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आमुख
सफलता का आधार है--श्रद्धा। श्रद्धाशील व्यक्ति कभी दिग्भ्रान्त नहीं होता। वह जिनमत के प्रति कभी संदेह नहीं करता। जो जिनमत के प्रति संदिग्ध रहता है, वह सफलता से वंचित रह जाता है।
प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'अण्ड' है। इसमें दो अण्डग्राही पुरुषों के माध्यम से दो प्रकार की मनोवृत्तियों का चित्रण किया गया है। मन:स्थिति और परिस्थिति किस तरह से जुड़े हुए हैं-प्रस्तुत अध्ययन इसका जीवन्त निदर्शन है।
सागरदत्त के मन में सन्देह की रेखा उभर आई। उसने सोचा--इस अण्डे से बच्चा उत्पन्न होगा या नहीं? सन्देह के कारण वह उसे बार-बार उलटने-पलटने लगा। एक समय आया मयूरी का वह अण्डा भीतर ही भीतर सारहीन हो समाप्त हो गया।
जिनदत्तपुत्र ने भी अण्डे को देखा। उसके मन में सन्देह नहीं था। उसका दृढ़ विश्वास था---इस अण्डे से बच्चा अवश्य उत्पन्न होगा। विश्वास फलीभूत हुआ। यथासमय मयूरी का वह अण्डा फूटा और उससे मयूरी का सुन्दर बच्चा उत्पन्न हुआ।
इस निदर्शन से दो प्रकार की मनोदशा सामने आती है--सन्देहयुक्त और सन्देहमुक्त। सन्देहयुक्त रहने वाला कभी सफल नहीं होता। सन्देहमुक्त रहने वाला सफलता का वरण कर लेता है। इसी तरह जो साधु साधुत्व को स्वीकार कर जिनमत के प्रति संदिग्ध रहता है, वह प्रथम पुरुष की तरह है। वह निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति शंकित, कांक्षित रहता हुआ इहलोक व परलोक दोनों में परिभव को प्राप्त करता है। जो जिनमत के प्रति आस्थाशील रहता है वह इहलोक में ही नहीं, परलोक में भी सुखी बनता है।
वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन गाथाओं में सन्देह को अनर्थ का हेतु बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त वहां यथार्थ बोध के हेतुओं की भी सुन्दर मीमांसा की गई है।
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