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सोलहवां अध्ययन : सूत्र १३९-१४३
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नायाधम्मकहाओ १३९. तए णं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं १३९. कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक-पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस
वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक्कं हत्थिरयणं प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्ति-रत्न को परिकर्मित पडिकप्पेह हय-गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेइ, करो। अश्व-गज-रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सण्णाहेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । ते वि तहेव पच्चप्पिणति।। सेना को सन्नद्ध करो। सन्नद्ध कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित
करो।
उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया।
१४०. तए णं से कण्हे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ,
उवागच्छित्ता समत्तजालाकुलाभिरामे विचित्तमणि-रयण- कुट्टिमतले रमणिज्जे पहाणमंडवंसि जाणामणि-रयण-भत्ति-चित्तंसि ण्हाण-पीढंसि सुहणिसण्णे सहोदएहिं गंधोदएहिं पुप्फोदएहिं सुद्धोदएहिं पुणो-पुणो कल्लाणग-पवर मज्जणविहीए मज्जिए जाव अंजणगिरिकूडसन्निभं गयवई नरवई दुरूढे।
१४०. कृष्ण वासुदेव जहां मज्जनघर था, वहां आए। आकर चारों ओर
जालियों वाले, अभिराम रंग-बिरंगे मणि रत्नों से कुट्टित तल वाले, रमणीय, स्नान मण्डप में नाना मणि रत्नों की भांतों से चित्रित, स्नानपीठ पर आराम से बैठ, शुभोदक, गंधोदक, पुष्पोदक और शुद्धोदक से कल्याणक प्रवर मज्जन विधि से पुन: पुन: स्नान किया यावत् नरपति कृष्ण अंजन गिरि के शिखर जैसे गजपति पर आरूढ़ हुए।
१४१. तए णं से कण्हे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खेहिं दसहिं दसारेहिं
जाव अणंगसेणापामोक्खाहिं अणेगाहिं गणियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिखुडे सव्विड्डीए जाव दुंदुहि-निग्घोसनाइयरवेणं बारवइं नयरिं मझमहोणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता सुद्धाजणवयस्स मझमझेणं जेणेव देसप्पते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंचालजणवयस्स मझमझेणं जेणेव कंपिल्लपुरे नयरे तेणेव पहारेत्य गमणाए।।
१४१. कृष्ण वासुदेव समुद्रविजय प्रमुख दस दसारों यावत् अनंगसेना प्रमुख ___हजारों गणिकाओं के साथ उनके परिवृत हो सम्पूर्ण ऋद्धि यावत्
दुन्दुभि-निर्घोष के निनादित स्वरों के साथ द्वारवती नगरी के बीचोंबीच होते हुए निकले। निकलकर सौराष्ट्र जनपद के बीचोंबीच होते हुए जहां देश की सीमा थी, वहां आए। वहां आकर पांचाल जनपद के बीचोंबीच होते हुए जहां काम्पिल्यपुर नगर था, उधर प्रस्थान कर दिया।
हत्थिणाउरे दूयपेसण-पदं १४२. तए णं से दुवए राया दोच्चं पि दूयं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं
वयासी--गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया! हत्थिणाउरं नयरं। तत्थ णं तुमं पंडुरायं सपुत्तयं--जुहिट्ठिलं भीमसेणं अज्जुणं नउलं सहदेवं, दुज्जोहणं भाइसय-समग्गं, गंगेयं विदुरं दोणं जयद्दहं सउणिं कीवं आसत्थामं करयलपरिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेहि, वद्धावेत्ता एवं वयाहि-एवं खलु देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रण्णो धूयाए, चुलणीए अत्तयाए, घट्ठज्जुण- कुमारस्स भइणीए, दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ। तं गं तुम्भे दुवयं रायं अणुगिण्हेमाणा अकालपरिहीणं चेव कंपिल्लपुरे नयरे समोसरह ।।
हस्तिनापुर दूत-प्रेषण-पद १४२. उस राजा द्रुपद ने दूसरे दूत को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार
कहा--देवानुप्रिय! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ। वहां पुत्रों सहित पाण्डुराजा--युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव का, सौ भाइयों सहित दुर्योधन को तथा गांगेय भीष्म पितामह, विदुर, द्रोण, जयद्रथ, शंकुनि, कृपाचार्य एवं अश्वत्थामा का दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजली को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर 'जय-विजय' की ध्वनि से वर्धापन करो। वर्धापन कर इस प्रकार कहो--देवानुप्रियो! काम्पिल्यपुर नगर में राजा द्रुपद की पुत्री, चुलनी की आत्मजा, धृष्टद्युम्न कुमार की बहिन, प्रवर राजकन्या द्रौपदी का स्वयंवर होगा। अत: तुम राजा द्रुपद पर अनुग्रह कर, ठीक समय पर काम्पिल्यपुर नगर पहुंची।
१४३. तए णं से दूए जेणेव हत्थिणाउरे नयरे जेणेव पंडुराया तेणेव
उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुरायं सपुत्तयं--जुहिट्ठिलं भीमसेणं अज्जुणं नउलं सहदेवं, दुज्जोहणं भाइसय-समग्गं, गंगेयं विदुरं दोणं जयद्दहं सउणिं कीवं आसत्यामं एवं वयइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स रण्णो धूयाए, चुलणीए अत्तयाए, छट्ठज्जुणकुमारस्स भइणीए, दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे
१४३. वह दूत जहां हस्तिनापुर नगर था, जहां पाण्डुराजा था,
वहां आया। वहां आकर पुत्रों सहित पाण्डुराजा--युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव से, सौ भाइयों सहित दुर्योधन से तथा गांगेय-भीष्म पितामह, विदुर, द्रोण, जयद्रथ, शकुनि, कृपाचार्य एवं अश्वत्थामा से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! काम्पिल्यपुर नगर में राजा द्रुपद की पुत्री, चुलनी की आत्मजा, धृष्टद्युम्न कुमार की
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