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________________ चौदहवां अध्ययन : सूत्र ७९-८४ २९० पव्वज्जा, उक्कट्ठियस्स सदेसगमणं, छुहियस्स अन्नं, तिसियस्स पाणं, आउरस्स भेसज्जं, माइयस्स रहस्सं, अभिजुत्तस्स पच्चयकरणं, अद्धाणपरिसंतस्स वाहणगमणं, तरिउकामस्स पवहणकिच्चं, परं अभिउंजिउकामस्स सहायकिच्चं। खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स एत्तो एगमवि न भवइ॥ नायाधम्मकहाओ प्रव्रज्या ही शरण है, जैसे उत्कंठित प्रवासी के लिए स्वदेश गमन, भूखे के लिए अन्न, प्यासे के लिए पानी, रोगी के लिए भेषज्य, मायावी के लिए रहस्य, अभियुक्त के लिए प्रत्ययकरण (साक्षी), पथ परिश्रान्त के लिए वाहन-गमन, तैरने के इच्छुक के लिए नौका तथा शत्रु पर आक्रमण करने के इच्छुक के लिए सहायता शरणभूत होती है। ___क्षान्त, दान्त और जितेन्द्रिय के लिए इन में से एक भी भय नहीं होता। ८०. तए णं से पोट्टिले देवे तेयलिपुत्तं अमच्चं एवं वयासी--सुठुणं तुमं तेयलिपुत्ता! एयमढें आयाणाहि त्ति कटु दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए।। ८०. पोट्टिलदेव ने अमात्य तेतलीपुत्र से इस प्रकार कहा--तेतलीपुत्र ! तुमने यह अर्थ भलीभांति जान लिया है? उसने दूसरी-तीसरी बार भी इस प्रकार कहा। यह कहकर वह जिस दिशा से आया, उसी दिशा में चला गया। तेयलिपुत्तस्स जाईसरणपुव्वं पव्वजा-पदं ८१. तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स सुभेणं परिणामेणंजाईसरणे समुप्पन्ने॥ तेतलीपुत्र का जातिस्मरण पूर्वक प्रव्रज्या-पद ८१. शुभ परिणामों के कारण तेतलीपुत्र को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। ८२. तए णं तेयलिपुत्तस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु अहं इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे पोक्खलावईए विजए पोंडरीगिणीए रायहाणीए महापउमे नामंराया होत्था। तएणं हं थेराणं अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइए सामाइयमाझ्याइं चोद्दसपुब्वाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए महासुक्के कप्पे देवत्ताए उववण्णे। तए णं हं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरंचयं चइत्ता इहेव तेयलिपुरे तेयलिस्स अमच्चस्स भद्दाए भारियाए दारगत्ताए पच्चायाए। तं सेयं खलु मम पुवुद्दिवाइं महव्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए--एवं संपेहेइ, सपहेत्ता सयमेव महव्वयाई आरुहेइ, आरुहेत्ता जेणेव पमयवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयसि सुहनिसण्णस्स अणुचितमाणस्स पुव्वाहीयाई सामाइयमाइयाइं चोद्दसपुव्वाइं सयमेव अभिसमण्णागयाई।। ८२. तेतलीपुत्र के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--इस प्रकार जम्बूद्वीप द्वीप, महाविदेह वर्ष, पुष्करावती विजय और पुण्डरीकिणी राजधानी में मैं महापद्म नाम का राजा था। वहां मैं स्थविरों के पास मुण्ड हो, प्रव्रजित हुआ। सामायिक आदि चौदहपूर्वो का अध्ययन कर, बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर मैं मासिक संलेखना पूर्वक महाशुक्र विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। उसके पश्चात् आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्युत होकर, इसी तेतलीपुर नगर में अमात्य तेतली की भार्या भद्रा के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ हूं । अत: मेरे लिए उचित है मैं पूर्व-उद्दिष्ट महाव्रतों को स्वयं ही स्वीकार कर, विहार करूं--उसने ऐसी संप्रक्षा की। संप्रेक्षा कर स्वयं महाव्रतों का आरोपण किया। आरोपण कर, जहां प्रमदवन उद्यान था, वहां आया। वहां आकर प्रवर अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वी शिलापट्ट पर सुखासन में बैठा। अनुचिन्तन करते-करते उसे पूर्व अधीत सामायिक आदि चौदह पूर्व स्वयं ही अभिसमन्वागत हो गये। केवलणाण-पदं ८३. तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्येणं अज्झवसाणेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं कम्मरयविकरणकरं अपव्वकरणं पविट्ठस्स केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे। केवलज्ञान-पद ८३. तत्पश्चात् शुभ परिणाम, प्रशस्त अध्यवसाय और विशुद्ध्यमान लेश्याओं के कारण तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम होने से, कर्मरजों का विकिरण करने वाले अपूर्वकरण में प्रविष्ट तेतलीपुत्र अनगार को प्रवर केवलज्ञान और केवलदर्शन समुत्पन्न हुए। ८४. तए णं तेयलिपुरे नयरे अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं ८४. तेतलीपुत्र नगर में यथोचित सानिध्य देने वाले वााणव्यन्तर देव और Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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