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नायाधम्मकहाओ दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया।।
अष्टम अध्ययन : सूत्र २०३-२११ कहा। अर्हत मल्ली को वन्दना की, नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस चले गये।
२०४. तए णं मल्ली अरहा तेहिं लोगतिएहिं देवेहिं संबोहिए समाणे
जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासी-- इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए।
अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह ।।
२०४. अर्हत मल्ली उन लोकान्तिक देवों से संबोधित होने पर, जहां
माता-पिता थे, वहां आई। वहां आकर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा--माता-पिता! मैं चाहती हूं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर, मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित बनू।
जैसा सुख हो देवानुप्रिये! प्रतिबन्ध मत करो।
२०५. तए णं कुंभए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं
वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अट्ठसहस्सेणं सोवणियाणं कलसाणं जाव अट्ठसहस्सेणं भोमेज्जाणं कलसाणं अण्णं च महत्थं महाघं महरिहं विउलं तित्थयराभिसेयं उवट्ठवेह । तेवि जाव उवट्ठति ॥
२०५. राजा कुम्भ ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही आठ हजार स्वर्णमय कलश यावत् आठ हजार मिट्टी के कलश तथा अन्य भी महान अर्थवान, महान मूल्यवान, महान अर्हता वाले विपुल तीर्थंकर-अभिषेक (योग्य सामग्री) की उपस्थापना करो। उन्होंने भी यावत् उपस्थापना की।
२०६. तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे जाव अच्चुयपज्जवसाणा
आगया।
२०६. उस काल और उस समय असुरेन्द्र चमर यावत् अच्युत कल्प तक
के इन्द्र आये।
२०७. तए णं सक्के देविदे देवराया आभिओगिए देवे सद्दावेइ,
सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अट्ठसहस्सेणं सोवणियाणं कलसाणं जाव अण्णं च महत्थं महाधं महरिहं विउलं तित्थयराभिसेयं उवट्ठवेह । तेवि जाव उवट्ठवेंति । तेवि कलसा तेसु चेव कलसेसु अणुपविट्ठा ।।
२०७. देवेन्द्र देवराज शक्र ने आभियोगिक देवों को बुलाया। उन्हें बुलाकर
इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही आठ हजार स्वर्णमय कलश यावत् अन्य भी महान अर्थवान, महान मूल्यवान, महान अर्हता वाले विपुल तीर्थंकर-अभिषेक (योग्य सामग्री) की उपस्थापना करो। उन्होंने भी यावत् उपस्थापना की। वे (इन्द्र द्वारा मंगाए गए) कलश भी उन्हीं (कुम्भ के) कलशों में अनुप्रविष्ट हो गये।
२०८. तए णं से सक्के देविदे देवराया कुंभए य राया मल्लि अरहं
सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहं निवेसेंति, अट्ठसहस्सेणं सोवणियाणं कलसाणं जाव तित्थयराभिसेयं अभिसिंचंति ।।
२०८. देवेन्द्र देवराज शक्र और राजा कुम्भ ने अर्हत मल्ली को सिंहासन
पर पूर्वाभिमुख बिठाया। आठ हजार स्वर्णमय कलशों से यावत् तीर्थंकर अभिषेक से अभिषिक्त किया।
२०९. तए णं मल्लिस्स भगवओ अभिसेए वट्टमाणे अप्पेगइया देवा मिहिलं च सभिंतरबाहिरियं जाव सव्वओ समंता आधावंति परिधावंति।।
२०९. भगवान मल्ली का अभिषेक हो रहा था, उस समय कुछ देव मिथिला
नगरी को भीतर-बाहर (सजा रहे थे) यावत् चारों ओर भाग दौड़ कर रहे थे।
२१०. तए णं कुंभए राया दोच्चंपि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावेइ,
जाव सव्वालंकारविभूसियं करेइ, करेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! मणोरमं सीयं उवट्ठवेह । तेवि उवट्ठवेंति॥
२१०. राजा कुम्भ ने दूसरी बार उत्तराभिमुख सिंहासन स्थापित करवाया। यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। विभूषित कर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो शीघ्र ही मनोरम शिविका उपस्थित करो। उन्होंने भी उपस्थित की।
२११. तए णं सक्के देविदे देवराया आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता
एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभसय-सण्णिविट्ठ
२११. देवेन्द्र देवराज शक्र ने आभियोगिक देवों को बुलाया। बुलाकर इस
प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही सैकड़ों खम्भों पर सन्निविष्ट
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