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________________ नायाधम्मकाओ ३२५ सुरद्वाजणवयस्त मज्झमज्झेणं जेणेव बारवई नपरी तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता बारवां नयरिं मज्जामयोगं अगुप्यविस अणुप्यविसत्ता जेणेव कण्हरस वासुदेवस्स बाहिरिया उड्डाणसाला तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता चाउघंट आसरहं ठावेइ, ठावेत्ता रहाओ पच्चोरहर, पच्चोरहित्ता मणुस्तवग्गुरापरिवित्ते पायचारविहारेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता कण्हं वासुदेवं, समुद्दविजयपामोक्खे य दस दसारे जाव छप्पन्नं बलवगसाहसीओ करपलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धाक्ता एवं वयइ--एवं खलु देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे दुवयस्स गोधूयाए चुतणीए अत्तबाए, धज्जुणकुमारस्स भइणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे अत्थि । तं णं तुब्भे दुवयं रायं अणुमिहेमाना अकालपरिहीणं चैव कपिल्लपुरे नपरे समोसरह ।। . १३५. तए णं से कण्हे वासुदेवे तस्स दूयस्स अंतिए अयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ट चित्तमानंदिए पोमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाण हियए तं द्रयं सक्कारे सम्माणे, सक्कारेता सम्मात्ता पडिविसज्जेइ ।। कण्हस्स पत्थाण-पदं १३६. तए णं से कण्डे वासुदेव कोडुबियपुरिसे सहावे सहावेत्ता एवं वयासी -- गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! सभाए सुहम्माए सामुदाइयं भेरि ताहि ।। १३७. तए णं से फोडुबियपुरिसे करयतपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत मत्थए अंजलि कट्टु कव्हरस वासुदेवस्स एयम परिसुणे, परिसुणेत्ता जेणेव सभाए सुहम्माए सामुदाइया भेरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सामुदाइयं भेरिं महया-महया सद्देणं ताते || १३८. तए णं ताए सामुदाइयाए भेरीए तालियाए समाणीए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा जाव महासेणपामोक्खाओ छप्पन्न बलवगसाहस्सीओ पहाया जाव सव्वालंकारविभूसिया जहाविभवइडिसक्कारसमुदाए अप्येगइया हवगया एवं गगया रह- सीया दमाणीगया अप्येगइया पायविहारचारेण जेणेव कहे वासुदेवे तेणेव उवागच्छद् उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु कण्हं वासुदेवं जएणं विजएणं बद्धावेति ॥ Jain Education International सोलहवां अध्ययन : सूत्र १३४-१३८ जनपद के बीचोंबीच होता हुआ जहां देश की सीमा थी, वहां आया। वहां आकर सौराष्ट्र जनपद के बीचोंबीच होता हुआ, जहां द्वारवती नगरी थी, वहां आया। आकर द्वारवती नगरी के बीचोबीच होकर प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर जहां कृष्ण वासुदेव का बाहरी सभामण्डप था, वहां आया। वहां आकर चार घंटों वाले अश्व रथ को ठहराया। ठहराकर स्वयं रथ से उतरा। उतर कर जन समूह से परिवृत हो, पांव पांव चलकर वह जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहां आया। वहां आकर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर कृष्ण वासुदेव का समुद्रविजय प्रमुख दस दसारों का यावत् छ हजार बलवानों का 'जय-विजय' की ध्वनि से वर्धापन किया। वर्धापन कर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! काम्पिल्यपुर नगर में राजा द्रुपद की पुत्री, चुलनी की आत्मजा, धृष्टद्युम्न कुमार की बहिन, प्रवर राजकन्या द्रौपदी का स्वयंवर है। अत: तुम राजा द्रुपद पर अनुग्रह कर ठीक समय पर काम्पिल्यपुर नगर पहुंचो । १३५. उस दूत के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट चित्त वाले, प्रीति पूर्ण मन वाले, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाले कृष्ण वासुदेव ने उस दूत को सत्कृत किया। सम्मानित किया । सत्कृत - सम्मानित कर प्रतिविसर्जित कर दिया । कृष्ण का प्रस्थान - पद १३६. कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो! तुम जाओ और सुधर्मा सभा में सामुदायिकी भेरी जाओ । १३७. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर कृष्ण वासुदेव के इस अर्थ को स्वीकार किया । स्वीकार कर सुधर्मा सभा में जहां सामुदायिकी भेरी थी, वहां आए । वहां आकर ऊंचे-ऊंचे शब्दों से सामुदायिकी भेरी बजायी । १३८. सामुदायिकी भेरी को बजाते ही समुद्रविजय प्रमुख दस दसार राजा यावत् महासेन प्रमुख छप्पन हजार बलवान स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, अपने-अपने वैभव, ऋद्धि और सत्कार समुदय के साथ निकले। उनमें से कुछ अश्वारूढ़ होकर, कुछ गजारूढ़ होकर, कुछ रथ, शिविका अथवा स्यन्दमानिका पर बैठकर और कुछ पांव पांव चलकर जहां कृष्ण वासुदेव थे, वहां आए आकर सटे हुए दस नखों वाली दोनों हथेलियां से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर जय-विजय की ध्वनि से कृष्ण वासुदेव का वर्धापन किया । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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