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________________ अष्टम अध्ययन सूत्र २००-२०३ किमिच्छयं विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं बहूणं समणाण य माहणाण य सणाहाण य अणाहाण य पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य परिभाइजद परिवेसिज्ज । संग्रहणी गाहा वरवरिया घोसिज्ज, किमिच्छ्यिं दिज्जए बहुविहीपं । सुर-असुर-देव-दाणव- नरिंद- महियाण निक्खमणे ॥ १ ॥। २०१. तए णं मल्ली अरहा संवच्छरेणं तिण्णि कोडिसया अट्ठासीइं च कोडीओ असी सयसहस्सा - इमेयारूवं अत्य-संपयाणं दलइत्ता निक्खमामिति मणं पहारेद ।। २०२. तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगंतिया देवा बंभलोए कप्पे रिट्टे विमाणपत्थडे सएहिं सएहिं विमाणेहिं सएहिं सएहिं पासायवडिसएहिं पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्त्रीहिं तिहिं परिसाहिं सतहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवह सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहि य बहूहिं लोगंतिएहिं देवेहिं सद्धिं संपरिवुडा महवाहय न गीय-वाइय तंती तल-ताल-तुडिय घण-मुइंग-पहुप्पवाइयरवेणं (विउताई भोगभोगाई ? ) भुजमाणा विहरति, तं जहा- संग्रहणी-गाहा २१४ - सारस्सयमाइच्चा, वही वरुणा य गहतोया य तुसिया अव्वाबाहा, अग्गिरचा चेव रिट्ठा य ॥१॥ Jain Education International २०३. तए णं तेसिं लोगतियाणं देवाएं पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलति तहेव जाय तं जीयमेयं लोगतिया देवागं अरहंताणं भगवंताणं निक्लममाणाणं संवोहणं करितए ति । तं गच्छामो णं अम्हे वि मल्लिएस अरहओ संबोहणं करेमो ति कट्टु एवं सपेर्हेति, सपेहेत्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णंति, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई दंड निसिरति, एवं जहा जंभगा जाब जेणेव मिहिला रापहाणी जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता अंतलिक्खपडिवण्णा सखिंखिणियाई दसद्धवण्णाई वत्थाई पवर परिडिया करपलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थाए अंजलिं कट्टु ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं वहिं एवं क्यासी बुझाहि भगवं लोगणाहा पयत्तेहि धम्मतित्यं जीवाणं हियसुहनिस्सेयसकरं भविस्सइ त्ति कट्टु दोच्चंपि तच्चपि एवं वयंति, मल्लिं अरहं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता जामेव नायाधम्मकहाओ अनाथों को, पान्थों को, पथिकों को, कापालिकों को और कन्थाधारियों को इच्छानुसार सर्वकामगुणित विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य बांटा जाता है, परोसा जाता है। संग्रहणी गाया सुर-असुर-देव-दानव और नरेन्द्रों द्वारा पूजित अर्हतों के अभिनिष्क्रमण के अवसर पर 'मांगो-मांगो' यह घोषणा की जाती है। और 'तुम क्या चाहते हो' ऐसा पूछकर बहुविध दान दिया जाता है। २०१. एक वर्ष में तीन सौ अठासी करोड़ और अस्सी साल अर्थ सम्पदा का दान कर अर्हत मल्ली ने निष्क्रमण करने का मानसिक संकल्प किया। 1 २०२. उस काल और उस समय ब्रह्मलोक कल्प में, रिष्ट विमान के प्रस्तट में, लोकान्तिक देव विहार करते थे वे अपने-अपने विमानों और अपने-अपने प्रासादावतंसों में चार-चार हजार सामानिक देवों, तीन-तीन परिषदों, सात-सात सेनाओं, सात-सात सेनापतियों, सोलह-सोलह हजार आत्मरक्षक देवों और अन्य अनेक लोकान्तिक देवों के साथ उनसे परिवृत हो, महान आहत, नाट्य, गीत, वारा, संत्री, सत, ताल, तूरी और घन मृदंग इनके पटु प्रवादित स्वरों के साथ भोगाई विपुल भोगों का उपभोग करते हुए विहार कर रहे थे। जैसे- संग्रहणी गाथा - १. सारस्वत २. आदित्य ३. वह्नि ४ वरुण ५ गर्ततोय ६. तुषित ७. अव्याबाध ८. आग्नेय ९. रिष्ट (ये नौ प्रकार के लोकान्तिक देव हैं) I २०३. उन लोकान्तिक देवों में से प्रत्येक के आसन कम्पित हुए। यावत् यह लोकान्तिक देवों का जीत आधार है कि वे निष्क्रमणाभिमुख अर्हत भगवान को सम्बोधित करें। इसलिए जाएं हम भी अर्हत मल्ली को सम्बोधित करे। उन्होंने ऐसी सप्रेक्षा की सप्रेक्षा कर ईशानकोण में आए। वहां आकर वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुए। समवहत होकर संख्यात योजन का एक दण्ड निर्मित किया। इसी प्रकार जृम्भक देवों की भांति यावत् जहां मिथिला राजधानी थी, जहां राजा कुम्भ का भवन था, जहां अर्हत मल्ली थी, वहां आए। वहां आकर अन्तरिक्ष में अवस्थित हो, घुंघरू लगे पंचरंगे प्रवर वस्त्र पहने, सटे हुए दस नखों वाली, दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आदर वाली अञ्जलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर उस इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत वाणी से इस प्रकार कहा- लोकनाथ ! भगवन्! संबुद्ध हों। धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करें। वह जीवों के लिए हित, सुख और निःश्रेयस्कर होगा - उन्होंने दूसरी बार, तीसरी बार भी इस प्रकार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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