओ ववरोविज्जइ ॥ अहिंसट्टं तित्तालाउय-भक्खण-पदं १९. लए गं तस्स धम्मरुदस्स अणगारस्त इमेवारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकष्ये समुप्पज्जित्याज ताव इमस्ल सालइयस्स तित्तालाउयस्स बहुसंभारसंभियस्स एगंमि बिंदुगंमि पक्खित्तंमि अगाइं पिपीलिगासहस्साइं ववरोविज्जंति, तं जइ णं अहं एवं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं थंडिलंसि सव्वं निसिरामि तो णं बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं वहकरणं भविस्सइ । तं सेयं खलु ममेयं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसभियं नेहावगाढं सयमेव आहारितए, ममं चेव एए सरीरएणं निज्जाउ त्ति कट्टु एवं सपेहेइ सपेहेत्ता मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, ससीसोवरियं कायं पमज्जेइ, तं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसभियं नेहावगाढं बिलमिव पन्नगभूएणं अप्पाणेणं सव्वं सरीरकोट्ठगंसि पक्खिवइ ।। धम्मरुइस्स समाहिमरण-पदं २०. तए णं तस्स धम्मरुदस्स तं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसँभियं नेहावगाढं आहारियल्स समाणस्स मुहुत्तंतरेण परिणममाणसि सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला विउला कक्खडा पाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा ।। सोलहवां अध्ययन सूत्र १६-२० इस शाक का एकान्त, जनसञ्चारशून्य, अचित्त स्थण्डिल में परिष्ठापन करो और अन्य प्रासुक, एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को ग्रहण कर आहार करो। १७. स्थविर धर्मघोष के ऐसा कहने पर धर्मरुचि अनगार धर्मघोष स्थविर के पास से उठकर बाहर निकले। बाहर निकलकर सुभूमिभाग उद्यान के आसपास स्थण्डिल की प्रतिलेखना की। प्रतिलेखन कर वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के उस प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए शाक से एक बून्द लेकर स्थण्डिल में डाली। मसाले भरकर १८. वृक्ष की शाखा का पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर और भरपूर : स्नेह डालकर बनाये गए शाक की गंध से वहां हजारों चीटियां आ गई। जिस चींटी ने जैसे ही उसे खाया, वैसे ही वह अकाल में ही विनष्ट हो गई। अहिंसा के लिए तिक्त अलाबू का भक्षण-पद १९. धर्मरुचि अनगार के मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ । वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए इस शाक की एक बून्द डालते ही यदि हजारों चींटियां मरती हैं तो यदि मैं वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के इस प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह डालकर बनाये गए समूचे शाक को स्थण्डिल में डालता हूं तो मैं बहुत से प्राग, भूत, जीव और सत्चों के वध का हेतु बन जाऊंगा। अतः मेरे लिए उचित है - मैं वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मशाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए इस शाक को स्वयं ही खा लूं। इससे मेरे ही शरीर का निर्माण हो जाए ऐसी संप्रेक्षा की संपेक्षा कर मुखवस्त्र का प्रतिलेखन किया। सिर सहित पूरे शरीर का प्रमार्जन किया और वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए इस समूचे शाक को बिल में प्रवेश करते हुए सांप की भांति आत्मभाव से अपने शरीर-कोष्ठक में डाल लिया । • I धर्मरुचि का समाधि मरण-पद २०. वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न एक बड़े तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए उस शाक को खाने के मुहूर्त भर पश्चात् उसका परिणमन होने पर धर्मरुचि अनगार के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, चण्ड, दुःखद और दुःसहय वेदना प्रादुर्भूत हुई। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २१-२३ २१. तए णं से धम्मरुई अणगारे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमित्ति कट्टु आयारभंडगं एगंते ठवेइ, थंडिलं पडिलेहेइ, दब्भसंथारगं संथरेइ, दब्भसंथारगं दुरूहइ, पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसण्णे करयल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं क्यासी-नमोत्यु णं अरहंताणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्ताणं । नमोत्थु णं धम्मघोसाणं धेराणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसगाणं। पुब्विं पिणं मए धम्मघोसाणं घेराणं अंतिए सब्वे पाणादवाए पच्नक्लाए जावज्जीवाए जाव बहिद्धादाणे (पच्चक्खाए जावज्जीवाए ?), इयाणिं पिणं अहं तेसिं चैव भगवंताणं अतियं सव्यं पाणाइवायं पच्चवखामि जाव बहिद्धादाणं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। जहा स्वंदओ जाव चरिमेहिं उसासेहिं बोसिरामि ति कट्टु आलोय पडिक्कते समाहिपते कालगए। ३०६ नायाधम्मकहाओ २१. वे धर्मरुचि अनगार अशक्त, निर्बत, वीर्यहीन तथा पुरुषार्थ और पराक्रम से शून्य हो गए। इस शरीर को धारण करना अशक्य है - यह सोचकर उन्होंने आचार भण्डक-धर्मोपकरण एकान्त में रखे । स्थण्डिल की प्रतिलेखना की। डाभ का बिछौना बिछाया। डाभ I के बिछौने पर आरूढ़ हुए और पूर्वाभिमुख हो, पर्यकासन में बैठे जुड़ी हुई सिर पर प्रदक्षिणा करती हुई अलि को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा - नमस्कार हो धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त अर्हतों को । साहूहिं धम्मरुइस्स गवेसणा - पदं २२. तए णं ते धम्मघोसा घेरा धम्मरु अणगारं चिरगयं जाणित्ता समणे निग्धे सदावेति सदावेत्ता एवं व्यासी एवं खतु देवागुप्पिया! धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगति सालइयस्स तित्तालाउयस्स बहुसंभारसभियरल नेहावगाढस निसिरणडुबाए बहिया निग्गए चिरावेइ । तं गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्वओ समंता मग्गण - गवेसणं करेह ।। साहूहिं धम्मरुइस्स समाहिमरण- निवेदण-पदं २३. तए गं ते समणा निग्गंधा धम्मघोसाणं घेराणं जाव तहत्ति आणाए विणणं वपण पढिसुर्णेति, पटिसुणेत्ता धम्मघोसान घेराणं अंतियाओ परिनिक्समति, पडिनिक्स्वमित्ता धम्मरुदस्स अणगारस्स सव्वओ समंता मग्गण - गवेसणं करेमाणा जेणेव थंडिले तेणेव उपागच्छति, उवागच्छित्ता धम्मरुइल्स अणगारस्त सरीरगं निप्पाणं निच्चेट्टं जीवविप्पजढं पासंति, पासित्ता हा हा अहो! अकज्जमिति कट्टु धम्मरुइस्स अणगारस्स परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेति, धम्मरुदस्स आधारभंडगं गेष्टति गेण्हिता जेणेव धम्मघोसा घेरा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता गमागमणं पडिक्कमंति, पडिक्कमित्ता एवं वयासी--एवं खलु अम्हे तुम्भं अंतिपाओ पटिनिक्खमामो, सुभूमिभागस्स उज्जाणरस परिपेरतेणं धम्मरुइस्स अणगारस्स सव्वओ समंता मग्गण - गवेसणं करेमाणा जेणेव थंडिले तेणेव उवागच्छामो जाव इहं हव्वमागया । तं कालगए णं ते! धम्मरुई अणगारे । इमे से आयारभंडए । नमस्कार हो, मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, स्थविर धर्मघोष को पहले भी मैंने धर्मघोष स्थविर के पास जीवन पर्यन्त सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया था, यावत् जीवन पर्यन्त सर्वपरिग्रह का प्रत्याख्यान किया था। मैं इस समय भी उन्हीं भगवान के परिपार्श्व में जीवन पर्यन्त सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं यावत् जीवन पर्यन्त सर्व परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूं। स्कन्दक की भांति यावत् अन्तिम उच्छ्वास पर्यन्त शरीर का व्युत्सर्ग करता हूं--ऐसा कहकर आलोचना, प्रतिक्रमण कर, समाधि को प्राप्त हो कालगत हुए। - साधुओं द्वारा धर्मरुचि की गवेषणा-पद २२. धर्मरुचि अनगार को बाहर गए हुए बहुत समय बीत चुका है--यह जानकर धर्मघोष स्थविर ने श्रमण-निर्ग्रन्थों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा -- देवानुप्रियो ! धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणक में (प्राप्त) वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले भरकर और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए उस शाक के परिष्ठापन के लिए बाहर गए हुए बहुत समय हो गया है। अतः देवानुप्रियो ! तुम जाओ और धर्मरुचि अनगार की चारों ओर मार्गणा गवेषणा करो। | साधुओं द्वारा धर्मरुचि के समाधि-मरण का निवेदन- पद २३. उन श्रमण-निग्रन्थों ने धर्मघोष स्थविर के यावत् आज्ञा वचन को 'तथास्तु' कहकर विनयपूर्वक स्वीकार किया। स्वीकार कर धर्मघोष स्थविर के पास से उठकर बाहर गए। बाहर जाकर धर्मरुचि अनगार की चारों ओर मार्गणा - गवेषणा करते हुए वे जहां स्थण्डित था, वहां आए। वहां आकर धर्मरुचि अनगार के निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव शरीर को देखा देखकर हा अहो! अर्थ हो गया -- ऐसा कहकर धर्मरुचि अनगार का परिनिर्वाण हेतुक कायोत्सर्ग किया । धर्मरुचि के आचार- भाण्डक धर्मोपकरण लिए और जहां धर्मघोष स्थविर थे वहां आए। वहां आकर गमनागमन का प्रतिक्रमण किया । प्रतिक्रमण कर इस प्रकार कहा- भंते! हम आपके पास से उठकर बाहर गए । सुभूभिभाग उद्यान के आस-पास चारों ओर धर्मरुचि अनगार की मार्गणा - गवेषणा करते हुए हम जहां स्थण्डिल था, वहां आए यावत् शीघ्र ही यहां आए हैं। भंते! धर्मरुचि अनगार काल प्राप्त हो गए हैं। ये उनके आचार- भाण्डक - धर्मोपकरण हैं। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३०७ धम्मरुइस्स सइसभा-पदं २४. तए णं ते धम्मघोसा थेरा पुव्वगए उवओगं गच्छंति, समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु अज्जो! मम अतेवासी धम्मरुई नामं अणगारे पगइभद्दए पगइउवसते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दव-संपण्णे अल्लीणे भद्दए विणीए मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे जाव नागसिरीए माहणीए गिहं अणुपविटे । तए णं सा नागसिरी माहणी जाव तं सालइयं तित्तालाउयं बहुसंभारसंभियं नेहावगाढं धम्मरुइस्स अणगारस्स पडिग्गहंसि सव्वमेव निसिरइ। तएणं से धम्मरुई अणगारे अहापज्जत्तमिति कटु नागसिरीए माहणीए गिहाओ पडिनिक्खमइ जाव समाहिपत्ते कालगए। से णं धम्मरुई अणगारे बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता आलोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ढं जाव सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे। तत्थ णं अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता । तत्थ णं धम्मरुइस्स वि देवस्स, तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। से णं धम्मरुई देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र २४-२७ धर्मरुचि की स्मृति-सभा-पद २४. धर्मघोष स्थविर ने पूर्वगत में उपयोग लगाया। श्रमण-निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिकाओं को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--आर्यो ! मेरा अन्तेवासी धर्मरुचि नाम का अनगार प्रकृति से भद्र, प्रकृति से उपशान्त, प्रकृति से प्रतनु क्रोध, मान, माया और लोभ वाला, मृदु-मार्दव-सम्पन्न, आत्मलीन, भद्र और विनीत था। वह निरन्तर मास-मास के तप: कर्म से स्वयं को भावित करता हुआ यावत् नागश्री ब्राह्मणी के घर में प्रविष्ट हुआ। नागश्री ब्राह्मणी ने वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए उस समूचे शाक को धर्मरुचि अनगार के पात्र में डाल दिया। धर्मरुचि अनगार ने यह भोजन यथापर्याप्त है--यह सोचकर नागश्री ब्राह्मणी के घर से निष्क्रमण किया यावत् वह समाधि को प्राप्त हो, कालगत हो गया। वह धर्मरुचि अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य का पालन कर आलोचना-प्रतिक्रमण कर, समाधि को प्राप्त हो, मृत्यु के समय मृत्यु का वरणकर ऊपर यावत् सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवरूप में उपपन्न हुआ है। वहां की अजधन्य-अनुत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति बतलायी गयी है। वहां धर्मरुचि देव की स्थिति भी तेतीस सागरोपम है। वह धर्मरुचि देव आयु क्षय, स्थितिक्षय और भवक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्युत हो, महाविदेह वर्ष में सिद्ध होगा। नागसिरीए गरिहा-पदं २५. तं घिरत्यु णं अज्जो! नागसिरीए माहणीए अधन्नाए अपुण्णाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभगनिंबोलियाए, जाए णं तहारूवे साहू साहुरूवे धम्मरुई अणगारे मासक्खमणपारणगंसि सालइएणं तित्तालाउएणं बहुसंभारसंभिएणं नेहावगाढणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए। नागश्री का गर्हा-पद २५. अत: आर्यो! धिक्कार है उस अधन्या, अपुण्या, दुर्भगा, दुर्भगसत्त्वा, दुर्भग-निम्बोलिका नागश्री ब्राह्मणी को जिसने तथारूप साधुरूप साधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के पारणे में वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तुम्बे के उस प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए शाक के कारण अकाल में ही जीवन-रहित कर दिया। २६. तए णं ते समणा निग्गंथा धम्मघोसणं थेराणं अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म चंपाए सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह- महापहपहेसु बहुजणस्स एवमाइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति--धिरत्थु णं देवाणुप्पिया! नागसिरीए जाव, दूभगनिंबोलियाए, जाए णंतहारूवे साहू साहुरूवे धम्मरुई अणगारे सालइएणं तित्तालाउएणं बहुसंभारसंभिएणं नेहावगाढेणं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए। २६. धर्मघोष स्थविर के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर उन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने चम्पानगरी के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में जन-समूह के सामने इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना और प्ररूपणा की--देवानुप्रियो! धिक्कार है उस अधन्या यावत् दुर्भगनिम्बोलिका नागश्री ब्राह्मणी को जिसने तथारूप साधुरूप साधु धर्मरुचि अनगार को वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न तिक्त तुम्बे के प्रचुर मसाले और भरपूर स्नेह डालकर बनाए गए उस शाक के कारण अकाल में ही जीवन-रहित कर दिया। २७. तए णं तेसिं समणाणं अंतिए एयमहूँ सोच्चा निसम्म बहजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-- धिरत्यु णं नागसिरीए माहणीए जाव जीवियाओ ववरोविए।। २७. उन श्रमण-निर्ग्रन्थों के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर जनसमूह ने परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना और प्ररूपणा की--धिक्कार है उस नागश्री ब्राह्मणी को यावत् जिसने श्रमण-निर्ग्रन्थ को जीवन-रहित कर दिया। Jain Education Intemational Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २८-३१ ३०८ नायाधम्मकहाओ नागसिरीए गिहनिव्वासण-पदं नागश्री का गृह-निर्वासन-पद २८. तए णं ते माहणा चंपाए नयरीए बहुजणस्स अंतिए एयमढे २८. चम्पानगरी के जनसमूह से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर वे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणा ब्राह्मण क्रोध से तमतमा उठे। वे रुष्ट, कुपित, रौद्र और क्रोध से जलते जेणेव नागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हुए जहां नागश्री ब्राह्मणी थी, वहां आए। आकर नागश्री ब्राह्मणी से नागसिरिं माहणिं एवं वयासी--"हंभो नागसिरी! अपत्थियपत्थिए! इस प्रकार कहा--हभो! नागश्री! अप्रार्थित की प्रार्थिनी! दुरन्त-प्रान्त-लक्षणे दुरंतपंतलक्खणे! हीणपुण्णचाउद्दसे! (सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति- हीन-पुण्य-चतुर्दशिके! (श्री-ही-धृति और कीर्ति से शून्य?) धिक्कार परिवज्जिए?) धिरत्थु णं तव अधन्नाए अपुण्णाए दूभगाए है तुझ अधन्या, अपुण्या, दुर्भगा, दुर्भगसत्त्वा, दुर्भगनिम्बोलिका को जो दूभगसत्ताए दूभगनिंबोलियाए, जाए णं तुमे तहारूवे साहू साहुरूवे तूने तथारूप, साधुरूप साधु धर्मरुचि अनगार को मासखमण के धम्मरुई अणगारे मासखमणपारणगंसि सालइएणं तित्तालाउएणं पारणक में वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न यावत् उस शाक के कारण जाव जीवियाओ ववरोविए।" उच्चावयाहिं उक्कोसणाहिं अक्कोसंति, जीवन-रहित कर दिया। उन्होंने उसे उच्चावच आक्रोशपूर्ण शब्दों से उच्चावयाहिं उद्धसणाहिं उद्धंसेंति, उच्चावयाहिं निभंच्छणाहिं कोसा, उच्चावच तुच्छतासूचक शब्दों से तिरस्कृत किया, उच्चावच निन्भच्छेति, उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेंति, तज्जेति परुषतासूचक शब्दों से निर्भर्त्सना की। उच्चावच धमकी भरे शब्दों ताति, तज्जित्ता तालित्ता सयाओ गिहाओ निच्छुभंति ।। से धमकाया तथा उसकी तर्जना और ताड़ना की। तर्जना और ताड़ना कर उसे अपने घर से बाहर निकाल दिया। २९. तए णं सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूढा समाणी चंपाए नयरीए सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु बहुजणेणं हीलिज्जमाणी खिसिज्जमाणी निदिज्जमाणी गरहिज्जमाणी तज्जिज्जमाणी पब्वहिज्जमाणी धिक्कारिज्जमाणी थुक्कारिज्जमाणी कत्थइ ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी दंडीखंड-निवसणा खंडमल्लय-खंडघडग-हत्थगया फुट्ट-हडाहडसीसा मच्छियाचडगरेणं अन्निज्जमाणमग्गा गेहंगेहणं देहंबलियाए वित्तिं कप्पेमाणी विहरइ।। २९. उस नागश्री ब्राह्मणी ने अपने घर से निकाल दिए जाने पर चम्पानगरी के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों राजमार्गों और मार्गों में जन-समूह के द्वारा हीलित, कुत्सित, निन्दित, गर्हित, तर्जित, प्रव्यथित, धिक्कारित और थूत्कारित होती हुई न कहीं स्थान पाया और न निलय । वह सांधा हुआ जीर्ण वस्त्र-खण्ड पहने, हाथ में फूटा हुआ भिक्षापात्र और फूटा हुआ घड़ा लिए घर-घर भिक्षावृत्ति से जीवन निर्वाह करती हुई विहार करने लगी। उसके सिर के बाल अत्यन्त बिखरे हुए थे और मक्खियों का दल सदा उसका पीछा करता रहता था। नागसिरीए भवभमण-पदं ३०. तए णं तीसे नागसिरीए माहणीए तब्भवंसि चेव सोलस रोगायंका पाउब्भूया। (तं जहा-- सासे कासे जरे दाहे, जोणिसूले भगंदरे। अरिसा अजीरए दिट्ठी-मुद्धसूले अकारए। अच्छिवेयणा कण्णवेयणा कंडू दउदरे कोढे ।1) नागश्री का भव-भ्रमण-पद ३०. उस नागश्री के शरीर में इस जीवन में ही सोलह रोगातंक प्रादुर्भूत हुए-(जैसे--श्वास, कास, ज्वर, दाह, योनिशूल, भगन्दर, अर्श, अजीर्ण, दृष्टिशूल, शिरःशूल, अन्न की अरुचि, अक्षि-वेदना, कर्ण-वेदना कण्डू, जलोदर और कुष्ठ)। ३१. तए णं सा नागसिरी माहणी सोलसेहिं रोगायंकेहिं अभिभूया समाणी अट्ट-दुहट्ट-वसट्टा कालमासे कालं किच्चा छट्ठाए पुढवीए उक्कोसं बावीससागरोवमट्ठिईएसुनेरइएस नेरइयत्ताए उववण्णा। सा णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता मच्छेसु उववण्णा । तत्थ णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा अहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोसं तेत्तीस-सागरोवमट्टिईएसुनेरइएसु नेरइयत्ताए उववण्णा । साणं तओणंतरं उज्वट्टित्ता दोच्चपि मच्छेसु उववज्जइ। तत्थ वि य णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोच्चंपि अहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोसं तेत्तीससागरोवमट्ठिइएस ३१. वह नागश्री ब्राह्मणी सोलह रोगातंकों से अभिभूत हो आर्त, दु:खात और वासना से आर्त हो मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्तकर छठी पृथ्वी में, उत्कृष्ट बाईस सागरोपम स्थिति वाले नरकावासों में से किसी एक नरकावास में नैरयिक रूप में उपपन्न हुई। वह वहां से निकलकर मत्स्य रूप में उपपन्न हुई। वहां शस्त्र वध से उत्पन्न दाह की अवस्था से मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर वह अध: स्थित सातवीं पृथ्वी में, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम स्थिति वाले नरकावासों में से किसी एक नरकावास में नैरयिक के रूप में उपपन्न वहां से निकलकर दूसरी बार भी मत्स्य रूप में उपपन्न हुई। Jain Education Intemational Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३०९ नेरइएसु नेरइयत्ताए उववज्जइ। सा तओहिंतो उव्वट्टित्ता तच्चपि मच्छेसु उववण्णा। तत्थ वि य णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोच्चंपि छट्ठाए पुढवीए उक्कोसं बावीससागरोवमट्ठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववण्णा। तओणंतरं उव्वट्टिता उरगेसु, एवं जहा गोसाले तहा नेयव्वं जाव रयणप्पभाओ पुढवीओ उव्वट्टित्ता सण्णीसु उववण्णा। तओ उव्वट्टित्ता असण्णीसु उववण्णा। तत्थ वि य णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा दोच्चंपि रयणप्पभाए पुढवीए पलिओवमस्स असंखेज्जइभागट्ठिइएसु नेरइएस नेरइयत्ताए उववण्णा। तओ उव्वट्टित्ता जाई इमाइं खहयरविहाणाईजाव अदुत्तरं च खरबायरपुढविकाइयत्ताए, तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र ३१-३६ वहां शस्त्रवध से उत्पन्न दाह की अवस्था से मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर वह दूसरी बार भी अध: स्थित सातवीं पृथ्वी में, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम स्थिति वाले नरकावासों में से किसी एक नरकावास में नैरयिक के रूप में उपपन्न हुई। वह वहां से निकलकर तीसरी बार मत्स्य रूप में उपपन्न हुई। वहां भी शस्त्रवध से उत्पन्न दाह की अवस्था से मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर वह दूसरी बार भी छठी पृथ्वी में, उत्कृष्ट बाईस सागरोपम स्थिति वाले नरकावासों में से किसी एक नरकावास में नैरयिक के रूप में उपपन्न हुई। वहां से निकलकर वह उरगों में उत्पन्न हुई। इस प्रकार उसकी भव परम्परा गोशालक के समान ज्ञातव्य है यावत् वह रत्नप्रभा पृथ्वी से निकलकर संज्ञी--समनस्क पर्याय में उत्पन्न हुई। वहां से निकलकर असंज्ञी--अमनस्क पर्याय में उत्पन्न हुई। ___ वहां पर शस्त्र वध से उत्पन्न दाह की अवस्था में मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर वह दूसरी बार भी रत्नप्रभा पृथ्वी में पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी स्थिति वाले नरकावासों में से किसी एक नरकावास में नैरयिक रूप में उपपन्न हुई। वहां से निकलकर पक्षी की अनेक जातियों में यावत् खर-बादर पृथ्वीकायिक पर्याय में अनेक लाख बार उत्पन्न हुई। सूमालिया-कहाणग-पदं ३२. सा णं तओणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चंपाए नयरीए सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिसि दारियत्ताए पच्चायाया। सुकुमालिका का कथानक पद ३२. वहां से निकलकर वह इसी जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और चम्पा नगरी में सागरदत्त सार्थवाह की भार्या भद्रा की कुक्षि में बालिका के रूप में उत्पन्न हुई। ३३. तए णं सा भद्दा सत्यवाही नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारियं पयाया--सुकुमालकोमलियं गयतालुयसमाणं॥ ३३. पूरे नौ मास व्यतीत हो जाने पर उस भद्रा सार्थवाही ने एक बालिका को जन्म दिया। वह गजतालु के समान अत्यन्त सुकोमल थी। ३४. तए णं तीसे गंदारियाए निव्वत्तबारसाहियाए अम्मापियरो ३४. जब वह बालिका बारह दिन की हुई तो माता-पिता ने उसका यह इमं एयारूवं गोण्णं गुणनिष्फण्णं नामधेज्ज करेंति--जम्हा णं गुणानुरूप, गुण निष्पन्न नाम रखा--क्योंकि हमारी यह बालिका अम्हं एसा दारिया सुकुमालकोमलिया गयतालुयसमाणा, तं होउ गजतालु के समान अत्यन्त सुकोमल है अत: हमारी इस बालिका का णं अम्हं इमीसे दारियाए नामधेज्जं सुकुमालिया-सुकुमालिया। नाम सुकुमालिका हो; सुकुमालिका । ३५. तएणंतीसेदारियाए अम्मापियरो नामधेज्जं करेंत सूमालियत्ति॥ ३५. उस बालिका के माता-पिता ने उस बालिका का नाम रखा--सुकुमालिका। ३६. तए णं सा सूमालिया दारिया पंचधाईपरिग्गहिया (तं जहा--खीर- धाईए मज्जणधाईए मंडावणधाईए खेल्लावणधाईए अंकघाईए) अंकाओ अंकं साहरिज्जमाणी रम्मे मणिकोट्टिमतले गिरिकंदरमल्लीणा इव चंपगलया निवाय-निव्वाघायंसि सुहंसुहेणं परिवङ्कइ ।। ३६. वह सुकुमालिका बालिका पांच धाय माताओं (जैसे--क्षीर धात्री, मज्जन धात्री, मंडन धात्री, क्रीडन धात्री, अंक धात्री) से परिगृहीत रहती। उसे एक की गोद से दूसरे की गोद में लिया जाता। मणि-कुट्टित सुरम्य प्रांगण में क्रीड़ा कराई जाती। इस प्रकार वह निर्वात और निर्व्याघात गिरिकन्दरा में आलीन चम्पक-लता की भांति सुखपूर्वक बढ़ रही थी। Jain Education Intemational Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन सूत्र ३७-४५ सूमालियाए सागरेण सद्धिं विवाह पदं ३७. तए णं सा सूमालिया दारिया उम्मुक्कबालभावा विण्णयपरिणयमेत्ता जोब्वणगमणुपत्ता स्वेण य जोब्बणेण व लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किदुसरीरा जाया यानि होत्या ।। ३८. तत्थ णं चंपाए नयरीए जिणदत्ते नामं सत्थवाहे -- अड्ढे ।। ३९. तस्स णं जिणदत्तस्स भद्दा भारिया - सूमाला इट्ठा माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरइ ।। ४०. तस्स णं जिणदत्तस्स पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सागरए नाम दारए - सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे ।। ३१० ४१. तए णं से जिणदत्ते सत्थवाहे अण्णया कयाइ सयाओ गिहाओ पडिनिक्समइ, पडिनिक्वमित्ता सागरदत्तस्त सत्यहवाहस्स अदूरसामतेणं बीईवयइ । इमं च णं सूमालिया दारिया व्हाया बेडिया चवकवालसंपरिवुडा उप्पिं आगासतलंगसि कणग-तिंदूसएणं कीलमाणीकीलमाणी विहरड़ ।। ४२. तए गं से जिणदत्ते सत्यवाहे सूमालियं दारियं पास, पासित्ता सूमालियाए दारियाए रूवे य जोव्वणे य लावण्णे य जायविम्हए कोडुबियपुरिसे सहावे सहावेत्ता, एवं क्यासी--एस णं देवागुप्पिया! कस्स दारिया ? किं वा नामधेज्जं से? ४३. तए णं से कोटुंबियपुरिसा जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वृत्ता समाणा हट्टा करयलपरिग्गहियं सिरसावतं मत्यए अंजलिं कट्टु एवं वयासी -- एस णं देवाणुप्पिया! सागरदत्तस्स सत्यवा घूया भद्दाए भारियाए अत्तया सूमालिया नामं दारिया - सुकुमालपाणिपाया जाव रूपेण य जोम्बणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा ।। ४४. तए णं जिणवत्ते सत्यवाहे तेसिं कोडुबियाणं अंतिए एवम सोच्चा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता हाए मित्त-नाइ परिवुडे चंपाए नवरीए मजांमज्झेणं जेणेव सागरदत्तस्त गिहे तेणेव उवागए । ४५. तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे जिणदत्तं सत्यवाहं एज्जमाणं पासइ, पासिता आसणाओ अब्भुट्ठेइ अब्भुट्टेत्ता आसणेणं उवनिमंते, उवनिमंतेत्ता आसत्थं वीसत्थं सुहासणवरगयं एवं पाली -भण देवाणुप्पिया! किमागमणपओवणं? नायाधम्मकाओ सुकुमालिका का सागर के साथ विवाह पद ३६. वह सुकुमातिका बालिका शैशव को लांघकर विज्ञ और कला की पारगामी बन यौवन को प्राप्त हो, रूप, यौवन और लावण्य से उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीर वाली हुई । ३८. उस चम्पा नगरी में जिनदत्त नाम का एक आढ्य सार्थवाह था । ३९. उस जिनदत्त सार्थवाह के भद्रा नाम की भार्या थी वह सुकुमार और इष्ट थी। वह मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों का अनुभव करती हुई विहार करती थी । ४०. उस जिनदत्त का पुत्र और भद्रा भार्या का आत्मज सागर नाम का बालक था। वह सुकुमार हाथ- पावों वाला यावत् सुरूप था। ४१. किसी समय जिनदत्त सार्थवाह ने अपने घर से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर सागरदत्त सार्थवाह के घर के आसपास से होकर गया। उधर वह सुकुमालिका बालिका स्नान कर दासियों के समूह मे परिवृत हो ऊपर खुले में सोने की गेंद से क्रीड़ा करती हुई विहार कर रही थी। ४२. जिनदत्त सार्थवाह ने सुकुमालिका बालिका को देखा। देखकर उसने सुकुमालिका बालिका के रूप, यौवन और लावण्य पर अनुरक्त होकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा -- देवानुप्रियो ! यह बालिका किसकी है? इसका नाम क्या है? ४३. जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर हृष्ट-पुष्ट हुए कौटुम्बिक पुरुष दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अञ्जलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोले- देवानुप्रिय! यह सागरदत्त सार्थवाह की पुत्री भद्रा भार्या की आत्मजा सुकुमालिका नाम की बालिका है। यह सुकुमार हाथ-पावों वाली यावत् रूप, यौवन और लावण्य से उत्कृष्ट है। ४४. उन कौटुम्बिक पुरुषों से यह अर्थ सुनकर जिनदत्त सार्थवाह, जहां अपना घर था, वहां आया। वहां आकर स्नान कर मित्र, ज्ञाति से परिवृत हो, चम्पानगरी के बीचोंबीच होता हुआ, जहां सागरदत्त घर था, वहां आया। ४५. सागरदत्त सार्थवाह ने जिनदत्त सार्थवाह को आते हुए देखा देखकर वह आसन से उठा । उठकर (जिनदत्त को) आसन से उपनिमन्त्रित किया। उपनिमन्त्रित कर आश्वस्त विश्वस्त हो प्रवर सुखासन में बैठ इस प्रकार कहा- कहो देवानुप्रिय! किस प्रयोजन से आगमन हुआ? Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३११ सोलहवां अध्ययन : सूत्र ४६-५१ ४६. तए णं से जिणदत्ते सागरदत्तं एवं वयासी -- एवं खलु अहं देवाणुपिया तव धूयं भद्दाए अत्तयं सूमालियं सागरस्स भारियताए बरेमि । जइ णं जाणह देवाणुपिया जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो, ता दिज्जउ णं सूमालिया सागरदारगस्स । तणं देवाणुप्पिया! भण किं दलयामो सुकं सूमालियाए ? ४६. जिनदत्त ने सागरदत्त से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! मैं तुम्हारी पुत्री भद्रा की आत्मजा सुकुमालिका को सागर की भार्या के रूप में प्राप्त करूं । अतः देवानुप्रिय ! यदि इस (संबंध) को युक्त, पात्र, सराहनीय और समान संयोग के रूप में जानो तो बालिका सुकुमालिका को बालक सागर के लिए दे दो देवानुप्रिय कहो, हम सुकुमालिका का क्या शुल्क दें? ४७. तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे जिणदत्तं सत्यवाहं एवं वयासी -- एवं खलु देवाणुप्पिया! सूमालिया दारिया एगा एगजाया इट्ठा कंता पिया मण्णा मणामा जाव उंबरपुप्फं व दुल्लहा सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? तं नो खतु अहं इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं । तं जइ णं देवाणुप्पिया! सागरए दारए मम घरजामाउए भवइ, तो णं अहं सागरस्स सूमालियं दलयामि ।। -- ४८. तए णं से जिणदत्ते सत्यवाहे सागरदत्तेणं सत्यवाहेणं एवं वृत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेगंव उपागच्छद्द, उवागच्छिता सागरगं दारगं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी एवं खलु पुत्ता! सागरदत्ते सत्यवाहे ममं एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! सूमालिया दारिया इड्डा कंता पिया मणुष्णा मणामा जाव उंबरपुष्कं व दुलहा सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ? तं नो 'खतु अहं इच्छामि सूमालियाए दारियाए सणमवि विप्पजोगं । तं जइ णं सागरए दारए मम घरजामाउए भवइ, तो णं दलयामि ।। 11 ४९. तए गं से सागरए दारए जिणदत्तेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए । ५०. तए गं जिणदत्ते सत्यवाहे अण्णया कयाइ सोहनसि तिहि करण - नक्खत्त - मुहुत्तसि विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता मित्त नाइ-नियग-सयण-संबंधिपरियणं आमते जाव सक्कारेता सम्माणेता सागरं दारगं हायं जाव सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूहावेइ, मित्त- नाइ - नियग-सयण- संबंधि- परियणेणं सद्धिं परिवुडे सव्विङ्कीए सयाओ गिहाओ निग्गच्छ, निग्गच्छित्ता चंप नयरिं मज्झमज्झेणं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सीयाओ पच्चीरह, पच्चोरहित्ता सागरगं दारगं सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स उवणेइ ।। ५१. राए में से सागरदत्ते सत्यवाहे विपुलं असण पाण- लाइमसाइमं उक्क्खडावे, उक्क्त्रष्टावेत्ता जाव सम्माणेता सागरगं ४७. सागरदत्त सार्थवाह ने जिनदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय! यह सुकुमालिका बालिका मेरी एक ही पुत्री है। यह मेरी इकलौती पुत्री इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत है यावत् यह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ है, फिर दर्शन का तो प्रश्न ही क्या ? अतः मैं सुकुमालिका बालिका का एक क्षण भी विरह सहना नहीं चाहता । इसलिए देवानुप्रिय ! यदि सागर बालक मेरा गृह-दामाद बने तो मैं सागर को सुकुमालिका दूं । ४८. सागरदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर जिनदत्त सार्थवाह जहां अपना घर था वहां आया। वहां आकर बालक सागर को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा -- पुत्र ! सागरदत्त सार्थवाह ने मुझ से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! बालिका सुकुमालिका मुझे इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत है यावत् यह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ है फिर दर्शन का तो प्रश्न ही क्या? अतः मैं सुकुमालिका बालिका का एक क्षण भी विरह सहना नहीं चाहता। इसलिए यदि सागर बालक मेरा गृह-दामाद हो तो मैं उसे अपनी पुत्री दूं। ४९. जिनदत्त सार्थवाह के ऐसा कहने पर बालक सागर मौन रहा। ५०. किसी समय जिनदत्त सार्थवाह ने शोभन तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। तैयार कराकर मित्र, जाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों को निमंत्रित किया पावत् उनको सत्कृत, सम्मानित कर बालक सागर को नहला कर, सब अलंकारों से विभूषित किया। विभषित कर उसे हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका पर चढ़ाया। मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों के साथ उनसे परिवृत हो सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ अपने घर से निकला। निकलकर चम्पा नगरी के बीचोंबीच होते हुए जहां सागरदत्त का घर था, वहां आया। वहां आकर शिविका से उतरा। उतरकर बालक सागर को सागरदत्त सार्थवाह के पास ले गया। ५१. सागरदत्त सार्थवाह ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। तैयार करवाकर यावत् सबको सम्मानित कर कुमार सागर Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन सूत्र ५१-५९ दारगं सूमालियाए दारियाए सद्धिं पट्टयं दुरूहावेइ, दुरूहावेत्ता सेयापीएहिं कलसेहिं मज्जावेद, मज्जावेत्ता अग्गिहोमं करावेद, करावेत्ता सागरगं दारयं सूमालियाए दारियाए पाणिं गेण्हावे ।। सागरस्स पलायण-पदं ५२. तए णं सागरए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं पाणिफासं पडिसवेदेश, जे जहानामए-असिपले इ वा करपत्ते इ वा खुरपते इ वा कलंबचीरिगापत्ते इ वा सत्तिअग्गे इ वा कोंतग्गे इ वा तोमरग्गे इ वा भिंडिमालग्गे इ वा सूचिकलावए इ वा विच्छुयडंके इवा कविकच्छू इ वा इंगाले इ वा मुम्मरे इ वा अच्ची इ वा जाले इ वा अलाए इ वा सुद्धागणी इ वा भवे एयारूवे? नो इट्ठे समट्ठे । एत्तो अणिट्ठतराए चेव अकंततराए चैव अप्पियतराए के अमगुण्णतराए के अमणामतराए चैव पाणिफासं विदेश || ५३. तए णं से सागरए अकामए अवसवसे मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठइ ।। ५४. तए णं सागरदत्ते सत्यवाहे सागरस्स अम्मापियरो मित्त-नाइनियम-सवण-संबंध परियण विपुलेणं असण पाण-लाइमसाइमेणं पुण्वत्य-गंध मल्लालंकारेण य सवकारेता सम्माणेता पडिविसज्जेइ ।। - ५५. तए णं सागरए सूमालियाए सद्धिं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुमानियाए दारियाए सद्धिं ततिमंसि निजइ ॥ ५६. तए णं से सागरए दारए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडिसवेदेइ, से जहानामए - - असिपत्ते इ वा जाव एत्तो अमणामतरागं चैव अंगफासं पञ्चणुन्भवमाणे विहरह ।। ५७. तए णं से सागरए दारए सूमालियाए दारियाए अंगफासं असहमाणे अवसवसे मुहुत्तमेत्तं संचिद्वद्द ।। ३१२ ५८. तए णं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सूमालियाए दारियाए पासाओ उट्ठेइ, उट्ठेत्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणिज्जंसि निवज्जइ । । ५९. तए णं सा सूमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा समाणी पइव्वया पइमणुरत्ता पदं पासे अपस्समाणी तलिमाओ उडेइ, उद्वेला जेणेव से सयणिज्जे तेगेव उवागच्छ, उवागच्छिता सागरस्स पासे णुवज्जइ ॥ नायाधम्मकहाओ को कुमारी सुकुमालिका के साथ पट्ट पर बिठाया। बिठाकर चांदी और सोने के कलशों से मज्जन कराया। मज्जन कराकर अग्निहोम करवाया। अग्निहोम कराकर बालक सागर का कुमारी सुकुमालिका के साथ पाणिग्रहण करवाया। सागर का पलायन-पद ५२. सागर ने कुमारी सुकुमालिका के हस्त-स्पर्श का ऐसा प्रतिसंवेदन किया, जैसे--कोई असिपत्र, करपत्र, क्षुरपत्र, कलम्बचीरिकापत्र, शक्ति की नौक, भाले की नौक, तोमर की नौक, भिन्दीपाल की नौक, सूक्ष्यों का समूह, बिच्छू का डंक, कपिच्छू (खूजली पैदा करने वाली ) वनस्पति, अंगारे, मुम्मुर, अर्चि, ज्वाला, अलात अथवा शुद्ध अग्नि हो । क्या ऐसा ही स्पर्श था? नहीं, ऐसा नहीं सागर उसके हस्तस्पर्श का इससे भी अनिष्टतर अकमनीयतर, अप्रियतर, अमनोज्ञतर और अमनोगततर प्रतिसंवेदन कर रहा था। ५३. वह सागर अनचाहे ही विवशता से मुहूर्त भर वहां ठहरा। ५४. सागरदत्त सार्थवाह ने सागर के माता-पिता को तथा उनके मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबंधी और परिजनों को विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, माला और अलंकारों से सत्कृत सम्मानित कर प्रतिविसर्जित किया। ५५. सागर सुकुमालिका के साथ, जहां उसका निवास पर था, वहां आया। वहां आकर कुमारी सुकुमालिका के साथ शय्या पर सोया । ५६. कुमार सागर ने कुमारी सुकुमालिका के अंग-स्पर्श का ऐसा प्रतिसंवेदन किया, जैसे-- कोई असिपत्र हो यावत् इससे भी अमनोगततर अंग-स्पर्श का प्रतिसंवेदन करता हुआ विहार कर रहा था । ५७. वह कुमार सागर कुमारी सुकुमालिका के अंग-स्पर्श को सहन न करता हुआ, विवशता से मुहूर्त भर वहां रहा । ५८. वह कुमार सागर कुमारी सुकुमालिका को सुखपूर्वक सोयी जानकर सुकुमालिका बालिका के पास से उठा । उठकर जहां उसका अपना शयनीय था, वहां आया। वहां आकर शयनीय पर सो गया । ५९. उसके मुहूर्तभर पश्चात् कुमारी सुकुमालिका जागी। पतिव्रता, पति के प्रति अनुरक्ता, उस कुमारी सुकुमालिका ने जब पति को अप नहीं देखा, तो वह शय्या से उठी। उठकर जहां पति का शयनीय था वहां आयी। वहां आकर सागर के पास सो गई । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ नायाधम्मकहाओ ६०. तए णं से सागरदारए सूमालियाए दारियाए दोच्चंपि इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ जाव अकामए अवसवसे मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठइ।।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र ६०-६५ ६०. कुमार सागर ने दूसरी बार भी कुमारी सुकुमालिका के अंग-स्पर्श का ऐसा प्रतिसंवेदन किया यावत् वह अनचाहे ही विवशता से वहां मुहूर्त भर रहा। ६१. तए णं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सयणिज्जाओ उद्वेइ, उद्वेत्ता वासघरस्स दारं विहाडेइ, विहाडेत्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसिंपाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। ६१. कुमार सागर कुमारी सुकुमालिका को सुखपूर्वक सोयी जानकर सुकुमालिका के पास से उठा। उठकर वासघर का द्वार खोला। खोलकर वधस्थान से मुक्त कौवे की भांति जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। सूमालियाए चिंता-पदं सुकुमालिका का चिन्ता-पद ६२. तए णं सा समालिया दारिया तओ महत्तंतरस्स पडिब्रद्धा ६२. उसके मुहूर्त भर पश्चात् कुमारी सुकुमालिका जागी। पतिव्रता, पति पतिव्वया पइमणुरत्ता पई पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उद्वेइ, के प्रति अनुरक्ता उस सुकुमालिका ने जब पति को अपने पास नहीं सागरस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमाणी- देखा तो वह शय्या से उठी। कुमार सागर की चारों ओर खोजबीन करेमाणी वासघरस्स दारं विहाडियं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-- करते-करते उसने वासघर का द्वार खुला देखा। देखकर वह इस गएणं से सागरए त्ति कटु ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही प्रकार बुदबुदायी--'सागर तो चला गया।' यह कहकर वह भग्न हृदय अट्टज्झाणोवगया झियायइ।। हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबी हुई, चिन्ता मग्न हो गई। ६३. तए णं सा भद्दा सत्थवाही कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुम देवाणुप्पिए! बहूवरस्स मुहधोवणियं उवणेहि॥ ६३. उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर उस भद्रा सार्थवाही ने दास-चेटी को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये! तू जा और वधू-वर के लिए मुख धावनिका (दतौन आदि) ले जा। ६४. तए णं सा दासचेडी भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ता समाणी एयमढें तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता मुहधोवणियं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं ओहयमणसंकप्पं करतलपल्हत्थमुहिं अट्टज्माणोवगयं झियायमाणिं पासइ, पासित्ता एवं वयासी--किण्णं तुम देवाणुप्पिए! ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियाहि? ६४. उस दास-चेटी ने भद्रा सार्थवाही के ऐसा कहने पर उसके इस अर्थ को तथेति' कहकर स्वीकार किया। स्वीकार कर मुख धावनिका को लिया। लेकर जहां वासधर था, वहां आयी। वहां आकर उसने कुमारी सुकुमालिका को भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबे हुए चिन्ता मग्न देखा। देखकर उसने इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए, आत-ध्यान में डूबी हुई चिन्ता मग्न क्यों हो रही हो? ६५. तए णं सा सूमालिया दारिया तं दासचेडिं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिए! सागरए दारए ममं सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उद्वेइ, उद्वेत्ता वासघरद्वारं अवंगुणेइ, अवंगुणेत्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तए णंहं तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा पतिव्वया पइमणुरत्ता पई पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उडेमि सागरस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमाणी-करेमाणी वासघरस्स दारं विहाडियं पासामि, पासित्ता गए णं से सागरए ति कटु ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टमाणोवगया झियायामि। ६५. कुमारी सुकुमालिका ने उस दास-चेटी से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! कुमार सागर मुझे सुखपूर्वक सोयी जानकर मेरे पास से उठा। वासघर का द्वार खोला और वधस्थान से मुक्त कौवे की भांति जिस दिशा से आया था, वहां उसी दिशा में चला गया। उसके जाने के मुहूर्त भर पश्चात् मैं जागी। पतिव्रता और पति के प्रति अनुरक्ता मैं पति को अपने पास न देखकर शयनीय से उठी। कुमार सागर की चारों ओर खोज करते-करते मैंने वासघर का द्वार खुला देखा। देखकर सागर तो चला गया-यह सोचकर भान हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबी हुई चिन्ता मग्न हो रही हूं। Jain Education Intemational Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन सूत्र ६६-७१ ६६. तए गं सा दासचेही सूमालियाए दारियाए एयमहं सोच्या जेनेव सागरदत्ते सत्यवाहे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता सागरदत्तस्स एयमहं निवेदेइ ।। ३१४ नायाधम्मकहाओ ६६. वह दासचेटी कुमारी सुकुमालिका से यह अर्थ सुनकर जहां सागरदत्त सार्थवाह था, वहां आयी। वहां आकर सागरदत्त को यह अर्थ निवेदित किया। सामरदलेण जिणदत्तस्स उवालंभ पर्द ६७. तए णं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म आसुरुते रुद्धे कुविए डिक्किए मिसिमिसेमाणे जेणेव जिणदत्तस्स सत्यवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छिता जिणदत्तं सत्यवाहं एवं क्यासी - किण्णं देवाणुप्पिया! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुताणुरूवं वा कुलसरिसं वा जण्णं सागरए दारए सूमालियं दारियं अदिट्ठदोसवडियं पइव्वयं विप्पजहाय इहमागए? बहूहिं खिज्जणियाहि य टणिवाहि व उपालंभइ ।। सागरस्स पुणोगमण व्युदास-पदं ६८. तए णं से जिणदत्ते सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स एयमट्ठे सोच्चा जेणेव सागरए तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता सागरयं दारयं एवं वयासी दुट्टु णं पुत्ता! तुमे कयं सागरदत्तस्स गिहाओ इहं हव्वमागच्छतेणं । तं गच्छह णं तुमं पुत्ता! एवमवि गए सागरदत्तस्स विहे ।। - ६९. लए गं से सागरए दारए जिणदत्तं सत्यवाहं एवं क्यासी- अवियाई अहं ताओ! गिरिपडणं वा तरुपडणं वा मरुप्पवायं वा जलप्पवेसं वा जलणप्पवेसं वा विसभक्त्रणं वा सत्योवाहणं वा देहाणसं वा गिद्धपट्टं वा पव्वज्जं वा विदेसगमणं वा अब्भुवगच्छेज्जा, नो खलु अहं सागरदत्तस्स सिंहं गच्छेजा ।। सूमालियाए दमगेण सद्धिं पुणब्विवाह-पदं ७०. तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे कुडुंतरियाए सागरस्स एयम निसामेइ, निसामेत्ता लज्जिए विलीए विड्डे जिणदत्तस्स सत्यवाहस्स गिहाओ पडिनिक्खम, पडिनिक्त्रमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालियं दारियं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता अंके निवेसे, निवेसेत्ता एवं वयासी- किण्णं तव पुत्ता! सागरएणं दारएणं? अहं णं तुमं तस्स दाहामि, जस्स णं तुमं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा भविस्ससि त्ति सूमालियं दारियं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मनुष्णाहिं मणामाहिं वम्मूहिं समासासे, समासासेता पडिविसज्जे ।। ७१. तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे अण्णया उप्पिं आगासतलगंसि सुहनिसणे रायमग्गं ओलेएमाणे- ओलोएमाणे चिट्ठइ ।। सागरदत्त द्वारा जिनदत्त का उपालम्भ - पद ६७. उस दासचेटी से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर सागरदत्त सार्थवाह क्रोध से तमतमा उठा। वह रुष्ट, कुपित, रौद्र और क्रोध से जलता हुआ, जहां जिनदत्त सार्थवाह का घर था, वहां आया। वहां आकर जिनदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहादेवानुप्रिय! क्या यह युक्त, पात्र, कुल के अनुरूप और कुल के सदृश है कि कुमार सागर बिना किसी अपराध के पतिव्रता कुमारी सुकुमालिका को छोड़कर यहां आ गया? इस प्रकार बहुत लीज और अवज्ञापूर्ण शब्दों से उसे उलाहना दिया । सागर के पुनर्गमन का व्युदास-पद ६८. जिनदत्त सागरदत्त सार्थवाह से यह अर्थ सुनकर, जहां सागर था, वहां आया। वहां आकर कुमार सागर से इस प्रकार कहा - सागरदत्त के घर से शीघ्र यहां आकर तूने बहुत गलत काम किया है। खैर हुआ सो हुआ। पुत्र! तूं अब भी सागरदत्त के घर चला जा । ६९. वह कुमार सागर जिनदत्त सार्थवाह से इस प्रकार बोला -- पिताजी! मैं किसी गिरि पतन, वृक्ष-पतन, मरु-प्रपात, जल-प्रवेश, ज्वलन-प्रवेश, विष- भक्षण, शस्त्र - उत्पाटन, फांसी, गृध-पृष्ठ-मरण, प्रव्रज्या अथवा विदेश गमन को स्वीकार कर सकता हूँ, किन्तु सागरदत्त के घर नहीं जा सकता। सुकुमालिका का दमक के साथ पुनर्विवाह पद ७०. सागरदत्त सार्थवाह ने कुमार सागर के इस अर्थ को दीवार के पीछे से सुना सुनकर लज्जित, व्रीडित और विशेष लज्जित होकर जिनदत्त सार्थवाह के घर से निकला निकलकर जहां उसका अपना घर था, वहां आया। वहां आकर कुमारी सुकुमालिका को बुलाया। बुलाकर उसे अपनी गोद में बिठाया । बिठाकर इस प्रकार कहा - पुत्री ! तुझे कुमार सागर से क्या प्रयोजन ? मैं तुझे उस व्यक्ति को दूंगा, जिसे तूं इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत होगी। इस प्रकार उसने कुमारी सुकुमालिका को उन इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत वचनों से भलीभांश्वस्त किया। आश्वस्त कर प्रतिविसर्जित कर दिया । ७१. वह सागरदत्त सार्थवाह किसी समय ऊपर खुले आकाश में सुखपूर्वक बैठा हुआ राजमार्ग का अवलोकन कर रहा था। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ७२. तए णं से सागरदत्ते एगं महं दमगपुरिसं पासइ -- दंडिखंडनिवसणं खंडमल्लग - खंडघडग - हत्थगयं फुट्ट - हडाहड-सीसं मच्छियासहस्सेहिं अन्निज्जमाणमणं ।। ३१५ सोलहवां अध्ययन : सूत्र ७२-७८ ७२. सागरदत्त ने एक महान द्रमक पुरुष को देखा। वह सान्धा हुआ वस्त्र-खण्ड पहने, हाथ में फूटा हुआ भिक्षापात्र और फूटा हुआ घड़ा लिए था। सिर के बाल अत्यंत बिखरे हुए थे और मक्खियों का दल उसका पीछा कर रहा था । ७३. तए णं से सागरदते सत्यवाहे कोटुंबियरिसे सहावे सहावेत्ता एवं वयासी -- तुब्भेणं देवाणुप्पिया! एयं दमगपुरिसं विपुलेणं असण पाण- स्लाइम - साइमेणं पलोभेट, गिहं अणुप्यवेसेह अणुप्यवेत्ता खंडमल्लगं खंडघडगं च से एगते एहेह, एहेत्ता अलंकारियकम्मं करेह, हायं कयबलिकम्मं कय- कोउयमंगल - पायच्छितं सब्वालंकारविभूतियं करेह, करेत्ता मणुष्णं असण- पाण- खाइम - साइमं भोयावेह, मम अंतियं उवणेह ।। ७४. तए णं ते कोहुवियपुरिसा जाव परिसुर्णेति, पडिसुणेत्ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं दमगं असण- पाणखाइम साइमेणं उप्पलोर्भेति उवप्यतोभेत्ता स हिं अणुप्पवेसंति, अणुप्पवेसेत्ता तं खंडमल्लगं खंडघडगं च तस्स दमपुरिस एगते एति ।। ७५. तए णं से दमगे तंसि खंडमल्लगंसि खंडघडगंसि य एडिज्जाणंसि महया - महया सद्देणं आरसइ ।। ७६. तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे तस्स दमगपुरिसस्स तं महया - महया आरसियल सोच्चा निसम्म फोटुंबियपुरिसे एवं क्यासी किन्न देवाप्पिया! एस दमणपुरिसे महवा महवा सद्देणं आरसइ ? ७७. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा एवं वयंति-एस णं सामी! तसि खंडमल्लगसि खंडघडगंसि य एडिज्जमाणसि महया महया सद्देणं आरसइ ।। ७८. तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे ते कोदुबियपुरिसे एवं क्यासी मा गं तुम्मे देवाणुपिया! एयरस दमगस्स तं खंडमल्ल संघटगं च एते एडेह, पासे से ठवेह जहा अपत्तियं न भवइ । ते वि तहेव ठवेंति, ठवेत्ता तस्स दमगस्स अलंकारियकम्मं करेंति, करेत्ता सयपागसहस्सपाहिं तेल्लेहिं जन्मगति, अन्मंगिए समाणे सुरभिणा गंधट्टएणं गायं उब्वटेति, उम्वट्टेत्ता उसिणोदग-गंधोदएण पहाणेति सीओदगेणं ण्हाणेंति, पहल- सुकुमालाए गंधकासाईए गायाइं लूहेंति, लूहेत्ता हंसलक्खणं पडगसाडगं परिर्हेति, सव्वालंकारविभूसियं करेति, विपुलं असण पाणखाइम साइमं भोयावेति भोयावेता सागरदत्तस्स उवणेंति ।। ७३. सागरदत सार्थवाह ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! तुम इस दरिद्र पुरुष को विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से प्रलोभित करो, इसे घर में लाओ। लाकर इसका फूटा हुआ भिक्षापात्र तथा फूटा हुआ घड़ा एकान्त में फेंको। उसे फेंककर आलंकारिक कर्म (क्षीरकर्म) कराओ। इसे नहलाकर बलिकर्म और कौतुक, मंगल रूप प्रायश्चित कराकर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित करो। विभूषित कर मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वा खिलाओ और फिर मेरे पास लाओ। ७४. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् स्वीकार किया। स्वीकार कर, जहां वह द्रमक पुरुष था वहां आए। वहां आकर उस द्रमक को अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से प्रलोभित किया। प्रलोभित कर उसे अपने घर में लाए। घर में लाकर उस द्रमक पुरुष का फूटा हुआ) भिक्षापात्र और फूटा घड़ा एकान्त में फेंक दिया। ७५. उस फूटे हुए भिक्षापात्र और फूटे हुए घड़े को फेंकते ही दरिद्र जोर-जोर से रोने लगा। ७६. सागरदत्त सार्थवाह ने दरिद्र पुरुष के जोर-जोर से रोने के शब्द को सुनकर, अवधारण कर, कौटुम्बिक पुरुषों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! यह द्रमक पुरुष जोर-जोर से क्यों रो रहा है? ७७. वे कौटुम्बिक पुरुष इस प्रकार बोले-- स्वामिन्! उस फूटे हुए भिक्षापात्र और फूटे पड़े को फेंक देने के कारण यह जोर-जोर से रो रहा है। ७८. सागरदत्त सार्थवाह ने कौटुम्बिक पुरुषों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो! तुम इस दमक-पुरुष के फूटे हुए भिक्षापात्र और फूटे घड़े को एक ओर मत फेंको, किन्तु इसके पास रख दो, जिससे इसे अप्रतीति न हो । उन्होंने वैसे ही रख दिया। रखकर उस द्रमक के आलंकारिक कर्म करवाए। करवाकर शतपाक (सहस्रपाक) तेल से मालिश करवायी । सुगन्धित गात्रोद्वर्तन (पीठी) से शरीर का उबटन किया । उबटन कर गन्धोदक और उष्णोदक से नहलाया। फिर शीतोदक से नहलाया । एदार, सुकोमल, सुगन्धित काषाय- वस्त्र से उसका शरीर पौंछा। पौंछकर हंसलक्षण पट- शाटक पहनाए। सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। विद्युत अशन, पान, साद्य और स्वाद्य का भोजन कराया, भोजन कराकर उसे सागरदत्त के पास लाए। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र ७९-८७ ३१६ नायाधम्मकहाओ ७९. तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे सूमालियं दारियं ण्हायं जाव ७९. सागरदत्त सार्थवाह ने कुमारी सुकुमालिका को नहलाकर यावत् सब सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता तं दमगपुरिसं एवं वयासी--एस णं प्रकार के अलंकारों से विभूषित कर उस द्रमक पुरुष से इस प्रकार देवाणुप्पिया! मम धूया इट्टा कंता पिया मणुण्णा मणामा । एवं कहा--देवानुप्रिय! यह मेरी पुत्री मुझे इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और णं अहं तव भारियत्ताए दलयामि, भद्दियाए भद्दओ भवेज्जासि ।। मनोगत है। इसे मैं तेरी भार्या के रूप में प्रदान करता हूं। इस भाग्यशालिनी के योग से तूं भी भाग्यशाली बन। दमगस्स पलायण-पदं ८०. तए णं से दमगपुरिसे सागरदत्तस्स एयमटुं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता सूमालियाए दारियाए सद्धिं वासघरं अणुपविसइ, सूमालियाए दारियाए सद्धिं तलिमंसि निवज्जइ।। द्रमक का पलायन-पद ८०. उस द्रमक पुरुष ने सागरदत्त के इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार कर उसने कुमारी सुकुमालिका के साथ वासघर में प्रवेश किया और कुमारी सुकुमालिका के साथ शय्या पर सोया। ८१. तए णं से दमगपुरिसे सूमालियाए इमेयारूवं अंगफासं पडिसवेदेइ, से जहानामए--असिपत्ते इ वा जाव एत्तो अमणामतरागं चेव अंगफासं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ ।। ८१. उस द्रमक पुरुष ने सुकमालिका के अंग-स्पर्श का ऐसा प्रतिसंवेदन किया, जैसे-असिपत्र हो यावत् उसके अंग-स्पर्श का इससे भी अमनोगततर प्रतिसंवेदन करता हुआ विहार करने लगा। ८२. तए णं से दमगपुरिसे समालियाए दारियाए अंगफासं असहमाणे अवसवसे मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठइ।। ८२. वह द्रमक पुरुष सुकुमालिका के अंग-स्पर्श को सहन न करता हुआ विवशता से मुहूर्त भर वहां ठहरा। ८३. तए णं से दमगपुरिसे सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सूमालियाए दारियाए पासाओ उठेइ, उठूत्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणिजंसि निवज्जइ।। ८३. वह द्रमक पुरुष कुमारी सुकुमालिका को सुखपूर्वक सोयी हुई जानकर कुमारी सुकुमालिका के पास से उठा। उठकर जहां उसका अपना शयनीय था, वहां आया। आकर अपने शयनीय पर सो गया। ८४. तए णं सा सूमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा समाणी पइव्वया पइमणुरत्ता पइं पासे अपासमाणी तलिमाओ उढेइ, उद्देत्ता जेणेव से सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दमगपुरिसस्स पासे णुवज्जइ।। ८४. उसके मुहूर्त भर पश्चात् कुमारी सुकुमालिका जागी। पतिव्रता, पति के प्रति अनुरक्ता उस सुकुमालिका ने जब पति को अपने पास नहीं देखा तो वह शय्या से उठी। उठकर जहां पति का शयनीय था, वहां आयी। वहां आकर द्रमक पुरुष के पास सो गई। ८५. तए णं से दमगपुरिसे सूमालियाए दारियाए दोच्चंपि इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ जाव अकामए अवसवसे मुहुत्तमेतं संचिट्ठइ।। ८५. उस द्रमक पुरुष ने दूसरी बार भी कुमारी सुकुमालिका के अंग-स्पर्श का ऐसा ही प्रतिसंवेदन किया यावत् वह अनचाहे ही विवशता से वहां मुहूर्त भर ठहरा। ८६. तए णं से दमगपुरिसे सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सयणिज्जाओ अब्भुटेइ, अब्भुतॄत्ता वासघराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता खंडमल्लगं खंडघडगं च गहाय मारामुक्के विव काए जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। ८६. वह द्रमक पुरुष कुमारी सुकुमालिका को सुखपूर्वक निकलकर सोयी हुई जानकर शयनीय से उठा। उठकर वासघर से निकला, फूटा हुआ भिक्षापात्र और फूटा हुआ घड़ा लेकर वधस्थान से मुक्त कौवे की भांति जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। सूमालियाए पुणोचिंता-पदं ८७. तए णं सा सूमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा पतिव्वया पइमणुरत्ता पइं पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उढेइ, दमगपुरिसस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमाणी-करेमाणी वासघरस्स दारं विहाडियं पासइ, पासित्ता एवं वयासी--गए णं से सुकुमालिका का पुन: चिन्ता-पद ८७. मुहूर्त भर पश्चात् सुकुमालिका जागी। पतिव्रता, पति के प्रति अनुरक्ता उस सुकुमालिका ने जब पति को अपने पास नहीं देखा, तो वह शय्या से उठी। द्रमक पुरुष की चारों ओर खोज करते-करते उसने वासघर का द्वार खुला देखा। यह देखकर वह इस प्रकार Jain Education Intemational Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ दमपुरिसेत्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियायइ ।। ३१७ ८८. तए णं सा भद्दा कल्लं पाउप्पभावाए रयणीए उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी - गच्छह गं तुमं देवाणुप्पिए! बहूवरस्स मुहघोवणियं उयमेति ॥ ८९. तए गं सा दासचेडी भद्दाए सत्यवाहिए एवं वृत्ता समाणी एयम तहत्ति पडणे, पडिसुणेत्ता मुहधोवणियं गेण्हइ, हत्ता जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं ओहयमणसंकष्पं करतलपल्हत्यमुंहि अट्टज्झाणोवगयं झियायमाणि पासइ, पासित्ता एवं वयासी - किण्णं तुमं देवाणुप्पिए! ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्यमुही अट्टज्माणोवगया झियाहि ? ९०. तए णं सा सूमालिया दारिया तं दासचेडिं एवं क्यासी एवं खलु देवाणुप्पिए! दमगपुरिसे ममं सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उट्ठेइ, उट्ठेत्ता वासघरदुवारं अवंगुणेइ, अवंगुणेत्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तए हं तओ मुहुततरस्स परिबुद्धा पतिव्वया पइमणुरता पई पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उट्ठेमि, दमगपुरिसस्स सव्वओ समंता मग्गण - गवेसणं करेमाणी-करेमाणी वासघरस्स दारं विहाडियं पासामि, पासित्ता गए गं से दमगपुरिसे त्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पा करतलपाहत्यमुही अट्टज्झाणोवगया शिपायामि ॥ ९१. तए णं सा दासचेडी सूमालियाए दारियाए एयमहं सोच्चा जेणेव सागरदत्ते सत्यवाहे तेणेव उपागच्छ उवागच्छिता सागरदत्तस्त एवम निवेदेह || सूमालियाए दाणसाला पदं -- ९२. तए गं से सागरदते तहेव संभते समाणे जेणेव वासघरे तेणेव उपागच्छद्र उवागच्छिता सूमालियं दारियं अंके निवेसेह, निवेसेत्ता एवं वयासी - अहो गं तुमं पुत्ता! पुरापोराणाणं दुच्चिण्णानं दुष्परवकंताणं काणं पावाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेस पञ्चशुभवमाणी विहरसि तं मा णं तुमं पुत्ता! ओहयमणसंकल्पा 1 करतलपल्हत्यमुही अट्टज्झाणोवगया झियाहि । तुमं णं पुत्ता! मम महानसंसि विपुलं असण पाणखाइम साइमं उक्क्खडावेहि, उक्क्खडावेत्ता बहूणं समण-माहण-अतिहिकिवण वणीममाणं देयमाणी व दवावेमाणी व परिभाएमाणी विहराहि ।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र ८७-९२ बुदबुदायी - - द्रमक पुरुष तो चला गया यह कहकर वह भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में दूबी हुई चिन्ता मान हो गई। ८८. उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर भद्रा सार्थवाही ने दासचेटी को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रिये ! रा जा और वधू-वर के लिए मुख धावनिका ले जा । ८९. उस दासचेटी ने भद्रा सार्ववाही के ऐसा कहने पर उसके इस अर्थ को ‘तथेति' कहकर स्वीकार किया। स्वीकार कर मुख धावनिका ली। लेकर जहां वासघर था, वहां आयी। वहां आकर उसने कुमारी सुकुमालिका को भान हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डूबी हुई देखा । यह देखकर वह इस प्रकार बोली- - देवानुप्रिये ! तुम भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न क्यों हो रही हो ? । ९०. कुमारी सुकुमालिका ने उस दासचेटी से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिये! इस प्रकार द्रमक पुरुष मुझे सुखपूर्वक सोयी जानकर मेरे पास से उठा। उठकर वासघर का द्वार खोला खोलकर वधस्थान से मुक्त कौवे की भांति, जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। उसके जाने के मुहूर्त भर पश्चात् मैं जागी पतिव्रता और पति के प्रति 'अनुरक्ता मैं पति को अपने पास न देखकर शयनीय से उठी । द्रमक पुरुष की चारों ओर खोज करते-करते मैंने वासघर का द्वार खुला देखा। देखकर -- 'द्रमक पुरुष तो चला गया' - यह सोचकर भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त ध्यान में दूबी हुई चिन्ता मान हो रही हूं । -- ९१. वह दासचेटी कुमारी सुकुमालिका से यह अर्थ सुनकर जहां सागर सार्थवाह था, वहां आयी। वहां आकर सागरदत्त को यह अर्थ निवेदित किया । सुकुमालिका का दानशाला पद ९२. वह सागरदत्त वैसे ही संभ्रान्त हो जहां वासघर था, वहां आया। वहां आकर कुमारी सुकुमालिका को गोद में बिठाया। उसे गोद में बिठाकर इस प्रकार कहा - पुत्री ! तू पूर्वकृत, पुरातन, दुश्चीर्ण, दुष्पराक्रान्त, स्वकृत पापकर्मों का पापकारी विशेष फल भोगती हुई विहार कर रही हो । अतः पुत्री ! तू भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामान मत बन । पुत्री ! तू मेरी पाकशाला में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वा तैयार करवा । तैयार करवाकर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण और वनीपकों को दान देती हुई दिलाती हुई और सबको बांटती हुई विहार कर । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र ९३-९७ ३१८ नायाधम्मकहाओ ९३. तए णं सा सूमालिया दारिया एयमढे पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता ९३. कुमारी सुकुमालिका ने पिता के इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार (कल्लाकल्लि?) महाणसंसि विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं कर वह (प्रतिदिन?) पाकशाला में विपुल अशन, पान, खाद्य और उवक्खडाकेइ, उवक्खडाक्ता बहूणं समण-माहण-अतिहि-किवण- स्वाद्य तैयार करवाती। तैयार करवा कर बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, वणीमगाणं देयमाणी य दवावेमाणी य परिभाएमाणी विहरइ।। अतिथि, कृपण और वनीपकों को दान देती हुई, दिलाती हुई, सबको बांटती हुई विहार करने लगी। अज्जा-संघाडगस्स भिक्खायरियागमण-पदं आर्या संघाटक का भिक्षाचर्या के लिए आगमन-पद ९४. तेणं कालेणं तेणं समएणं गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्सुयाओ ९४. उस काल और उस समय गोपालिका आर्या, जो बहुश्रुत और बहु बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुब्विं चरमाणीओ जेणेव चंपा नयरी तेणेव परिवार वाली थी, क्रमश: विचरण करती हुई, जहां चम्पा नगरी थी, उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हति, वहां आयी। वहां आकर यथोचित अवग्रह--आवास को ग्रहण किया। ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणीओ विहरति ।। ग्रहण कर संयम और तप से स्वयं को भावित करती हुर्ह विहार करने लगी। ९५. तए णं तासिं गोवालियाणं अज्जाणं एगे संघाडए जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोवालियाओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--इच्छामो णं तुम्भेहिं अब्भणण्णाए चंपाए नयरीए उच्चनीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेहि ।। ९५. गोपालिका आर्या का सहवर्ती एक संघाटक आर्या गोपालिका के पास आया। आकर आर्या गोपालिका को वंदना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार कहा--हम आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर चम्पा नगरी के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों के घरों में सामुदानिक भिक्षाचर्या के लिए अटन करना चाहती हैं। जैसा सुख हो देवानुप्रियाओ! प्रतिबन्ध मत करो। ९६. तए णं ताओ अज्जाओ गोवालियाहिं अज्जाहिं अब्भणुण्णाया ९६. आर्या गोपालिका से अनुज्ञा प्राप्त कर वे साध्वियां भिक्षाचर्या के लिए समाणीओ भिक्खायरियं अडमाणीओ सागरदत्तस्स गिहं अटन करती हुई, सागरदत्त के घर में प्रविष्ट हुई। अणुप्पविट्ठाओ। सूमालियाए सागरपसायोवाय-पुच्छा-पदं ९७. तए णं सूमालिया ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठा आसणाओ अब्भुढेइ, वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेइ, पडिलाभेत्ता एवं वयासी--एवं खलु अज्जाओ! अहं सागरस्स अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा। नेच्छइ णं सागरए दारए मम नाम गोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? जस्स-जस्स वि य णं देज्जामि तस्स-तस्स वि य णं अणिट्ठा अर्कता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा भवामि । तुब्भेयणं अज्जाओ! बहुनायाओ बहुसिक्खियाओ बहुपढियाओ बहूणि गामागर-णगर-खेड-कब्बड-दोणमुह-मडब-पट्टणआसम-निगम-संबाह-सण्णिक्साई आहिंडह, बहूणं राईसर-तलवरमाडंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ- सत्यवाहपभिईणं गिहाई अणुपविसह । तं अत्थियाइं भे अज्जाओ! केइ कहिंचि चुण्णजोए वा मंतजोगे वा कम्मणजोए वा कम्मजोए वा हियउड्डावणे वा काउड्डावणे वा आभिओगिए वा वसीकरणे वा कोउयकम्मे वा भूइकम्मे वा मूले वा कदे वा छल्ली वल्ली सिलिया वा सुकुमालिका द्वारा सागर की प्रसन्नता का उपाय पृच्छा-पद ९७. सुकुमालिका ने उन आर्याओं को आते हुए देखा। उन्हें देखकर हृष्ट तुष्ट हो आसन से उठी। वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से उन्हें प्रतिलाभित किया। प्रतिलाभित कर वह इस प्रकार बोली--आर्याओ! इस प्रकार मैं सागर को अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत हो गई हूं। कुमार सागर मेरा नाम गोत्र भी सुनना नहीं चाहता, फिर दर्शन और परिभोग की तो बात ही कहां है? जिस-जिस को भी मैं दी जाती हूं, उस-उस को मैं अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत हो जाती हूं। आर्याओ! तुम बहुत जानकार हो। बहुत शिक्षित हो, बहुत पढ़ी लिखी हो और अनेक गांव, आकर, नगर, खेट, कर्बट द्रोणमुख, मडम्ब, पत्तन, आश्रम, निगम, संबाह और सन्निवेशों में घूमती हो। बहुत-से राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी , सेनापति, सार्थवाह आदि के घरों में प्रवेश करती हो, तो आर्याओ! कहीं कोई चूर्ण-योग, मंत्र-योग, कार्मण-योग (टोना) कर्म-योग, हृदयाकर्षण, शरीराकर्षण, पराभिभवन, वशीकरण, कौतुककर्म, भूतिकर्म, मूल, कन्द, जिस Jain Education Intemational Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३१९ गुलिया वा ओसहे वा भेसज्जे वा उवलद्धपव्वे, जेणं अहं सागरस्स दारगस्स इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा भवेज्जामि? सोलहवां अध्ययन : सूत्र ९७-१०४ छल्ली, वल्ली, शिलिका, गुटिका, औषध अथवा भेषज्य उपलब्ध हुआ है, जिससे मैं कुमार सागर को इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत बन सकू? अज्जा-संघाडगस्स उत्तर-पदं आर्या संघाटक का उत्तर-पद ९८. तए णं ताओ अज्जाओ सूमालियाए एवं वुत्ताओ समाणीओ ९८. सुकुमालिका से यह अर्थ सुन उन आर्याओं ने दोनों कान बंद कर दोवि कण्णे ठएंति, ठएत्ता सूमालियं एवं वयासी--अम्हे णं लिए। दोनों कान बंद कर वे सुकुमालिका से इस प्रकार बोली-- देवाणुप्पिए! समणीओ निग्गंथीओ जाव गुत्तबंभचारिणीओ नो देवानुप्रिय! हम श्रमणियां, निर्ग्रन्थिकाएं यावत् गुप्तब्रह्मचारिणियां हैं। खलु कप्पइ अम्हं एयप्पगारं कण्णेहिं वि निसामित्तए, किमंग पुण हमें इस प्रकार का शब्द सुनना भी नहीं कल्पता, फिर उपदेश और उवदंसित्तए वा आयरित्तए वा अम्हे णं तव देवाणुप्पिए! विचित्तं आचरण का तो प्रश्न ही कहां है? केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहिज्जामो।। देवानुप्रिये! हम तो तुझे विचित्र केवलीप्रज्ञप्त धर्म सुनाती हैं। सूमालियाए साविया-पदं ९९. तए णं सा सूमालिया ताओ अज्जाओ एवं वयासी--इच्छामि णं अज्जाओ! तुब्भं अंतिए केवलिपण्णत्तं धम्म निसामित्तए।। सुकुमालिका का श्राविका-पद ९९. सुकुमालिका ने उन आर्याओं से इस प्रकार कहा--आर्याओ! मैं तुमसे केवलीप्रज्ञप्त धर्म सुनना चाहती हूं। १००, तए णं ताओ अज्जाओ सूमालियाए विचित्तं केवलिपण्णत्तं १००. उन आर्याओं ने सुकुमालिका को विचित्र केवलीप्रज्ञप्त धर्म का उपदेश धम्म परिकहेंति ॥ दिया। १०१. तए णं सा सूमालिया धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठा एवं वयासी--सद्दहामि णं अज्जाओ! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुन्भे वयह। इच्छामि णं अहं तुभं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं--दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिए! १०१ धर्म को सुनकर, अवधारण कर हर्षित हुई सुकुमालिका ने इस प्रकार कहा--आर्याओ! मै--निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूं, यावत् वह वैसा ही है जैसा तुम कह रही हो। मैं तुम्हारे पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृहीधर्म स्वीकार करना चाहती हूं। जैसा सुख हो देवानुप्रिये! १०२. तए णं सा सूमालिया तासिं अज्जाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव गिहिधम्म पडिवज्जइ, ताओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वदित्ता नमंसित्ता पडिविसज्जेइ॥ १०२. सुकुमालिका ने उन आर्याओं के पास पांच अणुव्रत यावत् गृही धर्म को स्वीकार किया। उन आर्याओं को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर उन्हें प्रतिविसर्जित किया। १०३. तए णं सा सूमालिया समणोवासिया जाया जाव समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं पडिलाभेमाणी विहरइ।। १०३. सुकुमालिका श्रमणोपासिका बन गई। यावत् वह श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक, एषणीय, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोज्छन, औषध, भेषज्य तथा प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक से प्रतिलाभित करती हुई विहार करने लगी। सूमालियाए पव्वज्जा-पदं १०४. तए णं तीसे सूमालियाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तका लसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु अहं सागरस्स पुव्विं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा आसि, इयाणिं अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा। नेच्छइ णं सागरए मम नामगोयमवि सवणयाए, किं पुण दंसणं वा परिभोगं वा? सुकुमालिका का प्रव्रज्या-पद १०४. किसी समय कुटुम्ब जागरिका करते हुए सुकुमालिका के मन में मध्यरात्रि के समय इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--मैं सागर को पहले इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत थी। अब अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय अमनोज्ञ और अमनोगत हो गई हूं। सागर मेरा नाम गोत्र भी सुनना नहीं चाहता, दर्शन और परिभोग की तो बात ही कहां? जिस-जिस Jain Education Intemational Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १०४-१०९ ३२० जस्स-जस्स वि य णं देज्जामि तस्स-तस्स वि य णं अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा भवामि । तं सेयं खलु मम गोवालियाणं अज्जाणं अंतिए पव्वइत्तए--एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मए गोवालियाणं अज्जाणं अंतिए धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए। तं इच्छामि गं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया पव्वइत्तए जाव गोवलियाणं अज्जाणं अंतिए पब्वइया ।। नायाधम्मकहाओ को भी मैं दी जाती हूं उस-उस को भी अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोगत हो जाती हूं। अत: मेरे लिए उचित है मैं आर्या गोपालिका के पास प्रवजित बनूं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर जहां सागरदत्त था वहां आई। वहां आकर सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! मैंने आर्या गोपालिका से धर्म सुना है और वही धर्म मुझे इष्ट, ग्राह्य और रुचिकर है। अत: मैं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर प्रव्रजित होना चाहती हूं। यावत् वह आर्या गोपालिका के पास प्रव्रजित हो गई। १०५. तए णं सा सूमालिया अज्जा जाया-इरियासमिया जाव गुत्तबंभयारिणी बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ।। १०५. वह सुकुमालिका साध्वी बन गई। वह ईर्या-समिति से समित यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी थी। वह बहुत से चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त, अष्टम-भक्त, दशम-भक्त, द्वादश-भक्त तथा मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को भावित करती हुई विहार करने लगी। सूमालियाए आतावणा-पदं सुकुमालिका का आतापना-पद १०६. तए णं सा सूमालिया अज्जा अण्णया कयाइ जेणेव गोवालियाओ १०६. किसी समय आर्या सुकुमालिका, जहां आर्या गोपालिका थी वहां अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता आयी। वहां आकर वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं अज्जाओ! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाया कर इस प्रकार बोली--आर्ये । मैं चाहती हूं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर, समाणी चंपाए नयरीए बाहिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामते चम्पानगरी के बाहर सुभूमिभाग उद्यान के परिपार्श्व में निरन्तर छटुंछटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमही आयावेमाणी बेले-बेले की तपस्या के साथ सूर्याभिमुख हो, आतापना लेती हुई विहार विहरित्तए॥ करूं। १०७. तए णं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं एवं वयासी--अम्हे णं अज्जो! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभचारिणीओ।नो खलु कप्पइ बहिया गामस्स वा जाव सण्णिवेसस्स वा छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमुहीणं आयावेमाणीण विहरित्तए। कप्पइ णं अम्हं अंतोउवस्सयस्स वइपरिक्खत्तस्स संघाडिबद्धियाए णं समतलपइयाए आयावेत्तए।। १०७. आर्या गोपालिका ने आर्या सुकुमालिका से इस प्रकार कहा--आर्य! हम ईर्या-समिति से समित यावत् गुप्तब्रह्मचारिणी श्रमणियां, निर्ग्रन्थिकाएं हैं। हमें ग्राम यावत् सन्निवेश के बाहर, निरन्तर बेले-बेले की तपस्या के साथ सूर्याभिमुख हो आतापना लेते हुए विहार करना कल्पता नहीं है। हमें बाड़ से घिरे हुए उपाश्रय के भीतर संघाटी बांधकर समतलभूमि में आतापना लेना कल्पता है। १०८. तए णं सा सूमालिया गोवालियाए एयमद्वं नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, एयमढे असद्दहमाणी अपत्तियमाणी अरोयमाणी सुभूमिभागस्स उज्जास्स अदूरसामंते छटुंछटेण अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सुराभिमुही आयावेमाणी विहरइ। १०८. सुकुमालिका ने गोपालिका के इस अर्थ पर न श्रद्धा की, न प्रतीति की और न रुचि की। वह इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि न करती हुई सुभूमिभाग उद्यान के परिपार्श्व में निरन्तर बेले-बेले की तपस्या के साथ सुर्याभिमुख हो आतापना लेती हुई विहार करने लगी। सूमालियाए नियाण-पदं सुकुमालिका का निदान-पद १०९. तत्थ णं चंपाए ललिया नाम गोट्ठी परिवसइ--नरवइ-दिन्न- १०९. उस चम्पानगरी में एक 'ललिता' नाम की गोष्ठी (मित्र-मण्डली) का पयारा अम्मापिइनियग-निप्पिवासा वेसविहार-कय-निकेया निवास था। वह राजा द्वारा अनुज्ञात, स्वैराचार वाली, माता-पिता और नाणाविह-अविणयप्पहाणा अड्डा जाव बहुजणस्स अपिरभूया ॥ आत्मीय जनों से निरपेक्ष, वेश्याओं के घर निवास करने वाली, नाना प्रकार से अविनय प्रधान, आढ्य यावत् बहुत जनों द्वारा अपराजित थी। Jain Education Intemational Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३२१ सोलहवां अध्ययन : सूत्र ११०-११५ ११०. तत्थ णं चंपाए देवदत्ता नामं गणिया होत्था--सूमाला जहा ११०. उस चम्पानगरी में देवदत्ता नाम की गणिका थी। वह सुकुमार थी। अंड-नाए। उसका वर्णन अण्ड-ज्ञात (ज्ञाता-अध्ययन तीन) की भांति ज्ञातव्य है। १११. तए णं तीसे ललियाए गोट्ठीए अण्णया कयाइ पंच गोट्ठिल्लगपुरिसा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पच्चणुब्भवमाणा विहरति ।। १११. किसी समय उस ललिता गोष्ठी के पांच गोष्ठिल-पुरुष (सदस्य) देवदत्ता गणिका के साथ सुभूमिभाग उद्यान की उद्यान-श्री का अनुभव करते हुए विहार कर रहे थे। ११२. तत्थ णं एगे गोट्ठिल्लगपुरिसे देवदत्तं गणियं उच्छंगे घरेइ, एगे पिट्ठओ आयवत्तं घरेइ, एगे पुप्फपूरगं रएइ, एगे पाए रएइ, एगे चामरुक्खेवं करेइ।। ११२. वहां एक गोष्ठिलपुरुष ने देवदत्ता गणिका को गोद में लिया। एक ने पीछे स्थित हो छत्र धारण किया। एक ने पुष्प-शेखर की रचना की। एक ने उसके पावों पर अलक्तक (महावर) की रचना की और एक ने चंवर डुलाया। ११३. तए णं सा सूमालिया अज्जा देवदत्तं गणियं तेहिं पंचहिं गोहिल्लपुरिसेहिं सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणिं पासइ, पासित्ता इमेयारूवे संकप्पे समुप्पज्जित्था--अहो णं इमा इत्थिया पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं कडाणं कल्लाणाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणी विहरइ। तं जइणं केइ इमस्स सुचरियस्स तव-नियम-बंभचेरवासस्स कल्लाणे फलवित्तिविसेसे अत्थि, तो णं अहमवि आगमिस्सेणं भवग्गहणेणं इमेयारूवाई उरालाईमाणुस्सगाईभोगभोगाइं मुंजमाणी विहरिज्जामि त्ति कटु नियाणं करेइ, करेत्ता आयावणभूमीओ पच्चोरुभइ।। ११३. सुकुमालिका आर्या ने देवदत्ता गणिका को उन पांच गोष्ठिल पुरुषों के साथ प्रधान मनुष्य सम्बन्धी भोगार्ह भोगों को भोगते हुए देखा। देखकर उसके मन में इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुआ--अहो! यह स्त्री पूर्वकृत, पुरातन, सुचीर्ण, सुपराक्रान्त, कल्याणकारी कर्मो के कल्याणकारी फलविशेष का अनुभव करती हुई विहार करती है। अत: यदि इस सुचरित तप, नियम और ब्रह्मचर्य का कोई कल्याणकारी फलविशेष है तो मैं भी भावी जीवन में इसी प्रकार के प्रधान मनुष्य सम्बन्धी भोगार्ह भोगों को भोगती हुई विहार करूं। उसने ऐसा निदान किया। निदान कर आतापना भूमि से चली गई। सूमालियाए बाउसियत्त-पदं ११४. तए णं सा सूमालिया अज्जा सरीरबाउसिया जाया यावि होत्था--अभिक्खणं-अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, पाए धोवेइ, सीसं घोवेइ, मुहं धोवेइ, थणंतराइंधोवेइ, कक्खंतराइं धोवेइ, गुज्झंतराई धोवेइ, जत्थ णं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, तत्थ वि यणं पुष्वामेव उदएणं अन्भुक्खेत्ता तओ पच्छा ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ॥ सुकुमालिका का बकुशता-पद ११४. वह सुकुमालिका आर्या शरीरबकुशा हो गई--वह बार-बार हाथ धोती, पांव धोती, सिर धोती, मुंह धोती, स्तनान्तर धोती, कक्षान्तर धोती, गुह्यान्तर धोती और जहां जहां भी स्थान, शय्या अथवा निषद्या करती उस भूमि को पहले ही पानी से धोकर उसके पश्चात् वहां स्थान, शय्या और निषद्या करती। ११५. तए णं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं एवं वयासी--एवं खलु अज्जे! अम्हे समणीओ निग्गंधीओ इरियासमियाओ जाव बंभचेरधारिणीओ।नो खलु कप्पइ अम्हं सरीरबाउसियाए होत्तए। तुमं च णं अज्जे सरीरबाउसिया अभिक्खणं-अभिक्खणं हत्थे धोवेसि, पाए धोवेसि, सीसं घोवेसि, मुहं धोवेसि, पणंतराइं धोवेसि, कक्खंतराइं धोवेसि, गुमंतराई घोवेसि, जत्थ णं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएसि, तत्थ वि य णं पुवामेव उदएणं अब्भुक्खेत्ता तओ पच्छा ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएसि । तं तमं णं देवाणुप्पिए! एयस्स ठाणस्स आलोएहि निंदाहि गरिहाहि पडिक्कमाहि विउट्टाहि विसोहेहि अकरणयाए अन्भुढेहि, अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जाहि॥ ११५. आर्या गोपालिका ने सुकुमालिका आर्या से इस प्रकार कहा--आर्ये! हम श्रमणियां, निर्ग्रन्थिकाएं, ईर्या समिति से समित यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणियां हैं। हमें शरीरबकुश होना नहीं कल्पता और आर्ये! तुम शरीर-बकुशा होकर बार-बार हाथ धोती हो, पांव धोती हो, सिर धोती हो, मुंह धोती हो, स्तनान्तर धोती हो, कक्षान्तर धोती हो, गुह्यान्तर धोती हो और जहां-जहां भी स्थान, शय्या अथवा निषद्या करती हो उस भूमि को पहले ही पानी से धोकर उसके पश्चात् वहां स्थान, शय्या और निषद्या करती हो। देवानुप्रिये! तुम इस स्थान की आलोचना करो। निन्दा करो, गर्दा करो, प्रतिक्रमण करो, विवर्तन (निवृत्त होने का संकल्प) करो, विशोधन करो, भविष्य में ऐसा प्रमाद न करने के लिए अभ्युत्थान करो और यथायोग्य तप:कर्म रूप, प्रायश्चित्त स्वीकार करो। Jain Education Intemational Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र ११६-११९ ३२२ नायाधम्मकहाओ ११६. तए णं सा सूमालिया गोवालियाणं अज्जाणं एयमद्वं नो आढाइ ११६. सुकुमालिका ने आर्या गोपालिका के इस अर्थ को न आदर दिया और नो परियाणाइ, अणाढायमाणी अपरियाणमाणी विहरइ।। न उसकी बात पर ध्यान दिया। वह उसे आदर न देती हुई, उसकी बात पर ध्यान न देती हुई विहार करने लगी। ११७. तए णंताओ अज्जाओ सूमालियं अज्जं अभिक्खणं-अभिक्खणं ११७. वे आर्याएं आर्या सुकुमालिका की बार-बार अवहेलना करती, निन्दा होलेति निर्देति खिसेति गरिहति परिभवंति, अभिक्खणं-अभिक्खणं करती, कुत्सा करती, गर्दा करती, पराभव करती और बार-बार इस एयमद्वं निवारेंति॥ प्रमाद से रोकतीं। सूमालियाए पुढोविहार-पदं सुकुमालिका का पृथक विहार पद ११८. तए णं तीसे सूमालियाए समणीहिं निग्गंथीहिं हीलिज्जमाणीए ११८. उन श्रमणी निर्ग्रन्थिकाओं द्वारा बार-बार अवहेलना, निन्दा, निदिज्ज्माणीए खिसिज्जमाणीए गरिहिज्जमाणीए परिभविज्जमाणीए कुत्सा, गर्दा तथा पराभव करने और बार-बार उस प्रमाद से रोके अभिक्खणं-अभिक्खणं एयमटुं निवारिज्जमाणीए इमेयारूवे जाने पर उस सुकुमालिका के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, अझथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--जया चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--जब मैं अगार णं अहं अगारमझे वसामि, तया णं अहं अप्पवसा । जया णं अहं वास में थी, तब मैं स्वतंत्र थी। जब मैं मुण्ड हो प्रवजित हो गई, मुंडा भवित्ता पव्वइया, तया णं अहं परवसा । पुव्विं च णं मम तब मैं परतन्त्र हो गई। पहले ये श्रमणियां मुझे आदर देती थी, समणीओ आढति परिजाणति, इयाणिंनो आति नो परिजाणंति । मेरी ओर ध्यान देती थीं। अब वे न मुझे आदर देती है और न तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे मेरी ओर ध्यान देती हैं। अत: मेरे लिए उचित है मैं उषाकाल सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे.तेयसा जलते गोवालियाणं अज्जाणं में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान अंतियाओ पडिनिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर गोपालिका आर्या के पास से विहरित्तए त्ति कटु एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए प्रतिनिष्क्रमण कर पृथक उपाश्रय को स्वीकार कर विहार करूं--उसने रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर यावत् गोवालियाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ पाडिएक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ।। जाने पर उसने गोपालिका आर्या के पास से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर पृथक उपाश्रय को स्वीकार कर विहार करने लगी। ११९. तए णं सा सूमालिया अज्जा अणोहट्टिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं-अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, पाए धोवेइ, सीसं धोवेइ, मुहं धोबेइ, थणंतराई घोवेइ, कक्खंतराइं धोवेइ, गुज्झंतराई धोवेइ, जत्थ णं ठाणं वा सेज्जंवा निसीहियं वा चेएइ, तत्थ वि यणं पुव्वामेव उदएणं अन्भुक्खेत्ता तओ पच्छा ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा चेएइ। तत्थ वि यणं पासत्था पासस्थविहारिणी ओसन्ना ओसन्नविहारिणी कुसीला कुसीलविहारिणी संसत्ता संसत्तविहारिणी बहूणि वासाणि सामण्णपरियागंपाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता, तीसं भत्ताइं अणसणाए छेएत्ता, तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे अण्णयरंसि विमाणसि देवगणियत्ताए उववण्णा। तत्थेगइयाणं देवीणं नवपलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं सूमालियाए देवीए नवपलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता।। ११९. वह सुकुमालिका आर्या बिना किसी रोक-टोक के स्वतंत्रता पूर्वक बार-बार हाथ धोती, पांव धोती, सिर धोती, मुंह धोती, स्तनान्तर धोती, कक्षान्तर धोती, गुह्यान्तर धोती और जहां-जहां भी स्थान, शय्या अथवा निषद्या करती उस भूमि को पहले ही पानी से धोकर उसके पश्चात् वहां स्थान, शय्या और निषद्या करती। वहां भी उसने पार्श्वस्था, पार्श्वस्थ-विहारिणी, अवसन्ना, अवसन्ना-विहारिणी, कुशीला, कुशील-विहारिणी, संसक्ता और संस्कत-विहारिणी होकर बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया। पालन कर पाक्षिक संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर अनशन काल में तीस भक्तों का परित्याग कर, उस प्रमाद स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना, मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर, ईशान कल्प के किसी विमान में देवगणिका के रूप में उपपन्न हुई। वहां कुछ देवियों की स्थिति नौ पल्योपम बतलायी गई है। वहां सुकुमालिका देवी की स्थिति भी नौ पल्योपम थी। Jain Education Intemational Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ दोवर्ड कहाणग-पदं १२०. तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पंचाले जणवसु कंपिल्तपुरे नाम नपरे होत्या वण्णओ ।। १२१. तत्थ णं दुवए नामं राया होत्था-वण्णओ ।। १२२. तस्स णं चुलणी देवी । धद्वज्जुणे कुमारे जुवराया ।। १२३. तए णं सा सूमालिया देवी ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिक्लएणं भवक्त्रएणं अनंतरं चयं चत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारडे वासे पंचालेसु जणवएस कंपिल्लपुरे नयरे दुक्यस्त रण्णो चुतणीए देवीए कुच्छिसि दारिवत्ताए पच्चायाया ।। १२४. तए णं सा चुतणी देवी नवहं मासाणं बहुपडिपुण्गाणं अद्रुमाण व राइदियाणं बीइक्कंताणं सुकुमाल पाणिपाय जाव दारियं पयाया ।। ३२३ - १२५. तए गं तीसे दारियाए निव्यत्तवारसाहियाए इमं एयारूवं नाम - जम्हा गं एसा दारिया दुपयरस रण्णो घूया नुतणीए देवीए अत्तया, तं होउ णं अम्हं इमीसे दारियाए नामघेज्जे दोवई ।। १२७. तए णं सा दोवई दारिया पंचधाईपरिग्गहिया जाव गिरिकंदरमल्लीणा इव चंपगलया निवाय निव्वाघायंसि सुहंसुहेणं परिवद ।। १२८. तए णं सा दोवई रायवरकण्णा उम्मुक्कबालभावा विण्णय परिणयमेत्ता जोम्यगगमणुपत्ता रूवेण य जोब्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्या ।। १२९. तए णं तं दोवनं रायवरकण्णं अण्णया कयाइ अंतेउरियाओ • हायं जाव सव्वालंकारविभूसियं करेंति, करेत्ता दुवयस्स रण्णो पायवंदियं पेसेंति ।। १२६. तए णं तीसे अम्मापियरो इमं एवारूवं गोण्णं गुणनिफन्नं १२६. उसके माता-पिता ने इस प्रकार यह गुणानुरूप गुण-निष्पन्न नाम नामघेज्जं करेंति - दोवई - दोवई ।। रखा -- द्रौपदी... .. द्रौपदी। १३०. तए णं सा दोवई रायवरकण्णा जेणेव दुवए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दुवयस्स रण्णो पायग्गहणं करेइ ।। दोवईए सयंवर संकप-पदं १३१. तए णं से दुवए राया दोवइं दारियं अंके निवेसेइ, निवेसेत्ता सोलहवां अध्ययन सूत्र १२०-१३१ द्रौपदी का कथानक - पद १२०. उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप-द्वीप, भारतवर्ष और पाञ्चाल जनपद में काम्पिल्यपुर नाम का नगर था- वर्णक । १२९. वहां द्रुपद नाम का राजा था - वर्णक । १२२. उसके चुलनी देवी थी। धृष्टद्युम्न कुमार युवराज था । १२३. वह सुकुमालिका देवी आयुक्षय, स्थितिक्षय और भवक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्युत होकर, इसी जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और पांचाल जनपद में काम्पिल्यपुर नगर में राजा द्रुपद की रानी चुलनी की कुक्षि में बालिका के रूप में उपपन्न हुई। १२४. उस चुलनी देवी ने पूरे नौ मास और साढ़े सात दिन बीत जाने पर, एक सुकुमार हाथ पावों वाली यावत् बालिका को जन्म दिया। १२५. जब वह बालिका बारह दिन की हुई तब उसका यह नाम रखा क्योंकि हमारी यह बालिका राजा दुपद की पुत्री और चुलनी देवी की आत्मजा है, अतः हमारी इस बालिका का नाम द्रौपदी हो । १२७. वह द्रौपदी बालिका पांच धाय-माताओं से परिगृहीत यावत् निर्वात और निर्व्यापाल गिरिकन्दरा में आतीन चम्पकलता की भांति सुखपूर्वक बढ़ रही थी। १२८. वह प्रवर राजकन्या द्रौपदी शैशव को लांघकर विज्ञ और कला में पारगामी बन यौवन को प्राप्त हो, रूप यौवन और लावण्य से उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीर वाली हुई। १२९. किसी समय अन्त: पुर की महिलाओं ने उस प्रवर राजकन्या द्रौपदी को नहलाकर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। विभूषित कर राजा द्रुपद के कक्ष में) पाद वन्दन के लिए भेजा। १३०. वह प्रवर राजकन्या द्रौपदी, जहां द्रुपद राजा था, वहां आयी। वहां आकर उसने द्रुपद राजा के चरण छुए। द्रौपदी का स्वयंवर संकल्प-पद १३१. उस राजा द्रुपद ने बालिका द्रौपदी को गोद में बिठाया। बिठाकर Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १३१-१३४ दोवई रायवरकण्णाए रूवे य जोव्वणे य लावण्णे य जायविम्हए दोवई रायवरकण्णं एवं क्यासी जस्स णं अहं तुमं पुत्ता! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारित्ताए सयमेव दलइस्सामि, तत्थ गं तुमं सुहिया वा दुहिया वा भवेज्जासि । तए णं मम जावज्जीवाए हिययदाहे भविस्सइ । तं णं अहं तव पुत्ता! अज्जयाए सयंवरं विपरामि । अज्जयाए णं तुमं दिन्नसयंवरा जं गं तुमं सयमेव रायं वा जुवरायं वा वरेहिसि, से णं तव भत्तारे भक्रिस त्ति कट्टु ताहिं इट्ठाहिं कंताहि पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं वग्गूहिं आसासेइ, आसासेता पडिविसज्जे ।। बारवईए दूयपेसण-पदं १३२. तए णं से डुवाए राया दूयं सहावे, सहावेता एवं वयासी गच्छह गं तुमं देवाणुप्पिया! बारवई नयरिं । तत्य णं तुमं कण्हं वासुदेवं समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे, बलदेवपामोक्खे पंच महावीरे, उग्गसेणपामोक्ले सोलस रायसहस्से, पज्जुनपामोक्लाओ अद्धुट्ठाओ कुमारकोडीओ, संबपामोक्खाओ सट्ठि दुदंतसाहस्सीओ, वीरसेणपामोक्खाओ एक्कवीसं वीरपुरिससाहस्सीओ, महासेणपामोक्खाओ छप्पन्नं बलवगसाहस्सीओ, अण्णे य बहवे राईसर- तलवर - माडंबिय - कोडुंबिय - इब्भ-सेट्ठि-सेणावइसत्यवाहपभिइओ करयल परिगहियं दसनहं सिरसावतं मत्पए अंजलिं कट्टु जणं विजएणं वद्धावेहि, वद्धावेत्ता एवं वयाहि--एवं खलु देवाणुप्पिया! कपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रण्णो घूयाए, चूलणीए अत्ताए, घट्टज्जुणकुमारस्स भइणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्स । तं गं तुम्भे दुवयं रामं अणुविण्डेमाणा अकालपरिहीणं चेव कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह ।। १३३. तए णं से दूए करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु डुवयस्सरण्णो एपमहं परिसुणेइ, पडिसुणेता जेणेव सए गिहे लेणेव उवागच्छइ, उदागच्छित्ता कोडुबियपुरिसे सहावे, सहावेत्ता एवं क्यासी खिप्यामेव भो देवाणुप्पिया! चाउघंट आसरहं जुत्तामेव उद्ववेह ते वि तहेव उवद्ववेति ।। १३४. तए णं से दूए हाए जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता बहूहिं पुरिसेहिं--सन्नद्धबद्धवम्मिय - कवएहिं उप्पीलिय- सरासण- पट्टिएहिं पिणद्ध- गेविज्जेहिं आविद्ध विमल वरचिंध पहिं महियाउह पहरणेहिं-सद्धि संपरिवुडे कपिल्लपुरं नगरं मज्जांमज्झेणं निगच्छद्र, पंचालजणक्यस्स मज्जांमज्मेण जेणेव देसप्यते तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता ३२४ - नायाधम्मकहाओ प्रवर राजकन्या द्रौपदी के रूप, यौवन और लावण्य पर विस्मित होकर वह प्रवर राजकन्या द्रौपदी से इस प्रकार बोला- पुत्री ! मैं मेरी इच्छा से तुझे जिस राजा अथवा युवराज को भार्या के रूप में दूंगा, वहां तू सुखी अथवा दुःखी हो सकती है, जिससे मेरे हृदय में जीवन भर परिताप रहेगा। अतः पुत्री ! मैं कुछ ही दिनों में स्वयंवर आयोजित करूंगा। कुछ ही दिनों में तूं दत्तस्वयंवरा हो जाएगी । तू स्वेच्छा से जिस राजा अथवा युवराज का वरण करेगी, वही तेरा पति होगा। इस प्रकार उसने उन इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत वचनों से उसे आश्वस्त किया। आश्वस्त कर प्रतिविसर्जित कर दिया। द्वारवती के लिए दूत प्रेषण-पद १३२. दुमद राजा ने दूत को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहादेवानुप्रिय ! तुम द्वारवती नगरी जाओ। वहां तुम कृष्ण वासुदेव को तथा समुद्रविजय प्रमुख दस दसार, बलदेव प्रमुख पांच महावीरों उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार राजाओं, प्रद्युम्न प्रमुख साढ़े सात करोड़ कुमारों, शाम्ब प्रमुख साठ हजार दुर्दान्त सुभटों वीरसेन प्रमुख इक्कीस हजार वीर पुरुषों, महासेन प्रमुख छप्पन हजार बलवानों तथा अन्य भी अनेक राजा, ईश्वर तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह प्रभृति को सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर 'जय-विजय' की ध्वनि से वर्धापित करो। वर्धापित कर इस प्रकार कहो--देवानुप्रियो! काम्पिल्यपुर नगर में राजा द्रुपद की पुत्री, चुलनी की आत्मजा, धृष्टद्युम्न कुमार की बहिन, प्रवर राजकन्या द्रौपदी का स्वयंवर होगा । अत: तुम राजा द्रुपद पर अनुग्रह कर ठीक समय पर काम्पिल्यपुर नगर पहुंचो । १३३. उसने सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजली को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर द्रुपद राजा के इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार कर जहां अपना घर था, वहां आया। वहां आकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घण्टों वाला जुता हुआ अपवर उपस्थित करो। उन्होंने भी वैसे ही उपस्थित किया। १३४. वह दूत स्नान कर यावत् अल्प भार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत कर चार घंटों वाले अश्व रथ पर आरूढ़ हुआ । अनेक पुरुषों के साथ जो सन्नद्ध बद्ध हो कवच पहने हुए, धनुषपट्टी बान्धे हुए गले में प्रचारक्षक उपकरण पहने हुए, विमल और प्रवरचिह्मपट्ट बांधे हुए, तथा हाथों में आयुध और प्रहरण लिए हुए थे, उनसे परिवृत हो काम्पिल्यपुर नगर के बीचोंबीच होकर निष्क्रमण किया । पाञ्चाल Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकाओ ३२५ सुरद्वाजणवयस्त मज्झमज्झेणं जेणेव बारवई नपरी तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता बारवां नयरिं मज्जामयोगं अगुप्यविस अणुप्यविसत्ता जेणेव कण्हरस वासुदेवस्स बाहिरिया उड्डाणसाला तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता चाउघंट आसरहं ठावेइ, ठावेत्ता रहाओ पच्चोरहर, पच्चोरहित्ता मणुस्तवग्गुरापरिवित्ते पायचारविहारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता कण्हं वासुदेवं, समुद्दविजयपामोक्खे य दस दसारे जाव छप्पन्नं बलवगसाहसीओ करपलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धाक्ता एवं वयइ--एवं खलु देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स गोधूयाए चुतणीए अत्तबाए, धज्जुणकुमारस्स भइणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे अत्थि । तं णं तुब्भे दुवयं रायं अणुमिहेमाना अकालपरिहीणं चैव कपिल्लपुरे नपरे समोसरह ।। . १३५. तए णं से कण्हे वासुदेवे तस्स दूयस्स अंतिए अयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ट चित्तमानंदिए पोमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण हियए तं द्रयं सक्कारे सम्माणे, सक्कारेता सम्मात्ता पडिविसज्जेइ ।। कण्हस्स पत्थाण-पदं १३६. तए णं से कण्डे वासुदेव कोडुबियपुरिसे सहावे सहावेत्ता एवं वयासी -- गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए सामुदाइयं भेरि ताहि ।। १३७. तए णं से फोडुबियपुरिसे करयतपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत मत्थए अंजलि कट्टु कव्हरस वासुदेवस्स एयम परिसुणे, परिसुणेत्ता जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाइया भेरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सामुदाइयं भेरिं महया-महया सद्देणं ताते || १३८. तए णं ताए सामुदाइयाए भेरीए तालियाए समाणीए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव महासेणपामोक्खाओ छप्पन्न बलवगसाहस्सीओ पहाया जाव सव्वालंकारविभूसिया जहाविभवइडिसक्कारसमुदाए अप्येगइया हवगया एवं गगया रह- सीया दमाणीगया अप्येगइया पायविहारचारेण जेणेव कहे वासुदेवे तेणेव उवागच्छद् उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु कण्हं वासुदेवं जएणं विजएणं बद्धावेति ॥ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १३४-१३८ जनपद के बीचोंबीच होता हुआ जहां देश की सीमा थी, वहां आया। वहां आकर सौराष्ट्र जनपद के बीचोंबीच होता हुआ, जहां द्वारवती नगरी थी, वहां आया। आकर द्वारवती नगरी के बीचोबीच होकर प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर जहां कृष्ण वासुदेव का बाहरी सभामण्डप था, वहां आया। वहां आकर चार घंटों वाले अश्व रथ को ठहराया। ठहराकर स्वयं रथ से उतरा। उतर कर जन समूह से परिवृत हो, पांव पांव चलकर वह जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहां आया। वहां आकर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर कृष्ण वासुदेव का समुद्रविजय प्रमुख दस दसारों का यावत् छ हजार बलवानों का 'जय-विजय' की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! काम्पिल्यपुर नगर में राजा द्रुपद की पुत्री, चुलनी की आत्मजा, धृष्टद्युम्न कुमार की बहिन, प्रवर राजकन्या द्रौपदी का स्वयंवर है। अत: तुम राजा द्रुपद पर अनुग्रह कर ठीक समय पर काम्पिल्यपुर नगर पहुंचो । १३५. उस दूत के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट चित्त वाले, प्रीति पूर्ण मन वाले, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाले कृष्ण वासुदेव ने उस दूत को सत्कृत किया। सम्मानित किया । सत्कृत - सम्मानित कर प्रतिविसर्जित कर दिया । कृष्ण का प्रस्थान - पद १३६. कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो! तुम जाओ और सुधर्मा सभा में सामुदायिकी भेरी जाओ । १३७. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर कृष्ण वासुदेव के इस अर्थ को स्वीकार किया । स्वीकार कर सुधर्मा सभा में जहां सामुदायिकी भेरी थी, वहां आए । वहां आकर ऊंचे-ऊंचे शब्दों से सामुदायिकी भेरी बजायी । १३८. सामुदायिकी भेरी को बजाते ही समुद्रविजय प्रमुख दस दसार राजा यावत् महासेन प्रमुख छप्पन हजार बलवान स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, अपने-अपने वैभव, ऋद्धि और सत्कार समुदय के साथ निकले। उनमें से कुछ अश्वारूढ़ होकर, कुछ गजारूढ़ होकर, कुछ रथ, शिविका अथवा स्यन्दमानिका पर बैठकर और कुछ पांव पांव चलकर जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहां आए आकर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियां से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से कृष्ण वासुदेव का वर्धापन किया । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १३९-१४३ ३२६ नायाधम्मकहाओ १३९. तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं १३९. कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक-पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक्कं हत्थिरयणं प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्ति-रत्न को परिकर्मित पडिकप्पेह हय-गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेइ, करो। अश्व-गज-रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सण्णाहेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । ते वि तहेव पच्चप्पिणति।। सेना को सन्नद्ध करो। सन्नद्ध कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया। १४०. तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समत्तजालाकुलाभिरामे विचित्तमणि-रयण- कुट्टिमतले रमणिज्जे पहाणमंडवंसि जाणामणि-रयण-भत्ति-चित्तंसि ण्हाण-पीढंसि सुहणिसण्णे सहोदएहिं गंधोदएहिं पुप्फोदएहिं सुद्धोदएहिं पुणो-पुणो कल्लाणग-पवर मज्जणविहीए मज्जिए जाव अंजणगिरिकूडसन्निभं गयवई नरवई दुरूढे। १४०. कृष्ण वासुदेव जहां मज्जनघर था, वहां आए। आकर चारों ओर जालियों वाले, अभिराम रंग-बिरंगे मणि रत्नों से कुट्टित तल वाले, रमणीय, स्नान मण्डप में नाना मणि रत्नों की भांतों से चित्रित, स्नानपीठ पर आराम से बैठ, शुभोदक, गंधोदक, पुष्पोदक और शुद्धोदक से कल्याणक प्रवर मज्जन विधि से पुन: पुन: स्नान किया यावत् नरपति कृष्ण अंजन गिरि के शिखर जैसे गजपति पर आरूढ़ हुए। १४१. तए णं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खेहिं दसहिं दसारेहिं जाव अणंगसेणापामोक्खाहिं अणेगाहिं गणियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिखुडे सव्विड्डीए जाव दुंदुहि-निग्घोसनाइयरवेणं बारवइं नयरिं मझमहोणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता सुद्धाजणवयस्स मझमझेणं जेणेव देसप्पते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचालजणवयस्स मझमझेणं जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्य गमणाए।। १४१. कृष्ण वासुदेव समुद्रविजय प्रमुख दस दसारों यावत् अनंगसेना प्रमुख ___हजारों गणिकाओं के साथ उनके परिवृत हो सम्पूर्ण ऋद्धि यावत् दुन्दुभि-निर्घोष के निनादित स्वरों के साथ द्वारवती नगरी के बीचोंबीच होते हुए निकले। निकलकर सौराष्ट्र जनपद के बीचोंबीच होते हुए जहां देश की सीमा थी, वहां आए। वहां आकर पांचाल जनपद के बीचोंबीच होते हुए जहां काम्पिल्यपुर नगर था, उधर प्रस्थान कर दिया। हत्थिणाउरे दूयपेसण-पदं १४२. तए णं से दुवए राया दोच्चं पि दूयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! हत्थिणाउरं नयरं। तत्थ णं तुमं पंडुरायं सपुत्तयं--जुहिट्ठिलं भीमसेणं अज्जुणं नउलं सहदेवं, दुज्जोहणं भाइसय-समग्गं, गंगेयं विदुरं दोणं जयद्दहं सउणिं कीवं आसत्थामं करयलपरिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेहि, वद्धावेत्ता एवं वयाहि-एवं खलु देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रण्णो धूयाए, चुलणीए अत्तयाए, घट्ठज्जुण- कुमारस्स भइणीए, दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ। तं गं तुम्भे दुवयं रायं अणुगिण्हेमाणा अकालपरिहीणं चेव कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह ।। हस्तिनापुर दूत-प्रेषण-पद १४२. उस राजा द्रुपद ने दूसरे दूत को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ। वहां पुत्रों सहित पाण्डुराजा--युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव का, सौ भाइयों सहित दुर्योधन को तथा गांगेय भीष्म पितामह, विदुर, द्रोण, जयद्रथ, शंकुनि, कृपाचार्य एवं अश्वत्थामा का दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजली को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर 'जय-विजय' की ध्वनि से वर्धापन करो। वर्धापन कर इस प्रकार कहो--देवानुप्रियो! काम्पिल्यपुर नगर में राजा द्रुपद की पुत्री, चुलनी की आत्मजा, धृष्टद्युम्न कुमार की बहिन, प्रवर राजकन्या द्रौपदी का स्वयंवर होगा। अत: तुम राजा द्रुपद पर अनुग्रह कर, ठीक समय पर काम्पिल्यपुर नगर पहुंची। १४३. तए णं से दूए जेणेव हत्थिणाउरे नयरे जेणेव पंडुराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुरायं सपुत्तयं--जुहिट्ठिलं भीमसेणं अज्जुणं नउलं सहदेवं, दुज्जोहणं भाइसय-समग्गं, गंगेयं विदुरं दोणं जयद्दहं सउणिं कीवं आसत्यामं एवं वयइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रण्णो धूयाए, चुलणीए अत्तयाए, छट्ठज्जुणकुमारस्स भइणीए, दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे १४३. वह दूत जहां हस्तिनापुर नगर था, जहां पाण्डुराजा था, वहां आया। वहां आकर पुत्रों सहित पाण्डुराजा--युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव से, सौ भाइयों सहित दुर्योधन से तथा गांगेय-भीष्म पितामह, विदुर, द्रोण, जयद्रथ, शकुनि, कृपाचार्य एवं अश्वत्थामा से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! काम्पिल्यपुर नगर में राजा द्रुपद की पुत्री, चुलनी की आत्मजा, धृष्टद्युम्न कुमार की Jain Education Intemational Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३२७ अस्थि । तं गं तुब्भे दुवयं रायं अणुगिण्हेमाणा अकालपरिहीणं चेव कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह ।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र १४३-१४६ बहिन, प्रवर राजकन्या द्रौपदी का स्वयंवर है अत: तुम राजा द्रुपद पर अनुग्रह कर, ठीक समय पर काम्पिल्यपुर नगर पहुंची। १४४. तए णं से पंडुराया जहा वासुदेवे नवरं--भेरी नत्थि जाव जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्य गमणाए।। १४४. उस पाण्डुराजा ने कृष्ण वासुदेव के समान ही यावत् जहां काम्पिल्यपुर नगर था उधर प्रस्थान कर दिया। विशेष-यहां भेरी का उल्लेख अपेक्षित नहीं है। दूयपेसण-पदं १४५. एएणेव कमेणं--तच्चं दूयं एवं वयासी--गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! चंपं नयरिं। तत्थ णं तुमं कण्णं अंगरायं, सल्लं नंदिरायं एवं वयाहि--कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह । चउत्थं दूयं एवं वयासी--गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! सोत्तिमइंनयरिं। तत्थ णं तुमं सिसुपालं दमघोससुयं पंचभाइसय-संपरिवुडं एवं वयाहि--कपिल्लपुरे नयरे समोसरह। पंचमं दूयं एवं वयासी--गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! हत्थिसीसं नयरिं। तत्थ णं तुम दमदंतं रायं एवं वयाहि--कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह। छटुं दूयं एवं वयासी--गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! महुरं नयरिं। तत्थ णं तुम घरं रायं एवं वयाहि--कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह। सत्तमं दूयं एवं वयासी--गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! रायगिहं नयरिं। तत्थ णं तुम सहदेवं जरासंधसुयं एवं वयाहि--कपिल्लपुरे नयरे समोसरह। अट्ठमं दूयं एवं वयासी--गच्छह णं तमं देवाणुप्पिया! कोडिण्णं नयरं । तत्थ णं तुमं रुप्पिं भेसगसुयं एवं वयाहि--कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह। नवमं दूयं एवं वयासी--गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! विराट नयरं । तत्थ णं कीयगं भाउसय-समग्गं एवं वयाहि--कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह। __दसमं दूयं एवं वयासी--गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! अवसेसेसु गामागरनगरेसु। तत्थ णं तुम अणेगाइं रायसहस्साइं एवं वयाहि--कपिल्लपुरे नयरे समोसरह। दूत-प्रेषण-पद १४५. इसी क्रम से--तीसरे दूत से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम चम्पानगरी जाओ। वहां अंगराज कर्ण एवं नन्दीराज शल्य से इस प्रकार कहो--काम्पिल्यपुर नगर पहुंची। चौथे दूत से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम शुक्तिमती नगरी जाओ। वहां पांच सौ भाइयों से परिवृत दमघोष के पुत्र शिशुपाल से इस प्रकार कहो--काम्पिल्यपुर नगर पहुंचो। पांचवें दूत से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम हस्तीशीर्ष नगरी जाओ। वहां दमदन्त राजा से इस प्रकार कहो--काम्पिल्यपुर नगर पहुंचो। ___ छठे दूत से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम मथुरा नगरी जाओ। वहां धर राजा से इस प्रकार कहो-काम्पिल्यपुर नगर पहुंची। सातवें दूत से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम राजगृह नगरी जाओ। वहां जरासंध के पुत्र सहदेव से इस प्रकार कहो--काम्पिल्यपुर नगर पहुंचो। आठवें दूत से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम कौडिन्य नगर जाओ। वहां भेषक के पुत्र रुक्मि से इस प्रकार कहो--काम्पिल्यपुर नगर पहुंची। नौवे दूत से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम विराटनगर जाओ। वहां सौ भाइयों सहित कीचक से इस प्रकार कहो--काम्पिल्यपुर नगर पहुंचो। ___ दसवें दूत से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम अवशिष्ट गांव, आकर एवं नगरों में जाओ। वहां तुम अनेक हजारों राजाओं से इस प्रकार कहो--काम्पिल्यपुर नगर पहुंची। रायसहस्साणं पत्थाण-पदं १४६. तए णं ते बहवे रायसहस्सा पत्तेयं-पत्तेयं ण्हाया सण्णद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवया हत्यिखंधवरगया हय-गय-रहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिखुडा महयाभड-चडगर-रह-पहकर-विंदपरिक्खित्ता सएहिं-सएहिं नगरेहितो अभिनिग्गच्छति, अभिनिग्गच्छित्ता जेणेव पंचालेजणवए तेणेव पहारेत्थ गमणाए। हजारों राजाओं का प्रस्थान-पद १४६. उन अनेक हजारों राजाओं ने पृथक-पृथक रूप से स्नान किया। सन्नद्ध-बद्ध हो कवच पहने और प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ होकर अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना के साथ, उससे परिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों एवं पथदर्शक वृन्द से घिरे हुए अपने अपने नगरों से निकले। निकलकर जहां पांचाल जनपद था, उधर प्रस्थान कर दिया। Jain Education Intemational Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १४७-१५१ दुवयस्स आतित्थ-पदं १४७. तए णं से दुवए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे बहिया गंगाए महानईए अदूरसामंते एग महं सयंवरमंडवं करेह--अणेगखंभ-सयसन्निविट्ठ लीलट्ठिय-सालिभंजियागं जाव पासाईयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं--करेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । ते वि तहेव पच्चप्पिणंति।। नायाधम्मकहाओ द्रुपद का आतिथ्य-पद १४७. राजा द्रुपद ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ और काम्पिल्यपुर नगर के बाहर महानदी गंगा के आसपास एक महान स्वयंवर मण्डप की रचना ___ करो--जो अनेक शत खम्भों पर सन्निविष्ट हो और प्रत्येक खंभे पर क्रीड़ा करती पुतलियां उत्कीर्ण हो यावत् वह चित्त को आल्हादित करने वाला, दर्शनीय, सुन्दर और असाधारण हो। ऐसा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया। १४८. तए णं से दुवए राया (दोच्चंपि?) कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आवासे करेह, करेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । ते वि तहेव पच्चप्पिणंति ।। १४८. उस द्रुपद राजा ने (दूसरी बार भी?) कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम शीघ्र ही वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजाओं के लिए आवास बनवाओ। बनवाकर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया। १४९. तए णं से दुवए राया वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आगमणंजाणेत्ता पत्तेयं-पत्तेयं हत्थिखंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं वीइज्जमाणे हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिबुडे महयाभड-चडगर-रह-पहकर-विंदपरिक्खित्ते अग्धं च पज्जंच गहाय सव्विड्डीए कपिल्लपुराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ताई वासुदेवपामोक्खाई अग्घेण य पज्जेण य सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारेत्ता तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं पत्तेयंपत्तेयं आवासे वियरइ॥ १४९. वह द्रुपद राजा वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजाओं का आगमन जानकर अपने प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हुआ। कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया और श्वेत चामरों से वीजित होता हुआ अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगणी सेना के साथ उससे परिवृत हो महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों तथा पथदर्शक वृंद से घिरा हुआ अर्घ्य और पद्य (चरण-पक्षालन करने योग्य जल) लेकर सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ काम्पिल्यपुर नगर से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर जहां वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजा थे, वहां आया। वहां आकर वासुदेव प्रमुख राजाओं को अर्घ्य और पद्य से सत्कृत किया। सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर वासुदेव प्रमुख राजाओं को पृथक् पृथक् आवास प्रदान किए। १५०. तए णं ते वासुदेवपामोक्खा जेणेव सया-सया आवासा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता हत्थिखधेहितो पच्चोरुहति, पच्चोरुहित्ता पत्तेयं-पत्तेयं खंधावारनिवसं करेंति, करेत्ता सएसु-सएसु आवासेसु अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता सएसु-सएसु आवासेसु आसणेसु य सयणेसु य सन्निसण्णा य संतुयट्टा य बहूहिं गंधब्वेहि य नाडएहि य उवगिज्जमाणा य उवनच्चिज्जमाणा य विहरति ।। १५०. वे वासुदेव प्रमुख राजा जहां उनके अपने-अपने आवास थे, वहां आए। आकर हस्तिस्कन्धों से उतरे। उतरकर अपनी-अपनी सेना का पड़ाव डाला। पड़ाव डालकर अपने-अपने आवासों में प्रवेश किया। प्रवेशकर अपने-अपने आवासों में आसनों और शयनों पर बैठे और सोए हुए वे बहुत से गीतों से उपगीत और नाटकों से अभिनीत होते हुए विहार करने लगे। १५१. तएणं से दुवए राया कपिल्लपुरं नयरं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह गं तुब्भे देवाणुप्पिया! विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं सुरं च मज्जंच मंसं च सीधुं च पसन्नं च सुबहुं पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं च वासुदेव-पामोक्खाणंरायसहस्साणं आवासेससाहरह। तेविसाहरति।। १५१. उस राजा द्रुपद ने काम्पिल्यपुर नगर में प्रवेश किया। प्रवेश कर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। तैयार करवाकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ और यह विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य और सुरा, मद्य, मांस, सीधु, प्रसन्ना तथा प्रचुर पुष्प, वस्त्र, गंधचूर्ण, माला और अलंकार वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं के आवास-गृहों में पहुंचाओ। उन्होंने भी वैसे ही पहुंचाया। Jain Education Intemational Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३२९ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १५२-१५५ १५२. तए णं ते वासुदेवपामोक्खा तं विपुलं असण-पाण-खाइम- १५२. वे वासुदेव प्रमुख राजा उस विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा साइमं सुरं च मज्जं च मंसं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणा सुरा, मद्य, मांस, सीधु और प्रसन्ना का आस्वादन, लेते हुए, विशेष विसादेमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा विहरंति । आस्वादन लेते हुए, परस्पर बांटते हुए और खाते हुए विहार करने जिमियभुत्तुत्तरागया वियणं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया लगे। भोजनोपरान्त आचमन कर साफ-सुथरे और परम-पवित्र सुहासणवरगया बहूहिं गंधव्वेहिं य नाडएहि य उवगिज्जमाणा य होकर प्रवर सुखासन में बैठकर वे बहुत प्रकार के गीतों से उपगीत उवनच्चिज्जमाणा य विहरति ।। और नाटकों से अभिनीत होते हुए विहार करने लगे। दोवईए सयंवर-पदं १५३. तए णं से दुवए राया पच्चावरण्ह-कालसमयसि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे सिंघाडग तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु वासुदेवपामोक्खाणं रायासहस्साणं आवासेस हत्थिखंधवरगया महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं वयह--एवं खलु देवाणुप्पिया! कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते दुवयस्स रण्णो धूयाए, चुलणीए देवीए अत्तियाए, धट्ठज्जुणस्स भगिणीए, दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ । तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया! दुवयं रायाणं अणुगिण्हेमाणा ण्हाया जाव सव्वालंकारविभूसिया हत्थिखंधवरगया सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं वीइज्जमाणा हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिखुडा महयाभड-चडगर-रहपहकर-विंदपरिक्खित्ता जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता पत्तेयं-पत्तेयं नामंकिएसु आसणेसु निसीयह, निसीइत्ता दोवई रायवरकण्णं पडिवालेमाणा-पडिवालेमाणा चिट्ठह त्ति घोसणं घोसेह, घोसेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ॥ द्रौपदी का स्वयंवर-पद १५३. उस द्रुपद राजा ने अपराह्न काल के समय कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ, काम्पिल्यपुर नगर के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों पर वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं के आवासों के समक्ष प्रवर हस्तिस्कन्ध पर बैठ उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहो--देवानुप्रियो! उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनीदेवी की आत्मजा, धृष्टद्युम्न की बहिन प्रवर राजकन्या द्रौपदी का स्वयंवर होगा। अत: देवानुप्रियो! आप राजा द्रुपद पर अनुग्रह कर, स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित और प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हो, कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त श्वेत चामरों से वीजित होते हुए, अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना के साथ उससे परिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों तथा पथदर्शक वृन्द से घिरे हुए जहां स्वयवर मण्डप हैं वहां आयें। वहां आकर पृथक्-पृथक् नामांकित आसनों पर बैठे। बैठकर प्रवर राजकन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करें--तुम लोग यह घोषणा करो। घोषणा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। १५४. तए णं ते कोडुबियपुरिसा तहेव जाव पच्चप्पिणंति॥ १५४. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् वैसे ही प्रत्यर्पित किया। १५५. तए णं से दुवए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! सयंवरमंडवं आसिय-संमज्जिओवलितं पंचवण्ण-पुप्फोवयारकलियं कालागरु- पवरकुदुंरुक्क-तुरुक्क-धूव-डझंत-सुरभि-मघमघेतगंधुधुयाभिरामं सुगंधवरगंधगंधियं गंधवट्टिभूयं मंचाइमंचकलियं करेह, कारवेह, करेत्ता कारवेत्ता वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं पत्तेयं-पत्तेयं नामंकियाइं आसणाई अत्युयपच्चत्युयाई रएह, रएता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । तेवि जाव पच्चप्पिणंति ।। १५५. उस द्रुपद राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! तुम जाओ। स्वयंवर मण्डप में जल का का छिड़काव कर, बुहार-झाड़, गोबर से लीप, विकीर्ण पचरंगे पुष्प-पुज के उपचार से युक्त, काली-अगर, प्रवर कुन्दुरु और लोबान की जलती हुई धूप की सुरभिमय महक से उठने वाली गन्ध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गन्धचूर्णों से सुरभित, गन्धवर्तिका जैसा बनाओ । वहां मंच और अतिमंच स्थापित करो और करवाओ। ऐसा कर और करवा वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं के लिए पृथक्-पृथक् नामांकित आसनों से आस्तृत और प्रत्यास्तृत करो। करके इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी यावत् प्रत्यर्पित किया। Jain Education Intemational Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १५६-१५९ ३३० नायाधम्मकहाओ १५६. तए णं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा कल्लं पाउप्पभायाए १५६. वे वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं ने उषाकाल में पौ फटने पर रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर ण्हाया जाव सव्वालंकारविभूसिया हत्थि-खंधवरगया आ जाने पर स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं घरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं और प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ होते हए कटसरैया के फूलों से बनी वीइज्ज़माणा हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए मालाओं से युक्त छत्र धारण किया। श्वेत चामरों से वीजित होते हुए सद्धिं संपरिवुडा महयाभड-चडगर-रह-पहकर-विंदपरिक्खित्ता अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना सव्विड्ढीए जाव टुंदहि-निग्घोस-नाइयरवेणं जेणेव संयवरामंडवे के साथ, उससे परिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों तथा तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता पथदर्शक वृन्द से घिरे हुए सम्पूर्ण ऋद्धि यावत् दुन्दुभि निर्घोष से पत्तेयं-पत्तेयं नामंकिएस आसणेस निसीयंति दोवई रायवरकण्णं निनादित स्वरों के साथ, जहां स्वयंवर मण्डप था, वहां आए। आकर पडिवालेमाणा-पडिवालेमाणा चिट्ठति।। मण्डप में प्रवेश किया। प्रवेश कर पृथक्-पृथक् नामांकित आसनों पर बैठे और प्रवर राजकन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करने लगे। १५७. तए णं से दुवए राया कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते पहाए जाव सव्वालंकारविभूसिए हत्थिखंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं वीइज्जमाणे हय-गय-रहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिडे महयाभड-चडगर-रह-पहकर-विंदपरिक्खित्ते कपिल्लपुरं नगर मझमझेणं निग्गच्छइ, जेणेव सयंवरामंडवे जेणेव वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धाक्ता कण्हस्स वासुदेवस्स सेयवरचामरं गहाय उववीयमाणे चिट्ठइ।। १५७. उस द्रुपद राजा ने भी उषाकाल में पौ फटने पर सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर, स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित और प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हो, कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया। श्वेत चामरों से वीजित होता हुआ, अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना के साथ उससे परिवृत हो महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों तथा पथदर्शक वृन्द से घिरे हुए काम्पिल्यपुर नगर के बीचोंबीच होता हुआ निकला और जहां स्वयंवर मण्डप था, जहां वासुदेव प्रमुख हजारों राजा थे, वहां आया। वहां आकर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमा कर मस्तक पर टिकाकर वासुदेव प्रमुख राजाओं का 'जय-विजय' की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर प्रवर श्वेत चामर लेकर कृष्ण वासुदेव को वीजित करने लग गया। १५८. तए णं सा दोवई रायवरकण्णा कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मज्जणधरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता पहाया कयबलिकम्मा कय-कोउय-मंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवर परिहिया मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जिणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ, करेत्ता जिणघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव अतउरे तेणेव उवागच्छइ॥ १५८. वह प्रवर राजकन्या द्रौपदी उषाकाल में पौ फटने पर सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर जहां मज्जन-घर था, वहां आई। आकर मज्जन-घर में प्रवेश किया। प्रवेश कर स्नान, बलिकर्म और कौतूक मंगल रूप प्रायश्चित्त कर, पवित्र स्थान में प्रवेश करने योग्य प्रवर मंगल वस्त्र पहन, मज्जन-घर से निकली। निकलकर जहां जिनालय था, वहां आयी। आकर जिनालय में प्रविष्ट हुई। प्रविष्ट होकर जिन प्रतिमाओं की पूजा की। पूजा कर जिनालय से निकली। निकलकर जहां अन्त:पुर था, वहां आयी। १५९. तए णं तं दोवइं रायवरकण्णं अंतेउरियाओ सव्वालंकारवि- भूसियं करेति । किं ते? वरपायपत्तनेउरा जाव चेडिया-चक्कवालमहयरग-विंद-परिक्खित्ता अंतेउराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्ख- मित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ। १५९. अन्त:पुर की महिलाओं ने प्रवर राजकन्या द्रौपदी को सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। वे अलंकार कौन से थे? उसके पावों में प्रवर नूपुर पहनाए यावत् वह दासी-समूह और महत्तर वृन्द से घिरी हुई अन्त:पुर से निकली। निकलकर जहां बाहरी सभा-मण्डप था, जहां चार घंटों वाला अश्वरथ था, वहां आयी। वहां आकर क्रीडन धात्री लेखिका के साथ चार घंटों वाले अश्वरथ पर आरूढ़ हुई। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३३१ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १६०-१६४ १६०. तए णं से धट्ठज्जुणे कुमारे दोवईए रायवरकण्णाए सारत्थं १६०. उस धृष्टद्युम्न कुमार ने प्रवर राजकन्या द्रौपदी का सारथ्य किया। करेइ॥ १६१. तए णं सा दोवई रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नयरं मझमझेणं जेणेव सयंवरामंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धिं सयंवरामंडवं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायवरसहस्साणं पणामं करे।।। १६१. वह प्रवर राजकन्या काम्पिल्यपुर नगर के बीचोंबीच होती हुई, जहां स्वयंवर मण्डप था, वहां आयी। आकर रथ को ठहराया। ठहराकर रथ से नीचे उतरी। उतरकर क्रीडनधात्री लेखिका के साथ स्वयंवरमण्डप में प्रवेश किया। प्रवेश कर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं को प्रणाम किया। १६२. तए णं सा दोवई रायवरकण्णा एगं महं सिरिदामगंडं--किं ते? पाडल-मल्लिय-चंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधद्धणिं मुयंतं परमसुहफासंदरिसणिज्जं--गेण्हइ॥ १६२. प्रवर राजकन्या द्रौपदी ने एक महान श्री दामकाण्ड नाम की माला हाथ में ली। वह कैसी है? पाटल, बेला, चम्पक यावत् सप्तच्छद आदि फूलों से निर्मित, घ्राण को तृप्ति देने वाले गन्धमय परमाणुओं को बिखेरने वाली, परम सुखद स्पर्श वाली और दर्शनीय थी। १६३. तए णं सा किड्डाविया सुरूवा साभावियघंसं वोद्दहजणस्स उस्सुयकर विचित्तमणि-रयण-बद्धच्छरुहं वामहत्येणं चिल्लगं दप्पणं गहेऊण सललियं दप्पणसंकंतबिंब-संदसिए य से दाहिणेणं हत्येणं दरिसए पवररायसीहे। फुडविसयविसुद्ध-रिभिय-गंभीरमहुरभणिया सा तेसिं सव्वेसिं पत्थिवाणं अम्मापिउवंससत्त-सामत्थ-गोत्त-विक्कंति-कंति-बहुविहआगम-माहप्परूव-कुलसीलजाणिया कित्तणं करेइ । पढमं ताव वण्हिपुंगवाणं दसारवर-वीरपुरिस-तेलोक्कबलवगाणं, सत्तु-सयसहस्समाणावमद्दगाणं भवसिद्धिय-वरपुंडरीयाणं चिल्लगाणं बलवीरिय-रूव-जोवण्ण-गुण-लावण्णकित्तिया कित्तणं करे।। तओ पुणो उग्गसेणमाईण जायवाणं भणइ-सोहग्गरूवकलिए वरेहि वरपुरिसगंधहत्थीणं जो हु ते होइ हियय-दइओ।। १६३. उस क्रीडनधात्री ने बाएं हाथ में चमकते हुए दर्पण को लीला के साथ हाथ में लिया। वह सहज चिकना, तरुणों के मन में उत्सुकता जगाने वाला, रंग-बिरंगे मणि-रत्नों से निर्मित मूठ वाला था। उसने दर्पण में संक्रान्त बिम्बों के माध्यम से दृष्टिगोचर होने वाले प्रवर राजसिंहों को अपने दाएं हाथ से द्रौपदी को दिखाया। स्फुट, विशद, विशुद्ध, स्वर घोलना युक्त, गम्भीर और मधुर भाषिणी तथा उन सब पार्थिवों के माता-पिता, वंश, सत्त्व, सामर्थ्य, गोत्र, विक्रम, कान्ति, बहुविध आगमों का अध्ययन, माहात्म्य, रूप, कुल, शील आदि की जानकार उस क्रीड़नधात्री ने उनका कीर्तन किया। उसने सबसे पहले वृष्णि-पुंगव, वीर-पुरुष, त्रैलोक्य में बलिष्ठ, लाखों शत्रुओं के मान-मर्दक, भव-सिद्धिक पुरुषों में प्रवर पुण्डरीक, परम तेजस्वी, समुद्रविजय प्रमुख प्रवर दस दसार राजाओं के बल, वीर्य, रूप, यौवन, गुण, लावण्य, कीर्ति आदि का अधिगमन कर उसका कीर्तन किया। उसके पश्चात् उसने उग्रसेन यादवों के बल, वीर्य, आदि का कथन किया और कहा-पुरुषों में प्रवर गन्धहस्ती के समान इन राजाओं में से भी तुझे सौभाग्य और रूप से युक्त तथा हृदय को प्रिय लगे, उसी का तू वरण कर। दोवईए पंडव-वरण-पदं द्रौपदी के द्वारा पांडव का वरण-पद १६४. तए णं सा दोवई रायावरकण्णगा बहूणं रायवरसहस्साणं १६४. वह प्रवर राजकन्या द्रौपदी उन अनेक हजार राजाओं के बीचोंबीच मझमझेणं समइच्छमाणी-समइच्छमाणी पुव्वकयनियाणेणं होकर चलती-चलती पूर्व जन्म में कृत निदान से प्रेरित होती हुई जहां चोइज्जमाणी-चोइज्जमाणी जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, पांच पाण्डव थे, वहां आयी। वहां आकर वह उन पांचों पाण्डवों को उवागच्छित्ता ते पंच पंडवे तेणं दसद्ध-वण्णेणं कुसुमदामेणं उस पचरंगी पुष्प-माला से आवेष्टित-परिवेष्टित कर लिया। उन्हें आवेढियपरिवेढिए करेइ, करेत्ता एवं वयासी--एए णं मए पंच आवेष्टित-परिवेष्टित कर इस प्रकार कहा--मैने इन पांच पाण्डवों का पंडवा वरिया।। वरण किया है। Jain Education Intemational Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १६५-१७१ १६५. तए णं ताई वासुदेवपामोक्खाई बहूणि रायसहस्साणि महवा महया सदेगं उम्पोसेमाणाई उम्पोसेमाणाई एवं वयति-सुवरियं खलु भो! दोवईए रायवरकण्णाए त्ति कट्टु सयंवरमंडवाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सया सया आवासा तेणेव उवागच्छति ।। १६६. तए गंधणे कुमारे पंच पंडवे दोवई च रायवरकण्णं चाउग्घंटं आसरहं दुरुहावेइ, दुरुहाक्ता कपिल्लपुरं नयरं मज्झमज्झेणं उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयं भवणं अणुपविसइ ।। ३३२ पाणिग्गहण-पदं १६७. तए णं से दुवए राया पंच पंढवे दोवई व रायवरकण्णं पट्ट दुरुहावे, दुरुहावेत्ता सेवापीयएहिं कलसेहिं मज्जावेद, मज्जावेता अग्गिहोमं करावे, पंचण्डं पंडवाणं दोवईए य पाणिग्गहणं कारावेइ ।। १६८. तए गं से दुवए राया दोवईए रायवरकण्णाए इमं एमारूवं पीइदाणं दलपतं जहा- अड्ड हिरण्णकोडोओ जाव पेसणकारीओ दासचेडीओ, अण्णं च विपुलं घण-कणग- रयण-मणि-मोतियसंख सिलप्पवात रत्तरयण संत सार-सावएज्जं अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउं - दलयइ ।। १६९. तए णं से दुवए राया ताइं वासुदेवपामोक्खाइं बहूई रायसहस्साई विपुलेणं असण पाण- स्लाइम साइमेणं पुप्फ-वत्य-गंधमल्लालंकारेण सक्कारेइ सम्माणेड़, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ ।। पंडुरायस्स निमंत्रण-पदं १७०. तए णं से पंडू राया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं करयल-परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं क्यासी एवं खलु देवाणुपिया हत्यिणाउरे नयरे पंच पंडवाण दोवईए य देवी कल्लाणकारे भविस्सह । तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया! म अहिमाणा अकालपरिहीणं चैव समोसरह ।। १७१. तए णं ते वासुदेवपामोक्ला बहवे रायसहस्सा पत्तेय पत्तेयं व्हाया सण्णद्ध बद्ध-वम्मिय - कवया हत्थिखंधवरगया जाव जेणेव हत्यिणाउरे नयरे तेणेव पहारेत्य गमणाए । नायाधम्मकाओ १६५. वे वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजा उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार बोले- राजगण! प्रवर राजकन्या द्रौपदी ने सम्यक् वरण किया है-- यह कहते हुए वे स्वयंवर मण्डप से निकल गए। निकलकर जहां अपने-अपने आवास थे, वहां आए। १६६. धृष्टद्युम्न कुमार ने पांचों पाण्डवों को तथा द्रौपदी को चार घंटों वाले अश्व-रथ पर आरूढ़ किया। आरूढ़कर काम्पिल्यपुर नगर के बीचोंबीच होता हुआ आया । आकर अपने भवन में प्रवेश किया। पाणिग्रहण पद १६७. द्रुपद राजा ने प्रवर राजकन्या द्रौपदी को पट्ट पर बिठाया । बिठाकर रजत-स्वर्णमय कलशों से नहलाया। नहलाकर अग्नि- होम करवाया तथा पांचों पाण्डवों और द्रौपदी का पाणिग्रहण करवाया। - १६८. द्रुपद राजा ने प्रवर राजकन्या द्रौपदी को इस प्रकार प्रीतिदान दिया, जैसे - आठ हिरण्य कोटि यावत् प्रेव्यकर्म करने वाली सेविकाएं। इसके अतिरिक्त अन्य भी बहुत सारा धन, कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, रक्तरत्न तथा श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्य एवं दान, भोग आदि के लिए स्वापतेय दिया, जो सात पीढ़ी तक प्रचुर मात्रा में दान करने, प्रचुर मात्रा में भोगने और प्रचुर मात्रा में बांटने में पर्याप्त था। १६९. उस पद राजा ने उन वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजाओं को विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, माला और अलंकारों से सत्कृत किया सम्मानित किया। सत्कृत- सम्मानित कर प्रतिविसर्जित किया । पाण्डुराज का निमन्त्रण-पद १७०. उस पाण्डु राजा ने वासुदेव प्रमुख उन अनेक हजार राजाओं को सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! हस्तिनापुर नगर में पांचों पाण्डवों और द्रौपदी देवी का कल्याणकारी उत्सव होगा। अतः देवानुप्रियो ! तुम मुझ पर अनुग्रह कर यथासमय वहां पहुंचो १७१. उन वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजाओं ने पृथक्-पृथक् स्नान कर, सन्नद्ध-बद्ध हो कवच पहन, प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हो यावत् जहां हस्तिनापुर नगर था उधर प्रस्थान किया। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ पंडुरायस्स आतित्थ-पदं १७२. तए णं से पंडू राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! हत्थिणाउरे नयरे पंचण्हं पंडवाण पंच पासायवडिसए कारेह--अब्भग्गयमूसिय जाव पडिरूवे।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र १७२-१८० पाण्डुराज का आतिथ्य पद १७२. उस पाण्डु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ, हस्तिनापुर नगर में, पांचों पाण्डवों के लिए पांच प्रवर प्रासाद बनवाओ। वे उन्नत, विशाल यावत् असाधारण हों। १७३. तए णं ते कोडुबियपुरिसा पडिसुणेति जाव कारवेंति।। १७३. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने इस आज्ञा को स्वीकार किया यावत् प्रासाद बनवाया। १७४. तए णं से पंडू राया पंचहिं पंडवेहिं दोवईए देवीए सद्धिं जोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि, संपरिबुड़े महया भडचडगर-रह-पहकर-विंदपरिक्खित्ते कपिल्लपुराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव हत्थिणाउरे तेणेव उवागए। १७४. वह पाण्डु राजा, पांचों पाण्डवों और द्रौपदी देवी के साथ अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतरंगिणी सेना के साथ, उससे परिवृत हो महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों, रथों तथा पथदर्शक पुरुषों के समूह से घिरा हुआ, काम्पिल्यपुर से निकला। निकलकर जहां हस्तिनापुर नगर था, वहां आया। १७५. तए णं से पंडू राया तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं आगमणं जाणित्ता काहाबयपुारस सद्दावइ, सद्दावत्ता एव वयासा--गच्छह ण तुब्भ देवाणुप्पिया! हत्थिणाउरस्स नयरस्स बहिया वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आवासे-अणेगखंभसयसण्णिविट्ठे कारेह, कारेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । तेवि तहेव पच्चप्पिणंति ।। १७५. पाण्डु राजा ने वासुदेव प्रमुख उन राजाओं का आगमन जानकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ, हस्तिनापुर नगर के बाहर वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजाओं के लिए आवास बनवाओ। वे अनेक शत खम्भों पर सन्निविष्ट हों। ऐसा करवाकर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया। १७६. तए णं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा जेणेव हत्थिणाउरे तेणेव उवागए॥ १७६. वे वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजा जहां हस्तिनापुर था, वहां आए। १७७. तए णं से पंडू राया ते वासुदेवपामोक्खे बहवे रायसहस्से उवागए जाणित्ता हट्टतुट्टे पहाए कयबलिकम्मे, जहा दुवए जाव जहारिहं आवासे दलयइ॥ १७७. पाण्डु राजा ने वासुदेव प्रमुख उन अनेक हजार राजाओं को आये हुए जानकर हृष्ट तुष्ट हो स्नान और बलिकर्म कर यावत् द्रुपद राजा के समान उन सबको यथायोग्य आवास प्रदान किया। १७८. तए णं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा जेणेव सया-सया आवासा तेणेव उवागच्छति तहेव जाव विहरति ।। १७८. वे वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजा जहां अपने-अपने आवास थे ___वहां आए यावत् वैसे ही विहार करने लगे। १७९. तए णं से पंडू राया हत्यिणाउरं नयरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता कोटुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दाक्ता एवं क्यासी--तुब्भेणं देवाणुप्पिया! विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं आवासेसु उवणेह । तेवि तहेव उवणेति ॥ १७९. पाण्डु राजा ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया। प्रवेश कर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम आवासों में विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ले जाओ'। वे भी वैसे ही ले गए। १८०. तए णं ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा बहाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता तं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं असाएमाणा तहेव जाव विहरति ।। १८०. वे वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजा स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगल रूप प्रायश्चित्त कर विपुल, अशन पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करते हुए यावत् वैसे ही विहार करने लगे। Jain Education Intemational Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन सूत्र १८१-१८५ कल्लाणकार पदं - १८१. तए णं से पंडू राया ते पंच पंडवे दोवई च देविं पट्टयं दुरुहावेइ, दुरुहावेत्ता सेयापीएहिं कलसेहिं ण्हावेइ, ण्हावेत्ता कल्लाणकारं करेइ, करेत्ता ते वासुदेवपामोवले बहवे रायसहस्से विपुलेणं असण- पाण- खाइम- साइमेणं पुप्फ-वत्थ-गंध- मल्लालंकारेण यसक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ ।। १८२, तए णं ताई वासुदेवपामोक्लाइं बहूइं रायसहस्साइं पंडुएणं रण्णा सिज्जिया समाणा जेणेव साई-साई रजाई जेणेव साई-साई नगराई तेणेव पडिगयाई ।। १८३. तए णं ते पंच पंढवा दोवईए देवीए सद्धिं कल्ताकल्लिं वारंवारेणं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति ।। ३३४ नारदस्स आगमण-पदं १८४. तए गं से पंडू राया अण्णया कयाई पंडवेहिं कोंतीए देवीए दोवईए य सद्धिं अंतोतिउरपरियालसद्धिं संपरिवुढे सीहासणवरगए यावि विहरइ ।। १८५. इमं चणं कच्छुल्लनारए-- दंसणेणं अइभद्दए विणीए अंतो- अंतो य कलुसहियए मज्झत्थ - उवत्थिए य अल्लीण - सोमपियदंसणे सुरूवे अमइल सगल परिहिए कालमियचम्म उत्तरासंगरयवच्छेदंड-कमंडलु हत्ये जडामउड- दित्तसिरए जन्नोवइयगणेत्तिय - मुंजमेहला-वागलधरे हत्थकय-कच्छभीए पियगंधव्वे धरणिगोयरप्पहाणे संवरणावरणि ओक्पणुष्ययणि लेखणीसु य संकामणि- आभिजगि- पण्णति गमणि यभिणीसु य बहूसु विज्जाहरी विज्जासु विस्सुयजसे इट्ठे रामस्त य केसवस्तय पज्जुन-पव-संब-अनिरुद्ध निसढ- उम्मुय-सारण-गय-सुमुहडुम्मुहाईणं जायवाणं अद्भुट्ठाण य कुमारकोडीणं हियय-दइए संथवए कलह - जुद्ध-कोलाहलप्पिए भंडणाभिलासी बहूसु य समरसयसंपराएसु दंसणरए समंतओ कलहं सदक्खिणं अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवर-वीरपुरिस - तेलोक्कबलवगाणं आमंतेऊण तं भगवई पक्कमणिं गगण-गमणदच्छं उप्पइओ गगणमभिलंघयंतो यामागर नगर खेड- कब्बड मडंब दोणमुह-पट्टण संवाहसहस्समंडियं चिमियमेदनीयं निम्भर जणपदं वसुहं ओलोइते रम्मं हत्थिणाउरं उवागए पंडुरायभवणंसि झत्ति - वेगेण समोइए। - - नायाधम्मकहाओ कल्याणकार पद १८१. पाण्डु राजा ने पांचों पाण्डवों और द्रौपदी देवी को पट्ट पर बिठाया । बिठाकर रजत-स्वर्णमय कलशों से उन्हें नहलाया। नहलाकर कल्याणकार (संस्कार) किया। उसके पश्चात् वासुदेव प्रमुख उन अनेक हजार राजाओं को अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से तथा पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, माला और अलंकारों से सत्कृत किया। सम्मानित किया । सत्कृत- सम्मानित कर उन्हें प्रतिविसर्जित किया। १८२. पाण्डु राजा के द्वारा विसर्जित किए जाने पर वे वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजा, जहां अपने-अपने राज्य थे, जहां अपने-अपने नगर थे, वहां चले गए। १८३. तब वे पांचों पाण्डव प्रतिदिन अनुक्रम से द्रौपदी देवी के साथ प्रधान भोगाई भोगों को भोगते हुए विहार करने लगे। नारद का आगमन - पद १८४, किसी समय वह पाण्डु राजा पांचों पाण्डवों, कुन्ती, द्रौपदी देवी तथा अन्तरंग अन्तःपुर परिवार के साथ, उससे परिवृत हो, प्रवर सिंहासन पर आसीन हो विहार कर रहा था। १८५. उसी समय ‘कच्छुल्ल' नारद पाण्डुराजा के भवन में पूर्ण वेग के साथ उतरा। वह देखने में अतिभद्र और विनीत था, लेकिन कभी-कभी कलुष हृदय हो जाता था। वह माध्यस्थ- व्रत को उपलब्ध और आश्रितों के लिए सौम्य, प्रियदर्शन और सुरूप था। वह अमलिन, अखण्ड वस्त्र पहने हुए था। उसका हृदय कृष्ण मृग के चर्म से बने उत्तरासंग से सुशोभित था। हाथ में दण्ड कमण्डलु थे। मस्तक जटा मुकुट से दीपित था वह यज्ञोपवीत, गणेत्रिका ( कलई पर पहनने की रुद्राक्ष माला) मुंज- मेखला और वृक्षों की छाल पहने हुए था। हाथ में कच्छभि वीणा थी। वह संगीत-प्रिय, भूमिचर प्राणियों में प्रधान, संवरणी, आवरणी, अवपतनी, उत्पतनी और श्लेष्णी--इन विद्याओं में तथा संक्रमणी अभियोगिनी, प्रति गमनी और स्तम्भिनी इन विद्याधर संबंधी नाना विद्याओं में विश्रुत यश वाला, राम और केशव को इष्ट, प्रद्युम्न, प्रतीप, साम्ब, अनिरुद्ध, निषध, उन्मुक्त, सारण, गज, सुमुख, दुर्मुख आदि साढ़े तीन करोड़ पादव कुमारों का हृदय वल्लभ, उनका प्रशंसक, कलह, युद्ध और कोलाहल- प्रिय, लड़ाई-झगड़ा चाहने वाला, अनेक शत समर और सम्पराय देखने में रत, पटुता पूर्वक कलह की टोह में रहने वाला और तीन लोक में बलिष्ठ, वीर पुरुष प्रवर दसार राजाओं के लिए सदा असमाधि का कारण था। वह गगन-गमन में दक्ष, भगवती प्रक्रमणी विद्या को आमंत्रित कर आकाश में उड़ा तथा गगन को लांघता हुआ हजारों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, सम्बाध Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ -३३५ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १८५-१९२ आदि से परिमण्डित, शान्त मेदिनीतल एवं जनपदों से संकुल वसुधा का अवलोकन करता हुआ सुरम्य हस्तिनापुर पहुंचा। १८६. तए णं से पंडू राया कच्छुल्लनारयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता पंचहिं पंडवेहिं कुंतीए य देवीए सद्धिं आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता कच्छुल्लनारयं सत्तट्ठपयाई पच्चुग्गच्छइ, पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता महरिहेणं अग्घेणं पज्जेणं आसणेण य उवनिमतेइ।। १८६. पाण्डु राजा ने कच्छुल्ल नारद को आते हुए देखा। देखकर पांचों पाण्डवों और कुन्तीदेवी सहित आसन से उठा। उठकर सात-आठ पद कच्छुल्ल नारद के सामने गया। सामने जाकर तीन बार दायीं ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर महान अर्हता वाले अर्ध्य, पद्य और आसन से उपनिमन्त्रित किया। १८७. तए णं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफोसियाए दब्भोवरिपच्चत्युयाए भिसियाए निसीयइ, निसीइत्ता पंडुरायं रज्जे य रट्टे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ। १८७. वह कच्छुल्ल नारद जल-सिक्त डाभ पर बिछी वृषिका पर बैठ गया। बैठकर पाण्डु राजा से राज्य, राष्ट्र, कोष, कोष्ठागार, बल, वाहन, पुर और अन्त:पुर के विषय में कुशल-समाचार पूछे । १८८. तए णं से पंडू राया कोंती देवी पंच य पंडवा कच्छुल्लनारयं आदति परियाणंति अब्भुट्टेति पज्जुवासंति॥ १८८. पाण्डु राजा, कुन्ती देवी और पांचों पाण्डव कच्छुल्ल नारद को आदर देते थे। उसकी बात पर ध्यान देते थे तथा अभ्युत्थान और पर्युपासना करते थे। १८९. तए णं सा दोवई देवी कच्छुल्लनारयं अस्संजयं अविरयं अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मंति कटु नो आढाइ नो परियाणइ नो अब्भुट्टेइ नो पज्जुवासइ। १८९. द्रौपदी देवी ने कच्छुल्ल नारद को असंयत, अविरत, अप्रतिहत-अप्रत्याख्यात-पापकर्मा जानकर न उसको आदर दिया, न उसकी बात पर ध्यान दिया तथा न अभ्युत्थान किया और न पर्युपासना की। १९०. तए णं तस्स कच्छुल्लनारयस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--अहो णं दोवई देवी रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य पंचंहिं पंडवेहि अवत्थद्धा समाणी ममं नो आढाइनो परियाणइ नो अब्भुढेइ नो पज्जुवासइ। तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करेत्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता पंडुरायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता उप्पयणिं विज्ज आवाहेइ, आवाहेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्याए उद्धयाए जइणाए छेयाए विज्जाहरगईए लवणसमुदं मझमज्झेणं पुरत्थाभिमुहे वीईवइउं पयत्ते यावि होत्था ।। १९०. तब कच्छुल्ल नारद के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--ओह! यह द्रौपदी देवी रूप, यौवन, लावण्य तथा पांचों पाण्डवों के कारण गर्वित हो रही है। इसीलिए न मुझे आदर देती है, न मेरी बात पर ध्यान देती है तथा न अभ्युत्थान करती है और न पर्युपासना करती है। अत: मेरे लिए उचित है मैं द्रौपदी देवी का विप्रिय--अनिष्ट करूं। उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर पाण्डु राजा से जाने के लिए पूछा। पूछकर उत्पतनी विद्या का आवाहन किया। आवाहन कर उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, शीघ्र, उद्धत, वेगपूर्ण, निपुण विद्याधर गति से लवणसमुद्र के बीचोंबीच होता हुआ पूर्व की ओर मुंह कर उड़ने लगा। नारदस्स अवरकंका-गमण-पदं १९१. तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसडे दीवे पुरथिमद्ध- दाहिणड्ड-भरहवासे अवरकका नामं रायहाणी होत्था। नारद का अवरकंका-गमन-पद १९१. उस काल और उस समय, धातकीखण्ड द्वीप में पूर्व और दक्षिण दिशावर्ती अर्ध भारत वर्ष में अवरंकका नाम की राजधानी थी। १९२. तत्थ णं अवरकंकाए रायहाणीए पउमनाभे नामं राया होत्था--महयाहिमवंत महंत-मलय-मंदर-महिंदसारेवण्णओ।। १९२. उस अवरकंका राजधानी में पद्मनाभ नाम का राजा था। वह महान हिमालय, महान मलय, मेरु और महेन्द्र पर्वत के समान सार वाला था--वर्णक। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १९३-२०० ३३६ नायाधम्मकहाओ १९३. तस्स णं पउमनाभस्स रण्णे सत्त देवीसयाई ओरोहे होत्था॥ १९३. उस राजा पद्मनाभ के सात सौ देवियों का अन्त:पुर था। १९४. तस्स णं पउमनाभस्स रण्णो सुनाभे नामं पुत्ते जुवरायावि १९४. उस राजा पद्मनाभ का सुनाभ नाम का पुत्र युवराज था। होत्था॥ १९५. तए णं से पउमनाभे राया अंतोअंतेउरंसि ओरोह-संपरिखुडे सीहासणवरगए विहरइ। १९५. वह राजा पद्मनाभ अपने अन्त:पुर के भीतर रनिवास से संपरिवृत हो प्रवर सिंहासन पर आसीन था। १९६. तए णं से कच्छुल्लनारए जेणेव अवरकंका रायहाणी जेणेव पउमनाभस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमनाभस्स रण्णो भवर्णसि झत्ति-वेगेण समोवइए।। १९६. वह कच्छुल्ल नारद जहां अवरकंका राजधानी थी, जहां पद्मनाभ का भवन था, वहां आया। वहां आकर पूरे वेग के साथ राजा पद्मनाभ के भवन में उतरा। १९७. तए णं से पउमनाभे राया कच्छुल्लनारयं एज्जमाणं पासइ, १९७. राजा पद्मनाभ ने कच्छुल्ल नारद को आते हुए देखा। देखकर पासित्ता आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता अग्घेणं पज्जेणं आसणेणं आसन से उठा। उठकर उसे अर्ध्य, पद्य और आसन से उपनिमन्त्रित उवनिमतेइ॥ किया। १९८. तएणं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफोसियाए दब्भोवरिपच्चत्युयाए भिसियाए निसीयइ, निसीइत्ता पउमनाभं रायं रज्जे यरडे य कोसे य कोट्ठागारे यबलेय वाहणे यपुरे अंतेउरेय कुसलोदंतं आपुच्छइ॥ १९८. वह कच्छुल्ल नारद जल-सिक्त डाभ पर बिछी वृषिका पर बैठा। बैठकर राजा पद्मनाभ से उसके राज्य, राष्ट्र, कोष, कोष्ठागार, बल, वाहन, पुर और अन्त:पुर के विषय में कुशल समाचार पूछे। १९९. तए णं से पउमनाभे राया नियगओरोहे जायविम्हए कच्छुल्लनारयं एवं वयासी--तुमं देवाणुप्पिया! बहूणि गामागरनगर-खेड-कब्बड-दोणमुह-मडंब-पट्टण-आसम-निगम-संबाहसण्णिवेसाई आहिंडसि, बहूण य राईसर-तलवर-माइंबियकोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाह-पभिईणं गिहाई अणुपविससि, तं अत्थियाइं ते कहिचि देवाणुप्पिया! एरिसए ओरोहे दिठ्ठपुव्वे जारिसए णं मम ओरोहे? १९९. राजा पद्मनाभ ने अपने अन्त:पुर पर विस्मित होकर कच्छुल्त नारद से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम बहुत से ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडंब, पत्तन, आश्रम, निगम, संबाह, सन्निवेश आदि में घूमते हो और बहुत से राजा, ईश्वर, तलवर, माईबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि के घरों में प्रवेश करते हो अत: देवानुप्रिय! तुमने पहले कहीं पर मेरे जैसा अन्त:पुर देखा है? २००. तए णं से कच्छुल्लनारए पउमनाभेणं एवं वुत्ते समाणे ईसिं २००. राजा पद्मनाभ के ऐसा कहने पर कच्छुल्ल नारद थोड़ा मुस्कुराया। विहसियं करेइ, करेत्ता एवं वयासी--सरिसे णं तुमं पउमनाभा! मुस्कुराकर इस प्रकार कहा--पद्मनाभ! तू तो उस कूप-मंडूक जैसा तस्स अगडददुरस्स। केणं देवाणुप्पिया! से अगडददुरे? देवानुप्रिय! वह कूप-मण्डूक कौन सा है? पउमनाभा! से जहानामए अगडददुरे सिया। सेणं तत्थ पद्मनाभ! जैसे कोई कूप-मण्डूक हो, वह वहीं जन्मा हो, वहीं जाए तत्थेव वुड्ढे अण्णं अगडं वा तलागं वा दहं वा सरं वा सागरं बढ़ा हो और अन्य कूप, तालाब, द्रह, सर अथवा सागर उसने देखा वा अपासमाणे मण्णइ--अयं चेव अगडे वा तलागे वा दहे वा सरे न हो। वह मानता है-यही कूप है, तालाब है, द्रह है, सर है अथवा वा सागरे वा । तए णं तं कूवं अण्णे सामुद्दए दद्दुरे हव्वमागए। सागर है। तए णं से कूवदद्दुरे तं सामुद्दयं ददुरं एवं वयासी--से के तुम उस कूप में दूसरे समुद्र का मेंढक आ गया। देवाणुप्पिया! कत्तो वा इह हव्वमागए? वह कूप-मण्डूक समुद्र के मेंढ़क से इस प्रकार बोला--कौन हो तए णं से सामुद्दए ददुरे तं कूवददुरं एवं वयासी--एवं । तुम देवानुप्रिय! यहां कहां से आये हो? खलु देवाणुप्पिया! अहं सामुद्दए दद्दुरे। वह समुद्र का मेंढ़क कूप-मण्डूक से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय! मैं समुद्र का मेंढ़क हूँ। Jain Education Intemational ducation Intermational For Private & Personal use only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३३७ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २००-२०४ तए णं से कूवदवरे तं सामुद्दयं एवं वयासी--केमहालए णं कूप-मण्डूक ने उस समुद्र के मेंढ़क से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय देवाणुप्पिया! से समुद्दे? कितना बड़ा है वह समुद्र? तए णं से सामुद्दएं ददरे तं कूवदरं एवं वयासी--महालए वह समुद्र का मेंढ़क कूप-मण्डूक को इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय! णं देवाणुप्पिया! समुद्दे । बहुत बड़ा है वह समुद्र। तए णं से कूवददुरे पाएणं लीहं कड्ढेइ, कड्ढेत्ता एवं कूप-मण्डूक ने पांव से लकीर खींची, खींचकर इस प्रकार वयासी--एमहालए णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे? बोला--देवानुप्रिय! इतना बड़ा है वह समुद्र? नो इणढे समढे । महालए णं से समुद्दे। __यह अर्थ समर्थ नहीं है। इससे भी अधिक बड़ा है वह समुद्र । तए णं से कूवदद्दुरे पुरथिमिल्लाओ तीराओ उप्फिडित्ता तब वह कूप-मण्डूक पूर्वीय तट से छलांग भरकर पश्चिमी तट पर णं पच्चत्थिमिल्लं तीरं गच्छइ, गच्छित्ता एवं वयासी--एमहालए गया। जाकर इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय! इतना बड़ा है वह समुद्र? णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे? यह अर्थ समर्थ नहीं है। नो इणद्वे समटे । एवामेव तमं पि पउमनाभा! अण्णेसिं पद्मनाभ ! इसी प्रकार तुम भी अन्य बहुत से राजा, ईश्वर बहूणं राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईणं भज्जंवा भगिणिं वा धूयं यावत् सार्थवाह इत्यादि की भार्या, भगिनी, पुत्री अथवा पुत्रवधू को वा सुण्हं वा अपासमाणे जाणसि जारिसए मम चेव णं ओरोहे, बिना देखे यही जानते हो, जैसा मेरा अन्त:पुर है, वैसा दूसरों का तारिसए णो अण्णेसिं। नहीं है। एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्यिणाउरे देवानुप्रिय! जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और हस्तिनापुर नगर में नयरे दुपयस्स रण्णो धूया चुलणीए देवीए अत्तया पंडुस्स सुण्हा राजा द्रुपद की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा, पाण्डु की पुत्रवधू, पांच पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई नामं देवी रूवेण य जोव्वणेण य पाण्डवों की भार्या द्रौपदी नाम की देवी रूप, यौवन और लावण्य से लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा। दोवईए णं देवीए उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीर वाली है। तेरा यह अन्त:पुर तो देवी छिन्नस्सवि पायंगुट्ठस्स अयं तव ओरोहे सयंपि कलं न अग्घइ त्ति द्रौपदी के कटे हुए पादांगुष्ठ के शतांश में भी नहीं आता--यह कह नारद कटु पउमनाभं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए ने पद्मनाभ से जाने के लिए पूछा। पूछकर जिस दिशा से आया था, उसी तामेव दिसिं पडिगए। दिशा में चला गया। दोवईए साहरण-पदं द्रौपदी का संहरण-पद २०१. तए णं से पउमनाभे राया कच्छुल्लनारयस्स अंतिए एयमटुं २०१. वह पद्मनाभ राजा कच्छुल्ल नारद के पास यह अर्थ सुनकर, सोच्चा निसम्म दोवईए देवीए रूवे य जोव्वणे य लावण्णे य अवधारण कर द्रौपदी देवी के रूप, यौवन और लावण्य के प्रति मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे जेणेव पोसहसाला तेणेव ___मूर्च्छित, ग्रथित, गृद्ध और अध्युपपन्न हो गया। वह जहां पौषधशाला उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता थी, वहां आया। आकर पौषधशाला में प्रवेश किया। प्रवेश कर अपने पुव्वसंगइयं देवं मणसीकरेमाणे-मणसीकरेमाणे चिट्ठइ।। पूर्वसांगतिक देव के साथ मानसिक तादात्म्य स्थापित किया। २०२. तए णं पउमनाभस्स रण्णो अट्ठमभत्तंसि परिणममाणंसि पुव्वसंगइओ देवो जाव आगओ। भणंतु णं देवाणुप्पिया! जंमए कायव्वं ।। २०२. राजा पद्मनाभ के अष्टमभक्त तप परिणत हो रहा था उस समय पूर्वसांगतिक देव यावत् आया। कहो देवानुप्रिय! जो मुझे करना है। २०३. तए णं से पउमनाभे पुव्वसंगइयं देवं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हत्थिणाउरे नयरे दुपयस्स रणो धूया चुलणीए देवीए उत्तया पंडुस्स सुहा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई नाम देवी स्वेण व जोवण्णेण य लाव्वणेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठासरीरा। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! दोवई देविं इह हव्वमाणीयं॥ २०३. उस पद्मनाभ ने पूर्वसांगतिक देव से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और हस्तिनापुर नगर में राजा द्रुपद की ___पुत्री, वी चुलनी की आत्मजा, पाण्डु की पुत्रवधू, पांच पाण्डवों की भार्या द्रौपदी नाम की देवी रूप, यौवन और लावण्य से उत्कृष्ट और उत्कृष्ट शरीर वाली है। अत: देवानप्रिय! मैं शीघ्र ही द्रौपदी देवी को यहां लाना चाहता हूँ। २०४. तए णं से पुव्वसंगए देवे पउमनाभं एवं वयासी--नो खलु देवाणुप्पिया! एवं भूयं वा भव्वं वा भविस्सं वा जण्णं दोवई देवी २०४. उस पूर्वसांगतिक देव ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा-- देवानुप्रिय! ऐसा न कभी हुआ है, न होता है और न होगा कि देवी द्रौपदी पांच Jain Education Intemational Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २०४-२०८ पंच पंडवे मोत्तू अण्णं पुरिसेणं सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोग भोगाई भुंजमाणी विहरिस्सइ तहावि य णं अहं तव पियट्टयाए दोव देवं हं हन्यामाणेमि त्ति कट्ट् पउमनाभं आपुच्छ, आपुच्छित्ता ताए उक्किद्वाए तुरियाए चलाए चंडाए जवणाए सिग्धाए उदुधाए दिव्वाए देवगईए लवणसमुदं मज्जांमण जेगेव हत्यिणाउरे नयरे तेणेव पहारेत्य गमणाए । ३३८ २०५. तेण कालेन ते समएणं हथिणाउरे नवरे जुहिद्विल्ले राया दोवई देवीए सद्धिं उप्पं आगासतलगंसि सुहप्पसुत्ते यावि होत्या ।। २०६. तए णं से पुव्वसंगइए देवे जेणेव जुहिट्ठिल्ले राया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छा, उवागच्छिता दोवईए देवीए ओसोवणि दलय, दलइत्ता दोवई देविं गिड, गिन्हित्ता ताए उनिकट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए जवणाए सिग्घाए उद्घुयाए दिव्वाए देवगईए जेणेव अवरकंका जेणेव पउमनाभस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमनाभस्स भवणंसि असोगवणियाए दोवई देविं ठावे, ठावेत्ता ओसोवणि अवहरङ्ग, अवहरित्ता जेणेव पउमनाभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी -- एस णं देवाणुप्पिया! मए उत्पिणाउराओ दोवई देवी इहं हब्बाणीया तव असोगवणियाए चिट्ठद्द अओ परं तुम जागसि ति कट्टु जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दितिं पडिगए ।। दोवईए चिंता - पदं २०७. तए णं सा दोवई देवी तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा समाणी तं भवणं असोगवणियं च अपच्चभिजाणमाणी एवं वयासी--नो खलु अम्हं एसे सए भवणे नो खतु एसा अम्हं सगा असोगवणिया । तं न नज्जइ णं अहं केणइ देवेण वा दाणवेण वा किण्णरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा अण्णस्स रणो असोगवणियं साहरियत्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियाय ।। पउमनाभस्स आसासण-पदं २०८. तए णं से पउमनाभे राया व्हाए जाव सव्वालंकारविभूसिए अंतेउर-परियाल - संपरिवुडे जेणेव असोगवणिया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दोवरं देविं ओहयमणसंकप्प करतलपहत्वमुहिं अट्टज्यानोवगयं झियायमाणिं पास, पाखिता एवं वयासी -- किन्नं तुमं देवाणुप्पिए! ओहयमण- संकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियाहि ? एवं खलु तुमं देवाष्णुप्पिए! मम पुण्यसंगइएणं देवेण जंबुद्दीवाओ दीवाओं भारहाओ नायाधम्मकहाओ पाण्डवों को छोड़कर अन्य पुरुष के साथ मनुष्य संबंधी प्रधान भोगाई भोगों को भोगती हुई बिहार करे तथापि मैं तुम्हारी प्रियता के लिए द्रौपदी देवी को यहां शीघ्र ही लाता हूं। यह कह उसने पद्मनाभ से जाने के लिए पूछा। पूछकर उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, वेगपूर्ण, शीघ्र उद्धत, दिव्य, देवगति से लवणसमुद्र के बीचोंबीच होता हुआ जिधर हस्तिनापुर नगर था, उधर प्रस्थान किया । २०५. उस काल और उस समय हस्तिनापुर नगर में राजा युधिष्ठिर देवी द्रौपदी के साथ ऊपर खुले में सुखपूर्वक सोया हुआ था। F २०६. वह पूर्व सांगतिक देव जहां राजा युधिष्ठिर था, जहां देवी द्रौपदी थी, वहां आया। वहां आकर देवी द्रौपदी पर अवस्वापिनी विद्या का प्रयोग किया। अवस्वापिनी का प्रयोग कर द्रौपदी देवी को उठा लिया। उठा कर उत्कृष्ट, त्वरित चपल, चण्ड, वेगपूर्ण शीघ्र, उद्धत, दिव्य, देवगति से जहां अवरकंका थी, जहां पद्मनाभ का भवन था, वहां आया। वहां आकर पद्मनाभ के भवन की अशोकवनिका में देवी द्रौपदी को स्थापित किया स्थापित कर अवस्वापिनी का अपहार किया। तत्पश्चात् वह जहां राजा पद्मनाभ था, वहां आया। आकर इस प्रकार बोला- यह लो देवानुप्रिय! मेरे द्वारा हस्तिनापुर से यहां शीघ्र ही आनीत द्रौपदी देवी तुम्हारी अशोकवनिका में स्थित है। इससे आगे जानो।' यह कहकर वह जिस दिशा से आया था, तुम उसी दिशा में चला गया। I -- द्रौपदी का चिन्ता - पद २०७. वह देवी द्रौपदी मुहूर्त्त भर पश्चात् जागी। उस भवन और अशोक वनिका को न पहचानती हुई वह इस प्रकार बोली- यह हमारा अपना भवन नहीं है, यह हमारी अपनी अशोकवनिका नहीं है। अतः न जाने मैं किस देव, दानव, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गंधर्व के द्वारा किसी दूसरे राजा की अशोकवनिका में संहृत हुई हूँ । इ प्रकार वह भग्न- हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न हो गई। पद्मनाभ का आश्वासन पद २०८. वह पद्मनाभ राजा स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित और अन्तःपुर परिवार से परिवृत होकर जहां अशोकवनिका थी, जहां द्रौपदी देवी थी वहां आया। वहां आकर उसने द्रौपदी देवी को भग्न- हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डूबे हुए चिन्तामग्न देखा । देखकर वह इस प्रकार बोला- देवानुप्रिये! तुम इस प्रकार भग्न- हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न क्यों हो रही हो? Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ नायाधम्मकहाओ वासाओ हत्थिणाउराओ नयराओ जहिट्ठिलस्स रणो भवणाओ साहरिया। तं मा णं तुम देवाणुप्पिया! ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियाहि । तमंणं मए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहराहि ।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र २०८-२१३ देवानुप्रिये! इस प्रकार मेरे पूर्वसांगतिक देव ने जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष, हस्तिनापुर नगर और राजा युधिष्ठिर के भवन से तुम्हारा संहरण किया है। अत: देवानुप्रिये! तुम इस प्रकार भग्न-हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामान मत बनो। तुम मेरे साथ विपुल भोगार्ह भोगों को भोगती हुई विहार करो। २०९. तए णं सा दोवई देवी पउमनाभं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे बारवईए नयरीए कण्हे नाम वासुदेवे मम पियभाउए परिवसइ। तं जइ णं से छण्हं मासाणं मम कूवं नो हव्वमागच्छइ, तए णं अहं देवाणुप्पिया! जं तुमं वदसि, तस्स आणा-ओवाय-वयणनिद्देसे चिट्ठिस्सामि।। २०९. उस द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और द्वारवती नगरी में मेरे पति के भाई श्रीकृष्ण वासुदेव रहते हैं। यदि वे छ: मास के भीतर मुझे खोजने' न आये तो देवानुप्रिय! तुम जिसके लिए कहोगे, उसी की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश के अनुसार रहूंगी। २१०. तए णं से पउमनाभे दोवईए देवीए एयमटुं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता दोवइं देविं कण्णतेउरे ठवेइ। २१०. उस पद्मनाभ ने द्रौपदी देवी के इस अर्थ को स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर द्रौपदी को कन्याओं के अन्त:पुर में स्थापित कर दिया। २११. तए णं सा दोवई देवी छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिल-परिग्गहिएणं तवोकम्मेण अप्पाणं भावेमाणी विहरइ। २११. वह द्रौपदी देवी आयम्बिल युक्त निरन्तर षष्ठ-षष्ठ भक्त ___तप: कर्म से स्वयं को भावित करती हुई विहार करने लगी। दोवईए गवसणा-पदं २१२. तए णं से जुहिडिल्ले राया तओ महत्तंतरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवई देविं पासे अपासमाणे सयणिज्जाओ उढेइ, उद्वेत्ता दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करेत्ता दोवईए देवीए कत्थए सुई वा खुइं वा पवत्तिं वा अलभमाणे जेणेव पंडू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडु रायं एवं वयासी--एवं खलु ताओ! ममं आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न नज्जइ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किण्णरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधेब्वेण वा हिया वा निया वा अवक्खित्ता वा। तं इच्छामि गंताओ! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गण-गवसणं करित्तए॥ द्रौपदी का गवेषणा-पद २१२. उसके मुहूर्त भर पश्चात् राजा युधिष्ठिर प्रतिबुद्ध हुआ। जब अपने पास द्रौपदी देवी को नहीं देखा तो वह शयनीय से उठा। उठकर उसने द्रौपदी देवी की चारों ओर खोज की। जब उसे द्रौपदी देवी का कहीं भी कोई सुराख, चिह्न अथवा वृत्तान्त नहीं मिला तो वह जहां पाण्डु राजा था, वहां आया। वहां आकर पाण्डु राजा से इस प्रकार बोला--तात! ऊपर खुले में सुखपूर्वक सोये हुए मेरे पास से द्रौपदी देवी का जाने किस देव, दानव, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गन्धर्व ने अपहरण कर लिया है या उसे कोई कहीं ले गया है या किसी कूप, गर्त आदि में गिरा दिया है। अत: तात! मैं द्रौपदी देवी की चारों ओर खोज करना चाहता हूँ। २१३. तए णं से पंडू राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! हत्थिणाउरे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया! जुहिट्ठिलस्स रपणे आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न नज्जइ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किण्णरेण वा किंपरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा निया वा अवक्खित्ता वा। तं जो णं देवाणुप्पिया! दोवईए देवीए सई वा खुइं वा पवत्तिं वा परिकहेइ, तस्स णं पंडू राया विउलं अत्थसंपयाणं दलयइ त्ति कटु घोसणं घोसावेह, घोसावेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।। २१३. उस पाण्डुराजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ और हस्तिनापुर नगर के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहो--देवानुप्रियो! इस प्रकार ऊपर खुले में सोये हुए राजा युधिष्ठिर के पास से द्रौपदी देवी का न जाने किस देव, दानव, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गन्धर्व ने अपहरण कर लिया है या उसे कोई कहीं ले गया है या किसी कूप, गर्त आदि में गिरा दिया है। ___अत: देवानुप्रियो! जो भी द्रौपदी देवी का सुराख, चिह्न अथवा वृत्तान्त बताएगा, उसे पाण्डुराजा विपुल अर्थसम्पदा प्रदान करेगा। इस प्रकार घोषणा करो। घोषणा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। Jain Education Intemational Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० नायाधम्मकहाओ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २१४-२२० २१४. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पच्चप्पिणंति ।। २१४. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् वैसे ही प्रत्यर्पित किया। २१५. तए णं से पंडू राया दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा खुइं वा पवत्तिं वा अलभमाणे कोंतिं देविं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी-- गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिए! बारवई नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयमढे निवेदेहि--कण्हे णं वासुदेवे दोवईए मग्गण-गवेसणं करेज्जा, अण्णहा न नज्जइ दोवईए देवीए सई वा खुई वा पवत्ती वा॥ २१५. जब देवी द्रौपदी का कहीं पर भी कोई सुराख, चिह्न अथवा वृत्तान्त नहीं मिला, तब पाण्डुराजा ने कुन्ती देवी को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये! तुम द्वारवती नगरी जाओ और कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार यह अर्थ निवेदन करो--वासुदेव कृष्ण द्रौपदी देवी की खोज करे अन्यथा द्रौपदी देवी का सुराख, चिह्न अथवा वृत्तान्त ज्ञात नहीं हो सकता। २१६. तए णं सा कोंती देवी पंडुणा एवं वृत्ता समाणी जाव पडिसणेइ, पडिसुणेत्ता ण्हाया कयबलिकम्मा हत्थिखंधवरगया हत्थिणारं नयरं मझमझेणं निगच्छइ, निगच्छित्ता कुरुजणक्यस्स मझमझेणं जेणेव सुद्धाजणवए जेणेव बारवई नपरी जेणेव अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! बारवइं नयरिं, जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स गिहे तेणेव अणुपविसह, अणुपविसित्ता कण्हं वासुदेवं करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयह--एवं खलु सामी! तुब्भं पिउच्छा कोंती देवी हत्यिणाउराओ नयराओ इहं हव्वमागया तुम्भं दसणं कंखइ।। २१६. पाण्डुराजा के ऐसा कहने पर कुन्तीदेवी ने यावत् स्वीकार किया। स्वीकार कर वह स्नान और बलिकर्म कर प्रवर हस्ति-स्कन्ध पर आरूढ़ हुई। हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच होकर निकली। निकलकर कुरु जनपद के बीचोंबीच होती हुई जहां सौराष्ट्र जनपद था, जहां द्वारवती नगरी थी, जहां प्रधान उद्यान था, वहां आई। वहां आकर प्रवर हस्ति-स्कन्ध से उतरी। उतरकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम द्वारवती नगरी जाओ। जहां कृष्ण वासुदेव का भवन है, वहां प्रवेश करो। वहां प्रवेश कर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहो--स्वामिन्! तुम्हारी बुआ कुन्ती देवी अभी-अभी हस्तिनापुर से यहां आई है, वह तुम्हारे दर्शन चाहती है। २१७. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव कहेंति ।। २१७. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् कहा। २१८. तए णं कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसाणं अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्ठतटे हत्थिखंधवरगए बारवईए नयरीए मझमझेणं जेणेव कोंती देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थिखंधाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता कोंतीए देवीए पायग्गहणं करेइ, करेत्ता कोंतीए देवीए सद्धिं हत्थिखधं दुरुहइ, दुरुहित्ता बारवईए नयरीए मझमझेणं जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयं गिहं अणुप्पविसइ॥ २१८. कौटुम्बिक पुरुषों से इस अर्थ को सुनकर अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हुए कृष्ण वासुदेव प्रवर हस्ति-स्कन्ध पर आरूढ़ हो, द्वारवती नगरी के बीचोंबीच होते हुए जहां कुन्ती देवी थी, वहां आए। आकर हस्ति-स्कन्ध से उतरे। उतरकर कुन्ती देवी के चरण छुए। चरण छूकर कुन्ती देवी के साथ हस्ति-स्कन्ध पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर द्वारवती नगरी के बीचोंबीच होते हुए जहां अपना भवन था, वहां आए। आकर भवन में प्रवेश किया। २१९. तए णं से कण्हे वासुदेवे कोंतिं देविं व्हायं कयबलिकम्म जिमियभुत्तुत्तरागयं वियणं समाणिं आयंतं चोक्खं परमसुइभूयं सुहासणवरगयं एवं वयासी-संदिसउणं पिउच्छा! किमागमणपओयणं? २१९. जब कुन्ती देवी स्नान, बलिकर्म कर भोजनोपरान्त आचमन कर, साफ-सुथरी और परम-पवित्र हो, प्रवर सुखासन में बैठ गई तब कृष्ण वासुदेव ने उनसे इस प्रकार कहा--कहो बुआ जी! किस प्रयोजन से आगमन हुआ? २२०. तए णं सा कोंती देवी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी--एवं खलु पुता! हत्थिणाउरे नयरे जुहिट्ठिलस्स रण्णो आगासतलए सुहप्पसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न नज्जइ केणइ अवहिया वा निया वा अवक्खित्ता वा। तं इच्छामि णं पुत्ता! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं कयं। २२०. तब कुन्ती देवी ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा--पुत्र! हस्तिनापुर नगर में अपने भवन के ऊपर खुले में सोये हुए राजा युधिष्ठिर के पास से द्रौपदी देवी का न जाने किसने अपहरण कर लिया है या उसे कोई कहीं ले गया है या किसी कूप, गर्त आदि में गिरा दिया है। अत: पुत्र: मैं चाहती हूँ, द्रौपदी देवी की चारों ओर खोज की जाए। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३४१ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २२१-२२९ २२१. तए णं से कण्हे वासुदेवे कोंतिं पिउच्छं एवं वयासी--जं २२१. कृष्ण वासुदेव ने बुआ कुन्ती से इस प्रकार कहा--विशेष--बुआ! नवरं--पिउच्छा! दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा खुइं वा पवत्तिं वा यदि द्रौपदी देवी का कहीं कोई सुराख, चिह्न या वृत्तान्त मिल जाए तो लभामि, तो णं अहं पायालाओ वा भवणाओ वा अद्धभरहाओ वा वह पाताल में, भवन में अथवा अर्द्धभरत क्षेत्र में कहीं पर भी हो मैं समंतओ दोवइं देविं साहत्थिं उवणेमि त्ति कटु कोंतिं पिउच्छ वहां से द्रौपदी देवी को हाथों-हाथ ले आऊं--यह कह कर उन्होंने सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ।। बुआ कुन्ती को सत्कृत किया। सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर उसे प्रतिविसर्जित किया। २२२. तए णं सा कोंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पडिविसज्जिया समाणी जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया।। २२२. कृष्ण वासुदेव से प्रतिविसर्जित हुई कुन्ती देवी जिस दिशा से आई थी उसी दिशा में चली गई। २२३. तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! बारवईए नयरीए सिंघाडगतिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया-महया सद्देणं उग्धोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयह--एवं खलु देवाणुप्पिया! जुहिट्ठिलस्स रण्णो आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न नज्जइ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किण्णरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा निया वा अवक्खित्ता वा । तं जो णं देवाणुप्पिया! दोवईए देवीए सुइं वा सुई वा पवत्तिं वा परिकहेइ, तस्स णं कण्हे वासुदेवे विउलं अत्थसंपयाणं दलयइत्ति कटु घोसणं घोसावेह, घोसावेत्ता एयमाणत्तिय पच्चप्पिणह।। २२३. कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ, द्वारवती नगरी में दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में उच्चस्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहो--देवानुप्रियो! इस प्रकार अपने भवन के ऊपर खुले में सुखपूर्वक सोये हुए राजा युधिष्ठिर के पास से द्रौपदी देवी का न जाने किस देव, दानव, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गन्धर्व ने अपहरण कर लिया है या उसे कोई कहीं ले गया है या किसी कूप, गर्त आदि में गिरा दिया है। अत: .देवानुप्रियो! जो भी द्रौपदी देवी का सुराख, चिह्न अथवा वृत्तान्त बताएगा, कृष्ण वासुदेव उसे विपुल अर्थ-सम्पदा प्रदान करेगा। इस प्रकार घोषणा करो। घोषणा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। २२४. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पच्चप्पिणंति ।। २२४. उन्होंने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया यावत् प्रत्यर्वित किया। २२५. किसी समय कृष्ण वासुदेव अपने अन्त:पुर के भीतर रनिवास से ___ संपरिवृत हो प्रवर सिंहासन पर आसीन थे। २२५. तए णं से कण्हे वासुदेवे अण्णया अंतोअंतेउरगए ओरोह- . संपरिवुडे सीहासणवरगए विहरइ। दोवईए उवलद्धि-पदं २२६. इमं च णं कच्छुल्लनारए जाव झत्ति-वेगेण समोवइए॥ द्रौपदी का उपलब्धि पद २२६. इधर कच्छुल्ल नारद यावत् पूरे वेग के साथ उतरा। २२७. तए णं से कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लनारयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता अग्घेणं पज्जेणं आसणेणं उवनिमतेइ।। २२७. कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद को आते हुए देखा। देखकर आसन से उठे। उठकर उसे अर्घ्य; पद्य और आसन से उपनिमन्त्रित किया। २२८. तए णं कच्छुल्लनारए उदगपरिफोसियाए दब्भोवरिपच्चत्युयाए भिसियाए निसीयइ, निसीइत्ता कण्हं वासुदेवं कुसलोदंतं पुच्छइ।। २२८. कच्छुल्ल नारद जल सिक्त डाभ पर बिछी वृषिका पर बैठा। बैठकर कृष्ण वासुदेव से कुशल समाचार पूछे। २२९. तए णं से कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लनारयं एवं वयासी--तुमंणं देवाणुप्पिया! बहूणि गामागर-नगर-खेड-कब्बड-दोणमुह-मडंब- पट्टण-आसम-निगम-संबाह सण्णिवेसाई आहिंडसि, बहूण य राईसर-तलवर-माइंबिय कोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइसत्यवाह-पभिईणं गिहाई अणुपविससि, तं अत्थियाइं ते कहिंचि दोवईए देवीए सुई वा खुई वा पवित्ती वा उवलद्धा? २२९. कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम बहुत से ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडंब, पत्तन, आश्रम, निगम, संबाह, सन्निवेश आदि में घूमते हो और बहुत से राजा, ईश्वर, तलवर, मडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि के घरों में प्रवेश करते हो अत: तुम्हें कहीं पर द्रौपदी देवी का सुराख, चिह्न अथवा वृत्तान्त मिला है? Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २३०-२३७ ३४२ नायाधम्मकहाओ २३०. तए णं से कच्छुल्लनारए कण्हं वासुदेवं एवं वयासी--एवं खलु २३०. कच्छुल्ल नारद ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! मैं देवाणुप्पिया! अण्णया धायइसंडदीवे पुरत्थिमद्धं दाहिणड्ढ़- एक बार धातकीखण्ड-द्वीप के पूर्व और दक्षिण दिशावर्ती भारतवर्ष की भरहवासं अवरकंका-रायहाणिं गए। तत्थ णं मए पउमनाभस्स राजधानी अवरकंका गया था। वहां राजा पद्मनाभ के भवन में द्रौपदी रणो भवर्णसि दोवई-देवी-जारिसिया दिट्ठपुव्वा यावि हत्या। देवी जैसी किसी नारी को देखा था। २३१. तए णं कण्हे वासुदेवे कच्छुल्लनारयं एवं वयासी--तुभं चेव णं देवाणुप्पिया! एवं पुव्वकम्मं । २३१. कृष्ण वासुदेव ने कच्छुल्ल नारद से इस प्रकार कहा--लगता है यह तुम्हारा ही काम है। २३२. तए णं से कच्छुल्लनारए कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे उप्पयणिं विजं आवाहेइ, आवाहेत्ता जामेव दिसिंपाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। २३२. कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर कच्छुल्ल नारद ने उत्पतनी' विद्या ___का आवाहन किया। आवाहन कर जिस दिशा से आया था उसी दिशा में चला गया। सपंडवस्स कण्हस्स पयाण-पदं २३३. तए णं से कण्हे वासुदेवे दूयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-- गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! हत्थिणाउर नयरं पंडुस्स रण्णो एयमटुं निवेएहि--एवं खलु देवाणुप्पिया! धायइसंडदीवे पुरथिमद्धे दाहिणड-भरहवासे अवरकंकाए रयहाणीए पउमनामभवणंसि दोवईए देवीए पउत्ती उवलद्धा, तं गच्छंतु पंच पंडवा चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा पुरत्थिम-वेयालीए ममं पडिवालेमाणा चिटुंतु॥ पांडवों सहित कृष्ण का प्रयाण-पद २३३. कृष्ण वासुदेव ने दूत को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ और पाण्डु राजा को यह निवेदन करो--देवानुप्रिय! धातकीखण्डद्वीप के पूर्व और दक्षिण दिशावर्ती भारतवर्ष की राजधानी अवरकंका में राजा पद्मनाभ के भवन में द्रौपदी देवी की खबर मिली है, अत: पांचों पाण्डव जाएं और चातुरंगिणी सेना के साथ उससे परिवृत हो लवणसमुद्र के पूर्वीय तट पर मेरी प्रतीक्षा करते हुए ठहरें। २३४. दूत ने कहा यावत् प्रतीक्षा करते हुए ठहरें। वे भी यावत् ठहरे। २३४. तए णं से दूए भणइ जाव पडिवालेमाणा चिट्ठह । तेवि जाव चिट्ठति ।। २३५. तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! सन्नाहियं भेरिं तालेह। तेवि तालेति ।। २३५. कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक-पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ और सान्नाहिकी भेरी बजाओ--उन्होंने भी भेरी बजायी। २३६. तए णं तीए सन्नाहियाए भेरीए सई सोच्चा समुद्दविजय- पामोक्खा दस दसारा जाव छप्पन्नं बलवगसाहस्सीओ सण्णद्धबद्ध-वम्मिय-कवया उप्पीलियसरासण-पट्टिया पिणद्ध-विज्जा आविद्ध-विमल-वरचिंघ-पट्टा गहियाउह-पहरणा अप्पेगइया हयगया अप्पेगइया गयगया जाव पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धाति।। २३६. उस सान्नाहिकी भेरी का शब्द सुनकर समुद्रविजय प्रमुख दस दसार राजा यावत् छप्पन हजार बलिष्ठ कुमारों ने सन्नद्ध बद्ध हो कवच पहने। धनुषपट्टी बांधी । गले में ग्रीवारक्षक उपकरण पहने। विमल और प्रवर चिह्नपट्ट बांधे । तथा हाथों में आयुध और प्रहरण लिए। उनमें से कोई अश्वारूढ. होकर, कोई गजारूढ़ होकर यावत् पुरुष समूह से परिवृत हो, जहां सुधर्मा' सभा थी, जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहां आए। वहां आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर 'जय विजय' की ध्वनि से वर्धापन किया। कण्हस्स देवाराधण-पदं २३७. तए णं से कण्हे वासुदेवे हत्थिखंघवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं वीइज्जमाणे हय-गय-रहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिडे कृष्ण का देवाराधना-पद २३७. कृष्ण वासुदेव ने प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हो कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया। वे श्वेत चामरों से वीजित होते हुए अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित Jain Education Intemational Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ महयाभह चहगर-रह-पहकर विंदपरिक्खित्ते बारवईए नपरीए मज्जमज्मेणं निगच्छ, निगच्छत्ता जेणेव पुरत्थिमवेयाली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं एगयओ मिलइ मिलित्ता खंधावारनिवेस करेइ, करेत्ता पोसहसालं अणुप्पविसइ, अणुविसित्ता सुट्ठियं देवं मणसीकरेमाणे मणसीकरेमाणे चिट्ठइ ।। ३४३ २३८. तए णं कण्हस्स वासुदेवस्स अट्ठमभत्तंसि परिणममाणसि सुट्ठओ जाव आगओ । भणंतु णं देवाणुप्पिया! जं मए कायव्वं ।। कण्हस्स मग्गजायणा-पदं २३९. तए गं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं देवं एवं बवासी एवं खलु देवाप्पिया! दोवई देवी धायईसंडदीवे पुरत्थिमद्धे दाहिणभरहवासे अवरकंकाए रायहाणीए पउमनाभभवणंसि साहिया तण्णं तुमं देवाणुप्पिया! मम पंचहिं पंढवेहिं सद्धिं अप्पलस्स छह रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं विपराहि, जेणाहं अवरकंकं रायहाणि दोवई कूवं गच्छामि ।। २४०, तए से खुट्टिए देवे कन्हं वासुदेवं एवं क्यासी किरणं देवाप्पिया! जहा चेव पउमनाभस्स रण्णो पुव्वसंगइएणं देवेणं दोवई देवी जंबुद्दीवाज दीवाओ भारहाओ वासाओ हत्यिणाउराओ नयराज जुहिलस्स रण्णो भवणाओ साहिया, तहा चैव दोबई देव धायदाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ अवरवंकरओ रायहागीओ पउमनाभस्स रण्णो भवणाओ हत्थिणाउरं साहरामि ? उदाहु-पउमनाभं रामं सपुरबलवाहणं लवणसमुद्दे पक्खियामि ? २४१. तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं देवं एवं वयासी मा गं तुमं देवाप्पिया! जहा चैव पउमनाभस्स रण्णो पुव्यसंगइएणं देवेणं दोवई देवी जंबुदवाओं दीवाओ भारहाओ वासाओ हत्यिणाउराओ नयराओ जुहिद्विलस्स रण्णो भवणाओ साहिया, तहा चेव दोवई देवि धायईसंडाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ अवरकंकाओ राहाणीओ पउमनाभस्स रण्णो भवणाओ हत्यिणाउरं साहराहि । तुमं णं देवाणुप्पिया! मम लवणसमुद्दे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछटुस्स छण्हं रहाणं मग्गं वियराहि । सयमेव णं अहं दोवईए कूवं गच्छामि ।। २४२. तणं से सुट्ठि देवे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी एवं होउ । पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्ठस्स छण्हं रहाणं लवणसमुद्दे मग्गं विरह।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र २३७-२४२ 1 चातुरंगिणी सेना के साथ, उससे परिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों, रथों एवं पथदर्शक पुरुषों के समूह से परिवृत हो द्वारवती नगरी के बीचोंबीच होते हुए निकले निकलकर जहां पूर्वीय तट घा वहां पहुंचे। वहां पहुंचकर एक स्थान पर पांचों पाण्डवों के साथ मिले मिलकर सेना का पड़ाव डाला। पड़ाव डालकर पौषधशाला में प्रविष्ट हुए प्रविष्ट होकर सुस्थित देव के साथ मानसिक तादात्म्य स्थापित कर ठहरे । | २३८. कृष्ण वासुदेव के अष्टम-भक्त तप परिणत हो रहा था, यावत् सुस्थित देव आया। कहो--देवानुप्रिय ! जो मुझे करना है। कृष्ण द्वारा मार्ग याचना-पद २३९. कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से इस प्रकार कहा -- देवानुप्रिय ! धातकीखण्ड - द्वीप के पूर्व और दक्षिण दिशावर्ती भारतवर्ष की राजधानी अवरकंका के राजा पद्मनाभ के भवन में द्रौपदी देवी का संहरण हुआ है। अतः पांच पाण्डव और छट्टा मैं--इन छहों के रथों को | लवण समुद्र में मार्ग दो। जिससे मैं द्रौपदी को खोजने के लिए अवरकंका राजधानी जा सकूं। २४०. तब सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा -- देवानुप्रिय ! जैसे राजा पद्मनाभ के पूर्व संगतिक देव ने जम्बुद्वीप द्वीप भारतवर्ष, हस्तिनापुर नगर और राजा युधिष्ठिर के भवन से द्रौपदी देवी का संहरण किया, वैसे ही क्या मैं धातकीखण्ड द्वीप, भारतवर्ष, अवरकंका राजधानी और राजा पद्मनाभ के भवन से संहरण कर द्रौपदी देवी को हस्तिनापुर ले आऊँ अथवा पुर, बल, वाहन, आदि के साथ पद्मनाभ को लवणसमुद्र में दूबो हूँ । २४१. कृष्ण वासुदेव ने सुस्थित देव से इस प्रकार कहा -देवानुप्रिय ! जैसे राजा पद्मनाभ के पूर्वसांगतिक देव ने जम्बुद्वीप द्वीप, भारतवर्ष, हस्तिनापुर नगर और राजा युधिष्ठिर के भवन से द्रौपदी देवी का संहरण किया, वैसे ही धातकीखण्डद्वीप, भारतवर्ष, अवरकंका राजधानी और पद्मनाभ के भवन से द्रौपदी का संहरण मत करो । देवानुप्रिय ! तुम पांच पाण्डव और छट्टा में इन छहों के रथों को लवणसमुद्र में मार्ग दो मैं स्वयं ही द्रौपदी की खोज के लिए जा रहा हूं। 1 २४२. सुस्थित देव ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा- ऐसा ही हो। उसने पांच पाण्डवों और छट्ठे कृष्ण वासुदेव इन छहों के रथों को लवण समुद्र में मार्ग दे दिया। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २४३-२४५ ३४४ नायाधम्मकहाओ कण्हेण दूयपेसण-पदं कृष्ण द्वारा दूत-प्रेषण-पद २४३. तए णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणिं सेणं पडिविसज्जेइ, २४३. कृष्ण वासुदेव ने चातुरंगिणी सेना को प्रतिविसर्जित किया। पडिविसज्जेत्ता पंचहि पंडवेहिं सद्धिं अप्पछटे छहिं रहेहिं लवणसमुई प्रतिविसर्जित कर पांच पाण्डव और छठे स्वयं कृष्ण, छह रथों के साथ मझमझेणं वीईवयइ, वीईवइत्ता जेणेव अवरकंका रायहाणी लवण-समुद्र के बीचोंबीच होते हुए चले। चलकर जहां अवरकंका जेणेव अवरकंकाए रायहाणीए अग्गुज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, राजधानी थी जहां अवरकंका राजधानी का प्रधान उद्यान था, वहां उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, ठवेत्ता दाख्यं सारहिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता पहुंचे। पहुंचकर रथों को ठहराया। ठहराकर दारुक सारथि को एवं वयासी--गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! अवरकंक रायहाणिं बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम जाओ अवरकका अणुप्पविसाहि, अणुप्पविसित्ता पउमनाभस्स रण्णो वामेणं पाएणं राजधानी में प्रवेश करो। प्रवेश कर राजा पद्मनाभ के पादपीठ को पायपीढं अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणामेहि, पणामेत्ता तिवलियं बांए पांव से ठोकर लगाओ। भाले की नोक पर रख कर उसे यह लेख भिउडिं निडाले साहटु आसुरुत्ते रुढे कुविए चंडिक्किए (पत्र) अर्पित करो। अर्पित कर त्रिवली युक्त भृकुटी को ललाट पर मिसिमिसेमाणे एवं वयाहि--हंभो पउमनाभा अपत्थियपत्थिया! चढ़ाकर, क्रुद्ध, रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलते हुए इस प्रकार दुरंतपतलक्खणा! हीणपुण्णचाउद्दसा! सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति- कहो--हंभो! पद्मनाभ! अप्रार्थित का प्रार्थी! दुरन्त-प्रान्त लक्षण! हीन परिवज्जिया! अज्ज न भवसि । किण्णं तमंन याणसि कण्हस्स पुण्य चातुर्दशिक । श्री-ही-धृति और कीर्ति से शून्य । आज तू नहीं वासुदेवस्स भगिणिं दोवई देविं इह हव्वमाणेमाणे? तं एवमवि रहेगा। क्या तू नहीं जानता तू कृष्ण वासुदेव की बाहिन' द्रौपदी देवी गए पच्चप्पिणाहि णं तुमं दोवइं देविं कण्हस्स वासुदेवस्स अहवणं को यहां लाया है?, खैर! हुआ सो हुआ! या तो तू द्रौपदी देवी को कृष्ण जुद्धसज्जे निग्गच्छाहि। एस णं कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं वासुदेव को सौंप दे, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो, बाहर निकल । अप्पछठे दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए। पांच पाण्डवों के साथ छठे स्वयं कृष्ण वासुदेव द्रौपदी देवी को लेने आ गये हैं। २४४. तए णं से दारुए सारही कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे हतढे पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता अवरकंकं रायहाणिं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव पउमनाभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धाक्ता एवं वयासी--एस णं सामी! मम विणयपडिवत्ती, इमा अण्णा मम सामिस्स समुहाणत्ति त्ति कटु आसुरुत्ते वामपाएणं पायपीढं अक्कमइ, अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणामेइ, पणामेत्ता तिवलियं भिउडिं निडाले साहटु आसुरुत्ते रुढे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे एवं वयासी--हंभो पउमनाभा! अपत्थियपत्थिया! दुरंतपंतलक्खणा! हीणपुण्णचउद्दसा! सिरि-हिरि-घिइ-कित्तिपरिवज्जिया! अज्ज न भवसि । किण्णं तमंन याणासि कण्हस्स वासुदेवस्स भगिणिं दोवई देविं इहं हव्वमाणेमाणे? तं एवमवि गए पच्चप्पिणाहि णं तुमं दोवइं देविं कण्हस्स वासुदेवस्स अहव णं जुद्धसज्जे निग्गच्छाहि । एस णं कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछट्टे दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए।। २४४. दारुक सारथी ने कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट हो आदेश को स्वीकार किया। स्वीकार कर अवरकंका राजधानी में प्रवेश किया। प्रवेश कर जहां पद्मनाभ था, वहां आया। वहां आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर इस प्रकार बोला--स्वामिन्! यह मेरी विनय प्रतिपत्ति है। मेरे स्वामी ने अपने मुख से जो आज्ञा दी है वह इससे भिन्न है। यह कहकर उसने क्रोध से तमतमाते हुए अपने बाए पांव से उसके पादपीठ को ठोकर लगायी। ठोकर लगाकर भाले की नोक पर रखकर कृष्ण का लेख दिया। लेख देकर त्रिवली युक्त भृकुटी को ललाट पर चढ़ाकर, रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलते हुए इस प्रकार बोला-हंभो! पद्मनाभ! अप्रार्थित का प्रार्थी! दुरन्त-प्रान्त-लक्षण! हीन पुण्य चातुर्दशिक! श्री-ही-धृति और कीर्ति से शून्य । आज तू नहीं रहेगा। क्या तू नहीं जानता तू कृष्ण वासुदेव की भगिनी द्रौपदी देवी को यहां लाया है? खैर! हुआ सो हुआ। या तो तू द्रौपदी देवी को कृष्ण वासुदेव को सौंप दे, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो, बाहर निकल। पांच पाण्डवों के साथ छटे स्वयं कृष्ण वासुदेव द्रौपदी देवी को लेने आ गये हैं। पउमनाभेण दूयस्स अवमाण-पदं २४५. तए णं से पउमनाभे दारुएणं सारहिणा एवं कुत्ते समाणे आसुरुते रुटे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलिं भिउडि निडाले पद्मनाभ द्वारा दूत का अपमान-पद २४५. दारुक सारथी के ऐसा कहने पर पद्मनाभ क्रोध से तमतमा उठा। वह रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलता हुआ त्रिवली युक्त भृकुटी Jain Education Intemational Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकाओ साह एवं वयासी -- णप्पिणामि णं अहं देवाणुप्पिया! कण्हस्स वासुदेवस्स दोवई। एस णं अहं सममेव जुज्झसज्जे निगच्छामि त्ति कट्टु दारुयं सारहिं एवं वयासी- केवलं भो! रायसत्थेसु दूए अवझेति कट्टु असक्कारिय असम्मानिय अवदारेणं निच्छुभावे ।। ट्र्यस्स पुणो आगमण पदं २४६. तए णं से दारुए सारही पउमनाभेणं रण्णा असक्कारिय असम्माणिय अवदारेणं निच्छूढे समाणे जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उबागच्छ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावतं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं, वद्धावेइ, वद्धावेत्ता कण्ह वासुदेवं एवं क्यासी एवं सतु अहं सामी! तुन्भं क्यणेणं अवरकंक यहाणिं गए जाव अवदारेणं निच्छुभावेइ ।। -- पउमनाभस्स पंडवेहिं जुद्ध-पदं २४७. तए गं से पउमनाभे बलवाउयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी लिप्यामेव भो देवाणुपिया! अभिसेक्कं तत्पिरमण पडिकप्पेह । तयाणंतरं च णं छेयायरिय-उवदेस - मइ कप्पणा विकप्पेहिं सुणिउणेहिं उज्जलणेवत्थि हव्य-परिवत्षियं सुसज्जं जाव आभिसेवक हरिचरणं पडिकप्पेड, पडिकप्पेत्ता उवणेति ।। २४८. तए गं से पउमनाभे ? सन्नद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवर उष्पीतियसरासण पट्टिए पिणद्ध गेविजे आविद्ध-विमल-वरचिंध- पट्टे गहियाउह-पहरणे आभिसेक्कं हत्थिरयणं दुरुहइ, दुरुहित्ता हयगय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेनाए सद्धिं संपरिवुडे महयाभड-चडगर-रह-पहकर विंदपरिक्खिते जेणेव कन्हे वासुदेव तेणेव पहारेत्थ गमणाए । - - २४९. तए गं से कन्हे वासुदेवे पठमनाभं रावं एज्जमानं पास, पासित्ता ते पंच पंडवे एवं वयासी-- हंभो दारगा! किण्णं तुब्भे पउमनाभेणं सद्धिं जुज्झिहिह उदाहु पेच्छिहिह ? २५०. तए णं ते पंच पंडया कण्हं वासुदेवं एवं वयासी अम्हे णं सामी! जुज्झामो, तुब्भे पेच्छह ।। ३४५ -- सोलहवां अध्ययन सूत्र २४५-२५० को ललाट पर चढ़ाकर इस प्रकार बोला देवानुप्रिय! मैं कृष्ण वासुदेव को द्रौपदी नहीं दूंगा। यह लो मैं स्वयं ही युद्ध के लिए तैयार होकर बाहर निकलता हूं--यह कहकर वह दारुक सारथी से इस प्रकार बोला हे दूत! राजनीति शास्त्र में केवल दूत अवध्य है - ऐसा कहकर उसे असत्कृत- असम्मानित कर पार्श्वद्वार से बाहर निकलवा दिया। दूत का पुनः आगमन-पद २४६. पद्मनाभ के द्वारा असत्कृत-असम्मानित कर पार्श्वद्वार से निकाल दिये जाने पर वह दारुक सारथी जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहां आया। वहां आकर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर कृष्ण - वासुदेव से इस प्रकार बोला- स्वामिन्! मैं तुम्हारे वचन से अवरकंका राजधानी गया। यावत् मुझे पार्श्वद्वार से निकलवा दिया गया। पद्मनाभ का पाण्डवों के साथ युद्ध-पद २४७. पद्मनाभ ने सेनानायक को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा -- देवानुप्रिय ! आभिषेक्य हस्तिरत्न को शीघ्र सुसज्जित करो । तदनन्तर उसने कलाचार्यों के उपदेश से उत्पन्न मति की नाना कल्पनाओं से युक्त हस्ति-सज्जा में निपुण व्यक्तियों द्वारा निर्मल नेपथ्य समूह से परिवस्त्रित और सुसज्जित यावत् अभिषेक्य हस्तिरत्न को तैयार किया। तैयार कर पद्मनाभ के पास लाया । २४८. पद्मनाभ ने सन्नद्ध-बद्ध हो कवच पहना। धनुषपट्टी को बांधा। गले में ग्रीवा रक्षक उपकरण पहने। विमल और प्रवर चिह्न पट्ट बांधा तथा हाथों में आयुध और प्रहरण लिया। उसके पश्चात् वह आभिषेक्य हस्तिरत्न पर आरूढ़ हुआ। आरूढ़ होकर अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चातुरंगिणी सेना के साथ उससे परिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न टुकडियों रथों एवं पथदर्शक पुरुषों के समूह से परिवृत हो, जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहां जाने का संकल्प किया। | २४९. कृष्ण वासुदेव ने राजा पद्मनाभ को आते हुए देखा देखकर उन पांचों पाण्डवों से इस प्रकार कहा है भी! पुत्रो! तुम पद्मनाभ के साथ लड़ोगे या देखोगे । २५०. वे पांचों पाण्डव कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोले -- स्वामिन्! हम लड़ते हैं, तुम देखो। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २५१-२५६ २५१. तए णं ते पंच पंडवा सण्णद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवया उप्पीलिय- सरासण-पट्टिया पिणद्ध-विज्जा आविद्ध-विमल- वरचिंधपट्टा गहियाउह-पहरणा रहे दुरुहंति, दुरुहित्ता जेणेव पउमनाभे राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं वयासी-अम्हे वा पउमनाभे वा राय त्ति कटु पउमनाभेणं सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था ।। नायाधम्मकहाओ २५१. पांचों पाण्डवों ने सन्न्द्ध बद्ध हो कवच पहने। धनुषपट्टी को बांधा। गले में ग्रीवा रक्षक उपकरण पहने। विमल और प्रवर चिह्न पट्ट बांधे तथा हाथों में आयुध और प्रहरण लिए। उसके पश्चात् रथ पर आरुढ़ हुए। आरूढ़ होकर जहां पद्मनाभ राजा था, वहां आए। वहां आकर इस प्रकार बोले--या तो हम रहेंगे या राजा पद्मनाभ रहेगा--यह कहकर वे पद्मनाभ के साथ युद्ध करने लगे। पंडवाणं पराजय-पदं २५२. तए णं से पउमनाभे राया ते पंच पंडवे खिप्पामेव हय- महिय-पवरवीर-घाइय-विवडियचिंध-धय-पडागे किच्छोवगयपाणे दिसोदिसिं पडिसेहेइ॥ पाण्डवों का पराजय-पद २५२. पद्मनाभ राजा ने उन पांचों पाण्डवों को शीघ्र ही हत-मथित कर दिया। उनके प्रवर वीरों को यमधाम पहुंचा दिया। सेना के चिह्नध्वजाएं और पताकाएं गिर गयी। उनके प्राण संकट में पड़ गये और सब दिशाओं से उनके प्रहारों को विफल कर दिये। २५३. तए णं ते पंच पंडवा पउमनाभेणं रण्णा हय-महिय-पवर वीर-घाइय-विवडिय-चिंध-घय-पडागा किच्छोवगयपाणा दिसोदिसिं पडिसेहिया समाणा अत्थामा अबला अवीरिया अपरिसक्कारपरक्कमा अधारणिज्जमिति कटु जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति॥ २५३. जब वे पांचों पाण्डव पद्भनाभ राजा द्वारा हत मथित हो गये। उनके प्रवर वीरों को यमधाम पहुंचा दिया। सेना के चिह्न-ध्वजाएं और पताकाएं गिर गई। उनके प्राण संकट में डाल दिए और सब दिशाओं से उनके प्रहार विफल हो गये, तब वे शक्तिहीन, बलहीन तथा पुरुषकार और पराक्रम में हीन हो गये। अब (रण भूमि में डटे रहना) शक्य नहीं है--ऐसा सोचकर वे जहां कृष्ण वासुदेव थे वहां आए। कण्हेण पराजय-हेउ-कहणपुव्वं जुज्झ-पदं २५४. तए णं से कण्हे वासुदेवे ते पंचपंडवे एवं वयासी--कहण्णं तुन्भे देवाणुप्पिया! पउमनाभेणं रण्णा सद्धिं संपलग्गा? कृष्ण द्वारा पराजय-हेतु कथनपूर्वक युद्ध-पद २५४. कृष्ण वासुदेव ने उन पांचों पाण्डवों से इस प्रकार पूछा--देवानुप्रिय! तुमने राजा पद्मनाभ के साथ युद्ध कैसे किया? २५५. तए णं ते पंच पंडवा कण्हं वासुदेवं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणा सण्णद्ध-बद्धवम्मिय-कवया रहे दुरुहामो, दुरुहेता जेणेव पउमनाभे तेणेव उवागच्छामो, उवागच्छित्ता एवं वयामो--अम्हे वा पउमनाभे वा रायत्ति कटु पउमनाभेणं सद्धिं संपलग्गा। तए णं से पउमनाभे राया अम्हं खिप्पामेव हय-महिय-पवरवीर-घाइय-विवडियचिघ-धय-पडागे किच्छोवगयपाणे दिसोदिसिं पडिसेहेइ॥ २५५. वे पांचों पाण्डव कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोले--देवानुप्रिय तुम से अनुज्ञा प्राप्त कर हम सन्नद्ध बद्ध हो कवच पहन, रथ पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर जहां पद्मनाभ था वहां आए। वहां आकर हम इस प्रकार बोले--या तो हम रहेंगे या राजा पद्मनाभ रहेगा--यह कहकर हम उसके साथ युद्ध करने लगे। उस पद्मनाभ राजा ने हमें शीघ्र ही हत-मथित कर दिया। हमारे प्रवर वीरों को यमधाम पहुंचा दिया। सेना के चिह्न-ध्वजाओं और पताकाओं को गिरा दिया। हमारे प्राण संकट में डाल दिए और सब दिशाओं से हमारे प्रहारों को विफल कर दिया। २५६. तए णं से कण्हे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं वयासी--जइ णं तुम्भे देवाणुप्पिया! एवं वयंता-अम्हे णो पउमनाभे रायत्ति कटु पउमनाभेणं सद्धिं संपलग्गंता तो णं तुन्भे नो पउमनाभे हय-महिय-पवरवीर-घाइय-विवडियचिंध-धय-पडागे किच्छोवगयपाणे दिसोदिसिं पडिसेहित्था । तं पेच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! अहं णो पउमनाभे रायत्ति कटु पउमनाभेणं रण्णा २५६. कृष्ण वासुदेव ने उन पांचों पाण्डवों से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! यदि तुम इस प्रकार कहते--हम रहेंगे पद्मनाभ राजा नहीं रहेगा--यह कह कर युद्ध करने लगते तो राजा पद्मनाभ तुम्हें इस प्रकार हत-मथित कर, प्रवर वीरों को यमधाम पहुंचा, सेना के चिह्नध्वजाओं और पताकाओं को गिरा, तुम्हारे प्राण संकट में डाल, सब दिशाओं से तुम्हारे प्रहारों को विफल नहीं कर पाता। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३४७ सद्धिं जुज्झामि (त्ति?) रहं दुरुहइ, दुरुहित्ता जेणेव पउमनाभे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेयं गोखीरहार-धवलं तणसोल्लिय-सिंदुवार-कुदसण्णिगासं निययस्स बलस्स हरिस-जणणं रिउसेण्ण-विणासणकरं पंचजण्णं संखं परामुसइ, परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ। सोलहवां अध्ययन : सूत्र २५६-२६१ देवानुप्रियो! तुम देखो। मैं रहूंगा, पद्मनाभ राजा नहीं रहेगा। यह कह कर मैं राजा पद्मनाभ के साथ युद्ध करता हूं--यह कहकर वे रथ पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर जहां राजा पद्मनाभ था, वहां आए। वहां आकर श्वेत गोक्षीर धारा के समान धवल, मल्लिका, सिन्दुवार, कुन्द-पुष्प और चन्द्र जैसी प्रभा वाला तथा अपनी सेना में हर्ष उत्पन्न करने वाला और शत्रुसेना का विनाश करने वाला पाञ्चजन्य शंख हाथ में लिया। हाथ में लेकर उसे मुखवात से पूरित किया। २५७. तए णं तस्स पउमनाभस्स तेणं संखसद्देणं बल-तिभाए २५७. उस शंख के शब्द से पद्मनाभ की सेना का एक तिहाई भाग हय-महिय-पवरवीर-घाइय-विवडियचिंध-घय-पडागे किच्छोव- हत-मथित हो गया। उसके प्रवर वीर यमधाम पहुंच गये। सेना के गयपाणे दिसोदिसिं पडिसेहिए। चिह्न-ध्वजाएं पताकाएं गिर गयी। उसके प्राण संकट में पड़ गये। सब दिशाओं से उसके प्रहार विफल हो गये। २५८. तए णं से कण्हे वासुदेवे अइरुग्णयबालचंद-इंदधणु- सण्णिगासं, वरमहिस-दरिय-दप्पिय-दढघणसिंगग्गरइयसारं, उरगवर-पवरगवल-पवरपरहुय-भमरकुल-नीलि-निद्ध-धंतधोय-पट्ट, निउणोविय-मिसिमिसिंत-मणिरयण-घांटियाजालपरिक्खित्तं, तडितरुणकिरण-तवणिज्जबद्धचिंध, ददरमलयगिरिसिहर-केसरचामरवाल-अद्धचंदचिंध, काल-हरिय-रत्त-पीय-सुक्किल-बहुण्हारुणि-संपिण्णद्धजीवं, जीवियंतकरं ध[परामुसइ, परामुसित्ता धणुंपूरेइ, पूरेत्ता धणुसई करेइ। २५८. कृष्ण वासुदेव ने अचिरोदित बाल चन्द्रमा और इन्द्र धनुष जैसा, प्रवर महिष के दृप्त, दर्पित, दृढ़ और सघन शृंग के अग्रभाग से रचित सार वाला, प्रवर उरग, प्रवर महिष, प्रवर कोकिल और भ्रमर कुल के समान नील, स्निग्ध और निर्मल पट्टे वाला, निपुण शिल्पियों द्वारा परिकर्मित, देदीप्यमान मणि-रत्नों की घंटिकाओं से परिवेष्टित, बिजली जैसी चमकती तरुण किरणों वाले तपनीय से चिह्नित, दर्दर और मलय पर्वत के शिखरों पर होने वाले सिंह स्कन्ध और चमरी गौ के बालों तथा अर्ध चन्द्रों से चिह्नित, कृष्ण, हरित, रक्त, पीत, शुक्ल आदि नाना प्रकार के स्नायुओं से सन्निबद्ध प्रत्यञ्चा वाला और प्राणान्तकर धनुष उठाया। उठाकर धनुष पर बाण चढाया। चढाकर धनु:शब्द (धनुषटंकार) किया। २५९. तए णं तस्स पउमनाभस्स दोच्चे बल-तिभाए तेणं घणुसद्देणं हय-महिय पवरवीर-घाइय-विवडियचिंधधय-पडागे किच्छोवगयपाणे दिसोदिसिं पडिसेहिए। २५९. उस धनुष के शब्द से पद्मनाभ की सेना का दूसरा एक तिहाई भाग हत-मथित हो गया। उसके प्रवर वीर यमधाम पहुंच गये। सेना के चिह्न-ध्वजाएं और पताकाएं गिर गयी। उसके प्राण संकट में पड़ गये। सब दिशाओं से उसके प्रहार विफल हो गये। पउमनाभस्स पलायण-पदं २६०. तए णं से पउमनाभे राया तिभागबलावसेसे अत्यामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कटु सिग्धं तुरियं चवलं चंडं जइणं वेइयं जेणेव अवरकंका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अवरकंकरायहाणिं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता बाराई पिहेइ, पिहेत्ता रोहासज्जे चिट्ठइ॥ पद्मनाभ का पलायन-पद २६०. जब राजा पद्मनाभ की सेना का एक-तिहाई भाग ही अवशेष रह गया। तब वह शक्तिहीन, बलहीन, वीर्यहीन, पुरुषार्थ और पराक्रम से हीन हो गया। अब रण-भूमि में डटे रहना अशक्य है--यह सोचकर वह शीघ्र , त्वरित, चपल, चण्ड, जयी और वेगपूर्ण गति से जहां अवरकका थी वहां आया। आकर अवरकंका राजधानी में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर द्वार बन्द कर लिए। द्वार बन्द कर घेरा डालकर बैठ गया। कण्हस्स नरसिंहरूव-पदं २६१. तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव अवरकंका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, ठवेत्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता कृष्ण का नरसिंह रूप-पद २६१. कृष्ण वासुदेव जहां अवरकंका थी वहां आए। वहां आकर रथ को ठहराया। ठहराकर रथ से उतरे। उतरकर वैक्रिय समुद्घात से Jain Education Intemational Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन सूत्र २६१-२६६ वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहरणइ एवं महं नरसीहरूवं विउम्बर, विउन्दित्ता महया महया सदेणं पायदरियं करेइ ॥ ३४८ २६२. तए णं कण्हेणं वासुदेवेणं महया महया सद्देणं पायदद्दरएणं करणं समाणेणं अवरकंका रायहाणी संभग्ग-पागार - गोउराट्टालयचरिय-तोरण- पल्हत्थिय-पवरभवण- सिरिधरा सरसरस्स धरणियले सण्णिवइया ।। पउमनाभस्स सरण-पदं २६३. तए णं से पउमनाभे राया अवरकंकं रायहाणिं संभग्ग-पागारगोउराट्टालय- चरिय तोरण- पल्हत्थिय पवरभवण- सिरिघरं सरसरस्त धरणियले सण्णिवइयं पासित्ता भीए दोवई देविं सरणं उबेद ॥ २६४. तए णं सा दोवई देवी पउमनाभं रायं एवं वयासी - किण्णं तुमं देवाणुप्पिया! न जाणसि कण्हल्स वासुदेवरस उत्तमपुरिसल्स विप्पियं करेमाणे ? ममं इह हव्यमाणेमाणे तं एवमवि गए गच्छ णं तुमं देवाणुपिया! हाए उल्लपडसाडए ओचूलगवत्यनियत्वे अउर परियालसंपरिवुडे जग्गाई वराई रयणाई महाय ममं पुरओ काउं कण्हं वासुदेवं करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं अंजलिं कट्टु पायवडिए सरणं उवेहि । पणिवइय- वच्छला णं देवागुप्पिया! उत्तमपुरिसा ।। २६५. तए णं से पउमनाभे दोवईए देवीए एवं कुत्ते समाणे व्हाए उल्लपडसाडए ओचूलगवत्थनियत्ये अंतेउर-परियालसंपरिवुडे अग्गाई वराई रयणाई महाय दोबई देविं पुरओ काउं कण्ह वासुदेवं करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावतं मत्यए अंजलिं कट्टु पायवडिए सरणं उवेइ, उवेत्ता एवं वयासी--दिट्ठा णं देवापिया इड्डी जुई जसो बलं वीरियं पुरिसक्कार- परक्कमे । तं खामिणं देवाप्पिया! स्वमंतु णं देवाणुप्पिया! खंतुमरहंति णं देवाणुप्पिया! नाइ भुज्जो एवंकरणयाए त्ति कट्टु पंजलिउडे पायवडिए कण्हस्स वासुदेवस्स दोवदं देविं साहत्थिं उवणेइ ।। सदोवई - पंडवस्स कण्हस्स पच्चावट्टण-पदं २६६. तए णं से कण्हे वासुदेवे पउमनाभं एवं वयासी-- हंभो पउमनाभा ! अपत्थियपत्थिया! दुरंतपंतलक्खणा! हीणपुण्णचाउद्दसा! सिरि-हिरि-धि- कित्ति-परिवज्जिया! किण्णं तुमं न जाणसि मम नायाधम्मकहाओ समवहत हुए। एक महान नरसिंह रूप की विक्रिया की । विक्रिया कर उच्च स्वर से धरती पर पादघात किया । २६२. कृष्ण वासुदेव द्वारा उच्च स्वर से धरती पर पादघात करने से अवरकंका राजधानी के प्राकार, गोपुर, अट्टातक, चरिका, तोरण और प्रकीर्ण रूप में स्थित सुन्दर भवन और श्रीगृह संभग्न और 'सरसर' शब्द के साथ धराशायी हो गये। पद्मनाभ का शरण-पद २६३. राजा पद्मनाभ ने अवरकंका राजधानी के प्राकार, गोपुर, अट्टालक, चरिका, तोरण और प्रकीर्ण रूप में स्थित सुन्दर भवन और श्रीगृह को संभग्न और सरसर शब्द के साथ धराशायी हुए देखा। देखकर वह भयभीत हो द्रौपदी देवी की शरण में आ गया। २६४, द्रौपदी देवी ने राजा पद्मनाभ से इस प्रकार कहादेवानुप्रिया ! उत्तम पुरुष कृष्ण वासुदेव का विप्रिय करते हुए और मुझे यहां लाते हुए क्या इसका परिणाम नहीं जानते थे? सैर हुआ सो हुआ। देवानुप्रिय ! तुम जाओ । स्नान कर, गीला पट शाटक और नीचे लटकता हुआ परिधान पहन, अन्तःपुर परिवार से परिवृत हो, प्रधान, प्रवर रत्न ले, मुझे आगे कर, सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर, वासुदेव कृष्ण के चरणों में गिरकर, उनकी शरण में जाओ । देवानुप्रिय ! उत्तम पुरुष शरणागत-वत्सल होते हैं। २६५. द्रौपदी देवी के ऐसा कहने पर राजा पद्मनाभ स्नान कर, गीला पट-शाटक और नीचे लटकता हुआ परिधान पहन, अन्त: पुर परिवार से परिवृत हो, प्रधान प्रवर रत्न ले, द्रौपदी देवी को आगे कर, सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर वासुदेव कृष्ण के चरणों में गिरकर उनकी शरण में चला गया। उनकी शरण स्वीकार कर वह इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय ! मैने तुम्हारी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम देख लिया है। अतः देवानुप्रिय! मैं क्षमायाचना करता हूं। देवानुप्रिय! आप मुझे क्षमा करें। देवानुप्रिय ! आप ही क्षमा कर सकते हैं। मैं पुनः ऐसा नहीं करूंगा यह कहकर उसने प्राञ्जलि-पुट हो चरणों में गिरकर द्रौपदी देवी को कृष्ण वासुदेव के हाथों में सौंप दिया। -- द्रौपदी और पाण्डवों सहित कृष्ण का प्रत्यावर्तन-पद २६६. कृष्ण वासुदेव ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा है भी पद्मनाभ! अप्रार्थित का प्रार्थी! दुरन्त-प्रान्त-लक्षण! हीनपुण्य चातुर्दशिक ! श्री-हीधृति और कीर्ति से शून्य! मेरी बहिन द्रौपदी देवी को यहां लाता हुआ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३४९ भगिणिं दोवइं देविं इहं हव्वमाणेमाणे? तं एवमवि गए नत्थि? ते ममाहिंतो इयाणिं भयमत्थि? त्ति कट्ठ पउमनाभं पडिविसज्जेइ, दोवइं देविं गेण्हइ, गेण्हित्ता रहं दुरुहेइ, दुहित्ता जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचण्हं पंडवाणं दोवइं देविंसाहत्थिं उवणेइ। सोलहवां अध्ययन : सूत्र २६६-२७२ तू क्या इसका परिणाम नहीं जानता था? ऐसा कार्य करते हुए क्या तू डरा नहीं? अब तू मुझसे डर रहा है। ऐसा कहकर उसने पद्मनाभ को प्रतिविसर्जित किया। द्रौपदी देवी को लिया। लेकर रथ पर बैठे। बैठकर जहां पांचों पाण्डव थे, वहां आए। वहां आकर द्रौपदी देवी को पांचों पाण्डवों के हाथों में सौंपा। २६७. तए णं से कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्पछटे छहिं रहेहिं लवणसमुदं मझमजोणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। २६७. कृष्ण वासुदेव ने पांच पाण्डव और छठे स्वयं--छहों के रथों के साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच होते हुए, जहां जम्बूद्वीप द्वीप था और जहां भारतवर्ष था, उधर प्रस्थान किया। वासुदेव-जुयलस्स संखसद्देण मिलण-पदं २६८. तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसडे दीवे पुरथिमद्धे भारहे वासे चंपा नाम नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। वासुदेव युगल का शंख-शब्द से मिलन-पद २६८. उस काल और उस समय धातकीखण्ड द्वीप और पूर्व दिशावर्ती अर्द्ध __ भारतवर्ष में चम्पा नाम की नगरी थी। पूर्णभद्र चैत्य था। २६९. तत्थ णं चंपाए नयरीए कविले नामं वासुदेवे राया होत्था--महताहिमवंतमहंत-मलय-मंदर-महिंदसारे वण्णओ।। २६९. उस चम्पा नगरी में कपिल नाम का वासुदेव राजा था। वह महान हिमालय, महान मलय, मेरु और महेन्द्र पर्वत के समान उन्नत था। वर्णक २७०. तेणं कालेणं तेणं समएणं मुणिसुव्वए अरहा चंपाए पुण्णभद्दे २७०. उस काल और उस समय मुनिसुव्रत अर्हत् चम्पा के पूर्णभद्र चैत्य समोसढे । कविले वासुदेवे धम्म सुणेइ। में समवसृत हुए। कपिल वासुदेव ने धर्म सुना। २७१. तए णं से कविले वासुदेवे मुणिसुब्वयस्स अरहओ अंतिए धम्मं सुणेमाणे कण्हस्स वासुदेवस्स संखसई सुणेइ॥ २७१. कपिल वासुदेव ने अर्हत् मुनिसुव्रत के पास धर्म सुनते हुए कृष्ण वासुदेव के शंख का शब्द सुना। २७२. तए णं तस्स कविलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अज्झथिए २७२. उस कपिल वासुदेव के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--किमण्णे धायइसडे अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ। क्या धातकीखण्ड द्वीप दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे समुप्पण्णे, जस्स णं अयं संखसद्दे भारतवर्ष में दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है? जिसका यह शंख मम पिव मुहवायपूरिए वियंभइ! कविला वासुदेवा भद्दाइ! शब्द ऐसा लगता है, मानो मैंने ही अपने मुखवात से पूरित किया मुणिसुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी--से नूणं कविला हो। वासुदेवा! ममं अंतिए धम्म निसामेमाणस्स ति?) संखसई भद्र कपिल वासुदेव! अर्हत् मुनिसुव्रत ने कपिल वासुदेव से इस आकण्णित्ता इमेयारूवे अझथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे प्रकार कहा--कपिल वासुदेव! मेरे पास धर्म सुनते हुए तेरे मन में शंख समुप्पज्जित्था--किमण्णे घायइसडे दीवे भारहे वासे दोच्चे वासुदेवे का शब्द सुनकर इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, समुप्पण्णे, जस्स णं अयं संखसद्दे ममं पिव मुहवायपूरिए वियंभइ? मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--क्या धातकीखण्ड द्वीप भारतवर्ष में से नूणं कविला वासुदेवा! अढे समढे? दूसरा वासुदेव उत्पन्न हो गया है? जिसका यह शंख शब्द ऐसा लगता हंता! अत्थि । तं नो खलु कविला! एवं भूयं वा भव्वं वा है, मानो मैंने ही अपने मुखवात से पूरित किया हो। भविस्सं वा जण्णं एगखेत्ते एगजुगे एगसमए णं दुवे अरहंता वा कपिल वासुदेव! क्या यह अर्थ समर्थ है? चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उप्पज्जिंस वा उप्पज्जति हां है। वा उप्पज्जिस्संति वा। इसलिए कपिल! ऐसा न कभी हुआ है, न होता है और न होगा ___ एवं खलु वासुदेवा! जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ कि एक क्षेत्र में, एक युग में, एक समय में दो अर्हत, दो चक्रवर्ती, दो हत्यिणाउराओ नयराओ पंडुस्स रण्णो सुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया बलदेव अथवा दो वासुदेव उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं अथवा दोवई देवी तव पउमनाभस्स रण्णो पुव्वसंगइएणं देवेणं अवरकंक उत्पन्न होंगे। Jain Education Intemational Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २७२-२७८ नयरिं साहरिया । तए णं से कण्हे वासुदेवे पंचहिं पंडवेहिं सद्धिं अप्प छहिं रहेहिं अवरकंकं रायहाणिं दोवईए देवीए कूवं हव्वमागए। तए णं तस्स कव्हरस वासुदेवस्त पडमनाभेणं रण्णा सद्धिं संगामं संगामेमाणस्स अयं संखसद्दे तव मुहवायपूरिए इव वियंभ || ३५० २७३. तए णं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं अरहं वंदइ नमसइ, वंदिता नर्मसित्ता एवं वयासी- गच्छामि णं अहं भते! कन्हं वासुदेवं उत्तमपुरिसं सरिसपुरिसं पासामि ।। २७४. तए णं मुणिसुव्वए अरहा कविलं वासुदेवं एवं वयासी--नो खलु देवाणुप्पिया! एवं भूयं वा भव्वं वा भविस्सं वा जपणं अरहंता वा अरहंतं पासंति, चक्कवट्टी वा चक्कवट्टि पासंति, बलदेवा वा बलदेवं पासंति, वासुदेवा वा वासुदेवं पासंति । तहवि य णं तुमं कण्हस्स वासुदेवस्स लवणसमुदं मज्झमज्झेणं वीईवयमाणस्स सेयापीयाइं धयग्गाइं पासिहिसि ।। २७५. तए गं से कविले वासुदेवे मुणिसुव्वयं अरहं वंद, नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता हत्थिबंधं दुरुहइ, दुरुहित्ता सिग्धं तुरियं चवलं चंडं जइणं वेइयं जेणेव वेलाउले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कव्हरस वासुदेवस्स लवणसमुदं मज्मज्मेणं वीईवयमाणस्स सेयापीयाइं धयग्गाइं पासइ, पासित्ता एवं वयइ--एस णं मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कण्हे वासुदेवे लवणसमुद्दं मज्झमज्झेणं वीईवयइ त्ति कट्टु पंचयण्णं संखं परामुसइ, परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ ।। २७६. तए णं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसद्दं आयण्णेइ, आयण्णेत्ता पंचयण्णं संखं परामुसइ, परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ ।। २७७. तए गं दोवि वासुदेवा संस्रसद सामायारिं करेति ।। कविलेण पउमनाभस्स निव्वासण-पदं २७८. तए गं से कविले वासुदेवे जेणेव अवरकंका रायहाणी तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता अवरक रायहाणि संभग्ग-पागारगोउराङ्गालप - चरिय-तोरण- पल्हत्यि-पवरभवण- सिरिधरं सरसरस्स धरणियले सण्णिवइयं पासइ, पासिता पउमनाभं एवं क्यासी- नायाधम्मकहाओ वासुदेव! जम्बूद्वीप द्वीप भारतवर्ष और हस्तिनापुर नगर से, पाण्डु राजा की पुत्रवधू और पांच पाण्डवों की भार्या द्रौपदी देवी का तुम्हारे पद्मनाभ राजा के पूर्वसांगतिक देव ने अवरकंका में संहरण कर लिया। तब कृष्ण वासुदेव पांच पाण्डवों और छठे स्वयं छह रथों के साथ, शीघ्र ही द्रौपदी देवी को लेने के लिए अवरकंका आये हैं। अतः उस पद्मनाभ राजा के साथ संग्राम करते हुए कृष्ण वासुदेव का यह शंख शब्द तुझे ऐसा लगता है, मानो स्वयं तूने ही अपने मुखवात से पूरित किया हो। २७३. कपिल वासुदेव ने अर्हत् मुनिसुव्रत को वन्दना की । नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार कहा - भन्ते मैं जाता हूं और मेरे ही सदृश पुरुष, उत्तम पुरुष कृष्ण वासुदेव को देखता हूँ। २७४. अर्हत् मुनिसुव्रत ने कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा -- देवानुप्रिय ! ऐसा न कभी हुआ है, न होता है और न होगा कि अर्हत् अर्हत् को देखें । चक्रवर्ती चक्रवर्ती को देखें। बलदेव बलदेव को देखें । वासुदेव वासुदेव को देखें । तथापि तू लवण समुद्र के बीचोंबीच गुजरते हुए कृष्ण वासुदेव की श्वेत-पीत ध्वजाओं के अग्र भाग को देख सकेगा। २७५. कपिल वासुदेव ने अर्हत् मुनिसुव्रत को वन्दना की। नमस्कार किया । वन्दना - नमस्कार कर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हुआ। आरूढ़ हो कर शीघ्र, त्वरित, चपल, चण्ड, जयी और वेगपूर्ण गति से जहां समुद्र तट था वहां आया। आकर लवणसमुद्र के बीचोंबीच गुजरते हुए कृष्ण वासुदेव की श्वेत-पीत ध्वजाओं के अग्रभाग को देखा। जजाओं के अग्रभाग को देखकर वह इस प्रकार बोला ये मेरे सदृश पुरुष, उत्तम पुरुष वासुदेव कृष्ण लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जा रहे हैं-- यह कहकर उसने अपना पाञ्चजन्य शंख उठाया। उठाकर मुखवात से पूरित किया। २७६. कृष्ण वासुदेव ने कपिल वासुदेव के शंख का शब्द सुना । सुनकर उन्होंने भी अपना पांचजन्य शंख उठाया और मुखवात से पूरि २७७. तब दोनों ही वासुदेवों ने शंखध्वनि समाचारी की । कपिल द्वारा पद्मनाभ का निर्वासन पद २७८. कपिल वासुदेव जहां अवरकंका राजधानी थी, वहां आया। वहां आकर उसने अवरकका राजधानी के प्राकार, गोपुर, अट्टालक, चरिका, तोरण, प्रकीर्ण रूप में स्थित सुन्दर भवन और श्रीगृह को संभग्न और सरसर शब्द के साथ धराशायी हुआ देखा। देखकर Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३५१ किण्णं देवाणुप्पिया! एसा अवरकका रायहाणी संभग्ग-पागारगोउराट्टालय-चरिय-तोरण-पल्हत्थिय पवरभवण-सिरिधरा सरसरस्स धरणियले सण्णिवइया? सोलहवां अध्ययन : सूत्र २७८-२८३ पद्मनाभ से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय! अवरकका राजधानी के प्राकार, गोपुर, अट्टालक, चरिका, तोरण, प्रकीर्ण रूप में स्थित सुन्दर भवन और श्रीगृह कैसे संभग्न हो गये और कैसे सरसर शब्द करते हुए धराशायी हो गये? २७९. तए णं से पउमनाभे कविलं वासुदेवं एवं वयासी--एवं खलु सामी! जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हव्वमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुम्भे परिभूय अवरकंका रायहाणी संभग्गगोउराट्टालय-चरिय-तोरण-पल्हत्थिय-पवरभवण-सिरिघरा सरसरस्स धरणियले सण्णिवाडिया ।। २७९. पद्मनाभ ने कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा--स्वामिन् जम्बूद्वीप द्वीप भारतवर्ष से शीघ्र यहां आकर कृष्ण वासुदेव ने तुम्हारा पराभव किया है। उसने अवरकंका राजधानी के गोपुर, अट्टालक, चरिका, तोरण और प्रकीर्ण रूप में स्थित सुन्दर भवन और श्रीगृह को संभग्न और सरसर शब्द के साथ धराशायी बना दिया। २८०. तए णं से कविले वासुदेवे पउमनाभस्स अंतिए एयमढे सोच्चा पउमनाभं एवं वयासी--हंभो पउमनाभा! अपत्थियपत्थिया! दुरंतपंतलक्खणा! हीणपुण्णचाउद्दसा! सिरि-हिरि-धिइ-कित्तिपरिवज्जिया! किण्णं तुमंन जाणसि मम सरिसपुरिसस्स कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे?--आसुरुत्ते रुढे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहटु पउमनाभं निव्विसयं आणवेइ, पउमनाभस्स पुत्तं अवरकंकाए रायहाणीए महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ, अभिसिंचित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। २८०. पद्मनाभ से यह अर्थ सुनकर कपिल वासुदेव ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा--हंभो, पद्मनाभ! अप्रार्थित का प्रार्थी! दुरन्त-प्रान्त-लक्षण! हीन पुण्य चातुर्दशिक श्री-ही-धृति और कीर्ति से शून्य! मेरे ही सदृश पुरुष कृष्ण वासुदेव का विप्रिय करता हुआ तू उसका परिणाम नहीं जानता? वह क्रोध से तमतमा उठा और रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलते हुए त्रिवली युक्त भृकुटी को ललाट पर चढ़ाते हुए उसने पद्मनाभ को देश छोड़कर चले जाने की आज्ञा दी, और पद्मनाभ के पुत्र को अवरकका राजधानी के महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषिक्त कर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। अपरिक्खणीयपरिक्खा-पदं २८१. तए णं से कण्हे वासुदेवे लवणसमुदं मज्झमज्झेणं वीईवयमाणे-वीईवयमाणे गंगं उवागए (उवागम्म?) ते पंच पंडवे एवं वयासी--गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! गंगं महानइं उत्तरह जाव ताव अहं सुट्ठियं लवणाहिवइं पासामि ।। अपरीक्षणीय का परीक्षा-पद २८१. लवणसमुद्र के बीचोंबीच चलते-चलते कृष्ण वासुदेव गंगा नदी के समीप आए। (वहां आकर?) वे उन पांचों पाण्डवों से इस प्रकार बोले--देवानुप्रियो! तुम जाओ, महानदी गंगा को पार करो। इतने में मैं लवणाधिपति सुस्थित देव से मिलता हूं। २८२. तए णं ते पंच पंडवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एगट्ठियाए मग्गण-गवेसणं करेंति, करेत्ता एगट्ठियाए गंगं महानई उत्तरंति, उत्तरित्ता अण्णमण्णं एवं वयंति--पहू णं देवाणुप्पिया! कण्हे वासुदेवे गंगं महानई बाहाहिं उत्तरित्तए, उदाहू नो पहू उत्तरित्तए? त्ति कटु एगट्ठियं णूमेंति, णूमेत्ता कण्हं वासुदेवं पडिवालेमाणापडिवालेमाणा चिट्ठति॥ २८२. कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर वे पांचों पाण्डव, जहां महानदी गंगा थी, वहां आए। वहां आकर नौका की खोज की। खोज कर नौका से महानदी गंगा को पार किया। पार कर परस्पर इस प्रकार बोले--देवानुप्रियो! कृष्ण वासुदेव महानदी गंगा को भुजाओं से तैरने में समर्थ हैं अथवा समर्थ नहीं हैं? यह देखने के लिए उन्होंने नौका को छिपा दिया। छिपाकर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करने लगे। २८३. तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्टियं लवणाहिवई पासइ, पासित्ता जणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एगट्ठियाए सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेइ, करेत्ता एगट्ठियं अपासमाणे एगाए बाहाए रहं सतुरगं ससारहिं गेण्हइ, एगाए बाहाए गंगं महानई बासढिं जोयणाई अद्धजोयणं च वित्थिण्णं उत्तरित्रं पयत्ते यावि होत्था॥ २८३. कृष्ण वासुदेव लवणाधिपति सुस्थित देव से मिले। उसके पश्चात् जहां महानदी गंगा थी वहां आए। वहां आकर चारों ओर नौका की खोज की। नौका नहीं मिली तो एक भुजा पर घोड़ों और सारथी सहित रथ को लिया और एक भुजा से साढ़े बासठ योजन विस्तीर्ण महानदी गंगा को तैरने लगे। Jain Education Intemational Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन सूत्र २८४-२८९ २८४, तए गं से कहे वासुदेवे गंगाए महानईए बहुमज्झदेसभाए संपत्ते समाणे संते तंते परितंते बद्धसेए जाए यावि होत्था ।। २८५. तए णं तस्स कण्हस्स वासुदेवस्त इमेवारूवे अथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था -- अहो णं पंच पंडवा महाबलवगा जेहिं गंगा महानई वासद्धिं जोयणाई अद्धजोवणं च वित्पिण्णा बाहाहिं उत्तिण्णा । इच्छंतएहिं णं पंचहिं पंहहिं पउमनाभे हय-महिय पवरवीरघाइय-विवडियचिंध-धय-पडागे किच्छोवगयपाणे दिसोदिसिं नो पडिसेहिए ।। २८६. नए णं गंगादेवी कण्हल्स वासुदेवस्स इमं एपारूवं अज्मत्थियं चिंतियं पत्थियं मणोगयं संकष्पं जाणित्ता याहं वियर ।। २८७. तए णं से कहे वासुदेवे मुहुत्ततरं समासाद, समासासेत्ता गंगं महानदिं बासहिं जोयणाई अद्धजोयणं च वित्पिण्णं बाहाए उत्तरइ, उत्तरित्ता जेणेव पंच पंडवा तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता पंच पंडवे एवं क्यासी अहो णं तुम्भे देवाणुप्पिया! महाबलवगा, जेहिं णं तुम्भेहिं गंगा महानई वासद्धिं जोयणाई अद्धजोयणं च वित्थिण्णा बाहाहिं उत्तिण्णा । इच्छंतएहिं णं तुब्भेहिं पउमनाहे हय-महिय पवरवीर घाइय-विवडियसिंघ धय-पडागे किच्छोवगयपाणे दिसोदिसिं नो पडिसेहिए ।। ३५२ - २८८. तए गं ते पंच पंढवा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वृत्ता समाणा कण्हं वासुदेवं एवं क्यासी एवं खलु देवाणुपिया! अम्हे तुम्बेहिं विसज्जिया समाणा जेणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छामो, उवागच्छित्ता एमट्टियाए मगन गवेसणं करेमो, करेत्ता एगट्टियाए गंगं महान उत्तरेमो, उत्तरेत्ता अण्णमण्णं एवं क्यामो पहू णं देवाणुप्पिया! कण्हे वासुदेवे गंगं महानहं बाहाहिं उत्तरित्तए, उदाहु नो पहू उत्तरित्तए ? त्ति कट्टु एमट्टियं भूमेमो, तुम्भे पडिवालेमाणा चिट्ठामो ।। कण्हेण पंडवाणं निव्वासण-पदं २८९. तए णं से कण्हे वासुदेवे तेसिं पंच पंडवाणं एयमट्ठे सोच्चा निसम्म आसुरुते रुट्ठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं महिं निाले साह एवं क्यासी- अहो णं जया मए लवणसमुदं दुवे जोयणसयसहस्सवित्यिण्णं वीईवइत्ता पउमनाभं हय-महियपवरवीर घाइय-विवडियचिंध-धय-पडागं किच्छोवगयपाणं दिसोदिसिं पडिसेहित्ता अवरकंका संभग्गा, दोवई साहित्पिं उवणीया, तया णं तुभेहिं मम महाप्पं न विण्णायं, इयाणिं जाणिस्सह ति नायाधम्मकहाओ २८४. जब कृष्ण वासुदेव महानदी गंगा के ठीक मध्यभाग तक पहुंचे तब वे श्रान्त, क्लान्त और परिक्लान्त हो गये। उनके शरीर से पसीना बहने लगा । २८५. कृष्ण वासुदेव के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ अह पांचों पाण्डव महाबलिष्ठ हैं, जिन्होंने साढे बासठ योजन विस्तीर्ण महानदी गंगा को भुजाओं से पार कर दिया। लगता है पांचों पाण्डवों ने इच्छापूर्वक राजा पद्मनाभ को हत मथित कर उसके प्रवर वीरो को यमधाम पहुंचा, सेना के चिह्न-ध्वजाओं और पताकाओं को गिरा, उसके प्राण संकट में डाल, सब दिशाओं से उसके प्रहारों को विफल नहीं किया। २८६. कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार के आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प को जानकर गंगादेवी ने उन्हें थाह दे दिया । २८७. वे कृष्ण-वासुदेव वहां मुहूर्त भर आश्वस्त हुए। आश्वस्त होकर साढे बासठ योजन विस्तीर्ण महानदी गंगा को पार किया। पार कर, जहां पांचों पाण्डव थे वहां आए। वहां आकर, पांचों पाण्डवों से इस प्रकार कहा - अहो देवानुप्रियो! तुम तो महाबलिष्ठ हो, जिन्होंने साढ़े बासठ योजन विस्तीर्ण महानदी गंगा को भुजाओं से पार कर दिया। लगता है तुम लोगों ने इच्छापूर्वक पद्मनाभ को हत-मधित कर उसके प्रवर वीरों को यमधाम पहुंचा, सेना के चिह्न-ध्वजाओं और पताकाओं को गिरा, उसके प्राण संकट में डाल, सब दिशाओं से उसके प्रहारों को विफल नहीं किया। २८८. कृष्ण वासुदेव के ऐसा कहने पर वे पांचों पाण्डव कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोले- देवानुप्रिय! तुम से विसर्जित होकर हम जहां महानदी गंगा थी, वहां आए। वहां आकर हमने नौका की खोज की। खोज कर नौका से महानदी गंगा को पार किया। पारकर परस्पर इस प्रकार बोले--देवानुप्रियो ! कृष्ण वासुदेव महानदी गंगा को भुजाओं से तैरने में समर्थ हैं अथवा समर्थ नहीं है? यह देखने के लिए हमने नौका को छिपा दिया छिपाकर तुम्हारी प्रतीक्षा करने लगे। 1 कृष्ण द्वारा पाण्डवों का निर्वासन पद २८९. उन पांचों पाण्डवों से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर कृष्ण वासुदेव क्रोध से तमतमा उठे। वे रुष्ट, कुपित, रौद्र और क्रोध से जलते हुए, त्रिवली युक्त भृकुटि को ललाट पर चढ़ा कर इस प्रकार बोले अहो! जब मैंने दो लाख योजन विस्तीर्ण लवणसमुद्र को लांघकर राजा पद्मनाभ को हत मथित कर उसके प्रवर वीरों को यमधाम पहुंचा, सेना के चिह्न ध्वजाओं और पताकाओं को गिरा, उसके प्राण संकट में डाल, सब दिशाओं से उसके प्रहारों को विफल किया, Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३५३ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २८९-२९७ कटु लोहदंडं परामुसइ, पंचण्हं पंडवाणं रहे सुसूरेइ, सुसूरेत्ता अवरकंका राजधानी को संभग्न किया और द्रौपदी को हाथों हाथ प्राप्त (पंच पंडवे?) निव्विसए आणवेइ, तत्थ णं रहमद्दणे नामं कोटे किया। उस समय तुमने मेरा माहात्म्य नहीं जाना, उसे अब जानोगे? निविटे। (पांचों पांडवों को?) यह कह कर उन्होंने लोहदण्ड उठाया, पांचों पाण्डवों के रथों को चूर-चूर कर दिया, चूर-चूरकर उन्हें देश छोड़कर चले जाने की आज्ञा दी। वहां रथमर्दन नाम का स्मारक बसाया गया। २९०. तएणं से कण्हे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे तेणेव उपागच्छइ, उवागच्छित्ता सएणं खंधावारेणं सद्धिं अभिसमण्णागए यावि होत्था। २९०. कृष्ण वासुदेव जहां उनका अपना स्कन्धावार था, वहां आये। वहां आकर वे अपने स्कन्धावार के साथ हो गये। २९१. तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव बारवई नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता (सयं भवणं?) अणुप्पविसइ । २९१. कृष्ण वासुदेव! जहां द्वारवती नगरी थी, वहां आये। वहां आकर (अपने भवन में?) प्रवेश किया। २९२. तए णं ते पंच पंडवा जेणेव हत्थिणाउरे नयरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता जेणेव पंडू राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवं खलु ताओ! अम्हे कण्हेणं निव्विसया आणत्ता। २९२. वे पांचों पाण्डव जहां हस्तिनापुर नगर था, वहां आये। वहां आकर जहां पाण्डु राजा था, वहां आये। वहां आकर सटे हुए नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोले--तात! कृष्ण ने हमें देश छोड़कर चले जाने की आज्ञा दी। २९३. तए णं पंडू राया ते पंच पंडवे एवं वयासी--कहणं पुत्ता! तुब्भे कण्हेणं वासुदेवेणं निव्विसया आणत्ता? २९३. पाण्डु राजा ने उन पांचों पाण्डवों से इस प्रकार कहा--पुत्रो! कृष्ण वासुदेव ने तुम्हें निर्वासन का आदेश क्यों दिया? २९४. तए णं ते पंच पंडवा पंडं रायं एवं वयासी--एवं खलु ताओ! अम्हे अवरकंकाओ पडिनियत्ता लवणसमुदं दोणि जोयणसयसहस्साई वीईवइत्था । तए णं से कण्हे वासुदेवे अम्हे एवं वयइ-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! गंगं महानइं उत्तरह जाव ताव अहं सुट्ठियं लवणाहिवई पासामि, एवं तहेव जाव। चिट्ठामो॥ २९४. पांचों पाण्डव पाण्डु राजा से इस प्रकार बोले--तात! अवरकंका से लौटते हुए हमने दो लाख योजन परिमित लवण समुद्र को पार किया। तब कृष्ण वासुदेव ने हमें इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ। महानदी गंगा को पार करो इतने में मैं लवणाधिपति सुस्थित से मिलता हूं। उसी प्रकार यावत् हम कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करने लगे। २९५. तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं लवणाहिवई दठूण जेणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छइ, तं चेवं सव्वं नवरं कण्हस्स चिंता न बुज्झइ जाव निव्विसए आणवेइ ।। २९५. वे कृष्ण वासुदेव लवणाधिपति सुस्थित से मिलकर जहां महानदी गंगा थी वहां आये। वही सारी वक्तव्यता, इतना विशेष है कि कृष्ण की चिन्ता शान्त नहीं हुई यावत् वासुदेव कृष्ण ने पांचों पांडवों को देश छोड़कर चले जाने की आज्ञा दी। पिता २९६. तए णं से पंडू राया ते पंच पंडवे एवं वयासी--दुछु णं पुत्ता! कयं कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणेहिं।। २९६. पाण्डु राजा ने उन पांचों पाण्डवों से इस प्रकार कहा--पुत्रो! कृष्ण वासुदेव का विप्रिय करते हुए तुमने बहुत बुरा किया। २९७. तए णं से पंडू राया कोंतिं देविं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिए! बारवई नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एवं निवेएहि--एवं खलु देवाणुप्पिया! तुमे पंच पंडवा निव्विसया आणत्ता। तुमं च णं देवाणुप्पिया! दाहिणभरहस्स सामी। तं संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! ते पंच पंडवा कयरं देसं वा दिसं वा विदिसं वा गच्छंतु। २९७. उस पाण्डु राजा ने कुन्ती देवी को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार ___ कहा--देवानुप्रिये! तुम द्वारवती नगरी जाओ और वहां कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार निवदेन करो--देवानुप्रिय! तुमने पांचों पाण्डवों को देश छोड़कर चले जाने की आज्ञा दी, किन्तु देवानुप्रिय! पूरे दक्षिणार्द्धभरत के स्वामी तुम हो। अत: देवानुप्रिय! तुम्हीं कहो वे पांचों पाण्डव किस देश, किस दिशा और किस विदिशा में जाएं? Jain Education Intemational Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन सूत्र २९८-३०६ २९८. तए णं सा कोंती पंडुणा एवं वुत्ता समाणी हत्थिखंधं दुरुहइ, जहा हेट्ठा जाव सदिसंतु णं परिच्छा! किमागमणपजोषण? २९९. तए साकोली देवी कण्हं वासुदेवं एवं क्यासी एवं खलु तुमेता पंचपंडवानिव्विसया आणत्ता तुमं च णं दाहिणभरहस्स सामी । तं संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! ते पंच पंडवा कयरं देसं वा दिसं वा विदिसं वा गच्छंतु ? ३००. तए णं से कण्हे वासुदेवे कोंतिं एवं वयासी--अपूइवयणा गं पिउच्छा! उत्तमपुरिसा वासुदेवा बलदेवा चक्कवट्टी । तं गच्छंतु णं पंच पंडवा दाहिणितं वैवातिं तत्य पंडुमहुरं निवेसंतु, ममं अदिट्ठसेवगा भवंतु त्ति कट्टु कोंतिं देविं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ ।। ३५४ ३०१ लए गं सा करेंती देवी जेणेव हरियणाउरे नयरे तेगेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता पंडुस्स एयमहं निवेएइ ।। ३०२. तए णं पंडू राया पंच पंडवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी -- गच्छह णं तुब्भे पुत्ता! दाहिणिल्लं वेयालिं । तत्य णं तुन्भे पंडुमहुरं निवेसेह ।। पंडुमहुरा-निवेसण-पदं ३०३. तए णं ते पंच पंडवा पंडुस्स रण्णो एयम तहलि पडिसुणेति, परिसुणेत्ता सबलवाहणा हय-गय-रह-पवरजोहलियाए चाउरंगिणीए सेनाए सद्धिं संपरिवुडा महयाभह चडगररह पहकर - विंदपरिक्खित्ता हत्यिणाउराज पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता जेणेव दक्खिणिल्ले वेयाली तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पंडुमडुरं नगरं निवेशति । तत्यवि णं ते विपुलभोगसमिति समण्णागया यावि होत्या ।। - पंडुसेण- जम्मपदं ३०४. तए णं सा दोवई देवी अण्णया कयाइ आवण्णसत्ता जाया यावि होत्या ।। ३०५. तए गं सा दोवई देवी नवण्डं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया -- सुमालकोमलयं गयतालुयसमाणं ।। ३०६. तए णं तस्स णं दारगस्स निव्वत्तबारसाहस्स अम्मापियरो इमं नायाधम्मकाओ २९८. पाण्डु राजा के ऐसा कहने पर वह कुन्ती हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हुई। पूर्ववत् वर्णन, यावत् (कृष्ण कहते हैं) कहो बुआजी! किस प्रयोजन से आगमन हुआ है ? २९९. कुन्ती देवी ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा -पुत्र! तुमने पांचों पाण्डवों को देश छोड़कर चले जाने की आज्ञा दी, किन्तु देवानुप्रिय ! पूरे दक्षिणार्द्धभरत के स्वामी तुम हो। अतः देवानुप्रिय ! तुम्ही कहो वे पांचों पाण्डव किस देश, किस दिशा और किस विदिशा में जाएं। ३००. कृष्ण वासुदेव ने कुन्ती देवी से इस प्रकार कहा -- बुआजी ! उत्तम पुरुष बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती अपूतिवचन होते हैं- (उनका वचन परिवर्तनीय नहीं होता) । इसलिए पांचों पाण्डव जाएं। सागर के दक्षिण तट पर पाण्डु मथुरा का निर्माण करें और वहां मेरे अदृष्ट सेवक बन रहें- यह कहकर उन्होंने कुन्ती देवी को सत्कृत किया। सम्मानित किया। सत्कृत- सम्मानित कर प्रतिविसर्जित किया। ३०१. वह कुन्ती देवी जहां हस्तिनापुर नगर था, वहां आयी । आकर उसने पाण्डुराजा को यह अर्थ निवेदित किया। ३०२. पाण्डुराजा ने पांचों पाण्डवों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--पुत्रो! तुम सागर के दक्षिणी तट पर जाओ। वहां पाण्डु-मथुरा का निर्माण करो । पाण्डु-मथुरा का स्थापना - पद ३०३. उन पांचों पाण्डवों ने पाण्डु राजा के इस अर्थ को 'तथास्तु' कहकर स्वीकार किया। स्वीकार कर बल, वाहन सहित वे अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चातुरगिणी सेना के साथ उससे परिवृत्त हो महान सैनिकों की विभिन्न टुकड़ियों, रथों और पथदर्शक पुरुषों के समूह से घिरे हुए हस्तिनापुर नगर से निकले निकलकर जहां सागर का दक्षिणी तट था, वहां आए। वहां आकर पाण्डु मथुरा नगरी का निर्माण किया। वहां वे विपुल भोग समिति से अभिसमन्वागत होकर रहने लगे। 1 पाण्डुसेन का जन्म - पद ३०४. किसी समय द्रौपदी देवी आपन्नसत्त्वा ( गर्भवती ) हुई। ३०५. नौ मास पूरे होने पर द्रौपदी देवी ने यावत् एक सुरूप बालकको म दिया। वह सुकुमार और गजतालु के समान कोमल था। ३०६. जब वह बालक बारह दिन का हुआ तब माता पिता ने उसका यह Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ नायाधम्मकहाओ एयारूवं गोण्णं गुणनिप्फण्णं नामधेज्जं करेंति । जम्हा णं अम्हं एस दारए पंचण्हं पंडवाणं पुत्ते दोवईए देवीए अत्तए, तं होउ णं इमस्स दारगस्स नामधेज्जं पंडुसेणे-पंडुसेणे।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र ३०६-३१५ गुणानुरूप, गुणनिष्पन्न नाम रखा--क्योंकि हमारा यह बालक पांच पाण्डवों का पुत्र और द्रौपदी देवी का आत्मज है, अत: हमारे इस बालक का नाम पाण्डुसेन हो! पाण्डुसेन! ३०७. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति पुंडुसेणत्ति॥ ३०७. इस प्रकार माता-पिता ने उस बालक का नाम पाण्डुसेन रखा। ३०८. तए णं तं पंडुसेणं दारयं अम्मापियरो साइरेगट्ठवासजायगं चेव सोहणसि तिहि-करण-मुहुर्तसि कलायरियस्स उवणेति ।। ३०८. जब बालक पाण्डुसेन कुछ अधिक आठ वर्ष का हुआ तब माता-पिता ____ शुभ तिथि, करण और मुहूर्त में उसे कलाचार्य के पास ले गये। ३०९. तए णं से कलायरिए पंडुसेणं कुमारं लेहाइयाओ गणियप्पहा- णाओ सउणल्यपज्जवसाणाओ बावत्तरिंकलाओ सत्तओय अत्थओ य करणओ य सेहावेइ सिक्खावेइ जाव अलंभोगसमत्थे जाए। जुवराया जाव विहरइ॥ ३०९. कलाचार्य ने पाण्डुसेन कुमार को लिपि-विज्ञान, गणित प्रधान से लेकर शकुन रुत पर्यन्त बहत्तर कलाएं, सूत्र, अर्थ और क्रियात्मक रूप से पढायी और उनका अभ्यास करवाया यावत् वह पूर्ण भोग समर्थ हुआ यावत् वह युवराज बनकर विहार करने लगा। पंडवाणं दोवईए य पव्वज्जा-पदं ३१०. थेरा समोसढा । परिसा निग्गया। पंडवा निग्गया। धम्मं सोच्चा एवं वयासी--जं नवरं-देवाणुप्पिया! दोवई देविं आपच्छाओ। पंडुसेणं च कुमारं रज्जे ठावेमो। तओ पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वयामो। अहासुहं देवाणुप्पिया! पाण्डवों और द्रौपदी का प्रव्रज्या-पद ३१०. स्थविर समवसृत हुए। जन-समूह ने निर्गमन किया। पाण्डवों ने भी निर्गमन किया। धर्म सुनकर पाण्डवों ने इस प्रकार कहा--विशेष--देवानुप्रिय! हम द्रौपदी देवी से पूछते हैं। पाण्डुसेन कुमार को राज्य पर स्थापित करते हैं। उसके पश्चात् देवानुप्रिय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होंगे। जैसा सुख हो देवानुप्रियो । ३११. तए णं ते पंच पंडवा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता दोवई देविं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिए! अम्हेहिं राणं अंतिए धम्मे निसंते जाव पव्वयामो। तुम णं देवाणुप्पिए! किं करेसि? ३११. वे पांचों पाण्डव जहां उनका अपना प्रासाद था वहां आये। वहां आकर द्रौपदी देवी को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये हमने स्थविरों से धर्म सुना है यावत् हम प्रव्रजित होते हैं। देवानुप्रिये तुम क्या करोगी? ३१२. तए णं सा दोवई ते पंच पंडवे एवं वयासी--जइ गं तुन्भे देवाणुप्पिया! संसारभउब्विग्गा जाव पव्वयह, मम के अण्णे आलबे वा आहारे वा पडिबंधे वा भविस्सइ? अहं पि य णं संसारभउव्विग्गा देवाणुप्पिएहिं सद्धिं पव्वइस्सामि ।। ३१२. द्रौपदी देवी ने उन पांचों पाण्डवों से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो यदि तुम संसार के भय से उद्विग्न हो यावत् प्रव्रजित होते हो तो मेरे लिए दूसरा कौन आलम्बन, आधार अथवा प्रतिबन्ध होगा। मैं भी संसार के भय से उद्विग्न हूं और देवानुप्रियो के साथ प्रव्रजित होऊंगी। ३१३. तए णं ते पंच पंडवा कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! पंडुसेणस्स कुमारस्स महत्यं महग्धं महरिहं विउलंरायाभिसेहं उवट्ठवेह । पंडुसेणस्स अभिसेओ जाव राया जाए जाव रज्जं पसाहेमाणे विहरइ। ३१३. पांचों पाण्डवों ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही पाण्डुसेन कुमार के लिए महान अर्थवान् महामूल्यवान और महान अर्हता वाले विपुल राज्याभिषेक की उपस्थापना करो। पाण्डुसेन का अभिषेक किया यावत् वह राजा बन गया यावत् वह राज्य का प्रशासन करता हुआ विहार करने लगा। ३१४. तए णं ते पंच पंडवा दोवई य देवी अण्णया कयाइ पंडुसेणं रायाणं आपुच्छति॥ ३१४. किसी समय पांचों पाण्डव और द्रौपदी देवी ने राजा पाण्डुसेन से प्रव्रजित होने के लिए पूछा। ३१५. तए णं से पंडुसेणे राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं ३१५. राजा पाण्डुसेन ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस Jain Education Intemational Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ सोलहवां अध्ययन : सूत्र ३१५-३२० ३५६ वयासी--खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया! निक्खमणाभिसेयं करेह जाव पुरिससहस्सवाहिणीओ सिवियाओ उवट्ठवेह जाव सिवियाओ पच्चोरुहति, जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थेरं भगवंतं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, करेत्ता वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--आलित्ते णं भंते! लोए जाव समणा जाया, चोदस्स पुव्वाइं अहिज्जति, अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावमाणा विहरंति ॥ प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही निष्क्रमण अभिषेक करो यावत् हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका उपस्थित करो यावत् वे शिविकाओं से उतरे। जहां स्थविर भगवान थे वहां आये। आकर स्थविर भगवान को तीन बार दांयी ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार बोले--भन्ते! यह लोक जल रहा है यावत् वे श्रमण बन गये। उन्होंने चौदह पूर्वो का अध्ययन किया। अध्ययन कर बहुत वर्षों तक षष्ठ-भक्त, अष्टम-भक्त, दशम-भक्त, द्वादश-भक्त तथा मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। ३१६. तए णं सा दोवई देवी सीयाओ पच्चोकहइ जाव पव्वइया। सुव्वयाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए दलयंति, एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूणि वासाणि छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसे हिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ।। ३१६. वह द्रौपदी देवी शिविका से उतरी यावत् प्रव्रजित हो गई। उसे आर्या सुव्रता को शिष्या के रूप में प्रदान किया। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन कर बहुत वर्षों तक षष्ठ-भक्त, अष्टम-भक्त, दशम-भक्त, द्वादश-भक्त तथा मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को भावित करती हुई विहार करने लगी। ३१७. तए णं ते थेरा भगवंतो अण्णया कयाइ पंडुमहुराओ नयरीओ सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरति॥ ३१७. किसी समय उन स्थविर भगवान ने पाण्डु-मथुरा नगरी के सहस्राम्रवन उद्यान से अभिनिष्क्रमण किया। अभिनिष्क्रमण कर वे बाहर जनपद विहार करने लगे। अरिटुनेमिस्स निव्वाण-पदं ३१८. तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिटुनेमी जेणेव सुद्धाजणवए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुद्धाजणवयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।। अरिष्टनेमि का निर्वाण-पद ३१८. उस काल और उस समय अर्हत् अरिष्टनेमि जहां सौराष्ट्र-जनपद था, वहां आए। वहां आकर सौराष्ट्र-जनपद में संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। ३१९. तए णं बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ, भासइ पण्णवेइ परूवेइ--एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहा अरिटुनेमी सुद्धाजणवए संजमेणं तवसा अपणाणं भावेमाणे विहर।। ३१९. जन-समूह परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपणा करने लगा--देवानुप्रियो! अर्हत् अरिष्टनेमि सौराष्ट्र-जनपद में संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। ३२०. तए णं ते जुहिट्ठिलपामोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमढे सोच्चा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहा अरिटुनेमी पुवाणुपुब्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाण सुरद्वाजणवए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तं सेयं खलु अम्हं (थेरे भगवते?) आपुच्छित्ता अरहं अरिट्ठनेमिं वंदणाए गमित्तए, अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव थेरा भगवतो तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता थेरे भगवते वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी--इच्छामो णं तुम्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणा अरहं अरिटुनेमिं वंदणाए गमित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! ३२०. जन-समूह से यह अर्थ सुनकर, युधिष्ठिर प्रमुख उन पांचों अनगारों ने एक दूसरे को बुलाया, बुलाकर परस्पर इस प्रकार बोले-- देवानुप्रियो! अर्हत् अरिष्टनेमि क्रमश: संचार करते हुए, एक गांव से दूसरे गांव घूमते हुए और सुखपूर्वक विहार करते हुए, सौराष्ट्र-जनपद में संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। देवानुप्रियो! हमारे लिए उचित है हम (स्थविर भगवान से?) अनुज्ञा लेकर अर्हत् अरिष्टनेमि को वन्दना करने चलें। उन्होंने परस्पर इस अर्थ को स्वीकार किया, स्वीकार कर जहां स्थविर भगवान थे वहां आये। स्थविर भगवान को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार बोले--हम चाहते हैं आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर अर्हत् अरिष्टनेमि को वन्दना करने के लिए जाएं। जैसा सुख हो, देवानुप्रियो! dain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३५७ ३२१. तए णंते जुहिट्ठिलपामोक्खा पंच अणगारा थेरेहिं अब्भणुण्णाया समाणा थेरे भगवते वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव हत्थकप्पेनयरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता हत्थकप्पस्स बहिया सहस्संबवणे उज्जाणे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति ।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र ३२१-३२४ ३२१. स्थविरों से अनुज्ञा प्राप्त कर युधिष्ठिर प्रमुख उन पांचों अनगारों ने स्थविर भगवान को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर वे स्थविर भगवान के पास से निकले। निकलकर निरन्तर मास-मास के तप:कर्म पूर्वक एक गांव से दूसरे गांव घूमते हुए और सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां हस्तकल्प' नगर था वहां आये। वहां आकर हस्तकल्प नगर के बाहर सहस्राम्रवन उद्यान में संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। ३२२. तए णं ते जुहिट्ठिलवज्जा चत्तारि अणगारा मासक्खमण- पारणए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेंति, बीयाए झाणं झायंति एवं जहा गोयमसामी, नवरं--जुहिट्ठिलं आपुच्छति जाव अडमाणा बहुजणसई निसामेंति एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहा अरिहनेमी उज्जंतसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तीसेहि अणगारसएहिं सद्धिं कालगए सिद्धे बुद्धे मुत्ते अंतगडे परिनिबुडे सव्वदुक्खप्पहीणे॥ ३२२. युधिष्ठिर के अतिरिक्त वे चारों अनगार मासखमण के पारणक के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते, द्वितीय प्रहर में ध्यान करते। इसी प्रकार गौतम स्वामी की भांति, विशेष--युधिष्ठिर को पूछते यावत् अटन करते हुए उन्होंने जन-समूह का शब्द सुना। देवानुप्रियो! अर्हत् अरिष्टनेमि उज्जयन्त पर्वत के शिखर पर निर्जल मासिक अनशन-पूर्वक पांच सौ छत्तीस अनगारों के साथ काल-धर्म को प्राप्त हो, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वत हो समस्त दु:खों का अन्त करने वाले हुए हैं। पंडवाणं निव्वाण-पदं ३२३. तए णं ते जुहिट्ठिलवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोच्चा निसम्म हत्थकप्पाओ नयराओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे जेणेव जहिट्ठिले अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पच्चुवेक्खंति पच्चुवेक्खित्ता गमणागमणस्स पडिक्कमंति, पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं आलोएति, आलोएत्ता भत्तपाणं पडिसेंति, पडिदसेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! अरहा अरिहनेमी उज्जंतसेलसिहरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तीसेहिं अणगारसएहिं सद्धिं कालगए। तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! इम पुष्वगहियं भत्तपाणंपरिटुक्ता सेत्तुज्जंपव्वयंसणियं-सणियं दुहित्तए, संलेहणा-झूसणा-झोसियाणं कालं अणवेक्खमाणाणं विहरित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमद्वं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता तं पुव्वगहियं भत्तपाणं एगते परिवेति, परिद्धवेत्ता जेणेव सेत्तुज्जे पव्वए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सेत्तुज्ज पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहंति, दुरुहित्ता संलेहणा-झूसणा-झोसिया कालं अणवकंखमाणा विहरति ।। पाण्डवों का निर्वाण-पद ३२३. युधिष्ठिर के अतिरिक्त उन चारों अनगारों ने जन-समूह का शब्द सुनकर, अवधारण कर, हस्तकल्प नगर से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर जहां सहस्राम्रवन उद्यान था, जहां अनगार युधिष्ठिर थे वहां आये। वहां आकर भक्त-पान का निरीक्षण करवाया। निरीक्षण करवाकर गमनागमन का प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण कर एषणा-अनेषणा सम्बन्धी आलोचना की। आलोचना कर भक्तपान को मुनि युधिष्ठिर के समक्ष प्रस्तुत किया। प्रस्तुत कर निवेदन किया--देवानुप्रिय! अर्हत् अरिष्टनेमि उज्जयन्त पर्वत के शिखर पर निर्जल, मासिक अनशन पूर्वक पांच सौ छत्तीस अनगारों के साथ काल धर्म को प्राप्त हो गये हैं। अत: देवानुप्रियो! हमारे लिए उचित है हम इस पूर्वगृहीत भक्त-पान का परिष्ठापन कर शत्रुजय-पर्वत पर आरोहण करें और संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विहार करें। उन्होने परस्पर इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार कर उस पूर्वगृहीत भक्त-पान का एकान्त में परिष्ठापन किया। परिष्ठापन कर जहां श@जय पर्वत था वहां आए। वहां आकर धीरे-धीरे शत्रुजय पर्वत पर आरोहण किया। आरोहण कर संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विहार करने लगे। ३२४. तए णं ते जुहिट्ठिलपामोक्खा पंच अणगारा सामाइयमाइयाई चोद्दसफुव्वाइंअहिज्जित्ता, बहूणि बासाणि सामण्णपरियागंपाउणित्ता, दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसेत्ता जस्सट्ठाए कीरए नग्गभावे जाव तमट्ठमाराहेंति, आराहेत्ता अणंतं केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेता ३२४. उन युधिष्ठिर प्रमुख पांचों अनगारों ने सामायिक आदि चौदह पूर्वी का अध्ययन कर, बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर, द्वैमासिक संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित कर, जिस प्रयोजन से नग्नभाव स्वीकार किया जाता है यावत् उस प्रयोजन की Jain Education Intemational Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र ३२४-३२७ ३५८ तओ पच्छा सिद्धा बुद्धा मुत्ता अंतगडा परिनिव्वुडा सव्वदुक्खप्पहीणा। नायाधम्मकहाओ आराधना की, आराधना कर अनन्त, प्रवर केवलज्ञान और केवलदर्शन को उत्पन्न कर उसके पश्चात् सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत और सब दुखों का अन्त करने वाले हुए। दोवईए देवत्त-पदं ३२५. तए णं सा दोवई अज्जा सुव्वयाणं अज्जियाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए (अत्ताणं झोसेत्ता?) आलोइय-पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए उववण्णा । तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं दुवयस्स वि देवस्स दससागरोवमाइं ठिई।। द्रौपदी का देवत्व-पद ३२५. वह द्रौपदी आर्या सुव्रता आर्या के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन कर, बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर, मासिक संलेखना की आराधना में (स्वयं को समर्पित कर?) आलोचना-प्रतिक्रमण पूर्वक, मृत्यु के समय, मृत्यु का वरण कर, ब्रह्मलोक कल्प में उत्पन्न हुई। वहां कुछ देवों की स्थिति दस सागरोपम बतलाई गई है। वहां द्रुपद देव की स्थिति भी दस सागरोपम ३२६. से णं भत्ते! दुवए देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुझिहिइ मुच्चिहिइ परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ।। ३२६. भन्ते! वह द्रुपद देव आयुक्षय, स्थितिक्षय और भवक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्युत होकर कहां जायेगा? यावत् महाविदेह वर्ष में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुखों का अन्त करने वाला होगा। निक्खेव-पदं ३२७. एवं खलुजंबू समणेणं भगवया महावीरेणं माइगरेणं तित्थगरेणं जाव सिद्धिगइणामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं सोलसमस्स नायज्झणस्स अयमढे पण्णत्ते। -त्ति बेमि। निक्षेप-पद ३२७. जम्बु! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता, तीर्थंकर यावत् सिद्ध-गति नामक स्थान को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के सोलहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञाप्त किया है। -ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा सुबहू वि तव-किलेसो, नियाण-दोसेण सिओ संतो। न सिवाय दोवईए, जह किल सूमालिया-जम्मे।|| अथवा अमणुण्णमभत्तीए, पत्ते दाणं भवे अणत्थाय । जह कडुय-तुंब-दाणं, नागसिरि-भवम्मि दोवईए।R || वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन गाथा-- १. अत्यधिक तप:क्लेश भी निदान-दोष से दूषित होकर शिव-साधक नहीं होता, जैसे--सुकुमालिका के जन्म में किया हुआ द्रौपदी का कष्टपूर्ण तप। अथवा २. अमनोज्ञ और भक्ति-भावना से रहित पात्र-दान भी अनर्थ का हेतु बन जाता है, जैसे द्रौपदी द्वारा नागश्री के भव में दिया गया कटुक तुम्बे का दान। Jain Education Intemational Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र ८ १. वृक्ष की शाखा पर निष्पन्न (सालइयं) साला का अर्थ है शाखा। इस आधार पर सालइयं का अर्थ वृक्ष की शाखा पर चित या निर्मित होना चाहिए। वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए है--शारदिक और सारचित। सूत्र २४३ ४. बहिन (भगिणिं) पाण्डव श्रीकृष्ण की बुआ कुन्ती के पुत्र थे। इस आधार पर वे श्रीकृष्ण के भाई हो जाते हैं। द्रौपदी का यह कहना-श्रीकृष्ण मेरे पति के भाई (सूत्र २०९ ) हैं--संगत है। किन्तु श्रीकृष्ण ने कहा--द्रौपदी मेरी बहिन है--यह विमर्शनीय है। श्रीकृष्ण द्रौपदी के प्रति सख्यभाव रखते थे, अत: द्रौपदी के प्रति 'बहिन' सम्बोधन किया हो--यह सम्भव है। सूत्र १३६ २. सामुदायिक भेरी (सामुदाइया भेरी) जिस भेरी का शब्द सुनकर परिवार जन और अधिकारी गण को यात्रा का संकेत मिल जाए। सूत्र २०९ ३. खोजने के लिए (कूवं) कूवं शब्द के दो अर्थ हैं--१. अपहरण किए हुए व्यक्ति को खोजने के लिए जाना २. अपहरण किए हुए व्यक्ति को छुड़ाने के लिए जाना। २. देशीनाममाला २/६२--कूवो हृतानुगमनं हृतत्याजकश्चेति । १. ज्ञातावृत्ति पत्र २०६--'सालइयं त्ति शारदिक-सारेण वा-रसेन चितं युक्तं सारचितम् । Jain Education Intemational Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन में आकीर्ण अश्वों के उदाहरण से मूर्च्छा और अमूर्च्छा का प्रतिपादन किया गया है। इसलिए इस अध्ययन का नाम आकीर्ण है। यह अध्ययन प्राचीन काल की समुद्र यात्रा की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसमें वणिक, नौका के उपकरण और नौका चलाने की विधि आदि का सजीव वर्णन है। ऋग्वेद में व्यापारियों के लिए वणिज् शब्द का प्रयोग किया गया है। वैदिक युग में व्यापारी अपना माल बेचने के लिए लम्बी यात्राएं करते थे। मौर्य युग में व्यापार की समुचित व्यवस्था प्रणाली थी। व्यापार के अध्यक्ष को पण्याध्यक्ष कहा जाता था। उसका कार्य था जल व स्थल मार्गों से आने वाले माल की मांग, खपत और व्यापार से सम्बन्धित अन्य सभी कार्यों का सम्पादन करना । । ऋग्वेद में समुद्र के रत्न, मोती का व्यापार और समुद्र व्यापार के लाभ का विस्तार से वर्णन है संहिताओं में भी समुद्र यात्रा का वर्णन है। इनके अनुसार समुद्री व्यापार नाव से चलता था। बहुधा नौ शब्द का व्यवहार नदियों में चलने वाली छोटी नाव व समुद्र में चलने वाले बेड़े-बड़ी नाव के लिए होता था। व्यापार के सम्बंध में जैन साहित्य में विशेष विवरण है। सार्थवाह नामक पुस्तक में भी उसका उल्लेख है। शाह की इस पुस्तक में ज्ञातधर्मकथा के आकीर्ण कथानक का भी संकेत है। कालिक द्वीप में व्यापारियों को सोने, चांदी की खदाने हीरे और रत्न मिले। वहां के धारीदार घोड़े ( जेब्रे ) बहुत विचित्र थे । मोतीचंद शाह के अनुसार कालिक द्वीप वर्तमान में पूर्वी अफ्रीका का क्षेत्र रह होगा। 7 प्रस्तुत अध्ययन में अश्वों के माध्यम से आसक्ति और अनासक्ति के परिणाम को बताया गया है जो साधक मूर्च्छित अश्वों की तरह इन्द्रिय विषयों में आसक्त होते हैं वे दुःखी हो जाते हैं जो साधक अमूर्च्छित अश्वों की तरह इन्द्रिय विषयों का संयम करते हैं वे जरा और मृत्यु से रहित आनंददायक निर्वाण को प्राप्त करते हैं। | Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं अज्झयणं : सत्रहवां अध्ययन आइण्णे : आकीर्ण उक्खे व-पदं १. जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सोलसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, सत्तरसमस्स णं भते! नायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते? उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति सम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के सोलहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! उन्होंने ज्ञाता के सत्रहवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिसीसे नाम नयरे होत्या--वण्णओ। २. जम्बू। उस काल और उस समय हस्तिशीर्ष नाम का नगर था-- वर्णक.........। ३. तत्थ णं कणगकेऊ नाम राया होत्था--वण्णओ।। ३. वहां कनककेतु नाम का राजा था--वर्णक........ । ४. तत्थ णं हत्थिसीसे नयरे बहवे संजत्ता-नावावाणियगा परिवसंति--अड्डा जाव बहुजणस्स अपरिभूया यावि होत्था। ४. उस हस्तिशीर्ष नगर में बहुत से सांयात्रिक पोत-वणिक् रहते थे। वे आढ्य यावत् जन-समूह से अपराजित थे। कालियदीप-जत्ता-पदं कालिकद्वीप-यात्रा पद ५. तए णं तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं अण्णया कयाइ एगयओ ५. किसी समय एकत्र सम्मिलित उन सांयात्रिक पोत-वणिकों में परस्पर सहियाणं इमेयारूवे मिहोकहा-समुल्लावे समुप्पज्जित्था--सेयं खलु इस प्रकार का वार्तालाप हुआ--हमारे लिए उचित है हम गणनीय, अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय धरणीय, मेय और परिच्छेद्य क्रयाणक लेकर पोत-वहन से लवणसमुद्र लवणसमुदं पोयवहणेणं ओगाहेत्तए त्ति कटु जहा अरहन्नए जाव का अवगाहन करें। यह चिन्तन कर यावत् वे अर्हन्नक के समान लवणसमुदं अणेगाई जोयणसयाई ओगाढा यावि होत्था। लवणसमुद्र में अनेक शतयोजन तक पहुंच गए। ६. तए णं तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं लवणसमुदं अणेगाई जोयणसयाइं ओगाढाणं समाणाणं बहूणि उप्पाइयसयाई पाउन्भूयाई, तं जहा--अकाले गज्जिए अकाले विज्जुए अकाले थणियसद्दे कालियवाए य समुत्थिए। ६. वे सांयात्रिक-पोत वणिक् जब लवणसमुद्र में अनेक शतयोजन तक पहुँच गये तब उनके सामने अनेक शत उत्पात 'प्रादुर्भूत हुए--जैसे अकाल में गर्जन, अकाल में विद्युत, अकाल में मेघ की गंभीर ध्वनि यावत् कालिक-वात (तूफान) उठा। ७. तएणं सा नावा तेणं कालियवाएणं आहुणिज्जमाणी-आहुणिज्जमाणी संचालिज्जमाणी-संचालिज्जमाणी संखोहिज्जमाणी-संखोहिज्जमाणी तत्थेव परिभमइ॥ ७. वह नौका कालिक-वात से बार-बार कम्पित, संचालित और संक्षुब्ध होती हुई वहीं चक्कर लगाने लगी। ८. तए णं से निज्जामए नट्ठमईए नट्ठसुईए नट्ठसण्णे मूढदिसाभाए जाए यावि होत्था--न जाणइ कयरं देसं वा दिसंवा 'विदिसं वा पोयवहणे अवहिए त्ति कटु ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए झियायइ।। ८. उस निर्यामक की मति, श्रुति और संज्ञा नष्ट हो गई। वह दिग्मूढ हो गया। वह यह नहीं जानता कि पोत-वहन किस देश, किस दिशा अथवा किस विदिशा में अपहृत हो गया है--इसलिए वह भग्न-हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबा हुआ चिन्ता-मग्न हो रहा था। Jain Education Intemational Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३६३ सत्रहवां अध्ययन : सूत्र ९-१४ ९. तए णं ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गब्भेल्लगा य ९. वे बहुत से कुक्षिधार (पार्श्व-चालक), कर्णधार, पोत के भीतर रहने संजत्ता-नावावाणियगा य जेणेव से निजामए तेणेव उवागच्छति, वाले कर्मकर-परिचारक और सांयात्रिक पोत-वणिक् जहां वह निर्यामक उवागच्छित्ता एवं वयासी--किण्णं तुमं देवाणुप्पिया! ओहयमण- था, वहाँ आए। वहाँ आकर इस प्रकार बोले--देवानुप्रिय! तुम भग्न संकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए झियायसि? हृदय हो हथेली पर मुँह टिकाए आर्त ध्यान में डूबे हुए चिन्तामग्न क्यों हो रहे हो? १०. तए णं से निजामए ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गब्भेल्लगा य संजत्ता-नावावाणियगा य एवं वयासी--एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! नट्ठमईए नट्ठसुईए नट्ठसण्णे मूढदिसाभाए जाए यावि होत्था--न जाणइ कयरं देसं वा दिसं वा विदिसं वा पोयवहणे अवहिए त्ति कटु तओ ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए झियामि।। १०. वह निर्यामक उन बहुत से कृक्षिधारों, कर्णधारों, पोत के भीतर रहने वाले कर्मकरों-परिचारकों और सांयात्रिक पोत-वणिकों से इस प्रकार बोला--देवानुप्रियो! मेरी मति, श्रुति और संज्ञा नष्ट हो गई है। मैं दिग्मूढ़ हो गया हूँ। मैं नहीं जानता यह पोतवहन किस देश, किस दिशा और किस विदिशा में अपहृत हो गया है। इसलिए मैं भग्न-हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डुबा चिन्तामग्न हो रहा हूँ। ११. तए णं ते कुच्छिधारा य कण्णधारा य गन्भेल्लगा य संजत्ता- नावावाणियगा य तस्स निज्जामयस्सतिए एयमहूँ सोच्चा निसम्म भीया तत्था उब्विग्गा उब्विग्गमणा व्हाया कयबलिकम्मा करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु बहूणं इंदाण य खंधाण य रुद्दाण य सिवाण य वेसमणाण य नागाण य भूयाण य जक्खाण य अज्ज-कोट्टकिरियाण य बहूणि उवाइयसयाणि उवायमाणा-उवायमाणा चिट्ठति ।। ११. उस निर्यामक के इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर बहुत से कुक्षिधार, कर्णधार, पोत के भीतर रहने वाले कर्मकर-परिचारक और सांयात्रिक पोर वणिक् भीत, त्रस्त, उद्विग्न और उद्विग्न मन वाले हो गए। वे स्नान और बलिकर्म कर सटे हुए दस नखों वाली सिर दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पूट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर बहुत से इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रवण, नाग, भूत, यक्ष, आर्या और कोट्टक्रिया की अनेक शत मनौतियां करने लगे। १२. तए णं से निज्जामए तओ मुहुत्तंतरस्स लद्धमईए लद्धसुईए १२. उसके मुहूर्त भर पश्चात् उस निर्यामक को मति, श्रुति और संज्ञा लद्धसण्णे अमूढदिसाभाए जाए यावि होत्था॥ उपलब्ध हुई। उसका दिशा भ्रम समाप्त हो गया। १३. तए णं से निजामए ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गब्भेल्लगा य संजत्ता-नावावाणियगा य एवं वयासी--एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! लद्धमईए लद्धसुईए लद्धसण्णे अमूढदिसाभाए जाए। अम्हे णं देवाणुप्पिया! कालियदीवंतेणं संछूढा । एस णं कालियदीवे आलोक्कइ। १३. वह निर्यामक उन बहुत से कुक्षिधारों, कर्णधारों, पोत के भीतर रहने वाले कर्मकरों-परिचारकों और सांयात्रिक पोत-वणिकों से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिये! मुझे मति, श्रुति और संज्ञा उपलब्ध हो गई है। मेरा दिशा भ्रम समाप्त हो गया है। देवानप्रियो! हम कालिकद्वीप के पास आ गए हैं। यह कालिकद्वीप दिखाई दे रहा है। कालियदीवे आसपेच्छण-पदं कालिकद्वीप में अश्व-प्रेक्षण-पद १४. तए णं ते कुच्छिधारा य कण्णधारा य गन्भेल्लगा य संजत्ता- १४. निर्यामक से यह अर्थ सुनकर वे कुक्षिधार, कर्णधार, पोत के भीतर नावावाणियगा य तस्स निजामगस्स अंतिए एयमढे सोच्चा रहने वाले कर्मकर-परिचारक और सांयात्रिक पोत-वणिक, हृष्ट-तुष्ट हट्ठतुट्ठा पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव हुए। वे प्रदक्षिणानुकूल पवन के साथ जहां कालिकद्वीप था वहां आए। उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं लबेंति, लबत्ता एगट्ठियाहिं वहां आकर जहाज की लंगर डाली। डालकर नौकाओं द्वारा कालिकद्वीप कालियदीवं उत्तरंति । तत्थ णं बहवे हिरण्णागरे य सुवण्णागरे य पर उतरे। वहां उन्होंने बहुत सी हिरण्य, सुवर्ण, रत्न और वज्र की रयणागरे य वइरागरे य, बहवे तत्थ आसे पासंति, किं ते?-- खाने देखी और बहुत से अश्व देखे। वे कैसे थे-- हरिरेणु-सोणिसुतग-सकविल-मज्जार-पायकुक्कुड-वोंडसमुग्गयसामवण्णा। १. उनमें से कुछ अश्वों का कटिप्रदेश नील रज-कणों से लिप्त था। इसलिए वे कटिसूत्र पहने हुए से लगते थे। कुछ कपिल पक्षी, गोहूमगोरंग-गोरपाडल-गोरा, पवालवण्णा य धूमवण्णा य केइ ।। बिलाव, पादकुक्कुट और सम्पूर्ण कपास फल जैसे श्यामवर्ण वाले थे। Jain Education Intemational Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवां अध्ययन : सूत्र १४-१६ ३६४ तलपत्त-रिट्ठवण्णा य, सालिवण्णा य भासवण्णा य केइ । जंपिय-तिल-कीडगा य, सोलोय-रिटुगा य पुंड-पइया य कणग-पिट्ठा य केइ ॥२॥ चक्कागपिट्ठवण्णा, सारसवण्णा य हंसवण्णा य केइ। केइत्थ अब्भवण्णा, पक्कतल-मेघवण्णा य बाहुवण्णा केइ ॥३॥ संझाणुरागसरिसा, सुयमुह-गुंजद्धराग-सरिसत्य केइ । एलापाडल-गोरा, सामलया-गवलसामला पुणो केइ ।४॥ नायाधम्मकहाओ कुछ गेहूं जैसे गौरांग और गौरी जाति के पाटल पुष्प जैसे गौर थे। कुछ प्रवाल जैसे रक्तवर्ण के और कुछ धूसरवर्ण वाले थे। २. कुछ अश्व ताडपत्र और रीठा जैसे वर्णवाले थे। कुछ शालि चावल जैसे श्वेत वर्ण और कुछ भस्म अथवा भाषपक्षी जैसे वर्णवाले थे। कुछ पुराने तिलों में उत्पन्न कीड़ों जैसे रंग के और कुछ प्रभास्वर रिष्टक रत्न जैसे चमकीले थे। कुछ अश्व श्वेत पांवों वाले और कुछ सुनहरी पीठ वाले थे। ३. कुछ अश्व चकवे की पीठ जैसे, कुछ सारस और कुछ हंस जैसे वर्णवाले थे। कुछ अश्व अभ्र जैसे वर्ण के, कुछ परिपक्व मेघ जैसे वर्ण के और कुछ नाना वर्ण वाले थे। ४. कुछ अश्व सन्ध्या राग, तोते की चोंच और गुजार्ध जैसे रक्तिम थे। कुछ एला और पाटल जैसे गौर और कुछ प्रियङ्गुलता एवं महिष-शृंग जैसे श्याम थे। अन्य भी अनेक प्रकार के अश्व थे जिनका किसी एक वर्ण से निर्देश नहीं किया जा सकता, जैसे श्याम, कासीस (राग जैसे) वर्ण वाले और चितकबरे। वे सब पूर्ण निर्दोष आकीर्णक नाम की अश्व जाति और कुल से सम्पन्न, विनीत और मात्सर्य रहित थे। वे प्रवर अश्व उपदिष्ट क्रम के अनुसार ही चलने वाले थे। प्रशिक्षण के द्वारा विनय को उपलब्ध थे। वे लंघन, वलगन धावन, धोरण, त्रिपदी और वेगवती गति में प्रशिक्षित थे। अधिक क्या वे मन से भी सदा उछलते रहते थे। उन व्यापारियों ने सैंकड़ों अश्व देखे। बहवे अण्णे अणिद्देसा, सामा कासीसरत्तपीया, अच्चंतविसुद्धा वि यणं आइण्णग-जाइ-कुल-विणीय-गयमच्छरा। हयवरा जहोवएस-कम्मवाहिणो वि य णं। सिक्खा विणीयविणया, लंघण-वग्गण-धावण-धोरण-तिवई जईण-सिक्खिय-गई। किं ते? मणसा वि उव्विहंताई अणेगाई आससयाई पासंति।। १५. तए णं ते आसा वाणियए पासंति, तेसिं गंधं आघायंति, १५. उन अश्वों ने उन व्यापारियों को देखा, उनकी गन्ध को सूंधा। गन्ध आघाइत्ता भीया तत्था उब्विग्गा उव्विग्गमणा तओ अणेगाई सूंघकर वे भीत, त्रस्त, उद्विग्न और उद्विग्नमन वाले होकर अनेक जोयणाई उन्भमंति। तेणं तत्थ पउर-गोयरा पउर-तणपाणिया योजन दूर भाग गए। वहां उन्होंने प्रचुर गोचर भूमि (चरागाह) और निन्भया निरुव्विग्गा सुहंसुहेणं विहरंति।। प्रचुर घास-पानी को प्राप्त किया और निर्भय, निरुद्विग्न रह कर सुखपूर्वक विहार करने लगे। संजत्तियाणं पुणरागमण-पदं सांयात्रिकों का पुनरागमन-पद १६. तए णं ते संजत्ता-नावावाणियगा अण्णमण्णं एवं वयासी--किण्णं. १६. वे सांयात्रिक पोत-वणिक् परस्पर इस प्रकार कहने लगे--देवानुप्रियो! अम्हं देवाणुप्पिया! आसेहिं? इमेणं बहवे हिरण्णागरा य सुवण्णागरा हमें अश्वों से क्या प्रयोजन? ये बहुत-सी हिरण्य, सुवर्ण, रत्न और य रयणागरा य वइरागरा य । तं सेयं खलु अम्हं हिरण्णस्स य वज्र की खानें रहीं। अत: हमारे लिए उचित है, हम हिरण्य, सुवर्ण, सुवण्णस्य य रयणस्स य वइरस्स य पोयवहणं भरित्तए त्ति कटु रत्न और वज्र से अपना पोत वहन भर लें--उन्होंने परस्पर यह अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेत्ति पडिसुणेत्ता हिरण्णस्स य सुवण्णस्स अर्थ स्वीकार किया। स्वीकार कर हिरण्य, सुवर्ण, रत्न और वज्र य रयणस्स य वइरस्स य तणस्स य कट्ठस्स य अन्नस्स य पाणियस्स तथा घास, काठ, अन्न और जल से पोतवहन भरे। भरकर य पोयवहणं भरेंति, भरेत्ता पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव प्रदक्षिणानुकूल पवन के साथ जहां 'गम्भरीक' पोतपत्तन (बंदरगाह) गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं था, वहां आए। वहां आकर जहाज का लंगर डाला। लंगर डालकर लंबेति, लबत्ता सगडी-सागडं सज्जेंति, सज्जेत्ता तं हिरण्णं च अनेक छोटे बड़े वाहन तैयार किये। तैयार कर नौकाओं द्वारा सुवण्णं च रयणं च वइरंच एगट्ठियाहिं पोयवहणाओ संचारेंति, जहाज से हिरण्य, सुवर्ण, रत्न और वज्र संचालित किया। संचालित संचारेत्ता सगडी-सागडं संजोएंति, जेणेव हत्थिसीसए नयरे तेणेव कर छोटे-बड़े वाहनों को भरा। जहां हस्तिशीर्ष नगर था, वहां आये Jain Education Intemational Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३६५ उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हत्थिसीसयस नयरस्स बहिया अग्गुज्जाणे सत्थनिवेसं करेंति, करेत्ता सगडी-सागडं मोएंति, मोएत्ता महत्थं महग्घं महरिहं विउलं रायारिहं पाहुडं गेण्हति, गेण्हित्ता हत्थिसीसयं नयरं अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता जेणेव से कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं महत्थं महाचं महरिहं विउलं रायारिहं पाहुडं उवणेति ।। सत्रहवां अध्ययन : सूत्र १६-२१ वहां आकर हस्तिशीर्ष नगर के बाहर प्रधान उद्यान में सार्थ को ठहराया। ठहराकर छोटे बड़े वाहन खोले। खोलकर महान अर्थवान, महान मूल्यवान और महान अर्हता वाला राजाओं के योग्य विपुल उपहार लिया। उपहार लेकर हस्तिशीर्ष नगर में प्रवेश किया। प्रवेश कर जहां कनककेतु राजा था, वहां आए। वहां आकर महान अर्थवान, महान मूल्यवान और महान अर्हता वाला राजाओं के योग्य विपुल उपहार भेंट किया। आसाण आणयण-पदं १७. तए णं से कणगकेऊ राया तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं तं महत्थं महाघं महरिहं विउलंरायारिहं पाहुडं पडिच्छइ, पडिच्छित्ता ते संजत्ता-नावावाणियगे एवं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! गामागर-नगर-खेड-कब्बड-दोणमुह-मडंब-पट्टण-आसम-निगमसंबाह-सण्णिक्साइं आहिंडह, लवणसमुदं च अभिक्खणं-अभिक्खणं पोयवहणेणं ओगाहेह । तं अत्थियाइंच केइ भे कहिंचि अच्छेरए दिट्टपुव्वे? अश्वों का आनयन-पद १७. कनककेतु राजा ने उन सांयात्रिक पोत-वणिकों का वह महान अर्थवान, महान मूल्यवान और महान अर्हता वाला राजाओं के योग्य विपुल उपहार स्वीकार किया। स्वीकार कर उन पोतवणिकों से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम बहुत से ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, द्रोणमुख, मडम्ब, पत्तन, आश्रम, निगम, संबाह और सन्निवेशों में घूमते हो और पोतवहन से बार-बार लवणसमुद्र का अवगाहन करते हो। अत: तुम लोगों ने कहीं पर भी कोई आश्चर्य देखा है? १८. तए णं ते संजत्ता-नावावाणियगा कणगकेउं एवं वयासी--एवं खलु अम्हे देवाणुप्पिया! इहेव हत्थिसीसे नयरे परिवसामो तं चेव जाव कालियदीक्तणं संछूढा । तत्थ णंबहवे हिरण्णागरे य सुवण्णागरे य रयणागरे य वइरागरे य बहवे तत्थ आसे पासामो। किंते? हरिरेणु जाव अम्हं गंध आघायंति, आघाइत्ता भीया तत्था उब्विग्गा उब्विग्गमणा तओ अणेगाइंजोयणाई उन्भमंति। तए णं सामी! अम्हेहि कालियदीवे ते आसा' अच्छेरए दिपव्वे।। १८. वे सांयात्रिक पोत-वणिक् उस कनककेतु राजा से इस प्रकार बोले--देवानुप्रिय! हम यहीं हस्तिशीर्ष नगर में रहते हैं। पूर्ववत् वक्तव्यता यावत् हम कालिक द्वीप के पास पहुंचे, वहां हमने बहुत सी हिरण्य, सुवर्ण, रत्न और वज्र की खाने देखी और बहुत से अश्व देखे। वे कैसे थे? कुछ अश्वों का कटिप्रदेश नीलरजकणों से लिप्त था--इसलिए वे कटिसूत्र पहने हुए से लगते थे यावत् उन अश्वों ने हमें सूंघा। सूंघकर भीत, त्रस्त, उद्विग्न और उद्विग्नमन वाले होकर अनेक योजन दूर भाग गए। ___अत: स्वामिन्! हमने कालिकद्वीप में उन अश्वों को आश्चर्य रूप में देखा है। १९. तए णं से कणगकेऊ तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं अंतिए १९. वह कनककेतु राजा उन सांयात्रिक पोतवणिकों से यह अर्थ सुनकर, एयमढे सोच्चा निसम्म ते संजत्ता-नावावाणियए एवं अवधारण कर उन सांयात्रिक पोतवणिकों से इस प्रकार बोला--देवानुप्रियो वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! मम कोडुबियपुरिसेहिं तुम मेरे कौटुम्बिक पुरुषों के साथ जाओ और कालिकद्वीप से उन सद्धिं कालियदीवाओ ते आसे आणेह ।। अश्वों को लाओ। २०. तए णं ते संजत्ता-नावावाणियगा एवं सामि! त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति ।। २०. ऐसा ही होगा, स्वामिन्! इस प्रकार सांयात्रिक पोतवणिकों ने राजा के आज्ञा-वचन को विनय-पूर्वक स्वीकार किया। २१. तए णं से कणगकेऊ कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! संजत्ता-नावावाणियएहिं सद्धि कालियदीवाओ मम आसे आणेह । तेवि पडिसुणेति ।। २१. उस कनककेतु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम इन सांयात्रिक पोतवणिकों के साथ जाओ और कालिकद्वीप से मेरे लिए अश्व लाओ। उन्होंने भी स्वीकार किया। Jain Education Intemational Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवां अध्ययन : सूत्र २२ ३६६ नायाधम्मकहाओ २२. तए णं ते कोडुबियपुरिसा सगडी-सागडं सज्जेंति, सज्जेत्ता तत्थ २२. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने छोटे बड़े वाहन तैयार किये। तैयार कर णं बहूणं वीणाण य वल्लकीण य भामरीण य कच्छभीण य वीणाओं, वल्लकी-वीणाओं (सात तन्त्रियों से बजने वाली) भ्रामरी-वीणाओं, भंभाण य छब्भामरीण य चित्तवीणाण य अण्णेसिं च बहूणं कच्छभी वीणाओं, भेरियों, षड्भ्रामरी-वीणाओं, चित्र-वीणाओं और सोइंदिय-पाउग्गाणं दव्वाणं सगडी-सागडं भरेंति । बहूणं किण्हाण श्रोत्रेन्द्रिय प्रायोग्य अन्य अनेक द्रव्यों से छोटे बड़े वाहन भरे। य नीलाण व लोहियाण य हालिद्दाण य सुक्किलाण य कट्ठकम्माण उन्होंने बहुत से कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र, एवं शुक्ल वर्ण के य चित्तकम्माण य पोत्थकम्माण य लेप्पकम्माण य गंथिमाण य काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पुस्तकर्म, लेप्यकर्म तथा ग्रन्थित, वेष्टित, पूरित वेढिमाण य पूरिमाण य संघाइमाण य अण्णेसिं च बहूणं एवं संघात्य वस्तुओं से और चक्षुरिन्द्रिय-प्रायोग्य अन्य अनेक द्रव्यों से चक्खिदिय-पाउग्गाणं दव्वाणं सगडी-सागडं भरेति । बहूणं कोट्टपडाण छोटे बड़े वाहन भरे। य पत्तपुडाण य चोयपुडाण य तगरपुडाण य एलापुडाण य उन्होंने बहुत से कोष्ठ-पुटों (गंधद्रव्यों), पत्र-पूटों, त्वक्-पुटों, हिरिवेरपुडाण य चंदणपुडाण य कुंकुमपुडाण य उसीरपुडाण य तगर-पुटों, एला-पुटों, तृण-पुटों, चंदन-पुटो, कुंकुम-पुटों, उसीर-पुटों, चंपगपुडाण य मरुयगपुडाण य दमणगपुडाण य जातिपुडाणा य चम्पक-पुटों, मर्वक (मरुवा)-पुटों, द्रमक-पुटों', जाति-पुटों, जूहियापुडाण य मल्लियापुडाण य वासंतियापुडाण य केयइपुडाण जूहिका-पुटों, मल्लिका-पुटों, वासन्तिका-पुटों, केतकी-पुटों, कर्पूर-पुटों, य कप्पूरपुडाण य पाडलपुडाण य अण्णेसिं च बहूणं पाटल-पुटों और घ्राणेन्द्रिय प्रायोग्य अन्य अनेक द्रव्यों से छोटे बड़े घाणिंदिय-पाउग्गाणं दव्वाणं सगडी-सागडं भरेंति । बहुस्स खंडस्स वाहन भरे। य गुलस्स य सक्कराए य मच्छंडियाए य पुप्फुत्तर-पउमुत्तराए उन्होंने बहुत-सी खाण्ड, गुड़, शक्कर, मत्स्यण्डिका, पुष्पपोत्तर, अण्णेसिं च जिभिदिय-पाउग्गाणं दव्वाणं सगडी-सागडं भरेंति । पद्मोत्तर (फूलों या कमल के फूलों से बनी हुई खाण्ड) और बहूणं कोयवाण य कंबलाण य पावाराण य नवतयाण य मलयाण रसनेन्द्रिय प्रायोग्य अन्य अनेक द्रव्यों से छोटे बड़े वाहन भरे। य मसूराण य सिलावट्टाण य जाव हंसगब्भाण य अण्णेसिं च उन्होंने बहुत सी रजाइयों, कम्बलों, प्रावरणों (पर्दो), जीनों, फासिंदिय-पाउग्गाणं दव्वाणं सगडी-सागडं भरेंति, भरेत्ता मलय-मसूर के आसनों, शिलापट्टों यावत् हंसगर्भ वस्त्रों और सगडी-सागडं जोयंति, जोइत्ता जेणेव गंभीरए पोयट्ठाणे तेणेव स्पर्शनेन्द्रिय प्रायोग्य अन्य प्रकार के द्रव्यों से छोटे बड़े वाहन भरे। उवागच्छंति, सगडी-सागडं मोएंति, मोएत्ता पोयवहणं सज्जेंति, भरकर छोटे बड़े वाहन जोते। जोतकर जहां गंभीरक बन्दरगाह सज्जेत्ता तेसिं उक्किट्ठाणं सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाणं कट्ठस्स था, वहां आए। छोटे बड़े वाहन खोले। खोलकर पोतवहन तैयार य तणस्स य पाणियस्स य तंदुलाण य समियस्स य गोरसस्स य किए। तैयार कर उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध-द्रव्यों जाव अण्णेसिं च बहूणं पोयवहणपाउग्गाणं पोयवहणं भरेंति, से तथा काठ, घास, पानी, चावल, गेहूं का आटा, गोरस यावत् अन्य भरेत्ता दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव कालियदीवे तेणेव अनेक पोतवहन प्रायोग्य पदार्थों से उस पोतवहन को भरा। भरकर उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं लबेंति, लबेत्ता ताई उक्किट्ठाई दक्षिणानुकूल पवन के साथ जहां कालिकद्वीप था, वहां आए। वहां सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाई, एगट्टियाहिं कालियदीवं उत्तरेंति । आकर जहाज का लंगर डाला। लंगर डालकर उन उत्कृष्ट शब्द, जहि-जहिं च णं ते आसा आसयंति वा सयंति वा चिटुंति स्पर्श, रस, रूप और गंध-द्रव्यों को नौकाओं द्वारा कालिकद्वीप पर वा तुयटृति वा तहिं-तहिं च णं ते कोडुंबियपुरिसा ताओ वीणाओ उतारा। य जाव चित्तवीणाओ य अण्णाणि य बहूणि सोइदिय-पाउग्गाणि ___ जहां-जहां वे अश्व बैठते, सोते, खड़े रहते अथवा त्वग्-वर्तन य दव्वाणि समुदीरेमाणा-समुदीरेमाणा ठवेंति, तेसिं च परिपेरतेणं करते, वहां-वहां वे कौटुम्बिक पुरुष उन वीणाओं यावत् चित्र-वीणाओं पासए ठवेंति, ठवेत्ता निच्चला निष्फंदा तुसिणीया चिट्ठति । और अन्य अनेक श्रोत्रेन्द्रिय-प्रायोग्य द्रव्यों (मधुर स्वरों) की उदीरणा जत्थ-जत्थ ते आसा आसयंति वा सयंति वा चिट्ठति वा करते हुए रहते। उन अश्वों के आसपास चारों ओर जाल बिछा देते। तुयटृति वा तत्थ-तत्थ णं ते कोडुंबियपुरिसा बहूणि किण्हाणि य बिछाकर स्वयं निश्चल, निष्पन्द एवं मौन रहते। नीलाणि य लोहियाणी य हालिदाणी य सुक्किलाणि य कट्ठकम्माणि ___ जहां-जहां वे अश्व बैठते, सोते, खड़े रहते अथवा त्वम् वर्तन य जाव संघाइमाणि य अण्णाणि स बहूणि चक्खिदिय-पाउग्गाणि करते, वहां-वहां वे कौटुम्बिक पुरुष बहुत से कृष्ण, नील, लोहित, य दव्वाणि ठवेंति, तेसिं परिपेरतेणं पासए ठवेंति, ठवेत्ता निच्चला हारिद्र और शुक्ल वर्ण के काष्ठ कर्म यावत् संघात्य वस्तुएं और अनेक निप्फंदा तुसिणीया चिट्ठति । चक्षुरिन्द्रिय प्रायोग्य द्रव्य रख देते। उन अश्वों के आसपास चारों ओर जत्थ-जत्थ ते आसा आसयंति वा सयति वा चिट्ठति वा जाल बिछा देते। बिछाकर स्वयं निश्चल, निष्पन्द एवं मौन रहते। तुयदृति वा तत्थ-तत्थ णं ते कोडुबियपुरिसा तेसिं बहूणं कोट्टपुडाण जहां-जहां वे अश्व बैठते, सोते, खड़े रहते अथवा त्वग् वर्तन य जाव पाडलपुडाण य अण्णेसिं च बहूणं घाणिदिय-पाउग्गाण करते, वहां-वहां वे कौटुम्बिक पुरुष बहुत से कोष्ठ-पुटों यावत Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३६७ सत्रहवां अध्ययन : सूत्र २२-२६ दव्वाणं पुंजे य नियरे य करेंति, करेत्ता तेसिं परिपेरतेण पाटल-पुटों और अन्य अनेक घ्राणेन्द्रिय प्रायोग्य द्रव्यों के पुञ्ज और पासए ठवेंति, ठवेत्ता निच्चला निप्फंदा तुसिणीया चिटुंति। निकर करते। निकर बनाकर उनके आसपास चारों ओर जाल बिछा जत्थ-जत्थ ते आसा आसयंति वा सयंति वा चिट्ठति वा देते। बिछाकर स्वयं निश्छल, निष्पन्द एवं मौन रहते। तुयटृति वा तत्थ-तत्थ णं ते कोडुबियपुरिसा गुलस्स जाव जहां-जहां वे अश्व बैठते, सोते, खड़े रहते अथवा त्वम् वर्तन पुप्फुत्तर-पउमुत्तराए अण्णेसिं च बहूणं जिभिंदिय-पाउग्गाणं करते, वहां-वहां वे कौटुम्बिक पुरुष बहुत सा गुड़ यावत् दव्वाणं पुंजे य नियरे य करेंति, करेत्ता वियरह खणंति, खणित्ता पुष्पोत्तर-पद्मोत्तर' और अन्य अनेक रसनेन्द्रिय-प्रायोग्य द्रव्यों के गुलपाणगस्स खंडपाणगस्स बोरपाणगस्स अण्णेसिं च बहूणं पुञ्ज और निकर करते। ऐसा कर विवर खोदते। खोदकर उन्हें पाणगाणं वियरए भरेंति, भरेत्ता तेसिं परिपेरतेणं पासए ठवेंति, गुड़-पानक, खाण्ड-पानक, बोर-पानक तथा अन्य अनेक पानकों से ठवेत्ता निच्चला निप्फंदा तुसिणीया चिट्ठति। भरते। भरकर उन अश्वों के आसपास चारों ओर जाल बिछा देते। जहि-जहिं च णं ते आसा आसयंति वा सयंति वा चिट्ठति बिछाकर स्वयं निश्चल, निष्पन्द एवं मौन रहते। वा तुयटृति वा तहि-तहिं च णं ते कोडुबिधपुरिसा बहवे कोयवया जहां-जहां वे अश्व बैठते, सोते, खड़े रहते अथवा त्वग् वर्तन जाव सिलावट्टया अण्णाणि य फासिंदिय-पाउग्गाई करते, वहां-वहां वे कौटुम्बिक पुरुष बहुत सी रजाइयां यावत् शिलापट्टक अत्युय-पच्चत्थुयाइं ठवेंति, ठवेत्ता तेसिं परिपेरतेणं पासए ठवेत्ति, तथा अन्य अनेक स्पर्शनन्द्रिय प्रायोग्य आस्तरण, प्रत्यास्तरणों की ठवेत्ता निच्चला निष्फंदा तुसिणीया चिट्ठति ।। स्थापना करते। स्थापना कर उन अश्वों के चारों ओर जाल बिछा देते। बिछाकर स्वयं निश्चल, निष्पन्द एवं मौन रहते। २३. तए णं ते आसा जेणेव ते उक्किट्ठा सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा २३. तब वे अश्व, जहां वे उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध थे, तेणेव उवागच्छति ।। वहां आते। अमुच्छिय-आसाणं सायत्त-विहार-पदं २४. तत्थ णं अत्थेगइया आसा अपुव्वा णं इमे सद्द-फरिस-रस- रूव-गंधत्ति कटु तेसु उक्किट्ठेसु सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु अमुच्छिया अगढिया अगिद्धा अणज्झोववण्णा तेसिं उक्किट्ठाणं सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाणं दूरंदूरेणं अवक्कमंति । तेणं तत्थ पउर-गोयरा पउर-तणपाणिया निब्भया निरुव्विग्गा सुहंसुहेणं विहरति । अमूछित अश्वों का स्वायत्त-विहार-पद २४. ये शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध अपूर्व हैं--ऐसा मानकर उनमें से कुछ अश्व उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंधद्रव्यों से मूछित, ग्रथित, गृद्ध एवं अध्युपपन्न नहीं हुए, अपितु उन्होंने उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धद्रव्यों का दूर से ही अपक्रमण कर दिया। वहां वे प्रचुर गोचरभूमि तथा प्रचुर घास पानी को प्राप्त हुए और निर्भय, निरुद्विग्न रह कर सुखपूर्वक विहार करने लगे। निगमण-पदं २५. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइ ए समाणे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु नो सज्जइ नो रज्जइ नो गिज्झइ नो मुज्झइ नो अज्झोववज्झइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे जाव चाउरते संसारकतारं वीईवइस्सइ।। निगमन-पद २५. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध-द्रव्यों में आसक्त, अनुरक्त, गृद्ध, मुग्ध और अध्युपपन्न नहीं होता, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय होता है यावत् वह चार अन्त वाले संसार-रूपी कान्तार का पार पा लेगा। मुच्छिय-आसाणं परायत्त-पदं २६. तत्थ णं अत्थेगइया आसा जेणेव उक्किट्ठा सद्द-फरिस-रस-रूव- गंधा तेणेव उवागच्छति । तेसु उक्किट्ठेस सद्द-फरिस-रस-रूवगंधेसु मुच्छिया गढिया गिद्धा अज्झोववण्णा आसेविउं पयत्ता यावि होत्था । मूर्च्छित अश्वों का परायत्त-पद २६. कुछ अश्व, जहां वे उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध-द्रव्य थे, वहां आए। उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध-द्रव्यों में मूछित, ग्रथित, गृद्ध और अध्युपपन्न हो, उनके आसेवन में प्रवृत हो गए। Jain Education Intemational Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवां अध्ययन : सूत्र २७-३५ ३६८ नायाधम्मकहाओ २७. तए णं ते आसा ते उक्किट्ठे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे २७. उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध-द्रव्यों का आसेवन आसेवमाणा तेहिं बहूहिं कूडेहि य पासेहि य गलएसु य पाएसु य करते हुए अनेक कूट-बन्धनों और पाश-बन्धनों में उन अश्वों के गले बझंति ।। और पांव बंध गए। २८. तए णं ते कोडुबियपुरिसा ते आसे गिण्हंति, गिण्हित्ता एगट्ठियाहिं पोयवहणे संचारेंति, कट्ठस्स य तणस्स य पाणियस्य य तंदुलाण य समियस्य य गोरसस्य य जाव अण्णेसिंच बहूणं पोयवहणपाउग्गाणं पोयवहणं भरेंति॥ २८. कौटुम्बिक पुरुषों ने उन अश्वों को पकड़ा। पकड़कर नौकाओं द्वारा पोत वहन में संचालित किया। काठ, घास, पानी, चावल, गेहूं का ____ आटा, गौरस यावत् अन्य अनेक पोतवहन प्रायोग्य पदार्थों से उस पोत वहन को भरा। २९. तए णं से संजत्ता-नावावाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं लबेंति, लंबेत्ता ते आसे उत्तारेंति, उत्तारेत्ता जेणेव हत्थिसीसे नयरे जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्रहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेंति ते आसे उवणेति ।। २९. वे सांयात्रिक-पोतवणिक् दक्षिणानुकूल पवन के साथ जहां गम्भीरक बन्दरगाह था, वहां आए। वहां आकर जहाज का लंगर डाला। लंगर डालकर उन घोड़ों को उतारा। जहां हस्तिशीर्ष नगर था और जहां कनककेतु राजा था, वहां आए। वहां आकर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से वर्धापन किया और उन अश्वों को समर्पित किया। ३०. तए णं से कणगकेऊ राया तेसिं संजत्ता-नावावाणियगाणं उस्सुकं वियरइ, सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ।। ३०. कनककेतु राजा ने उन सांयात्रिक-पोतवणिकों को कर-मुक्त किया। उन्हें सत्कृत किया। सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर प्रतिविसर्जित किया। ३१. तए णं से कणगकेऊ राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ॥ ३१. कनककेतु राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उन्हें सत्कृत-सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर प्रतिविसर्जित किया। ३२. तए णं से कणगकेऊ राया आसमद्दए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! मम आसे विणएह ।। ३२. कनककेतु राजा ने अश्वमर्दकों (अश्व-प्रशिक्षकों) को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम मेरे इन अश्वों को प्रशिक्षित करो। ३३. तए णं ते आसमद्दगा तहत्ति पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता ते आसे बहूहिं मुहबंधेहि य कण्णबंधेहि य नासाबंधेहि य वालबंधेहि य खुरबंधेहि य कडगबंधेहि य खलिणबंधेहि य ओवीलणाहि य पडयाणेहि य अंकणाहि य वेत्तप्पहारेहि य लयप्पहारेहि य कसप्पहारेहि य छिवप्पहारेहि य विणयंति, विणइत्ता कणगकेउस्स रण्णो उवणेति ॥ ३३. उन अश्व-प्रशिक्षकों ने तथेति' कहकर स्वीकार किया। स्वीकार कर उन अश्वों को विविध प्रकार के मुख-बन्धनों, कर्ण-बन्धनों, नासा-बन्धनों, बाल-बन्धनों, खुर-बन्धनों, कटक-बन्धनों, खलीन-बन्धनों, अवपीड़नबन्धनों, पर्याणों, अंकनों, वेत्र-प्रहारों, लता-प्रहारों, कशा-प्रहारों और छिवा-प्रहारों से प्रशिक्षित किया। प्रशिक्षित कर उन्हें राजा कनककेतु को समर्पित किया। ३४. तए णं से कणगकेऊ राया ते आसमद्दए सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ॥ ३४. राजा कनककेतु ने उन अश्व-प्रशिक्षकों को सत्कृत किया। सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर उन्हें प्रतिविसर्जित किया। ३५. तए णं ते आसा बहूहिं मुहबंधेहि य जाव छिवप्पहारेहि य बहूणि सारीरमाणसाइंदुक्खाई पावेंति।। ३५. वे अश्व बहुत से मुख-बन्धनों यावत् छिवा-प्रहारों से अनेक-अनेक शारीरिक और मानसिक दु:ख को प्राप्त हुए। Jain Education Intemational Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३६९ सत्रहवां अध्ययन : सूत्र ३६ निगमण-पदं निगमन-पद ३६. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा ३६. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित पव्वइए समाणे इट्टेसु सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु सज्जइ रज्जइ हो इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धद्रव्यों में आसक्त, अनुरक्त, गिज्झइ मुज्झइ अज्झोववज्झइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं गृद्ध, मुग्ध और अध्युपपन्न होता है, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण य हीलणिज्जे बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अवहेलनीय जाव चाउरतं संसारकतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ ।। होता है यावत् वह चार अंत वाले संसार-रूपी कान्तार में पुन: पुन: अनुपरिवर्तन करेगा। गाहा कल-रिभिय-महुर-तंती-तल-ताल-क्स-कउहाभिरामेसु । सद्देसु रज्जमाणा, रमंति सोइंदिय-वसट्टा ।।।। गाथा १. श्रोत्रेन्द्रिय की अधीनता से आर्त बने प्राणी प्रधान और अभिराम शब्द उत्पन्न करने वाले तंत्री, तल--ताल और बांसुरी के कमनीय, स्वरघोलना युक्त और मधुर शब्दों में अनुरक्त होकर प्रमुदित होते हैं। सोइंदिय-दुइंतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। दीविग-रुयमसहतो, वहबंधं तित्तिरो पत्तो।२॥ २. श्रोत्रेन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष है, जैसे--शिकारी के पिंजरे में स्थित तित्तिरि के शब्द को सुन अधीर बना हुआ तीतर अपने घोसले से बाहर निकलता है और वध व बन्धन को प्राप्त होता है। थण-जहण-क्यण-कर-चरण-नयण-गविय-विलासियगई। रूवेसु रज्जमाणा, रमंति चक्खिदिय-वसट्टा ।।३।। ३. चक्षुरिन्द्रिय की अधीनता से आर्त बने प्राणी स्त्रियों के स्तन, जघन, मुख, हाथ, पांव, नयन तथा गर्वित एवं विलासपूर्ण गति वाले रूपों में अनुरक्त होकर प्रमुदित होते हैं। चक्खिंदिय-दुइँतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं जलणमि जलंते, पडइ पयंगो अबुद्धीओ।।४।। ४. चक्षुरिन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष है, जैसे--अज्ञानी शलभ ___ जलती हुई आग में गिर जाता है। अगरुवर-पवरधूवण-उउयमल्लाणुलेवणविहीसु । गंधेसु रज्जमाणा, रमंति घाणिदिय-वसट्टा ।।५।। ५. घ्राणेन्द्रिय की अधीनता से आर्त बने प्राणी काली अगर, प्रवर-धूप, ऋतु प्राप्त पुष्प-मालाओं और विलेपन विधियों वाले गन्ध-द्रव्यों में अनुरक्त होकर प्रमुदित होते हैं। घाणिंदिय-दुइंतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं ओसहिगंधेणं, बिलाओ निद्धावई उरगो।६।। ६. घ्राणेन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष है, जैसे--औषधियों की गन्ध से अभिभूत होकर सांप बिल से निकलता है और वध-बन्धन को प्राप्त होता है। तित्त-कडुयं कसायं, महुरं बहुखज्ज-पेज्ज-लेज्झेसु । आसायंमि उ गिद्धा रमंति जिभिदिय-वसट्टा।।७।। ७. रसनेन्द्रिय की अधीनता से आर्त बने प्राणी तीते, कडुवे, कषैले और मीठे बहुत प्रकार के खाद्य, पेय एवं लेह्य पदार्थों के आस्वादन में गृद्ध होकर प्रमुदित होते हैं। जिभिदिय-दुइंतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जंगललग्गुक्खित्तो, फुरइ थलविरेल्लिओ मच्छो ।।८।। ८. रसनेन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष है, जैसे--गले में फंसे लोहमय काटे के द्वारा जल से निकलकर धरती पर गिराया गया मत्स्य तड़पता Jain Education Intemational Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवां अध्ययन : गाथा ९-२० उउ-भयमाणसुहेसु य, सविभव-हिययमण-निव्वुइकरेसु। फासेसु रज्जमाणा, रमंति फासिंदिय-वसट्टा ।। ३७० नायाधम्मकहाओ ९. स्पर्शनन्द्रिय की अधीनता से आर्त बने प्राणी विविध ऋतुओं में सेवन-सुखद तथा वैभवशाली व्यक्तियों के हृदय और मन को शान्ति देने वाले स्पर्शों में अनुरक्त होकर प्रमुदित होते हैं। फासिंदिय-दुद्दतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं खणइ मत्थयं कुंजरस्स लोहंकुसो तिक्खो।।१०।। १०. स्पर्शनन्द्रिय की दुर्दान्तता का इतना दोष है, जैसे--एक लोहमय तीक्ष्ण अंकुश हाथी के मस्तक को विदीर्ण कर देता है। कल-रिभिय-महुर-तंती-तल-ताल-वंस-कउहाभिरामेसु । सद्देसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए ।।११।। ११. जो प्राणी प्रधान और अभिराम शब्द उत्पन्न करने वाले तंत्री, तल-ताल और बांसुरी के कमनीय, स्वर-घोलना युक्त और मधुर शब्दों में गृद्ध नहीं होते वे वशात मरण को प्राप्त नहीं होते। थण-जहण-क्यण-कर-चरण-नयण-गब्विय-विलासियगी। रूवेसु जे न रत्ता, वसट्टमरणं न ते मरए ।।१२।। १२. जो प्राणी स्त्रियों के स्तन, जघन, मुख, हाथ, पांव, नयन तथा गर्वित एवं विलासपूर्ण गति वाले रूपों में अनुरक्त नहीं होते, वे वशात मरण को प्राप्त नहीं होते। अगरुवर - पवर - धूवण - उउयमल्लाणुलेवणविहीसु। गंधेसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए।।१३।। १३. जो प्राणी काली अगर, प्रवर-धूप, ऋतु-प्राप्त पुष्प-मालाओं और विलेपन वाले गन्ध द्रव्यों में गृद्ध नहीं होते, वे वशात मरण को प्राप्त नहीं होते। तित्त-कडुयं, कसायं, महुरं बहुखज्ज-पेज्ज-लेजोसु। आसायंमि न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए।१४ ।। १४. जो प्राणी तीते, कडुवे, कषैले और मीठे बहुत प्रकार के खाद्य, पेय, एवं लेह्य पदार्थों के आस्वादन में गृद्ध नहीं होते, वे वशात मरण को प्राप्त नहीं होते। उउ-भयमाणसुहेसु य, सविभव-हिययमण-निव्वुइकरेसु। फासेसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए।५।। १५. जो प्राणी विविध ऋतुओं में सेवन-सुखद तथा वैभवशाली व्यक्तियों के हृदय और मन को शान्ति देने वाले स्पर्शों में गृद्ध नहीं होते, वे वशात मरण को प्राप्त नहीं होते। सद्देसु य भद्दय-पावएसु सोयविसयममुवगएसु । तुट्टेण व रुद्रुण व, समणेण सया न होयव्वं ।।६।। १६. श्रोत्र-विषय के प्राप्त होने पर प्रिय एवं अप्रिय शब्दों में श्रमण कभी ___ भी तुष्ट एवं रुष्ट न हो। रूवेसु य भद्दय-पावएसु चक्खुविसयमुवगएसु । तुटेण व रुद्रेण व, समणेण सया न होयव्वं ।।१७।। १७. चक्षु विषय के प्राप्त होने पर प्रिय एवं अप्रिय रूपों में श्रमण कभी भी तुष्ट एवं रुष्ट न हो। गंधेसु य भद्दय-पावएसु घाणविसयमुवगएसु । तुटेण व रुद्वेण व, समणेण सया न होयव्वं ।।१८॥ १८. घ्राण-विषय के प्राप्त होने पर प्रिय एवं अप्रिय गन्धों में श्रमण कभी भी तुष्ट एवं रुष्ट न हो। रसेसु य भद्दय-पावएसु जिब्भविसयमुवगएसु । तुटेण व रुद्वेण व, समणेण सया न होयव्वं ।।१९।। १९. रसना विषय के प्राप्त होने पर प्रिय एवं अप्रिय रसों में श्रमण कभी भी तुष्ट और रुष्ट न हो। फासेसु य भद्दय-पावएसु कायविसयमुवगएसु । तुढेण व रुद्रुण व, समणेण सया न होयव्वं ।।२०।। २०. काय विषय के प्राप्त होने पर प्रिय एवं अप्रिय स्पर्शों में श्रमण कभी भी तुष्ट एवं रुष्ट न हो। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३७१ सत्रहवां अध्ययन : सूत्र ३७ ३७. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं ३७. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति सम्प्राप्त श्रमण सत्तरसमस्स नायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते॥ भगवान महावीर ने ज्ञाता के सत्रहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया -त्ति बेमि है। - ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धता निगमनगाथा जह सो कालियदीवो, अणुवमसोक्खो तहेव जइ-धम्मो। जह आसा तह साहू, वणियव्व अणुकूलकारिजणा ।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन गाथा-- १. कालिकद्वीप के समान अनुपम सुख देने वाला है--मुनि धर्म । अश्वों के समान है--साधु और व्यापारियों के समान है--अनुकूल व्यवहार करने वाले प्रियजन। जह सद्दाइ-अगिद्धा, पत्ता नो पासबंधणं आसा। तह विसएस अगिद्धा, वझंति न कम्मणा साहू।२॥ २. जैसे शब्दादि विषयों में गृद्ध न होने वाले अश्व पाशबन्धन को प्राप्त नहीं हुए, वैसे ही विषयों में गृद्ध न होने वाले मुनि कर्म-पाश में नहीं बंधते। जह सच्छंदविहारो, आसाणं तह इहं वरमुणीणं। जर-मरणाइ-विवज्जिय, सायत्ताणंदनिव्वाणं ।।३।। ३. जैसे उन अश्वों का विहार सदा स्वतंत्र रहा, वैसे ही यहां प्रवर मुनिजन जरा और मृत्यु से रहित, स्वतंत्र, आनन्द दायक निर्वाण का अनुभव करते हैं। जह सद्दाइसु गिद्धा, बद्धा आसा तहेव विसयरया। पावेंति कम्मबंध, परमासुह-कारणं घोरं ।।४॥ ४. जैसे शब्दादि विषयों में गृद्ध अश्व बन्धन को प्राप्त हुए, वैसे ही विषय-रत प्राणी परम दु:ख के हेतुभूत घोर कर्म-बन्धन को प्राप्त होते जह ते कालियदीवा, णीया अण्णत्थ दुहगणं पत्ता। तह धम्म-परिन्भट्ठा, अधम्मपत्ता इहं जीवा ।। ५. जैसे कालिकद्वीप से अन्यत्र ले जाये गये वे अश्व दु:ख समूह को प्राप्त हुए, वैसे ही धर्म से परिभ्रष्ट और अधर्म को प्राप्त जीव इस संसार में दुःख भोगते हैं। पावेंति कम्म-नरवइ-वसया संसारवाहियालीए। आसप्पमद्दएहिं व, नेरइयाईहिं दुक्खाई।।६।। ६. वे भव परम्परा में बहने वालों की श्रेणी में कर्म रूप राजा के अधीन होकर अश्व-प्रशिक्षकों के समान नैरयिक प्राणियों के द्वारा दु:खों को प्राप्त होते हैं। Jain Education Intemational Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण सूत्र १४ १. रीठा जैसे वर्ण वाले (रिट्ठवण्णा) वृत्तिकार ने इसका अर्थ मदिरा वर्ण वाला किया है। सूत्र २२ ३. द्रमक पुटों (दमणग पुडाण) द्रमक--दौना, दवना। विस्तार हेतु द्रष्टव्य--वनस्पतिकोश। २. लंघन- - - -त्रिपदी (लंघन- ---तिवइ) ४.पुष्पोत्तर, पद्मोत्तर (पुप्फुत्तर, पउमुत्तर) प्रस्तुत प्रकरण में कालिक द्वीप के घोड़ों की गति के विषय में अनेक पुष्पोत्तर पद्मोत्तर--ये शर्करा के भेद हैं। जो विभिन्न प्रकार के फूलों शब्द प्रयुक्त हुए हैं-- और पद्मकमलों से निर्मित की जाती थी। लंघन--गर्त आदि को लांघना। वल्गन--कूदना। सूत्र ३६ धावन--वेग के साथ दौड़ना। ५. तित्तिरी (दीविग) धोरण--गति विषयक चातुर्य। . वृत्तिकार के अनुसार पिंजरे में बंधा हुआ तित्तिर द्वीपिका कहलाता त्रिपदी--रंगभूमि में होने वाली मल्ल की गति की तरह चलना।२ है। द्वीपिका का प्रयोग पुरुष तित्तिर के लिए नहीं, स्त्री तित्तिर के लिए अभिधान चिन्तामणि की टीका में कुछ शब्दों का अर्थ स्पष्ट रूप से होना प्रासंगिक है। मिलता है। लंघन--पक्षी तथा हरिण के समान घोड़े की चाल, चौकड़ी मारना। वल्गन--शरीर के आगे के हिस्से को बढ़ाकर सिर को संकुचित कर त्रिक को झुकाए हुए घोड़े की गति अर्थात् सरपट चाल।' धोरण--मोर के समान घोड़े की चाल अर्थात् दुलकी चाल ।' १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-२३८ ५. अभिधानचिन्तामणि (स्वोपज्ञवृत्ति), पृ. ५०३-तच्च नकुलादीनां गतिसदृशम्। २. वही, पत्र-२३६ ६. ज्ञातावृत्ति, पत्र-२३६--पुष्पोत्तरा पद्मोत्तरा च शर्कराभेदावेव। ३. अभिधानचिन्तामणि (स्वोपज्ञ वृत्ति), पृ.५०३-लंघनम्-पक्षिणां मृगाणां च ७. वही, पत्र-२४०--शाकुनिकपुरुषसम्बन्धी पञ्जरस्थ तित्तिरो द्वीपिका ___गत्यनुयायि। उच्यते। ४. अभिधानचिन्तामणि ४/३१३......वल्गितं पुनः । अग्रकायसमुल्लासात्कुञ्चितास्यं नतत्रिकम् ।। Jain Education Intemational Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन की घटना सुंसुमा की परिक्रमा कर रही है इसलिए इसका नाम संसमा है। इसका प्रतिपाद्य है--यात्रामात्राशन। मुनि केवल जीवनयात्रा को चलाने के लिए आहार करे। उसके साथ आसक्ति का लवलेश भी नहीं रहे। सूत्रकार ने आसक्ति को स्पष्ट भाषा में समझाया है। वर्ण, रूप, बल और विषय के लिए किया जाने वाला आहार आसक्ति से सम्पृक्त होता है। मुनि के लिए निर्देश है-- मुनि वर्ण, रूप, बल और विषय के लिए आहार न करे। एकमात्र सिद्धि के लिए आहार करे। आसक्ति और अनासक्ति के बीच भेदरेखा खींचना बहुत कठिन काम है। सूत्रकार ने धन सार्थवाह के उदाहरण से इसे समझाने का प्रयत्न किया है। समझाने के लिए जिस घटना का चुनाव किया है, वह घटना असाधारण है, उसे सामान्य नहीं कहा जा सकता। प्राचीन समय में साधु-संन्यासी के आहार के लिए 'पुत्रमांसोपमम्' सूत्र का प्रयोग मिलता है। यहां पुत्र के मांसाहार के स्थान पर पुत्री के मांसाहार की घटना है। पुत्री का मांस खाना एक प्रकम्पित करने वाला वृत्त है। इसमें धन सार्थवाह की विवशता झलक रही है। मुनि के सामने भी शरीर चलाने की विवशता है। शरीर के बिना धर्म की साधना नहीं होती और आहार किए बिना शरीर नहीं चलता। आहार के साथ स्वाद और आसक्ति का संबंध है। इस आसक्ति को दूर कर शारीरिक विवशता की अनुभूति कर आहार करना जटिल विषय है। सूत्रकार ने इस जटिलता को मार्मिक घटना से समझाया है। हम घटना को न पकड़ें। उसके मर्म को पकड़ना ही पर्याप्त है। Jain Education Intemational Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्खेव पदं - अट्ठारसमं अज्झयणं : अठारहवां अध्ययन सुसुमा सुसुमा १. जइ णं भते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तरसमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, अट्ठारसमस्स णं भते नायज्झयणस्स के अड्डे पण्णत्ते ? २. एवं तु जंबू तेगं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्या- यण्णओ। ३. तत्थ णं धणे नामं सत्थवाहे । भद्दा भारिया ।। ४. तस्स णं धणस्स सत्यवाहस्स पुत्ता भद्दाए अत्तया पंच सत्यवाहदारगा होत्या, तं जहा धणे धणपाले धणदेवे धणगोवे धणरविखए ।। ५. तस्स णं धणस्स सत्थवाहस्स धूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजाइया सुसुमा नामं दारिया होत्या--सूमालपाणिपाया ।। चिलाय - दासचेडस्स विग्गह-पदं ६. तस्स णं धणस्स सत्थवाहस्स चिलाए नामं दासचेडे होत्या अहीणपंचिदिपसरीरे मंसोचिए बालकौलावणकुराले यावि होत्या ॥ ७. तए णं से दासचेडे सुंसुमाए दारियाए बालग्गाहे जाए यावि होत्या, सुसुमं दारियं कडीए गिण्डद्द, गिण्डित्ता बहूहिं दारएहि व दारियाहि य डिंभएहि य डिंभियाहि य कुमारएहि य कुमारियाहि यसद्धिं अभिरममाणे- अभिरममाणे विहरइ ।। ८. तए णं से चिलाए दासचेडे तेसिं बहूणं दारयाण य दारियाण डिंभयाण व हिभियाण व कुमारपाण व कुमारियाण व अप्पेगझ्याणं खुल्लए अवहरद्द, अप्येगइयाणं वट्टए अवहरइ अप्पेगइयाणं आडोलियाओ अक्हर अप्पेगझ्याणं तिंदूसए अवहरद्द, अप्पेगझ्याणं पोतुल्लए अवहरड, अप्येगइयाणं साटोल्लए अवहरह, अप्येगइयाणं आभरणमल्लालंकार अवहरइ अप्पेगइए आउसइ अवहसइ निच्छोडेइ निन्भच्छेद तज्जेद तातेइ ॥ उत्क्षेप-पद १. भन्ते ! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के सत्रहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते ! उन्होंने ज्ञाता के अठारहवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह नाम का नगर था -- वर्णक । ३. वहां धन नाम का सार्थवाह था। उसके भद्रा नाम की भार्या थी । ४. उस धन सार्थवाह के पुत्र, भद्रा भार्या के आत्मज पांच सार्थवाह बालक थे, जैसे-- धन, धनपाल, धनदेव, धनगोप, धनरक्षित । ५. उस धन सार्थवाह की पुत्री, भद्रा भार्या की आत्मजा, उन पांचों पुत्रों की अनुजा 'सुसुमा' नाम की बालिका थी उसके हाथ-पांव सुकुमार थे। 1 दासपुत्र चिलात का विग्रह-पद ६. उस धन सार्थवाह के 'चिलात' नाम का एक दासपुत्र था। वह अहीन पंचेन्द्रिय शरीर वाला और मांसल था। वह बच्चों को खिलाने में कुशल था। ७. वह दासपुत्र सुसुमा बालिका को क्रीड़ा कराता था। वह बालिका सुसुमा को गोद में लेता । लेकर बहुत सारे शिशुओं, किशोर-किशोरियों और कुमार-कुमारियों के साथ खेला करता । ८. वह दासपुत्र चितात उन बहुत से शिशुओं, किशोर-किशोरियों और कुमार- कुमारियों में से किसी की कपर्दिकाएं कौड़ियां चुरा लेता, किसी के गोले चुरा लेता, किसी के खिलौने चुरा लेता, किसी की गेंद चुरा लेता, किसी की कपड़े से बनी गुड़िया चुरा लेता, किसी का उत्तरीय वस्त्र चुरा लेता तथा किसी के गहने, माला और अलंकार चुरा लेता। वह किसी को गालियां देता, किसी का उपहास करता, किसी को धमकाता, किसी की निर्भर्त्सना करता, किसी को तर्जना देता और किसी को ताड़ना 'देता 1 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३७५ अठारहवां अध्ययन : सूत्र ९-१५ ९. तए णं ते बहवे दारगा य दारिया य डिंभया य डिभिया य ९. वे बहुत से शिशु, किशोर-किशोरियां और कुमार-कुमारियां रोते, कुमारया य कुमारिया य रोयमाणा य कंदमाणा य सोयमाणा य चिल्लाते, शोक करते, आंसू बहाते और विलाप करते हुए अपने-अपने तिप्पमाणा य विलवमाणा य साणं-साणं अम्मापिऊणं निवेदेति ।। माता-पिता से यह बात कहते। चिलायस्स गिहाओ निक्कासण-पदं १०. तए णं तेसिं बहूणं दारयाण य दारियाण य डिंभयाण य डिभियाण य कुमारयाण य कुमारियाण य अम्मापियरो जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता धणं सत्थवाह बहूहि खिज्जणियाहि य रुंटणाहि य उवलंभणाहि य खिज्जमाणा य इंटमाणा य उवलंभमाणा य धणस्स सत्थवाहस्स एयमढें निवेदेति॥ चिलात का घर से निष्कासन-पद १०. उन बहुत से शिशुओं, किशोर-किशोरियों और कुमार-कुमारियों के माता-पिता जहां धन सार्थवाह था, वहां आए। वहां आकर खीज, ____ रुदन, अवज्ञा और उपालम्भ के शब्दों में रोष और अवज्ञा प्रकट करते हुए तथा उपालम्भ देते हुए धन सार्थवाह से इस अर्थ का निवेदन किया। ११. तए णं से धणे सत्यवाहे चिलायंदासचेडं एयमद्वं भज्जो-भज्जो निवारेइ, नो चेव णं चिलाए दासचेडे उवरमइ।। ११. धन सार्थवाह ने दासपुत्र चिलात को इसके लिए बार-बार रोका, किन्तु ___ दासपुत्र चिलात इन प्रवृत्तियों से उपरत नहीं हुआ। १२. तए णं से चिलाए दासचेडे तेसिं बहूणं दारयाण य दारियाण य डिंभयाण य डिभियाण य कुमारयाण य कुमारियाण य अप्पेगइयाणं खुल्लए अवहरइ अप्पेगइयाणं वट्टए अवहरइ अप्पेगइयाणं आडोलियाओ अवहरइ, अप्पेगइयाणं तिंदूसए अवहरइ, अप्पेगइयाणं पोत्तुल्लए अवहरइ, अप्पेगइयाणं साडोल्लए अवहरइ, अप्पेगइयाणं आभरणमल्लालंकार अवहरइ, अप्पगइए आउसइ अवहसइ निच्छोडेइ निब्भच्छेइ तज्जेइतालेइ।। १२. वह दासपुत्र चिलात उन बहुत से शिशुओं, किशोर-किशोरियों और ___कुमार-कुमारियों में से किसी की कपर्दिकाएं-कौडियां चुरा लेता, किसी के गोले चुरा लेता, किसी के खिलौने चुरा लेता, किसी की गेंद चुरा लेता, किसी की कपड़े से बनी गुड़िया चुरा लेता, किसी का उत्तरीय वस्त्र चुरा लेता तथा किसी के गहने, माला और अंलकार चुरा लेता। वह किसी को गालियां देता, किसी का उपहास करता, किसी को धमकाता, किसी की निर्भर्त्सना करता, किसी को तर्जना देता और किसी को ताड़ना देता। १३. तए णं ते बहवे दारगा य दारिया य डिंभया य डिभिया य कुमारया य कुमारिया य रोयमाणा य कंदमाणा य सोयमाणा य तिप्पमाणा य विलवमाणा य साणं-साणं अम्मापिऊणं निवेदेति ।। १३. उन बहुत से शिशुओं, किशोर-किशोरियों और कुमार-कुमारियों ने रोते, चिल्लाते, शोक करते, आंसू बहाते और विलाप करते हुए अपनेअपने माता-पिता से सारी बात कह दी। १४. तए णं ते आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणा १४. तब वे क्रोध से तमतमा उठे। वे रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता बहूहिं जलते हुए जहां धन सार्थवाह था, वहां आए। वहां आकर खीज, अवज्ञा खिज्जणाहि य रुंटणाहि य उवलंभणाहि य खिज्जमाणा य और उपालम्भ के शब्दों में रोष और अवज्ञा प्रकट करते हुए तथा एंटमाणा य उवलंभमाणा य घणस्स सत्थवाहस्स एयमढें उपालम्भ देते हुए धन सार्थवाह से इस अर्थ का निवेदन किया। निवेदेति।। १५. तए णं से घणे सत्यवाहे बहूणं दारगाणं दारियाणं डिंभयाणं १५. उन बहुत से शिशुओं, किशोर-किशोरियों और कुमार-कुमारियों के डिभियाणं कुमारयाणं कुमारियाणं अम्मापिऊणं अंतिए एयमटुं माता-पिता से यह अर्थ सुनकर धन सार्थवाह क्रोध से तमतमा उठा। सोच्चा आसुरुत्ते रुढे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे चिलायं उसने रुष्ट, कुपित, चण्ड और क्रोध से जलते हुए दासपुत्र चिलात दासचेडं उच्चावयाहिं आउसणाहि आउसइ उद्धंसइ निब्भच्छेइ को बहुत से उच्चावच, आक्रोश पूर्ण शब्दों से कोसा, तुच्छता सूचक निच्छोडेइ तज्जेइ उच्चावयाहिं तालणाहिं तालेइ साओ गिहाओ शब्दों से तिरस्कृत किया, निर्भर्त्सना की, धमकाया, तर्जना दी, निच्छुभइ॥ उच्चावच ताड़ना से प्रताड़ित किया और अपने घर से निष्कासित कर दिया। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां अध्ययन : सूत्र १६-२१ ३७६ नायाधम्मकहाओ चिलायस्स दुव्वसण-पवत्ति-पदं चिलात का दुर्व्यसन-प्रवृत्ति-पद १६. तए णं से चिलाए दासचेडे साओ गिहाओ निच्छूढे समाणे १६. अपने घर से निकाल दिये जाने पर वह दासपुत्र चिलात राजगृह रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क चच्चर-चउम्मुह-महापह- नगर में दोराहों, तिराहों, चोराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों पहेसु देवकुलेसु य सभासु य पवासु य जूयखलएसु य वेसाघरएसु में तथा देवकुलों में, सभाओं में, प्रपाओं में, जुए के अड्डों में, वेश्याय पाणघरएसु य सुहंसुहेणं परिवट्टइ।। घरों में और मदिरालयों में सुखपूर्वक घूमने लगा। १७. तए णं से चिलाए दासचेडे अणोहट्टिए अणिवारिए सच्छंदमई १७. वह दासपुत्र चिलात बिना किसी रोक-टोक के निरंकुश स्वैरविहारी सइरप्पयारी मज्जप्पसंगी चोज्जप्पसंगी जूयप्पसंगी वेसप्पसंगी तथा मद्य, चौर्य, द्यूत, वेश्या और परस्त्रियों में अतिआसक्त हो गया। परदारप्पसंगी जाए यावि होत्था ।। चोरपल्ली-पदं १८. तए णं रायगिहस्स नयरस्स अदूरसामते दाहिणपुरत्थिमे दिसीभाए सीहगुहा नामं चोरपल्ली होत्था--विसम-गिरिकडग-कोलंब- सण्णिविट्ठा सोकलंक-पागार-परिक्खित्ता छिण्णसेल-विसमप्पवायफरिहोवगूढा एगदुवारा अणेगखंडी विदितजण-निग्गमप्पवेसा अभिंतरपाणिया सुदुल्लभजल-पेरंता सुबहुस्सवि कूवियबलस्स आगयस्स दुप्पहंसा यावि होत्था। चोर-पल्ली पद १८. उस राजगृह नगर के आस-पास आग्नेय कोण में सिंहगुफा नाम की एक चोरपल्ली' थी। वह विषम पर्वतीय मेखला के किनारे पर स्थित, बांस से निर्मित जालमय प्राकार से परिक्षिप्त, टूटे हुए शैल खण्डों के कारण विषम गढ़ों वाली, खाई से अवगूढ, एक द्वार और अनेक खण्डों वाली तथा परिचितों के लिए ही निर्गम और प्रवेश योग्य थी। उसके भीतर जलाशय था। बाहर दूर-दूर तक जल दुर्लभ था। वहां समागत सुविशाल चोर-गवेषक सेना के लिए भी वह दुष्प्रघर्ष थी। १९. तत्थ णं सीहगुहाए चोरपल्लीए विजए नाम चोरसेणावई परिवसई-अहम्मिए अहम्मिटे अहम्मक्खाई अहम्माणुए अहम्मपलोई अहम्मपलज्जणे अहम्मसील-समुदायारे अहम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ। हण-छिंद-भिंद-वियत्तए लोहियपाणी चडे रुद्दे खुद्दे साहस्सिए उक्कंचण-वंचण-माया-नियडि-कवड-कूड-साइसंपओग-बहुले निस्सीले निव्वए निगुणे निप्पच्चक्खाणपोसहोववासे बहूणं दुप्पय-चउप्पय-मिय -पसु-पक्खि-सरिसिवाणं घायाए वहाए उच्छायणयाए अहम्मकेऊ समुट्ठिए बहुनगर-निग्गय-जसे सूरे दढप्पहारी साहसिए सद्दवेही। १९. उस सिंहगुफा चोरपल्ली में 'विजय' नाम का चोर सेनापति रहता था। वह अधार्मिक, अधर्मिष्ठ, अधर्मख्याति, अधर्म का अनुगमन करने वाला, अधर्म-प्रलोकी, अधर्मानुरक्त, अधर्ममय शील और समाचरण वाला था। वह अधर्म से ही जीवन निर्वाह करता हुआ विहार करता था। वह अपने अनुयायियों को सदा 'मारो-छेदो-भेदो' इस प्रकार प्रेरित करने वाला, लोहित पाणी, चण्ड, रुद्र, क्षुद्र, दुस्साहसी और उत्कुञ्चन, वञ्चना, माया, निकृति, कपट, कूट एवं वक्रता का प्रचुर प्रयोग करने वाला था। वह शील-रहित, व्रत-रहित, गुण-रहित तथा प्रत्याख्यान और पौषधोपवास से शून्य था। वह बहुत से द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरीसृपों के घात, वध और उत्सादन के लिए उदित मानो अधर्ममय केतुग्रह था। उसका यश बहुत नगरों तक पहुंच चुका था। वह शूर, दृढ़ प्रहार करने वाला, साहसिक और शब्द-वेधी था। २०. से णं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा-ईसर-सेणावच्चंकारेमाणे पालेमाणे विहरइ॥ २०. वह उस सिंहगुफा चोरपल्ली में पांच सौ चोरों का अधिपतित्व, पुराधिपतित्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व तथा आज्ञा, ऐश्वर्य और सेनापतित्व करता हुआ एवं उनकी सुरक्षा करता हुआ विहार करता था। २१. तए णं से विजए तक्कर-सेणावई बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य संधिच्छेयगाण य खत्तखणगाण रायावगारीण य अणधारगाण य बालघायगाण य वीसंभघायगाण य जयकाराण य खंडरक्खाण य अण्णेसिंच बहूणं छिण्ण-भिण्ण-बाहिराहयाणं कुडगे यावि होत्था। २१. वह तस्कर सेनापति 'विजय' बहुत से चोरों, पारदारिकों, ग्रन्थि-भेदकों (गिरहकटों), सेंध लगाने वालों भीत फोड़ कर चोरी करने वालों राजद्रोहियों कर्जदारों, बाल-हत्यारों, विश्वासघातकों, जुआरिओं, अनधिकृत सरकारी भूमि पर अधिकार करने वालों तथा अन्य अनेक अपराधियों-- जिनके अंग छिन्न-भिन्न कर दिये गये हो अथवा जिन्हें निर्वासित कर दिया गया हो--उन सबके लिए वेणुवन के समान आश्रयभूत था। Jain Education Intemational Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २२. सए गं से विजए चोरसेणावई रायगिहस्स दाहिणपुरत्थिमं जणक्यं बहूहिं गामघाएहि य नगरघाएहि य गोगहणेहि य बंदिग्गहणेहि य पंचकुट्टणेहि य खत्तखणणेहि य उवीलेमाणेउवीलेमाणे विद्धंसेमाणे- विद्धंसेमाणे नित्थाणं निद्धणं करेमाणे बिहर ।। ३७७ अठारहवां अध्ययन सूत्र २२-२८ २२. वह चोर सेनापति विजय बहुत से ग्राम घात, नगर-घात, गायों को चुराना, मनुष्य को धन लूटकर बन्दी बना लेना, पथिकों को मारना, भीत फोड़कर चोरी करना इत्यादिक दुष्कर्मों के द्वारा, राजगृह के दक्षिणपूर्वी जनपद को उत्पीड़ित और विध्वस्त करता हुआ तथा वहां के निवासियों को बेघर और निर्धन करता हुआ विहार करता था। चिलायस्स चोरपल्ली-गमण-पदं २३. तए णं से चिलाए दासचेडए रायगिहे बहूहिं अत्थाभिसंकीहि य चोज्जाभिसंकीहि य दाराभिसंकीहि य धणिएहि य जूयकरेहि य परभवमाणे- परभवमाणे रायगिहाओ नगराओ निग्गच्छद निग्गच्छित्ता जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विजयं चोरसेणावई उवसंपज्जित्ता णं विहरइ ।। २४. तए णं से चिलाए दासचेडे विजयस्स चोरसेणावइस्स अग्ग-असिलट्ठिग्गाहे जाए यावि होत्था। जाहे वि य णं से विजय चोरसेणावई गामघायं वा नगरघायं वा गोगहणं वा बदिग्गहणं वा पंथकोट्टिं वा काउं वच्चइ ताहे वि य णं से चिलाए दासचेडे सुबहुपि कूक्विलं हय-महिय-पवर वीरघाइय-विवडियचिंध-धपपडागं किच्छोवगयपाणं दिसोदिसीं पडिसेहेइ, पडिसेहेत्ता पुणरवि तळ कपकरजे अगहसमगे सीहगुहं चोरपति हव्यमागच्छइ ।। २५. तए गं से विजए चोरसेणावई चितायं तक्कर बहूओ चोरविज्जाओ य चोरमंते य चोरमायाओ य चोरनिगडीओ य सिक्खावेइ ।। विजयस्स मच्चु पदं २६. तए णं से विजए चोरसेणावई अण्णया कयाइ कालधम्पुणा संजुत्ते यावि होत्या ।। २७. तए णं ताइं पंचचोरसयाइं विजयस्स चोरसेणावइस्स महया-महया इड्डी-सक्कार-समुदएणं नीहरणं करेंति, करेत्ता बहूई लोइयाई मयकिच्चाई करेति, करेता कालेणं विगयसोया जाया यावि होत्या ।। चिलायस्स चोरसेणावइत्त-पदं २८. तए णं ताइं पंचचोरसयाइं अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी -- एवं खलु अम्हें देवाणुप्पिया! विजए चोरसेणावई कालधम्मुणा संजुत्ते । अयं च णं चिलाए तक्करे विजएणं चोरसेणावणा बहूओ चोरविज्जाओ व चोरमते य चोरमायाओ य चिलात का चोरपल्ली गमन-पद २३. वह दासपुत्र चिलात राजगृह में अनेक अर्थ की दृष्टि से आशंका करने वाले, चोरी की दृष्टि से आशंका करने वाले और स्त्रियों की दृष्टि से आशंका करने वाले धनिकों तथा जुआरियों के द्वारा पराभव को प्राप्त होता हुआ राजगृह नगर से निकला। वहां से निकलकर, वह जहां सिंहगुफा चोर-पल्ली थी, वहां आया। वहां आकर चोर सेनापति विजय की अधीनता स्वीकार कर विहार करने लगा। २४. वह दासपुत्र चिलात चोर सेनापति विजय का प्रधान असि चालक और यष्टि - चालक बन गया। चोर सेनापति विजय जब भी ग्राम घात और नगर-घात करने, गायों को चुराने, मनुष्यों को धन आदि लूटकर बन्दी बनाने अथवा पथिकों की हत्या करने के लिए जाता, तब वह दासपुत्र चिलत सुविशाल चोर गवेषक सेना को हत मयित कर डालता, उसके प्रवर वीरों को यमधाम पहुंचा देता। सेना के चिह्न - ध्वजाओं और पताकाओं को गिरा देता । उसके प्राण संकट में डाल देता और सब दिशाओं से उसके प्रहारों को विफल कर देता। विफल कर वह धन प्राप्त कर कृत-कार्य हो निर्विघ्न शीघ्रता से पुनरपि सिंहगुफा चोरपल्ली में आ जाता । २५. वह चोर सेनापति विजय तस्कर - चितात को अनेक चोर विद्याएं, चोर-मंत्र, चोर- मायाएं और चोर-निकृतियां सिखाता था । विजय का मृत्यु-पद २६. किसी समय वह चोर सेनापति विजय कालधर्म को प्राप्त हो गया। २७. उन पांच सौ चोरों ने महान ऋद्धि और सत्कार - समुदय के साथ चोर सेनापति विजय का निर्हरण किया। निर्हरण कर अनेक लौकिक मृतक कार्य किए और समय आने पर वे शोक मुक्त हो गये। चिलात का चोर -सेनापतित्व-पद २८. उन पांच सौ चोरों ने एक-दूसरे को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! चोर सेनापति विजय कालधर्म को प्राप्त हो गया। चोर सेनापति विजय ने इस बिलात तस्कर को अनेक चोर विद्याएं चोर-मंत्र, चोर-मायाएं और चोर - निकृतियां सिखाई है। अतः देवानुप्रियो ! Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां अध्ययन : सूत्र २८-३३ ३७८ चोरनिगडीओ य सिक्खाविए। तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! चिलायं तक्कर सीहगुहाए चोरपल्लीए चोरसेणावइत्ताए अभिसिचित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमटुं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता चिलायं सीहगुहाए चोरपल्लीए चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचंति।। नायाधम्मकहाओ हमारे लिए उचित है कि हम चिलात तस्कर का सिंहगुफा चोरपल्ली के चोर सेनापति के रूप में अभिषेक करें--इस प्रकार उन्होंने परस्पर यह प्रस्ताव स्वीकार किया। स्वीकार कर चिलात का सिंहगुफा चोरपल्ली के चोर सेनापति के रूप में अभिषेक किया। २९. तए णं से चिलाए चोरसेणावई जाए--अहम्मिए अहम्मिटे अहम्मक्खाई अहम्माणुए अहम्मपलोइ अहम्मपलज्जणे अहम्मसीलसमुदायारे अहम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ।। २९. वह चिलात चोर सेनापति बन गया। वह अधार्मिक, अधर्मिष्ठ, अधर्मख्याति, अधर्म का अनुगमन करने वाला, अधर्म-प्रलोकी, अधर्मानुरक्त, अधर्ममय शील और समाचरण वाला था। वह अधर्म से ही जीवन निर्वाह करता हुआ विहार करता था। ३०. तए णं से चिलाए चोरसेणावई चोरनायगे बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य संधिच्छेयगाण य खत्तखणगाण य रायावगारीण य अणधारगाण य बालधायगाण य वीसंभघायगाण य जूयकाराण य खंडरक्खाण य अण्णेसिं च बहूणं छिण्ण-भिण्ण-बाहिराहयाणं कुडगे यावि होत्था॥ ३०. वह चोर सेनापति, चोर नायक चिलात बहुत से चोरों, पारदारिकों, ग्रन्थि-भेदकों (गिरहकटों), सेंध लगाने वालों, भीत फोड़कर चोरी करने वालों, राज-द्रोहियों, कर्जदारों, बाल-हत्यारों, विश्वासघातकों, जुआरियों, अनधिकृत सरकारी भूमि पर अधिकार करने वालों तथा अन्य अनेक अपराधियों--जिनके अंग छिन्न-भिन्न कर दिये गये हों अथवा जिन्हें निर्वासित कर दिया गया हो--उन सबके लिए वेणुवन के समान आश्रयभूत था। ३१. से णं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा-ईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरइ॥ ३१. वह उस सिंहगुफा चोरपल्ली में पांच सौ चोरों का अधिपतित्व, पुराधिपतित्व, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरत्व तथा आज्ञा, ऐश्वर्य और सेनापतित्व करता हुआ एवं उनकी सुरक्षा करता हुआ विहार करने लगा। ३२. तए णं तत्थ से चिलाए चोरसेणावई रायगिहस्स नयरस्स दाहिणपुरथिमिल्लं जणवयं बहूहिं गामघाएहि य नगरपाएहि य गोगहणेहि य बंदिग्गहणेहि य पंथकुट्टणेहि य खत्तखणणेहि य उवीलेमाणे-उवीलेमाणे विद्धंसेमाणे-विद्धसेमाणे नित्थाणं निद्धणं करेमाणे विहरइ॥ ३२. वह चोर सेनापति चिलात बहुत से ग्राम-घात, नगर-घात, गायों को चुराना, मनुष्यों को धन लूटकर बन्दी बना लेना, पथिकों को मारना, भीत फोड़कर चोरी करना इत्यादि दुष्कर्मों के द्वारा राजगृह के दक्षिण-पूर्वी जनपद को उत्पीड़ित और विध्वस्त करता हुआ तथा वहां के निवासियों को बेघर और निर्धन करता हुआ विहार करने लगा। चिलायस्स धणस्स गिहे चोरिय-पदं ३३. तए णं से चिलाए चोरसेणावई अण्णया कयाइ विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उक्क्खडाक्ता ते पंच चोरसए आमतेइ तओ पच्छा व्हाए क्यबलिकम्मे भोयणमंडसि तेहिं पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं सुरं च मज्जं च मंसंच सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरइ, जिमियभुत्तुत्तरागए ते पंच चोरसए विपुलेणं धूव-पुप्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! रायगिहे नयरे धणे नामं सत्थवाहे अड्ढे । तस्स णं घूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजाइया सुंसुमा नामंदारिया-अहीणा जाव सुरूवा। तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! धणस्स सत्थवाहस्स गिहं विलुपामो। चिलात द्वारा धन के घर में चोरी-पद ३३. किसी समय उस चोर सेनापति चिलात ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवा कर उन पांच सौ चोरों को आमन्त्रित किया। उसके पश्चात् उसने स्नान और बलिकर्म किया। भोजन मण्डप में उन पांच सौ चोरों के साथ विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, सुरा, मद्य, मांस, सीधु और प्रसन्ना का आस्वादन करता हुआ, विशेष स्वाद लेता हुआ, सबको बांटता हुआ और खाता हुआ विहार करने लगा। ___ भोजनोपरान्त अपने स्थान पर आकर उसने पांच सौ चोरों को विपुल, धूप, पुष्प, गन्ध-चूर्ण, माला और अंलकारों से सत्कृत किया। सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर इस प्रकार बोला--देवानुप्रियो! राजगृह नगर में 'धन' नाम का सार्थवाह है। वह Jain Education Intemational Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३७९ तुब्भं विपुले धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाले ममं सुसुमा दारिया। अठारहवां अध्ययन : सूत्र ३३-३७ आढ्य है। उसकी पुत्री, भद्रा की आत्मजा, पांचो पुत्रों की अनुजा सुंसुमा नाम की बालिका है। वह अहीन यावत् सुरूपा है। अत: देवानुप्रियो! हम चलें, धन सार्थवाह का घर लूटें। उसका विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला एवं प्रवाल तुम्हारा और सुंसुमा बालिका मेरी। ३४. तए णं ते पंच चोरसया चिलायस्स (एयमहूँ?) पडिसुणेति ॥ ३४. उन पांच सौ चोरों ने चिलात के (इस अर्थ को?) स्वीकार किया। ३५. तए णं ते चिलाए चोरसेणादई तेहिं पंचहिं चोरसएहिं सद्धि ___३५. वह चोर सेनापति चिलात उन पांच सौ चोरों के साथ गीले चमड़े अल्लं चम्म दुरुहइ, दुरुहित्ता पच्चावरण्ह-कालसमयंसि पंचहिं पर बैठा। बैठकर अपराह्न काल के पश्चात् पांच सौ चोरों के साथ चोरसएहिं सद्धिं सण्णद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवए उप्पीलिय सन्नद्ध बद्ध हो, कवच पहने। धनुष पट्टी को बांधा, गले में ग्रीवा-रक्षक सरासणपट्टिए पिणद्ध-गेविज्जे आविद्ध-विमल-वरचिंधपट्टे उपकरण पहने। विमल और प्रवर चिह्न पट्ट बांधे तथा आयुध और गहियाउह-पहरणे माइय-गोमुहिएहिं फलएहिं, निक्किट्ठाहि प्रहरण लिए। रीछ के बालों से निर्मित गोमुखाकार पट्टियों, म्यान से असिलट्ठीहिं, अंसगएहिं तोणेहिं, सज्जीवेहिं धणूहिं, समुक्खित्तेहिं खींची हुई (नंगी) तलवारों, कन्धे पर रखे तूणीरों, प्रत्यञ्चा चढ़े धनुषों, सरेहिं, समुल्लालियाहिं दाहाहिं, ओसारियाहिं ऊरुघंटियाहिं, तूणीर से निकाले गये बाणों, उछलते हुए विशिष्ट शस्त्रों, निनादित छिप्पतूरेहिं वज्जमाणेहिं महया-महया उक्कू?-सीहनाय-बोल विशाल घंटाओं, द्रुतगति से प्रवादित वाद्यों तथा महान उत्कृष्ट सिंहनाद कलकलरवेणं पक्खुभिय-महा समुद्दरवभूयं पिव करेमाणा जनित कोलाहलपूर्ण शब्दों द्वारा प्रक्षुभित महासागर की भांति धरती को सीहगुहाओ चोरपल्लीओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव शब्दायमान करते हुए वे सिंहगुफा चोरपल्ली से निकले। निकलकर रायगिहे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता रायगिहस्स जहां राजगृह नगर था, वहा आए। वहां आकर राजगृह नगर के अदूरसामंते एगं महं गहणं अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता दिवसं आसपास एक गहन जंगल में प्रविष्ट हुए। प्रविष्ट होकर दिन व्यतीत खवेमाणा चिट्ठति ॥ करने लगे। ३६. तए णं से चिलाए चोरसेणावई अद्धरत्त-कालसमयंसि निसंत-पडिनिसंतंति पंचहि चोरसएहिं सद्धिं माइय-गोमुहिएहिं फलएहिं जाव मूइयाहिं ऊरुघंटियाहिं जेणेव रायगिहे नयरे पुरथिमिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ, उदगवत्थिं परामुसइ आयते चोक्खे परमसुइभूए तालुग्घाडणिं विज्ज आवाहेइ, आवाहेत्ता रायगिहस्स दुवारकवाडे उदएणं अच्छोडेइ, अच्छोडेता कवाडं विहाडेइ, विहाडेता रायगिह अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणे-उग्घोसेमाणे एवं वयासी--एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! चिलाए नामं चोरसेणावई पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं सीहगुहाओ चोरपल्लीओ इहं हव्वमागए धणस्स सत्थवाहस्स गिहं घाउकामे । तं जे णं नवियाए माउयाए दुद्धं पाउकामे, से णं निगच्छउ त्ति कटु जेणेव धणस्स सत्थवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धणस्स गिहं विहाडेइ।। ३६. अर्धरात्रि के समय जब घर से बाहर गये लोग पुन: अपने-अपने घर लौट आये, वह चोर सेनापति चिलात पांच सौ चोरों के साथ रीछ के बालों से निर्मित गोमुखाकार पट्टिकाओं यावत् नि:शब्द विशाल घन्टाओं के साथ जहां राजगृह नगर का पूर्व दिशावर्ती द्वार था, वहां आया। वहां आकर चर्ममय उदक-पात्र (मशक) को उठाया। आचमन कर, साफ-सुथरा और परम पवित्र हो, तालोद्घाटिनी विद्या का आवाहन किया। आवाहन कर राजगृह के द्वार के कपाटों पर जल छींटा। जल छींटकर द्वार को खोला, खोलकर राजगृह में प्रवेश किया। प्रवेश कर उच्चस्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार बोला-देवानुप्रियो! मैं चोर सेनापति चिलात हूँ और धन सार्थवाह का घर लूटने के लिए पांच सौ चोरों के साथ सिंहगुफा चोरपल्ली से अभी यहां आया हूँ। ___ अत: जो नई मां का दूध पीना चाहता है, वह निकलकर मेरे सामने आए-यह कहता हुआ वह जहां धन सार्थवाह का घर था, वहां आया। वहां आकर धन सार्थवाह के घर का द्वार खोला। ३७. तए णं से धणे चिलाएणं चोरसेणावइणा पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं गिह घाइज्जमाणं पासइ, पासित्ता भीए तत्थे तसिए उब्विग्गे संजायभए पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं एगते अवक्कमइ।। ३७. धन सार्थवाह ने पांच सौ चोरों के साथ चोर सेनापति चिलात को अपने घर की लूट-पाट करते देखा। देखकर वह भीत, त्रस्त, तृषित, उद्विग्न और भयाक्रान्त हो पांचो पुत्रों के साथ एकान्त में चला गया। Jain Education Intemational Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां अध्ययन : सूत्र ३८-४३ ३८. तए णं से चिलाए चोरसेणावई धणस्स सत्यवाहस्स हिं घाएइ, पाएता सुबहु धण-कणगरयण-मणि-मोत्तिय संखसिल-प्पवाल- रत्तरयण-संत-सार- सावएज्जं सुसुमं च दारियं गण्ड गेण्डित्ता रायगिहाओ पडिनिक्लमई, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सीहगुहा तेणेव पहारेत्य नमनाए । नगरमुत्तिएहिं चोरनिगह-पदं ३९. तए गं से धणे सत्यवाहे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छड, वागच्छत्ता सुबहु धण-कणगं सुसुमं च दारियं अवहरियं जाणित्ता महत्वं महग्धं महरिडं पाहुडं महाय जेणेव नगरगुत्तिया तेणेव उवागच्छ, उवागच्छिता तं महत्वं महत्वं महरिहं पाहु उवणे, उवत्ता एवं क्यासी -- एवं खलु देवाणुप्पिया! चिलाए चोरसेणावई सीहगुहाओ चोरपल्लीओ इहं हन्यमागम्म पंचहि चोरसएहिं सद्धिं मम हिं धाएत्ता सुबहुं धण-कणगं सुसुमं च दारियं गहाय रायगिहाओ पडिनिक्खमित्ता जेणेव सीहगुहा तेणेव पडिगए । तं इच्छामो णं देवाप्पिया! सुंसुमाए दारियाए कूवं गमित्तए । तुब्भं णं देवाणुपिया से विपुले धण-कणगे, ममं सुंसुमा दारिया ।। ३८० ४०. तए णं ते नगरमुत्तिया धणस्स एपम पहिसुर्णेति, पडिसुणेत्ता सण्णद्ध - बद्ध-वम्मिय - कवया जाव गहियाउहपहरणा महयामहया उक्कुड सीहनाय बोल कलकलरवेणं पक्लुभिय-महासमुदरवभूयं पिव करेमाणा रायगिहाओ निग्गच्छति, निग्गच्छिता जेणेव चिलाए चोरसेणावई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता चिलाएणं चोरसेणावइणा सद्धिं संपलग्गा यावि होत्या ।। ४१. तए णं ते नगरगुत्तिया चिलाये चोरसेणावई हय-महियपवरवीर घाइय-विवडियचिंध-धय-पडागं किच्छोवगयपाणं दिसोदिसिं पडिसेहेंति । ४२. तए णं ते पंच चोरसया नगरगुत्तिएहि हय महिय पवरवीरघाइय-विवडिय चिंध-धप-पडागा किच्छोवगयपाणा दिसोदिसिं पडिसेहिया समाणा तं विपुलं धण-कणगं विच्छड्डमाणा य विप्यरिमाणां य सब्द समंता विष्पतात्या ।। ४३. तए णं ते नगरगुत्तिया तं विपुलं धण-कणगं गेण्डति, गेण्हित्ता जेणेव रायगि नगरे तेणेव उवागच्छति । नायाधम्मकहाओ ३८. उस चोर सेनापति चिलात ने धन सार्थवाह का घर लूटा लूटकर धन, कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, पद्मनाग, मणियां श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्य तथा दान भोग आदि के लिए स्वापतेय और सुसुमा बालिका को ले लिया । उसे लेकर वह राजगृह नगर से वापस निकला। निकलकर जहां सिंहगुफा थी, उस और प्रस्थान कर दिया। नगर-रक्षकों द्वारा चोर का निग्रह - पद ३९. वह धन सार्थवाह जहां अपना घर था, वहां आया। वहां आकर बहुत सा धन, कनक और सुसुमा बालिका को अपहृत हुआ जानकर महान अर्थवान, महानं मूल्यवान और महान अर्हता वाला उपहार लेकर जहां नगर आरक्षक थे, वहां आया। वहां आकर महान अर्थवान, महान मूल्यवान और महान अर्हता वाला उपहार भेंट किया। भेंट कर इस प्रकार बोला- देवानुप्रियो! चोर सेनापति चिलात सिंहगुफा चोरपल्ली से शीघ्र यहां आकर, पांच सौ चोरों के साथ मेरा घर लूट, बहुत-सा धन, कनक और सुंसुमा बालिका को ले, राजगृह नगर से निकलकर जहां सिंहगुफा थी वहां वापस चला गया। अतः देवानुप्रियो! मैं सुसुमा बालिका की खोज करने के लिए जाना चाहता हूँ । देवानुप्रियो ! वह विपुल धन-कनक तुम्हारा और सुसुमा बालिका मेरी । ४०. उन नगर आरक्षकों ने धन का यह प्रस्ताव स्वीकार किया। स्वीकार कर सन्नद्ध बद्ध हो कवच पहने यावत् आयुध और प्रहरण लिये । महान उत्कृष्ट, सिंहनाद जनित कोलाहलपूर्ण शब्दों द्वारा प्रक्षुभित महासागर की भांति धरती को शब्दायमान करते हुए वे राजगृह से निकले। निकलकर जहां चोर सेनापति चिलात था, वहां आये। वहां आकर चोर सेनापति चिलात के साथ युद्ध करने लगे। ४१. उन नगर आरक्षकों ने चोर सेनापति चिलात को हत मथित कर डाला, उसके प्रवर वीरों को यमधाम पहुंचा दिया। सेना के चिह्न - ध्वजाओं और पताकाओं को गिरा दिया, उसके प्राण संकट में डाल दिये और सब दिशाओं से उसके प्रहारों को विफल कर दिया। ४२. जब उन नगर आरक्षकों ने उन पांच सौ चोरों को हत मथित कर डाला, उनके प्रवर वीरों को यमधाम पहुंचा दिया, सेना के चिह्नध्वजाएं और पताकाएं गिरा दी, प्राण संकट में डाल दिये और सब दिशाओं से उनके प्रहार विफल कर दिये, तब वे चोर उस विपुल धन- कनक को फेंकते हुए, बिखेरते हुए चारों ओर भाग गए। ४३. उन नगर आरक्षकों ने उस विपुल धन, कनक को बटोर लिया। बटोर कर जहां राजगृह नगर था, वहां आ गए। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३८१ अठारहवां अध्ययन : सूत्र ४४-४८ चिलायस्स चोरपल्लीतो पलायण-पदं चिलात का चोर-पल्ली से पलायन-पद ४४. तएणं से चिलाए तं चोरसेन्नं तेहिं नगरगुत्तिएहिं हय-महिय-पवर ४४. उन नगर आरक्षकों ने उस चोर सेना को हत-मथित कर, वीर-घाइय-विवडियचिंध-घय-पडागं किच्छोवगयपाणं दिसोदिसिं उसके प्रवर वीरों को यमधाम पहुंचा, सेना के चिह्न-ध्वजाएं और पडिसेहियं (पासित्ता?) भीए तत्थे सुसुमं दारियं गहाय एगं महं पताकाएं गिरा, प्राण संकट में डाल, सब दिशाओं से उसके प्रहार अगामियं दीहमद्धं अडविं अणुप्पविढे। विफल कर दिये हैं--यह देखकर वह चिलात भीत, त्रस्त हो, सुसुमा बालिका को ले, एक महान ग्राम रहित प्रलम्ब मार्ग वाली अटवी में घुस गया। ४५. तए णं से धणे सत्थवाहे सुसुमं दारियं चिलाएणं अडवीमुहिं अवहीरमाणिं पासित्ता णं पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछट्टे सण्णद्धबद्ध-वम्मिय-कवए चिलायस्स पयमग्गविहिं अणुगच्छमाणे अभिगज्जत हक्कारेमाणे पुक्कारेमाणे अभितज्जेमाणे अभितासेमाणे पिट्ठओ अणुगच्छइ।। ४५. वह चिलात सुंसुमा बालिका को अपहृत कर अटवी की ओर ले जा रहा है, यह देखकर धन सार्थवाह पांचो पुत्रों सहित छठा स्वयं सन्नद्ध बद्ध हो कवच पहन, चिलात के पदचिह्नों का अनुगमन करता हुआ गर्जना करता हुआ उसे हा दुष्ट, हा दुष्ट कहता हुआ, पुकारता हुआ, अभितर्जित करता हुआ और अभित्रस्त करता हुआ उसका पीछा करने लगा। ४६. तए णं से चिलाए तं धणं सत्यवाहं पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अप्पछटुं सण्णद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवयं समणुगच्छमाणं पासइ, पासित्ता अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे जाहे नो संचाएइ सुंसुमं दारियं निव्वाहित्तए ताहे संते तंते परितंते नीलुप्पलगवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासं खुरधारं असिं परामुसइ, परामुसित्ता सुंसुमाए दारियाए उत्तमंग छिंदइ, छिंदित्ता तं गहाय तं अगामियं अडविं अणुप्पविद्रु॥ ४६. चिलात ने पांचो पुत्रों सहित छठे स्वयं धन सार्थवाह को सन्नद्ध-बद्ध हो कवच पहन अपना पीछा करते हुए देखा। यह देखकर वह शक्तिहीन, बलहीन, वीर्यहीन, पुरुषकारहीन और पराक्रमहीन हो गया। जब वह सुंसुमा बालिका का निर्वहन नहीं कर पाया तो उसने श्रान्त, क्लान्त और परिक्लान्त हो, नीलोत्पल, भैंसे का सींग और अतसी कुसुम के समान प्रभा और तीक्ष्ण धार वाली तलवार को हाथ में लिया। लेकर सुंसुमा बालिका का सिर काट दिया। काटकर उस कटे हुए सिर को लेकर वह उस ग्राम-रहित अटवी में घुस गया। ४७. तए णं से चिलाए तीसे अगामियाए अडवीए तण्हाए (छुहाए?)अभिभूए समाणे पम्हट्ठ-दिसाभाए सीहगुहं चोरपल्लि असंपत्ते अंतरा चेव कालगए। ४७. वह चिलात उस ग्राम-रहित अटवी में प्यास (क्षुधा?) से अभिभूत होकर दिग्मूढ़ हो गया। वह सिंहगुफा चोरपल्ली तक नहीं पहुंच सका और बीच में ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। निगमण-पदं ४८. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंयो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स खेलासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासवस्स दुख्य-उस्सास-निस्सासस्स दुख्य-मुत्त-पुरीस-पूय-बहुपडिपुण्णस्स उच्चार-पासवण-खेलसिंघाणग-वंत-पित्त-सुक्क-सोणियसंभवस्स अधुवस्स अणितियस्स असासयस्स सडण-पडण-विद्धंसणधम्मस्स पच्छा पुरं च णं अवस्स-विप्पजहणिज्जस्स वण्णहेउं वा रूवहेउं वा बलहेउं वा विसयहेउं वा आहारं आहारेइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य हीलणिज्जे जाव चाउरतं संसारकंतारं अणुपरियट्टिस्सइ--जहा व से चिलाए तक्करे। निगमन-पद ४८. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निम्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो इस वमन, पित्त, कफ, शुक्र, शोणित के झरने, दुर्गन्धित उच्छ्वास-नि:श्वास वाले, दुर्गन्धित मल-मूत्र और पीव से प्रतिपूर्ण, मल-मूत्र, कफ, नाक के मैल, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से उत्पन्न, अधुव, अनित्य, अशाश्वत तथा सड़ने, गिरने और विध्वस्त हो जाने वाले, पहले या पीछे अवश्य छूट जाने वाले औदारिक शरीर के वर्ण, रूप और बल की वृद्धि के लिए अथवा विषय-पूर्ति के लिए आहार करता है, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय होता है यावत् वह चार गति वाले संसार रूपी कान्तार में पुन:-पुन: अनुपरिवर्तन करेगा, जैसे--वह चिलात तस्कर। Jain Education Intemational Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां अध्ययन सूत्र ४९-५२ धणस्स सुसुमाकए कंदण-पदं ४९. तए णं से धणे सत्यवाहे पंचहिं पुत्तेहिं (सद्धिं ?) अप्पछडे चिलायं तीसे अगामियाए अडवीए सम्बओ समता परिघाडेमाणेपरिधाडेमाणे संते तते परितते नो संचाएइ चितायं चोरसेणावई साहत्थिं गिण्हित्तए । से णं तओ पडिनियत्तइ, पडिनियत्तित्ता जेणेव सा संसुमा चिलाएण जीकियाओ वक्रोविया तेगेव उपागच्छ उवागच्छित्ता सुसुमं दारिवं चिलाएणं जीबियाओ क्रोक्यिं पास, पासिता परसुनियले व्व चंपगपायवे निव्वत्तमहे व्व इंदली विमुक्क-संधिबंधणे धरणितलंसि सव्वंगेहिं धसत्ति पडिए ।। ३८२ ५०. तए णं से धणे सत्यवाहे (पंचहिं पुत्तेहिं सद्धि ?) अप्पछडे आसत्ये कुवमाणे कंदमाणे विलवमाणे महया महया सदेणं कुहुकुहुस्स परुन्ने सुचिरकालं बाहप्पमोक्खं करेइ । धणेणं अडवि- लंघणट्ठ सुया-मंससोणियाहार - पदं ५१. तए णं से धणे सत्यवाहे पंचहि पुतेहिं (सद्धि ?) अप्पछ चिलाय तोते अगामियाए अडवीए सव्वओ समता परिधाडेमाणे तहाए छुहाए य परब्भाहते समाणे तीसे अगामियाए अडवीए सब्बओ समता उदगस्स भगाण- वेसणं करेमाणे सते ते परितते निव्विण्णे तीसे अगामियाए अडवीए उदगं अणासाएमाणे जेणेव सुसुमा जीवियाओ ववरोविएल्लिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जेटुं पुत्तं धणं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी -- एवं तु पुत्ता! सुसुमाए दारियाए अट्ठाए चिलायं तक्करं सम्यओ समता परिधाडेमाणा तण्हाए छुहाए य अभिभूया समाणा इमीसे अगामियाए अडवीए उदगस्स मग्गण - गवेसणं करेमाणा नो चेव णं उदगं आसादेमो । तए णं उदगं अणासाएमाणा नो संचाएमो रायगिहं संपात्तिए । तण्णं तुन्भे ममं देवाशुप्पिया! जीविवाओ ववरोवेह, मम मंसं च सोणियं च आहारेह, तेणं आहारेणं अवद्धा समाणा तओ पच्छा इमं अगामियं अडविं नित्यरिहिह, रायगिहं च संपावेहिह, मित्त-नाइ नियगसपण संबंधि परियणं अभिसमागच्छहिह, अत्यस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह ।। ५२. तए णं से जेट्ठे पुत्ते धणेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे धणं सत्यवाहं एवं क्यासी तुन्भे गं ताओ! अम्हं पिया गुरुजणया देवयभूया ठवका पट्ठवका संरक्खगा संगोवगा । तं कहणणं अम्हे ताओ! तुब्भे जीवियाओ ववरोवेमो, तुब्भं णं मंसं च सोणियं च आहारेमो? तं तुब्भे णं ताओ! ममं जीवियाओ ववरोवेह, मंसं च सोणियं च आहारेह, अगामियं अडविं नित्थरिहिह, रायगिहं च नायाधम्मकहाओ धन का सुसुमा के लिए क्रन्दन - पद , ४९. पांचो पुत्रों सहित छठा स्वयं धन सार्थवाह उस ग्राम रहित अटवी में चितास के पीछे चारों ओर दौड़ता दौड़ता श्रान्त, क्लान्त और परिक्लान्त हो जाने के कारण वह चोर सेनापति को पकड़ नहीं पाया। तब वह वहां से लौटा। लौटकर जहां चिलात द्वारा मारी गयी सुसुमा थी, वहां आया। वहां आकर उसने चिलात द्वारा मारी गयी। सुसुमा को देखा। देखकर परशु से छिन्न चम्पक के पौधे की भांति और उत्सव की समाप्ति पर इन्द्र यष्टि की भांति संधिबन्धन खुल से वह अपने सम्पूर्ण शरीर के साथ धड़ाम से धरती पर गिर पड़ा। ५०. तब ( पांचों पुत्रों सहित) छठे स्वयं, धन सार्थवाह ने आश्वस्तहोकर कूजन (अव्यक्त शब्दपूर्वक रुदन), क्रन्दन और विलाप करते हुए, कुहू कुहू शब्दपूर्वक जोर-जोर से रोते हुए सुचिरकाल तक आंसू बहाए । अटवी लंघन के लिए धन द्वारा पुत्री के मांस और शोणित का आहार पद ५१. पांचो पुत्रों सहित छठे स्वयं धन सार्थवाह ने उस ग्राम रहित अटवी में चिलात के पीछे चारों ओर दौड़ते-दौड़ते भूल और प्यास से पीड़ित होकर उस ग्राम रहित अटवी में चारों ओर पानी की खोज की। जब उस ग्राम रहित अटवी में कहीं भी जल उपलब्ध नहीं हुआ, तब वे श्रान्त, क्लान्त परिक्तान्त और उदास होकर जहां मृत सुसुमा थी वहां आए। वहां आकर ज्येष्ठ पुत्र धन को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा-पुत्र सुसुमा बालिका के लिए पिलात तस्कर के पीछे चारों ओर दौड़ते-दौड़ते हम भूख और प्यास से अभिभूत हो उठे हैं। इस ग्राम रहित अटवी में चारों ओर जल की खोज करने पर भी जल प्राप्त नहीं हो रहा है। जल को प्राप्त किये बिना हम राजगृह नगर नहीं पहुंच सकते। अतः देवानुप्रियो! तुम मुझे मार डालो, मेरे मांस और शोणित का आहार करो। उस आहार से प्राणों की रक्षा कर, इस ग्राम रहित अटवी को पार करो। राजगृह पहुंचो मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से मिलो तथा अर्थ, धर्म और पुण्य के आभागी बनो। - ५२. धन सार्थवाह के ऐसा कहने पर ज्येष्ठ पुत्र ने धन सार्थवाह से इस प्रकार कहा–तात! तुम हमारे पिता, गुरुजन और देवतुल्य हो । हमें (गृहस्थ धर्म या नीति मार्ग पर स्थित करने वाले हो प्रतिष्ठित करने वाले हो । हमारा संरक्षण और संगोपन करने वाले हो । अतः तात! हम तुम्हें कैसे मारे? कैसे तुम्हारे मांस और शोणित का आहार करें? इसलिए तात! तुम मुझे मार डालो। मेरे मांस और शोणित का Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३८३ अठारहवां अध्ययन : सूत्र ५२-५९ संपावेहिह, मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं अभिसमा- आहार करो। इस ग्राम रहित अटवी को पार करो। राजगृह पहुंची। गच्छिहिह, अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह ।। मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से मिलो तथा अर्थ, धर्म और पुण्य के आभागी बनो। ५३. तए णं घणं सत्थवाहं दोच्चे पुत्ते एवं वयासी--मां णं ताओ अम्हे जेहूँ भायरं गुरुदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो, तस्स णं मंसं च सोणियं च आहारेमो। तं तुब्भे णं ताओ! ममं जीवियाओ ववरोकेह, मंसंच सोणियंच आहारेह, अगामियं अडविं नित्थरिहिह, रायगिहं च संपावेहिह, मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं अभिसमागच्छिहिह, अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह। एवं जाव पंचमे पुत्ते ।। ५३. तब दूसरा पुत्र धन सार्थवाह से इस प्रकार बोला--तात! हमारे गुरु और देवतुल्य ज्येष्ठ भ्राता को नहीं मारें और न ही उसके मांस और शोणित का आहार करें। अत: तात! तुम मुझे मार डालो, मेरे मांस और शोणित का आहार करो। इस ग्राम रहित अटवी को पार करो। राजगृह पहुंची। मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से मिलो तथा अर्थ, धर्म और पुण्य के आभागी बनो। इस प्रकार यावत् पांचवां पुत्र भी बोला। ५४. तए णं से धणे सत्थवाहे पंचपुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता ते पंचपुत्ते एवं वयासी--मा णं अम्हे पत्ता! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो । एस णं सुसुमाए दारियाए सरीरे निप्पाणे निच्चेट्टे जीवविप्पजढे । तं सेयं खलु पुत्ता! अम्हं सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेत्तए। तए णं अम्हे तेणं आहारेणं अवघद्धा समाणा रायगिहं संपाउणिस्सामो।। ५४. पांचो पुत्रों के अन्तर्मन की इच्छा को जानकर धन सार्थवाह ने उन पांचो पुत्रों से इस प्रकार कहा--पुत्रो! हम किसी को भी न मारें। यह रहा सुंसुमा बालिका का निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव शरीर । अत: पुत्रो! हमारे लिए उचित है हम सुंसुमा बालिका के मांस और शोणित का आहार करें। इस आहार से प्राणों की सुरक्षा करते हुए हम राजगृह पहुंच सकेंगे। ५५. तए णं ते पंचपुत्ता धणेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा एयमढे पडिसुणेति॥ . ५५. धन सार्थवाह के ऐसा कहने पर पांचो पुत्रों ने उसके इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। ५६. तए णं धणे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अरणिं करेइ, करेत्ता सरगं करेइ, करेत्ता सरएणं अरणिं महेइ, महेत्ता अग्गि संधुक्केइ संधुक्केत्ता दारुयाई पक्खिवइ, पक्खिवित्ता अग्गि पज्जालेइ, सुसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेइ । तेणं आहारेणं अवथद्धा समाणा रायगिह नयरं संपत्ता मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियणं अभिसमण्णागया, तस्स य विउलस्स घणकणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयणसंत-सार-सावएज्जस्स आभागी जाया।। ५६. पांचो पुत्रों सहित धन सार्थवाह अरणि लाया । अरणि लाकर सरक लाया। लाकर सरक से अरणि को मथा। मथकर आग पैदा की। पैदा कर उसमें ईंधन डाला। ईंधन डालकर अग्नि को प्रज्ज्वलित किया और उसमें पकाकर उन सबने सूसुमा के मांस और शोणित का आहार किया। उस आहार से प्राणों की सुरक्षा करते हुए वे राजगृह नगर पहुंचे। मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से मिले और उस विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, पद्मराग-मणियां, श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्य और दान भोग आदि के लिए स्वापतेय के आभागी बने। ५७. तए णं से धणे सत्यवाहे सुंसुमाए दारियाए बहूई लोइयाई मयकिच्चाई करेइ, करेत्ता कालेणं विगयसोए जाए यावि होत्था॥ ५७. धन सार्थवाह ने सुसुमा बालिका के अनेक लौकिक मृतक-कार्य सम्पन्न किए। सम्पन्न कर समय आने पर शोकमुक्त हुआ। ५८. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए समोसढे।। ५८. उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के गुणशीलक चैत्य में समवसृत हुए। ५९. तए णं धणे सत्यवाहे सपुते धम्म सोच्चा पव्वइए। एक्कारसंगवी। मासियाए संलेहणाए सोहम्मे कप्पे उववण्णे। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ॥ ५९. पुत्रों सहित धन सार्थवाह धर्म सुनकर प्रव्रजित हुआ। उसने ग्यारह अंगो का अध्ययन किया। मासिक संलेखना पूर्वक सौधर्मकल्प में उपपन्न हुआ यावत वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा। Jain Education Intemational Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ नायाधम्मकहाओ अठाहवां अध्ययन : सूत्र ५९-६२ निगमण-पदं ६०. जहा वि य णं जंबू! धणेणं सत्थवाहेणं नो वण्णहेउं वा नो रूवहे वा नो बलहेउं वा नो विसयहेउं वा संसमाए दारियाए मंससोणिए आहारिए, नन्नत्थ एगाह रायगिह-संपावणट्ठयाए।। निगमन-पद ६०. जम्बू! जैसे धन सार्थवाह ने सुंसुमा बालिका के मांस और शोणित का आहार न वर्ण के लिए किया। न रूप के लिए किया। न बल के लिए किया और न विषय के लिए किया। उसने राजगृह पंहुचने के अतिरिक्त किसी अन्य उद्देश्य से उस मांस और शोणित का आहार नहीं किया। ६१. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स (खेलासवस्स?) सुक्कासवस्स सोणियासवस्स दुरुय-उस्मासनिस्सासस्स दुरुय-मुत्त-पुरीस-पूय-बहुपडिपुण्णस्स उच्चारपासवण-खेल-सिंघाणग-वंत-पित्त-सुक्क-सोणियसंभवस्स अधुवस्स अणितियस्स असासयस्स सडण-पडण-विद्धंसणधम्मस्स पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहियव्वस्स नो वण्णहेउं वा नो रूवहेउं वा नो बलहेउं वा नो विसयहेउं वा आहारं आहारेइ, नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमण-संपावणट्ठयाए, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे जाव चाउरतं संसारकतारं वीईवइस्सइ--जहा व से सपुत्ते धणे सत्थवाहे ।। ६१. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो आगार से अनगारता में प्रव्रजित होकर इस वमन, पित्त (कफ?), शुक्र, शोणित के झरने, दुर्गन्धित उच्छ्वास-नि:श्वास वाले, दुर्गन्धित मल-मूत्र और पीव से प्रतिपूर्ण, मल, मूत्र, कफ, नाक के मैल, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से उत्पन्न, अधुव, अनित्य, अशाश्वत तथा सड़ने, गिरने और विध्वस्त हो जाने वाले और पहले या पीछे अवश्य छूट जाने वाले औदारिक शरीर के वर्ण, रूप और बल की वृद्धि के लिए अथवा विषय पूर्ति के लिए आहार नहीं करता, सिद्धि गति को प्राप्त करने के अतिरिक्त अन्य किसी उद्देश्य से आहार नहीं करता, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय होता है यावत् वह चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार का पार पा लेगा, जैसे--वह पुत्रों सहित धन सार्थवाह । ६२. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्स नायझयणस्स अयमढे पण्णत्ते। -त्ति बेमि ।। ६२. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के अठारहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है -ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समृद्धता निमनगाथा जह सो चिलाइपुत्तो सुंसुमगिद्धो अकज्ज-पडिबद्धो। घण-पारद्धो पत्तो, महाडविं वसण-सयकलियं ।। तह जीवो विसह-सुहे, लुद्धो काऊण पावकिरियाओ। कम्मवसेणं पावइ, भवाडवीए महादुक्खं ॥२॥ वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन--गाथा १-२ जैसे सुसुमा में गृद्ध वह चिलातीपुत्र अकरणीय कार्यों से अनुबन्धित हो धन के पीछा करने पर सैकड़ों दुःखों से संकुल महा अटवी को प्राप्त हुआ। वैसे ही वैषयिक सुखों में लुब्ध प्राणी पापमय प्रवृत्तियों का सम्पादन कर, कृत कर्मों के अधीन हो, भव रूपी अटवी में महान दुःखों को प्राप्त करता है। घणसेट्ठी विव गुरुणो, पुत्ता इव साहवो भवो अडवी। सुयमंसमिवाहारो, रायगिह इह सिवं नेयं ।।३।। ३. इस उपनय में धन श्रेष्ठी के समान गुरुजन हैं। पुत्रों के समान मुनिजन हैं। अटवी के समान संसार है। पुत्री के मांस के समान आहार और राजगृह के समान मोक्ष ज्ञातव्य है। जह अडवि-नियर-नित्थरण-पावणत्थं तएहिं सुयमसं। भुत्तं तहेह साहू, गुरूण आणाइ आहारं ।।४।। भव-लंघण-सिव-साहणहेउं भुजंति ण गेहीए। वण्ण-वल-रूव-हेळं, च भावियप्पा महासत्ता ।।५।। ४-५ जैसे अटवी को लांघने और नगर को पाने के लिए उन्होंने पुत्री के मांस का आहार किया, वैसे ही इस जिन-शासन में भावितात्मा, महासत्त्व, मुनि भव को लांधने तथा शिव को साधने के लिए गुरु की आज्ञा से आहार करते हैं। वे आसक्ति से अथवा वर्ण, बल और रूप की वृद्धि के लिए आहार नहीं करते। Jain Education Intemational Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रस्तुत अध्ययन में पुण्डरीक के उदात्त चरित्र का चित्रण हुआ है अत: इसका नाम पुण्डरीक रखा गया है। पुण्डरीक अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य है-भावात्मक परिवर्तन । दीर्घकालीन प्रव्रज्या के बावजूद भी यदि मन में संयम के प्रति अनुरक्ति नहीं होती तो सुगति सम्भव नहीं। आहार के प्रति आसक्ति सुविधावाद और शिथिलाचार को जन्म देती है। भावात्मक परिवर्तन का एक बहुत बड़ा निमित्त है-बीमारी, बीमारी की दीर्घकालीन चिकित्सा और चिकित्साकालीन सुविधा। चिकित्सा काल में प्राप्त सांसारिक सुविधाओं और राजसी भोजन-पान में आसक्ति मुनि कण्डरीक के संयम से पतन में निमित्त बनी। इसीलिए कहा गया है-जो श्रमण सुख का रसिक, सात के लिए आकुल, अकाल में सोने वाला और हाथ-पैर आदि को बार-बार धोनेवाला होता है उसके लिए सुगति दुर्लभ है। जिन्हें संयम और तप प्रिय होता है, वे अल्पकालीन साधना से भी अपने प्रयोजन को सिद्ध कर लेते हैं। पुण्डरीक का उदात्त चरित्र दशवैकालिक सूत्र के निम्नोक्त पद्य का सुन्दर निदर्शन है-- पच्छा वि ते पयाया, खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई। जेसिं पिओ तवो संजमो य खंति य बंभचेरं च ।। १. दसवेआलियं ४/२६ २. वही, ४/२७ Jain Education Intemational Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणबीसइमं अज्झयणं उन्नीसवां अध्ययन पुंडरी : पुण्डरिक उक्खेव पदं १. जइ णं भंते! समणेण भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्स नायज्झयणस्स अयम पण्णत्ते, एगुणवीसइमस्त णं भंते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? २. एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूदीने दीवे पुव्वविदेहे, सीयाए महानईए उत्तरिल्ले कूले, नीलवंतस्स (वासहरपव्वयस्स?) दाहिणेणं, उत्तरिल्लस्स सीयामुहवणसंडस्स पच्चत्विमेणं, एगसेलगस्स क्क्खारपव्ययस्स पुरत्थिमेणं एत्य गं पुक्खलावई नामं विजए पण्णत्ते ।। ३. तत्व णं पुंडरीगिणी नाम रायहाणी पण्णत्ता नवजोयणवित्यिण्णा दुवालस जोयणायामा जाव पच्चक्वं देवलोगभूया पासाईया दरिसणीया अभिरूवा पडिरूवा ।। ४. तीसे णं पुंडरीगिणीए नयरीए उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए नलिणिवणे नाम उज्जाणे ।। ५. तत्थ णं पुंडरीगिणीए रायहाणीए महापउमे नामं राया होत्या ।। ६. तस्स णं पउमावई नाम देवी होत्या ।। ७. तस्स णं महापउमस्स रण्णो पुत्ता पउमावईए देवीए अत्तया दुवे कुमारा होत्या, तं जहा पुंडरीए व कंडरीए व सुकुमालपाणिपाया। पुंडरीए जुवराया || - कंडरीयस्स पव्वज्जा-पदं ८. तेणं कालेणं तेणं समएणं घेरागमणं । महापउमे राया निग्गए । धम्मं सोच्चा पुंडरीयं रज्जे ठवेत्ता पव्वइए। पुंडरीए राया जाए, कंडरीए जुवराया । महापउमे अणगारे चोहसपुव्वाइं अहिज्जइ । । ९. तए णं थेरा बडिया जणवयविहारं विहरति ।। १०. तए गं से महापउमे बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाठणित्ता जाव सिद्धे ॥ : उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्त्ता यावत् सिद्धि गति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के अठारहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते! उन्होंने ज्ञाता के उन्नीसवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. जम्बू! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप द्वीप पूर्वविदेह में सीता महानदी के उत्तरी तट पर नीलवंत ( वर्षधर पर्वत ? ) के दक्षिण में उत्तरी सीतामुख वनखण्ड के पश्चिम में, एकशैलक वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में पुष्करावती नाम की विजय प्रज्ञप्त है। ३. वहां पुण्डरीकिणी नाम की राजधानी प्रज्ञप्त है। वह नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लम्बी यावत् प्रत्यक्ष देवलोक तुल्य, चित्त को प्रसन्न करने वाली दर्शनीय, सुन्दर और असाधारण थी। 2 ४. उस पुण्डरीकिणी नगरी के ईशानकोण में नलिनीवन नाम का उद्यान था । ५. उस पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म नाम का राजा था। ६. उसके पद्मावती नाम की देवी थी। ७. उस राजा महापद्म के पुत्र, पद्मावती देवी के आत्मज दो कुमार थे, जैसे -- पुण्डरीक और कण्डरीक । वे सुकुमार हाथ-पांव वाले थे। पुण्डरीक युवराज था। कण्डरीक का प्रव्रज्या पद ८. उस काल और उस समय स्थविरों का आगमन हुआ। महापद्म राजा ने निर्गमन किया। वह धर्म को सुन, पुण्डरीक को राज्य पर स्थापित कर प्रव्रजित हुआ। पुण्डरीक राजा बना और कण्डरीक युवराज । महापद्म अनगार ने चौदह पूर्वो का अध्ययन किया। ९. स्थविर बाहर जनपद विहार करने लगे। - १०. वह महापद्म अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर यावत् सिद्ध हुआ। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३८७ उन्नीसवां अध्ययन : सूत्र ११-१७ ११. तए णं थेरा अण्णया कयाइ पुणरवि पुंडरीगिणीए रायहाणीए ११. किसी समय स्थविर पुन: पुण्डरीकिणी राजधानी के नलिनी वन उद्यान नलिण (णि?) वणे उज्जाणे समोसढा। पुंडरीए राया निग्गए। में समवसृत हुए। राजा पुण्डरीक ने निर्गमन किया। कण्डरीक ने भी कंडरीए महाजणसई सोच्चा जहा महाबलो जाव पज्जुवासइ। महान जन शब्द सुनकर यावत् महाबल के समान पर्युपासना की। थेरा धम्म परिकहेंति । पुंडरीए समणोवासए जाए जाव पडिगए।। स्थविर ने धर्म का कथन किया। पुण्डरीक श्रमणोपासक बना यावत् वापस चला गया। १२. तए णं कंडरीए थेराणं अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुढे १२. स्थविरों के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर, हृष्ट-तुष्ट होकर उट्ठाए उढेइ, उद्वेत्ता थेरे तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, कण्डरीक स्फूर्ति के साथ उठा। उठकर स्थविरों को तीन बार दायीं करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--सद्दहामि ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना की। नमस्कार किया। णं भंते! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुन्भे वयह। जं वन्दना-नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला--भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ नवरं--पुंडरीयं रायं आपुच्छामि । तओ पच्छा मुडे भवित्ता णं प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ यावत् वह वैसा ही है, जैसे तुम कह रहे अगाराओ अणगारियं पव्वयामि । हो। विशेष--मैं राजा पुण्डरीक से पूछू। उसके पश्चात् मुण्ड हो अहासुहं देवाणुप्पिया! अगार से अनगारता में प्रव्रजित होऊ। जैसा सुख हो, देवानुप्रिय! १३. तए णं से कंडरीए थेरे वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ, तमेव चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ महयाभड-चडगर-पहकरेण पुंडरीगिणीए नयरीए मझमज्झेणं जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटाओ आसरहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिगहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मए थेराणं अंतिए धम्मे निसते, से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे घेराणं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। १३. कण्डरीक ने स्थविरों को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर स्थविरों के पास से उठकर बाहर गया। उसी चार घंटाओं वाले अश्व-रथ पर आरोहण किया। महान सैनिकों की विभिन्न टुकड़ियों और पथ-दर्शक पुरुषों के साथ पुण्डरीकिणी नगरी के बीचोंबीच होता हुआ, जहां उसका अपना भवन था, वहां आया। वहां आकर चार घंटाओं वाले अश्व-रथ से उतरा। उतरकर जहां राजा पुण्डरीक था, वहां आया। वहां आकर जुड़ी हुई सटे हुए दस नखों वाली अञ्जलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय! मैने स्थविरों के पास धर्म सुना है। वही धर्म मुझे इष्ट, ग्राह्य और रुचिकर है। अत: देवानुप्रिय! मैं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर स्थविरों के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होना चाहता हूँ। १४. तए णं से पुंडरीए राया कंडरीयं एवं वयासी--मा गं तुमं भाउया! इयाणिं मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वयाहि। अहं णं तुम महारायाभिसेएणं अभिसिंचामि ॥ १४. राजा पुण्डरीक ने कण्डरीक से इस प्रकार कहा-भ्रात! तुम अभी मण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित मत बनो। मैं तुम्हें महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त करता हूँ। १५. तए णं से कंडरीए पुंडरीयस्स रण्णो एयमद्वं नो आढाइ नो परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठइ। १५. कण्डरीक राजा ने पुण्डरीक के इस अर्थ को न आदर दिया और न उसकी ओर ध्यान दिया। वह मौन रहा। १६. तएणं से पुंडरीए राया कंडरीयं दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी--मा णं तुम भाउया! इयाणिं मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वयाहि । अहं णं तुमं महारायाभिसेएणं अभिसिंचामि ।। १६. राजा पुण्डरीक ने दूसरी, तीसरी बार भी कण्डरीक से इस प्रकार कहा-भ्रात! तुम अभी मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित मत बनो। मैं तुम्हें महान राज्याभिषेक से अभिषिक्त करता हूँ। १७. तए णं से कंडरीए पुंडरीयस्स रण्णो एयमद्वं नो आढाइ नो परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठइ।। १७. कण्डरीक ने राजा पुण्डरीक के इस अर्थ को न आद १७. कण्डरीक ने राजा पुण्डरीक के इस अर्थ को न आदर दिया और न उसकी ओर ध्यान दिया। वह मौन रहा। Jain Education Intemational Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां अध्ययन : सूत्र १८-२४ ३८८ नायाधम्मकहाओ १८. तए णं पुंडरीए कंडरीयं कुमारं जाहे नो संचाएइ बहूहिं आघवणाहि १८. जब पुण्डरीक बहुत सारी आख्यापनाओं, प्रज्ञापनाओं, संज्ञापनाओं और य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आघवित्तए वा विज्ञापनाओं के द्वारा कण्डरीक कुमार को आख्यापित, प्रज्ञापित, पण्णवित्तए वा सण्णवित्तए वा विण्णवित्तए, वा ताहे अकामए संज्ञापित और विज्ञापित नहीं कर सका तब न चाहते हुए भी उसने चेव एयम8 अणुमन्नित्था जाव निक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचइ अनुमति दे दी यावत् उसे निष्क्रमण योग्य अभिषेक से अभिषिक्त किया जाव थेराणं सीसभिक्खं दलयइ। पव्वइए। अणगारे जाए। यावत् स्थविरों को शिष्य-भिक्षा समर्पित की। कण्डरीक प्रव्रजित एक्कारसंगवी॥ हुआ। अनगार बना। ग्यारह अंगों का ज्ञाता बना। १९. तए णं थेरा भगवंतो अण्णया कयाइ पुंडरीगिणीओ नयरीओ नलिणिवणाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमंति, बहिया जणवयविहारं विहरति॥ १९. किसी समय स्थविर भगवान ने पुण्डरीकिणी नगरी के नलिनीवन उद्यान से प्रतिनिष्क्रमण किया और बाहर जनपद विहार करने लगे। कंडरीयस्स वेयणा-पदं २०. तए णं तस्स कंडरीयस्स अणगारस्स तेहिं अंतेहि य पंतेहि य तुच्छेहि य लूहेहि य अरसेहि य विरसेहि य सीएहि य उण्हेहि य कालाइक्कतेहि य पमाणाइक्कतेहि य निच्चं पाणभोयणेहि य पयइसुकुमालस्स सुहोचियस्स सरीरगसि क्यणा पाउब्भूया--उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरइ।। कण्डरीक का वेदना-पद २०. कण्डरीक अनगार के सहज सुकुमार और सुख भोगने योग्य शरीर में नित्य सेवित अन्त, प्रान्त, निस्सार, रूक्ष, अरस, विरस, शीत, उष्ण, कालातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त भोजन-पान के कारण उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, चंड, दुःखद और दुःसह्य वेदना प्रादुर्भूत हुई। उसका शरीर पित्तज्वर और दाह से आक्रान्त हो गया। २१. तए णं थेरा अण्णया कयाइ जेणेव पोंडरीगिणी नयरी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता नलिणीवणे समोसढा । पुंडरीए निग्गए। धम्म सुणेइ॥ २१. किसी समय स्थविर जहां पुण्डरीकिणी नगरी थी, वहां आए। वहां आकर वे नलिनीवन में समवसृत हुए। पुण्डरीक ने निर्गमन किया। उसने धर्म को सुना। कडंरीयस्स तिगिच्छा-पदं २२. तए णं पुंडरीए राया धम्म सोच्चा जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता कंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगं सव्वाबांह सरोगं पासइ, पासित्ता जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवते वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--अहण्णं भंते! कंडरीयस्स अणगारस्स अहापवत्तेहिं ओसह-भेसज्ज-भत्तपाणेहि तेगिच्छं आउंटामि । तं तुब्भे णं भंते! मम जाणसालासु समोसरह ।। कण्डरीक का चिकित्सा-पद २२. राजा पुण्डरीक धर्म को सुनकर जहां कण्डरीक अनगार था, वहां आया। आकर कण्डरीक को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर कण्डरीक अनगार के शरीर को रोग से ग्रस्त देखा। देखकर जहां स्थविर भगवान थे, वहां आया। वहां आकर स्थविर भगवान को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोला--भन्ते! मैं कण्डरीक अनगार की यथाप्रवृत्त औषध, भेषज्य तथा भक्त-पान से चिकित्सा करवाता हूँ। अत: आप मेरी यानशाला में समवसृत होवें। २३. तए णं थेरा भगवंतो पुंडरीयस्स (एयमटुं?) पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव पुंडरीयस्स रण्णोजाणसाला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता फासु-एसणिज्जं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं उवसंपज्जित्ता णं विहरति॥ २३. स्थविर भगवान ने पुण्डरीक के इस अर्थ को स्वीकार किया। स्वीकार कर जहां राजा पुण्डरीक की यानशाला थी, वहां आए। वहां आकर प्रासुक एवं एषणीय पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक को ग्रहण कर विहार करने लगे। २४. तए णं पुंडरीए राया तेगिच्छिए सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुन्भे णं देवाणुप्पिया ! कंडरीयस्स फासु-एसणिज्जेणं ओसह-भेसज्ज-भत्त-पाणेणं तेगिच्छं आउट्टेह।। २४. राजा पुण्डरीक ने चिकित्सकों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम प्रासुक एवं एषणीय औषध, भेषज्य तथा भक्त-पान से कण्डरीक की चिकित्सा करो। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ २५. तए णं ते तेगिच्छिया पुंडरीएणं रण्णा एवं वृत्ता समाणा कंडरीयस्स अहापवत्तेहिं ओसह भेसज्ज - भत्त-पाणेहिं तेगिच्छं आउट्टेति, मज्जपाणगं च से उवदिसंति ।। २६. तए णं तस्स कंडरीपस्स अहापवत्तेहिं ओसह भेसज्ञ भत्त पाणेहिं मज्जपाणएण य से रोगायंके उवसंते यावि होत्या-- हट्ठे बलियसरीरे जाए बवगयरोगायके ॥ - कंडरीयस्स पमत्तविहार- पदं २७. तए गं थेरा भगवंतो पुंडरीयं रावं आपुच्छंति, आपुच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरति ।। ३८९ २८. तए से कंडरीए ताओ रोयायकाओ विप्यमुक्के समाने तसि मसि असण- पाण- खाइम साइमंसि मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्मोववरणे नो संचाएव पुंडरी आपुच्छिता बहिया अम्भुज्जए जणक्यविहारेण विहरिलए तत्वेव ओसन्ने जाए । पुंडरीएण पडिवोह पदं २९. तए णं से पुंडरीए इमीसे कहाए लढठ्ठे समाणे ण्हाए अतेउर-परियाल-संपरिवुडे जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छ उवागच्छिता कंडरी तिक्खुत्तो आवाहिण पाहिणं करेछ, करेत्ता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी धन्नेसि गं तुम देवाणुप्पिया! कयत्वे कयपुण्णे कपलक्लणे सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! तव माणुस्सए जम्म-जीवियफले जे गं तुमं रज्जं च रटुं च को च कोडागारं च बलं च वाहणं च पुरं च अंतेउरं च विच्छता विगोवइत्ता, दाणं च दाइयाणं परिभायइत्ता, मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्यइए, अहणणं अधन्ने अकपत्ये अकयपुण्णे अकलक्खणे रज्जे य रट्ठे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य अंतेउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे नो संचाएमि जाव पव्वइत्तए । तं धन्नेति णं तुमं देवाणुप्पिया! कयत्वे कयपुण्णे कयलक्खणे । सुतद्धे णं देवापिया! तव माणुस्तए जम्मजीवियफले ।। -- ३०. तए णं सेकंडरीए अणगारे पुंडरीयस्स एवमहं नो आढाइ नो परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठइ ॥ ३१.. तए गं से कंडरीए अणगारे पोंडरीएणं दोच्चपि तच्चापि एवं कुत्ते समाणे अकामए अवसवसे लज्जाए गारवेण य पुंडरीयं आपुच्छइ, आपुच्छिता घेरेहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरइ ।। उन्नीसवां अध्ययन सूत्र २५-३१ २५. राजा पुण्डरीक के ऐसा कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुए उन चिकित्सकों ने यथाप्रवृत्त औषध, भेषज्य तथा भवत पान से कण्डरीक की चिकित्सा की और उसे मादक पेय के सेवन का निर्देश दिया 1 २६. उन यथाप्रवृत्त औषध, भेषज्य, भक्त-पान तथा मादक पेय के सेवन सेकण्डरीक का रोगातंक उपशांत हो गया। उसका शरीर हृष्ट, स्वस्थ और रोगातंक से मुक्त हो गया। कण्डरीक का प्रमत्त विहार - पद २७. स्थविर भगवान ने राजा पुण्डरीक से पूछा। पूछकर बाहर जनपद विहार किया। २८. उस रोगातंक के शांत हो जाने पर भी वह कण्डरीक उस मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य में मूच्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन्न हो गया। अतः वह राजा पुण्डरीक से पूछकर अभ्युद्यत जनपद विहार नहीं कर सका। वह वहीं अवसन्न हो गया। पुण्डरीक द्वारा प्रतिबोध पद २९. जब राजा पुण्डरीक को इस बात का पता चला तो वह स्नान कर, अन्तःपुर परिवार से परिवृत हो जहां कण्डरीक अनगार था, वहां आया। वहां आकर कण्डरीक अनगार को तीन बार दांयी ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना की । नमस्कार किया । वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो ! के कृतार्थ हो! कृतपुण्य हो! कृतलक्षण हो! देवानुप्रिय! तुमने मनुष्य जन्म और जीवन का फल पाया है जिससे कि तुम राज्य, राष्ट्र, कोष, कोष्ठागार, बल, वाहन, पुर और अन्त: पुर को त्याग, उसकी अवगणना कर, दान दे, अपनी सम्पत्ति को बांट, मुण्ड हो अगार से अनगारा में प्राजित हो गए हो। मैं अधन्य हूँ, अकृतार्थ हूँ, अकृतपुष्य हूँ और अकृतलक्षण हूँ जो राज्य, राष्ट्र, कोष, कोष्ठागार, बल, वाहन, पुर और अन्तःपुर में तथा मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में मूर्च्छित, गुड, ग्रथित और अभ्युपपन्न होकर यावत् प्रब्रजित नहीं हो सका हूँ। अतः देवानुप्रिय ! तुम धन्य हो कृतार्थ हो। कृतपुण्य हो । कृतलक्षण हो । देवानुप्रिय! तुमने मनुष्य के जन्म और जीवन का फल प्राप्त किया है। ३०. कण्डरीक अनगार ने पुण्डरीक के इस कथन को न आदर दिया और न उसकी ओर ध्यान दिया। वह मौन रहा। ३१. पुण्डरीक द्वारा दूसरी-तीसरी बार भी ऐसा कहने पर अनचाहे ही विवश हो कण्डरीक ने लज्जा और गौरव के कारण पुण्डरीक को पूछा। पूछकर स्थविरों के साथ बाहर जनपद विहार करने लगा। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां अध्ययन : सूत्र ३२-३७ ३९० नायाधम्मकहाओ कंडरीयस्स पव्वज्जा-परिच्चाय-पदं कण्डरीक द्वारा प्रव्रज्या परित्याग-पद ३२. तए णं से कंडरीए थेरेहिं सद्धिं कंचि कालं उग्गंउग्गेणं विहरित्ता ३२. कण्डरीक ने कुछ समय तक स्थविरों के साथ अति उग्र विहार किया। तओ पच्छा समणत्तण-परितते समणत्तण-निविण्णे समणत्तण- उसके पश्चात् वह श्रामण्य से परिक्लान्त, श्रामण्य से उदासीन, श्रामण्य निब्भच्छिए समणगुण-मुक्कजोगी थेराणं अंतियाओ सणियं-सणियं के प्रति अनादर युक्त भावों तथा श्रमणोचित गुणों से मुक्त योग वाला पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव पुंडरीगिणी नयरी जेणेव हो गया। वह धीरे-धीरे स्थविरों के पास से खिसक गया। वहां से खिसक पुंडरीयस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवणियाए कर, वह जहां पुण्डरीकिणी नगरी थी, जहां पुण्दरीक का भवन था, वहां असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टगंसि निसीयइ, निसीइत्ता आया। वहां आकर अशोक-वनिका में प्रवर अशोक-वृक्ष के नीचे ओहयमणसंकप्पे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्झाणोवगए झियायमाणे पृथ्वी-शिलापट्ट पर बैठ गया। बैठकर भान-हृदय हो हथेली पर मुंह संचिट्ठइ। टिकाए आर्तध्यान में डूबा हुआ चिन्ता-मग्न हो रहा था। ३३. तए णं तस्स पोंडरीयस्स अम्मधाई जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टसि ओहयमणसंकप्पंजाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुंडरीयं रायं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! तव पियभाउए कंडरीए अणगारे असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ। ३३. उस पुण्डरीक की धायमाता जहां अशोक-वनिका थी, वहां आयी। वहां आकर प्रवर अशोक-वृक्ष के नीचे, पृथ्वी-शिलापट्ट पर कण्डरीक अनगार को भग्न-हृदय यावत् चिन्ता-मग्न देखा। देखकर वह जहां पुण्डरीक था, वहां आयी। आकर राजा पुण्डरीक से इस प्रकार बोली--देवानुप्रिय! तुम्हारा प्रिय भ्राता कण्डरीक अनगार अशोक-वनिका में प्रवर अशोक-वृक्ष के नीचे पृथ्वी-शिलापट्ट पर भग्न-हृदय यावत् चिन्ता-मग्न हो रहा है। ३४. तए णं से पंडरीए अम्मधाईए एयमढे सोच्चा निसम्म तहेव संभंते समाणे उठाए उढेइ, उद्वेत्ता अंतेउर-परियालसंपरिखडे जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं अणगारं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--धन्नेसि णं तुम देवाणुप्पिया! कयत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! तव माणुस्सए जम्म-जीवियफले जाव अगाराओ अणगारियं पव्वइए, अहं णं अधन्ने अकयत्थे अकयपुण्णे अकयलक्खणे जाव नो संचाएमि पव्वइत्तए। तं धन्नेसि णं तुम देवाणुप्पिया! जाव सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! तव माणुस्सए जम्म-जीवियफले।। ३४. धायमाता से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर, वह पुण्डरीक वैसे ही सम्भ्रान्त हो स्फूर्ति के साथ उठा। उठकर अन्त:पुर से परिवृत हो, जहां अशोक-वनिका थी, वहां आया। वहां आकर कण्डरीक अनगार को तीन बार दायीं ओर से प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय! तुम धन्य हो। कृतार्थ हो। कृतपुण्य हो। कृतलक्षण हो। देवानुप्रिय! तुमने मनुष्य के जन्म और जीवन का फल पाया है। यावत् तुम मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुए हो। ___ मैं निश्चित ही अधन्य हूँ , अकृतार्थ हूँ, अकृतपुण्य हूँ और अकृतलक्षण हूँ यावत् मैं प्रव्रजित नहीं हो सका। अत: देवानुप्रिय! तुम धन्य हो यावत् देवानुप्रिय! तुमने मनुष्य के जन्म और जीवन का वास्तविक फल पाया है। ३५. तए णं कंडरीए पुंडरीएणं एवं वृत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ। दोच्चंपि तच्चंपि पुंडरीएणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ॥ ३५. पुण्डरीक के ऐसा कहने पर कण्डरीक मौन रहा। दूसरी-तीसरी बार भी पुण्डरीक के ऐसा कहने पर वह मौन रहा। ३६. तए णं पुंडरीए कंडरीयं एवं वयासी--अट्ठो भंते! भोगेहिं? हता! अट्ठो। ३६. पुण्डरीक ने कण्डरीक से इस प्रकार पूछा--भन्ते! क्या तुम्हें भोगों से प्रयोजन है? हां, प्रयोजन है। ३७. तए णं से पुंडरीए राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! कंडरीयस्स महत्थं महग्धं महरिहं विउलंरायाभिसेयं उवट्ठवह जाव रायाभिसेएणं अभिसिंचति ।। ३७. राजा पुण्डरीक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही कण्डरीक के लिए महान अर्थवान, महान मूल्यावान और महान अर्हता वाले विपुल राज्याभिषेक की उपस्थापना करो यावत् उसको राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया। Jain Education Intemational Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३९१ उन्नीसवां अध्ययन : सूत्र ३८-४३ पुंडरीयस्स पव्वज्जा-पदं पुण्डरीक का प्रव्रज्या-पद ३८. तए णं से पुंडरीए सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, सयमेव ३८. पुण्डरीक ने स्वयमेव पंचमौष्टिक केश-लुञ्चन किया। स्वयमेव चाउज्जामं धम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता कंडरीयस्स संतियं चातुर्याम धर्म स्वीकार किया। स्वीकार कर कण्डरीक के आचार-भाण्ड आयारभंडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता इमं एयारूवं अभिग्गह (धर्मोपकरण) लिए। लेकर इस प्रकार का अभिग्रह स्वीकार अभिगिण्हइ--कप्पइ मे घेरे वंदित्ता नमंसित्ता थेराणं अंतिए किया--स्थविरों को वन्दना-नमस्कार कर स्थविरों के पास चातुर्याम चाउज्जामं धम्म उवसंपज्जित्ता णं तओ पच्छा आहारं आहारित्तए धर्म स्वीकार कर उसके पश्चात् आहार करना मेरे लिए उचित है, त्ति कटु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हित्ता णं पुंडरीगिणीए इस प्रकार का अभिग्रह स्वीकार कर उसने पुण्डरीकिणी नगरी से पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगाम निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर क्रमश: संचार करता हुआ, ग्रामानुग्राम दूइज्जमाणे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव पहारेत्थ गमणाए।। परिव्रजन करता हुआ, जहां स्थविर भगवान थे, उधर प्रस्थान किया। कंडरीयस्स मच्चु-पदं ३९. तए णं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तं पणीयं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स अइजागरएण य अइभोय-प्पसगेण य से आहारे नो सम्मं परिणमइ॥ कण्डरीक का मृत्यु-पद ३९. राजा कण्डरीक प्रणीत भोजन-पान का सेवन करने लगा किन्तु अतिजागरण और अतिभोग-प्रसंग के कारण उस आहार का सम्यक् परिणमन नहीं हुआ। ४०. तए णं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तसि आहारंसि अपरिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सरीरगसि वेयणा पाउब्भूया--उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा। पित्तज्जर-परिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि विहरइ॥ ४०, उस आहार का सम्यक् परिणमन न होने के कारण मध्यरात्रि के समय राजा कण्डरीक के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाढ़, चंड, दुःखद और दुःसह्य वेदना प्रादुर्भूत हुई। उसका शरीर पित्तज्वर और दाह से आक्रान्त हो गया। ४१. तए णं से कंडरीए राजा रज्जे य र य अंतेउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववण्णे अवहट्टवसट्टे अकामए अवसवसे कालमासे कालं किच्चा अहेसत्तमाए पुढवीए उक्कोसकालट्ठिइयंसि नरसि नेरइयत्ताए उववण्णे।। ४१. राज्य, राष्ट्र, पुर, अन्त:पुर तथा मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में मूर्च्छित, गृद्ध, ग्रथित और अध्युपपन्न बना हुआ राजा कण्डरीक आर्त, दुःखार्त्त और वशात हो अनचाहे ही परवशता में मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर, अधःसप्तम पृथ्वी में उत्कृष्ट काल स्थिति वाले नरक में नैरयिक के रूप में उपपन्न हुआ। निमगण-पदं ४२. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोए आसाएइ पत्थयइ पीहेइ अभिलसइ, से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूर्ण साक्याणं बहूणं सावियाण य हीलणिज्जे निंदणिज्जे खिंसणिज्जे गरहणिज्जे परिभवणिज्जे, परलोए वि य णं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य तालणाणि य जाव चाउरतं संसार-कतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ--जहा व से कंडरीए राया। निगमन-पद ४२. आयुष्मन श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रवजित होकर भी पुन: पुन: मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में रस लेता है, उनकी प्रार्थना करता है, स्पृहा करता है और अभिलाषा करता है, वह इस जीवन में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय, निन्दनीय, कुत्सनीय, गर्हणीय और पराभव का पात्र होता है। परलोक में भी वह बहुत दण्ड, बहुत मुण्डन, बहुत तर्जना और बहुत ताड़ना को प्राप्त होता है यावत् वह चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार में पुन: पुन: अनुपरिवर्तन करेगा, जैसे--वह कण्डरीक राजा। पुंडरीयस्स आराहणा-पदं ४३. तए णं से पुंडरीए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता राणं पुण्डरीक का आराधना-पद ४३. वह पुण्डरीक अनगार जहां स्थविर भगवान थे, वहां आया। आकर स्थविर भगवान को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर Jain Education Intemational Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवां अध्ययन ४३-४७ अंतिए दोच्चपि चाउज्जामं धम्मं पडिवज्जइ, छट्ठक्खमणपारणसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेड, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए जाव उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्लायरियं अडमाणे सीवलुक्खं पाणभोयणं पडिगाहेछ, पडिगाहेत्ता अहापज्जत्तमित्ति कट्टु पडिनियत्तेड, जेणेव थेरा भगवंतो तेव उपागच्छद्द, उवागच्छिता भत्तपाणं पडियंसेड, पडिदंसेत्ता थेरेहिं भगवंतेहिं अन्भणुष्णाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगदिए अणज्योववरणे बिलमिव पण्णगभूषणं अप्पाणेणं तं फासु-एसणिज्जं असण- पाणखाइम साइमं सरीरको गसि पक्खिवइ ।। ३९२ ४४. तए णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स तं कालाइक्कतं अरसं विरसं सीयलुक्खं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि धम्मजागरिवं जागरमाणस्त से आहारे नो सम्मं परिणमइ ।। ४५. तए णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगंसि वेयणा पाउब्या--उज्जला विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा । पित्तज्जर-परिणय- सरीरे दाहवक्कतीए विहरइ ।। ४६. तए णं से पुंडरीए अणगारे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे करयतपरिग्गहियं दसणहं सिरसावतं मत्थाए अंजलि कट्टु एवं क्पासीनमोत्पु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगणामधेज्जं ठाणं संपत्ताणं । नमोत्थु णं थेराणं भगवंताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवएसयाणं । पुव्विं पियणं म थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जाव बहिद्धादाणे पच्चक्खाए, इयाणि पिणं अहं तेसिं चेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव बहिद्धादाणं पच्चक्खामि । सव्वं असण- पाण- खाइम - साइमं पच्चक्खामि चउव्विहं पि आहारं पच्चवखामि जावज्जीवाए। जंपि य इमं सरीरं इवं कंतं तं पिव णं चरिमेहिं उस्सास- नीसासेहिं वोसिरामि त्ति कट्टु आलोइयपहिक्कते कालमासे कालं किच्चा सम्बद्धसिद्धे उबवण्णे । तओ अनंतरं उव्वट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ मुच्चिहिइ परिनिव्वाहि सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ ।। निगमण- पर्द ४७. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंयो वा निग्गंधी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइ समाणे माणुस्सएहिं कामभोगेहिं नो सज्जइ नो रज्जइ नो नायाधम्मकहाओ स्थविरों के पास दूसरी बार चातुर्याम धर्म स्वीकार किया । बेले के पारण में प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया। दूसरे प्रहर में ध्यान किया। तीसरे प्रहर में यावत् ऊँच नीच और मध्यम कुलों के घरों में सामुदानिक भिक्षा के लिए अटन करता हुआ बासी और रूखा भोजन-पान ग्रहण किया। ग्रहण कर वह भोजन - पान यथापर्याप्त है--ऐसा सोच भिक्षाटन कर प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर जहां स्थविर भगवान थे, वहां आया। आकर स्थविरों को भोजन - पान दिखलाया। दिखलाकर स्थविर भगवान की अनुज्ञा पूर्वक अमूर्च्छित, अगृद्ध, अग्रथित और अनभ्युपपन्न होता हुआ बिल में प्रविष्ट होते हुए सांप की भांति अनासक्त, आत्म-भाव से उस प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को अपने शरीर कोष्ठक में प्रक्षिप्त किया। ४४. उस कालातिक्रान्त, अरस, विरस, बासी और रुखे भोजन-पान का आहार करने तथा मध्यरात्रि के समय धर्म- जागरिका करते रहने के कारण पुण्डरीक अनगार के उस आहार का सम्यक् परिणमन नहीं हुआ। ४५. तब पुण्डरीक अनगार के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रगाद, चंड, दुःखद और दुःसह्य वेदना प्रादुर्भूत हुई। उसका शरीर पित्तज्वर और दाह से आक्रान्त हो गया । ४६. वह पुण्डरीक अनगार शक्तिहीन, बलहीन, वीर्यहीन तथा पुरुषार्थ और पराक्रमहीन होकर जुड़ी हुई सटे हुए दस नखों वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोलानमस्कार हो धर्म के आदिकर्त्ता यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को संप्राप्त अर्हत भगवान को नमस्कार हो मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक स्थविर भगवान को मैंने पहले भी स्थविरों के पास सर्व प्राणातिपात T का प्रत्याख्यान किया है यावत् सर्व परिग्रह का प्रत्याख्यान किया है। इस समय भी मैं उन्हीं के पास सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं यावत् सर्व परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूं । सम्पूर्ण अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का प्रत्याख्यान करता हूं । चतुर्विध आहार का जीवन-पर्यन्त प्रत्याख्यान करता हूं और जो यह शरीर मुझे इष्ट और कमनीय है, उसका भी अन्तिम उच्छ्वास निःश्वास तक व्युत्सर्ग करता हूं। इस प्रकार वह आलोचना, प्रतिक्रमण कर मृत्यु के समय मृत्यु का वरण कर सर्वार्थसिद्ध में उपपन्न हुआ। तदनन्तर वहां से उद्वर्तन कर वह महाविदेह वर्ष में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत होगा तथा सब दुःखों का अन्त करेगा । निगमन पद ४७. आयुष्मन श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य - - उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो मनुष्य संबंधी कामभोगों में आसक्त नहीं होता, अनुरक्त नहीं Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३९३ गिज्झइ नो मुज्झइ नो अज्झोवज्झइ नो विप्पडिघायमावज्जइ, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं साक्यिाण य अच्चणिज्जे वंदणिज्जे (नमंसणिज्जे?) पूणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं (विणएणं?) पज्जुवासणिज्जे भवइ । परलोए वि यणं नो आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य तालणाणि य जाव चाउरतं संसारकतारं वीईवइस्सइ--जहा व से पुंडरीए अणगारे।। उन्नीसवां अध्ययन : सूत्र ४७-४९ होता, गृद्ध नहीं होता, मूढ़ नहीं होता, अध्युपपन्न नहीं होता, संयम से भ्रष्ट नहीं होता वह इस जीवन में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, (नमस्करणीय) पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याणकारी, मंगलमय, देवतातुल्य, चैत्य और (विनयपूर्वक) पर्युपासनीय होता है। परलोक में भी वह बहुत दण्ड, मुण्डन, तर्जना और ताड़ना को प्राप्त नहीं होता यावत् वह चार अन्त वाले संसारी-रूपी कान्तार को पार पा लेगा, जैसे--वह पुण्डरीक अनगार। निक्खेव-पदं ४८. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेण एगूणवीसइमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। निक्षेप-पद ४८. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता, तीर्थंकर, स्वयं संबुद्ध यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को सम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के उन्नीसवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। वृत्तिकार समुद्धृता निगमनगाथा वाससहस्सपि जइ, काऊणं संजमं सुविउलंपि। अंते किलिट्ठभावो, न विसुज्झइ कंडरीउ व्व।।१।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धत निगमन गाथा-- १. हजार वर्ष तक भी सुविपुल संयम की साधना कर लेने पर भी यदि अन्त समय में भाव संक्लेशपूर्ण हो जाता है, वह कण्डरीक की भांति विशुद्धि को प्राप्त नहीं होता। अप्पेण वि कालेणं, केइ जहा गहिय-सील-सामण्णा। साहति नियम-कज्जं, पुंडरीय-महारिसि ब्व जहा ।२।। २. कुछ साधक यथागृहीत शील और श्रामण्य का पालन कर महर्षि पुण्डरीक की भांति स्वल्प समय में ही अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेते ४९. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स सुयखंघस्स अयमढे पण्णत्ते। त्ति बेमि।। ४९. जम्बू इस प्रकार सिद्धि गति सम्प्राप्त यावत् श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। ___ -ऐसा मैं कहता हूं। परिसेसो एयस्स सुयखंघस्स एगूणवीसं अज्झयणाणि एक्कासरगाणि एगूणवीसाए दिवसेसु समप्पंति ।। परिशेष ___ इस श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन हैं। जो अन्तराल रहित उन्नीस दिनों में समाप्त होते हैं। Jain Education Intemational Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख नायाधम्मकहाओ का दूसरा श्रुतस्कन्ध बहुत संक्षिप्त है। प्रथम श्रुतस्कन्ध ज्ञातप्रधान है और दूसरा श्रुतस्कन्ध धर्मकथा प्रधान है। इसके दस वर्ग हैं। उनमें काली नाम का प्रथम अध्ययन संक्षिप्त आकार वाला है। अग्रिम अध्ययन केवल सूचना मात्र है। ज्ञात के उन्नीस अध्ययन विस्तार से लिखे गए हैं और उनका विषय स्पष्ट है। धर्मकथा के दस वर्ग हैं और अध्ययन सैंकड़ो सैंकड़ो हैं। काली के सिवाय सब कथाएं अति संक्षिप्त हैं। न उनसे कथ्य का बोध होता है और न कोई कथा का निष्कर्ष सामने आता है। हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि सूत्रकार ने यह शैली क्यों अपनाई? क्या इतना लम्बा पाठ कण्ठस्थ रखना कठिन था? क्या लिपि की कठिनाई के कारण संक्षिप्त किया गया? क्या सूत्रकार ने कथावस्तु का विस्तार से वर्णन किया और लिपिकाल में उसे संक्षिप्त कर दिया गया? कुछ भी हो धर्मकथा का उपलब्ध स्वरूप अवश्य प्रश्न पैदा करता है। ज्ञात के उन्नीस अध्ययन आध्यात्मिक चिंतन की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। यदि उसी प्रकार धर्मकथा के अध्ययन विस्तृत होते तो दूसरा श्रुतस्कन्ध अध्यात्म की बहुत बड़ी सम्पदा बन जाती। इसका एक अध्ययन विस्तृत है उससे साधना के उतार चढ़ाव और साधना में आने वाली विघ्न बाधाओं को समझने का अवसर मिलता है। निष्कर्ष की भाषा में यही कहा जा सकता है कि संक्षिप्तीकरण का कारण कुछ भी रहा हो, नायाधम्मकहाओ का पाठक धर्मकथा की बहुमूल्य सामग्री से वंचित रहा है। बस 'भवितव्यं भवत्येव' इसी बिंदु पर हमें संतोष करना चाहिए। Jain Education Intemational Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ सुयक्खंधो : दूसरा श्रुतस्कन्ध पढमो वग्गो : प्रथम वर्ग पढमं अज्झयणं 'काली' : अध्ययन १ 'काली' उक्खेव-पदं १. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था--वण्णओ॥ उत्क्षेप-पद १. उस काल और उस समय राजगृह नाम का नगर था--वर्णक । २. तस्स णं रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए, एत्थ णं गुणसिलए नामं चेइए होत्था--वण्णओ। २. उस राजगृह नगर के बाहर ईशानकोण में गुणशिलक नाम का चैत्य था--वर्णक। ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मा नाम थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा कुलसंपण्णा जाव चोद्दसपुब्वी चडनाणोवगया पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडा पुव्वाणुपुब्चिरमाणा गामाणुगाम दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव रायगिहे नयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरति । परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। ३. उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी आर्य सुधर्मा नाम के स्थविर भगवान जो जाति-सम्पन्न, कुल-सम्पन्न, यावत् चौदह पूर्वो के धारक और चार ज्ञान से युक्त थे। अपने पांच सौ अनगारों के साथ, उनसे परिवृत हो, क्रमश: संचार करते हुए, ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां राजगृह नगर था, जहां गुणशिलक चैत्य था, वहां आए। वहां आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार करने लगे। जन-समूह ने निर्गमन किया। सुधर्मा ने धर्म कहा। जन-समूह जिस ओर से आया था, उसी ओर वापस चला गया। ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स (जेडे?) अंतेवासी अज्जजंबू नाम अणगारे जाव अज्जसुहम्मस्स थेरस्स नच्चासण्णे नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे पंजलिउडे विणएणं पज्जुवासमाणे एवं वयासी--जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेण छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खंघस्स नायाणं अयम? पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भते! सुयक्खंधस्स धम्मकहाणं समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णते? ४. उस काल और उस समय आर्य सुधर्मा अनगार के (ज्येष्ठ?) अन्तेवासी आर्य जम्बू नाम के अनगार थे, यावत् वे आर्य सुधर्मा स्थविर के न अति निकट, न अति दूर, शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सामने बद्धाञ्जलि हो विनयपूर्वक पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले--भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग के प्रथम श्रुतस्कन्ध 'ज्ञातधर्मकथा' का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भंते! धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने दूसरे श्रुतस्कन्ध धर्मकथा का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? ५. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दस वग्गा पण्णत्ता, तं जहा-- १. चमरस्स अग्गमहिसीणं पढमे वग्गे। २. बलिस्स वइरोयणिंदस्स वइरोयणरणो अग्गमहिसीणं बीए वग्गे। ३. असुरिंदवज्जियाणं दाहिणिल्लाणं इंदाणं अपग्महिसीणं तईए वग्गे। ४. उत्तरिल्लाणं असुरिंदवज्जियाणं भवणवासि-इंदाणं अग्गमहिसीणं चउत्थे वग्गे। ५. जम्बू धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा के दस वर्ग प्रज्ञप्त किए हैं, जैसे-- १. चमर की अग्रमहिषियों का पहला वर्ग। २. बलि नामक वैरोचनेन्द्र, वैरोचन राजा की अग्रमहिषियों का दूसरा वर्ग। ३. असुरेन्द्र के अतिरिक्त, दक्षिण दिशावर्ती भवनपति देवों के इन्द्रों की अग्रमहिषियों का तीसरा वर्ग। Jain Education Intemational Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ३९७ दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र ५-१० ५. दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं पंचमे वग्गे। ४. असुरेन्द्र के अतिरिक्त, उत्तर दिशावर्ती (भवनपति देवों के) इन्द्रों की ६. उत्तरिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं छठे वग्गे। अग्रमहिषियों का चौथा वर्ग। ७. चंदस्स अपग्महिसीणं सत्तमे वग्गे। ५. दक्षिण दिशावर्ती वानमंतर देवों के इन्द्रों की अग्रमहिषियों का पांचवां ८. सूरस्स अगमहिसीणं अट्ठमे वग्गे। वर्ग। ९. सक्कस्स अग्गमहिसीणं नवमे वग्गे। ६. उत्तर दिशावर्ती वानमंतर देवों के इन्द्रों की अग्रमहिषियों का छट्ठा १०. ईसाणस्स य अग्गमहिसीणं दसमे वग्गे। वर्ग। ७. चन्द्रमा की अग्रमहिषियों का सातवां वर्ग। ८. सूर्य की अग्रमहिषियों का आठवां वर्ग। ९. शक्र की अग्रमहिषियों का नौवां वर्ग। १०. ईशान की अग्रमहिषियों का दसवां वर्ग। ६. जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेण धम्मकहाणं दस वग्गा पण्णत्ता, पढमस्स णं भत्ते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अद्वे पण्णत्ते? ६. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के दस वर्ग प्रज्ञप्त किए हैं, तो भन्ते! धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? ७. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेण पढमस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा--काली, राई, रयणी, विज्जू, मेहा। ७. जम्बू! धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग के पांच अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं। जैसे-काली, रात्री, रजनी, विद्युत, मेघा। ८. जइ णं भते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अटे पण्णत्ते? ८. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग के पांच अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं, तो भंते! धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? ९. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए। सेणिए राया। चेल्लणा देवी। सामी समोसढे। परिसा निग्गया जाव परिसा पज्जुवासइ। ९. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह नगर था। गुणशिलक चैत्य था। श्रेणिक राजा था। चेलणा देवी थी। स्वामी समवसृत हुए। जन-समूह ने निर्गमन किया यावत् जन-समूह ने पर्युपासना की। कालीदेवी-पदं १०. तेणं कालेणं तेणं समएणं काली देवी चमरचंचाए रायहाणीए कालिवडेंसगभवणे कालसि सीहासणसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं महयरियाहिं सपरिवाराहिं, तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अण्णेहिं य बहूहि कालिवडिंसय-भवणवासीहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिवुडा महयाहय-नट्ट-गीय-वाइय-तंती-तल-तालतुडिय-घण-मुइंग-पडुप्पवादियरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणी विहरइ । इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी-ओभोएमाणी पासइ।। कालीदेवी-पद १०. उस काल और उस समय चमरचञ्चा राजधानी में काली नाम की देवी थी। वह कालीवतंसक भवन में, काल सिंहासन पर, चार हजार सामानिक, सपरिवार चार महत्तरिकाओं, तीन परिषदों, सात अनीकों (अश्व, गज, रथ, पदाति, वृषभ, गन्धर्व, नाट्य) सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा अन्य अनेक कालीवंतसक भवनवासी, असुरकुमार देवों और देवियों के साथ, उनसे परिवृत थी। वह महान आहत नाट्य, गीत, वादित्र, तन्त्री, तल, ताल, तूरी, धन-मृदंग--इनके पटु प्रवादित स्वरों के साथ दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगती हुई विहार कर रही थी। उस समय वह इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीप को अपने विपुल अवधि ज्ञान द्वारा जानती हुई पुन: पुन: देख रही थी। Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ नायाधम्मकहाओ दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र ११-१३ कालीए भगवओ वंदण-पदं ११. एत्थ समणं भगवं महावीरं ज़ुबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठवट्ठ-चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवस-विसप्पमाण-हियया सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुटेता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता तित्थगराभिमुही सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचेत्ता दाहिणं जाणुं धरणियलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलसि निवेसेइ, ईसिं पच्चुन्नमइ, पच्चुन्नमित्ता कडग-तुडिय-यंभियाओ भुयाओ साहरइ, साहरित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--नमोत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जंठाणं संपत्ताणं। नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सिद्धिगइनामघेजं ठाणं संपाविउकामस्स । वदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगया, पासउ मे समणे भगवं महावीरे तत्थगए इहगयं ति कटु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहा निसण्णा। काली द्वारा भगवान को वन्दन-पद ११. उसने जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष राजगृह नगर और गुणशिलक चैत्य में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर, संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए श्रमण भगवान महावीर को देखा। देखकर हृष्ट तुष्ट चित्त वाली, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाली, परम सौमनस्य और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली वह (काली देवी) सिंहासन से उठी। उठकर पादपीठ से नीचे उतरी, उतरकर पादुकाएं उतारी। उतारकर तीर्थकर के अभिमुख हो सात-आठ पग आगे बढ़ी। आगे बढ़कर बाएं घुटने को ऊपर उठाया। उठाकर दाएं घुटने को धरती पर टिकाया। मस्तक को तीन बार भूतल पर लगाया। पुन: थोड़ी ऊपर उठी। उठकर कड़े और बाजूबन्धों से स्तम्भित भुजाओं को संकुचित किया। संकुचित कर फिर जुड़ी हुई सटे हुए दस नखों वाली सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जली को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोली--'नमस्कार हो, धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त अर्हत भगवान को। नमस्कार हो, धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त करने वाले श्रमण भगवान महावीर को। ___मैं यहीं से तत्रस्थित भगवान को वंदना करती हूं। श्रमण भगवान महावीर वहीं से यहां स्थित मुझको देखें-ऐसा कहकर उसने वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर वह प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख हो बैठ गई। १२. तए णं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--सेयं खलु मे समणं भगवं महावीर वंदित्तए नमंसित्तए सक्कारित्तए सम्माणित्तए कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासित्तए त्ति कटु एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे विहरइ एवं जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ जाव दिव्वंसुरवराभिगमणजोग्गं करेह य कारकेह य करेत्ता कारक्ता य खिप्पामेव एवमाणत्तियं पच्चप्पिणह । ते वि तहेव करेत्ता जाव पच्चप्पिणंति, नवरं--जोयणसहस्सवित्थिण्णं जाणं । सेसं तहेव। तहेव नामगोयं साहेइ, तहेव नट्टविहिं उवदंसेइ जाव पडिगया। १२. उस काली देवी के मन में यह इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--मेरे लिए उचित है मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दना करूं, नमस्कार करूं, उनका सत्कार करूं, सम्मान करूं। वे कल्याणकारी, मंगलमय, धर्मदेव और ज्ञानमय हैं। अत: उनकी पर्युपासना करूं--उसने ऐसी संप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर आभियोगिक देवों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! श्रमण भगवान महावीर विहार कर रहे हैं, इस प्रकार सूर्याभ की भांति आज्ञप्ति दी यावत् कहा--देवों के अभिगमन योग्य दिव्य विमान आदि प्रस्तुत करो और करवाओ। ऐसा कर शीघ्र ही इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसा ही किया यावत् आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। विशेष--उसका यान हजार योजन विस्तीर्ण था। शेष सूर्याभ के समान । वैसे ही नाम-गोत्र बताए। वैसे ही नाट्यविधि का प्रदर्शन किया यावत् लौट आयी। गोयमस्स पसिण-पदं १३. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-कालीए णं भंते! देवीए सा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे देवाणुभाए कहिं गए? कहिं अणुप्पविट्ठे? गोयमा! सरीरं गए सरीरं अणुप्पवितु। कूडागारसाला दिलुतो। गौतम का प्रश्न-पद १३. भन्ते! भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोले--भन्ते! काली देवी की यह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देव-प्रभाव कहां चला गया? कहां अनुप्रविष्ट हो गया? Jain Education Intemational Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ अहो णं भंते! काली देवी महिड्डिया महज्जुइया महब्बला महायसा महासोक्खा महाणुभागा ॥ ३९९ १४. कालीए णं भंते! देवीए सा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे देवाणुभागे किण्णा तद्धे ? किण्ण पत्ते ? किण्णा अभिसमण्णागए? भगवओ उत्तरे काली-पदं १५. गोयमाति! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं क्यासी एवं खलु गोयमा तेणं कातेगं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीने दीवे भारहे वासे आमलकप्पा नाम नवरी होत्या-वष्णओ। अंबसालवणे चेइए। जियसत्तू राया ।। १६. तत्थ णं आमलकप्पाए नयरीए काले नामं गाहावई होत्या -- अड्ढे जाव अपरिभूए ॥ १७. तस्स णं कालस्स गाहावइस्स कालसिरी नामं भारिया होत्या -- सुकुमाल - पाणिपाया जाव सुरूवा ।। १८. तस्स णं कालस्स गाहावइस्स धूया कालसिरिए भारियाए अत्तया काली नाम दारिया होत्या - बडा बढकुमारी जुण्णा जुण्णकुमारी पहियपुयत्चणी निब्विण्णवरा वरमपरिवज्जिया वि होत्या ।। -- काली पव्वज्जा पदं १९. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे तित्थगरे सहसंबुळे पुरिसोत्तमे पुरिससीडे पुरिसवरपुंडरीए पुरिसवर गंधहत्थी अभवदए चक्सुदाए भग्गदए सरणदए जीवदाए दोवो ताणं सरणं गई पड़ा धम्मवरभाउरंत चक्कबड़ी अप्पहियवरनाणदंसणारे विपच्छउमे अरहा जिगे केवली जिणे जाणए तिणे तार मुत्ते मोय बुद्धे बोहए सव्वण्णू सव्वदरिसी नवहत् समचउरंससंठाणसंठिए बज्जरसहनारायसंघपणे जल्लमल्लकलंकसेयरहियसरीरे सिवमलमरुपमणतमवस्त्रयमव्वाबाहमपुणरावत्तमं सिद्धिगणामधेयं ठाणं संपाविउकामे सोलसहि समणसाहस्सीहिं अट्ठत्तीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्याणुपुष्यिं चरमाणे गामाणुगामं इज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे आमलकप्पाए नयरीए बहिया अंबसालवणे समोसढे । परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ ।। दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग सूत्र : १३-१९ गौतम! वह शरीर में चला गया। शरीर में अनुप्रविष्ट हो गया । यहां कूटागारशाला का दृष्टान्त ज्ञातव्य है । अहो भन्ते! काली देवी महान ऋद्धि महान द्युति, महान बल महान यश, महान सुख, और महान अनुभाग सम्पन्न है। १४. भन्ते! काली देवी को वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवसुति, दिव्य 'देवानुभाग कैसे उपलब्ध हुआ? कैसे प्राप्त हुआ? कैसे अभिसमन्वागत हुआ? भगवान के उत्तर के अन्तर्गत काली पद १५. गौतम ! श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम को आमन्त्रित कर इस प्रकार कहा--गौतम! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप द्वीप और भारतवर्ष में आमलकल्पा नाम की नगरी थी - वर्णक । उसमें आम्रशालवन चैत्य था । जितशत्रु राजा था। १६. उस आमलकल्पा नगरी में 'काल' नाम का गृहपति था, वह यावत् अपराजित था। १७. उस 'काल' गृहपति के कालधी नाम की भार्या थी। वह सुकुमार हाथ-पावों वाली यावत् सुरूपा थी। १८. उस काल गृहपति की पुत्री और कालश्री भार्या की आत्मजा 'काली' नाम की बालिका थी । वह वड्डा, वड्ड कुमारी, जीर्णा, जीर्ण कुमारी, श्लथ, जघन और स्तनवाली, वर से ( पति को पाने की दृष्टि से) उदासीन और दर से परिवर्जित भी थी। काली का प्रव्रज्या पद १९. उस काल और उस समय, धर्म के आदिकर्त्ता तीर्थंकर, स्वयं संबुद्ध, पुरुषोत्तम पुरुष सिंह, पुरुष वर- पुण्डरीक, पुरुष वर- गन्धहस्ती, अभयदाता, चक्षुदाता, मार्ग दाता, शरण दाता, जीवन-दाता, द्वीप, त्राण, शरण, गति, प्रतिष्ठा, धर्म के प्रवर चातुरन्त चक्रवर्ती, अप्रतिहत प्रवर ज्ञान दर्शन के धारक व्यावृत्त-छद्म अर्हतु जिन, केवली, स्वयं ज्ञाता, दूसरों को ज्ञान देने वाले, स्वयं तीर्ण, दूसरों को तारने वाले, स्वयं मुक्त, दूसरों को मुक्ति देने वाले, स्वयं बुद्ध, दूसरों को बोध देने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, नौ हाथ ऊँचाई वाले, समचतुरस्र संस्थान से संस्थित, वज्रऋषभ नाराच संहनन वाले, जल्ल, मल, कलंक और स्वेद से रहित शरीर वाले, शिव, अचल, अरुण, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, पुनरावृत्ति रहित, सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त करने के इच्छुक, पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व अपने सौलह हजार श्रमणों और अड़तीस हजार आर्याओं के साथ उनसे परिवृत हो, क्रमश: संचार करते हुए, ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए, सुखपूर्वक Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र १९-२४ ४०० नायाधम्मकहाओ विहार करते हुए, आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन में समवसृत हुए। जन-समूह ने निर्गमन किया यावत् पर्युपासना की। २०. तए णं सा काली दारिया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी हट्ट तुट्ठ-चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवं खलु अम्मयाओ! पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे तित्थगरे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इह चेव आमलकप्पाए नयरीए अंबसालवणे अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ। तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदिया गमित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिए! मा पडिबंध करेहि। २०. भगवान के आगमन का संवाद प्राप्त कर हृष्ट तुष्ट चित्त वाली, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाली परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली काली बालिका, जहां माता-पिता थे, वहां आयी। वहां आकर जुड़ी हुई, सटे हुए दस नखों वाली सिर पर प्रदक्षिणा करती अंजली को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोली--माता-पिता! धर्म के आदिकर्ता, तीर्थकर, पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व यहां आये हैं। यहां संप्राप्त हैं। यहां समवसृत हैं और यहीं आमलकल्पा नगरी के आम्रशालवन में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। __ अत: माता-पिता! मैं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व को पाद-वन्दन करने के लिए जाना चाहती हूं। 'जैसा सुख हो देवानुप्रिय! प्रतिबन्ध मत करो।' २१. तए णं सा काली दारिया अम्मापिईहिं अब्भणुण्णाया समाणी हट्ठ तुट्ठ-चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसक्स- विसप्पमाणहियया व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्धाभरणलंकियसरीरा चेडिया-चक्कवाल-परिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा ।। २१. माता-पिता से अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्ट तुष्ट चित्त वाली, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाली, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली काली बालिका ने स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगल-रूप प्रायश्चित्त किया। पवित्र स्थान में प्रवेश करने योग्य प्रवर मंगल वस्त्र पहने। अल्पभार और बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। दासी समूह से परिवृत हो अपने घर से निकली। निकलकर जहां बाहरी सभा-मण्डप था, जहां प्रवर धार्मिक-यान था वहां आयी। वहां आकर वह उस प्रवर धार्मिक यान पर आरूढ़ हुई। २२. तए णं सा काली दारिया धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा समाणी ___ एवं जहा देवई तहा पज्जुवासइ। २२. प्रवर धार्मिक यान पर आरूढ़ हुई उस काली बालिका ने देवकी की भांति पर्युपासना की। २३. तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य महइमहालियाए परिसाए धम्म कहेइ। २३. पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व ने उस काली बालिका तथा उस उपस्थित सुविशाल परिषद् को धर्म कहा। २४. तए णं सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठवट्ठ-चित्तमाणदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवस-विसप्पमाणहियया पासं अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी--सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वयह । जं नवरं-देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वयामि ।। अहासुहं देवाणुप्पिए! २४. पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर, हृष्ट-तुष्ट चित्त वाली, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन और परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली काली बालिका ने पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व को तीन बार दायीं ओर से प्रदक्षिणा की। वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोली--भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करती हूं यावत् वह वैसा ही है जैसा तुम कह रहे हो। विशेष--देवानुप्रिय! मैं माता-पिता से पूछ लेती हूं उसके पश्चात् मैं देवानुप्रिय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होऊंगी। 'जैसा सुख हो देवानुप्रिये! dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४०१ दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र २५-२७ २५. तए णं सा काली दारिया पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं एवं २५. पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व के ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट चित्त वाली, वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठ-चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाली, परमसौमनस्य युक्त और हर्ष से हरिसवस-विसप्पमाणहियया पासं अरहं वंदइ नमसइ, वंदित्ता विकस्वर हृदय वाली काली बालिका ने अर्हत पार्श्व को वन्दना की। नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ, दुरुहित्ता पासस्स नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर उसी धार्मिक यान पर आरूढ़ अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियाओ अंबसालवणाओ चेइयाओ हुई। आरूढ़ होकर पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व के पास से उठकर पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेव आम्रशालवन चैत्य से बाहर निकली। निकलकर जहां आमलकल्पा उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आमलकप्पं नयरिं मझमज्झेणं जेणेव नगरी थी वहां आयी। आकर आमलकल्पा नगरी के बीचोंबीच होकर बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवगच्छइ; उवागच्छित्ता धम्मियं जहां बाहरी सभा-मण्डप था वहां आयी। आकर प्रवर धार्मिक यान जाणप्पवरं ठवेइ, ठवेत्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, को ठहराया। ठहराकर प्रवर धार्मिक यान से उतरी। उतरकर जहां पच्चोरुहित्ता जेणेव अम्मपियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता माता-पिता थे वहां आयी। वहां आकर जुड़ी हुई सटे हुए दस नखों करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वाली सिर पर प्रदक्षिणा करती अंजली को मस्तक पर टिकाकर इस वयासी--एवं खलु अम्मयाओ! मए पासस्स अरहओ अंतिए धम्मे प्रकार बोली--'माता-पिता! मैंने अर्हत पार्श्व के पास धर्म को सूना है। निसंते। से विय धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए। तए णं अहं वही धर्म मुझे इष्ट, ग्राह्य और रुचिकर है। माता-पिता! मैं संसार अम्मयाओ! संसारभउब्विग्गा भीया जम्मण-मरणाणं इच्छामि णं के भय से उद्विग्न हूं और जन्म-मृत्यु से भीत हूं अत: मैं तुमसे अनुज्ञा तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुंडा भवित्ता प्राप्त कर अर्हत पार्श्व के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। प्रव्रजित होना चाहती हूं। अहासुहं देवाणुप्पिए! मा पडिबंधं करेहि। 'जैसा सुख हो देवानुप्रिये! प्रतिबन्ध मत करो।' २६. तए णं से काले गाहावई विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधिपरियणं आमतेइ, आमतेत्ता तओ पच्छा हाए जाव विपुलेणं पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स पुरओ कालिं दारियं सेयापीएहिं कलसेहि ण्हावेइ, व्हावेत्ता सव्वालंकार-विभूसियं करेइ, करेत्ता पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहेइ, दुरूहेत्ता मित्तनाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धिं संपरिबुडे सब्विड्डीए जाव दुंदुहिनिग्धोस-नाइयरवेणं आमलकप्पं नयरिं मामझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ताजेणेव अंबसालवणेचेइए तेणेव उवगच्छइ, उवागच्छित्ता छत्ताईए तित्थगराइसए पासइ, पासित्ता सीयं ठवेइ, ठवेत्ता कालिंदारियं सीयाओ पच्चोव्हेइ।। २६. 'काल' गृहपति ने विपुल, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। तैयार करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को आमन्त्रित किया। आमन्त्रित कर स्नान कर यावत् विपुल पुष्प, वस्त्र, गन्ध, चूर्ण, माला और अंलकारों से उनको सत्कृत किया। सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर उन्हीं मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के सामने बालिका काली को रजत और स्वर्ण-निर्मित कलशों से नहलाया। नहलाकर सब प्रकार के अंलकारों से विभूषित किया। विभूषित कर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका पर आरूढ़ किया। आरूढ़ कर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ उनसे संपरिवृत हो, सम्पूर्ण ऋद्धि यावत् दुन्दुभि निर्घोष से निनादित स्वरों के साथ आमलकल्पा नगरी के बीचोंबीच होकर निकला। निकलकर जहां आम्रशालवन चैत्य था, वहां आया। वहां आकर तीर्थकर के छत्र आदि अतिशयों को देखा। देखकर शिविका को ठहराया। ठहराकर काली बालिका को शिविका से उतारा। २७. तए णं तं कालिं दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे २७. काली बालिका के माता-पिता उस काली बालिका को आगे कर जहां अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता वर्वत नमसंति, पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व थे, वहां आए। आकर वन्दना की। नमस्कार वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! काली किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोले--देवानुप्रिय! यह काली दारिया अम्हं घूया इट्ठा कंता जाव उंबरपुप्फ पिव दुल्लहा बालिका हमारी पुत्री है। हमें इष्ट, कमनीय यावत् उदुम्बर के सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए? एस णं देवाणुप्पिया! पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ है फिर दर्शन का तो प्रश्न ही कहां है? Jain Education Intemational ucation Intermational Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ नायाधम्मकहाओ दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र २७-३५ संसारभउविग्गा इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। तं एवं णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणिभिक्खं दलयामो। पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेहि।। देवानुप्रिय! यह संसार के भय से उद्विग्न है अत: यह देवानप्रिय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होना चाहती है। अत: हम देवानुप्रिय को यह शिष्या की भिक्षा अर्पित करते हैं। देवानुप्रिय! यह शिष्या की भिक्षा स्वीकार करें। जैसा सुख हो देवानुप्रिय! प्रतिबन्ध मत करो २८. तए णं सा काली कुमारी पासं अरहं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरित्थमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव लोयं करेइ, करेत्ता जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पास अरहं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--आलित्ते णं भंते! लोए जाव तं इच्छामि णं देवाणुप्पिएहिं सयमेव पव्वावियं जाव धम्ममाइक्खियं॥ २८. काली बालिका ने अर्हत पार्श्व को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर वह ईशान-कोण में गई। वहां जाकर उसने स्वयमेव आभरण, माला और अलंकार उतारे। उतारकर स्वयमेव केशलुंचन किया। केशलुंचन कर जहां पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व थे वहां आई। आकर अर्हत पार्श्व को तीन बार दायीं ओर से प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोली--भन्ते! यह लोक जल रहा है यावत् मैं चाहती हूं देवानुप्रिय स्वयं मुझे प्रव्रजित करें यावत् धर्म का उपदेश दें। २९. तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालिं सयमेव पुप्फचूलाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए दलयइ॥ २९. पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व ने काली को स्वयमेव आर्या पुष्पचूला को शिष्या के रूप में प्रदान किया। ३०. तए णं सा पुप्फचूला अज्जा कालिं कुमारिं सयमेव पव्वावेइ जाव धम्ममाइक्खइ॥ ३०. आर्या पुष्पचूला ने काली बालिका को स्वयं प्रव्रजित किया यावत् धर्म का उपदेश दिया। ३१. तए णं सा काली पुप्फचूलाए अज्जाए अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं सम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरइ।। ३१. वह काली आर्या पुष्पचूला के पास इस विशिष्ट धार्मिक उपदेश को सम्यक् स्वीकार कर विहार करने लगी। ३२. तए णं सा काली अज्जा जाया--इरियासमिया जाव गुत्तबंभयारिणी॥ ३२. अब काली आर्या बन गई--ईर्या समिति से समित यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी। ३३. तए णं सा काली अज्जा पुप्फचूलाए अज्जाए अंतिए ३३. काली आर्या ने आर्या पुष्पचूला के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूहिं चउत्थ- का अध्ययन किया। बहुत सारे चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त, छट्टट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहि अप्पाणं भावमाणी दशम भक्त, द्वादश भक्त तथा मासिक और पाक्षिक तप से स्वयं को विहरइ॥ भावित करती हुई विहार करने लगी। कालीए बाउसियत्त-पदं काली का बाकुशिकत्व-पद ३४. तए णं सा काली अज्जा अण्णया कयाइ सरीरबाउसिया जाया। ३४. किसी समय वह काली आर्या शरीर बाकुशिका बन गई। वह पुन: यावि होत्या। अभिक्खणं-अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, पाए धोवेइ, पुन: हाथ धोती, पांव धोती, सिर धोती, मुंह धोती, स्तनान्तर धोती, सीसं धोवेइ, मुहं घोवेइ, थणंतराणि धोवेइ, कक्खंतराणि धोवेइ, कक्षान्तर धोती, गुह्यान्तर धोती और जहां जहां भी स्थान, शय्या गुझंतराणि धोवेइ, जत्थ-जत्थ वि य णं ठाणं वा सेज्जं वा अथवा निषद्या करती उस भूमि को पहले पानी से धोकर उसके पश्चात् निसीहियं वा चेएइ, तं पुवामेव अब्भुक्खित्ता तओ पच्छा आसयइ बैठती अथवा सोती। वा सयइ वा।। ब ३५. तए णं सा पुप्फचूला अज्जा कालिं अजं एवं वयासी--नो खलु ३५. आर्या पुष्पचूला ने आर्या काली को इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये! हम Jain Education Intemational Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४०३ कप्पर देवाणुप्पिए समणीणं निम्मयोगं सरीरबाउसियाणं होतए । तुमं च णं देवाणुपाएं सरीरबाउसिया जाया अभिक्खणं-अभिक्खणं हत्थे धोवसि, पाए धोवसि, सीसं घोवसि, मुहं धोवसि, धणंतराणि धोवसि, कक्संतराणि धोवसि, गुज्यांतराणि धोवसि, जत्य जत्थ वि य णं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएसि, तं पुम्वामेव अब्भुक्खित्ता तओ पच्छा आसयसि वा सयसि वा । तं तुमं देवाणुप्पिए! एयरस ठाणस्स आलोएहि जाय पायच्छितं परिवज्जाहि ।। ३६. तए णं सा काली अज्जा पुप्फचूलाए अज्जाए एयमट्ठे नो आढाइ नो परियाणा तुसिणीया संचिठ्ठद ।। ३७. तए गं ताओ पुष्कचूताओ अज्जाओ कालिं अजं अभिक्लणं- अभिक्लणं होलेति निंदतिं खिंसति गरहात अवमन्नति अभिक्खणं- अभिक्खणं एयमट्टं निवारेंति ।। कालीए पढोविहार पदं ३८. तए णं तीसे कालीए अज्जाए समणीहिं निग्गंधीहिं अभिक्खणंअभिक्खणं हीलिज्जमाणीए जाव निवारिज्जमाणीए इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - जया अहं अगारमज्झे वसित्या तया णं अहं सयंवसा, जप्पभिदं च अहं मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया तप्पभिदं च णं अहं परवसा जाया । तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते पाडिक्कयं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए त्ति कट्टु एवं सपेहेइ, सपेहेता कल्लं पाउप्पभायाए रखणीए उड्डियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते पाडिवकं उवस्सयं गेहइ । तत्य णं अणिवारिया अणोहट्टिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ पाए धोवेद, सीसं धोवे, मुहं धोवेद, षणंतराणि धोवेद, कक्वंतराणि धोवेद, गुज्जांतराणि धोवेद, जत्यजत्य वि यणं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, तं पुण्यामेव अब्भुक्खित्ता तओ पच्छा आसयइ वा सयइ वा ।। कालीए मच्चु-पदं ३९. तए णं सा काली अज्जा पासत्था पासत्यविहारी ओसन्ना ओसन्नविहारी कुसीला कुसीलविहारी महाछंदा अहाछंदविहारी संसत्ता संसत्तविहारी बहूनि वासागि सामण्णपरियागं पाउण पाणित्ता अद्धमाखियाए संतेहणाए अप्पाणं झूले झूसेत्ता तीसं भत्ताई अगसनाए छेएड, एता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए कालिवडिंसए भवणे उववायसभाए देवसयणिज्जसि देवदूतरिया अंगुलस्स असंखेज्जाए भागमेसाए ओगाहणाए कालीदेवित्ताए उबवण्णा ।। दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र ३५-३९ श्रमणियों निग्रन्थिकाओं को शरीर बाकुशिक होना नहीं कल्पता और देवानुप्रिये! तुम तो शरीर बाकुशिक बन गई हो। तुम बार-बार हाथ धोती हो, पांव धोती हो, सिर धोती हो, मुंह धोती हो, स्तनान्तर धोती हो, कक्षान्तर धोती हो, गुह्यान्तर धोती हो और जहां-जहां भी स्थान, शय्या अथवा निषद्या करती हो उस भूमि को पहले धोकर उसके पश्चात् बैठती हो अथवा सोती हो। इसलिए देवानुप्रिये! तुम इस स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित्त स्वीकार करो । ३६. काली आर्या ने आर्या पुष्पचूला के इस अर्थ को न आदर दिया और न उसकी बात पर ध्यान दिया। वह मौन रही । ३७. उस आर्या पुष्णचूला ने काली आर्या की पुनः पुनः अवहेलना की निंदा की, कुत्सा की, गर्हा की, अवमानना की और पुनः पुनः उसे इस कार्य से रोका। काली का पृथक विहार-पद ३८. इस प्रकार श्रमणियो! निर्ग्रन्थिकाओं द्वारा पुनः पुनः अवहेलना किये जाने पर यावत् रोके जाने पर काली आर्या के मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ 'जब मैं अगारवास में थी, तब स्वतन्त्र थी और जिस समय से मैं मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुई हूं उस समय से मैं परतन्त्र हो गई हूं। अत: मेरे लिए उचित है मैं उषाकाल में पौ फटने यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर पृथक् उपाश्रय को स्वीकार कर विहार करूं । उसने ऐसी प्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर उषाकाल में, पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर उसने पृथक उपाश्रय में आश्रय लिया। बिना किसी रोक-टोक के स्वतन्त्रता पूर्वक पुनः पुनः हाथ धोती, पांव धोती, सिर धोती, मुंह धोती, स्तनान्तर धोती, कक्षान्तर धोती, गुह्यान्तर धोती और जहां जहां भी स्थान, शय्या अथवा निषद्या करती उस भूमि को पहले ही पानी से धोकर उसके पश्चात् बैठती अथवा सोती । काली का मृत्यु - पद ३९. उस काली आर्या ने पार्श्वस्था, पार्श्वस्थ - विहारिणी, अवसन्ना, अवसन्न- विहारिणी कुशीला, कुशील विहारिणी, यथाछन्दा, यथाछन्द-विहारिणी, संसक्ता और संसक्तविहारिणी होकर बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया। पालन कर पाक्षिक संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित किया। समर्पित कर अनशन काल में तीस भक्तों का परित्याग किया। परित्याग कर अन्तिम समय में उस (प्रमाद) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर वह चमरचञ्चा राजधानी कालीवतंसक Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र ३९-४५ ४०४ नायाधम्मकहाओ भवन, उपपात सभा और देव शय्या में देवदूष्य वस्त्र के आवरण में अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमित अवगाहना से काली देवी के रूप में उपपन्न हुई। ४०. तए णं सा काली देवी अहुणोववण्णा समाणी पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तभावं गच्छति (तं जहा--आहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए आणपाण-पज्जत्तीए भासमणपज्जत्तीए)। ४०. वह सद्य: उपपन्न काली देवी पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त अवस्था को प्राप्त हुई (जैसे--आहार-पर्याप्ति से, शरीर पर्याप्ति से, इन्द्रिय पर्याप्ति से, आनापान पर्याप्ति से, भाषा-मन: पर्याप्ति से) ४१. तए णं सा काली देवी चउण्हं सामाणिय-साहस्सीणं जाव सोलसण्हं आयरक्ख-देवसाहस्सीणं अण्णेसिंच बहूणं कालिवडेंसग- भवणवासीणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चंकारेमाणी जाव विहरइ॥ ४१. वह काली देवी चार हजार सामानिक यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा कालीवतंसक भवन में निवास करने वाले अन्य अनेक असुर कुमार देवों और देवियों का आधिपत्य करती हुई यावत् विहार करने लगी। ४२. एवं खलु गोयमा! कालीए देवीए सा दिव्वा देविड्ढी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए। ४२. इस प्रकार गौतम! काली देवी को वह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव उपलब्ध हुआ, प्राप्त हुआ, अभिसमन्वागत हुआ। ४३. कालीए णं भंते! देवीए केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! अड्ढाइज्जाइं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता।। ४३. भन्ते! काली देवी की काल-स्थिति कितनी है? गौतम! उसकी स्थिति अढ़ाई पल्योपम है। ४४. काली णं भंते! देवी ताओ देवलोगाओ अणंतरं उन्वट्टित्ता कहिं गच्छिहिइ? कहिं उववज्जिहिइ? गोयमा महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ बुझिहिइ मुच्चिहिद परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणं अंतं काहिइ॥ ४४. भन्ते! काली देवी उस देवलोक से उद्वर्तन के अनन्तर कहां जाएगी? कहां उपपन्न होगी? गौतम! वह महाविदेह वर्ष में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत होगी और सब दुखों का अन्त करेगी। निक्खेव-पदं ४५. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। -त्ति बेमि॥ निक्षेप-पद ४५. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। -ऐसा मैं कहता हूं। Jain Education Intemational Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४०५ बीअं अज्झयणं अध्ययन २ राई 'राजी' : ४६. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेण धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, बिइयस्स णं भंते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेण के अट्ठे पण्णत्ते ? ४७. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए। सामी समोसढे परिसा निग्गया जाव पज्जुवासङ्ग ।। ४८. ते काणं तेणं समएणं राई देवी चमरचंचाए रायहाणीए एवं जहा काली तहेव आगया, नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगया ।। ४९. भति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसर, वंदित्ता नमसित्ता पुव्वभवपुच्छा ।। ५०. गोयमाति! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं क्यासी एवं खलु गोयमा! तेणं काले तेणं समएणं आमलकप्पा नयरी अंबसालवणे चेइए। जिवसत्तू राया राई गाहावई राइसिरी भारिया । राई दारिया । पासस्स समोसरणं । राई दारिया जहेव काली तहेव निक्खंता ।। ५१. तए णं सा राई अज्जा जाया ।। ५२. तए गं सा राई अज्जा पुष्कचूलाए अज्जाए अंतिए सामाइयमाझ्याई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ । ५३. तए णं सा राई अज्जा अण्णया कयाइ सरीरबाउसिया जाया यावि होत्या ।। ५४. तणं सा राई अज्जा पासत्या तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा चमरचचाए रायहाणीए रामसिए भवणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूतरिया अंगुलस्स असंखेज्जाए भागमेत्ताए ओगाहणाए राईदेवित्ताए उववण्णा जाव अंतं काहिइ ।। ५५. एवं खलु जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपतेण पढमस्स वग्गस्स बिइयज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते । -त्ति बेमि ।। दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग सूत्र ४६-५५ ४६. भन्ते! यदि धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते! धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने द्वितीय अध्यययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? ४७. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह नगर और गुणशिलक चैत्य था। स्वामी समसकृत हुए। जनसमूह आया यावत् पर्युपासना की। ४८. उस काल और उस समय चमरचञ्चा राजधानी से काली देवी की तरह राजी देवी आई। नाट्य विधि प्रदर्शित कर वापस चली गई। ४९. भन्ते! भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की। नमस्कार किया । वन्दना, नमस्कार कर पूर्वभव सम्बन्धी प्रश्न किया । ५०. हे गौतम! श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम को आमन्त्रित कर इस प्रकार कहा--गौतम! उस काल और उस समय आमलकल्पा नगरी थी। वहां आम्रशालवन चैत्य था जितशत्रु राजा, राजी गृहपति, राजी श्री भार्या और राजी बालिका थी। भगवान पार्श्व का समवसरण । काली के समान राजी ने भी निष्क्रमण किया । ५१. वह राजी आर्या बन गई। ५२. आर्या राजी ने आर्या पुष्पचूला के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। ५३. किसी समय वह आर्या राजी शरीरबाकुशिका बन गई। ५४. वह पार्श्वस्था आर्या राजी उस प्रमाद स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर, चमरचञ्चा राजधानी, राजावतंसक भवन, उपपात सभा और देव शय्या में देवदूष्य वस्त्र के आवरण में अंगुल के असंख्यातायें भाग परिमित अवगाहना से राजी देवी के रूप में उपपन्न हुई यावत् वह सब दुःखों का अन्त करेगी। ५५. जम्बू! धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग के द्वितीय अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। -ऐसा मैं कहता हूं। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ नायाधम्मकहाओ दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र ५६-६३ तइयं अज्झयणं : अध्ययन ३ रयणी : 'रजनी' ५६. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स बिइयज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते, तइयस्स णं भते! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अद्वे पण्णत्ते? ५६. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्म कथाओं के प्रथम वर्ग के द्वितीय अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! तृतीय अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? ५७. एवं खलु जंबू! रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। सामी समोसढे॥ ५७. जम्बू! राजगृह नगर । गुणशिलक चैत्य । स्वामी समवसृत हुए। ५८. तेणं कालेणं तेणं समएणं रयणी देवी चमरचंचाए रायहाणीए आगया। ५८. उस काल और उस समय चमरचञ्चा राजधानी से रजनी देवी आयी। ५९. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पुन्वभवपुच्छा। ५९. भन्ते! भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर उसके पूर्वभव सम्बन्धी प्रश्न किया। ६०. गोयमाति! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी--एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं आमलकप्पा नयरी। अंबसालवणे चेइए। जियसत्तू राया। रयणी गाहावई। रयणसिरी भारिया। रयणी दारिया। सेसं तहेव जाव अंतं काहिइ।। ६०. हे गौतम! श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम को आमन्त्रित कर इस प्रकार कहा--गौतम! उस काल और उस समय आमलकल्पा नगरी, आम्रशालवन चैत्य, जितशत्रु राजा, रजनी गृहपति, रजनीश्री भार्या और रजनी बालिका थी। शेष राजी के समान यावत् वह सब दुःखों का अन्त करेगी। चउत्थं अज्झयणं : अध्ययन ४ विज्जू : विद्युत ६१. एवं विज्जू वि--आमलकप्पा नयरी। विज्जू गाहावई। विज्जूसिरी ६१. इसी प्रकार विद्युत का वर्णन भी ज्ञातव्य है। आमलकल्पा नगरी। भारिया। विज्जू दारिया। सेसं तहेव।। विद्युत गृहपति। विद्युतश्री भार्या, विद्युत बालिका। शेष पूर्ववत् । पंचमं अज्झयणं : अध्ययन ५ मेहा : मेघा ६२. एवं मेहा वि--आमलकप्पाए नयरीए मेहे गाहावई। मेहसिरी ६२. मेघा का वर्णन भी ज्ञातव्य है--आमलकल्पा नगरी। मेघ गृहपति । भारिया। मेहा दारिया। सेसं तहेव॥ मेघश्री भार्या । मेघा बालिका। शेष पूर्ववत्। ६३. एवं खलु जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते॥ ६३. जम्बू! धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथा के प्रथम वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। Jain Education Intemational Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४०७ दूसरा श्रुतस्कन्ध, द्वितीय वर्ग : सूत्र १-१० बीओ वग्गो : द्वितीय वर्ग पढमं अज्झयणं : अध्ययन १ सुंभा : 'शुम्भा' १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं पढमस्स वग्गस्स अयमद्वे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अटे पण्णते? १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के प्रथम वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! द्वितीय वर्ग का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. एवं खलु जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं दोच्चस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा--सुंभा, निसुंभा, रंभा, निरंभा, मदणा।। २. जम्बू! श्रमण भगवान महावीर ने द्वितीय वर्ग के पांच अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं, जैसे--शुम्भा, निशुम्भा, रम्भा, निरम्भा, मदना। ३. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं दोच्चस्स वग्गस्स पंच अज्झयणा पण्णत्ता, दोच्चस्स णं भंते! वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते? ३. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्म कथाओं के द्वितीय वर्ग के पांच अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं तो भन्ते! द्वितीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? ४. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे। गुणसिलए चेइए। सामी समोसढे। परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ।। ४. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह नगर था। गुणशिलक चैत्य । स्वामी समवसृत हुए। जनसमूह आया यात पर्युपासना की। ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं सुंभा देवी बलिचंचाए रायहाणीए सुंभवडेंसए भवणे सुंभंसि सीहासणंसि विहरइ । काली गमएणं जाव नट्टविहिं उवदंसेत्ता पडिगया।। ५. उस काल और उस समय शुम्भा देवी बलिचञ्चा राजधानी के शुम्भावतंसक भवन में शुम्भ सिंहासन पर विहार कर रही थी। काली के वर्णन के समान ही नाट्य विधि प्रदर्शित कर वापस चली गई। ६. पूर्वभव पृच्छा । ६.पुब्वभवपुच्छा । ७. सावत्थी नयरी। कोट्ठए चेइए। जियसत्तू राया। सुंभे गाहावई। सुंभसिरी भारिया। सुंभा दारिया। सेसं जहा कालीए नवरं अद्भुट्ठाई पलिओवमाइं ठिई। ७. श्रावस्ती नगरी। कोष्ठक चैत्य । जितशत्रु राजा। शुम्भ गृहपति । शुम्भश्री भार्या । शुम्भा बालिका। शेष काली के समान, विशेष--उसकी स्थिति साढ़े सात पल्योपम थी। ८. जम्बू! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने द्वितीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। ८. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं दोच्चस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते।। २-५ अज्झयणाणि ९. एवं--सेसा वि चत्तारि अज्झयणा । सावत्थीए । नवरं--माया पिया धूया-सरिनामया॥ २ से ५ अध्ययन १. इसी प्रकार-शेष चार अध्ययन ज्ञातव्य हैं। श्रावस्ती नगरी। विशेष--माता-पिता और पुत्री के नाम समान हैं। २. जम्बू! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के द्वितीय वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। १०. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं बिइयस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते॥ Jain Education Intemational cation Intermational Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा श्रुतस्कन्ध, तृतीय वर्ग : सूत्र १-१० ४०८ तइयो वग्गो तृतीय वर्ग पढमं अज्झयणं : अध्ययन १ 'अला' अला १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं बिइयस्स वग्गरस अयम पण्णत्ते, तदयस्त्र णं भंते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेण के अड्डे पण्णत्ते ? २. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं तइयस्स वग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा--पढमे अज्झयणे जाव चपण्णमे अज्झयणे ।। ३. जइ णं भंते । समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भते! अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण के अट्ठे पण्णत्ते ? ४. एवं खलु जंबू तेगं कालेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए। सामी समोसढे । परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ ।। ५. तेणं काले तेणं समएणं अला देवी धरणाए रायहाणीए अलावडेंसए भवणे अलंसि सीहासणंसि एवं कालीगमएण जाव नट्टविहिं उवदसेत्ता पगिया|| ६. पुव्यभवपुच्छा ।। ७. वाणारसीए नयरीए काममहावणे चेइए। अले गाहावई अलसिरी भारिया । अला दारिया । सेसं जहा कालीए, नवरं-धरणअग्गमहिसित्ताए उनवाओ साइमं अद्धपलिओवमं ठिई सेसं तहेव ।। ८. एवं खलु जंबू समणेण भगवया महावीरेणं तइयस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते ।। २६ अज्झयणाणि ९. एवं कमा, सतेरा, सोयामणी, इंदा, घणविज्या वि सव्वाओ एयाओ धरणस्स अग्गमहिसीओ ।। ७-१२ अज्झयणाणि १०. एए छ अायणाणि वेणुदेवस्स वि अविसेसिया भाणियन्वा ।। नायाधम्मकहाओ १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के द्वितीय वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! तृतीय वर्ग का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने तृतीय वर्ग के चौवन अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं, जैसे--पहला अध्ययन यावत् चौवनवां अध्ययन । ३. यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के तृतीय वर्ग के चौवन अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं तो भन्ते! प्रथम अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है ? ४. जम्बू ! उस काल और उस समय राजगृह नगर था । गुणशिलक चैत्य । स्वामी समवसृत हुए। जनसमूह आया यावत् पर्युपासना की। ५. उस काल और उस समय अला देवी धरणा राजधानी के अलावतंसक भवन में अलसिंहासन पर विहार कर रही थी यावत् वह काली के समान नाट्य विधि प्रदर्शित कर वापस चली गयी । ६. पूर्वभव पृच्छा। ७. वाराणसी नगरी में काममहावन चैत्य अल गृहपति, अलश्री भार्या, अला बालिका । शेष काली के समान । विशेष - धरण की अग्रमहिषी के रूप में उपपात । कुछ अधिक अर्द्धपत्योपम की स्थिति शेष पूर्ववत् । 1 ८. जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने तृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। २-६ अध्ययन ९. इसी प्रकार -- क्रमा, सतेरा, सौदामिनी, इन्द्रा, घन, विद्युत -- ये सब धरण की अग्रमहिषियां थी । ७-१२ अध्ययन १०. वेणुदेव के ये छह अध्ययन भी पूर्व के अध्ययनों के समान ज्ञातव्य हैं। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १३-५४ अज्झयणाणि ११. एवं हरिस अग्गिसिहस्स पुण्णस्स जलकंतस्स अभियगतिस्स वेलंबस्स घोसस्स वि एए चैव छ-छ अज्झयणा । एवमेते दाहिणिल्लाणं चउपण्णं अज्झयणा भवति । सव्वाओ वि वाणारसीए काममहावणे चेइए। ४०९ १२. एवं खलु जंबू! समणेनं भगवया महावीरेण धम्मकहाणं तझ्यस्स वग्गस्स अयम पण्णत्ते ॥ दूसरा श्रुतस्कन्ध, तृतीय वर्ग सूत्र ११-१२ १३-५४ अध्ययन ११. इसी प्रकार हरी, अग्निशिख, पूर्ण, जलकान्त, अमितगति, वेलम्ब और घोष के भी ऐसे ही छह, छह अध्ययन हैं। इस प्रकार दक्षिण दिग्वर्ती भवनवासी देवों की देवियों के ये चौवन अध्ययन हैं। सभी में वाराणसी नगरी और काममहावन चैत्य हैं। १२. जम्बू! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के तृतीय वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा श्रुतस्कन्ध, चतुर्थ वर्ग सूत्र १ ९ ४१० चउत्थो वग्गो : चतुर्थ वर्ग पढमं अज्झयणं : अध्ययन १ रूया 'रूपा' 1: १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं तइयस्स वग्गस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, चउत्थस्स णं भंते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेण के अड्डे पणते? २. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं उत्थ वग्गस्स चउप्पण्णं अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा -- पढमे अज्झयणे जाव चउप्पण्णइमे अज्झयणे ।। ३. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं चउत्थस्स वग्गस्स चउपण्णं अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भते! अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण के अट्ठे पण्णत्ते ? ४. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ ॥ - ५. तेगं कालेणं तेगं समएणं रूया देवी भूपाणंदा रापहाणी रूपगवडेंसए भवणे रूयगंसि सीहासांसि जहा कालीए तहा, नवरं पुण्यभवे चंपाए पुण्णभद्दे चेइए स्वगगाहावई रूपगसिरी भारिया रूवा दारिया || सेसं तहेव, नवरं भूयाणंद अग्गमहिसित्ताए उववाओ । देसूणं पलिजोवमं ठिई ।। ६. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्यस्स वग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते । -त्ति बेमि ॥ २-६ अज्झयणाणि ७. एवं - - सुख्यावि, रूयंसावि, रूयगावईवि, रूयकंतावि, रूयप्पभावि ।। ७-५४ अज्झयणाणि ८. एयाओ चेव उत्तरिल्लाणं इंदाणं वेणुदालिस्स हरिस्सहस्स अग्गिमाणस्स विसिस्स जलप्पमस्स अमितवाहणस्स पभंजणस्स महाघोसस्स भाणियव्वओ ।। ९. एवं तु जंबू समणेणं भगवया महावीरेण धम्मकहाणं चउत्पस्स वग्गस्स अयमट्ठे पण्णत्ते ।। नायाधम्मकहाओ १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के तृतीय वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! चतुर्थ वर्ग का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया हैं ? २. जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के चतुर्थ वर्ग के चौवन अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं जैसे-- पहला अध्ययन यावत् चौवनवां अध्ययन । ३. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के चतुर्थ वर्ग के चौवन अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं तो भन्ते! प्रथम अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? ४. उस काल और उस समय राजगृह में समवसरण जुड़ा यावत् जन-समूह ने पर्युपासना की। ५. उस काल और उस समय रूपा देवी भूतानन्दा राजधानी के रूपकाव भवन में रूपक सिंहासन पर विहार कर रही थी जैसे- काली । विशेष- पूर्वभव में चम्पा का पूर्णभद्र चैत्य रूपक गृहपति रूपकश्री भार्या । रूपा बालिका शेष पूर्ववत् । 1 विशेष--भूतानन्द की अग्रमहिषी के रूप में उपपात । कुछ कम पत्योपम स्थिति । ६. जम्बू! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने चतुर्थ वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। - ऐसा मैं कहता हूं। २-६ अध्ययन ७. इसी प्रकार सुरूपा, रूपांशा, रूपकवती, रूपकान्ता और रूपप्रभा के अध्ययन भी ज्ञातव्य है । ७-५४ अध्ययन ८. इसी प्रकार -- उत्तरदिग्वर्ती इन्द्रों--वेणदाली, हरिस्सह, अग्निमाणव, विशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन और महाघोष की भी देवियां अग्रमहिषियां थीं ऐसा ज्ञातव्य है। -- ९. जम्बू इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के चतुर्थ वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४११ : पंचमो वग्गो पंचम वर्ग पढमं अज्झयणं अध्ययन १ कमला : 'कमला' १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं चउत्पस्स वग्गस्स अयम पण्णत्ते, पंचमस्स णं भते वग्गस्स समणेण भगवया महावीरेण के अड्डे पण्णत्ते ? २. एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स वग्गस्स बत्तीसं अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा- १. कमला २. कमलप्पभा चेव, ३. उप्पला य ४. सुदंसणा । ५. रूववई ६. बहुरूवा ७. सुरूवा ८. सुभगावि य ॥१॥ ९. पुण्णा १०. बहुपुत्तिया चेव ११. उत्तमा १२. तारयावि य १३. पउमा १४. वसुमई चेव, १५. कणगा १६. कणगप्पभा ।।२।। १७. वडेंसा १८. केउमई चेव, १९. वइरसेणा २०. रइप्पिया । २१. रोहिणी २२. नवमिया चैव २३. हिरो २४. पुष्फवईवि य ॥ ३ ॥ २५. भुयगा २६. भुयगावई चेव, २७. महाकच्छा २८. फुडा इव । २९. सुघोसा ३०. विमला चेव, ३१. सुस्सरा य ३२. सरस्सई । ।४ ।। ३. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं पंचमस्स वग्गस्स बत्तीसं अज्झयणा पण्णत्ता, पंचमस्स णं भंते! वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? ४. एवं खलु जंबू तेगं काले तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा फज्जुवास ।। ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं कमला देवी कमलाए रायहाणीए कमलवडेंसए भवणे कमलसि सीहासणसि सेसं जहा कालीए तहेव, नवरं -- पुब्वभवे नागपुरे नयरे सहसंबवणे उज्जाणे कमलस्स गाहावइस्स कमलसिरीए भारियाए कमला दारिया पासरस अंतिए निक्संता । कालरस पितायकुमारिदस्स अग्गमहिसी अद्धपलिओवमं ठिई ॥ २- ३२ अज्झयणाणि ६. एवं सेसा वि अायण्णा दाहिणिल्लाणं इंदाणं भाणियब्बाओ । नागपुरे सहसंबवणे उज्जाणे । मायापियरो धूया -- सरिनामया । ठिई अद्धपलिजोवमं ।। दूसरा श्रुतस्कन्ध, पंचम वर्ग : सूत्र १-६ १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के चतुर्थ वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! पंचम वर्ग का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने पंचम वर्ग के बत्तीस अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं जैसे- १. कमला २. कमलप्रभा ३ उत्पता ४ सुदर्शना ५. रूपवती ६. बहुरूपा ७. सुरूपा ८. सुभगा ९ पूर्णा १०. बहुपुत्रिका ११ उत्तमा १२. तारका १३. पद्मा १४. वसुमती १५. कनका १६. कनकप्रभा १७. (अ) वसा १८. केतुमती १९. वज्रसेना २० रतिप्रिया २१. रोहिणी २२ नवमिका २३ ही २४ पुष्पवती २५. भुजगा २६. भुजगवती २७. महाकच्छा २८. स्फुटा २९ सुघोषा ३०. विमला ३१. सुरवरा ३२. सरस्वती। ३. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के पंचम वर्ग के बत्तीस अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं तो भन्ते! उन्होंने पंचम वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है ? ४. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह में समवसरण जुडा यावत् जन-समूह ने पर्युपासना की। 1 ५. उस काल और उस समय कमला देवी कमला राजधानी के कमलावतंसक भवन में कमल सिंहासन पर विहार कर रही थी। शेष जैसे काली विशेष पूर्वभव में नागपुर नगर, सहस्राम्रवन उद्यान, कमल गृहपति एवं कमलश्री भार्या की कमला बालिका। वह पार्श्व के पास प्रव्रजित हुई वह 'काल' पिशाच कुमार इन्द्र की अग्रमहिषी बनी स्थिति अर्द्धपत्योपम। । २- ३२ अध्ययन ६. इसी प्रकार शेष अध्ययन भी दक्षिणदिग्वर्ती इन्द्रों के ज्ञातव्य हैं। नागपुर, सहस्त्राम्रवन उद्यान माता-पिता और पुत्रियों के नाम समान थे। स्थिति - अर्द्धपल्योपम । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ नायाधम्मकहाओ दूसरा श्रुतस्कन्ध, षष्ठ वर्ग, सप्तम वर्ग छट्ठो वग्गो : षष्ठ वर्ग १-३२ अज्झयणाणि : १-३२ अध्ययन १. छट्ठो वि वग्गो पंचमवग्ग-सरिसो, नवरं--महाकालाईणं उत्तरिल्लाणं इंदाणं अग्गमहिसीओ। पुव्वभवे सागेए नगरे। उत्तरकुरु-उज्जाणे। मायापियरो घूया-सरिनामया। सेसं तं चेव ।। १. छट्ठा वर्ग भी पंचम वर्ग के समान है। विशेष--महाकाल आदि उत्तरदिग्वर्ती इन्द्रों की अग्रमहिषियां। पूर्वभव में साकेत नगर । उत्तरकुरु उद्यान । माता-पिता और पुत्रियों के नाम समान थे। शेष पूर्ववत्। सत्तमो वग्गो : सप्तम वर्ग पढमं अज्झयणं : अध्ययन-१ सूरप्पभा : ‘सूप्रभा' १. जइ णं भंते समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं छठुस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते, सत्तमस्स णं भंते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अटे पण्णत्ते? १. भन्ते ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के छटे वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! सातवें वर्ग का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स वग्गस्स चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा--सूरप्पभा, आयवा, अच्चिमाली, पभंकरा॥ २. जम्बू! श्रमण भगवान महावीर ने सातवें वर्ग के चार अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं जैसे--सूरप्रभा, आतपा, अर्चिमाली, प्रभंकरा। ३. जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं सत्तमस्स वग्गस्स चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता, सत्तमस्स णं भंते! वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते? ३. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के सातवें वर्ग के चार अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं तो भन्ते! उन्होंने सातवें वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? ४. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ॥ ४. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह में समवसरण जुड़ा यावत् जन-समूह ने पर्युपासना की। ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं सूरप्पभा देवी सूरंसि विमाणंसि सूरप्पभंसि सीहासणसि । सेसं जहा कालीए तहा, नवरं--पुन्वभवो अरक्खुरीए नयरीए सूरप्पभस्स गाहावइस्स सूरसिरीए भारियाए सूरप्पभा दारिया। सूरस्स अग्गमहिसी। ठिई अद्धपलिओवमं पंचहि वाससएहिं अब्भहियं । सेसं जहा कालीए॥ ५. उस काल और उस समय सूरप्रभा देवी सूरविमान के सूरप्रभ सिंहासन पर विहार कर रही थी। शेष जैसे--काली। विशेष-पूर्वभव में अरक्षुरी नगरी में सूरप्रभ गृहपति, सूरश्री भार्या की सुरप्रभा बालिका। वह सूर्य की अग्रमहिषी थी। स्थिति अर्द्धपल्योपम से पांच सौ वर्ष अधिक । शेष जैसे--काली। २-४ अज्झयणाणि ६. एवं आयवा, अच्चिमाली, पभंकरा । सव्वाओ अरक्खुरीए नयरीए॥ २-४ अध्ययन ६. इसी प्रकार आतपा, अर्चिमाली और प्रभंकरा का वर्णन ज्ञातव्य है। ये सभी अरक्षुरी नगरी की थीं। Jain Education Intemational Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४१३ दूसरा श्रुतस्कन्ध, अष्टम वर्ग : सूत्र १-६ अट्ठमो वग्गे : अष्टम वर्ग पढमं अज्झयणं : अध्ययन १ चंदप्पभा: चन्द्रप्रभा १. जइणं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं सत्तमस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते, अट्ठमस्स णं भते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अटे पण्णत्ते? १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के सातवें वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! आठवें वर्ग का श्रमण भगवान महावीर . ने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स वग्गस्स चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा--चंदप्पभा, दोसिणाभा, अच्चिमाली, पभंकरा॥ २. जम्बू! श्रमण भगवान महावीर ने आठवें वर्ग के चार अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं, जैसे--चन्द्रप्रभा, दोसीणाभा, अर्चिमाली, प्रभंकरा। ३. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं अट्ठमस्स वग्गस्स चत्तारि अज्झयणा पण्णत्ता, अट्ठमस्स णं भंते! वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते? ३. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के आठवें वर्ग के चार अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं तो भन्ते! उन्होंने आठवें वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? ४. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा पज्जुवासइ॥ ४. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह में समवसरण जुड़ा यावत् जन-समूह ने पर्युपासना की। ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदप्पभा देवी चंदप्पभंसि विमाणसि चंदप्पमंसि सीहाससि । सेसंजहा कालीए, नवरं--पुत्वभवो महुराए नयरीए भंडिवडेंसए उज्जाणे। चंदप्पभे गाहावई। चंदसिरी भारिया। चंदप्पभा दारिया। चंदस्स अग्गमहिसी। ठिई अद्धपलिओवमं पण्णासवाससहस्सेहिं अब्भहियं ।। ५. उस काल और उस समय चन्द्रप्रभा देवी, चन्द्रप्रभ विमान में, चन्द्रप्रभ सिंहासन पर विहार कर रही थी। शेष जैसे-काली। विशेष--पूर्वभव में मथुरा नगरी का भण्डीवतंस उद्यान। चन्द्रप्रभ गृहपति । चन्द्रश्री भार्या। चन्द्रप्रभा बालिका। वह चन्द्र की अग्रमहिषी थी। स्थिति अर्द्धपल्योपम से पचास हजार वर्ष अधिक। २-४ अज्झयणाणि अध्ययन २-४ ६. एवं--दोसिणाभा, अच्चिमाली, पभंकरा, महुराए नयरीए। ६. इसी प्रकार दोसीणाभा, अर्चिमाली और प्रभंकरा के अध्ययन ज्ञातव्य हैं। मायापियरो धूया-सरिसनामा। मथुरा नगरी। माता-पिता और पुत्रियों के नाम समान थे। Jain Education Intemational Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ नायाधम्मकहाओ दूसरा श्रुतस्कन्ध, नवम वर्ग : सूत्र १-६ नवमो वग्गो : नवम वर्ग १-८ अज्झयणाणि : १-८ अध्ययन १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं अट्ठमस्स वग्गस्स अयमढे पण्णत्ते, नवमस्स णं भते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेणं के अटे पण्णते? १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के आठवें वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! नौवें वर्ग का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं नवमस्स वग्गस्स अट्ठ अज्झयणा पण्णत्ता, तंजहा-- गाहा-- १. पउमा २. सिवा ३. सई ४. अंजू, ५. रोहिणी ६. नवमिया इय । ७. अयला ८. अच्छरा। २. जम्बू! श्रमण भगवान महावीर ने नौंवे वर्ग के आठ अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं जैसे-- गाथा-- पद्मा, शिवा, शची, अंजू, रोहिणी, नवमिका, अचला अप्सरा। ३. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं नवमस्स वग्गस्स अट्ठ अज्झयणा पण्णत्ता, नवमस्स णं भंते! वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते? ३. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के नौवे वर्ग के आठ अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं तो भन्ते! उन्होंने नौवें वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? ४. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणंजाव परिसा पज्जुवासइ॥ ४. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह में समवसरण जुड़ा यावत् जन-समूह ने पर्युपासना की। ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं पउमावई देवी सोहम्मे कप्पेपउमवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए पउमंसि सीहाससि जहा कालीए॥ ५. उस काल और उस समय पद्मावती देवी, सौधर्मकल्प पद्मावतंसक विमान और सुधर्मा सभा में पद्म सिंहासन पर विहार कर रही थी। शेष, जैसे--काली। ६. एवं अट्ट वि अज्झयणा काली-गमएणं नायव्वा, नवरं--सावत्थीए दोजणीओ। हत्थिणाउरे दोजणीओ। कपिल्लपुरे दोजणीओ। साएए दोजणीओ। पउमे पियरो विजया मायराओ। सव्वाओ वि पासस्स अंतियं पव्वइयाओ। सक्कस्स अग्गमहिसीओ। ठिई सत्त पलिओवमाइं। महाविदेहे वासे अंतं काहिति।। ६. इस प्रकार आठों ही अध्ययन काली के वर्णन के समान ज्ञातव्य हैं। विशेष--उनमें दो श्रावस्ती की, दो हस्तिनापुर की, दो काम्पिल्यपुर की और दो साकेत की थीं। पिता-पद्म, माताएं-विजया। सभी पार्श्व के पास प्रव्रजित हुई। शक की अग्रमहिषियां बनी। स्थिति सात पल्योपम । महाविदेह वर्ष में सब दु:खों का अन्त करेंगी। Jain Education Intemational Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं नवमस्स वग्गस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, दसमस्स णं भंते! वग्गस्स समणेणं भगवया महावीरेण के अट्ठे पण्णत्ते ? ४१५ दसमो वग्गो : दशम वर्ग १-८ अज्झयणाणि १८ अध्ययन २. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स वग्गस्स अट्ठ अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा- संगहणी - गाहा १. कन्हा य २. कण्हराई, ३. रामा तह ४. रामक्खिया । ५. क् या ६. वसुगुप्ता ७. वसुमित्ता ८ वसुंधरा देव ईसाणे ॥ १ ।। ३. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं दसमस्स वग्गस्स अट्ठ अज्झयणा पण्णत्ता, दसमस्स णं भंते! वग्गस्स पढमज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ।। ४. एवं खलु जंबू तेगं कालेनं तेणं समएणं रायगिहे समोसरणं जाव परिसा फज्जुवास ।। ५. तेगं कालेनं तेणं समएणं कण्हा देवी ईसाने कप्पे कन्हवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए कण्होंसि सीहासर्णसि, सेसं जहा कालीए । ६. एवं अट्ठ वि अज्जायना काली- गमएणं नायव्या नवरं पुव्यभवो वाणारसीए नयरीए दोजणीओ रायगिहे नयरे दोजणीओ। सावत्थीए नवरीए दोजणीओ कोसंबीए नवरीए दोजणीओ। 1 रामे पिया धम्मा माया । सव्वाओ वि पासस्स अरहओ अंतिए पव्वइयाओ । पुप्फचूलाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए । ईसाणस्स अग्गमहिसीओ। ठिई नवपलिजमाई। महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झिहिंति मुच्चिहिंति सव्वदुक्खाणं अंतं काहिंति ।। ७. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं धम्मकहाणं दसमस्स वग्गस्स अयमद्वे पण्णत्ते ॥ ८. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसोत्तमेणं पुरिससीहेणं जाव सिद्धिमइनामधे ठाणं संपत्तेणं धम्मकहाणं अयमट्ठे पण्णत्ते । परिसेसो धम्मका सुपवसंघो सम्मत्तो । दसहिं वग्गेहिं नायाधम्मकहाओ समत्ताओ ।। दूसरा श्रुतस्कन्ध, दशम वर्ग सूत्र १-८ १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के नौंवे वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते! दसवें वर्ग का श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? २. जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने दसवें वर्ग के आठ अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं। जैसे- संग्रहणी गाया- कृष्णा, कृष्णराजि, रामा, रामरक्षिका, वसु, वसुगुप्ता, वसुमित्रा, वसुन्धरा ये सब ईशान कल्प में हैं। -- ३. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के दसवें वर्ग के आठ अध्ययन प्रज्ञप्त किए हैं तो भन्ते! उन्होंने दसवें वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है? ४. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह में समवसरण जुड़ा यावत् जन-समूह ने पर्युपासना की। ५. उस काल और उस समय कृष्णा देवी ईशान कल्प कृष्णावतंसक विमान और सुधर्मा सभा में कृष्ण सिंहासन पर विहार कर रही थी। शेष, जैसे - काली । | ६. इसी प्रकार आठों ही अध्ययन काली के वर्णन के समान ज्ञातव्य है। विशेष- पूर्वभव में दो वाराणसी की, दो राजगृह की, दो श्रावस्ती की और दो कौशाम्बी नगरी की राम-पिता, धर्मा-माता सभी अर्हत पार्श्व के पास प्रव्रजित हुई। आर्या पुष्पचूला को शिष्याओं के रूप में प्रदान किया। ईशान की अग्रमहिषियां बनीं। स्थिति नौ पल्योपम। महाविदेह वर्ष में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और सब दुःखों का अन्त करेगी। ७. जम्बू! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं के दसवें वर्ग का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। ८. जम्बू ! इस प्रकार धर्म के आदिकर्त्ता, तीर्थंकर, स्वयंबुद्ध, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त भ्रमण भगवान महावीर ने धर्मकथाओं का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। परिशेष धर्मकथा श्रुतस्कन्ध समाप्त । दस वर्गों के साथ ज्ञातधर्मकथाएं समाप्त । ग्रन्थ परिमाण कुल अक्षर २२६९४३ अनुष्टुप् श्लोक ७०९१ अक्षर ३१ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त - पाठ अंतिए जाव पव्वयामि अंतेउरे य जाव अज्झोववण्णे अगडे वा जाव सागरे अग्गिसामण्णे जाव मच्चुसामण्णे अग्घेणं जाय आसणेण अच्चणिजे जाव पज्जुवासणिज् अज्जग जाव परिभाएत्तए अज्जाओ तहेव भणति तहेव साविया जाया तहेव चिंता तहेव सागरदत्तं आपुच्छति अज्नत्थिय० अन्नथिए किमण्णे जाव विभ अन्यखिए जाव समुपजिल्या अज्झत्थिय जाव जाणित्ता अदुवसहमाणसगए जाब स्वर्णि अद्वमस्स उक्खेवओ एवं खलु जंबू जाव चत्तारि अट्ठाई जाय नो बागड अट्ठाई जाव वागरेह अङ्गाहियं महानंदीसर जामेव दिसं पाड जाव पडिगए अड्डा जाव अपरिभूया अड्डा जाव भत्तपाणा अनंते जाय समुप्यणे अणते गाणे समुप्पण्णे जाव सिद्धा अणगारवण्णओ भाणियव्वो अणगारे जाव इहमागए अणगारे जाव पज्जुवासमाणे अतिराए चेव जाव गंधेणं अणिट्ठा जाव अमणामा परिशिष्ट - १ संक्षिप्त - पाठ पूर्त स्थल पूर्ति आधार- स्थल पूर्त-स्थल २/१/२४ 9/94/89 १/८/१५४ १/१/१११ १/१६/१६७ १/२ / ७६ १/६/५ पूर्ति आधार- स्थल १/१/१०१ १/१६/ २८ १/८/१५४ १/१/१११ १/१६ / ६८-१०४ १/१४/४४-५० १/८/७६ १/१६/२७२ १/१/५३, ५६, १५४, १५५, १६८, २०४, २०५; १/२/१२, ७१; २/८/१, २ १/५/६६ १/५/६६ १/१६/१८६ ओ. सू. २ १/१/११० १/८/२२६ १/५/७ १/३/८ १/८/२२५ १/१६/३२४ १/१/१६४ १/५/६८ २/१/४ १/१२/३ १/१६/६७ १/५/११८, १२४; १/७/२५; १/१६/११८, २८५ २/१/३८ १/१६/ २८६ १/१/१५५ १/१/४८ १/१६/२७२ १/१/४८ १/१/४८ १/१/१५४ २/२/१, २ १/५/६६ १/५/६६ १/८/२२४ ओ. सू. १४१ ओ. सू. १४१ वृत्ति १/५/८४ ओ. सू. १६४ ओ. सू. ५२ १/१/७ १/८/४२ १/१/४६ अणिट्ठा जाव दंसणं अणिट्ठा जाव परिभोगं अणुत्तरे पुणरवि तं चैव जाव तओ पच्छा भुक्तभोगी समणस्स भगवओ जाव पव्वइस्ससि अण्णं च तं विउलं अण्णमण्णं जाव समणे अत्थत्थिया जाव ताहिं इट्ठाहिं जाव अणवरयं अत्थामा जाव अधारणिज्ज० अपलिय जाय परिवज्जिए अपत्थियपत्वए जाय वज्जिए अपत्वियपत्थया जाव परिवज्जिया अपुल्याए जाव निंबोलियाए अब्भणुण्णाए जाव पव्वइत्तए अएण जाव विहरितए अब्भुट्ठेसि जाव वंदसि अभिसिंह जाव पडिगए अभिसिंचइ जाव राया जाए विहरइ अमच्चे जाव तुसिणीए अम्मयाओ जाव पव्वइत्तए अम्मयाओ जाव सुद्धे अयमेयारूये जाय समुपत्या अरहण्णग जाव वाणियगाणं अरहण्णग संज्जत्तगा अरने जागत्तिए अरिट्टनेमिस्स जाव पव्वइत्तए अवगुने जाव पडिगए अवरकंका जाव सण्णिवाडिया अवसेसं तहेव जाव सामाइयमाइयाई अवहरइ जाव तालेइ अवहिया जाव अवक्खित्ता अवीरिए जाव अधारणिज्ज० असक्कारिय जाव निच्छूढे असक्कारिया जाव निच्छूढा १/१४/४३ १/१४/५० १/१/११३ १/८/२०७ १/१३/३८ १/१/१४३ १/१६/२५३ १/८/१२८ १/५/१२२ १/८/७४ १/१६/२५ १/१२/३६ 9/4/995; १/१६ / २८ १/५/६७ १/१६/२८० १/५/६३-६५ १/१२/१५ 9/9/90€ १/१/१२ १/५/६५ १/८/६७ १/८/८४ १/१६ / ३२० १/५/२० १/१६ / ६५ १/१६/२७६ १/५/६६-१०१ १/१८/१२ १/१६/२२० १/८/१६६ १/१६ / २४६ १/८/१७२ १/१४/३६ १/१४/३६ १/१/११२ १/८/२०५ १/५/५३ ओ. सू. ६८ १/१६/२१ १/५/१२२ उवा.२/२२ १/५/१२२ १/१६/८ १/१/१०४ १/५/१२४ १/५/६६ १/१/१६१ 9/9/990-99€ १/१२/७ १/१/१०७ १/१/३३ १/१/४८ १/८/६४ १/८/६६ १/१६ / ३३४ १/१/१०६ १/१६ / ६१ १/१६/२६२ १/५/३४-३८ १/१८/८ १/१६/२१६ १/१६/२१ १/१६/ २४५ १/८/१५६ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ नायाधम्मकहाओ परिशिष्ट-१ असणं जाव अणुवढेमि असणं जाव दवावेमाणी असणं जाव परिभुजेमाणी असणं जाव परिवेसेइ असणं जाव विहरइ असणं मित्तनाइ चउण्ह य सुण्हाणं कुलघर जाव सम्माणित्ता असण जाव पसन्नं असिपत्ते इ वा जाव मुम्मुरे इ वा एत्तो अणिट्ठतराए चेव असोगवणिया जाव कंडरीयं अहं जाव अणेगभूयभावभविए अहं जाव सूया अहं रज्जं च जाव ओसन्न जाव उउबद्ध पीढ० विहरामि अहम्मिए जाव अहम्मकेऊ अहम्मिए जाव विहरइ अहाकप्पं जाव किट्टेत्ता अहापडिरूवं जाव विहरइ (ति) अहापवत्तेहिं जाव मज्जपाणएण अहासुत्तं जाव सम्म अहिमडे इ वा जाव अणिद्वैतराए अमणामतराए अहीण जाव सुरूवे अहो णं तं चेव आइगरे जाव विहरइ आइण्ण वेढो आएहि य जाव परिणामेमाणा आउक्खएणं जाव चइत्ता आढति जाव पज्जवासंति आढाइ जाव तुसिणीए आढाइ जाव तुसिणीया आढाइ जाव नो पज्जुवासइ आढाइ जाव भोगं आढाइ जाव संचिट्ठ आढायंति० आढायंति जाव संलवेंति आपुच्छइ जाव पडिगए आपुच्छणिज्जं जाव वडावियं आपुच्छामि जाव पव्वयामि आपुच्छामि तएणं जाव पव्वयामि आरोग्गतुट्ठी जाव दिट्टे आलंबे वा जाव भविस्सइ आलिघरएसु य जाव कुसुमघरएसु आलोएहि जाव पडिवज्जाहि १/२/१२ १/२/१२ आसयंति वा जाव तुयदृति १/१७/२२ १/१७/२२ १/१४/३६ १/१४/३८ आसाएइ जाव अणुपरियट्टिस्सइ १/१६/४२ १/६/४४ १/२/२० १/२/१४ ___ आसाएमाणीओ जाव परिभुंजेमाणीओ १/२/१७ १/१/८१ १/२/५२,५३ १/२/३७,३८ आसाएमाणी जाव विहरइ १/२/१४ १/१/८१ १/१२/४ १/२/१४ आसाएमाणे जाव विहरइ १/१२/१२ १/१/८१ आसायणिज्ज जाव सव्विंदिय० १/१२/२० १/१२/४ १/७/२२ १/७/६ आसायणिज्जे जाव सव्विंदिय० १/१२/१६ १/१२/४ १/१६/१५२ १/१६/१५१ आसिय जाव गंधवट्टिभूयं १/५/६७ १/१/३३ आसिय जाव परिगीयं १/१/७६ वृत्ति १/१६/५२ वृत्ति आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा १/१६/२८ १/१/१६१ १/१६/३४ १/१६/३३ आसुरुत्ते जाव तिवलियं ५/८/१५६ १/८/१०६ १/५/७६ १/५/७६ आसुरुते जाव तिवलियं एवं १/१६/२८६ १/८/१०६ १/५/७६ १/५/७६ आसुरुते जाव पउमनाभं १/१६/२८० १/८/१०६ ___ आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे १/५/१२२ १/१/१६१ १/५/१२४ १/५/११७, ११८ आहारे वा जाव पव्वयामो १/८/१३ १/५/६० १/१८/१६ वृत्ति आहेवच्चं जाव अभिरमेत्था १/१/१६७ १/१/१५७ १/१८/१६ १/१८/१६ आहेवच्चं जाव पालेमाणे १/५/६ १/१/११८ १/१/२०१ १/१/१८ आहेवच्चं जाव विहरइ १/३/८ १/१/११८ १/१/६७; १/१६/११ १/१/४ आहेवच्चं जाव विहरइ १/१८/२० १/५/११६ १/५/११५ आहेवच्चं जाव विहरसि १/१/१५७ १/५/६ १/१/२०१ १/१/१८ इट्ठा जाव मणामा १/१६/७० १/१/४६ इट्ठा तं चैव १/१६/४८ १/१६/४७ १/८/४२ वृत्ति इट्टाहिं जाव आसासेइ १/१६/१३१ १/१/४६ ११/१६ ओ. सू. १५ इट्टाहिं जाव एवं १/८/२०३ १/१/४६ १/१२/१६ १/१२/१३ इट्टाहिं जाव वग्गूहिं १/८/६७ १/१/४८ २/१/२० १/१/६५ इट्ठाहिं जाव समासासेइ १/१/५० १/१/४६ १/१७/१४ वृत्ति इढे जाव से णं १/५/२० १/१/१४५ १/८/१०४ १/८/१६८ इट्टी जाव परक्कमे १/८/७६; १/१६/२६५ उवा. २/४० १/१६/१२३ १/१/२१२ इमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था १/७/६; २/१/१२ १/१/४८ १/१६/१८८ १/१६/१८६ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभचारिणीओ १/१४/४० १/१/१६४ - १/१२/७; १/१६/१५ १/८/१७० इहमागए जाव विहरइ १/५/५३ १/१/६७; १/५/५२ २/१/३६ १/८/१७० ईसर जाव नीहरणं १/१४/५६ १/५/६:१/२/३४ १/१६/१६० १/१६/१८६ ईसर जाव पभितीणं १/७/६ १/५/६ १/१४/६१ १/१४/६० ईहामिय जाव भत्तिचित्तं १/१/८८१/८/४६१/१/२५ १/१६/३० १/८/१७० उक्किट्ठ जाव समुद्दरवभूयं १/१८/४० १/८/६७ १/१/१५५ १/१/१५४ उक्किट्ठाए जाव देवगईए १/१६/२०४, २०६ राय. सू. १० १/१/१५४ १/१/१५४ उक्किट्ठाए जाए विज्जाहरगईए १/१६/१६० १/४/२१ १/१६/२०० १/१/१६१ उक्किट्ठाए प्फ कुम्मगईए १/४/२१ वृत्ति १/७/४२ १/७/६ उक्खेवओ तइयवग्गस्स २/३/१ २/२/१ १/१२/३८ १/१/१०१ उक्खेवओ पढमज्झयणस्स २/५/३ २/२/३ १/१६/१२ १/१/१०१ उज्जलं जाव दुरहियासं १/१/१६३ १/१/१६२ १/१/२६ १/१/२० उज्जला जाव दाहवक्कंतीए १/१/१८७ १/१/१६२ १/१६/३१२ १/८/१८६ उज्जला जाव दुरहियासा १/५/१०६; १/१६/२०; १/१/१६२ १/३/१६ १/१६/४५ १/१६/११५ वृत्ति उज्जाणे जाव विहरइ १/१६/३२१ १/१६/३१६ वृत्ति Jain Education Intemational Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९ नायाधम्मकहाओ परिशिष्ट-१ उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए तिदंडयं जाव एवं पाएहिं सीसे पोट्टे कार्यसि १/१/१५३ १/१/१५३ धाउरत्ताओ १/५/८० भ. २/५२; १/५/५२ एवं पायंगुलियाओ पायंगुट्ठए वि उत्तरिज्जेहिं जाव चिट्ठामो १/८/१७६ १/८/१७७ कण्णसक्कुलीओ वि नासापुडाई १/१४/२१ १/१४/२१ उत्तरिज्जेहिं जाव परम्मुहा १/८/१७८ १/८/१७७ एवं पासत्थे कुसीले पमत्ते १/५/११७ १/५/११७ उदगपरिफोसिया जाव भिसियाए १/८/१५१ १/८/१४१ एवं मासा वि। नवरं इमं नाणतंउप्पलाई जाव सहस्सपत्ताई १/२/१४ राय. सू. ६७ मासा तिविहा पण्णत्ता, तं जहाउम्मुक्कबालभावा जाव उक्किट्टसरीरा १/१६/१२८ १/१६/३७ कालमासा य अत्थमासा य धन्नमासा उम्मुक्कबालभावा जाव रूवेण १/८/३८; १/१६/३७ वि. १/४/३६ य। तत्थ णं जे ते कालमासा ते णं उम्मुक्कबालभावे जाव जोव्वणग० १/१४/२२ १/१/२० दुवालस तं जहा-सावणे जाव आसाढे। उरालस्स क सि ध मं जाव सुमिणस्स १/१/१६ १/१/१६ तेणं अभक्खेया। अस्थमासा दुविहा उरालाई जाव भुंजमाणा १/१२/४० १/१६/११३ हिरण्णमासा य सुवण्णमासा य ते णं उरालाई जाव विहरइ १/१४/२० १/१२/४० अभक्खेया। धन्नमासा तहेव १/५/७५ १/५/७३; भ. उरालाइं जाव विहरिज्जामि १/१६/११३ १/१६/११३ १८/२१५-२१६ उरालाई जाव विहरिस्सइ १/१६/२०४ १/१६/११३ एवं वट्टए आडोलियाओ तिंदूसए उराले जाव तेयलेस्से १/१६/१२ १/१/६ पोचुल्लए साडोल्लए १/१८/८ १/१८/८ उरालेणं तहेव जाव भासं १/१/२०४ १/१/२०२ एवं सेसाओ वि २/७/६ २/७/२ उववेए जाव फासेणं १/१२/४ १/१२/३ एवं सेसाओ वि २/८/६ २/८/२ उव्यत्तिज्जमाणे जाव टिट्टियावेज्जमाणे १/३/२२ ओरोह जाव विहरइ १/१६/२२५ १/१६/१६५ उव्वत्तेइ जाव टिट्टियावेइ १/३/२६ १/३/२१ ओसन्ने जाव संथारए १/५/१२५ १/५/११७ उव्वेत्तेति जाव दंतेहिं निक्खुडेंति ओहय जाव झियायह १/८/१७१ १/१/३४ जाव करेत्तए १/४/१६ १/४/११ ओहयमण जाव झियायइ १/३/२३ १/१/३४ उव्वत्तेंति जाव नो चेव णं संचाएंति ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणिं १/१४/३८; १/१६/२०८ १/१/३४ करेत्तए १/४/१२ १/४/११ ओहयमणसंकप्पा० १/१४/३८ १/१/३४ एगदिसिं जाव वाणियगा १/८/६७ १/८/६२ ओहयमणसंकप्पा जाव झियाइ १/१/३४ एगयओ जहा अरहन्नए जाव ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ १/१४/३७; १/१६/६२, १/१/३४ लवणसमुई १/१७/५ १/८/६६ ८७, २०७ एज्जमाणिं जाव निवेसेह १/८/१७१ १/१/४८; १/१६/१३१ ओहयमणसंकप्पा जाव झियायंति १/६/१५ १/१/३४ एवं अत्थेणं दारेणं दासेहिं पेसेहि ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह १/८/१७३ १/१/३४ परियणेणं १/१४/७७ १/१४/७७ ओहयमणसंकप्पा जाव झियायामि। १/१६/६५ १/१/३४ एवं कुलत्था वि भाणियव्वा। नवरं इम ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहि १/१६/६४, ६२, २०८१/१/३४ नाणत्तं-इत्थिकुलत्था य धन्नकुलत्था ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि १/१७/१० १/१/३४ य। इत्थिकुलत्था तिविहा पण्णत्ता, तं ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ १/८/१६८; १/१४/७७; १/१/३४ जहा-कुलबहुयाइ य कुलमाउयाइय १/१७/८ कुलधूयाइ य । धन्नकुलत्था तहेव १/५/७४ १/५/७३ ओहयमणसंकप्पे जाव झियायमाणे १/१६/३२ १/१/३४ एवं जहा मल्लिणाए १/१६/२०० १/८/१५४ ओहयमणसंकप्पे जाव झियायसि १/१७/E १/१/३४ एवं जहा विजओ तहेव सव्वं कंडरीए उठाए उठेइ उठेता जाव जाव रायगिहस्स १/१८/१२, ३२ १/१८/२०, २२ से जहेयं १/१६/१२ १/१/१०१ एवं जहा सूरियाभस्स जाव एवं २/१/१५ राय. सू. ६६८ कंता जाव भवेज्जामि १/१६/६७ १/१४/४३ एवं जहेव तेयलिणाए सुव्वयाओ कंते जाव जीवियऊसासए १/१/१४५ १/१/१०६ तहेव समोसढाओ तहेव संघाडओ कक्खडा जाव दुरहियासा १/१/१६२ जाव अणुपविढे तहेव जाव सूमालिया १/१६/६४-६७ १/१४/४०-४३ कज्जेसु य जाव रहस्सेसु १/७/४२ १/५/१० एवं जहेव राई तहेव रयणी वि २/१/५७-६०२/१/४७-५० कटु जाव पडिसहेइ १/१६/२५५ १/१६/२५१, २५२ एवं जाव घोसस्स २/३/११ ठाणं २/३५६-३६२ कट्ठस्स य जाव भरेंति १/१७/२८ १/१७/२२ एवं जाव सागरदत्तस्स १/१६/८८-६१ १/१६/६३-६६ कणग जाव दलयइ १/१६/१६८ १/१/६१ एवं पत्तियामि णं रोएमि णं १/१/१०१ १/१/१०१ कणग जाव पडिमाए १/८/१८० १/८/४१ वृत्ति वृत्ति Jain Education Intemational Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ कणग जाव सावएज्जं १/१८/३८ कणग जाव सिलप्पवाले १/१८/३३ कोय जायसवालंकारविभूतिवा १/१/८१ कयत्थे जाव जम्म० १/१३/२५ कयबलिकम्मं जाव सब्वालंकारविभूसियं १/१६ / ७३ कयबलिकम्मा जाव पायच्छित्ता १/१/२७ कयबलिकम्मा जाव विपुलाई जाव विहरइ कयबलिकम्मे जाव रायगिहं कयबलिकम्मे जाव सरीरे कयबलिकम्मे जाव सव्वालंकार. करयल० करयल० करयल० करयल अंजलिं करयल जाव एवं करयल जाव एवं करयल जाव कट्टु करयल जाव कट्टु तहेव जाव समोसरह करयल जाव कण्हं करयल जाव पच्चप्पिणंति करयल जाव पडणे करयल जाव वद्धावेइ करयल जाव वद्धावेंति करयल जाव वद्धावेंति करयल जाव वद्धावेत्ता करयल जाव वद्धावेहि करयल तं चैव जाव समोसरह करयल तहत्ति जेणेव करयलपरिग्गहियं जाव अंजलिं कश्यपरिगहियं जाव कट्टु करयलपरिग्गहियं जाव बद्धावेत्ता करयल वद्धावे करयल वद्धावेत्ता करयल वद्धावेत्ता १/१/३२ १/२/५८ १/१/६६ १/१/४७ १/५/६८, १२३; १/८/ ७३,८१,६८ १५८, १६० १/६/३१ १/१४/३१, ५० १/८/२०३, २०४ १/१६/ १३७, १६१, २१६, २६४ १/१७/११ १/१६ / २४६ १/१/५८, ६० १/१/३०; १/१६/१७०, २६२, १/१६/ १३, ४६ २/१/२० १/६/१७, १/१४/२७, २८:१/१६/४३ ४२० 9/9/€9 १/१/६१ १/२/२६ १/१३/२५ १२/१/८ १ १/१/३३ १/१६/ १३४ १/१४/१३ 9/9/29 १/१/३६ १/८/१२८ १/५/२० 9/c/908 १/१६/ १५७ १/२/६६ १/१/८१ १/१/२७ १/१/८१ १/१/१६ १/१/२६ १/१/३६ 9/9/96 १/१/२६ १/१/२१ १/१/११८: १/१६/१३३; १/१/२६ २/१/११ करेइ जाव अडमाणीओ करेंति जाव पच्चुत्तरंति करेता जाव विनयसोया करेमो तं चैव जाव णूमेमो करेह करेत्ता जाव पच्चप्पिणह करेह जाव पच्चप्पिणंति कल्लं कल्लं जाव विहरइ कसप्पहारे व जाव नियामा कसप्पहारेहि य जाव तण्हाए कसप्पहारेहि य जाव लयाप्पहारेहि कारणे व त कालगए जाव प्पहीणे कालोभासे जाव वेयणं कासे जोणिसूले जाव कोढे किण्हाण य जाव सुक्किलाण किहाणि य जाव सुक्किलाणि किन्होभासा जाय निउरंगभूषा कुंभए एवं तं चैव जाव पवेसेड रोहासज्जे कुडवा जाव एगदेसंसि के जाव गमणाए कोद्रपुण य जाव अग्नेसिं कोट्ठागारसि सकम्म सं कोडुनिय जाव खिप्पामेव लहुकरणजुतं जावजुतामेव उववेति कोडुंबियपुरिसा जाव एवं कोडुंबियपुरिसा जाव ते वि तहेव __१/१६/१४२ १/१६/१३२] कोचियपुरिसा जाब पच्यपिणति १/१६/१३८ १/१६/१३७ खंड जाव एडेह १/८/१६६ १/८/१६५ खंतीए जाव बंभचेरवासेणं १/८/१६५ १/१/२६ १/१५/१८ १/१/४८ १/१६ / २३६ १/१/४८ १/१७/२६ १/१/३६ १/८/१३२ १/१६/ २४४ १/१/४८ १/८/१०७ १/१/४८ खिज्जणाहि या जाव एयमट्ठ खीरधाईए जाव गिरिकंदरमल्लीणा गंध जाव उस्सुक्कं गंध जाव पडिविसज्जेइ गंध जाव सक्कारेत्ता गंधव्वेहि य जाव विहरंति गज्जियं जाव थणियसद्दे गणनायग जाव आमंतेंति गणिमस्स जाव चउव्विहभंडगस्स १/१६/ १३२ 9/4/93 १/१/१६ १/१/२६ गब्भस्स जाव विणेंति १/१/४८ १/१/४८ १/१/४८ १/१/३६ गय० गवलगुलिय जाव खुरधारेणं गवल जाव एडेमि गहाय जाव पडिगए १/१४ / ४१, ४२ १/६/१५ १/१८/२७ १/१६ / २८८ २/१/१२ १/८/४० १/८/५१ १/५/१२४ १/२/३३ १/२/६७ १/२/४५ १/५/६० १/१६ / ३२२ १/२/६७ १/१६/३० १/१७/२२ १/१३/२० १/७/१३ नायाधम्मकहाओ वृत्ति १/२/१४ १/६/४८ १/८/१७४ १/७/१७, १८ 9/9/999 १/१७/२२ १/७/२५ १/१६/२८२ राय. सू. ६ १/८/५१ १/१/२४ १/५/१२४ १/२/३३ १/२/३३ १/२/३३ १/१/१६ १/५/८४ वृत्ति १/१३/२८ १/१७/२३ १/१७/२३ ओ. सू. ४ १/८/१७३ १/७/१५, १६ १/१/१०७ वृत्ति १/७/७ १/८/५२ उवा. १/४७ १/८/५१ १/१५/७ १/१५/६ 9/9/990 १/१/११६ १/१/६२ १/१/२३ १/१६ / ७८ १/१६/७४ 9/90/4 9/90/3 १/१८/१४ १/१६/३६ १/८/८४ १/१६/ १६६ १/७/६ १/१६/१५२ १/६/६ १/१/८१ १/८/६६ १/२/१७ १/८/६३ _१/६/१६ १/६/३७ १/१८/३६ १/१८/१० आयारचूला १५/१४ १/१/३० १/८/१६० १/१/३० १/१६/१५० १/८/७१ १/१/२४ १/८/६६ १/२/१७ १/१/६७ उवा २/२२ *१/६/१६ १/१८/३८ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४२१ परिशिष्ट-१ गामघायं वा जाव पंथकोहि १/१८/२४ १/१८/२२ जहा सेलगस्स जाव दाहवक्कंतीए । १/१९/२० १/५/१०६ गामागर जाव अणुपविससि १/१६/२२६ १/८/५८ जायं च जाव अणुवड्डेमि १/२/१४ १/२/१२ गामागर जाव आहिंडह १/१४/४३ १/८/५८ जाया जाव पडिलाभेमाणी १/१४/४६ १/५/४७ १/१७/१७ जाव एवं चेव पल्हायणिज्जे १/१२/२३ १/१२/२२ गिण्हामि जाव मग्गणगवेसणं १/२/२६ १/२/२७, २६ जाव जहा १/४/२२ १/२/७६ गुणे. किं चालेइ जाव नो परिच्चयइ १/८/७E १/८/७४ जाव पज्जुवासइ १/५/१७ १/१/६६ घडएसु जाव संवसावेइ १/१२/१६ १/१२/१६ जाव सणियं १/४/१६ १/४/१३ चउत्थ जाव भावेमाणे १/८/१६ १/१/१६५ जाव समणोवासए जाए अभिगयजीवाचउत्थ जाव विहरइ १/५/१०१,२/१/३३ १/१/१६५ जीवे जाव पडिलाभेमाणे १/५/६३, ६४ राय. सू. ६६३; चउत्थ जाव विहरंति १/८/१७, २५ १/१/१६५ १/५/४७ चउत्थस्स उक्खेवओ २/४/१ २/२/१ जाव हावभावं १/८/१२१ १/८/११७ चंपगपायवे. १/१८/४E १/१/१०५ जिमिय जाव सूइभूया १/२/१४ १/१/८१ चच्चर जाब महापहपहेसु १/१/६७ १/१/३३ जिमियभुत्तुत्तरागयं जाव सुहासण. १/१६/२१६ १/२/१४ चरगा वा जाव पच्चप्पिणंति १/१५/७ १/१५/६ जोव्वणेण य जाव नो खलु १/८/१५४ १/८/६० चरमाणा जाव जेणेव १/२/६६ १/१/४ झोडा जाव मिलायमाणा १/११/४ १/११/२ चरमाणे जाव जेणेव १/५/१० १/१/४ ठवेंति जाव चिट्ठति १/१७/२२ १/१७/२२ चरमाणे जाव जेणेव सुभूमिभागे डिंभएहि य जाव कुमारियाहि १/२/२७ १/२/२५ जाव विहरइ १/५/१०८ १/१/४ पहाए जाव पायच्छित्ते १/१४/६४ १/१/२७ चवलं० नहेहिं १/४/१७ १/४/१४ हाए जाव सरणं उवेइ २ करयल एवं व १/१६/२६५ १/१६/२६४ चारगसोहणं जाव ठिइपडियं १/१४/३३, ३४ १/१/७६-७६ हाए जाव सुद्धप्पावेसाई १/२/७१ १/१/१२४ चारुवेसा जाव पडिरूवा १/२/८ १/१/१७ हायं जाव पुरिससहस्सवाहिणीयं १/१४/५३ १/१४/१८ चालित्तए जाव विप्परिणामित्तए १/८/७६ १/८/७६ पहाया जाव पायच्छित्ता १/२/६६, १/८/१७६ १/१/२७ चिट्टई जाव उठाए १/१/१५१ १/१/१५० व्हाया जाव बहूहिं १/८/१६८ १/८/१७६ चिट्ठइ जाव संजमेणं १/१/१६३ १/१/१५१ हाया जाव सरीरा १/३/११ १/१/२७ चित्तेह जाव पच्चप्पिणह १/८/११७ १/१/२३ हायाणं जाव सुहासण. १/१६/८ चेइए जाव अहापडिरूवं १/२/६६ १/१/४ तइयज्झयणस्स उक्खेवओ २/१/५६ २/१/४६ चेइए जाव विहरइ १/१/६४ १/१/४ तइयवग्गस्स निक्खेवओ २/३/१२ २/१/६३ चेइए जाव संजमेणं २/१/३ १/१/४ तएणं से दूए एवं वयासी जहा वासुदेवे चोक्खा जाव सुहासणवरगया १/१६/१५२ १/२/१४ नवरं भेरी नत्थि जाव जेणेव १/१६/१४३, १/१६/१३४-१४१ चोरनायगं जाव कुडंगे १/१८/३० १/१८/२१ १४४ चोरविज्जाओ य जाव सिक्खाविए। १/१८/२८ १/१८/२५ तं इच्छामि णं जाव पव्वइत्तए १/१/१११ १/१/१०४ छट्टछट्टेणं जाव विहरइ १/१३/३६ १/१३/३६ तं चेव जाव निरावयक्खे समणस्स छट्ठछटेणं जाव विहरइ १/१६/१०८ १/१६/१०६ जाव पव्वइस्ससि १/१/१०७ १/१/१०६ छटुंछटेणं जाव विहरित्तए १/१६/१०७ १/१६/१०६ तं चेव सव्वं भणइ चाव अत्थस्स १/१८/५२ १/१८/५१ छट्टट्ठम जाव विहरइ १/१६/१०५ १/१/१९५ तं रयणिं च णं चोद्दस महासुमिणा जणवयं जाव नित्थाणं १/१८/३२ १/१८/२२ वण्णओ १/८/२६ कल्पसूत्र ४ जहा पोट्टिला जाव परिभाएमाणी १/१६/६२ १/१४/३८ तक्करे जाव गिद्धे विव आमिसभक्खी १/२/३३ १/२/११ जहा मंडुए सेलगस्स जाव बलिय तच्चं दूयं चंपं नयरिं। तत्थ णं तुम सरीरे जाए १/१६/२४-२६ १/५/११४-११६ कण्णं अंगराय सल्लं नंदिरायं करयल जहा मल्लिनाए जाव उवायमाणा १/१७/११ १/८/७२ तहेव जाव समोसरह । चउत्थं दूयं जहा महब्बले जाव परिवड्डिया १/८/३७ राय. सू. ८०४ सोत्तिमइं नयरिं। तत्थ णं तुमं सिसुजहा मागंदियदारगाणं जाव कालियवाए १/१७/६ १/६/६ पालं दमघोससुयं पंचभाइसय-संपरिवुडं जहा वद्धमाणसामी नवरं नवहत्थुस्सेहे० २/१/१६ ओ. सू. १६; करयल तहेव जाव समोसरह। पंचम वाचनान्तर पृ. १४० दूयं हत्थिसीसं नयरिं। तत्थ णं तुम जहा सूरियाभो जाव भासमणपज्जत्तीए २/१/४० राय. सू. ७६७ दमदंतंरायं करयल जाव समोसरह । Jain Education Intemational Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ छट्टं दूयं महुरं नयरिं । तत्थ णं तुम धरं रायं करयल जाव समोसरह । सत्तमं दूयं रायगिहं नयरं । तत्थ णं तुमं सहदेवं जरासंधसुयं करयल जाव समोसरह । अट्ठमं दूयं कोडिण्णं नयरं । तत्थ णं तुमं रुप्पिं भेसगसुयं करयल तहेव जाव समोसरह । नवमं दूयं विराटं नयरिं । तत्थ णं तुमं कीयगं भाउसयसमग्गं करयल जाव समोस रह। दसमं दूयं अवसेसेसु गामागरनगरेसु अणेगाई रायसहस्साइं जाव समोसरह । तए णं से दूए तहेब निग्गच्छइ जेणेव गामागर तहेव जाव समोसरह । तच्च पि जाव संचिट्ठइ तच्चा जाव सम्भूया चणकूड़े तत्थे जाव संजायभए तयावर ई जाय सनिजाइसरणे तलवर जाव पभितओ तलवर जाव सत्थवाह तहति जाव पडिसुर्णेति तहासदेहिं जाव विपुलं तहेव जाव पहारेत्थ तहेव सरीरवाउसिया तं चैव सव्वं जाव अंतं तहेव सेयापीएहिं कलसेहिं ण्हावेइ जाव अरहओ अरिट्ठनेमिस्स छत्ताइछत्तं पडागाइपडाग पासइ २ ता विज्जाहरचारणे जाव पासित्ता ताओ जाव विदेहे बासे जाव अंतं तिवसुतो जाय एवं लिग जाय प तिग जाव बहुजणस्स तित्तेसु जाव विमुक्कबंधणे तुट्ठी वा जाव आणंदो तुष्णं जापव्ययागि तुरियं जाव वेइय तुरुक्क जाव गंधव सिं जाव बहूण थलय० थलय जाव दसद्धवण्णं थलय जाव मल्लेणं थावच्चाले जाव मुंडे थेरागमणं इंदकुंभे उज्जाणे समासेढा थेरा जाव आलित्ते १/१६/१४५ १/१६/३५ ४२२ २/१/५१-५४ १/१६/ १३२-१३४ १/१६/३५ १/१२/१६ १/१४/७६ १/१/१६० १/१/१६० १/१२/३१ १/१४/७७ १/१/१६८ १/८/१८१ १/१४/६५ १/५/६ १/५/६ ओ. सू. ५२ १/५/१३ १/१/२६ १/१/२१५ १/१/२०६ १/८/१३६, १३७१/८/६६, १०० २/१/३२-४४ १/५/२८, २६ १/१/६६, १२६, १४४ १/१६ / ३२६ १/१६/३४ १/५/२६ १/१६ / २६ १/६/४ १/२/६४ १/१२/४३ १/८/१६६ १/१६/१५५ १/१७/६ १/८/४६ १/८/३१ १/८/३२ १/५/८० १/८/८ १/१६/३१५ १/१/२१२ १/१६/२६ १/१/३३ १/५/५३ १/६/४ १/२/६३ १/१/१०४ १/४/१४ १/१/२२ १/८/७१ १/८/३० १/८/३० १/८/३० १/५/३४ १/८/१२ १/१/१४६ दंडणाणि जाव अणुपरियट्ट दंडणाणि य जाव अणुपरियट्टइ दसमस्स उक्खेवओ एवं खलु जंबू जाव अट्ठ दाणधम्मं च जाव विहरइ दारियं जाव झियायमाणि दासोडियाहिं जागरहिन्जमाणी दाहिणभरहस्स जाव दिसं दिट्ठे जाव आरोग्ग दित्ते जाव विउलभत्तपाणे दीम जाव वीडवइस्सइ दुपयस्स चा जाब निव्वते दुरुहइ जाव पच्चोरुहइ दुरुहंति जाव कालं दुरूढा जाव पाउब्भवंति दूइज्जमाणा जाव जेणेव दूइज्माणे जाव विहरइ देवना देवकन्ना वा जाव जारिसिया देवयभूयाए जाव निव्वत्तिए देवलगाओ जाव महाविदेहे देवापिया जाब कालगए देवापिया जाव जीविवरले देवापिया जाय नाइ देवानुपिया जाय पव्यतिए देवानुपिया जाव साहराहि देवाप्पिया जाव सुद्धे देवी जाव पंडुस्स देवी जाव पउमनाभ० देवी जाव साहिया देवेण वा जाव निग्गंथाओ देवेण वा जाव मल्लीए दोच्चस्स वग्गस्स उक्खेवओ धण कणग जाव परिभाएउं धण जाव सावएज्जस्स धण जाव सावज्जे धण्णा णं ते जाव ईसरपभियओ धम्मं सोच्चा जं नवरं धम्मं सोच्चा जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा भोगा जाव चइत्ता हिरणं जाव पव्वइया तहा णं अहं णो संचाएमि पव्वइए धम्मका भाणियव्वा धम्मोति वा जाव विजयस्स धोवति जाव आसयसि १/४/१८ १/३/२४ २/१०/१, २ १/८/१४१, १५२ १/१६ / ६४ १/८/१४७ १/१६ / २६६ १/१/२० १/२/७ १/२ / ७६ १/८/१२६ 9/90/93 १/१६ / ३२३ १/१६/३०१ १/१६/२३६ १/१६/२४० १/८/७५ १/८/१३५ नायाधम्मकहाओ सूय. २/ २ / ७८ १/३/२४ २/२/१ १/१/६२ १/७/३४ १/१६/६ १/१३/१५ १/५/८७ १/८/१४ १/१६ / ३२१ १/१६ / ३२० १/१/४; १/१६/३१६ १/८/१५४ १/८/८६ १/८/८६, १११ वृत्ति १/८ / १२८ १/१६/२४ १/१६ / ३२३ १/८/७६ १/१६/२६५ १/१६/३४ १/१६/२४२ १/१६/२६ १/५/४५ १/५/७८ १/२/७५ २/१/३५ २/२/१, २ १/८/१४० १/१६ / ६२ १/८/१४६ १/१६/ २६७ १/१/२० वृत्ति १/२/६७ १/८/११६ १/१/१०२ १/१६/३२३ १/५/६१ 9/9/8 १/८/१२६ __१/१/२१२ १/१६ / ३२२ उवा २/४० १/५/१२३ १/१६/२६ १/१६/२४० १/१६/२६ १/१६/ २६२ १/१६/ २३३ १/१६/२०८ उवा २/४५ १/८/७५ २/१/६ 9/9/€9 9/9/€9 9/9/€9 १/१/३३ 9/9/909 राय. सू. ६६५ १/५/६३ १/२/६४ २/१/३४ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४२३ परिशिष्ट-१ धोवेइ जाव आसयइ धोवेइ जाव चेएइ धोवेसि जाव चेएसि नन्दीसरे अट्ठाहियं करेंति जाव पडिगया नगरगिहाणि नगर जाव सण्णिवेसाणं आहेवच्चं जाव विहराहि नच्चासन्ने जाव पज्जुवासइ नट्टा या जाव दिन्न नट्ठमईए जाव अवहिए नयरिं अणुपविसह नवमस्स उक्खेवओ एवं खलु जंबू जाव अट्ठ नवरं तस्स १/१५/१४ १/५/१२६ १/१/१८४ १/१८/५४ १/७/६ १/१/१६७ १/१६/३६ १/१४/५० १/३/२४ १/२/७६ १/१/१८३ १/२/३२ १/१/८१ १/१/१५६ राय. सू. ८०४ १/१/१०४ १/८/८ १/१६/१६८ १/८/१७२ १/१८/४६ १/१४/७३ १/१४/७७ १/१६/२८७ १/५/८७ १/१६/१८७ १/८/१६७ १/६/१६ १/६/१६ १/१४/७३ १/१६/२८५ नाइ १/५/१२७, १२८ १/५/८३, ८४ २/१/३८ २/१/३४ निग्गंथो वा जाव पंचसु १/१६/११६ ४१६/११४ निग्गंथो वा २ जाव विहरिस्सइ १/१६/११५ १/१६/११४ निट्ठियं जाव विज्झायं निप्पाणे जाव जीवविप्पजढे १/८/२२४ जंबू. वक्ष.५ नियग. १/८/६७ १/८/५८ निव्वत्तियनामधेजे जाव चाउदंते निव्वाघायंसि जाव परिवड्डइ १/१/११८ ओ. सू. ६८ निसंते जाव अब्भणुण्णाया १/१४/८५ १/१/६६ निसम्म जं नवरं महब्बलं कुमार १/१३/२० ओ. सू. १ रज्जे ठावेमि १/१७/१० १/१७/८ निसीयइ जाव कुसलोदंतं १/१६/२१६ १/१६/२१८ निस्संचारं जाव चिट्ठति नीलुप्पल. २/६/१, २ २/२/१, २ नीलुप्पल जाव असिं १/७/२८, २६ १/७/८, नीलुप्पल जाव खंधसि २५, २६ पउमनाहे जाव नो पडिसेहिए १/५/२६; १/७/६, ६, पंचअणगारसया बहूणि वासाणि २२, २६, ४२, १४ सामण्णपरियागं पाउणित्ता जेणेव १५/११, १/१६/५०, पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छंति ५४, १/१८, ५१, ५६ १/१/८१ जहेव थावच्चापुत्ते तहेव सिद्धा० १/१४/१८ १/१५/१६ १/५/२० पंचमवग्गस्स उक्खेवओ एवं १/७/२५ १/७/६ खलु जंबू जाव बत्तीसं १/१४/५३ १/७/६ पंचमे जाव भवियव्यं १/२/१६ १/२/१२ पंचयण्णं जाव पूरियं १/१४/१६ १/१/८१ पंचाणुव्वइयं जाव समणोवासए जाए १/६/४८ १/१/८१ अहिगयजीवाजीवे जाव अप्पाणं १/१६/५० १/५/२० १/१३/१५; १/१४/५३ १/५/२० पंडवा० १/१६/६७ १/१४/३६ पंथएणं जाव विहरइ १/१४/३७ १/१४/३६ पगइभद्दइ जाव विणीए पच्चक्खाए जाव आलोइय० १/१/१२८ आयारचूला १५/२८ पच्चक्खाए जाव थूलए २/४/६ २/१/४५ पज्जग जाव तओ पच्छा २/२/८ २/१/४५ अणुभूयकल्लाणे पव्वइस्ससि २/४/६ २/१/६३ पच्चप्पिणह जाव पच्चप्पिणति २/१०/७ २/१/६३ पट्टिया जाव गहियाउहपहरणा २/३/८ २/१/४५ पडागे जाव दिसोदिसिं २/२/१० २/१/६३ पडिबुद्धा जाव विहाडिय १/१६/२३ १/१/२६ पडिबुद्धिं जाव जियसत्तुं १/५/१२४ १/५/११४ पडिबुद्धी० करयल. १/१८/६१ १/२/६८ पडिलाभेमाणे जाव विहरइ १/७/२७; १/१०/३; १/२/६८ पडिसुणेति जाव उवसंपज्जित्ता १/११/३,५ पढमज्झयणस्स उक्खेवओ १/२/७६ १/२/६८ पढमस्स उक्खेवओ १/१७/२५, ३६ १/२/६८ पणामेत्ता जाव कूवं २/५/१, २ १/७/३३ १/१६/२७६ नाइ नाइ चउण्ह य कुल जाव विहराहि । नाइ जाव आमंतेह नाइ जाव नगरमहिलाओ नाइ जाव परियणं नाइ जाव परियणेण नाइ जाव परिखुडे नाइ जाव संपरिबुडे नामं वा जाव परिभोगं नाम जाव परिभोगं नासानीसासवायवोझं जाव हंसलक्खणं निक्खेवओ निक्खेवओ अज्झयणस्स निक्खेवओ चउत्थवग्गस्स निक्खेवओ दसमवग्गस्स निक्खेवओ पढमज्झयणस्स निक्खेवओ बिइयवग्गस्स निग्गंथा जाव पडिसुणेति निग्गंथाणं जाव विहरित्तए निग्गंथी वा निग्गंथी वा जाव पव्वइए २/२/१, २ १/७/२५,६ १/१६/२७५ १/५/४५-४७ वृत्ति; ओ.सू. १२०, १६२ १/१६/३१३ १/१/११६ १/५/१२६ १/५/१२४ १/१/२०६; १/१६/२४ ओ.सू. ११६ १/१६/४६ १/१/२०६ १/१३/४२ १/१/२०६ १/१/१११ १/१/७७ १/२/३२ १/१६/२५२ १/१६/६५ १/८/३६ १/८/४७ १/५/५६ १/१६/२३ २/७/३; २/८/३, २/१०/३ १/१६/२४४ १/१/११० ११/२३ राय. सू. ६६४ वृत्ति १/१६/६२ १/८/२७ १/१/३६ १/५/५२ १/५/११३ २/६/३२/२/३ २/५/३ १/१६/२४३ निग्गंथे वा जाव पव्वइए निग्गंथो वा Jain Education Interational Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ ४२४ नायाधम्मकहाओ पण्णत्ते जाव सग्गं १/५/६० १/५/५५ पुरापोराणं जाव विहरइ १/१६/११३ १ /१६/E२ पतिवया जाव अपासमाणी १/१६/६२ १/१६/५६ पुव्वभवपुच्छा एवं २/१/५० २/१/१५ पत्तिए जाव सल्लइयपत्तइए १/७/१५ १/७/१४ पोक्खरिणीओ जाव सरसरपंतियाओ १/१३/१५ राय. सू. १७४ पत्तिया जाव चिट्ठति १/११/२ १/११/२ पोसहसालं जाव पुव्वसंगइयं १/१६/२०१-२०३ १/१६/२३७-२३६ पत्तेयं जाव पहारेत्थ १/१६/१७१ १/१६/१४६ पोसहसालाए जाव विहरइ १/१३/१४ १/१/५३ पमाएयव्वं जाव जामेव १/५/३३ १/१/१४८ फलिया जाव उवसोभेमाण १/११/४ १/११/२ परलोए नो आगच्छइ जाव वीईवइस्सइ १/१५/१४ १/२/७६ फासुएसणिज्जेणं जाव तेगिच्छं १/५/११४ १/५/११० परिग्गहिए जाव परिवसित्तए १/८/१३१ १/८/१०७ फासुयं पीढ जाव विहरइ १/५/११३ १/५/११० परिणमति तं चेव १/१२/१७ १/१२/६ बंधित्ता जाव रज्जू १/१४/७७ १/१४/७३ परिणममाणा जाव ववरोवेंति १/१५/१५ १/१५/११ बहिया जाव खणावेत्तए १/१३/१५ १/१३/१५ परिणामेणं जाव जाईसरणे १/१३/३५ १/१/६० बहिया जाव विहरंति १/५/११८ १/१/१६६ परिणामेणं जाव जयावरणिज्जाणं १/१४/८३ १/१/१६० बहिया जाव विहरित्तए १/५/११७ १/१/१६६ परतंता जाव पडिगया १/१३/३१ १/४/१६ बहुनायाओ एवं जहा पोट्टिला परिपेरंतेणं जाव चिट्ठति १/१७/२२ १/१७/२२ जाव उव्वलद्धे १/१६/६७ १/१४/४३ परियागए जाव पासित्ता १/३/१६ १/३/५ बहूई जाव पडिगयाइं १/१६/१८२ १/V१६१ परियाणह जाव मत्थयंसि १/१/४८ १/१/४८ बहूणि गामाणि जाव गिहाई १/१६/१६६ १/८/५८ पल्लंसि जाव विहरंति १/७/२० १/७/१६ बहूहिं जाव चउत्थ विहरइ १/५/३८ १/१/१६५ पवर जाव पडिसेहित्था १/१६/२५६ १/८/१६५ बहूसु जाव विहरेज्जाह १/८/२० १/६/२० पवर जाव भीए १/१८/४४ १/१८/४२ बारवई एवं जहा पंडू तहा पवरविवडिय जाव पडिसेहिया १/१६/२५३ १/८/१६५ घोसणं घोसावेइ जाव पच्चप्पिणति पव्वए जाव सिद्धे १/५/१०४, १०५ १/५/८३, ८४ पंडुस्स जहा १/१६/२२३, १/१६/२१३, २१४ पव्वावेइ जाव उवसंपज्जित्ता २/१/३०, ३१ १/१/१५०, १५१ २२४ पव्वावेइ जाव जायामायाउत्तियं १/१/१६२ १/१/१५० बावत्तरि कलाओ जाव अलंभोगसमत्थे १/१६/३०८, ३०६ १/१/८४, ८५ पसत्थदोहला जाव विहरइ १/८/३३ १/१/६८, ६६ बासढेि जाव उत्तरइ १/१६/२८७ १/१६/२८५ पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं १/६/४ १/१/२०६ बासढेि जाव उत्तिण्णा १/१६/२८७ १/१६/२८५ पाणाणुकंपयाए जाव अंतरा १/१/१८६ १/१/१८१ बिइयज्झयणस्स निक्खेवओ २/१/५५ २/१/४५ पाणाणुकंपयाए जाव सत्ताणुकंपयाए १/१/१८२ १/१/१८१ बुज्झिहिइ जाव अतं १/१३/४४ १/१/२१२ °पामोक्खा जाव वाणियगा १/८/८१ १/८/६६ भगवओ जाव पव्वइत्तए १/१/११३ १/१/१०४ °पामोक्खे जाव वाणियगे १/८/८३ १/८/६६ भड० १/८/६४ १/८/५७ पायसंघट्टाणाणि य जाव रयरेणुगुडणाणि १/१/१८६ १/१/१५३ भवणवइ० तित्थयर० १/८/३६ कल्पसूत्र महावीरजन्म पावयणं जाव पव्वइए १/२/७३ १/१/१०१, प्रकरण भ. ६/१५०, १५१ भवित्ता जाव चोद्दसपुब्वाइं १/१४/८२ १/५/८० पावयणं जाव से जहेयं १/१२/३५ १/१/१०१ भवित्ता जाव पव्वइत्तए १/८/२०४; २/१/२७ १/१/१०४ पासाईए जाव पडिस्वे ११/८६ १/१/८६ भवित्ता जाव पववइस्सामो १/१२/४० १/१/१०१ पासित्ता जाव नो वंदसि १/५/६७ १/५/६६ भवित्ता जाव पव्वयामो १/८/१८६; १/१६/३१०१/१/१०१ पियं जाव विविहा १/१/२०६ भ. २/५२ भाणियव्याओ जाव महाघोसस्स २/४/८ ठाणं. २/३५५-३६२ पीइदाणं जाव पडिविसज्जेइ १/३/३१ १/१/३० भारहाओ जाव हत्थिणाउरं १/१६/२४० १/१६/२५४ पीइमणा जाव हियया २/१/११ १/१/१६ भाव जाव चित्तेउं १/८/११८ १/८/११७ पीढं १/५/११७ १/५/११० भासासमिए जाव विहरइ १/५/३५-३७ पुच्छणाए जाव एमहालियं १/१/१५४, १५५ १/१/१५३ भीए जाव इच्छामि १/१२/३६ १/५/२१ पुढवि जाव पाओवगमणं १/५/८३ १/१/२०६ भीए जाव संजायभए १/१४/६६ १/१/१६० पुत्तघायगस्स जाव पच्चामित्तस्स १/२/५६, ६४ १/२/४० भीया जाव संजायभया १/६/२५, २७ १/१/१६० पुष्फ जाव मल्लालंकार १/२/१४ १/२/१२ भीया वा १/८/७६ १/८/७३ पुफिया जाव उवसोभेमाणा १/१३/१६ १/११/२ भीया संजायभया १/८/७२ १/१/१६० पुरापोराणं जाव पच्चणुब्भवमाणी १/१६/६२ वृत्ति भुंजावेंति जाव आपुच्छति १/८/६६ १/८/६६ वृत्ति Jain Education Intenational Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ भुत्तुत्तरागए जाव सुइभूए भेसज्जेहिं जाव तेगिच्छं भोगभोगाई जाय विहरह भोगभोगाई जाव विहरति भोगभोगाई जाव विहराहि महविकपणाहिं जाय उवर्णेति मज्झमज्झेणं जाव सयं मट्टियाए जाव अविग्घेणं महियाले जाव उप्पतित्ता मगुष्णे तं चैव जाय पायणिजे मत्थयचिङ्गाए जाव पहिमाए मयूरपोगं जावनदुत्लगं महत्थं० महत्थं जाव उवर्णेति महत्थं जाव तित्थयराभिसेयं महत्थं जाव निक्खमणाभिसेय महत्यं जान पच्छि महत् जाव पाहु महत्थं जाव पाहुडं रायारिहं महत्थं जाव रायाभिसेयं महब्बले जाव महया महयाहय जाव विहरइ महालियं जाव बंधित्ता अत्थाह जाव उदगंसि महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि महिडीएजाय महासोक्खे महुलाउयं जाव नेावागा माणुस्सगाई जाय विहरद्द माया इ वा जाव सुण्हा मासाणं जाव दारिय माहण जाव वणीमगाण माहणी जाव निसिरइ मित्त मित्त जाव चउत्थ मित्त जाव बहवे मित्त जाव संपरिवुडा मित्तनाइ गणनायग जाव सद्धिं मित्तपक्खं जाव भरहो मुडावियं जाव सयमेव मुंडे जाव पव्वयाहि मुच्छिए जाव अज्झोवणे मेहे जाव सवणाए य णं जाव परमसुइभूए रज्जइ जाव नो विप्पडिघाय. रज्जं च जाव अंतेउरं १/१४/७७ 9/9/990 १/१/५३ १/१६/८ १/१५/१६ १/१४/७१ १/१६/ १२४ १/१४/३८ १/१६/२४ १/७/२२ १/७/१० १/७/३८ १/५/२० १/१/८१ १/१/११८ १/१/१६१ १/१६/१४ १/१६/२६ ४२५ १/१२/४ १/१६/२२ १/१/६६ १/१६ / १८३ १/१६/२०८ १/१६/२४७ १/१६/ १६६ १/८/१४३ १/६/४ १/१२/८ १ / ८ / ४१, ४२ १/३/२८ १/८/८१ १/८/८४ १/८/२०५ १/५/६८ १/१७/१७ १/१७/१६ १/५/२० 9/93/94 १/५/२० १ / ५ / ६२; १/१६ / ३७ १/१/११६ १/८/१६ १/५/३४ राय. सू. ८ २/१/१० १/१/१५४ _१/१२/२२ १/१६/४६ १/१६/२६ १/२/१४ 9/4/990 १/१/१७ १/१/३२ १/१/३२ ओ. सू. ५७ १/१६/२१८ १/५/६० १/६/४ १/१२/४ १/८/४१ १/३/२७ १/८/८१ १/८/८१ १/१/११६ १/१/११६ १/८/८२ 9/98/04 १/१/१०६ सूय. २/२/७३ १/१६/८ १/१/६७ सूय. २/२/७ १/२/२० आयारचूला १/१६ १/१६/१४ 9/9/59 १/७/६ १/७/२५, ११ रज्जे जाव अंतेउरे रज्जे य जाव अंतेउरे 9/9/98€ 9/9/909 १/१६/२८ रज्जे य जाव वियंगेइ जाव अंगमगाइ १/१४/२२ रज्जे य जाव वियत्तेइ १/१४/२२ रण्णो जाव तहत्ति १/१६/३०३ १/८/१५३ १/१८/५६ १/१६/ १४७ १/१४/४३ १/८/१४६ १/१४/५६ १/८/१३६ १/२/५७ १/१६ / २०० १/१६/१६० 9/98/99 रण्णो वा जाव एरिसए रयण जाव आभागी १/१७/२५ १/१/१६ रहमहया राईसर जाव गिहाई राईसर जाव विहरइ रायाहीणा जाव रायाहीणकज्जा रिउच्येय जाव परिणिट्टिया रुट्ठा जाव मिसिमिसेमाणी रूवेण य जाव उक्किट्ठसरीरा रूवेण य जाव लावण्णेण रूवेण य जाव सरीरा रोयमाणा य जाव अम्मापिऊण रोयमाणि जाव नावयक्खसि रोयमाणे जाव विलवमाणे रोयमाणे जाव विलवमाणे लद्धमईए जाव अमूढदिसाभाए लवण जाव ओगाहित्तए लवण जाव ओगाहेह लवणसमुद्दे जाव एडेमि लोइयाई जाव विनयसोए वंदामी जाय पवासामो वंदितए जाव पज्जवासित्तए वण्णहेडं वा जाव आहारेइ वण्णेणं जाव अहिए वण्णेणं जाव फासेणं वत्थ जाव पडिविसज्जेइ वत्थ जाव सम्माणेत्ता १/२/१२ १/१/८१ जाव पव्वयामि वत्थस्स जाव सुद्धेणं वत्थे जाव तिसंझं वयासी जाव के अन्ने आहारे वृत्ति वयासी जाय तुसिणीए वरतरुणी जाव सुरूवा ववरोवेह जाव आभागी वाइय जाव रवेणं १/१/१०६ वाणियगाणं जाव परियणा ۹/۹/۲۹ वाबाहं वा जाव छविच्छेयं चायणाए जाव धम्माणुओगचिंताए वाराओ तं चैव जाव नियघरं १/१४/६० १/८/१५१, १/१६/ १८७ १/१६ / २६ १/१८/१३ १/६/४० १/२/३४ १/६/४७ १/१७/१३ १/६/६ १/६/५ १/६/२० १/१८/५७ १/१३/३८ २/१/१२ १/१८/४८ 9/90/8 १/१२/३ 9/98/9€ १/१६/५४ १/५/६१ १/७/३३ परिशिष्ट-१ १/१४/२१ १/१/१६ १/१४/२१ १/१४/२१ १/८/१०४ १/८/६७ १/१/६१; १/१८/५१ १/८/५७ १/८/५८ १/८/१४० १/१४/५६ ओ. सू. ६७ १/१२/४५ १/१६/ १६, १७ १/१/१३७ १/१८/५३ १/८/२०२ १/८/६७ १/४/२० १/१/१८६ 9/€/8 १/१/१६१ १/८/६० १/८/३८ १/८/६० १/१८/६ १/६/४० १/२/२६ १/६/४० १/१७/१२ १/६/४ 9/€/8 १/६/१६ १/६/४८ ओ. सू. ५२ राय. सू. ६ वृत्ति १/१८, ६१ 9/90/2 १/१२/१२ १/८/१६० १/७/६ १/५/६१ १/७/६ १/५/६० १/१६/ १४, १५ १/१/१३४ १/१८/५२ १/१/११८ १/८/६६ १/४/११ १/१/१५३ १/६/४ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१ वावीस य जाव विहरेज्जाह वासाई जाव देंति वासुदेवपामोक्खे जाव उवागए वासुदेवे धणुं परामुसइ वेढो वासे जाव असीइंच सयसहस्सा दलइत्तए विउला पगाढा जाव दुरहियासा विगोवइत्ता जाव पव्वइए विजया जाव अवक्कमामो विणिम्ममाणी २ एवं वेज्जा य जाव कुसलपुत्ता सई वा जाव अलभमाणा सई वा जाव जेणेव संकामेत्ता जाव महत्थं पाहुई संकिए जाव कलुससमावण्णे संगयगयहसिय. संचाएइ जाव विहरित्तए संचाएंति० करेत्तए ताहे दोच्चं पि अवक्कमंति संजत्तगाणं जाव पडिच्छइ संता जाव भावा संताणं जाव सब्भूयाणं संते जाव निविण्णे संते जाव भावे संपरिखुडे एवं जाव विहरइ संभग्गं जाव पासित्ता संभग्गं जाव सण्णिवइया संभग्गं तोरण जाव पासइ संसारभउव्विग्गा जाव पव्वइत्तए संसारभउब्बिग्गे जाव पव्वयामि सकोरेंट जाव सेयवर. सकोरेंटमल्लदाम जाव सेयवरचामराहिं महया सकोरेंट सेयचामर हयगयरहमहयाभडचडगरेण जाव परिक्खित्ता सकोरेंट हयगय सक्का जाव नन्नत्थ सखिखिणियाइं जाच वत्थाई सगज्जिया जाव पाउससिरी सज्जइ जाव अणुपरियट्टिस्सइ सण्णद्ध सण्णद्ध जाव गहिया सण्णद्ध जाव पहरणा सण्णद्धबद्ध जाव गहियाउह. सत्तट्ट जाव उप्पयड ४२६ नायाधम्मकहाओ १/६/२० १/६/२० सत्तकृतलाइं जाव अरहन्नगं १/८/७७ १/८/७३ १/२/१२ १/२/१२ सत्तमस्स वग्गस्स उक्खेवओ एवं १/१६/१७७ १/१६/१७६ खलु जंबू जाव चत्तारि २/७/१,२ २/२/१, २ १/१६/२५८ वृत्ति सत्तुस्सेहे जाव अज्जसुहम्मस्स १/१/६ ओ. सू. ८२ सत्थवज्झा जाव कालमासे १/१६/३१ १/१६/३१ १/८/१६४ १/८/१६४ सद्दफरिसरसरूवगंधे जाव भुंजमाणे । १/५/६ ओ. सू. १५ १/१६/४० १/१/१६२ सद्दहति जाव रोएंति १/१५/१३ १/१/१०१ १/१६/२६ ओ. सू. ५२ सद्दावेइ जाव जेणेव १/८/६९, १०० १/८/६२, ६३ १/२/४७ १/२/४४ सद्दावेइ जाव तं १/७/१० /७/६, ७,६ १/५/३३ १/१/१४८ सद्दावेइ जाव तहेव पहारेत्थ १/८/११२, ११३ १/८/६६, १०० १/१३/३० १/१३/२६ सद्दावेइ जाव पहारेत्थ १/८/१५५, १५६ १/८/६,१०० १/६/२२, २४ १/६/२१ सद्दावेह जाव सद्दावेंति १/१/१३६ १/१/१३८ १/६/२३ १/६/२१ सद्देणं जाव अम्हे १/३/१६ १/३/१८ १/८/८४ १/८/८१ समणस्स जाव पव्वइत्तए १/१/१०७ १/१/१०४ १/३/२४ १/३/२१ समणस्स जाव पव्वइस्ससि १/१/१०८, ११२ १/१/१०६ १/३/८ १/१/१३४ समणाउसो जाव पंच १/७/३५, ४३ १ /७/२७ १/५/११८ १/५/११७ समणाउसो जाव पव्वइए १/१०/५; १/१८/४८; १/३/२४ १/१६/४२,४७ १/४/१४, १५ १/४/११, १२ समणाउसो जाव माणुस्सए १/६/५३ १/६/४४ १/८/८२ १/८/८१ समणाणं जाव पमत्ताणं १/५/११८ १/५/११७ १/१२/३२ १/१२/३१ समणाणं जाव वीईवइस्सइ १/३/३४ १/२/७६ १/१२/२६ १/१२/१६ समणाणं जाव सावियाण १/१७/३६ १/२/७६ १/८/७६ १/४/१२ समणाण य जाव परिवेसिज्जइ १/८/१६६, १६७ १/१२/२६ १/१२/१६ समत्तजालाकुलाभिरामे जाव १/८/१४७ १/१६/१७८ अंजणगिरि. १/१६/१४० ओ. सू. ६३ १/१६/२६३ १/१६/२६२ समाणा जाव चिट्ठति १/१५/१० १/१५/६ १/१६/२७८ १/१६/२६२ समाणी जाव विहरित्तए १/२/१७ १/२/१७ १/१६/२७८ १/१६/२६२ समोवइए जाव निसीइत्ता १/१६/२२७, १/१६/१६७, १/१४/५३ १/१/१४५ २२८ १६८ १/५/८६ १/१/१४५ समोसरणं १/५/८५ १/१/४ १/८/५७ १/१/६६ सज्जिओवलित्तं जाव सुगंधवरगंधियं १/१/३३ १/१/२२ सम्मज्जिओवलित्तं सुगंध जाव कलियं १/३/६ १/१/२२ १/८/१६१ १/८/५७ सम्माणेइ जाव पडिविसज्जेइ १/१६/३०० १/१४/१६ सयमेव. आयार जाव धम्ममाइक्खइ १/१/१५० १/१/१४६ १/१६/१५३ १/८/५७ सरिसगं जाव गुणोववेयं १/८/१२० १/८/४१ ११६/१५७ १/६/५७ सरिसियाओ जाव समणस्स पव्वइस्ससि १/१/१०६ १/१/१०८ १/५/२५ १/५/२४ सव्वओ जाव करेमाणा १/१६/२३ १/१६/२३ १/८/२०३ १/८/७६ सव्वं तं चेव आभरणं १/५/३०-३२ १/१/१४५-१४७ १/१/६४ १/१/५६ सव्वज्जुईए जाव निग्घोसनाइयरवेणं १/१/३३ ओ. सू. ६७ १/१५/१६ १/३/२४ सव्वट्ठाणेसु जाव रज्जधुरातिए १/१४/५६ १/१४/५६, १/१/१६ १/१६/२४८ १/२/३२ सहइ जाव अहियासेइ १/११/३ १/११/५ १/१६/१३४, १/१८/३५ १/२/३२ सहजायया जाव समेच्चा १/८/१०, ११ १/३/६,७ १/१६/२५१ १/२/३२ सहियाणं जाव पुव्वरत्ता. १/५/११८ १/३/७ १/१६/२३६ १/२/३२ साइमं जाव परिभाएमाणी १/१६/६३ १/१६/E२ १/६/३७ १/६/३६ सामदंड० १/८/४५१/१४/ ४ १/१/१६ Jain Education Intemational Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४२७ परिशिष्ट-१ सालइएणं जाव नेहावगाढेणं १/१६/२५, २६ १/१६/८ सोणियासवस्स जाव अवस्स० १/१८/६१ १/१/१०६ सालइयं जाव आहारेसि १/१६/१६ १/१६/१६ सोणियासवस्स जाव विद्धसणधम्मस्स १/१८/४८ १/१/१०६ सालइयं जाव गोवेइ १/१६/८ १/१६/८ हए जाव पडिसेहिए १/१६/२५७ १/८/१६५ सालइयं जाव नेहावगाढं १/१६/१६, १६, २० १/१६/८ हट्ट जाव हियया २/१/२०, २१, १/१/१६ सालइयस्स जाव नेहावगाढस्स १/१६/२२ १/१६/८ २४, २५ सालइयस्स जाव एगमि १/१६/१६ १/१६/१६ हट्टतुट्ठ जाव पच्चप्पिणंति १/१/२३ १/१/१६, २२ साहरह जाव ओलयंति १/८/६२ १/८/४८ हट्टतुट्ठ जाव मत्थए १/५/१३ १/१/२६ सिंगारा जाव कुसला १/१/१३६ १/१/१३४ हट्टतुट्ट जाव हियए १/१/२०; १/१६/१३५ १/१/१६ सिंगारागारचारूवेसाओ जाव कुसलाओ १/१/१३५ १/१/१३४ हत्थाओ जाव पडिनिज्जाएज्जासि १/७/६ १/७/६ सिंघाडग० १/५/५३ १/१/३३ हत्थिखंध जाव परिबुडे १/१६/१४६ १/१६/१४६ सिंघाडग जाव पहेसु १/३/३३:१/१३/२६; १/१/३३ हत्थिखंधवरगए जाव सेयवरचामराहिं १/८/१६३ १/८/५७ १/१६/१५३:१/१८/१६ हत्थिणाउरे जाव सरीरा १/१६/२०३ १/१६/२०० सिंघाडग जाव बहुजणो १/७/४१;१/८/२००; १/५/५३ हत्थी जाव छुहाए १/१/१८५ १/१/१५७ १/१३/२६ हत्थीए य जाव कलभियाहि १/१/१६८ १/१/१५७ सिंघाडग जाव महया १/१/६५ ओ. सू. ५२ हत्थीहि य जाव संपरिखुडे १/१/१५८ १/१/१५७ सिक्खावइए जाव पडिवण्ण १/१३/३६ उवा. १/४५ हयगय० १/१६/२४८ १/८/५७ सिज्झिहिइ जाव मंत १/१५/२१ १/१/२१२ हयगय जाव पच्चप्पिणंति १/१६/१३६ ओ. सू. ५६ सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाण० १/१६/४६ १/१/२१२ हयगय जाव परिवुडा १/१६/१५६ १/८/५७ सिद्धे जाव प्पहीणे १/५/८४ ठाणं १/२४६ हयगय जाव रवेणं १/१/६६ १/१/६७ सीलव्वय जाव न परिच्चयसि १/८/७४ १/८/७४ हयगय जाव हत्थिणाउराओ १/१६/३०३ १/८/५७ सीलव्व तहेव जाव धम्मज्झाणोवगए १/८/७७, ७८ १/८/७४, ७५ हयगय संपरिवुडे १/१६/१७४ १/८/५७ सीहनाय जाव रवेणं १/८/६७ ओ. सु. ५२ हयगया जाव अप्पेगइया १/१६/१३८ १/५/१५ सीहनाय जाव समुद्दरवभूयं १/१८/३५ १/८/६७ हय जाव सेणं १/८/१६२ १/८/५७ सुई वा० १/६/३७ १/२/२६ हयमहिय जाव नो पडिसेहिए १/१६/२८५ १/८/१६५ सुई वा जाव अलभमाणे १/१६/२१५ १/१६/२१२ हयमहिय जाव पडिसेहिए १/८/१६६; १/८/१६५ सुई वा जाव लभामि १/१६/२२१ १/१६/२१२ १/१६/२५६ सुई वा जाव उवलद्धा १/१६/२२६ १/१६/२१२ हयमहिय जाव पडिसेहित्ता १/१६/२८६ १/८/१६५ सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे १/५/८ ओ. सू. १४३ हयमहिय जाव पडिसेहिया १/१८/४२ १/८/१६५ सुभरूवत्ताए १/१५/१३ १/१५/११ हयमहिय जाव पडिसेहेइ १/१८/२४ १/८/१६५ सुमिणपाढगपुच्छा जाव विहरइ १/८/२६ १/१/३२ हयमहिय जाव पडिसेहेंति १/१८/४१ १/८/१६५ सुमिणा जाव भुज्जो २ अणुवूहति १/१/३१ १/१/२६ हरिसवस० १/१/१६१ वृत्ति सुर च जाव पसन्न १/१८/३३ १/१६/१४६ हियए जाव पडिसुणेइ १/१/१२६ ओ. सू. ५६ सुरट्ठाजणवए जाव विहरइ १/१६/३१६ १/१६/३१८ हियाए जाव आणुगामियत्ताए १/१३/३८ ओ. सू. ५२ सुरूवा जाव वामहत्थेणं १/१६/१६३ वृत्ति हिरण्णं जाव वइरं १/१७/१६ १/१७/१६ सूमालं निव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं १/१६/३०५, १/१६/३३, ३४ हिरण्णागरे य जाव बहवे १/१७/१८ १/१७/१४ ३०६ हीलणिज्जे० १/४/१८ १/३/२४ सूमालिया जाव गए १/१६/८७ १/१६/६२ हीलणिज्जे संसारो भाणियव्यो १/५/१२५ १/३/२४ से धम्मे अभिरुइए तए णं हीलिज्जमाणीए जाव निवारिज्जमाणीए १/१६/११८ १/६/११७ देवा पव्वइत्तए १/१६/१३ १/१/१०४ हीलेंति जाव परिभवंति १/१६/११७ १/३/२४ सेयवर हयगय भहया भडचडगरपहकरेणं १/१६/२३७ १/८/५७ होत्था जाव सेणियस्स रण्णो सेसं जहा सागरस्स जाव सयणिज्जाओ १/१६/८१-८६ १/१६/५६-६१ इट्ठा जाव विहरइ १/१/१७ वृत्ति Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ गाथानुक्रमणिका अगरुवर-पवर-धूवण-उउयमल्लाणुलेवणविहीसु। गंधेसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए। १/१७/३६/१३ अगरुवर-पवरधूवण-उउयमल्लाणुलेवणविहीसु । गंधेसु रज्जमाणा, रमंति घाणिंदिय-वसट्टा ॥ १/१७/३६/५ अणुवकय-पराणुग्गह-परायणा उ जिणा जगप्पवरा। जिय-राग-दोस-मोहा, य नन्नहावाइणो तेण ॥ १/३/३५/५ अप्पेण वि कालेणं, केइ जहा गहिय-सील-सामण्णा। साहति नियय-कज्जं, पुंडरीय-महारिसि व्व जहा॥ १/१६/४८/२ अमणुण्णमभत्तीए, पत्ते दाणं भवे अणत्थाय। जह कडुय-तुंब-दाणं, नागसिरि-भवम्मि दोवईए ॥ १/१६/३२७/२ इयरे उ अणत्थ-परंपराओ पावेंति पावकम्मवसा। संसार-सागरगया, गोमाउग्गसियकुम्मोव्य ॥ १/४/२३/२ उउ-भयमणिसुहेसु य, सविभव-हिययमण-निव्वुइकरेसु। फासेसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए॥ १/१७/३६/१५ उउ-भयमाणसुहेसु य, सविभव-हिययमण-निव्वुइकरेसु । फासेसु रज्जमाणा, रमंति फासिंदिय-वसट्टा ॥ १/१७/३६/६ १. उक्खित्तणाए २. संघाडे ३. अंडे ४. कुम्मे य ५. सेलगे। ६. तुंबे य ७. रोहिणी ८. मल्ली ६. मायंदी १० चंदिमा इ य॥ १/१/१०/१ उग्गतवसंजमवओ, पगिट्ठफलसाहगस्स वि जयिस्स। धम्मविसए वि सुहमा वि, होइ माया अणत्थाय ॥ १/८/२३६/१ कंदल-सिलिंध-दंतो, निउरवरपुष्फपीवरकरो। कुडयज्जुण-नीव-सुरभिदाणो, पावसउऊ पव्वओ साहीणो॥ १/८/२०/१ १. कण्हा य २. कण्हराई, ३. रामा तह ४. रामरक्खिया। ५. वसू या ६ वसुगुत्ता ७. वसुमित्रा ८. वसुंधरा चेव ईसीणे॥ १/२/१०/२/१ कत्थइ मइदुब्बल्लेण, तम्विहायरिविरहओ गवि। नेयगहणत्तणेणं, नाणावरणोदयेणं च ॥ १/३/३५/३ १. कमला २. कमलप्पभा चेव, ३. उप्पला य ४. सुदंसणा। ५. रूववई ६ बहुरूवा ७. सुरूवा ८ .सुभगावि य॥ १/२/५/२/१ कल-रिभिय-महुर-तंती-तल-ताल-वंस-कउहाभिरामेसु। सद्देसु रज्जमाणा, रमंति सोइंदिय-वसट्टा॥ १/१७/३६/१ कल-रिभिय-महुर-तंती-तल-ताल-वंस-कउहाभिरामेसु। सद्देसु जे न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए॥ १/१७/३६/११ किंथ तयं पम्हुटुं जंथ तया भो ! जयंतपवरम्मि। वुत्था समय-णिबद्धा, देवा तं संभरह जाई। १/८/१८०/१ गंधेसु य भद्दय-पावएसु चक्खुविसयमुवगएसु। तुटेण व रूद्वेण व, समणेण सया न होयव्वं ॥ १/१७/३६/१८ १. गय २. वसह ३. सीह ४. अभिसेय ५. दाम ६. ससि ७. दिणयरं ८. झयं ६. कुंभ। . १०. पउमसर ११. सागर १२. विमाणभवन १३. रयणुच्चय १४ सिहिं च ॥ १/१/२६/१ घाणिंदिय-दुद्दतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं ओसहिगंधणं, बिलाओ निद्धावई उरगो॥ १/१७/३६/६ घोसणया इव तित्थंकरस्स सिवमग्गदेसणमहग्धं । चरगाइणो व्व एत्थं, सिवसुहकामा जिया बहवे ॥ १/१५/२२/२ चंपा इव मणुयगई, धणोव्य भयवं जिणो दएक्करसो। अहिच्छत्ता नयरिसमं, इह निव्वाणं मुणेयव्वं ॥ १/१५/२२/१ Jain Education Intemational Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४२९ चक्कागपिट्ठवण्णा, सारसवण्णा य हंसवण्णा य केइ। केइत्थ अब्भवण्णा, पक्कतल-मेघवण्णा य बाहुवण्णा केइ ॥ १/१७/१४/३ चक्खिंदिय-दुईतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जं जलणमि जलते, पडइ पयंगो अबुद्धीओ ॥ १/१७/३६/४ चलचवलकुंडलधरा, सच्छंदविउब्वियाभरणधारी। देविंददाणविंदा, वहति सीयं जिणिंदस्स ॥ १/८/२१४/२ छलिय अवयक्खंतो, निरवयक्खो गओ अविग्घेणं। तम्हा पवयणसारे, निराक्यक्खेण भवियव्यं ॥ १/८/४४/१ जणिय-पमाओ साहू, हायंतो पइदिणं खमाईहिं। जायइ नट्ठचरित्तो, ततो दुक्खाइ पावेइ ।। १/१०/६/३ जह अडवि-नियर-नित्थरण-पावणत्यं तएहिं सुयमसं। भुत्तं तहेह साहू, गुरुण आणाइ आहारं ॥ १/१८/६२/४ जह उभयवाय-जोगे, सव्वसमिद्धी वणस्स संजाया। तह उभयवयण-सहणे सिवमग्गाराहणा पुण्णा ॥ १/११/१०/७ जह उभयवाय-विरहे, सव्वा तरूसंयया विणगृत्ति। अणिमित्तोभय-मच्छर-रूवेह विराहणा तह य ॥ १/११/१०/६ जह कुसुमाइ-विणासो, सिवमग्ग-विराहणा तहा णेया। जह दीववायु-जोगे, बहु इड्डी ईसि य अणिड्डी ॥ १/११/१०/३ जह चंदो तह साहू, राहुबरोहो जहा तह पमाओ। वण्णाइगुणगणो जह, तहा खमाइसमणधम्मो ॥ १/१०/६/१ जह जलहिवाय-जोगे, थेविड्डी बहुयरा अणिड्डी य। तह परपक्खमणे, आराहणमीसि बहु इयरं ॥ १/११/१०/५ जह ते कालियदीवा, णीया अण्णत्थ दुहगणं पत्ता। तह धम्म-परिब्भट्ठा, अधम्मपत्ता इहं जीवा ॥ १/१७/३७/५ जह तेण तेसि कहिया, देवी दुक्खाण कारणं घोरं तत्तो चिय नित्थारो, सेलगजक्खाउ नन्नत्तो ॥ १/६/५४/३ जह तेसि तरियव्वो, रूद्दसमुद्दो तहेह संसारो। जह तेसि सगिहगमणं, निव्वाणगमो तहा एत्थ ॥ १/६/५४/६ जह तेहिं भीएहिं, दिट्ठो आघायमंडले पुरिसो। संसारदुक्खभीया, पासंति तहव धम्मकहं ॥ १/८/५४/२ परिशिष्ट-२ जह दावद्दव-तरुणो, एवं साहूं जहेह दीविच्चा। वाया तह समणाद्वय, सपख-वयणाई दुसहाई ॥ १/११/१०/१ जह देवीए अक्खोहो, पत्तो सट्टाण-जीवियसुहाई। तह चरणठिओ साहू, अक्खोहो जाई निव्वाणं ॥ १/६/५४/६ जह मल्लिस्स महाबल-भवम्मि तित्थयरनामबंधे वि। तव-विसय-थेवमाया जाया जुवइत्त-हेउत्ति ॥ १/७/२३६/२ जह मिउलेवालित्तं, गुरूयं तुंबं अहो वयइ। एवं कय-कम्मगुरू, जीवा वच्चंति अहरगई ॥ १/६/५/१ जह रयणदीवदेवी, तह एत्थं अविरई महापावा। जह लाहत्थी वणिया, तह सहकामा इहं जीवा ॥ १/८/५४/१ जह रोहिणी उ सुण्हा, रोवियसाली जहत्थमभिहाणा। वड्डित्ता सालिकणे, पत्ता सव्वस्स सामित्तं ॥ १/७/४४/११ जह वा रक्खियबहुया, रक्खियसालीकणा जहत्थक्खा। परिजणमण्णा जाया, भोगसुहाइं च संपत्ता ॥ १/७/४४/८ जह वा सा भोगवती, जहत्थनामोवभुत्तसालिकणा। पेसणविसेसकारित्तणेण, पत्ता दुहं चेव ॥ १/७/४४/५ जह सच्छंदविहारो, आसाणं तह इहं वरमुणीणं। जर-मरणाइ-विवज्जिय, सायत्ताणंदनिव्वाणं ॥ १/१७/३७/३ जह सद्दाइ-अगिद्धा, पत्ता नो पासबंधणं आसा। तह विसएसु अगिद्धा, बझंति न कम्मणा साहू ॥ १/१७/३७/२ जह सद्दाइसु गिद्धा, बद्धा आसा तहेव विसयरया। पावेंति कम्मबंधं, परमासुह-कारणं घोरं ॥ १/१७/३७/४ जह सा उज्झियनामा, उज्झियसाली जहत्थमभिहाणा। पेसणगारितेणं, असंखदुक्खक्खणी जाया ॥ १/७/४४/२ जह सामुद्दय-वाया, तहण्णतित्थाइ-कडुयवयणाई। कुसुमाइं संपया जह, सिवमग्गाराहणा तह उ । १/११/१०/२ जह सेट्ठी तह गुरुणो, जह नाइ-जणो तहा समणसंघो। जह बहुया तह भव्वा, जह सालिकणा तह वयाई॥ १/७/४४/१ जह सेलगपट्ठाओ, भट्ठो देवीए मोहियमई उ। सावय-सहस्सपउरम्मि, सायरे पाविओ निहणं ॥ १/८/५४/७ Jain Education Intemational Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ ४३० जह सो कालियदीवो, अणुवमसोक्खो तहेव जइ-धम्मो। जह आसा तह साहू, वणियव्व अणुकूलकारिजणा ॥ १/१७/३७/१ जह सो चिलाइपुत्तो सुसुमगिद्धो अकज्ज-पडिबद्धो। धण-पारद्धो पत्तो, महाडविं वसण-सयकलियं ॥ १/१८/६२/१ जाव न दुक्खं पत्ता, माणब्भंसं च पाणिणो पायं। ताव न धम्म गेहंति भावओ तेयलिसुयव्व ।। १/१४/८६/१ जिणवरभासि भावेसु, भावसच्चेसु भावओ मइमं। नो कुज्जा संदेह, संदेहोऽणत्थहेउ त्ति ॥१॥ १/३/३५/१ जिब्भिदय-दुद्दतत्तणस्स अह एत्तिओ हवइ दोसो। जंगललग्गुक्खित्तो, फुरइ थलविरेल्लिओ मच्छो । १/१७/३६/८ तं चेव तविमुक्क, जलोवरि ठाइं जाय-लहुभावं। जह तह कम्म-विमुक्का, लोयग्ग-पइट्ठिया होंति ॥ १/६/५/२ तलपत्त-रिटवण्णा य, सालिवण्णा य भासवण्णा य केइ। जंपिय-तिल-कीडगा य, सोलोय-रिट्ठगा य पुंड-पइया य कणगपिट्ठाय केइ ॥ १/१७/१४/२ तव्वज्जणेण जह इट्ठपुरगमो विसयवज्जणेण तहा। परमानंदनिबंधण-सिवपुरगमणं मुणेयव्यं ॥ १/१५/२२/४ तह अविरईइ नडिओ, चरणचुओ दुक्खसावयाइण्णो। निवडइ अगाह-संसार-सागरं अणंतमविकालं ॥ १/८/५४/८ तह जीवो विसय-सुहे, लुद्धो काऊण पावकिरियाओ। कम्मवसेणं पावइ, भवाडवीए महादुक्खं ॥ १/१८/६२/२ तह जो जीवो सम्मं, पडिवज्जित्ता महव्वए पंच। पालेइ निरइयारे, पमाय-लेसंपि वज्जेती॥ १/७/४४/E तह जो भव्यो पाविय वयाइ पालेइ अप्पणा सम्म। अण्णेसि वि भव्वाणं देइ अणेगेसि हिय हेउं ॥ १/७/४४/१२ तह जो महव्वयाई, उवभुंजइ जीविय त्ति पालितो। आहाराइसु सत्तो चत्ता सिवसाहणिच्छाए । १/७/४४/६ तह धम्मकही भव्वाण, साहए दिट्ठअविरइसहावा। सयलदुहहेउभूया, विसया विरयंति जीवा णं । १/८/५४/४ तह भव्वो जो कोई, संघसमक्खं गुरू-विदिण्णाई। पडिवज्जिउं समुज्झइ, महव्वयाई महामोहा॥ १/७/४४/३ नायाधम्मकहाओ तह साहम्मिय-वयणाण, सहणमाराहणा भवे बहुया। इयराणमसहणे, पुण सिवमग्ग-विराहणा थोवा ।। १/११/१०/४ ता पुण्णसमणधम्माराहणचित्तो सया महापुण्णो। सव्वेण वि कीरतं, सहेज्ज सव्वं पि पडिकूलं ॥ १/११/१०/८ तिण्णेव य कोडिसया, अट्ठासीइं च हुति कोडीओ। असिइं च सयसहस्सा, इंदा दलयंति अरहाणं॥ १/८/१६४/१ तित्त-कडुयं कसायं, महुरं, बहुखज्ज-पेज्ज-लेज्झेसु । आसायंमि उ गिद्धा, रमंति जिभिंदिय-वसट्टा ॥ १/१७/३६/७ तित्त-कडुयं, कसायं, महुरं बहुखज्ज-पेज्ज-लेज्झेसु। आसायंमि न गिद्धा, वसट्टमरणं न ते मरए॥ १/१७/३६/१४ तित्थयर-वंदणत्थं, चलिओ भावेण पावए सग्गं। जह ददुरदेवेणं, पत्तं वेमाणिय-सुरत्तं ॥ १/१३/४५/२ तित्थस्स बुटिकारी, अवखेवणओ कुतित्थियाईणं । विउस-नरसेविय-कमो, कमेण सिद्धिं पि पावेइ ॥ १/७/४४/१४ थण-जहण-वयण-कर-चरण-नयण-गब्विय विलासियगईसु। रूवेसु जे न रत्ता, वसट्टमरणं न ते मरए ॥ १/१७/३६/१२ थण-जहण-वयण कर-चरण-नयण-गव्विय-विलासियगईसु। रूवेसु रज्जमाणा, रमंति चक्खिंदिय-वसट्टा ॥ १/१७/३६/३ ११. दावद्दवे १२. उदगणाए १३. मंडुक्के १४. तेयली वि य। १५ नंदीफले १६ अवरकंका १७. आइण्णे १८. सुंसुमा इ य ॥ १६. अवरे य पुंडरीए, नाए एगूणवीसमे ॥ १/१/१०/२ धणसेट्ठी विव गुरुणो, पुत्ता इव साहवो भवो अडवी। सुयमंसामिवाहारो, रायगिंह इह सिवं नेयं ॥ १/१८/६२/३ नंदिफलाई व्व इहं, सिवपहपडिपण्णगाण विसया उ। लब्भक्खणाओ मरणं, जह तह विसएहि संसारो॥ १/१५/२२/३ नंदे य नंदमित्ते, सुमित्त बलमित्त भाणुमित्ते य। अमरवइ अमरसेणे, महसेणे चेव अट्ठमए । १/८/२२३/१ निसंदेहत्तं पुण, गुणहेउं जं तओ तयं कज्ज। एत्थं दो सेट्ठिसुया, अंडयगाही उदाहरणं ॥ १/३/३५/२ १. पउमा २. सिवा ३. सई ४. अंजू । ५. रोहिणी ६. नवमिवा इय। ७. अमला ८. अच्छरा ॥ १/२/६/२ पटा Jain Education Intemational Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ पावेंति कम्म-नरवइ-वसया संसारवाहियालीए । आसप्पमद्दएहिं व, नेरइयाईहिं दुक्खाई ॥ १/१७/३७/६ ६. पुण्णा १०. बहुपुत्तिया चेव, ११. उत्तमा १२ तारियावि य । १३. पउमा १४. वसुमई चेव, १५ कणगा १६ कणगप्पभा ॥ २/५/२/२ पुण्णोवि पइदिणं जह, हायंतो सव्वहा ससी नस्से । तह पुण्ण चरित्तो वि हु, कुसील संसग्गिमाईहिं ॥ पुव्विं अविखत्ता, माणुसेहिं साह रोहिं पच्छा वहाँत सीयं असुरिंदरदनागिंदा फासिंदिय दुतत्तणस्स अह एत्तिओ हवाइ दोसो । जं खणइ मत्थयं कुंजरस्स लोहकुंसो तिक्खो || फासेसु य भद्दय-पावएसु कायविसयमुवगए । तुद्वेण व रूट्ठेण व समणेण सया न होयव्वं ॥ भव-लंघण- सिव- साहणहेउं भुजंति ण गेहीए । वण्ण-बल-रूव-हेउं च भावियप्पा महासत्ता ॥ भोगे अवयक्ता पति संसारसागरे धोरे। भोगेहिं निरवयक्खा, तरति संसारकंतारं ॥ महुरेहिं निउणेहिं, वयणेहिं चोययंति आयरिया | सीसे कहिंचि खलिए, जह मेहमूर्णि महावीरो रसु य भ पाए जिम्मदियमुवगए। तुट्टेण व रूद्वेण व समणेण सया न होयव्वं ॥ रूवेसु व भद्दय-पावसु चक्खुविसचमुचगए। तुट्टेण व रूद्वेण व समणेण सया न होयव्वं ॥ मिच्छत्त- मोहियमणा, पावपसत्ता वि पाणिणो विगुणो । फरिहोद व गुणिणी हवंति वरगुरूपतायाओं ॥ ४३१ वरयरिया घोसिज किमिच्छय दिन्नए बहुविही सुर-असुर-देव-दानव नरिंद महियाण निक्खमने ॥ १/१०/६/२ १/८/२१४/१ १/१७/३६/१० १/१७/३६/२० १/१८/६२/५ १/६/४४/२ १/१/२१३/१ १/१२/४६/१ १/१७/३६/१६ १७. वडेंसा १८. केउमई चेव, १६ वइरसेणा २० रइप्पिया । २१. रोहिणी २२ नमिया चैव २३. हिरी २४. पुण्फावईवि य , २/५/२/३ १/१७/३६/१७ १/८/२००/६ २५. भुयगा. २६ भुयगावई चेव, २७. महाकच्छा २८. फुडा य । २८. सुघोसा ३०. विमला चेव, ३१. सुस्तरा य ३२. सरस्सई ॥ २/५/२/२ वाससहस्सपि जह, काउणं संजम सुविलंपि अंते किलिट्टभावो, न विसुज्झइ कुंडरीउ व्व ॥ विसएस इंदियाई रूभंता राग-दोस-निम्मुक्का । पावेंति निव्वुइसुहं, कुम्मोव्वं मयंगदहसोक्खं ॥ सत्ताण दुहत्ताणं, सरणं चरणं जिनिंदपण्णत्तं । आणंदरूव निव्वाण साहणं तह य दंसेइ ॥ सण सत्तिवण्णा - कउहो, नीलुप्पल - पउम नलिण सिंगो । सारस-चक्काय-रवियघोसो, सरयउऊ गोवई साहीणो ॥ सद्देसु य भद्दय-पायएसु वक्तयमुवगए। तुट्ठेण व रूद्वेण व समणेण सया न होयव्वं ॥ सहकार चारुहारी, किंतु कण्णिवारासोगमउडो । उसियतल्लग वकुलायस्तो, वसंत नवई साहीणो ॥ संझाणुरागसरिसा सुमुह-गुजराग सरिसत्य के एलापाडल-गोरा, सामलया - गवलसामला पुणो केइ ॥ संपन्नगुण विजओ, सुसा संसगवतिओ पायं पाव गुणपरिहाणि ददुदुरजीयोग्य मणियारो सारस्सयमाइच्चा, वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य ॥ सासे का जरे दाहे, कुडिले भगंदरे । अरिसा अजीरए दिडी- मुदसूले अकारए अच्छिवेयणा कण्णवेपणा कडू उदरे कोटे परिशिष्ट-२ १/१६/४८/१ सिवसाहणेसु आहार - विरहिओ जं न वट्टए देहो । तम्हाणो व्व विजयं, साहू तं तेण पोसेज्जा ॥ सुबहु वि तव किलेसो, निवान दोसेण दूसिओ संतो न सिवाय दोवईए, जह किल सूमालिय- जम्मो ॥ १/४/२३/१ १/६/२०/३ १/६/५४/५ १/६/२०/५ १/१७/३६/१६ १/१७/१४/४ सिढिलय संजम कज्जा वि, होइउं उज्जवंति जइ पच्छा। संवेगाओ ते सेलओ व्य आराहया होंति । १/१३/४५/१ १/८/२०२/१ १/१३/३०/६ सियकुंद-धवलजोण्हो, कुसुमिय- लोद्धवगसंड-मंडलतलो । तुसार दगधार- पौवरकरो, हेमंतउऊ ससी सया साहीणो ॥ 9/4/930/9 9/€/20/8 १/२/७७/१ १/१६/३२७/१ सुरगोवमणि-विचित्तो, दरकुलसिय-उज्झरवो । बरहिणवंद - परिणद्धसिहरो, वासारत्तउऊ पव्वओ साहीणो ॥ १/६/२०/२ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ सो अप्पहिएक्करई, इहलोयम्मिवि विऊहिं पणयपओ। एतसुही जायह, परम्य मोक्खपि पावे ॥ सोइदिय दुतत्तणस्स अह एतिओ हयद दोसो। जं जलणंमि जलते, पडइ पयंगो अबुद्धीओ || सो इह चेव भवम्मि, जणाण धिक्कार-भायणं होइ । परलोए उ दुहत्तो, नाणा जोणीसु संचरइ ॥ सो इह संघप्पहाणी, जुगप्पहाणोत्ति लहइ संसद्दं । अप्प परेसि कलाकार गोयमपव्य ॥ ४३२ १/७/४४/१० १/१७/३६/२ १/७/४४/४ १/७/४४/१३ नायाधम्मकहाओ सो एत्थ जहिच्छाए, पावइ आहारमाइ लिंगित्ता । विउसाण नाइपुज्जो, परलोयंसी दुही चेव ॥ 9/9/88/9 हरिरेण-सोणिसुत्तग-सकविल-मज्जार-पायकुक्कुड-वोंडसमुग्गयसामवण्णा । गोहूमगोरंग-गोरपाडल-गोरा, पालवण्णा व धूमवण्णा व केह 9/90/68/9 हीणगुणो वि हु होउं, सुहगुरुजोगाड़ - जणियसंवेगो । पुण्णसरूवो जाय, विद्धमाणो ससहरोव्य ॥ ऊदाहरणासंभवे य, सइ सुटठु जं न बुज्झेज्जा । सव्वष्णुमयमवित, तहाविद चिंतए मदमं ॥ 9/90/8/8 १/३/३५/४ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-३ वर्णकवाची आलापक वर्णक शब्द सूचित पाठ वर्ण्य विषय ज्ञातधर्मकथा के वर्णक आलापक नगर वर्णन औपपातिक सूत्र सूत्र १ १/१/१, १/१/१२, १/२/२, १/३/२, १/४/२, १/५/५०, १/१५/४, १/१६/१२०, १/१७/२, १/१८/२, २/१/१, २/१/१५ औपपातिक सूत्र यक्षायतन वर्णन १/५/५ सूत्र २ चैत्य वर्णन १/१/२, १/१/१३, १/२/३, २/१/३ औपपातिक सूत्र सूत्र २-१३ औपपातिक सूत्र सूत्र १४ नृप वर्णन १/१/३, १/१/१४,१/१५/५, १/१६/१२१, १/१६/१६२, १/१६/२६६, १/१७/३ रानी-वर्णन १/१/१५ औपपातिक सूत्र सूत्र १५ ज्ञात०१/२/६ कच्छ-वर्णन १/३/४, १/४/५ ज्ञात०१/३/३ उद्यान-वर्णन १/५/५० ज्ञात०१/५/४७ श्रावक-वर्णन १/८/६५ Jain Education Intemational Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंक अंकण अंकधाई अंकुसय अंगण अंगय अंगारक अंगुलिया अंगुलेज्जग अंजण अंतकरभूमि अंतगमण अंतर अंतरायण अंतरिया अंतलिक्ख अवास अंद अंबधाई अंस अंसु अंसुय अहिज्जमान अइक्कंत अइगच्छमाण अइगमण अइगय अइजागरय अइभद्दय अइया अइवइता अइवयंत अइवयमाणी अकंत रत्नविशेष अंकन अंकधात्री (पांच धाय माताओं में से एक) अंकुश आंगन समाधान मध्यवर्ती लोहस्तम्भ मार्गवर्ती दुकान आभूषण विशेष १/१/१२८ मंगल १/१/५६ अगड अंगुली १/८/७४ अंगूठी १/१/२४ काला पत्थर, काला सुरमा १/१/५६, १/१६/२० निर्वाणभूमि १/८/२३३ १/१/४८ १/१/१८ १/१२/१६ १/१/२८ १/१/५७ १/१/४ १/३/२४ भीतरी भाग अंतरिक्ष शिष्य (गुरु के निकट रहने वाला) श्रृंखला धायमाता कन्धा अश्रु वस्त्रविशेष पानी के प्रवाह से पुनः आक्रान्त हुई अतिकान्त परिशिष्ट-४ विशेष शब्दानुक्रमणिका आता हुआ प्रवेशमार्ग आगे निकल जाना अतिजागरण अतिभद्र बकरी छोड़कर प्रविष्ट होते हुए नाश करने वाली अकमनीय १/१/३३ अकामक १/१७/३३ अकारय १/१/८२ अक्कंत अक्खा अक्खयमिहि १/५/८० १/५/३६ अस्ति अक्खोड़ अगठिय अगरु अगारवास अमिलाए अग्गिच्च अग्गिमाणव अग्निसामण्ण अग्गिसाहिय अग्गुज्जाण अग्घायमाणी अचक्खुफास अचोक्ख अच्चासन्ने १/१/१३३ १/१८/३५ १/१/१२७ अच्चि १/१/३३ अच्चुय 9/€/90 अच्छ अच्छ अच्छणघरय १/१/४६ १/१/१५३ अच्छर १/२/११ अच्छि १/१/१६० अच्छिद्द १/१६/३६ अजाइय १/१६/१८५ अजीरय १/१/१५६ अज्जय १/६/४ अज्जव 9/9/9€ १/५/२३ १/१/१०५ अज्झत्थिय अज्झोववण्ण अटिडियाविनमाण अनिच्छापूर्वक अरुचि आक्रान्त नाम स्थायी कोष प्रलोभन देकर उड़ा देना खींचना, पछाड़ना कूप अग्रथित अगर (गंधद्रव्य) गृहवास अग्लान भाव से आग्नेव (लोकान्तिक देव) उत्तरदिग्वती इन्द्र अग्नि के स्वामित्व वाला अग्नि से जला सकने योग्य प्रधान उद्यान सूंघती हुई अन्धकार खराब अतिनिकट रश्मि अच्युत, बारहवां देवलोक स्वच्छ भालू आसनगृह अप्सरा आंख सलवटरहित अयाचित अजीर्ण पितामह ऋजुता आन्तरिक तद्विषयक एकाग्रता को प्राप्त न बजाना १/१/११४ १/१३/२८ १/१३/४१ १/७/४४ १/२/१२ १/२/२६ 9/8/99 १/८/१५४ १/१७/२४ १/१७/३६ १/८/२३५ १/१/२०७ ८/२०२ २/४/८ १/१११ १/१/१११ १/८/८१ १/१/६७ १/१४/७८ १/८/१६ १/१/६६ १/१/८६ १/१/२११ १/१/१८ १/१/१७८ १/३/१६ १/५/३ १/१/१५३ १/१/१५६ १/५/७३ १/१३/२८ १/१/११० १/१/४ १/१/४८ १२/२/२८ १/३/२६ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ अट्टज्झाण अट्टणसाला अडिय अट्ठमभत्त अड्ड अक्कन्ि अणंगसेणा अणगार अणधारग अणवयग्ग अणह अणागलिय अणादायमाण अणिमिस अणिय अनिवाण अणुगच्छ अणुगिलिता अणुणाण अणुपत्त अणुमग्गजाइया अणुमग्गजायय स अणूण अणेगखंडि अतत्थ अत्तए अतित्य अत्थरय अत्थोग्गह अथाम अदूरसामंत अद्धट्ठ अणिण्हवमाण अभिज्जमाण अपक्खेवग अपत्थयण अपरिणाणिज्जमाणी अपरियाणमाणी अपाणय अपूइ अपेसे अपोरिसिय अशुभध्यान व्यायामशाला १/१/३४ १/१/२४ हड्डि १/८/२५ तेला (लगातार तीन दिन का उपवास) १/१/५३ १/२/७ १/५/४७ १/५/६ १/१/४ १/१८/२१ १/३/२४ १/८/६७ १/८/२० आढ्य, समृद्ध अविचलनीय गणिका का नाम साधु कर्जदार अनन्त निष्कलंक दुर्निवार आदर न देते हुए निर्निमेष सेना पौदगलिक समृद्धि का संकल्प न करना अनुगमन करना निगलकर अनुमोदना करना प्राप्त अनुजा अनुज गरजना परिपूर्ण, अन्यून अनेक खंडों वाली अत्रस्त पुत्र घाटरहित प्राचीन समय की चादर अर्थ का अवग्रहण अशक्त न दूर न पास साढ़े तीन अपलापन करते हुए पीछा किया जाना जिसका पाथेय मार्ग में समाप्त हो गया पाथेय रहित उपेक्षित होती हुई ध्यान न देती हुई निर्जल ४३५ अपरिवर्तनीय प्रेष्यरहित पुरुष प्रमाण से अधिक गहरा १/१/३६ १/३/१८ १/८/२०२ १/१/१६४ १/८/१६८ १/१८ / १८ १/८/७३ अप्प अफासुय अहिलेस अब्भंग अब्भणुण्णाय अमितराणिन्ज अब्भुक्छेह अब्भुग्गय अब्भुज्जय अब्भुट्ठिय अब्भुण्णय अभक्खय अभिरुइय अभिरूव अभिमुह अभिसरमाण १/१/६६ १/७/८ १/२/१३ अमित १/३/२६ १/१८/५ १/८/११५ १/५/१३ १/१५/६ १/१/३६ १/१/३६ अमइल अमणाम अनगुण्ण अयसि अरिस अलंकारियकम्म अलंकारियतभा अलेवाड अल्ल अल्लीण १/१/१५ अवथद्ध १/१/१६० अवद्दहण १/१/१८ १/१/२० अवदालिय १/१६/२१ अवबार १/१/६ अवमद्दक १/५/६ अवयास १/१/४८ अवरित्त १/१६/२६ अवसवस १/१५/६ अवहिय अवितह अवियाउरी असंपुडिय असण १/८/२२२ असिणिद्ध १/१६/३०० असिय १/१४/७८ ६/४ अखिल असिलिग आप्त अप्रासुक (जीवसहित) आत्मोन्मुख भावधारा वाला मर्दनद्रव्य अनुज्ञा प्राप्त अन्तरंग अभिसिंचन करना मेघ का उमड़ना मेघ का विस्तार पाना मेघ का वर्षा हेतु तत्पर होना झुका हुआ मेघ अभक्ष्य रुचिकर कमनीय सामने सरकता हुआ अमलिन अमनोहर अमनोज्ञ शत्रु कुसुम विशेष अर्श हजामत सौन्दर्य प्रसाधन गृह अपकृत गीता (आई) सुव्यवस्थित अवष्टब्ध अपदहन ( रोग प्रतिकार हेतु रुग्ण अंग पर डाम लगाना) चौड़ा होना अपहृत सत्य अप्रजननशीला खोलकर भोजन स्नेहरहित परिशिष्ट- ४ १/२१३ ५/७३ १/१६४ दात्र नंगी तलवार एक दूसरे से अलग १/१/२४ १/१/१६ १/१२/३० १/२/१४ १/१/३३ १/१/३३ १/१/३३ १/१/३३ १/५/७३ १/१/१०२ १/१/१० १/१/७ २/१२ १६/१८५ १/१०५ १/१/१०५ १/४/७७ १/५/१० १/१३/२८ १/२/५८ १/२/५८ १/८/२२ १/१/१५६ अपद्वार ( पीछे की खिड़की, दरवाजा) १/२/११ अवमर्दक, नाशक १६/१६३ आलिंगन १/२ / ६६ अपरीय (पश्चिम दिशा वाला) १/८/२० विवशता से १/१६/५३ २/ २८ १/१/२१ १/२ / ८ १/१/१५६ १/१/३० १/८/७२ १/१८/३५ १/१/१५६ १/१८/५१ १/१३/३० १/७/१५ १/१८/३५ १/८/७२ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ नायाधम्मकहाओ भेड़िया चूहा १/१/२५ १/८/७२ १/२/११ असुयपुव्व असोग अस्सायणिज्ज अहय अहाकल्प अहापडिरूव अहेलोय आइक्खग आइणग आउसइ आओग-पओग आघयण आघवण आडोलिया आणत्तिय आणिल्लिय आमग आमिस आयय आयवत्त आयविय आयारभंडग आरण आराहग अधिक मूल्य के लिए गुणहीन वस्तु का गुणोत्कर्ष दिखाना करमुक्त बांस का पंखा उत्कीर्ण मल उच्चारण करके गोद उत्सादन लघिमा ऋद्धि सम्पन्न झरना ईशानकोण उत्तरीय पट जिसे पहले नहीं सुना अशोक वृक्ष स्वाद लेने योग्य नवीन कल्प के अनुसार प्रवास योग्य अधोलोक शुभाशुभ बताने वाला चर्मवस्त्र गाली देना लेन-देन वधस्थान आख्यान खिलौना, गिल्ली आज्ञा आनीत, लाई हुई अपक्व, कच्चा मांस लम्बा छत्र परिकर्मित धर्मोपकरण ग्यारहवां देवलोक स्वीकृत साधना का पालन करने वाला नीरोगता भिगोना आग लगाने वाला नोचना गर्भवती विपदा श्रेष्ठ उत्तर दिशा से संबंधित उत्त्रास देने वाला मशक ४३६ १/१/१०५ ईहामिय १/५/१० उंदुर १/१२/४ उक्कंचण १/१/२४ १/१/१९८ उक्कर १/१/४ उक्खेवय १/८/३५ उग्गय १/१/७६ उच्चार १/१/१८ उच्चारेत्ता १/१८/८ उच्छंग १/२/७ उच्छायणया १/६/२५ उच्छूढसरीर १/१/११२ उज्झर १/१८/८ उत्तरपुरस्थिम १/१/२३ उत्तरिज्ज १/१/६० उत्तरिए १/६/१० उत्तरिल्ल १/२/११ उत्तासणय १/१/१५६ उदगवत्थि १/१/१३४ उधुव्वमाण १/१/१८ उप्पुय १/१६/३८ उरभ १/१/२११ उल्लंबण १/११/२ उल्लोय उवगूहिय १/८/३४ उवट्ठाणसाला १/५/६१ उवप्पयाण १/२/११ उवस्सय १/४/११ उवाइयं १/२/१६ उवाहण १/८/२५ उवीलेमाण १/५/५२ उव्वलण १/८/४२ उसभ १/८/१७७ उसीस १/१७/३२ उस्सीसामूल १/६/२६ उस्सुक १/२/५७ उस्सेह १/८/२८ ऊसविय १/१/११८ एकल्ल १/१/२०२ एगंतदिट्ठिय १/१/३३ एगंतधाराय १/१/६६ एगजाय १/१/३३ एगट्ठिया १/१/८५ एगावलि १/१/१६ एडइ १/१/७८ १/१/१०६ १/१/१८ १/१/१०६ १/१/२११ १/२/१२ १/१/१६ १/१/४ १/१/३३ १/१/२ १/१/२४ १/८/२११ १/८/२१४ १/२/६७ १/१८/३६ १/१३/४० १/६/२० १/१/३३ १/२/७६ १/१/१८ १/६/४१ १/१/२२ १/१/१६ १/१४/५३ १/२/१२ १/१५/६ १/१८/२२ १/१/२४ १/१/२५ १/७/९ १/१/१२५ १/१/७८ १/१/६ १/१/२० १/१/१५७ १/१/११२ १/१/११२ १/५/३५ १/१६/२८२ १/१/१२८ १/१६/७४ आरोय आलिंप आलीवग आलुप आवण्णसत्ता आवया आवसह डूलाते हुए भयभीत भेड़िया फांसी चन्दोवा आलिंगन सभामण्डप गृहीत धन को लौटाना उपाश्रय मनौती जूता उत्पीड़ित करता हुआ औषधियों का लेप बैल तकिया सिरहाने शुल्कमुक्त ऊंचाई ऊंचा एकाकी एकाग्रदृष्टि अर की भांति एकांत धार वाला एकाकी नौका एकावलि (आभूषण विशेष) फेंकना मठ आस अश्व आस आसभद्दय आसवाणियय आसुरुत्त आहारवक्कंति आहेवच्च इंगालसगडिया इंदगोवक अश्वप्रशिक्षक घोड़ों का व्यापारी क्रोध से तमतमाना मनुष्यभव योग्य आहार का ग्रहण आधिपत्य कोयलों से भरी गाड़ी वीरवधूटी इन्द्रमहोत्सव इन्द्रधनुष इषु अस्त्र, एक कला अर्थ की समालोचना व निश्चय इंदमह इंदाउह ईसत्थ ईहावूह Jain Education Intemational Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४३७ एडण एरंडसगडिया एला ओइण्ण ओएल्ल ओग्गह खुजली पैदा करने वाली वनस्पति चाबुक कथा करने वाला शरीराकर्षण काकिणी रन बतख कर पीड़ित, सेवा में व्याप्त मृत्यु तूफान खांसी ओचूलग कास मुद्रा परिशिष्ट-४ १/१६/५२ १/२/३३ १/१/७६ १/१४/४३ १/१/८५ १/१/३३ १/१/१४३ १/१/१६६ १/६/६ १/१३/२८ १/१/१२१ १/१/२४ १/१७/१४ १/१/२४ १/८/१६५ १/३/१६ १/१/२५ १/३/१६ १/१८/२१ १/१६/७० १/१/१६ १/१/१६ उत्सर्जन एरंड की लकड़ियों की गाड़ी ईलायची धंस जाना (धार) कुंठित होना स्थान नीचे लटकता हुआ झुका हुआ नीचे की ओर झुका हुआ ओजयुक्त घेरकर अन्तःपुर लांघना रुग्ण जलाभिषेक उत्पाटन उपपात निनादित ऊंघती हुई सोना गले मिलकर ओखल कूटने वाली खुजलाकर कमनीय ओणय ओमंथिय ओयंसी ओसंभित्ता ओरोह ओलंडण ओलुग्ग ओवयण (दे.) ओवाहण ओवाय ओसारिय ओहीरमाणी कंचण कंठाठिय कंडिंतिया कंडूइत्ता कंत कंदरा कंदल कंदिय कच्छ कट्ठकम्म कट्ठसगडिया कडग कडगपल्लल कडिसुत्त कणयालि कणेरु गेरूआ रंग रांगा पलाश संकट खिलौना हाथी मुर्गी १/१६/१४ कविकच्छु १/१/२०२ कस १/१७/१४ कहकहग १/१/१६० काउड्डावण (दे.) १/१४/७३ कागिणी १/१/४ कारंडग १/१६/२६४ कारवाहिय १/१/३३ कालधम्म १/१/३४ कालियवाय १/१/४ १/८/१६७ कासवय १/८/५ कसाइ १/१/१८६ कासीस १/१/३४ किंसुय १/१/६० किच्छ १/१६/६६ कीलावणग १/१६/२०६ कंजर १/१८/३५ कुक्कुडिया १/१/१८ कुडंग १/१/८६ कुड्ड १/२/६६ कुडुम्ब १/७/२६ कुडुम्बजागरिया १/१/१८१ १/१/१६ कुत्तियावण . १/१/१५८ कुम्मग १/१/३३ कुस १/१/१५६ कुहर १/१/६५ V२० कूड १/१३/२० १/१/२०२ १/१/१५८ कूड १/१/१५८ कूल १/१/२४ कूव १/१/१८ कूवमाण १/१/१६५ कुसुमासव १/१/११८ कूवियबल १/१/४६ केउ १/१/१५६ केक्काइय १/१/१५६ केयइप्ड १/१/१७ केयार १/८/१६८ कोट्टिमतल १/१/१६ कोट्ठागार १/१/१५७ कोकंतिय १/८/६० कोज्जय १/८/१०६ कोडंबियपुरिस गुफा १/१/१२१ १/४/७ १/२/६ १/१/१५८ १/१/१५८ पुष्पविशेष क्रन्दन सजलप्रदेश काष्ठ पुतलियों का निर्माण कार्य । ईंधन से भरी गाड़ी मेखला मेखला स्थित जलाशय करघनी लोहस्तम्भ (वेणुवन के समान) आश्रयभूत भीत सामुदायिक कार्य कुटुम्ब की चिन्ता से नींद उचट जाना दुकान, जहां हर वस्तु मिले कछुआ डाभ खोह, दो पर्वतों का मध्यवर्ती अन्तराल नीचे से चौड़ा, ऊपर से संकीर्ण वृत्ताकार पर्वत तोलमाप की न्यूनाधिकता तट खोजना क्रन्दन करता हुआ मकरन्द चोर गवेषक सेना पताका केकारव केतकीपुट (गंधद्रव्य) खेत पक्का आंगन धान्यगृह लोमड़ी पुष्पविशेष आदेश को क्रियान्वित करने वाला हथिनी कुनगर कार्मिकी बुद्धि कचरा १/२/११ १/८/१५४ १/१६/२०६ १/६/२५ १/१/३३ १/१८/८ १/१/२० १/३/३२ १/१७/२२ १/७/१० १/१/१८ १/७/७ १/१/१७८ १/८/३० १/१/२५ कम्मिया कयवर कर करयल करोडिय कलंब कलभ कला सूंड हथेली कापालिक कदम्ब कुसुम तीस वर्ष का हाथी अंश स्वर्णकार कलाय Jain Education Intemational Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ ४३८ नायाधम्मकहाओ कोढ़ कुष्ठ कुहनी कोप्पर कोत्थ कोमुइरयणिसर कोयव (दे.) कोरेंट कोल खंडरक्ख छात्र भेड गेंडा खंडाखंडि खंडिय खंतिखम खंधावार खग्ग खणि खण्णुय (दे.) खत्त (दे.) खत्तखणग खरमुहि खरय खिंखिणिया खिंसा दूध १/१३/२८ गणेत्तिया (दे.) १/२/२३ गहतोय उदरदेश १/१/१६५ गब्भघर शरद ऋतु का चन्द्रमा १/१/१७ गब्भेल्लग (दे.) रजाई १/१७/२२ गमणपयार कटसरैया के फूल १/१/२४ गमणी सूअर १/१/१७८ गयकलभय अनधिकृत भूमि पर अधिकार १/१८/२१ गयाणी करने वाला गरुल टुकड़ा-टुकड़ा १/६/४३ गलत्थल्ल (द.) १/१/१४३ गलय समर्थ होने पर भी क्षमा करने वाला १/१/१६४ गल्ल सेना का पड़ाव (छावनी) १/८/१५८ गवेलग १/५/३५ गवसण खान १/७/४४ गामकंटग १/२/६ गालावेत्ता भींत १/१८/२२ गाह भीत फोड़कर चोरी करने वाला १/१८/२१ गिद्ध वाद्य विशेष १/१/३३ गुल कठोर १/६/३२ गेवेज्ज क्षुद्रघण्टिका, घुघुरू १/१/५७ गोयर कुत्सा १/८/१४६ गोरस तिरस्कार योग्य १/३/२४ गोहूम रोष १/१८/१४ घंस नाराजगी १/८/४१ घट्ट दूधिया द्रव रस पैदा होना १/७/१४ घडिअ चिह १/२/२६ घुघुयंत (दे.) मुद्रिका १/१/३३ घूय छोटा १/७/१० चंपग निमग्न १/१/१६० चक्काग मोच खाकर १/१/१०५ चच्चा (दे.) १/१/११२ चडगर (दे.) कपर्दिका १/१८/७ चमर ढाल १/६/१६ चमू कफ १/१/१०६ चाउग्घंट क्षोभ १/४/११ चार गिरहकट १/१८/१८ चारगसाला कपोल १/१/१७ चास जो गूंथकर बनाई जाए १/१३/२० चिंध गात्रोवर्तन १/१६/७८ चिकुर गन्धवर्तिका १/१/१८ चियाय गंभीरक नामक बन्दरगाह १/८/६६ चिलिण गाजना १/१/३३ चिल्लग (द.) लेखापाल १/८१ चिल्लल गणनीय, गणना कर दिए जाने वाले १८/६६ चेड खिंसणिज्ज खिज्जणा खिज्जिय खीराइय खुइ खुड्डय खुड्डाग (दे.) खुत्त (दे.) खुम्मिय (दे.) खुर खुल्लए खेडग खेल खोभ गंठिभेयग गंड गथिम गंधट्टय गंधवट्टि गंभीरय गज्जिय गणग गणिम कलई पर पहनने की रुद्राक्ष माला १/१६/१८५ लोकान्तिक देव १/८/२०२ तलघर १/८/४० पोत के भीतर रहने वाले परिचारक १/१७/९ जाने की त्वरा १/१/५६ विद्या का एक प्रकार १/१६/१८५ हाथी का बच्चा १/१/१६३ गजसेना १/१/३३ गरुड़ १/५/४७ गले में बांह डालकर १/६/४२ गला १/१७/२७ नीरोग, स्वस्थ १/५/११६ १/२/७ व्यतिरेकधर्म का पर्यालोचनपूर्वक निर्णय १/१/१६ इन्द्रियविषय १/१/११२ छनवाकर १/१२/६ मगर विशेष १/४/४ आकांक्षावान १/२/२८ गुड़ १/८/६६ ग्रैवेयक, गले का आभूषण १/१/२४ चरागाह १/१७/१५ ८/६६ १७/१४ संघर्षण १/१/१५६ घिसा हुआ १/१/१८ मित्र १/२/६५ धू-धू शब्द करते हुए १/८/७२ उल्लू १/८/७२ पुष्पविशेष १/१/३३ चकवा १/१७/१४ चन्दन आदि से चर्चित करके १/१/१२७ १/१/६७ चमरी गाय १/१/२५ सेना १/१/१४३ चार घण्टाओं वाले १/१/६८ कारागृह १/२/३६ कारागृह १/२/३४ चाष पक्षी १/१/३३ चिह १/८/७२ रागद्रव्य १/१/३३ त्याग १/८/१८ आर्द्र १/१/१०५ चमकता हुआ १/१६/१६३ कीचड़युक्त जलस्रोत १/१/१५८ सेवक १/१/८१ टुकड़ी Jain Education Intemational Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ चेलपेडा चोरसाहिय चोलोवणय छक्कट्ठ छन्नालय छप्पय छन्भामरी छरुप्पवाय छाण छिंडी (दे.) छिण्णावाय जइण जवखदेउल जच्च जहुल जर जल्ल जसंसी जाण जाणय जाणुय जायरूव जाय जाल जाल जासुमण जिण जुंजिय (दे.) जुवाणग जूयखलए जोड़ता जोह जोह झय शामेता झुसिर झूसणा झोड़ (दे.) टंक टिट्टिय (दे.) डंक (द.) इज्झत डालय (दे.) डिंभय वस्वमंजूषा पवित्र चुरा सकने योग्य चूलापनयन- शिखाधारण संस्कार अलिंद त्रिकाष्ठिका भंवरा पद्ममरी वीणा खड्गशास्त्र गोवर बाड़ के छेद आवागमन रहित तीव्र गति से यक्षायतन जात्य - उत्तम गुणों से युक्त जटिल जरा कोडी से जुआ खेलने वाला प्रख्यात यान ज्ञानदाता चिकित्साशास्त्रज्ञ सोना यज्ञ, पूजा झरोखा ज्वाला जपाकुसुम ज्ञाता भूखा युवक जूए का अड्डा जोतकर ज्योत्स्ना योद्धा ध्वज जलाकर पोलयुक्त आराधना ठूंठ एक दिशा में छिन्न पर्वत टि टि की आवाज सिखाना डंक दह्यमान वृक्ष की डाल बच्चा ४३९ 9/9/90 डोहल १/१७/१२ पोंदे १/१/१११ पट्टग १/१/८३ णाइय णेय १/१/१८ १/५/५२ १/१/३३ १/१७/२२ तंत १/१/८५ तक्कर १/७/२६ १/२/११ १/१५/११ तरच्छ 9/8/98 णवत्थि गोल्लिय तच्छण सोल्लिया (दे.) तलवर (दे.) १/२/११ तलाय १/१२/१६ १/६/२० १/१/१४५ तवणिज्ज १/१/७६ तहारूव १/१/४ ताल १/२/७ तालविंट १/१/७ तालिय तिंदूसए तिगिच्छियसाला तित्त तिलडासगडिया तिवलिय तलिम (दे.) १/१३/२२ १/१/५६ १/२/१२ १/१/१८ १/१/१५६ १/१/२४ तुंड १/१/७ तुडिग १/१/१८६ तुरुक्क 9/3/90 तूणइल्ल १२/१८/८ तेयंसि १ / ८ /६६ तोण १/१/१८ १/३/१८ १/२/२५ १/६/२० १/१/६३ १/१/२६ १/१/१८३ थिमिय १/२/६ शुभिय तेल्लल्ला थंडिल थारुगिणिया १/१/२०४ थेर १/१२/२ थोर १/१/१५८ योदय १/३/२१ दउदर १/१६/५२ दगरय (दे.) दगवारय दंत दप्पणिज्ज दोहद, घनीभूत इच्छा आनन्द नर्तक नादित-वाद्य विशेष ज्ञेय नेपथ्य प्रेरित क्लान्त तस्कर क्षुरप्र से त्वचा को पतला करना मल्लिका लकड़बग्घा कोतवाल तालाब शय्या लोलुप सोना श्रमणचर्या के अनुरूप वेश वाला वाद्य विशेष लाल बजाने वाले, प्रेक्षाकारी प्रताड़ित गेंद आरोग्यशाला आर्ट तिलंदड़ों से भरी गाड़ी तीन रेखाओं से युक्त मुख बाजूबन्ध लोबान तूणवादक तेजस्वी शारीरिक दीप्ति से युक्त तूणीर सौराष्ट्र में निर्मित तेलपात्र स्थण्डिल परिचारिका विशेष शान्त शिखर स्थविर स्थूल चातक जलोदर जलकण झारी शान्त बलवर्धक परिशिष्ट-४ १/८/३० १/१/१०६ १/१/७६ १/१/११८ 9/99/90 १/१६/२४७ १/६/४२ १/४/१२ १/२/११ १/१३/३० १/१६/ २५६ १/१/१७८ १/१/२४ १/१/६६ १/१६/५५ १/२/११ १/१/२४ १/१/१६५ १/१/११८ १/१/७६ १/६/१० १/१८/८ १/१३/२२ १/६/४ १/१/२०२ १/१/१७ १/१/१५६ १/१/१२८ १/१/१८ १/१/७६ १/१/४ १/१८/३५ १/१/१७ १/१६/१६ १/१/८२ 9/94/8 १/१/१८ १/१/४ १/१/१५६ १/१/३३ १/१३/२८ १/१/३३ १/२/३७ १/१/१८६ १/१/२४ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ ४४० नायाधम्मकहाओ दब्भसंथार दह दाइय दाम दाय दारग दित्त दिसीभाअ दीवणिज्ज दीविय दुगूल दुद्धरिस दुरुय (दे.) डाभ का बिछौना सरोवर हिस्सेदार माला पर्व दिन में दिया जाने वाला धन पुत्र उन्मत्त कोण अग्निदीपन करने वाले चीता वस्त्र अपराजेय दुर्गन्धित दुःख से आर्त धवलित उत्तम वस्त्र देवालय दौत्य कर्म अग्नि सुदृढ़ तोलकर दिए जाने वाले गेरू से रंगा हुआ धूपदानी नेवला किसान दुहट्ट दूमिय दूसरयण देवउल दोच्च धंत धणिय धरिम धाऊवल १/१/५३ निज्जामय १/१/१६१ निज्जूह १/५/४५ निडाल १/१/१८ नित्थाण १/२/१२ निब्बुड्ड १/३/६ निम्मंस १/१/१५६ नियत्थ (द.) १/१/२ नियम १/१/२४ निरस्साय १/१/१७८ निल १/१/३३ निल्लुक्क १/५/३५ निव्वाय १/१/१०६ निव्वुइयर १/१/१५४ निब्बोल (दे.) १/१/१८ निविण्ण १/१/२४ निसट्ठ १/२/४ निसढ़ १/८/५८ निसिरण १/१/३३ नीव १/१/१४३ नोल्लयंत १/८/६६ पउत्ति १/१/१८ पंचयण्ण १/८/५५ पंजलिउड १/८/७२ पंडर १/१/१४३ पग्गह १/१/१५६ पच्चत्थिम १/१/२४ पच्चय १/२/३१ पच्चावरण्ह १/२/११ पच्चावाय १/३/१० पच्चूसकाल १/३/२७ पच्छण १/१/६४ पज्जय १/८/७२ पट्टवय १/१/१८ पडलग १/१/१८ पडिग्गह १/१/१५७ पडिभंड १/२/६५ पडिरूव १/८/६७ पडीणा १/८/६४ पणिअ १/१/१२५ पत्थयण १४१८/३५ पब्भार १/१/२४ पम्हल १/६//१० पम्हट्ठ १/१/६ पयणु १/२/२८ पयमग्ग धूवकडुच्छ्य नउल नंगालिय नंगूल नगर नगरगुत्तिय नगरनिद्धमण नत्था नदुल्लग (दे.) नय नरसिरमाल नवतय नहयल नायय नायय नाविक द्वार पर लगी काष्ठपट्टिका ललाट बेघर निमग्न कृश पहनना विचित्र प्रकार के अभिग्रह निःस्वाद पवन रुक जाना निर्वात आल्हादकर, शांतिप्रद डुबोना उदास समर्पित निषध पर्वत परिष्ठापन कदम्ब उखाड़ता हुआ वृत्तान्त पाञ्चजन्य (शंख) बद्धांजलि श्वेत पशुओं को बांधने की डोरी पश्चिम विश्वास सन्ध्या के बाद का समय विघ्न प्रभातकाल त्वचा को विदीर्ण करना प्रपितामह कार्यनियोजक पटल (पुष्पपटल) पात्र दूसरा माल असाधारण पश्चिम दिशा दांव पाथेय कुछ झुके हुए पर्वत नेत्ररोम की तरह रोएं वाला विस्मृत होना हल्का पदचिह्न १/१७/६ १/१/१८ १/८/७२ १/१८/२२ १/६/२६ १/१/३४ १/१/६५ १/१/६४ १/१/११२ १/६/२० १/८/२२१ १/१/८२ १/१/१८ १/८/७४ १/४/१२ १/१/१६१ १/८/२ १/१६/२२ १/१/२० १/१/१५६ १/२/२६ १/१६/२७५ १/१/७ १/१/१५६ १/३/१० १/८/२ १/१/१६ १/१/१५२ १/६/५ १/१/२२ १/१३/३० १/१/१११ १/१/१५७ १/८/५५ १/१/१२१ १/८/८४ १/१/१७ १/५/२ १/३/३३ १/१५/६ १/१/१०५ १/१/१८ १/८/१८० १/१/२०६ १/२/३३ पूंछ नागरिक नगर आरक्षी नगर-नाला नथिनी नाटक नीति/नैगम आदि नय नरमुण्डमाला रोएंदार प्रावरण आकाशपथ नायक स्वजन जहाज पोतवणिक भलीभांति म्यान से खींची हुई व्यापारी झुकी हुई कसौटी निश्चल नावा नावावाणियग निक्क निक्किट्ठ निगम निगुंजमाणी निघस निच्चल Jain Education Intemational Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४४१ परिशिष्ट-४ परज्झ परद्ध परहुअ परासर परिगीय परिघाड़ेमाण (द.) परिपेरंतेणं परिमास (दे.) परिवसावेत्ता परिवेसतिया परिसा परिसामिय परुन्न पलिच्छन्न भूआ चावलों के आटे से बनी पिण्डी पहना राजा के पास रहने वाला धातुसाम्य करने वाले ढोल (द.) श्वेत पांव वाले श्वेतकमल पीठ रेखा तट प्रेक्षागृह मगलपाठक मृदु पल्ल मयूरांग सारहीन पेट पराधीन पीड़ित कोकिल शरभ संगीत दौड़ता हुआ परिपार्श्व में नौका का काष्ठ परिवासित करवाकर परोसने वाली परिषद श्यामल जोर-जोर से रोना चारों ओर से आवृत्त गोल आकार का धान्य रखने का पात्र तलाइ घुमाव प्लवक, छलांग भरने वाला यान प्याऊ आसक्त जन्मप्रसंग प्रश्न अवान्तर श्रेणी समूह हर्षातिरेक का अनुभव करना प्रायोग्य पालन कर पौ फटना अग्रगामी प्रातिहार्य मदिरालय सूंड सामान्य आदमी पदातिसेना तलहटी कबूतर परीक्षापूर्वक दिए जाने वाले मणि आदि झूमका पापी पाश कपड़े से बनी गुड़िया वस्त्र पर चित्रांकन करना बच्चा बार-बार लांघना जीर्ण वृक्ष पल्लल पल्लोट्ट पवग पवहण पवा पसंग पसव पसिण पसेणि पहकर (दे.) पहिट्ठ पाउग्ग पाउणित्ता पाउप्पभाय पागट्ठि पाडिहेर पाणघरय पाय पाययजण पायत्ताणीअ पायमूल पारावय पारिच्छेज्ज १/२/४५ पिउच्छा (दे.) १/१/१६० पिठुडी १/१/२४ पिणद्ध १/१/१७८ पीठमद्द १/१/७६ पीणणिज्ज १/१८/४६ पीणाइय १/४/७ पुंडपइय १/६/१० पुंडरी १/१२/१६ पुट्ठ १/७/२६ पुलग १/१/५ पुलिण १/१/३३ पेच्छणधर १/१८/५० पुस्समाणव १/२/६ पेलव १/१/१५८ पेहुण (दे.) पोच्चड (दे.) १/१/१५८ पोट्ट १/१/३३ पोत्तुल्लए (दे.) १/१/७६ पोत्थकम्म १/३/११ पोयग १/२/११ पोलंड १/२/११ पोल्लरुक्ख १/२/११ फरिहा १/१/१५४ फलय १/१/७८ फालिय १/१/३३ फुप्फुयायंत १/६/४३ फेरंड १/१/१२५ बंधुजीवग १/२/७३ बरहिण १/१/२४ बहुया १/१५७ बार १/८/४४ बालग्गाह १/१८/१६ बूर १/१/१७५ बोल १/१/११३ भइ १/१/३३ भंडकरंडग १/१/१५६ भंडग १/१/२४ भंडण १/८/६६ भंडिवडेंसय (दे.) भक्खेय १/१/२४ भद्दिया १/२/११ भर १/१७/२७ भवणवडेंसग १/१/१०६ भववक्कंति १/१/१७ भाइल्लग खाई १/१६/२१६ १/३/५ १/१/२४ १/१/२४ १/१/२४ १/१/१५६ १/१७/१४ १/१/८६ १/१/१५६ १/१/६ १/१/१८ १/३/१६ १/८/६८ १/१/३३ १/३/२६ १/३/२२ १/१/१८६ १/१८/८ १/१३/२० १/३/१६ १/१/१५३ १/१/१५६ १/१२/३ १/१८/३५ १/१२/१६ १/८/७२ १/७/१४ १/१/२४ १/१/३३ १/७/४४ १/२/११ १/१८/७ १/१/१८ १/८/६७ १/८/१९६ १/१/१७ १/८/६५ १/१६/१८५ २/८/५ १/५/७३ १/१६/७६ १/१/१०५ १/१/२७ १/८/२८ १/२/६० पट्टिका स्फटिक डोलते-फुफकारते हुए पर्वकाण्ड दुपहरिया मयूर वधू द्वार बच्चे को खिलाने वाला वनस्पति विशेष कोलाहल भृति आभरणमंजूषा किराना कलह उद्यानविशेष भक्ष्य पालंब पाव पास पासवण पासादीय भाग्यशालिनी आघात भवनमुख्य मनुष्यभव योग्य गति का संग्रहण भागीदार मूत्र चित्त को प्रसन्न करने वाली Jain Education Intemational Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ ४४२ नायाधम्मकहाओ भाय भास दिग्मूढ़ झारी भिंग भिंगार भिसिया भुंभर (दे.) भुक्ख भुक्खा भोग भोयणपिडय मउड मएल्लिय मैथुनगृह मृत मङ्ख मच मंडावणधाई मंदर . मंसुय मंसोवचिय मग्गण मगर मघमघेत मच्चुसाहिय मज्जपाणय मज्जणघर लाभांश १/२/१२ मूइय भस्म, भाष पक्षी १/१७/१४ मूढदिसाअ भंवरा १/१/३३ मूसियार १/१/१०६ मेज्ज वृषिका, आसन १/८/१०४ सेहरा १/८/७२ मेढी रूखा १/५/१०७ बुभुक्षा १/१/३४ मोल्ल फण १/८/७२ मोहणसील टिफिन १/२/३७ मोहणधर मुकुट १/१/२४ रंधतिया १/१४/३१ रज्जसंका चित्रपट दिखा आजीविका करने वाला १/१/७६ रडिय पुलिया १/१/१५८ रत्तंसुय मंडनधात्री १/१६/३६ रत्था मेरुपर्वत १/१/१४ रमिय दाढ़ी १/६/१६ रयणुच्चय मांसल १/१८/६ रयणकरंडण अन्वयधर्म का पर्यालोचनपूर्वक निर्णय १/१/१६ रययकूट हिसंक जलचर प्राणी १/४/४ रसिय महक से उठने वाली १/१/१८ रहाणी मृत्यु से होने वाली १/१/१११ रायसामण्ण मादक पेय १/१६/२५ रायावगारि स्नानगृह १/१/६५ रिभिय चिकना १/१/१८ रिट्ठ मानसिक तादात्म्य स्थापित करना १/१/५३ रिट्ठ मनोहर १/१/१ रिग मणिनिर्मित पीठिका १/८/४० रुंटणा (दे.) वीर्यवर्धक १/१/२४ रुरु रश्मि ११/८६ रूय माला १/१/२४ रोयमाण पहलवान १/१/७६ लंख मल्लिका, मोगरा १/८/३० लंबेत्ता मच्छर १/१/१७ लंबोदर रींछ के बाल १/१८/३५ लक्खारस मूंछ १/६/१६ लज्जू दूसरों के छलने की बुद्धि १/२/११ लद्धपच्चय सुरक्षा के लिए निर्मित उर्ध्व प्रदेश १/१/१५८ लहुसय लतामण्डप १/१/६ लासग उड़द १/५/७५ लिंड (दे.) हरिण १/१/१७८ लिंब देदीप्यमान १/१/२४ लीह अंगूठी १/१/२४ लुग्ग केश १/२/११ लुणइ मस्तक १/१/२८ लूह निःशब्द १/१८/३६ १/१/१६० स्वर्णकार १/१४/५ मेय, पल्य आदि द्वारा १/८/६६ मापे जाने वाले पदार्थ खला निकालते समय धान्य के १/१/१६ मध्य रोपा जाने वाला स्तम्भ मूल्य १/१/१४६ कामप्रिय १/१/१५८ १/३/१६ भोजन पकाने वाली १/७/२६ राज्य सदृश मूल्य वाली १/८/६२ रुदनपूर्ण १/१/१५६ लाल रंग की मशहरी १/१/१८ गली १/१/७६ रति १/६/३६ रत्नराशि १/१/२६ रत्नमंजूषा १/१/१७ रजतशिखर १/१/१८ मेघ का शब्द १/१/३३ रथसेना १/१/३३ राजा के स्वामित्व वाला १/१/१११ राजद्रोही १/१८/२१ स्वरसम्पन्न १/१/१६ कौआ १/१/१५६ रीठा १/१७/१४ रल विशेष १/१/३३ रुदन १/१८/१० १/१/२४ कपास १/१/१८ सशब्द अश्रुमोचन करना १/८/१० बांस पर चढ़कर खेलने वाला १/१/७६ लंगर डालकर १/८/८१ गणेश १/१/१५६ लाक्षारस १/१/३३ अनाचार सेवन में लज्जा करने वाला १/१/१६५ विश्वसनीय १/१/१६ साधारण १/२/३५ रास रचाने वाला १/१/७६ लीद १/१/१५६ भेड़ शिशु की ऊन से निर्मित चादर १/१/१८ लकीर १/८/१५४ रोगी १/७/६ काटना १/७/१५ पौंछना १/२/१४ मट्ठ मणसीकरेमाण मणामा मणिपेढ़िय मयणिज्ज मरिचि मल्ल मृग मल्ल मल्लिय मसग माइय माउआ (दे.) माया माल मालुयाकच्छ मास मिय मिसिमिसंत (दे.) मुद्दिया मुद्धय मुद्धा Jain Education Intemational Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ लेझ वग्गू सज्ज बसट्ट सर्प नायाधम्मकहाओ ४४३ चाटने योग्य १/१७/३६ संगेल्ली (दे.) लेसणी श्लेषणी (विद्या का एक प्रकार) १/१६/१८५ संछूढ़ लोमहत्थग प्रमार्जनी १/८/५६ संजत्ता लोट्टय हाथी का बच्चा १/१/१५७ संझब्भ बंदणघट मंगलकलश १/१/७६ संडासग वग्गण कूदना १/१/२४ संतसार वाणी १/१/४४ संथवय वग्याड़िया ठहाका मारकर हंसना १/८/१४६ संथारग वच्चंसी सौभाग्य आदि गुणों से युक्त १/१/४ संदमाणी वल्लकी सात तंत्रों से बजने वाली वीणा १/१७/२२ संबाहणा वणलया अशोकलता १/१/२५ संवच्छरपडिलेहण वण्णगविलेवण चन्दन का लेप १/१/२४ संसारेइ वयंस सखा १/८/१८४ वराह सूअर १/१/१५६ सज्ज वलिय बलखाती हुई १/१/१७ सज्ज कामना से आर्त्त १/१/१५४ सज्जपुढ़वी यसण कष्ट १/२/११ सज्जीव वसण वृषण, अण्डकोश १/२/७६ सज्झाय वाबाह प्रकृष्ट बाधा १/४/११ सणिच्छर वाल वन्य जन्तु १/२/४ सत्तुस्सेह वाल १/१/१७ सत्थ द्विगुणित १/६/४१ सत्थरय विग भेड़िया १/१/१७८ सद्दल विच्छ्य वृश्चिक, बिच्छू १/८/७२ समिय विडंक छज्जा १/१/१८ समुल्लाव विप्पओग वियोग १/१/१०६ समुल्लावए विप्पवसिय प्रवासित १/२/११ सम्मय विब्बोयण (दे.) उपधान (तकिया) १/१/१८ सयवत्त वियडी तराई का जंगल १/१/१५८ सर विराल बिडाल १/१/१७८ सर विराहग विराधक, स्वीकृत साधना का १/११/२ सर अतिक्रमण करने वाला सरभ विसप्पमाण विकस्वर १/१/१६ सरय वीयणग जिसके मध्य में दण्ड हो, १/१/१०६ सरीसिव वह चर्ममय पंखा सस वेयडगिरि हिमालय, वैताढ्य पर्वत १/१/१५६ सस्स वेलवंग विदूषक १/१/७६ सस्सिरीय वेसागार गणिकागृह १/२/११ वोद्दहजण (दे.) तरुणजन १/१६/१६३ साडोल्लए संख सांख्यदर्शन १/५/५५ सामलया संखित्तविउलतेओलेस्स विपुल तेजोलेश्या को १/१/४ सालभंजिय अन्तर्लीन रखने वाला सालिअक्ख संखोभिज्जमाण संक्षुब्ध १/६/१० सालिंगणवट्टिय संगार प्रतिज्ञा १/३/७ सावएज्ज संघाइम अनेक अवयवों के संघात से निष्पन्न १/१३/२० विउण हाथ थामना १/३/१६ संक्षिप्त १/१७/१३ सांयात्रिक १/८/६४ सन्ध्याभ्र १/१/१६५ अंगुष्ठ व अंगुलि के पकड़ का भाग- १/८/१३० श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्य १/१/६१ प्रशंसक १/१६/१८५ बिछौना १/१/२४ पालकी १/५/१५ मर्दन १/१/२४ जन्मदिन १/८/६० दूर तक सरकाना १/३/२१ सलइ का वृक्ष १/१/३३ साजी १/१२/१६ सन्नद्ध १/८/१६३ ताजा मिट्टी १/५/५५ प्रत्यञ्चा सहित १/५/६१ स्वाध्याय १/१४/४१ शनि नक्षत्र १/१/५६ सात हाथ ऊंचाई वाले १/१/६ शस्त्र १/१/५३ शय्या १/१३/२४ दूब १/१/३३ गेहूं का आटा १/८/६६ वार्तालाप १/२/१२ सम्मत १/१/१७ नीलकमल १/१/८६ १/१/१२६ बाण १/१४/७५ सरोवर १/१/१५८ अष्टापद १/१/२५ सरक १/१८/५६ १/१/१५६ खरगोश १/१/३३ फसल १/८/२८ श्रीसम्पन्न १/१/१६ वक्रता १/२/११ उत्तरीय वस्त्र १/१८/८ प्रियङ्गलता १/१७/१४ पुतलियां १/१/१८ शालिकण '१/७/७ शरीर प्रमाण उपधान (मसनद) १/१/१८ स्वाधीनतापूर्वक व्यय किए १/१/६१ जाने वाला धन लोरी स्वर सांप साइ Jain Education Intemational Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ ४४४ नायाधम्मकहाओ सावय तोता सावय सवहसाविय सासग साहरित्ता साहसिय सिंग सिंगारागार सिंघाड़ग सिंघाण सिभिय सिद्धत्थय सिलिंघ इन्द्रगोप श्मशान सुकुमार शूली पर चढ़ा हुआ पसीना दलदल रोगशमन का एक प्रयोग सौगन्धिक कमल कटिसूत्र खेदखिन्न होना पुकारता हुआ अत्यधिक जंगली जानवर श्रावक सौगंध दिलाने की क्रिया रांगा संहृत कर बिना सोचे कार्य करने वाला श्रृंग श्रृंगारघर दो राहों वाला (दोराहा) नाक का मैल श्लेष्म सरसों कुकुरमुत्ता पर्वत का उपरि भाग जलकण शिष्य सिर, मस्तक सिंहनिष्कीड़ित तप सुराख वीर्य शुक्लध्यान कुत्ता धागा सूत्र रूप में अतीव कोमल बहुमूल्य सिहर १/१/१५६ सुय १/५/१२५ सुरगोप १/१/४४ सुसाण १/१/३३ सूमाल १/४/१० सूलाइग १/२/११ सेय १/६/२० सेय १/१/१७ सेयण १/१/३३ सोगंधिय १/१/१०६ सोणिसुत्तरा १/१/१७ सोयमाण १/१/२४ हक्कारेमाण (दे.) १/१/३३ हडाहड (दे.) १/१/१५८ हत्थ १/१/१५६ हय १/१/२१३ हयाणी १/१/१५३ हरिरेषु १/८/२० हरियालिय १/१/२६ हव्व १/१/१०६ हिमवंत १/१/१४३ हिय १/१/१७८ हीलणिज्ज १/३/१० १/१/८५ हुडुवक १/१/५ हुयवह १/१/२४ हेरुयाल (दे.) १/१/२४ १/८/२० १/२/११ १/१/१५ १/६/२७ १/१/१०५ १/१/१६० १/१३/३० १/१३/१७ १/१७/१४ १/८/१० १/१८/४५ १/१६/२६ १/१/१६० १/१/३३ १/१/३३ १/१७/१८ १/१/२७ १/१/५७ १/१/१४ १/१/५७ १/३/२४ सीयर सीस सीर सीहनिक्कीलिय अश्व अश्वसेना नीलरजकण सुइ सुक्क सुक्क सुणग शीघ्र हिमालयपर्वत हृदय गुरु या कुल की न्यूनता बताना वाद्य विशेष आग कुपित करना सुत्त सुत्तओ सुमउय सुमहग्ध १/१/३३ १/१/१५६ १/८/१४६ Jain Education Intemational Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ विशेष नामानुक्रमणिका अग्निमाणव अग्निशिख अचल अचला अदीन-शत्रु अनंगसेना अनिरुद्ध अप्सरा अभयकुमार अभिचन्द्र अमरपति अमरसेन अमितगति अमितवाहन अरिष्टनेमि अर्चिमाली राजा गाथापति-पुत्री राजा, युवराज गणिका यादव-राजकुमार गाथापति-पुत्री राजकुमार राजा राजकुमार (ज्ञातवंशी) राजकुमार (ज्ञातवंशी) कनकध्वज कनकप्रभा कनकरथ कनका कपिल कमल कमलप्रभा . कमलश्री कमला कर्ण कलाद कंडरीक काल कालश्री काली कीचक कृप कृष्ण कृष्णराजि कृष्णा कुंती कुंभ केतुमती कोणिक क्रमा गज गांगेय गोपालिका घनविद्युत २/४/८ २/३/११ १/८/१० २/६/२ १/८/२७, १/१२/२ १/१६/१४१ १/१६/१८५ २/६/२ १/१/१६ १/८/१० १/८/२२३ १/८/२२३ २/३/११ २/४/८ १/५/१० २/८/२, २/७/२ १/१६/१४२ १/८/६५ २/३/७ २/३/७ २/३४७ २/५/२ १/१६/१४२ २/७/५ २/६/२ १/६/३, २/१/१३ २/३/६ २/१०/६ १/५/६, १/१६/१३२ १/७/५ २/५/२ २/५/२ १/१६/१८५ १/१६/१८५ २/५/२ १/१५/५, १/१७/३ युवराज गाथापति-पुत्री राजा गाथापति-पुत्री वासुदेव (धा. ख.) गाथापति गाथापति-पुत्री गाथापति-पत्नी गाथापति-पुत्री राजा मूषिकारदारक राजकुमार गाथापति गाथापत्नी गाथापति-पुत्री राजा आचार्य वासुदेव गाथापति-पुत्री गाथापति-पुत्री रानी राजा गाथापति-पुत्री राजा गाथापति-पुत्री यादव राजकुमार राजकुमार आर्या गाथापति-पुत्री दक्षिण दिग्वर्ती इन्द्र १/१४/३५ २/५/२ १/१४/२ २/५/२ १/१६/२६६ २/५/५ २/५/२/१ २/५/५ २/५/५ १/१६/१४५ १/१४/५ १/१६/७ २/१/१६ २/१/१७ २/१/१८ १/१६/१४५ १/१६/१४२ १/५/६,१/१६/१३२ २/१०/२ २/१०/२ १/१६/१८४ १/८/२८ अर्जुन तीर्थकर गाथापति-पुत्री राजकुमार (पाण्डव) श्रमणोपासक गाथापति गाथापति-पत्नी गाथापति-पुत्री गाथापति-पुत्री राजकुमार गाथापति-पुत्री गाथापति-पुत्री गणधर गाथापति-पुत्री इन्द्र राजा सार्थवाह की पुत्रवधू गाथापति-पुत्री गाथापति-पुत्री यादव-राजकुमार नारद गाथापति-पुत्री राजा अर्हन्नक अल अलश्री अलादेवी अवतंसा अश्वत्थामा आतपा अंजू इन्द्रभूति गौतम इन्द्रा ईशान उग्रसेन उज्झिता उत्तमा उत्पला उन्मुक्त कच्छुल्लनारद केतुमति कनककेतु १/१/३ घोष चन्द्र चन्द्रच्छाय चन्द्रप्रभ चन्द्रप्रभा चन्द्रश्री चिलात २/१६/१८५ १/१६/१४२ १/१६/६४ २/३/६ २/३/११ २/८/५ १/८/२७ २/८/५ २/८/२ २/८/५ १/१७/६ राजा गाथापति गाथापति-पुत्री गाथापत्नी दासचेट Jain Education Intemational Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ चुलनी चेलणा चोक्षा जम्बू जयद्रथ जरासन्ध जलकान्त जलप्रभ जितशत्रु जिनदत्त जिनदत्त-पुत्र जिनपालित जिनरक्षित तारका तेतलिपुत्र थावच्चा थावच्चापुत्र दमघोष दमदन्त दर्दुरदेव दारुक ४४६ रानी १/१६/१२२ नकुल रानी २/१/६ नन्द परिवाजिका १/८/१३६ नन्द अणगार १/१/६ नन्दादेवी राजा १/१६/१४२ नन्दिमित्र राजा १४१६/१४५ नवमिका दक्षिण दिग्वर्ती इन्द्र २/३/११ नागश्री २/४/८ निरंभा राजा १/८/२७, १/१५/२, निषध १/१२/२, २/१/१५ निसुभा सार्थवाह १/१६/३८ पद्य सार्थवाह-पुत्र १/३/६ पद्मनाभ सार्थवाह-पुत्र १/६/३ पद्मा सार्थवाह-पुत्र १/६/३ पद्मावती गाथापति-पुत्री २/५/२ अमात्य १/१४/४ पाण्डु गाथापत्नी १/५/७ पाण्डुसेन गाथापति का पुत्र १/५/८ पार्श्व राजा १/१६/१४५ पुण्डरीक राजा १/१६/१४५ पुष्पचूला देव १/१३/४३ सारथी १/१६/२४३ पुष्पवती यादव-राजकुमार १/१६/१८५ पूरण राजकुमार १/१६/१४२ पूर्ण सार्थवाहपुत्र १/२/२३ पूर्णा गणिका १/३/८ पोट्टिला राजकुमार १/१६/१४५ पंथक राजा १/१६/१२१ पंथक राजकुमारी १/१६/१२५ प्रतिबुद्धि गाथापति-पुत्री २/८/२ प्रतीप सार्थवाह-पुत्र १/१७/४ प्रद्युम्न सार्थवाह पुत्र १/७/४, १/१७/४ प्रभंकरा सार्थवाह पुत्र १/७/४, १/१७/४ प्रभंजन सार्थवाह पुत्र १/७/४, १/१७/४ प्रभावती सार्थवाह पुत्र १/७/४, १/१७/४ बन्धुमती सार्थवाह १/२/७, १/७/३, बल १/१५/७, १/१७/३, बलदेव राजा १/१६/१४५ बलभद्र राजा १/८/१० बलमित्र स्थविर १/१६/११ बली १/१६/१२ बहुपुत्रिका गाथापत्नी २/१०/६ बहुरूपा रानी १/१/१७, १/८/५, १/८/६०, भद्रा १/१/१३८, १/१२/२ युवराज १/१६/१२२ नायाधम्मकहाओ राजकुमार (पाण्डव) १/१६/१४२ राजकुमार (ज्ञातवंशी) १/८/२२३ मणिकार १/१३/८ रानी १/१/१५ राजकुमार (ज्ञातवंशी) १/८/२२३ गाथापति-पुत्री २/५/२,२/६/२ ब्राह्मणी १/१६/५ गाथापति-पुत्र २/२/२ यादव राजकुमार १/१६/१८५ गाथापति-पुत्री २/२/२ गाथापति २/६/६ राजा १/१६/१E२ गाथापति-पुत्री २/५२, २/६/२ रानी १/५/४२, १/८/४५, १/१४/३, १/१६/६ राजा १/१६/१४२ राजकुमार १४१६/३०६ तीर्थंकर २/१/१६ युवराज १/१६/७ आर्या २/१/२६, २/१/५२ २/६/५, २/१०/६ गाथापति-पुत्री २/५/२ राजा १/८/१० २/३/११ गाथापति-पुत्री २/५/२ मूषिकारदारक की पुत्री १/१४/७ दासचेट १/२/E मंत्री १/५/४३ राजा १/८/२७ यादव-राजकुमार १/१६/१८५ राजकुमार १/५/६, १/१६/१६२ गाथापति-पुत्री २/७/२,२/८/२ इन्द्र २/४/८ १/८/२८ आर्या १/८/२३२ राजा २/८/५ महान वीर १/५/६, १/१६/१३२ राजकुमार १/८/६ राजकुमार (ज्ञातवंशी) १/८/२२३ वैरोचनेन्द्र २/१/५ गाथापति-पुत्री २/५/२ गाथापति-पुत्री २/५/२ सार्थवाही १/२/८, १/७/३, १/६/३, १/१४/६, १/१६/३२, १/१६/३६, १/१७/३ दुर्मुख दुर्योधन देवदत्त देवदत्ता द्रोण द्रुपद द्रोपदी दोषीनाभा धन धनगोप धनदेव धनपाल धनरक्षित धन्य रानी धर धरण मुनि धर्मघोष धर्मरुचि धर्मा धारिणी धृष्टद्युम्न Jain Education Intemational Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ परिशिष्ट-५ नायाधम्मकहाओ भानुमित्र भिसग भीमसेन भुजगा भुजगावती भूतश्री भूतानन्द भेसक भोगवती मदना मल्ली मल्लीदत्त महाकच्छा महाकाल महाघोष महापद्म महाबल महावीर महासेन महासेन माकंदी मुनिसुव्रत मेघः मेघकुमार मेघश्री मेघा मंडुक्क यक्षश्री युधिष्ठिर रक्षिता रजनीदेवी रतिप्रिया रत्नश्री राजकुमार (ज्ञातवंशी) १/८/२२३ रूपकांता गणधर १/८/२३१ रूपकावती राजकुमार (पाण्डव) १/१६/१४२ रूपप्रभा गाथापति-पुत्री २/५/२ रूपांशा गाथापति-पुत्री २/५/२ रूपा ब्राह्मणी १/१६/५ रोहिणी उत्तर दिग्वर्ती इन्द्र २/४/५ रोहिणी राजा १/१६/१४५ रंभा सार्थवाह की पुत्रवधू १/७/५ वज्रसेना गाथापति-पुत्री २/२/२ वसु तीर्थकर १/८/३६ वसुगुप्ता राजकुमार १/८/११५ वसुन्धरा गाथापति-पुत्री २/५/२ वसुमती २/६/१ वसुमित्रा २/४/८ विजय राजा १/१६/५ विजया राजकुमार १/८/६ विदुर तीर्थकर १/१/६४ विद्युत् बलवान् राजा १/५/६, १/१६/१३२ विद्युत देवी राजकुमार (ज्ञातवंशी) १/८/२२३ विद्युतश्री सार्थवाह १/६/३ विमला तीर्थकर (धा. ख.) १/१६/२७० विशिष्ट गाधापति २/१/६२ वीरसेन राजकुमार १/१/८१ वेणुदाली गाथापत्नी २/१/६२ वेणुदेव गाथापति-पुत्री २/१/६२ वेलम्ब युवराज १/५/४२ वैश्रमण ब्राह्मणी १/१६/५ शकुनि राजकुमार (पाण्डव) १/१६/१४२ शक्र सार्थवाह की पुत्रवधू १/७/५ शल्य गाथापति-पुत्री २/१/६० शाम्ब गाथापति-पुत्री २/५/२ शिवा गाथापत्नी २/१/६० शिशुपाल गाथापति २/१/६० गाथापति २/१/५० शंभश्री गाथापति-पुत्री २/१/५० शुभादेवी गाथापत्नी २/१/५० गाथापति २/१०/६ शैलक गाथापति-पुत्री २/१०/२ शैलक गाथापति-पुत्री २/१०/२ शंख राजा १/८/२७, १/१६/१४५ श्रेणिक रानी १/५/६ सती गाथापति-पुत्री २/५/२ सतेरा गाथापति २/४/५ समुद्रविजय गाथापत्नी २/४/५ सरस्वती गाथापति-पुत्री २/४/५ गाथापति-पुत्री २/४/७ गाथापति-पुत्री २/४/७ गाथापति-पुत्री २/४/७ गाथापति-पुत्री २/४/५ सार्थवाह की पुत्र-वधू १/७/५ गाथापति-पुत्री २/५/२ गाथापति-पुत्री २/२/२ गाथापति-पुत्री २/५/२ राजा, गाथापति-पुत्री १/८/१०, २/२०/२ गाथापति-पुत्री २/१०/२ गाथापति-पुत्री २/१०/२ गाथापति-पुत्री २/५/२ गाथापति-पुत्री २/१०/२ तस्कर, चोरसेनापति १२/११, १/१७/१६ गाथापत्नी २/६/६ राजकुमार १/१६/१४५ गाथापति २/१/६१ गाथापति-पुत्री २/१/६१ गाथापत्नी २/१/६१ गाथापति-पुत्री २/५/२ इन्द्र २/४/८ वीरपुरुष १/१६/१३२ २/४/८ २/३/१० इन्द्र २/३/११ राजा, देव १/८/१०, १/८/१६४ राजकुमार १/१६/१४२ इन्द्र २/६/६ राजा १/१६/१४५ दुर्दान्त योद्धा १/१६/१३२ गाथापति-पुत्री २/६/२ राजा १/१६/१४५ गाथापति २/१/७ गाथापत्नी २/१/७ गाथापति-पुत्री २/१/७ परिव्राजक १/५/५२ राजा १/५/४२ यक्ष १/६/२८ राजा १/८/१०१ राजा १/१/१४, १/१३/७, २/१/E गाथापति-पुत्री २/६/२ गाथापति-पुत्री २/३/E १/५/६, १/१६/१३२ गाथापति-पुत्री २/५/२ रयण शुभ राजी राजीदेवी राजीश्री १० शुक रामरक्षिता रामा रुक्मि रुक्मिणी रूपवती रूपक रूपकश्री Jain Education Intemational Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ सहदेव सागर सागरदत्त सागरदत्तपुत्र सारण सुसुमा सुकुमालिका सुघोषा सुदर्शन सुदर्शना सुधर्मा सुनाभ सुबाहु सुबुद्धि सुभगा सुमित्र सुमुख सुरूपा सुव्रता सुस्थित सुस्वरा सूर्य सूर्यप्रभ सूर्यप्रभा सूर्यश्री सेल्ल सोम सोमदत्त सोमभूति सौदामिनी स्फुटा हरि हरिस्वह ही नगर - नगरी अंग जनपद अरक्षुरी अवस्कंका अहिच्छत्रा आमलकल्पा काशी कांपिल्यपुर कुरु जनपद राजकुमार ( पाण्डव), राजा सार्थवाह पुत्र सार्थवाह सार्थवाह-पुत्र यादव- राजकुमार सार्थवाह-पुत्री सार्थवाह-पुत्री गाथापति पुत्री गाथापति गाथापति पुत्री गणधर राजकुमार राजकुमारी मंत्री गाथापति -पुत्री राजकुमार (ज्ञातवंशी) यादव- राजकुमार गाथापति पुत्री आर्या देव गाथापति पुत्री इन्द्र गाथापति गाथापति पुत्री गाथापत्नी ब्राह्मण ब्राह्मण ब्राह्मण गाथापति पुत्री गाथापति पुत्री इन्द्र इन्द्र गावापति पुत्री ४४८ १/८/६४ २/७/५ १/१६/१६१ 9/98/8 २/१/१६, ५० १/८/१०१ १/८/१३८, १/१६ / १२० १/८/११४ १/१६/१४२, कौडिन्य १/१६/१४५ १/१६/४० चंपा १/१६/३२ १/३/६ १/१६/१८५ चमरचंचा १/१७/५ तेतलिपुर १/१६/३४ द्वारवती २/५/२ १/५/५१ २/५/२ १/१/४, २/१/३ १/१६/१६४ १/८/६० १/८/४५, १/१२/२ कोशल जनपद २/४/७, २/५/२ 9/98/80 १/१६/२३७ नागपुर पांचाल २/५/२ मथुरा पाण्डुमथुरा पुष्कलावती विजय पुंडरीकिनी बलिचा भूतानन्दा १/८/२२३ १/१६/१८५ राजगृह १/१६/४ १/१६/४ १/१६/४ मिथिला वाराणसी २/५/२ विराटनगर २/७/५ वीतशोका २/७/५ शुक्तिमती २/७/२ शैलकपुर २/७/५ श्रावस्ती सलिलावती विजय साकेत सौगन्धिका सौराष्ट हस्तिकल्प २/३/६ २/५/२ हस्तिनापुर २/३/११ हस्तिशीर्ष २/४/८ २/५/२ पर्वतनाम अंजनगिरि एकशील चारु निषध नीलवंत पुण्डरीक मंदर मलय रैवतक नायाधम्मकहाओ १/१६/ १४५ १/८/४३ १/१/१, १/१/५, १/३/२, १/८/६४, १/६/२, १/१५/२, १/१६/२, १/१६/१४५, १/१६ / २६८ २/१/१०, ४८,५४ १/१४/२ १/५/२, १/१६/१३२ २/५/५ १/८/१३८, १/१६/ १२० १/१६/३०३ १/१६/२ 9/9€/3 २/२/५ २/४/५ १/१६/ १४५ १/८/२८ १/१/१२, १/२/२, १/६/२, १/७/२, १/१३/२, १/१०/२, १/११/२, १/१२/२, १/१३/७, १/१६/ १४५, १/१८/२ १/४/२, १/८/१०१ १/१६/१४५ १/८/३ १/१६/१४५ १/५/४२ १/८/६० १/८/२ १/८/४३, २/६/१ १/५/५० १/१६/३१८ १/१६/३२१ १/८/११४, १/१६/१४२ १/१६/१४५, १/१७/२ १/८/ ७२, १/१६/१४० १/१६/२ १/८/८, १/८/२६ १/८/२, १/१६/१८५ १/१६/२ १/५/८३ १/१/१४, १/५/३५, १/८/२, १/१४/५६, १/१६/ १६२ १/१/१४, १/५/६५, १/१४/५६, १/१६/ १६२ १२/५/४ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नायाधम्मकहाओ ४४९ परिशिष्ट-५ सरपंक्ति सरसरपंक्ति सागर विन्ध्य विपुल पर्वत वैतादय वैभारगिरि सम्मेद शत्रुञ्जय सुखावह १/१/१५६ १/१/२०४ १/१/६ १/१/६७ १/८/२३४ १/१६/३२३ १/८/२ १/१/१४, १/५/६५,१/१४/५६,१/१६/१६२ १/१/१५८, १/२/११, १/१३/१५ १/१/१५८, १/२/११, १/६/२०, १/१३/१५ १/१/२६, १/५/६, १/८/१५४, १/६/२०, १/१६/४६ १/१६/२ १/८/२ सीता सीतोदा हिमवत् देश : राजधानी उद्यान: वन आम्रशालवन आराम इन्द्रकुम्भ उद्यान अंग इक्ष्वाकु काशी कुणाल २/१/१५, ५४ १/१/६७, १/२/११, १/५/७२ १/८/४ १/१/६७, १/२/४, १/३/३, १/५/४, १/७/२, १/८/४, १/१४/२, १/१६/३, १/१६/४, २/५/५, २/६/१, २/८/१ २/३/७ १/१/१३, १/२/३, १/१३/२, १/१८/५८, २/१/२, २/२/४, २/३/४ राजधानी चम्पा अयोध्या वाराणसी श्रावस्ती हस्तिनापुर कांपिल्यपुर पंचाल काममहावन गुणशीलक चन्द्रावतंसक जीर्णोद्यान नन्दनवन नलिनीवन नीलाशोक प्रमदवन भंडीवतंसक उद्यान मालुकाकच्छ सहस्राम्रवन सुभूमिभाग १/२/४ १/३/३, १/५/४ १/१६/४ १/५/५० १/८/११६, १/१४/२ २/८/५ १/२/११, १/३/४, १/४/५ १/८/२६६, १/१६/३१७, २/५/५ १/१/३,१३/३, १/५/४२, १/७/२,४१६/३ । भवन : गृह : विमान अलावतंसक २/३/५ अट्टणशाला १/१/२४ आलिगृह १/३/१६, १/६/२० आसनगृह १/३/१६ उपस्थानशाला १/१/२२, १/५/८८, १८/१६८, १/१६/१३४, २/१/२१ कदलीगृह १/३/१६ कमलावतंसक विमान २/५/५ कालीवतंसक (काल्यवतंसक) २/१/१० कुसुमगृह १/३/१६, १/६/२० कृष्णावतंसक २/१०/५ गर्भगृह १/८/४० चंद्रप्रभ विमान २/८/५ चारक (कारागार) १/१/७६, १/२/३३ चारकशाला १/२/३३ जयन्तविमान जालकगृह १/३/३६, १/८/४० तस्करगृह १/२/११ तस्करस्थान १/२/११ देवकुल १/५/१४ धूतगृह (बूतखलक) १/२/११, १/१८/१६ नागगृह १/२/११, १/८/४४ पानागार १/२/११ पौषधशाला १/१/५३, १/१३/१४, १/१६/२० प्रपा १/२/११, १/५/७२, १/१८/१६ प्रसाधनगृह १/३/१६ प्रासाद १/१/६३, १/५/१४, १/८/७, १/१४/८ प्रासादावतंसक १/१/८६ जलाशय कूप गंगा महानदी गुंजालिका द्रह दीर्घिका नंदा (पुष्करिणी) पुष्करिणी भग्नकूप मृतगंगातीर लवणसमुद्र १/८/२६ १/८/१५४, १/६/१०, १/१६/२०० १/१/१८, १/४/३, १/८/७०, १/१६/२८१ १/१/१५८, १/२/११, १/१३/१५ १/१/१६१, १/८/१५४, १/१६/२० १/१/१५८, १/२/११, १/१३/१५ १/३/६, १/१३/१५ १/२/११, १/३/६, १/१३/३२ १/२/५ १/४/३ १/८/२, १/६/४, १/१६/२०४, १/१७/५ १/१/१५८, १/२/११, १/६/२०, १/१३/१५ १/८/२० १/१/१५८, १/२/११, १/८/१५४, १/१६/२०० वापी क्षीरोदक समुद्र सर Jain Education Intemational Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ ४५० नायाधम्मकहाओ प्रेक्षागृह भवन १/३/१६ १/१/२६, १/२/७, १/३/८, १/८/८६, १/१६/१६६, १/१६/१३, २/१/१०, २/२/५, २/३/५, २/४/५ १/१/२७ १/२/११ १/१/२४, १/१६/४० १/३/१६, १/८/४० १/२/११, १/५/५, १/६/२८ १/५/११०, १/१६/२२ २/१/५४ २/४/५ २/४/५ लतागृह लयन वेश्यागार/वेश्यागृह वैश्रमणगृह शाखागृह शुंभावतंसक भवन शून्यगृह श्रीगह भवनावतंसक भूतगृह मज्जनगृह मोहनगृह (रतिघर) यक्षदेवगृह/यक्षायतन यानशाला राजीवतंसक (राजावतंसक) रुचकावतंसक रूपकावतंसक १/३/१६ १/२/११ १/२/११, १/१८/१६ १/२/१४ १/३/१६ २/२/५ १/२/११ १/१/१२२, १/१६/२६२ १/२/११, १/५/१२, १/८/७६, १/१३/३, १/१६/१३६, १/१८/१६, २/६/५, २/१०५ २/७/५ १/८/७६ १/३/E सभा सूरप्रभ (सूर्य विमान) सौधर्मावतंसक स्थूणामंडप Jain Education Intemational Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-६ सन्दर्भ ग्रन्थ-सूचि प्रकाशक समय क्र.सं. पुस्तक १. अंगसुत्ताणि भा. ३ (नायाधम्मकहाओ) जै.वि.भा., लाडनूं सन् १९८४ अ.भा.श्वे. जै. समिति वि. २०२० * २. अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका ३. अभिज्ञानशाकुन्तलम् अभिधान चिन्तामणि ५. अर्धमागधीकोष ६. आप्टे ७. आयारो लेखक/संपादक वा.प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ घासीलालजी कालिदास आचार्य हेमचन्द्र रत्नचन्द्रजी वी.एस. आप्टे वा.प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल रामजितसिंह विश्वेश्वर दयालु वैद्य भद्रबाहु स्वामी वा.प्र. आचार्य तुलसी सं. आचार्य महाप्रज्ञ जिनदासगणि महत्तर चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी मोतीलाल बनारसीदास गोपाल नारायण एण्ड कम्पनी (बोम्बे) जै.वि.भा., लाडनूं सन् १६६६ सन् १६८८ सन् १६२४ वि. २०३१ ८. आयुर्वेदीय शब्दकोष, विश्वकोष इटावा वि. १६६४ ६. आवश्यक नियुक्ति १०. उत्तरज्झयणाणि भेरुलाल कन्हैयालाल धा. ट्रस्ट, बम्बई जै.वि.भा.सं., लाडनूं वि. २०३८ सन् १९६२-६३ ११. उत्तराध्ययन चूर्णि वि.सं. १६८६ १२. उत्तराध्ययन बृहवृत्ति १३. ओघनियुक्ति ओवाइयं १५. औपपातिकसूत्रसवृत्ति १६. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति १७. ज्योतिष प्रवेशिका ज्ञातावृत्ति (ज्ञाताधर्मकथांग) १६. ठाणं चन्द्रकुलीन शान्तिसूरि भद्रबाहु टी. द्रोणाचार्य चन्द्रकुलीन श्री अभयदेवसूरि शान्तिचन्द्रसूरि मुनि श्रीचन्द्र 'कमल' अभयदेवसूरि वा.प्र.आ. तुलसी सं. मुनि नथमल भट्टअकलंकदेव आचार्य यतिवृषभ वा.प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वे. तेरा., इंदौर देवचन्दलालभाई आगमोदय समिति आगमोदय समिति, महेसाणा पं. भूरालाल कालिदास देवचन्द्र लालभाई आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति जै.वि.भा., लाडनूं वि. १६७२ वि. १६७५ वि. १६७५ वि. सं. १६६४ वि. १६७६ सन् १६७५ सन् १६५१ वि. २०३३ २० तत्त्वार्थ वार्तिक २१. तिलोयपण्णत्ति २२. दसवेआलियं भा. ज्ञानपीठ, काशी श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा जै.वि.भा., लाडनूं सन् १६५३ वि.सं. २०४० सन् १६७४ Jain Education Intemational Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट- ६ क्र.सं. पुस्तक २३. दसवेआलियं अगस्त्यचूर्णि २४. दसवेलियं जिनदासचूर्णि देशीनाममाला २५. २६. धवला २७. नंदी २८. नदी चूर्णि (हरिभद्रीयावृत्ति सहित) नंदी मलयगिरीया वृत्ति २६. ३०. निशीथ चूर्णि ३१. निशीथ भाष्य ३२. ३३. ३४. प्रवचन सारोद्धार पातंजल योगदर्शन भगवई (भाष्य ) ३५. भगवती ३६. भागवत पुराण विशेषावश्यक भाष्य ३८. ३६. वैदिक संस्कृति का विकास ४०. व्यवहार भाष्य ४९. शब्दकल्पद्रुम ४२. श्रीमद्भगवद्गीता ४३. संस्कृत विश्वकोष ४४. संस्कृत शब्दकोष ४५. समवाओ ४६. सूयगडो ४७. सूत्रकृतांग (चू.) ४८. सूत्रकृतांग | ४६. सूत्रकृतांग || ५०. स्थानांगवृत्ति ५१. कादम्बिनी ( जू.) ५२. A Consise Ety. San. Dictionary II लेखक/संपादक ऋषभदेव केशरीमल जिनदासगणि महत्तर हेमचन्द्रसूरि सं. हीरालाल जैन ४५२ वा. प्र. आ. महाप्रज्ञ जिनदासगणि मलयगिरी सं. अमरमुनि निशीथ चूर्णिवत् नेमीचन्द्रसूरि रामशंकर भट्टाचार्य वा.प्र. गणाधिपति तुलसी सं. आचार्य महाप्रज्ञ अभवदेवसूरि जगदीशलाल शास्त्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण वा. प्र. आ. तु. प्रधान सं. आ.म. सं. स. कुसुमप्रज्ञा राजाराधाकान्तदेव वेदव्यास महेश्वरदास वा.प्र. आचार्य तुलसी सं. यु. महाप्रज्ञ 32 आदिनाथ जैनश्रमण शीलांकसूरि अभयदेवसूरि प्रकाशक श्री ऋषभदेव केशरीमल श्वे. सभा इन्दौर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टी जै. वि. भा. संस्थान ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वे. संस्था, रतलाम आगमोदय समिति, सूरत भारतीय विद्या प्रकाशन, जैन पुस्तकोद्धार मोतीलाल बनारसीदास जै.वि.भा. संस्थान, लाडनूं जै. वि. भा. संस्थान नागप्रकाशक, दिल्ली गीताप्रेस गोरखपुर शिवलाल दुबे मोतीलाल बनारसीदास लालभाई दलपतभाई भ.सं. विद्यामंदिर जे.वि. भारती, लाडनूं दिल्ली 23 ऋषभदेवजी केशरीमल श्री गोडी पार्श्वनाथ जैन देरासर पेढी नायाधम्मकहाओ माणेकलाल चुन्नीलाल, अहमदाबाद समय वि. १६८६ वि. १६८६ सन् १९३८ सन् १९२८ सन् १९१६ सन् १६८२ वि. १६७८ सन् १६६१ सन् १६६४ सन् १९८८ सन् १६६६ सन् १९८८ वि.सं. २०१८ वि.सं. १९३० सन् १९८४ सन् १९८४ वि.सं. १६६८ वि.सं. २००१ वि.सं. २००१ सन् १९६४ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी संपादक विवेचक आचार्य महाप्रज्ञ : युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी (१६६४-१६६७) के वाचना- प्रमुखत्व में सन् १६५५ में आगम-वाचना को कार्य प्रारम्भ हुआ, जो सन् ४५३ में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के सान्निध्य में हुई संगति के पश्चात् होनेवाली प्रथम वाचना थी। सन् १६६६ तक ३२ आगमों के अनुसंधानपूर्ण मूलपाठ संस्करण और ७ आगम संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद एवं टिप्पण सहित प्रकाशित हो चुके थे। आवारी (आचारांग का प्रथम श्रुतस्य मूल पाठ संस्कृत छाया हिन्द-संस्कृत भाष्य एवं भाष्य के हिन्दी अनुवाद से युक्त प्रकाशित हो चुका है। आचार भाष्य का अंग्रेजी संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है। हैं इस वाचना के मुख्य सम्पादक एवं विवेचक (भाष्यकार) आचार्य श्री महाप्रज्ञ (मुनि नथमल युवाचार्य महाप्रज्ञ) . (जन्म १६२० ) जिन्होंने अपने सम्पादन -कौशल से जैन आगम-वाङ्मय को आधुनिक भाषा में समीक्षात्मक भाष्य के साथ प्रस्तुति देने का गुरुतर कार्य किया है। भाष्य में वैदिक, बौद्ध और जैन साहित्य, आयुर्वेद, पाश्चात्य दर्शन एवं आधुनिक विज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर समीक्षात्मक टिप्पण लिखे गए हैं। आचार्य श्री तुलसी ११ वर्ष की आयु में जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी के पास दीक्षित होकर २२ वर्ष की आयु में नवमाचार्य बने। आपकी औदार्यपूर्ण वृत्ति एवं असाम्प्रदायिक चिन्तन-शैली ने धर्म के सम्प्रदाय से पृथक् अस्तित्व को प्रकट किया। नैतिक क्रान्ति, मानसिक शांति और शिक्षा-पद्धति में परिष्कार के लिए आपने क्रमशः अणुव्रत आन्दोलन, प्रेक्षाध्यान और जीवन-विज्ञान का त्रि-आयामी कार्यक्रम प्रस्तुत किया था युगप्रधान आचार्य, भारत-ज्योति, वाचस्पति जैसे गरिमापूर्ण अलंकरण, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार (१६६३) जैसे सम्मान आपको प्राप्त हुए थे। साधु और श्रावक के बीच की कड़ी के रूप में आपने सन् १६८० में समणश्रेणी का प्रारंभ किया, जिसके माध्यम से देश-विदेश में अनाबाध रूपेण धर्मप्रसार किया जा रहा है। आपने ६० हजार कि. मी. की भारत की पदयात्रा कर जन-जन में नैतिकता का भाव जगाने का प्रयास किया था। हिन्दी, संस्कृत एवं राजस्थानी भाषा में अनेक विषयों पर ६० से अधिक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। १८ फरवरी १६६४ को आपने आचार्यपद का विसर्जन कर उसे अपने उत्तराधिकारी युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ में प्रतिष्ठित कर दिया था। २३ जून सन् १६६७ को आपका महाप्रयाण हुआ। सन् १६६८ में भारत सरकार ने आपकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया। दशमाचार्य श्री महाप्रज्ञ दस वर्ष की अवस्था में मुनि बने, सूक्ष्म चिन्तन, मौलिक लेखन एवं प्रखर वक्तृत्व आपके व्यक्तित्व के आकर्षक आयाम हैं। जैन दर्शन, योग, ध्यान, काव्य आदि विषयों पर आपके १०० से अधिक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत आगम-वाचना के आप कुशल संपादक एवं विवेचक हैं। For Privati & Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित आगम साहित्य वाचना प्रमुख : आचार्य तुलसी संपादक विवेचक : आचार्य महाप्रज्ञ (समस्त आगम साहित्य मूल पाठ पाठान्तर शब्द सूची सहित 6 भागो में) ग्रंथ का नाम पृष्ठ मूल्य अंगसत्ताणि भाग-१ (आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ) (दूसरा संस्करण) 1100 700 अंगसुत्ताणि भाग-२ (भगवई- विआहपण्णत्ती) 1500 700 अंगसुत्ताणि भाग-३ (नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्णावागरणाई, विवागसुर्य) 625 500 उवंगसुत्ताणि खंड-१ (ओवाइयं, रायपसेणइयं, जीवाजीवाभिगम) 800 500 उवंगसुत्ताणि खंड-२ (पण्णवणा, जंबूद्दीवपण्णत्ती, चंदपण्णत्ती, कप्पवडिंसियाओ, निरयावलियाओ, पुफ्फियाओ, पुफ्फचूलियाओवहिदसाओ) " 1117 600 नवसुत्ताणि (आवस्सयं, दसवेआलियं, उत्तरज्झयणाणि, नंदी, अणुयोगदाराई " 1300 665 आगम शब्दकोष (अंगसुत्ताणि तीनों भागों की समग्र शब्द सूची) 823 300 7. (मूल, छाया, अनुवाद, टिप्पण, परिशिष्ट-सहित आगम साहित्य) ग्रंथ का नाम पृष्ठ मूल्य श्रीमदजयाचार्य द्वारा राजस्थानी में प्रणीत आयारो 356 200 भगवती जोड़ 7 भागों में आचारांगभाष्यम् 600 500 भगवती जोड़ खंड-१ 500 आचारांगभाष्यम् (अंग्रेजी) 400 भगवती जोड़ 2 से 7 प्रत्येक 400 सूयगडो भाग-१ (दूसरा संस्करण) 300 नियुक्तिपंचक (मूल, पाठान्तर) 1300 500 सूयगडो भाग-२ (दूसरा संस्करण) 350 व्यवहार भाष्य (हिन्दी अनुवाद) प्रेस में ठाणं 1050 700 व्यवहार भाष्य (मूल, पाठान्तर, भूमिका, परिशिष्ट 700 समवाओ (दूसरा संस्करण) प्रेस में गाथा (आगमों के आधार पर भगवान महावीर का भगवई (खंड-१) 412 565 जीवन दर्शन रोचक शैली में) 350 भगवई (खंड-२) 560 665 आवश्यक नियुक्ति भाग-१ (हिन्दी अनुवाद) 400 भगवई (खंड-३) प्रेस में भगवाई (खंड-४)" कोश पृष्ठ मूल्य देशी शब्दकोश 300 170 100 अणुयोगदाराई 355 400 निरुक्त कोश 37060 दसवेआलियं (दूसरा संस्करण) 650 500 एकार्थक कोश 366 70 उत्तरज्झयणाणि (तीसरा संस्करण) 768 600 जैनागम वनस्पति कोश 363 300 उत्तरज्झयणाणि (गुजराती संस्करण) 768 600 जैनागम प्राणी कोश 131 250 नायाधम्मकहाओ 480 500 श्री भिक्षु आगम विषय कोश, भाग-१ 757.500 दसवेआलियं (गुटका) श्री भिक्षु आगम विषय कोश, भाग-२ उत्तरज्झयणाणि (गुटका) प्रकाशक : जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं श्रीमहजयानाय द्वारा राजस्थानों में प्रणीत नंदी प्रेस में Jain Education hiemational emaina