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(xiv) ‘पंचाणुव्वइयं गिहिधम्मं' का प्रयोग है। यह भी शैलीगत पाठ है । वास्तविकता पर विचार करें तो यहां 'चाउज्जामं गिहिधम्मं' पाठ होना चाहिए। भगवान अरिष्ठनेमि के समय चातुर्यामिक धर्म का प्रवर्तन था । इसलिए 'चाउज्जामियं गिहिधम्मं' पाठ अधिक संगत है।
इस विषय में 'रायपसेणइयं' का एक विमर्श अधिक उपयोगी होगा - कुमार श्रमण केशी ने सारथि चित्त को चातुर्यामिक धर्म का उपदेश दिया।' सारथि चित्त ने द्वादशविध (पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत ) गृहधर्म को स्वीकार किया । द्वादशविधधर्म प्रतिपादन ही नहीं तो फिर स्वीकृति कैसे हुई ? इस विरोधाभास का हेतु शैलीगत पाठ का स्वीकार है । औपपातिक सूत्र में शैलीगत पाठों का संग्रह है। संक्षिप्त पाठ औपपातिक से पूरे किए जाते हैं। यदि पाठ पूर्ति के समय ऐतिहासिक दृष्टि से काम लिया जाता तो यह समस्या पैदा नहीं होती, यह विरोधाभास सामने नहीं आता ।
रायपसेणइयं के इस प्रसंग से प्रस्तुत आगम के विषय में हमारी दृष्टि स्पष्ट हो जाती है कि निर्ग्रन्थ, द्वादशविध गृहधर्म आदि प्रयोग शैलीगत पाठ को स्वीकार करने के कारण आए हुए हैं।
शुक परिव्राजक का वर्णन शैलीगत वर्णन है। इसमें अथर्ववेद और षष्टितंत्र का उल्लेख है । ये दोनों उत्तरकालीन ग्रन्थ हैं। दूसरी समस्या यह है कि सांख्य दर्शन श्रमण परम्परा का दर्शन है इसलिए उसके साथ वेद का उल्लेख विचारणीय है । ३ पाठ विमर्श
प्रस्तुत आगम का वर्तमान परिमाण बहुत छोटा है। प्राचीन काल में यह विशालकाय आगम था । समवाओ, नंदी और कषायपाहुड़ में इसका विवरण उपलब्ध होता है। नंदी की टीका में इसका पद परिमाण ५ लाख ७६ हजार बतलाया गया है । कषायपाहुड़ की जयघवला टीका में प्रस्तुत आगम का पद परिमाण ५ लाख ५६ हजार बतलाया गया है।
प्रतिक्रमणत्रयी की प्रभाचन्द्रसूरि कृत टीका में प्रस्तुत आगम के अध्ययन १६ ही बतलाए गए हैं किन्तु उनके नाम और विषय भिन्न प्रकार के हैं।
एऊणविसाए णाहाज्झयणेसु एकोनविंशातिनाथाध्ययनेषुः तद्यथा गाथा
उक्कणा- कुम्मंड - रोहिणि- सिस्स - तुंब-संघादे ।
मादंगिमल्लि - चंदिम. तावद्देवय-तिक-तलाय किण्णे (य) ॥१॥ सुसुके य अवरकंके गंदीफलमुदगणाह-मंडूके ।
एतो य पुंडरीगो णाहज्झणाणि उगवीसं ॥२॥
एताः सर्वाः धर्मकथाः। तथाहि - उक्कोऽणागः श्वेतहस्ती, अस्य कथा - उत्तरापथे कनकपुरे राजा कनकः, कनका महाराज्ञी । पुत्रो नागकुमारः तपो गृहीत्वा विहरमाणोऽटव्यां दावानलेन दह्यमानः समाधिना मृत्वाऽच्युतेन्द्रो जातः । तदर्धदग्धकलेवरं दृष्ट्वा तुङ्गभद्रो नाम तत्रत्यो भिल्लो जातपश्चात्तापो मृत्वा तत्रैव श्वेतगजो जातः । सोऽच्युतेन्द्रेण जिनधर्मं ग्राहितः । पुनर्दावानलेन दह्यमानं शशकं स्वपादतले स्थितं रक्षित्वा दह्यमानोऽपि दृढव्रतो भूत्वा मृत्वा देवो जातः ।
कुम्म, कूर्माख्यानम्, यथा कूर्मेण मुख-चरणसंकोचं कृत्वाऽऽत्मनो ब्राह्मणाद् मरणं निवारितं तथा मुनिभिरपि पञ्चेन्द्रियसंकुचितैर्मरणपरम्परा निवारयितव्या ।
अंडय, अण्डजकथा पञ्चप्रकारा, तद्यथा - कुक्कुटकथा - १ । माताप्येकः पिताप्येकः इति तापसफल्लिकास्थितशुककथा-२ । चाणक्यव्याकरणे वेदकशुककथा - ३ । अगन्धनसर्पकथा-४ । हंसयूथबन्धमोचनकथा-५ ।
रोहिणी, स्वपुत्रबलदेवेन सह रोहिणी तिष्ठतीति लोकापवादं श्रुत्वा रोहिण्या तदा भणितम् - ' यद्यहं शुद्धा तदा यमुना नदी सौरीपुरं वेष्टित्वा पूर्वाभिमुखं वहतु ' इति । तन्माहात्म्यात् तथैव जातम् ।
१. रायपसेणइयं, सू. ६६३
२. वही, सू. ६६५ का फुटनोट
३. ज्ञाता सूत्र १/५/५२
४. नंदी मलयगिरीया वृत्ति पत्र - २३१
५. कषायपाहुड़ १ पृ. ६४ णहधम्मकहाए छप्पण्णसहस्साहिय पंचलक्खमेत्तपदाणि ।
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