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नायाधम्मकहाओ
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प्रथम अध्ययन : टिप्पण ५३-५७ कुटुम्बी या कौटुम्बिक शब्दों का प्रयोग ऋग्वेद, महाभारत वृत्ति में भी इसी प्रकार की व्याख्या उपलब्ध होती है। किसी भी आदि में भी हुआ है। वहां कुटुम्बी का अर्थ है--प्रत्येक कार्य (कर्तव्य) महत्त्वपूर्ण कार्य की निर्विघ्न सम्पन्नता के लिए सम्पादित की जाने वाली की चिन्ता करने वाला और कौटुम्बिक का अर्थ है--परिवार का सेवक या विशिष्ट विधियां बलिकर्म आदि के नाम से पहचानी जाती थीं। ये स्नान नौकर।
के साथ, उसके बाद अथवा कहीं स्नान के अतिरिक्त भी सम्पादित की
जाती थीं। जैसे--अर्हन्नक आदि यात्री जहाज पर चढ़ने से पूर्व बलिकर्म ५४. अष्टांग महानिमित्त (अटुंगमहाणिमित्त)
करते थे। निमित्त शास्त्र को परम्परा से अष्टांग महानिमित्त कहते हैं।
कहीं-कहीं इनके विशिष्ट अर्थ भी उपलब्ध होते हैं-- निमित्तशास्त्र के आठ अंग ये हैं--
बलिकर्म--निशीथ भाष्य में चावल आदि से अल्पना करने को १. अन्तरिक्ष विद्या २. भौम विद्या ३. अंग विद्या ४. स्वर विद्या
बलिकरण कहा गया है। बलिकर्म और बलिकरण में अधिक शाब्दिक ५. व्यंजन विद्या ६. लक्षण विद्या ७. छिन्न विद्या ८. स्वप्न विद्या ।।
अन्तर नहीं लगता। विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य--तत्त्वार्थवार्तिक ३/३६ पृ. २०२
कौतुक--निशीथ भाष्य में श्मशान और चौराहों पर स्नान करने
को कौतुक कहा गया है। ज्ञाता के भी चौदहवें अध्ययन की वृत्ति में सूत्र २७
सौभाग्य प्राप्ति के लिए स्नान आदि करने को कौतुक कर्म कहा गया है। ५५. बलिकर्म, कौतुक, मंगल रूप प्रायश्चित (बलिकम्मा कय
विवाह के पूर्व वर के ललाट से मूशल आदि का स्पर्श करवाना कौतुक कोउय-मंगलपायच्छित्ता)
कहलाता है। ये चारों स्नान के अनन्तर की जाने वाली क्रियाएं हैं। जैन आगम
किसी श्वेत चूर्ण विशेष से घर के आंगन अथवा द्वार पर विशेष ग्रन्थों में चरित्र चित्रण के अन्तर्गत इनका बहुश: प्रयोग हुआ है।
चिह्न अंकित करना भी कौतुक कहलाता है। गुजरात और दक्षिण भारत १. बलिकर्म--स्नान के अनन्तर की जाने वाली कुलदेवता की।
में यह विधि आज भी प्रचलित है।
मंगल--स्वयंवर मण्डप में जाने से पूर्व द्रोपदी मंगल करती है। २. कौतुक--मषी (काला बिन्दु), तिलक आदि।
वहां वृत्तिकार ने मंगल का अर्थ किया है--तण्डुलों से दर्पण आदि अष्ट ३. मंगल--सरसों, दधि, अक्षत, दुर्वांकुर आदि का उचित
मंगलों का आलेखन । उपयोग। ४. प्रायश्चित्त--कौतुक मंगल को ही प्रायश्चित्त कहा गया है।
५६. जय-विजय की ध्वनि से (जएणं विजएणं) दुःस्वप्न आदि के लिए ये अनुष्ठान आवश्यक माने जाते थे।
जय-शत्रु से पराजित न होना अथवा प्रतापवृद्धि । सूत्रकृतांग चूर्णि और वृत्ति के आधार पर उपर्युक्त जानकारी और
विजय-शत्रु को पराजित करना।" पुष्ट हो जाती है। चूर्णि के अनुसार--बलिकर्म--कुलदेवता आदि की अर्चनिका। ५७. अर्चित ......... सम्मानित (अच्चिय ....... सम्माणिया)
कौतुक--नमक आदि वारना एवं जलाना। अर्चा, वन्दना आदि आदर की अभिव्यक्ति के विभिन्न प्रकार हैं। मंगल--सरसों, दूब आदि का उचित उपयोग विधिभेद के आधार पर ये भिन्न-अर्थ के वाचक हैं-- करना तथा सोने आदि को छूना।
अर्चा--चन्दन आदि से चर्चित करना। प्रायश्चित्त--दुःस्वप्न आदि के प्रतिघात हेतु वन्दना--सद्गुणों का उत्कीर्तन। ब्राह्मणों को सोना आदि देना।
पूजा--पुष्प आदि से पूजा करना।
१. ऋग्वेद-६/८९/१९
७. सूत्रकृतांग वृत्ति, पत्र ६७ २. ज्ञातावृत्ति, पत्र-२६--स्नानान्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानाम् । ८. नायाधम्मकहाओ १/८/६७ ३. वही-कौतुकानि मषीतिलकादीनि।
९. निशीथभाष्य, भाग २, पृ. ३३७ कूरातिणा बलिकरणं। ४. वही-सिद्धार्थक-दध्यक्षत -दूर्वांकुरादीनि ।
१०. वही-कोउगं मसाण-चच्चरादिसु ण्हवणं । ५. वही-कौतुकमंगलान्येवेति प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्नादिविघातार्थम- ११. ज्ञातावृत्ति-पत्र १९५-कोउयकम्मं सौभाग्यनिमित्तं स्नपनादि । वश्यकरणीयत्वात्।
१२. उत्तराध्ययन, बृहवृत्ति, पत्र-४९०-कौतुकानि ललाटस्य मुशलस्पर्शनादीनि। ६. सूत्रकृतांग चूर्णि, पत्र ३६०-बलिकम्मे अच्चणियं करेंति कुलदेवतादीणं १३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-२१७--तन्दुलैर्दर्पणाद्यष्टं मंगलालेखनं च करोति । काउं, आसीब्भयजोहारो लोणादीणि च डहति, मंगलाणि सिद्धत्थया- १४. ज्ञातावृत्ति-पत्र-२७--जयः परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च, विजयस्तु हरयालियादीणि से करेंति, सुवण्णमादीणि च छिवति, पायच्छित्तं दुस्सुविणग- परेषामभिभवः । पडिघातणिमित्तं धीयाराणं देंति ।
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