SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नायाधम्मकहाओ २९१ देवीहि य देवद्वंद्वहीओ समाहयाओ, दसद्धवण्णे कुसुमे निवाइए, चेलुक्खेवे दिव्वे गीयगंधव्वनिनाए कए यावि होत्था। चौदहवां अध्ययन : सूत्र ८४-८९ देवियों ने देव-दुन्दुभियां बजाई। पंचरंगे फूल बरसाये, वस्त्रों की वर्षा की, दिव्य गीत गाये और गान्धर्व निनाद भी किया। कणगझयस्स सावगधम्म-पदं ८५. तए णं से कणगज्झए राया इमीसे कहाए लद्धढे समाणे एवं वयासी--एवं खलु तेयलिपुत्ते मए अवज्झाए मुडे भवित्ता पव्वइए। तं गच्छामि गं तेयलिपुत्तं अणगारं वंदामि नमसामि, वंदित्ता नमंसित्ता एयमटुं विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेमि--एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता ण्हाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं जेणेव पमयवणे उज्जाणे जेणेव तेयलिपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेयलिपुत्तं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एयमटुं च णं विणएणं भुज्जो-भुज्जो खामेइ, खामेत्ता नच्चासण्णे नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमंसमाणे पंजलिउडे अभिमुहे विणएणं पज्जुवासइ।। कनकध्वज राजा का श्रावक-धर्म पद ८५. राजा कनकध्वज को इस बात का पता चला तो उसने इस प्रकार कहा--मेरे दुश्चिन्तन के कारण ही तेतलीपुत्र मुण्ड हो, प्रद्रजित हुआ। अत: मैं जाऊं और तेतलीपुत्र अनगार को वन्दना-नमस्कार करूं। वन्दना-नमस्कार कर इस अर्थ के लिए विनयपूर्वक पुन: पुन: क्षमायाचना करूं। उसने ऐसी सप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर स्नान कर यावत् चतुरंगिणी सेना के साथ जहां प्रमदवन उद्यान था, जहां तेतलीपुत्र अनगार था, वहां आया। आकर तेतलीपुत्र को वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर अपने अपराध के लिए पुन: पुन: विनयपूर्वक क्षमायाचना की। क्षमायाचना कर न अति दूर न अति निकट बैठ कर शुश्रूषा और नमन की मुद्रा में प्राञ्जलिपुट और अभिमुख हो विनय पूर्वक पर्युपासना करने लगा। ८६. तए णं से तेयलिपुत्ते अणगारे कणगज्झयस्स रण्णो तीसे य महइमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ। ८६. तेतलीपुत्र अनगार ने राजा कनकध्वज और उस सुविशाल परिषद को धर्म की देशना दी। ८७. तए णं से कणगज्झए राया तेयलिपुत्तस्स केवलिस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्मा पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं--दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता समणोवासए जाए-- अभिगयजीवाजीवे॥ ८७. केवली तेतलीपुत्र से धर्म को सुनकर, अवधारण कर राजा कनक ध्वज ने पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप-बारह प्रकार का श्रावक-धर्म स्वीकार किया। स्वीकार कर वह श्रमणोपासक बन गया--जीव और अजीव को जानने वाला। तेयलिपुत्तस्स सिद्धि-पदं ८८. तए णं तेयलिपुत्ते केवली बहूणि वासाणि केवलिपरियागं पाउणित्ता जाव सिद्धे॥ तेतलीपुत्र का सिद्धि-पद ८८. केवली तेतलीपुत्र बहुत वर्षों तक केवलीपर्याय का पालन कर यावत् सिद्ध बना। निक्खेव-पदं ८९. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं चोद्दसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। -त्ति बेमि॥ निक्षेप-पद ८९. जम्बू ! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धि गति संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के चौदहवें अध्ययन का यह अर्थ किया है। --ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकृता समुद्धता निगमनगाथा जाव न दुक्खं पत्ता, माणभंसं च पाणिणो पायं। ताव न धम्मं गेहंति भावओ तेयलिसुयव्व ।।।।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा १. प्राणी जब तक दु:ख को प्राप्त नहीं होते और जब-तक उनका अहं विगलित नहीं होता तब तक वे प्राय: भाव से धर्म को स्वीकार नहीं करते, जैसे--तेतलीपुत्र। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy