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________________ १३५ नायाधम्मकहाओ गंधहत्थिं उवट्ठवेह । तेवि तहत्ति उवट्ठति ।। पांचवां अध्ययन : सूत्र १६-२० विजय गन्ध हस्ती को उपस्थित करो। उन्होंने--'ऐसा ही हो' यह कहकर उपस्थित किया। १७. तए णं से कण्हे वासुदेवे ण्हाए जाव सव्वालंकारविभूसिए विजयं गंघहत्थिं दुरूढे समाणे सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भड-चडगर-वंद-परियाल-संपरिवुडे बारवतीए नयरीए मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव रेवतगपए जेणेव नंदणवणे उज्जाणे जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे जेणेव असोगवरपायवेतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहओ अरिटुनेमिस्स छत्ताइच्छत्तं पडागाइपडागं विज्जाहर-चारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासइ, पासित्ता विजयाओ गंधहत्थीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता अरहं अरिटुनेमिं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, (तं जहा--सचित्ताणं दव्वाणं विसरणयाए, अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए, एगसाडिय-उत्तरासंगकरणेणं, चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं, मणसो एगत्तीकरणेणं)। जेणामेव अरहा अरिद्धनेमी तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिटुनेमिं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अरहओ अरिट्टनेमिस्स नच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे पंजलिउडे अभिमुहे विणएणं पज्जुवासइ।। १७. कृष्ण वासुदेव स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, विजय गन्धहस्ती पर आरूढ़ हुए। कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र को धारण किया। महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों के सुविस्तृत संघातवृन्द से परिवृत हो, द्वारवती नगरी के बीचोंबीच से होकर निर्गमन किया। निर्गमन कर जहां रैवतक पर्वत था, जहां नंदनवन उद्यान था, जहां सुरप्रिय यक्ष का यक्षायतन था और जहां प्रवर अशोकवृक्ष था, वहां आए। वहां आकर अर्हत अरिष्टनेमि के छत्रों, अतिछत्रों, पताकाओं, अतिपताकाओं तथा विद्याधर, चारण और जम्भक देवों को आते-जाते हुए देखा । देखकर वे विजय गन्धहस्ती से उतरे। उतर कर पांच प्रकार के अभिगमों से अर्हत अरिष्टनेमि के पास आए। (जैसे--सचित्त द्रव्यों को छोड़ना, अचित्त द्रव्यों को छोड़ना, एक शाटक वाला उत्तरासंग करना, दृष्टिपात होते ही बद्धांजलि होना और मन को एकाग्र करना।) जहां अर्हत अरिष्टनेमि थे वहां आए। आकर अर्हत अरिष्टनेमि को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। वन्दना-नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर अर्हत अरिष्टनेमि के न अति निकट न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए सम्मुख रहकर विनयपूर्वक बद्धाञ्जलि पर्युपासना करने लगे। थावच्चापुत्तस्स पव्वज्जासंकप्प-पदं १८. थावच्चापुत्ते वि निग्गए। जहा मेहे तहेव धम्मं सोच्चा निसम्म जेणेव थावच्चा गाहावइणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पायग्गहणं करेइ । जहा मेहस्स तहा चेव निवेयणा।। थावच्चापुत्र का प्रव्रज्या संकल्प-पद १८. थावच्चापुत्र ने भी घर से निष्क्रमण किया। मेघ की भांति धर्म को सुनकर अवधारण कर वह जहां थावच्चा गृहस्वामिनी थी, वहां आया। वहां आकर प्रणाम किया। वैसे ही निवेदन किया जैसे मेघ ने किया। १९. तए णं तं थावच्चापुत्तं थावच्चा गाहावइणी जाहे नो संचाएइ विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सणवणाहि य विष्णवणाहि य आघवित्तए वा पण्णवित्तए वा सण्णवित्तए वा विण्णवित्तए वा ताहे अकामिया चेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणमणुमन्नित्था ।। १९. थावच्चा गृहस्वामिनी जब विषयों के अनुकूल और विषयों के प्रतिकूल बहुत सारी आख्यापनाओं, प्रज्ञापनाओं, संज्ञापनाओं और विज्ञापनाओं के द्वारा थावच्चापुत्र को आख्यापित, प्रज्ञापित, संज्ञापित और विज्ञापित नहीं कर सकी तब उसने न चाहते हुए भी बालक थावच्चापुत्र को अभिनिष्क्रमण की अनुमति दे दी। २०. तए णं सा थावच्चा (गाहावइणी?) आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता महत्थं महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धिं संपरिवडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवर-पडिवार-देसभाए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पडिहारदेसिएणं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए २०. वह थावच्चा (गृहस्वामिनी?) आसन से उठी। उठकर महान अर्थवाला, महान मूल्य वाला, महान अर्हता वाला, राजाओं के योग्य उपहार ग्रहण किया। उपहार ग्रहण कर मित्र , ज्ञाति, निजक, स्वजन, संबन्धी और परिजनों के साथ उनसे संपरिवृत हो, जहां कृष्ण वासुदेव के भवन का प्रवर प्रतिद्वार (मुख्य द्वार) देश भाग था, वहां आयी। वहां आकर प्रहरियों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग से जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहां Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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