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________________ नायाधम्मकहाओ तवोकम्मेणं सुक्के लुक्ने निम्मंसे किडिकिडियाभू अचम्मावणद्धे किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्या--जीवंजीवेणं गच्छामि, जीवजीवेण चिट्ठामि भासं भासित्ता गिलामि, भासं भासमाणे गिलामि, भासं भासिस्सामि त्ति गिलामि । तं अत्थि ता उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसकार - परक्कमे सद्धा-धिइ- सवेगे, तं जावता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसकार परक्कमे सद्धा-धिइ- संवेगे, जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्यी विहरड़, ताव ता मे सेयं कल्लं पाउप्पभाषाए रमणीए जाय उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमसित्ता समणेणं भगवया महावीरेणं अन्धणुष्णायस्स समाणस्स सयमेव पंच महव्वयाई आरुहिता गोयमादीए समणे निग्गंधे निग्गंधीओ य स्वामेत्ता तहारूवेहिं कहादहं पेरेहिं सद्धिं विउलं पव्वयं सणियं सणियं दुरुहिता सबमेव मेहघणसण्णिगासं पुढविसितापट्ट्यं पडिलेहित्ता संलेहणा - झूसणा-झूसियस्स भत्तपाण -पडियाइक् पाओवगयस्स कालं अणवकखमाणस्स विहरित्तए - एवं सपेहेइ, संपठेत्ता कस्तं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उद्वियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणपरे तेयसा जलते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण पायाहिणं करेइ, करेला वंदइ नमसइ, वंदिता नमसत्ता नच्चासण्णे नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणएग पंजलिउडे पज्जुवासइ । २०५. मेहाइ! समणे भगवं महावीरे मेहं अणगारं एवं वयासी - - से नूणं तव मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरिय जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकपे समुप्यज्जित्था एवं खलु अहं इमेणं ओरालेगं तवोकम्मेणं सुबके जाव जेणेव अहं तेनेव हव्वमागए। से नूणं मेहा! अट्ठे समट्ठे ? हंता अस्थि । अहासुतं देवाणुपिया मा परिबंध करेहि ।। ५७ २०६. तण गं से मेहे अणगारे समगेण भगव्या महावीरेण अम्मगुण्णाए समाणे हद्दु-चित्तमाणदिए जाव हरिसवस विसप्यमाणहियए उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपपाहिणं करेड, करेला बंद नस, वंदिता नमसित्ता सयमेव पंच महब्वयाई आरहे आहेत्ता गोयमादीए समणे निमांचे निग्गंधीओ य सामेद, सामेता तहारूवेहिं कहादीहिं घेरेहिं Jain Education International प्रथम अध्ययन : सूत्र २०४ - २०६ उठते-बैठते समय "किटकिट' शब्द से युक्त, चर्म से वेष्टित अस्थिवाला और धमनियों का जाल मात्र हो गया हूं। मैं प्राण-बल हूं प्राण-बल से ठहरता हूं। मैं बोलने के पश्चात ग्लानि का करता हूं' बोलते समय भी ग्लानि का अनुभव करता हूं और बोलूंगा ऐसा सोचकर भी ग्लानि का अनुभव करता हूं। अत: जब तक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम है, श्रद्धा, धृति और संवेग है, जितना मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, और पराक्रम है, श्रद्धा, धृति और संवेग है, जब तक ejsdepend fulga श्रमण भगवान महावीर विहार कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए श्रेय है-- “मैं कल उषाकाल में, पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर श्रमण भगवान महावीर को वंदना - नमस्कार कर, श्रमण भगवान महावीर से अनुज्ञा प्राप्त कर, स्वयमेव पांच महाव्रतों का आरोहण कर गौतम आदि श्रमण-निर्धन्यों और निर्ग्रन्थियों से क्षमायाचना कर तथारूप कृतयोग्य स्थविरों के साथ धीरे-धीरे विपुल - पर्वत पर चढ़, स्वयमेव सघन मेघ जैसे श्याम वर्णवाले पृथ्वी - शिलापट्ट का प्रतिलेखन कर, संलेखना की आराधना से शरीर को क्षीण कर, भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर 'प्रायोपगम' अनशन को स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा न करता हुआ विहार करूं " - उसने ऐसी संप्रेक्षा की सप्रेक्षा कर, उपकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर, वह जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आया। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, वंदना - नमस्कार किया । वंदना - नमस्कार कर भगवान के न अति निकट और न अति दूर, शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धाञ्जलि होकर पर्युपासना करने लगा। 1 २०५. मेघ! श्रमण भगवान महावीर ने अनगार मेघ को इस प्रकार कहा--"मेघ! मध्यरात्रि में धर्मजागरिका करते हुए, तेरे मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, अभिलाषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं इस प्रधान तप: कर्म से सूख गया हूं।" यावत् जहाँ मैं हूँ शीघ्र वहां आया। मेघ! क्या यह अर्थ संगत है ? हां, यह संगत है। देवानुप्रिय! जैसे सुख हो, प्रतिबंध मत करो । २०६. अनगार मेघ श्रमण भगवान महावीर से अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्टतुष्ट चित्त वाला आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठा । उठकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। वंदना नमस्कार किया। वंदना - नमस्कार कर उसने स्वयं ही पांच महाव्रतों का आरोहण किया। आरोहण कर गौतम आदि भ्रमण-निर्मन्थ और निरन्थियों से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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