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________________ (xv) सिस्स, शिष्यकथा यथा चेलिनीपुत्रवारिषेणप्रतिबोधित पुष्पडालमुनिकथा। तुंब, रोषेण दत्तकटुकतुम्बकभोजनमुनिकथा। संघादे, अस्य कथा-कौशाम्बीनगर्यामिन्द्रदत्तादयो द्वात्रिंशदिभ्याः, तेषां समुद्रदत्तादयो द्वात्रिंशत् पुत्राः परस्परमित्रत्वमुपगताः सम्यग् दृष्ट्यः केवलिसमीपेऽतिस्वल्पं निजजीवितं ज्ञात्वा तपो गृहीत्वा यमुनातीरे पादोपयानमरणेन स्थिताः। अतिवृष्टौ जातायां जलप्रवाहेण यमुनाहूदे सर्वेऽपि ते पतिताः । परमसमाधिना कालं कृत्वा ते स्वर्गं गताः। मादगिमल्लि, मातङ्गिमल्लिकथा, यथा वज्रमुष्टिमहाभटभार्यायाः मातङ्गिनामायाः मल्लिपुष्पमालाभ्यन्तरस्थितसर्पदष्टायाः कथा। चन्दिम, चन्द्रवेधकथा। तावद्देवथ, तावद्देवतोपद्रवदेशोत्पन्नघोटिकहरणसगरचक्रवर्तिकथा। तलाय, तडागपल्लयामेकवृक्षकोटरस्थिततपस्विनो गन्धर्वाराधनाकथितकथा। किण्णे, व्रीहिमर्दनस्थित कर्जकपुरुषसत्यकथा। सुसुके य, आराधनाकथितशुशुमारहृदनिक्षिप्तपाषाणकथा। अवरकंके, अवरकङ्कानामपत्तनोत्पन्नाजनचोरकथा। णंदीफल, अटव्यां (बी?) स्थितबुभुक्षापीडितधन्वन्तरिविश्वानुलोमभृत्यानीतकिम्पाकफलकथा। उदगणाह, उदकनाथकथा, यथा राजामात्यसमक्षगडुलपानीयस्वच्छकरणकथा। मण्डूके, उद्यानवनतडागसमुत्पन्नजातिस्मरणमण्डूककथा। पुंडरीगो, पुंडरीकराजपुत्र्याः कथा। अथवा गाथागुणजीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य। एउणवीसा एदे णाहज्झाणा मुणयेव्वा ॥ अथवा गाथाणव केवललद्धीओ कम्मखयजा हवंति दस चेव। णाहज्झाणा एते एउणवीसा वियाणाहि ॥ कर्मक्षयजा घातिक्षयजा दशातिशयाः एतेषामकाले पठनादौ यो दोषस्तस्य प्रतिक्रमणम्"प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी प्रभाचन्द्राचार्यविरचितटीका सहिता, पृ. ५१-५४ प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी में निर्दिष्ट ज्ञाता के अध्ययनों के नाम उनकी विषय-वस्तु का तुलनात्मक अध्ययन करने पर प्रस्तुत आगम के प्राचीन रूप के विषय में एक नई कल्पना उद्भूत होती है। पाठ के विषय में विमर्श मूलपाठ की ग्रन्थमाला में किया गया है। फिर भी कुछ शब्दों का विमर्श अपेक्षित है। १/१/२०४ में 'कडाइ' शब्द का प्रयोग है। इसका प्रयोग भगवती (२/६६) में भी मिलता है। इसका अर्थ 'कृतयोग्य' अथवा कृतयोगी किया जाता है। ये दोनों 'कडाइ' के अर्थ हो सकते हैं किन्तु रूपान्तर नहीं हो सकते। इसका रूपान्तर 'कृतयाजी' होना चाहिए। सूत्र १/१/१२५ में ‘चउफ्फलाए' शब्द का प्रयोग है। नाई हजामत करने के समय मुखवस्त्रिका बांधते हैं। प्रस्तुत सूत्र में 'मुखवस्त्रिका' चार पट वाली बतलाई गई है। भगवती में इसी प्रसंग में आठ पट वाली मुखवस्त्रिका बतलाई गई है। औपपातिक में अजियं जिणाहि, जियं पालयाहि, इतना ही पाठ है। प्रस्तुत सूत्र में इसके अतिरिक्त इतना पाठ और है। अजियं जिणाहि सत्तुपक्खं जियं च पालेहि मित्तपक्खं। यह अतिरिक्त पाठ वाचना भेद के कारण हुआ है और उत्तरवर्ती काल में दोनों पाठों का मिश्रण हो गया। पाठ के विषय में मीमांसा के अनेक स्थल हैं। उनका निर्देश मूलपाठ के संस्करण में किया गया है। आचार्य महाप्रज्ञ १. २. ओवाइयं, सूत्र ६८ ज्ञाता, सू. १/१/११८ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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