________________
२१६
नायाधम्मकहाओ
अष्टम अध्ययन : सूत्र २११-२१७
जाव मणोरमं सीयं उवट्ठवेह । तेवि जाव उवट्ठवेति । सावि सीया तं चेव सीयं अणुप्पविट्ठा।।
यावत् मनोरम शिविका उपस्थित करो। उन्होंने भी यावत् प्रस्तुत की। वह (दिव्य) शिविका भी (राजा कुम्भ द्वारा आनीत) उस शिविका में अनुप्रविष्ट हो गई।
२१२. तए णं मल्ली अरहा सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मणोरमं सीयं अणुपयाहिणीकरेमाणे मणोरमं सीयं दुरुहइ, दुरुहित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे।।
२१२. अर्हत मल्ली सिंहासन से उठी। उठकर जहां मनोरम शिविका थी, वहां
आयी। वहां आकर अनुकूलता के लिए उस मनोरम शिविका को अपनी दाहिनी ओर लेती हुई, वह उस मनोरम शिविका पर आरूढ़ हो गई। आरूढ़ होकर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर सम्यक् रूप से आसीन हुई।
२१३. तए णं कुंभए अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं
वयासी--तुब्भेणं देवाणुप्पिया! ण्हाया जाव सव्वालंकारविभूसिया मल्लिस्स सीयं परिवहह । तेवि जाव परिवहति ।।
२१३. राजा कुम्भ ने अठारह श्रेणि-प्रश्रेणियों (शिविका वाहक अवान्तर
जातीय पुरुषों) को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो मल्ली की शिविका का परिवहन करो यावत् उन्होंने परिवहन किया।
२१४. तए णं सक्के देविदे देवराया मणोरमाए सीयाए दक्खिणिल्लं
उवरिल्लं बाहं गेण्हइ, ईसाणे उत्तरिल्लं उवरिल्लं बाहं गेण्हइ, चमरे दाहिणिल्लं हेट्ठिल्लं, बली उत्तरिल्लं हेट्ठिल्लं, अवसेसा देवा जहारिहं मणोरमं सीयं परिवहति ।
२१४. देवेन्द्र देवराज शक्र ने मनोरम शिविका का दक्षिण उपरितन दण्ड पकड़ा। ईशान ने उत्तर का उपरितन दण्ड पकड़ा। चमर ने दक्षिण का अधस्तन दण्ड पकड़ा। बली ने उत्तर का अधस्तन दण्ड पकड़ा। अवशिष्ट देवों ने उसका यथायोग्य भाग पकड़कर मनोरम शिविका का परिवहन किया।
संगहणी-गाहा
पुज्विं उक्खित्ता, माणुसेहिं साहट्टरोमकूवेहिं । पच्छा वहति सीयं, असुरिंदसुरिंदनागिंदा ।।१।। चलचवलकुंडलधरा, सच्छंदविउव्वियाभरणधारी। देविंददाणविंदा, वहति सीयं जिणिंदस्स ।।२।।
संग्रहणीय-गाथा १. उस शिविका को आगे से मनुष्यों ने उठाया। उनके रोमकूप विकस्वर
हो रहे थे। पीछे से असुरेन्द्र, सुरेन्द्र और नागेन्द्र उसका वहन कर
रहे थे। २. वे चल और चपल कुण्डल धारण किए हुए अपनी इच्छा से निर्मित
आभरण पहने हुए थे। देवेन्द्र और दानवेन्द्र जिनेन्द्र की शिविका का वहन कर रहे थे।
२१५. तए णं मल्लिस्स अरहओ मणोरमं सीयं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगला पुरओ अहाणुपुव्वीए संपत्थिया--एवं निग्गमो जहा जमालिस्स।
२१५. मनोरम शिविका पर आरूढ़ अर्हत मल्ली के आगे ये आठ-आठ
मंगल क्रमश: संप्रस्थित हुए। वैसे ही निर्गम हुआ जैसे--जमालि का।'
२१६. तए णं मल्लिस्स अरहओ निक्खममाणस्स अप्पेगइया देवा मिहिलं रायहाणिं अभिंतरबाहिरं आसिय-संमज्जिय-संमट्ठ-सुइरत्यंतरावणवीहियं करेंति जाव परिधावंति।।
२१६. अर्हत मल्ली के निष्क्रमण करने पर कुछ देवों ने मिथिला
राजधानी के भीतर-बाहर जल का छिड़काव कर, बुहार, झाड़, गोबर लीप उसे साफ सुथरा कर, गलियों में आपण-वीथी की रचना की, यावत् चारों ओर भाग-दौड़ करने लगे।
२१७. तए णं मल्ली अरहा जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे जेणेव
असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहइ, आभरणालंकारं ओमुयइ।
२१७ अर्हत मल्ली जहां सहस्राम्रवन उद्यान था, जहां प्रवर अशोक वृक्ष था,
वहां आयी। वहां आकर शिविका से उतरी। आभरण और अलंकारों को उतारा।
*भगवाई ९/३३
Jain Education Intemational
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org