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________________ नायाधम्मकहाओ २१३ अष्टम अध्ययन सूत्र १९५-२०० १९५. तए णं से वेसमणे देवे सक्केणं देविदेणं देवरण्णा एवं वृत्ते समाणे करयलपरिम्महिषं दसनहं सिरसावतं मत्यए अंजलिं कट्टु एवं देवो! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता जंभए देवे सदावेद, सहावेत्ता एवं वयासी गच्छहणं तुम् देवागुप्पिया! जंबुद्दीव दीवं भारतं वासं मिहिलं रायहाणिं कुंभगस्स रण्णो भवणंसि तिणि कोडिसया अट्ठासीइं च कोडीओ असीइं सयसहस्साइं इमेयारूवं अत्य-संपयाणं साहरह, साहरिता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।। १९५. देवेन्द्र देवराज शक्र के ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट हुआ वैश्रवण देव सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को टिकाकर इस प्रकार बोला- 'तथास्तु देव' इस प्रकार उसने इन्द्र के आज्ञा वचन को विनय पूर्वक स्वीकार किया। स्वीकार कर जृम्भक देवों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा -- देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष, मिथिला राजधानी में कुम्भ नरेश के भवन में तीन सौ अठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्रा यह विशेष प्रकार की अर्थ सम्पदा पहुंचाओ। पहुंचाकर शीघ्र ही इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। १९६. तए णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं देवेणं एवं वृत्ता समाणा जाव परिसुणेत्ता उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अववकमित्ता वेव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णति, समोहणित्ता संखेज्जाई जोषणाई दंड निसिरंति जाव उत्तरवेउव्वियाइं ख्वाइं विउव्वंति, विउव्वित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए वीईवयमाणा-वीईवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता कुंभगस्स रण्णो भवणंसि तिण्णि कोडिसया जाव साहरति, साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता करवलपरिग्यहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्यए अंजलिं कट्टु तमाणलियं पच्चप्पिगति ।। १९७. तए णं से बेसमणे देवे जेणेव सक्के देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं जाव तमाणत्तियं पचणि ।। १९८. तए णं मल्ली अरहा कल्ला कल्लि जाव मागहओ पायरासो ति बहू सणाहाण य अणाहाण व पंथियाण य पहियाण य करोडियाण य कप्पडियाण य एगमेगं हिरण्णकोडिं अट्ठ य अणूणाई सयसहस्साइं इमेघारूवं अत्थ-संपवाणं दलपद ।। १९९ तए कुंभए राया मिहिलाए रायहाणीए तत्व- तत्थ तहिं तहिं देसे देते बहूओ महाणससालाओ करेइ। तत्य णं बहवे मणुया दिण्णभइ भत्त-वेयणा विउलं असण- पाण- खाइम - साइमं उवक्खडेति । जे जहा आगच्छति, तं जहा पंथिया वा पहिया वा करोडिया वा कप्पाडिया वा पासंडत्था वा गिहत्या वा, तस्स य तहा आसत्यस्स वीसत्यस्स सुहासणवरगयस्स तं विउलं असण-पाणखाइम - साइमं परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरंति ।। -- २०० तए णं मिहिलाए नवरीए सिंघाडग-तिग- चउक्क चच्चरचउम्मुह महापहपहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं स्वतु देवाणुष्पिया! कुंभगस्स रण्णो भवनंसि सव्वकामगुणियं Jain Education International 1 १९६. वैश्रवण देव के ऐसा कहने पर वे जृम्भक देव यावत् आज्ञा वचन को स्वीकार कर ईशानकोण में गए। वहां जाकर वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुए। समवहत होकर संख्यात योजन का एक दण्ड निर्मित किया यावत् उत्तर वैकिय रूपों की विक्रिया की विक्रिया कर उस उत्कृष्ट यावत् देवगति से चलते-चलते जहां जम्बूद्वीप द्वीप था, जहां भारतवर्ष था, जहां मिथिला राजधानी थी और जहां राजा कुम्भ का भवन था, वहां आए। वहां आकर राजा कुम्भ के भवन में तीन सौ अठासी करोड़ अस्सी लाख यावत् अर्थ सम्पदा पहुंचाई। पहुंचाकर जहां वैश्रवण देव था, वहां आए। वहां आकर सटे हुए दस नखों वाली अंजलि को मस्तक पर टिकाकर उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। १९७. वह वैश्रवण देव, जहां देवेन्द्र देवराज शक्र था, वहां आया। वहां आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को यावत् उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया । - १९८. अर्हत मल्ली प्रतिदिन मगध प्रदेश के प्रभातकालीन भोजन के समय तक (प्रथम दो प्रहर तक) बहुत से सनायों को अनाथों को, पान्थों को", पथिकों को २, कापालिकों को और कन्थाधारियों को एक-एक करोड़ और पूरी आठ लाख स्वर्ण मुद्राएं इस प्रकार की अर्थ-सम्पदा का दान करने लगी। १९९. राजा कुम्भ ने मिथिला राजधानी के उन उन विशिष्ट स्थानों में बहुत सी महानस शालाएं चालू करवाई। वहां भृति, भोजन और वेतन प्राप्त करने वाले बहुत से मनुष्य विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करते। वहां जो व्यक्ति जैसे ही आता, यथा-- पान्थ, पथिक, कापालिक, कन्थाधारी, पाषण्डस्थ अथवा गृहस्थ उसको उसी रूप में जब वह आश्वस्त-विश्वस्त हो प्रवर सुखासन में बैठ जाता, विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को बांटते और परोसते रहते । २००. मिथिला नगरी के दौराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में जन-समूह परस्पर इस प्रकार कहता- देवानुप्रियो! राजा कुम्भ के भवन में बहुत से श्रमणों को, ब्राह्मणों को, सनाथों को, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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