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________________ बीयं अज्झयणं : दूसरा अध्ययन संघाडे : संघाटक उक्लेव पद १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, बितियस्स णं भते! नायज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? २. एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नपरे होत्या -- वण्णओ ।। ३. तस्स णं रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए गुणसिलए नामं चेइए होत्था -- वण्णओ ।। ४. तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते, एत्थ णं महं एवं जिज्जाणे यावि होत्था -- विणट्ठदेवउल- परिसडियतोरणघरे नाणाविहगुच्छ - गुम्म-लया - वल्लि - वच्छच्छाइए अणेग-वालसयसंकणिज्जे यावि होत्या ।। ५. तस्स णं जिष्णुज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं महं एगे भग्यकूवे यावि होत्या ।। ६. तस्स णं भग्गकूवत्स अदूरसामते, एत्य णं महं एगे मालुवाकच्छए यानि होत्या. किन्हे किन्होभासे जाय रम्मे महामेहनिउरंगभूए बहूहिं रुक्सेहि य गुच्छेति य गुम्मेहि य लवाहि य वल्लीहि य तहि य कुसेहिय खण्णुएहि य संछण्णे पलिच्छण्णे अंतो झुसिरे बाहिं गंभीरे अणेगवाललय संकणिज्जे यावि होत्या ।। Jain Education International धणसत्थवाह-पदं ७. तत्थ णं रायगिहे नयरे धणे नामं सत्थवाहे -- अड्ढे दित्ते वित्थिण्ण-विउलभवण-सयणासण - जाण - वाहणाइण्णे बहुदासीदास - गो-महिस - गवेलगप्पभूए बहुधण - बहुजायरूवरंयए आओगपओग-संपत्ते विच्छड्डिय- विउल-भत्तपाणे । उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने ज्ञाता के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है तो भन्ते ! ज्ञाता के द्वितीय अध्ययन का उन्होंने क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है ? २. जम्बू! उस काल और उस समय राजगृह नाम का नगर था -- वर्णक 1 ३. उस राजगृह नगर के बाहर ईशान कोण में गुणशिलक नाम का चैत्य वा-वर्णक ४. उस गुणशिलक चैत्य के न अति दूर, न अति निकट एक बहुत बड़ा पुराना उद्यान था। उसका देवालय नष्ट हो चुका और तोरणगृह गिर गया था। वह नाना प्रकार के गुच्छों, गुल्मों, लताओं, वल्लियों और वृक्षों से आच्छादित तथा सैंकड़ों वन्य जन्तुओं के कारण डरावना भी था। ५. उस पुराने उद्यान के बीचों बीच एक बहुत बड़ा भग्न कूप था । ६. उस भान कूप के न अति दूर न अति निकट एक बहुत बड़ा मालुकाकक्ष' -- लता - मण्डप था। वह कृष्ण, कृष्ण आभा वाला, यावत् रम्य और महामेघ-पटल जैसा था वह बहुत सारे वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं, वल्लियों, पास, डाभ और ठूंठों से आवृत्त और चारों ओर से ढका हुआ था। वह भीतर से पोला, बाहर से गहरा और सैकड़ों वन्य जन्तुओं के कारण डरावना था । धन सार्थवाह पद ७. उस राजगृह नगर में धन नाम का सार्थवाह था। वह आढ्य और दीप्त था। उसके भवन, शयन और आसन विस्तीर्ण थे। वह विपुल यान और वाहन से आकीर्ण था। उसके अनेक दासी दास, गाय, भैंस और भेड़ें | थीं वह प्रचुर धन और प्रचुर सोने चांदी वाला था। अर्थ के आयोग - प्रयोग (लेन-देन) में संप्रयुक्त और प्रचुर मात्रा में भक्त का वितरण करने वाला था। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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