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आमुख
प्रस्तुत अध्ययन में पुण्डरीक के उदात्त चरित्र का चित्रण हुआ है अत: इसका नाम पुण्डरीक रखा गया है।
पुण्डरीक अध्ययन का मुख्य प्रतिपाद्य है-भावात्मक परिवर्तन । दीर्घकालीन प्रव्रज्या के बावजूद भी यदि मन में संयम के प्रति अनुरक्ति नहीं होती तो सुगति सम्भव नहीं। आहार के प्रति आसक्ति सुविधावाद और शिथिलाचार को जन्म देती है।
भावात्मक परिवर्तन का एक बहुत बड़ा निमित्त है-बीमारी, बीमारी की दीर्घकालीन चिकित्सा और चिकित्साकालीन सुविधा। चिकित्सा काल में प्राप्त सांसारिक सुविधाओं और राजसी भोजन-पान में आसक्ति मुनि कण्डरीक के संयम से पतन में निमित्त बनी। इसीलिए कहा गया है-जो श्रमण सुख का रसिक, सात के लिए आकुल, अकाल में सोने वाला और हाथ-पैर आदि को बार-बार धोनेवाला होता है उसके लिए सुगति दुर्लभ है। जिन्हें संयम और तप प्रिय होता है, वे अल्पकालीन साधना से भी अपने प्रयोजन को सिद्ध कर लेते हैं। पुण्डरीक का उदात्त चरित्र दशवैकालिक सूत्र के निम्नोक्त पद्य का सुन्दर निदर्शन है--
पच्छा वि ते पयाया, खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई। जेसिं पिओ तवो संजमो य खंति य बंभचेरं च ।।
१. दसवेआलियं ४/२६ २. वही, ४/२७
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