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________________ ५९ नायाधम्मकहाओ मासियाए सलेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता, सर्द्धि भत्ताइं अणसणाए छेएत्ता, आलोइय-पडिक्कते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते अणुपुव्वेणं कालगए॥ प्रथम अध्ययन : सूत्र २०८-२११ से अपने आप (शरीर) को कृश बना, अनशन के द्वारा५० साठ भक्त (भोजन के समय) का छेदन किया। आलोचना और प्रतिक्रमण कर, शल्य का उद्धरण कर समाधि पूर्ण दशा में क्रमश: कालधर्म को प्राप्त हो गया। थेरेहिं मेहस्स आयारभंडसमप्पण-पदं २०९. तए णं ते थेरा भगवंतो मेहं अणगारं अणुपुव्वेणं कालगयं पासंति पासित्ता परिनेव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति, करेत्ता मेहस्स आयारभंडगं गेण्हति, विउलाओ पव्वयाओ सणियं-सणियं पच्चोरुहंति, पच्चोरुहित्ता जेणामेव गुणसिलए चेइए, जेणामेव समणे भगवं महावीरे, तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी मेहे नामं अणगारे पगइभद्दए पगइउवसते पगइपयणुकोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपण्णे अल्लीणे विणीए से णं देवाणुप्पिएहिं अब्भणुण्णाए समाणे गोयमाइए समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य खामेत्ता अम्हेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहइ, सयमेवमेघघणसण्णिमासं पुढविसिलं पडिलेहेइ, भत्तपाण-पडियाइक्खिए अणुपुल्वेणं कालगए। एस णं देवाणुप्पिया! मेहस्स अणगारस्स आयारभंडए। स्थविरों द्वारा मेघ के आचार-भाण्ड का समर्पण-पद २०९. स्थविर भगवान ने अनगार मेघ को क्रमश: कालधर्म को प्राप्त हुआ देखा। देखकर परिनिर्वाण हेतुक कायोत्सर्ग:५१ किया। कायोत्सर्ग कर मेघ के आचार-भाण्ड (साधु जीवन के उपकरण) लिए। धीरे-धीरे विपुल पर्वत से नीचे उतरे। नीचे उतर कर जहाँ गुणशिलक चैत्य था, जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आए। वहाँ आकर श्रमण भगवान महावीर को वंदना-नमस्कार किया। वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोले-- देवानुप्रिय का अंतेवासी मेघ नाम का अनगार जो प्रकृति से भद्र प्रकृति से उपशांत था। जिसकी प्रकृति में क्रोध, मान, माया, लोभ प्रतनु (पतले) थे, जो मृदु-मार्दव से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था। देवानुप्रिय से अनुज्ञा प्राप्त कर, गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों और निग्रंथियों से क्षमायाचना कर हमारे साथ धीरे-धीरे विपुल पर्वत पर चढ़ा। वहाँ स्वयंमेव सघन-मेघ जैसे श्याम वर्णवाले पृथ्वी शिलापट्ट का प्रतिलेखन किया। भक्त-पान का प्रत्याख्यान किया और क्रमश: कालधर्म को प्राप्त हो गया। देवानुप्रिय! ये हैं अनगार मेघ के आचार-भाण्ड (साधु जीवन के उपकरण) गोयमपुच्छाए भगवओ उत्तर-पदं २१०. भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी मेहे नाम अणगारे से णं भते! मेहे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कहिं उववण्णे? गौतम के प्रश्न का भगवान द्वारा उत्तर-पद२१०. भन्ते! भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वंदना-नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर इस प्रकार बोले-- देवानुप्रिय का अंतेवासी मेघ नाम का अनगार था। भंते! वह अनगार मेघ, कालमास में काल को प्राप्त कर कहां गया है? कहां उत्पन्न हुआ है? २११. गोयमाई! समणे भगवं महावीरे गोयम एवं वयासी--एवं खलु गोयमा! मम अंतेवासी मेहे नामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए, से णं तहारूवाण थेराणं अंतिए सामाइयमाझ्याई एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता, बारस भिक्खुपडिमाओ गुणरयण-संवच्छरं तवोकम्मं काएणं फासेत्ता जाव किट्टेत्ता, मए अब्भणुण्णाए समाणे गोयमाइ थेरे खामेत्ता, तहारूवेहिं कडादीहिं थेरेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं (सणियं-सणियं?) दुरुहित्ता, दब्भसंथारगं, संथरित्ता दब्भसंथारोवगए सयमेव पंचमहव्वए उच्चारेत्ता, बारस वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता, सढि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चंदिम-सूर २११. गौतम! श्रमण भगवान महावीर ने गौतम से इस प्रकार कहा--गौतम! मेरा अंतेवासी मेघ नाम का अनगार, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था, वह तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन, बारह भिक्षु-प्रतिमाओं और गुणरत्न सम्वत्सर नाम के तप:कर्म का काया से स्पर्श कर यावत् कीर्तित कर मुझसे अनुज्ञा प्राप्त कर, गौतम आदि स्थविरों से क्षमायाचना कर तथारूप कृतयोग्य स्थविरों के साथ विपुल-पर्वत पर (धीरे-धीरे?) चढ़कर उसने डाभ का बिछौना बिछाया। डाभ के बिछौने पर जा, स्वयमेव पांच महाव्रतों का उच्चारण किया। बारह वर्ष तक श्रामण्य-पर्याय का पालन किया। मासिक-संलेखना में अपने आपको कृश किया। अनशन काल में साठ भक्तों का परित्याग किया। (अंतिम समय में) आलोचना की, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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