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________________ प्रथम अध्ययन : सूत्र २०६-२०८ ५८ सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहइ, दुरुहित्ता सयमेव मेहघणसण्णिगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरुहइ, दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसण्णे करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-- नमोत्थु णं अरहताणंजाव सिद्धिगइनामधेनं ठाणं संपत्ताणं । नमोत्थु णं समणस्स जाव सिद्धिगइनामधेज्जंठाणं संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स । वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भगवंतत्थगए इहगयं ति कटु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-- पुव्विं पि य णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए, मुसावाए अदिण्णादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे माणे माया लोहे पेज्जे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुण्णे परपरिवाए अरइरई मायामोसे मिच्छादसणसल्ले पच्चक्खाए। इयाणिं पिणं अहं तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि, सव्वं असण-पाण-खाइमसाइमं चउन्विहंपि आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। जपि य इमं सरीरं इ8 कंतं पियं मणुण्णं मणामं थेज्जं वेस्सासियं सम्मयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं मा णं सीयं मा णं उण्हं मा णं खुहा मा णं पिवासा मा णं चोरा मा णं वाला माणं दंसा मा णं मसया मा णं वाइय-पित्तिय-सेभिय-सण्णिवाइय विविहा रोगायंका परीसहोवसग्गा फुसंतीति कट्टु एवं पिय णं चरमेहिं ऊसास-नीसासेहिं वोसिरामि त्ति कटु संलेहणाझूसणा-झूसिए भत्तपाण-पडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवकखमाणे विहरइ। नायाधम्मकहाओ क्षमा याचना की। क्षमायाचना कर तथारूप कृतयोग्य स्थविरों के साथ धीरे-धीरे विपुल पर्वत पर चढ़ा। चढ़कर सघन-मेघ जैसे श्याम वर्णवाले पृथ्वी-शिलापट्ट का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर उच्चार प्रस्रवण योग्य भूमि का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर डाभ का बिछौना बिछाया। बिछाकर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर, पर्यंकासन में बैठ४७ सटे हुए दस नख वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोला-- "नमस्कार हो अर्हत भगवान को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं। नमस्कार हो श्रमण भगवान को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त करने के इच्छुक हैं, ऐसे मेरे धर्माचार्य को यहाँ बैठा हुआ मैं वहां विराजित भगवान को वंदना करता हूं। वहां विराजित भगवान यहां स्थित मुझे देखें, ऐसा सोचकर उसने वंदना-नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-- “मैंने पहले भी श्रमण भगवान महावीर के पास सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया था। मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, पर-परिवाद, रति-अरति, माया-मृषा और मिथ्यादर्शनशल्य का प्रत्याख्यान किया था। अब भी मैं उन्हीं के पास सर्वप्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूँ यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का प्रत्याख्यान करता हूँ और जीवन-पर्यन्त अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इस चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ। यद्यपि मेरा यह शरीर जो मुझे इष्ट, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत और अनुमत है आभरण करंडक की भांति सुसंरक्षित है। सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, चोर, सांप, डांस, मच्छर, वात, पित्त, श्लेष्म तथा सन्निपात जनित विविध रोग और आंतक, परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करे--इस दृष्टि से इस को भी मैं अंतिम उच्छ्वास-नि:श्वास तक छोड़ता हूं--ऐसा कर वह संलेखना की आराधना में लीन होकर, भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर, प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में मृत्यु की आकांक्षा न करता हुआ विहार करने लगा।४८ २०७. तए णं ते थेरा भगवंतो मेहस्स अणगारस्स अगिलाए क्यावडियं करेंति॥ २०७. वे स्थविर भगवान अनगार मेघ की अग्लानभाव से वैयावृत्य करने लगे। मेहस्स समाहिमरण-पदं २०८. तए णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जित्ता, बहुपडिपुण्णाई दुवालसवरिसाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मेघ का समाधि-मरण पद २०८. अनगार मेघ ने श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। प्राय: परिपूर्ण बारह वर्ष के श्रामण्य-पर्याय का पालन किया। एक मासिक संलेखना Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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