SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अध्ययन सूत्र २९-३३ मित्त - नाइ - नियग- सयण-संबंधि-परियणस्स चउन्हं सुण्हाणं कुलधरवग्गरस य पुरओ तस्स कुलघरस्स कंडितियं च कोट्टेतियं च पीसंतियं च एवं - - संघतियं रंधतियं परिवेसंतियं परिभायंतियं अब्भितरियं पेसणकारिं महाणसिणिं ठवेइ ।। १७२ ३०. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अनगारियं पव्वइए, पंच य से महव्वयाई फालियाई भवंति से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य हीतणिज्जे जाव चाउरंत संसार कतारं भुज्जो - भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ -- जहा व सा भोगवइया ।। ३१. एवं रक्सियावि, नवरं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छिता मंजू विहाडे, विहाडेला रयणकरंडगाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्es, गेण्हित्ता जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छिता पंच सालिअक्खए धणस्स हत्थे दलपद ।। ३२. तए णं से धणे सत्थवाहे रक्खियं एवं वयासी- - किं णं पुत्ता ! ते चैव एए पंच सालिअक्खए उदाहु अण्णे? ३३. तए णं रक्खिया धणं सत्यवाहं एवं वयासी ते चैव ताओ! एए पंच सालिअक्खए, नो अण्णे । कहण्णं? पुत्ता! -- एवं खलु ताओ! तुम्भे इस अतीते पंचमे संवच्छरे इमरस मित्त-नाइ नियग-सयण संबंधि परियणस्स चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ पंच सालिअक्खए गेण्हह, गेण्हित्ता ममं सदावेह सदावेत्ता ममं एवं वयासी तुमं णं पुत्ता! मम हत्याओ इमे पंच सालिअक्खए गिण्हाहि, अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी विहराहि । जया णं अहं पुत्ता! तुमं इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जा तथा णं तुमं मम इमे पंच सालिजक्लए पडिनिज्जारज्जासि ति कट्टु मम हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलह तं भवियन्वं एत्य कारणेणं ति कट्टु ते पंच सालिअक्सए सुद्धे वत्ये बंधेमि, बंधित्ता रयणकरडियाए पक्खिवेमि, पक्खिवित्ता उसीसामूले ठावेमि, ठावेत्ता तिसंझं पडिजागरणमाणी यावि विहरामि । तओ एएणं कारणेणं ताओ! ते चैव पंच सालिअक्खए, नो अण्णे ॥ Jain Education International नायाधम्मकहाओ स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने भोगवती को उस पर की ओखल कूटने वाली, तिलादि का चूर्ण करने - वाली, (घट्टी) चक्की पीसने वाली तथा इसी प्रकार - दाल धोने वाली, यंत्र विशेष से चने को द्रव आदि से निस्तुष करने वाली, भोजन पकाने वाली परोसने वाली (मिष्टान्नादि) वितरित करने वाली घर का आन्तरिक प्रेष्यकर्म करने वाली और रसोई बनाने वाली (दासी) के रूप में नियुद कर दिया । ३०. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य - उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित होता है (कदाचित) उसके पांच महाव्रत खण्डित हो जाते हैं, तो वह इस भव में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय होता है यावत् वह चार अन्त वाले संसार कान्तार में पुनः पुनः अनुपरिवर्तन करेगा जैसे वह भोगवती । ३१. रक्षिता का भी ऐसा ही वर्णन है इतना विशेष है- रक्षिता जहां उसका वासघर था वहां आई। वहां आकर मंजूषा को खोला। खोलकर रत्न निर्मित डिबिया से वे पांच शालिकण लिए। पांच शालिकण ले, जहां धन सार्थवाह था, वहां आई। वहां आकर पांच शालिकण धन सार्थवाह के हाथ में दे दिए। ३२. धन सार्थवाह रक्षिता से इस प्रकार बोला- बेटी! ये वे ही पांच शालिकण हैं अथवा दूसरे ? ३३. रक्षिता ने धन सार्थवाह से इस प्रकार कहा - पिताजी! ये वे ही पांच शालिकण हैं, दूसरे नहीं। यह कैसे बेटी? पिताजी! आपने आज से पांच वर्ष पूर्व इन्हीं मित्र, जाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने पांच शालिकण लिये । लेकर मुझे बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- बेटी! तू मेरे हाथ से ये पांच शालिकण ले और क्रमशः इनका संरक्षण, संगोपन करती रह। बेटी ! जब मैं तुझसे ये पांच शालिकण मागू तब तू ये पांच शालिकग मुझे लौटा देना ऐसा कहकर मेरे हाथ में पांच शालिकण दिये थे। अतः यहां कोई न कोई कारण होना चाहिए--यह सोच मैंने उन पांच शालिकणों को शुद्ध वस्त्र में बांधा। बांधकर उसे रत्ननिर्मित डिबिया में रखा। रखकर उसे अपने तकिये के नीचे (सिराहने) स्थापित किया। स्थापित कर तीनों संध्याओं में उसकी देखभाल करती हुई विहार करने लगी। पिताजी! इसी कारण से ये वे ही पांच शालिकण हैं, दूसरे नहीं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy