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________________ ३८४ नायाधम्मकहाओ अठाहवां अध्ययन : सूत्र ५९-६२ निगमण-पदं ६०. जहा वि य णं जंबू! धणेणं सत्थवाहेणं नो वण्णहेउं वा नो रूवहे वा नो बलहेउं वा नो विसयहेउं वा संसमाए दारियाए मंससोणिए आहारिए, नन्नत्थ एगाह रायगिह-संपावणट्ठयाए।। निगमन-पद ६०. जम्बू! जैसे धन सार्थवाह ने सुंसुमा बालिका के मांस और शोणित का आहार न वर्ण के लिए किया। न रूप के लिए किया। न बल के लिए किया और न विषय के लिए किया। उसने राजगृह पंहुचने के अतिरिक्त किसी अन्य उद्देश्य से उस मांस और शोणित का आहार नहीं किया। ६१. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स (खेलासवस्स?) सुक्कासवस्स सोणियासवस्स दुरुय-उस्मासनिस्सासस्स दुरुय-मुत्त-पुरीस-पूय-बहुपडिपुण्णस्स उच्चारपासवण-खेल-सिंघाणग-वंत-पित्त-सुक्क-सोणियसंभवस्स अधुवस्स अणितियस्स असासयस्स सडण-पडण-विद्धंसणधम्मस्स पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहियव्वस्स नो वण्णहेउं वा नो रूवहेउं वा नो बलहेउं वा नो विसयहेउं वा आहारं आहारेइ, नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमण-संपावणट्ठयाए, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे जाव चाउरतं संसारकतारं वीईवइस्सइ--जहा व से सपुत्ते धणे सत्थवाहे ।। ६१. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो आगार से अनगारता में प्रव्रजित होकर इस वमन, पित्त (कफ?), शुक्र, शोणित के झरने, दुर्गन्धित उच्छ्वास-नि:श्वास वाले, दुर्गन्धित मल-मूत्र और पीव से प्रतिपूर्ण, मल, मूत्र, कफ, नाक के मैल, वमन, पित्त, शुक्र और शोणित से उत्पन्न, अधुव, अनित्य, अशाश्वत तथा सड़ने, गिरने और विध्वस्त हो जाने वाले और पहले या पीछे अवश्य छूट जाने वाले औदारिक शरीर के वर्ण, रूप और बल की वृद्धि के लिए अथवा विषय पूर्ति के लिए आहार नहीं करता, सिद्धि गति को प्राप्त करने के अतिरिक्त अन्य किसी उद्देश्य से आहार नहीं करता, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय होता है यावत् वह चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार का पार पा लेगा, जैसे--वह पुत्रों सहित धन सार्थवाह । ६२. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं अट्ठारसमस्स नायझयणस्स अयमढे पण्णत्ते। -त्ति बेमि ।। ६२. जम्बू! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के अठारहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है -ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समृद्धता निमनगाथा जह सो चिलाइपुत्तो सुंसुमगिद्धो अकज्ज-पडिबद्धो। घण-पारद्धो पत्तो, महाडविं वसण-सयकलियं ।। तह जीवो विसह-सुहे, लुद्धो काऊण पावकिरियाओ। कम्मवसेणं पावइ, भवाडवीए महादुक्खं ॥२॥ वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन--गाथा १-२ जैसे सुसुमा में गृद्ध वह चिलातीपुत्र अकरणीय कार्यों से अनुबन्धित हो धन के पीछा करने पर सैकड़ों दुःखों से संकुल महा अटवी को प्राप्त हुआ। वैसे ही वैषयिक सुखों में लुब्ध प्राणी पापमय प्रवृत्तियों का सम्पादन कर, कृत कर्मों के अधीन हो, भव रूपी अटवी में महान दुःखों को प्राप्त करता है। घणसेट्ठी विव गुरुणो, पुत्ता इव साहवो भवो अडवी। सुयमंसमिवाहारो, रायगिह इह सिवं नेयं ।।३।। ३. इस उपनय में धन श्रेष्ठी के समान गुरुजन हैं। पुत्रों के समान मुनिजन हैं। अटवी के समान संसार है। पुत्री के मांस के समान आहार और राजगृह के समान मोक्ष ज्ञातव्य है। जह अडवि-नियर-नित्थरण-पावणत्थं तएहिं सुयमसं। भुत्तं तहेह साहू, गुरूण आणाइ आहारं ।।४।। भव-लंघण-सिव-साहणहेउं भुजंति ण गेहीए। वण्ण-वल-रूव-हेळं, च भावियप्पा महासत्ता ।।५।। ४-५ जैसे अटवी को लांघने और नगर को पाने के लिए उन्होंने पुत्री के मांस का आहार किया, वैसे ही इस जिन-शासन में भावितात्मा, महासत्त्व, मुनि भव को लांधने तथा शिव को साधने के लिए गुरु की आज्ञा से आहार करते हैं। वे आसक्ति से अथवा वर्ण, बल और रूप की वृद्धि के लिए आहार नहीं करते। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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