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अष्टम अध्ययन : सूत्र १८९-१९४
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नायाधम्मकहाओ १८९. तए णं मल्ली अरहा ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो १८९. अर्हत मल्ली जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं को लेकर जहां राजा
गहाय जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कुंभगस्स कुम्भ था, वहां आयी। वहां आकर उन्हें कुम्भ के चरणों में झुकाया। पाएसु पाडेइ।
१९०. तए णं कुंभए ते जियसत्तुपामोक्खे विउलेणं असण-पाण- १९०. राजा कुम्भ ने जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं को विपुल अशन,
खाइम-साइमेणं पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ पान, खाद्य और स्वाद्य से तथा पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, माला और सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ ।।
अलंकारों से सत्कृत एवं सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर उन्हें प्रतिविसर्जित किया।
१९१. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो कुंभएणं रण्णा विसज्जिया समाणा जेणेव साइं-साइं रज्जाइंजेणेव (साइं-साइं?) नगराइं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सगाई-सगाइं रज्जाइं उवसंपज्जित्ता णं विहरति ।
१९१. राजा कुम्भ द्वारा प्रतिविसर्जित होकर जितशत्रु प्रमुख वे छहों राजा
जहां अपने-अपने राज्य थे, जहां (अपने-अपने) नगर थे, वहां आए। वहां आकर अपने-अपने राज्यों का संचालन करने लगे।
१९२. तए णं मल्ली अरहा संवच्छरावसाणे निक्खमिस्सामि त्ति मणं
पहारेइ ।।
१९२. अर्हत मल्ली ने एक वर्ष पूरा होने पर अभिनिष्क्रमण करूंगी-ऐसा
मानसिक संकल्प किया।
१९३. तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्कस्स आसणं चलइ।
१९३. उस काल और उस समय शक्र का आसन चलित हुआ।
१९४. तए णं से सक्के देविदे देवराया आसणं चलियं पासइ, पासित्ता १९४. देवेन्द्र देवराज शक्र ने आसन को चलित देखा। यह देखकर उसने
ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता मल्लिं अरहं ओहिणा आभोएइ । इमेयारूवे अवधि (ज्ञान) का प्रयोग किया। प्रयोग कर अवधि से अर्हत मल्ली को अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं । देखा। उसके मन में यह विशेष प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, खलु जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए नयरीए कुंभगस्स रण्णो अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--इसी जम्बूद्वीप द्वीप भारतवर्ष (धूया पभावईए देवीए अत्तया?) मल्ली अरहा निक्खमिस्सामित्ति और मिथिला नगरी में राजा कुम्भ की पुत्री (प्रभावती देवी की मणं पहारेइ । तंजीयमेयं तीय-पच्चप्पण्ण-मणागयाणं सक्काणं आत्मजा?) अर्हत् मल्ली ने 'अभिनिष्क्रमण करूंगी' ऐसा मानसिक अरहंताणं भगवंताणं निक्खममाणाणं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं संकल्प किया है। इसलिए अतीत, वर्तमान और भविष्य के जितने भी दलइत्तए, (तं जहा--
शक हैं उन सबका यह जीत (आचार या परम्परागत व्यवहार) है कि वे अभिनिष्क्रमण करने वाले अर्हत भगवान को यह विशिष्ट प्रकार की अर्थ-सम्पदा प्रदान करें। जैसे--
संगहणी-गाहा
तिण्णेव य कोडिसया, अट्ठासीइंच हुति कोडीओ। असिइं च सयसहस्सा, इंदा दलयंति अरहाणं ।।१।।
एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता वेसमणं देवं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स रण्णो धूया पभावईए देवीए अत्तया मल्ली अरहा निक्खमिस्सामित्ति मणं पहारेइ जाव इंदा दलयंति अरहाणं। तं गच्छह णं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणिं गच्छह णं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहांणि कुंभगस्स रण्णो भवणंसि इमेयारूवं अत्थ-संपयाणं साहराहि, साहरित्ता खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि।।
संग्रहणी गाथा
इन्द्र तीन सौ अठासी करोड़, अस्सी लाख स्वर्ण-मुद्राएं अर्हतों को प्रदान करते हैं।
शक्र ने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर वैश्रवण देव को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और मिथिला की राजधानी में राजा कुम्भ की पुत्री प्रभावती देवी की आत्मजा अर्हत मल्ली ने अभिनिष्क्रमण करूंगी--ऐसा मानसिक संकल्प किया है यावत् इन्द्र अर्हतों को प्रदान करते हैं। अत: देवानुप्रियो! जाओ जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और मिथिला राजधानी और कुम्भ नरेश के भवन में इस प्रकार अर्थ-सम्पदा पहुंचाओ, पहुंचाकर शीघ्र ही इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो।
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