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नायाधम्मकहाओ
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अठारहवां अध्ययन : सूत्र ५२-५९ संपावेहिह, मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं अभिसमा- आहार करो। इस ग्राम रहित अटवी को पार करो। राजगृह पहुंची। गच्छिहिह, अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह ।। मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से मिलो तथा अर्थ,
धर्म और पुण्य के आभागी बनो।
५३. तए णं घणं सत्थवाहं दोच्चे पुत्ते एवं वयासी--मां णं ताओ
अम्हे जेहूँ भायरं गुरुदेवयं जीवियाओ ववरोवेमो, तस्स णं मंसं च सोणियं च आहारेमो। तं तुब्भे णं ताओ! ममं जीवियाओ ववरोकेह, मंसंच सोणियंच आहारेह, अगामियं अडविं नित्थरिहिह, रायगिहं च संपावेहिह, मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं अभिसमागच्छिहिह, अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह।
एवं जाव पंचमे पुत्ते ।।
५३. तब दूसरा पुत्र धन सार्थवाह से इस प्रकार बोला--तात! हमारे गुरु
और देवतुल्य ज्येष्ठ भ्राता को नहीं मारें और न ही उसके मांस और शोणित का आहार करें।
अत: तात! तुम मुझे मार डालो, मेरे मांस और शोणित का आहार करो। इस ग्राम रहित अटवी को पार करो। राजगृह पहुंची। मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से मिलो तथा अर्थ, धर्म और पुण्य के आभागी बनो।
इस प्रकार यावत् पांचवां पुत्र भी बोला।
५४. तए णं से धणे सत्थवाहे पंचपुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता ते पंचपुत्ते एवं वयासी--मा णं अम्हे पत्ता! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो । एस णं सुसुमाए दारियाए सरीरे निप्पाणे निच्चेट्टे जीवविप्पजढे । तं सेयं खलु पुत्ता! अम्हं सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेत्तए। तए णं अम्हे तेणं आहारेणं अवघद्धा समाणा रायगिहं संपाउणिस्सामो।।
५४. पांचो पुत्रों के अन्तर्मन की इच्छा को जानकर धन सार्थवाह ने उन
पांचो पुत्रों से इस प्रकार कहा--पुत्रो! हम किसी को भी न मारें। यह रहा सुंसुमा बालिका का निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव शरीर । अत: पुत्रो! हमारे लिए उचित है हम सुंसुमा बालिका के मांस और शोणित का आहार करें। इस आहार से प्राणों की सुरक्षा करते हुए हम राजगृह पहुंच सकेंगे।
५५. तए णं ते पंचपुत्ता धणेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा एयमढे
पडिसुणेति॥ .
५५. धन सार्थवाह के ऐसा कहने पर पांचो पुत्रों ने उसके इस प्रस्ताव को
स्वीकार किया।
५६. तए णं धणे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अरणिं करेइ, करेत्ता
सरगं करेइ, करेत्ता सरएणं अरणिं महेइ, महेत्ता अग्गि संधुक्केइ संधुक्केत्ता दारुयाई पक्खिवइ, पक्खिवित्ता अग्गि पज्जालेइ, सुसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेइ । तेणं आहारेणं अवथद्धा समाणा रायगिह नयरं संपत्ता मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियणं अभिसमण्णागया, तस्स य विउलस्स घणकणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयणसंत-सार-सावएज्जस्स आभागी जाया।।
५६. पांचो पुत्रों सहित धन सार्थवाह अरणि लाया । अरणि लाकर सरक
लाया। लाकर सरक से अरणि को मथा। मथकर आग पैदा की। पैदा कर उसमें ईंधन डाला। ईंधन डालकर अग्नि को प्रज्ज्वलित किया और उसमें पकाकर उन सबने सूसुमा के मांस और शोणित का आहार किया। उस आहार से प्राणों की सुरक्षा करते हुए वे राजगृह नगर पहुंचे। मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से मिले और उस विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, शिला, प्रवाल, पद्मराग-मणियां, श्रेष्ठ सुगन्धित द्रव्य और दान भोग आदि के लिए स्वापतेय के आभागी बने।
५७. तए णं से धणे सत्यवाहे सुंसुमाए दारियाए बहूई लोइयाई
मयकिच्चाई करेइ, करेत्ता कालेणं विगयसोए जाए यावि होत्था॥
५७. धन सार्थवाह ने सुसुमा बालिका के अनेक लौकिक मृतक-कार्य सम्पन्न
किए। सम्पन्न कर समय आने पर शोकमुक्त हुआ।
५८. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहे नयरे
गुणसिलए चेइए समोसढे।।
५८. उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर के
गुणशीलक चैत्य में समवसृत हुए।
५९. तए णं धणे सत्यवाहे सपुते धम्म सोच्चा पव्वइए। एक्कारसंगवी।
मासियाए संलेहणाए सोहम्मे कप्पे उववण्णे। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ॥
५९. पुत्रों सहित धन सार्थवाह धर्म सुनकर प्रव्रजित हुआ। उसने ग्यारह
अंगो का अध्ययन किया। मासिक संलेखना पूर्वक सौधर्मकल्प में उपपन्न हुआ यावत वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा।
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