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नायाधम्मकहाओ २४. तए णं धणे सत्थवाहे उज्झियं सवह-सावियं करेइ, करेत्ता एवं
वयासी--किण्णं पुत्ता! ते चेव पंच सालिअक्खए उदाहु अण्णे?
सप्तम अध्ययन : सूत्र २४-२९ २४. धन सार्थवाह ने उज्झिता को सौगन्ध दिलाई। दिलाकर इस प्रकार
कहा--बेटी! ये वे ही शालिकण हैं अथवा दूसरे हैं?
२५. उज्झिता ने धन सार्थवाह से इस प्रकार कहा--पिताजी! आपने आज
२५. तए णं उज्झिया धणं सत्थवाहं एवं वयासी--एवं खलु तुब्भे ताओ! इओ अतीए पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त-नाइ-नियगसयण-संबंधि-परिजणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ पंच सालिअक्खए गेण्हह, गेण्हित्ता ममं सद्दावेह, सद्दावेत्ता एवं वयासी--तुमं णं पुत्ता! मम हत्थाओ इमे पंच सालिमक्खए गेहाहि, अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी विहराहि । तए णंहं तुभं एयमटुं पडिसुणेमि, ते पंच सालिअक्खए गेण्हामि, एगंतमवक्कमामि।
तए णं मम इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु ताताणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला सालीणं पडिपुण्णा चिट्ठति, तं जया णं मम ताओ इमे पंच सालिअक्खए जाएसइ, तया णं अहं पल्लंतराओ अण्णे पंच सालिअक्खए गहाय दाहामि त्ति कटु एवं सपेहेमि, सपेहेत्ता ते पंच सालिअक्खए एगते एडेमि, सकम्मसंजुत्ता यावि भवामि । तं नो खलु ताओ! ते चेव पंच सालिअक्खए, एए णं अण्णे।।
और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने पांच शालिकण लिये। लेकर मुझे बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--बेटी! तू मेरे हाथ से ये पांच शालिकण ले और क्रमश: इनका संरक्षण, संगोपन करती रह। उस समय मैंने आपके कथन को स्वीकार किया। उन पांच शालिकणों को ग्रहण किया और एकान्त में गई।
मेरे मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ–पिताजी के कोष्ठागार में शालि के बहुत से पल्य भरे पड़े हैं। अत: जब पिताजी मुझसे ये पांच शालिकण मागेंगे तब मैं किसी पल्य से अन्य पांच शालिकण ग्रहण कर उन्हें दे दूंगी--मैंने ऐसी संप्रक्षा की। सप्रेक्षा कर उन पांच शालिकणों को एकान्त में फेंक दिया और अपने काम में लग गई। अत: पिताजी! ये , पांच शालिकण वे नहीं हैं अपितु ये दूसरे हैं।
२६. तए णं से धणे सत्थवाहे उज्झियाए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्मा आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उज्झियं तस्स मित्त-नाइ- नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुझियंच छाणुज्झियं च कयवरुज्झियं च संपुच्छियं च सम्मज्जियं च पाओवदाइयं च ण्हाणोवदाइयं च बाहिर-पेसणकारियं च ठवेइ।।
२६. उज्झिता से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर धन सार्थवाह क्रोध से
तमतमा उठा यावत् वह क्रोध से जलता हुआ--उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने उज्झिता को उस कुल-घर की राख फैंकने वाली, गोबर फेंकने वाली, कचरा निकालने वाली, साफी लगाने वाली, झाडू लगाने वाली, सबको पाद-प्रक्षालन या स्नान के लिए पानी प्रदान करने वाली और बाहर जाकर प्रेष्य कर्म करने वाली दासी के रूप में नियुक्त किया।
२७. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा
आयरिय- उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, पंच य से महव्वयाइं उज्झियाई भवंति, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य हीलणिज्जे जाव चाउरंत-संसार-कंतारं भुज्जोभुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ--जहा सा उझिया।
२७. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निम्रन्थी
आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता है। कदाचित् उसके पांच महाव्रत उज्झित 'त्यक्त' हो जाते हैं वह इस भव में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय होता है, यावत् वह चार अन्त वाले संसार कान्तार में पुन: पुन: अनुपरिवर्तन करेगा--जैसे वह उज्झिता।
२८. एवं भोगवइया वि, नवरं--छोल्लेमि, छोल्लित्ता अणुगिलेमि, अणुगिलित्ता सकम्मसंजुत्ता यावि भवामि । तं नो खलु ताओ! ते चेव पंच सालिअक्खए, एएणं अण्णे॥
२८. भोगवती का ऐसा ही वर्णन है। इतना विशेष है--उसने कहा--मैंने
उन शालिकणों को छीला। उन्हें छीलकर निगल गई, निगलकर अपने काम में लग गई। अत: पिताजी! ये पांच शालिकण वे ही नहीं हैं अपितु ये दूसरे हैं।
२९. तए णं से धणे सत्थवाहे भोगवइयाए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्मा आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे भोगवई तस्स
२९. भोगवती से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर धन सार्थवाह क्रोध से
तमतमा उठा यावत् वह क्रोध से जलता हुआ उन मित्र, ज्ञाति, निजक,
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