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________________ १७० सप्तम अध्ययन : सूत्र १९-२३ नायाधम्मकहाओ १९. तए णं ते कोडुंबिया तच्चसि वासारत्तंसि महावुट्टिकासि १९. कौटुम्बिक पुरुषों ने तीसरे वर्षारात्र में भी प्रथम पावस में महावृष्टि निवइयंसि(समाणसि?) केयारे सुपरिकम्मिए करेंति जाव असिएहिं होने पर कई खेतों को भली-भांति परिकर्मित किया, यावत् दात्रों से लुणति, लुणित्ता संवहति, संवहित्ता खलयं करेंति, मलेति, पुणति । काटा। काटकर खलिहान में लाए। लाकर खला निकाला, मला और तत्थ णं सालीणं बहवे कुंभा जाया। साफ किया। इस बार बहुत कुम्भ परिमित चावल हुए। २०. तए णं ते कोडुबिया ते साली कोट्ठागारंसि पल्लसि पक्खिवंति, २०. कौटुम्बिक पुरुषों ने उन चावलों को कोष्ठागार स्थित धान के पल्य पक्खिवित्ता ओलिंपंति ओलिंपित्ता, लंछिय-मुद्दिए करेंति, करेता में डाला। डालकर उन्हें लीपा। लीपकर लाञ्छित-रेखांकित और सारक्खमाणा संगोवेमाणा विहरंति॥ मुद्रित किया। मुद्रित कर उनका सरंक्षण, संगोपन करने लगे। २१. चउत्थे वासारत्ते बहवे कुंभसया जाया॥ २१. चौथे वर्षारात्र में चावलों के सैकड़ों कुम्भ भर गये। परिक्खा-परिणाम-पदं २२. तए णं तस्स धणस्स पंचमयंसि संवच्छरंसि परिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु मए इओ अतीते पंचमे संवच्छरे चउण्हं सुण्हाणं परिक्खणट्ठयाए ते पंच-पंच सालिअक्खया हत्थे दिन्ना । तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते पंच सालिअक्खएपरिजाइत्तएजाव जाणामितावकाए किह सारक्खिया वा संगोविया वा संवड्ढिया वत्ति कटु एवं सपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरेतेयसा जलते विपुलं असणंपाणंखाइमसाइमं उवक्खडाक्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गंजाव सम्माणित्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ जेटुं उझियं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी--एवं खलु अहं प्रत्ता! इओ अतीते पंचमम्मि संवच्छरे इमस्स मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स यपुरओ तव हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयामि । जया णं अहं पुत्ता! एए पंच सालिअक्खए जाएज्जा तया णं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएसि । सेनूणं पुत्ता! अढे समढे? हंता अत्थि। तंणं तुमं पुत्ता! मम ते सालिअक्खए पडिनिज्जाएसि ।। परीक्षा-परिणाम-पद २२. पांचवे वर्ष के समाप्त-प्राय: होने पर अर्द्धरात्रि के समय धन सार्थवाह के मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मैंने आज से पांच वर्ष पूर्व चारों बहुओं की परीक्षा के लिए उनके हाथों में पांच-पांच शालिकण दिए थे। अत: मेरे लिए उचित है-मैं उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर उनसे वे पांच शालिकण मागूं यावत् यह जानूं कि किसने किस प्रकार उनका संरक्षण, संगोपन अथवा संवर्द्धन किया है। उसने ऐसी संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर उसने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चार बहुओं के पीहर वालों को यावत् सम्मानित कर उन्हीं मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने बड़ी बहू उज्झिता को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-बेटी! मैंने आज से पांच वर्ष पूर्व इन्हीं मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने तेरे हाथ में पांच शालिकण दिये थे। (यह कहकर कि) बेटी! जब मैं इन पांच शालिकणों को मागू तब तू ये पांच शालिकण मुझे लौटा देना। बेटी! यह बात सही है? 'हां, सही है। तो बेटी। तू वे पांच शालिकण मुझे वापस दे। २३. तए णं सा उज्झिया एयमढे घणस्स सत्थवाहस्स पडिसुणेइ, जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पल्लाओ पंच सालिअक्खए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता धणं सत्थवाहं एवं वयासी--एए णं ताओ! पंच सालिअक्खए ति कटु धणस्स हत्यंसि ते पंच सालिअक्खए दलयइ॥ २३. उज्झिता ने धन सार्थवाह के इस कथन को स्वीकार किया। जहां कोष्ठागार था वहां आई। आकर पल्य से पांच शालिकण लिए। लेकर जहां धन सार्थवाह था, वहां आई। आकर धन सार्थवाह को इस प्रकार कहा--पिताजी! ये रहे पांच शालिकण--ऐसा कहकर उसने धन सार्थवाह के हाथ में वे पांच शालिकण दिए। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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