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________________ नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : सूत्र १७-१८ १७. तस्स णं सेणियस्स रणो धारिणी नामं देवी होत्था- १७. उस श्रेणिक राजा के धारिणी नाम की देवी थी। उसके हाथ-पांव सुकुमाल-पाणिपाया अहीण-पंचेंदियसरीरा लक्खण-वंजण- सुकुमार थे। उसका शरीर पांचों इन्द्रियों से अहीन, लक्षण और गुणोववेया माणुम्माण-प्पमाण-सुजाय-सव्वंगसुंदरंगी व्यञ्जन की विशेषता से युक्त, मान-उन्मान और प्रमाण से प्रतिपूर्ण, ससिसोमाकार-कंत-पियदंसणा सुरूवा करयल-'परिमित- सुजात और सर्वांग सुन्दर था। वह चन्द्रमा के समान सौम्य तिवलिय' वलियमज्झा 'कोमुइ-रयणियर-विमल-पडिपुण्ण- आकृतिवाली, कमनीय, प्रियदर्शना और सुरूपा थी। उसकी मुट्ठी भर सोमवयणा कुंडलुल्लिहिय-गंडलेहा सिंगारागार-चारुवेसा कमर बल खाती हुई तीन रेखाओं से युक्त थी। उसका मुख शारद संगय-गय-हसिय-भणिय-विहिय-विलास-सललिय-संलाव- चन्द्र की भांति विमल, प्रतिपूर्ण और सौम्य था। उसके कपोलों पर निउण-जुत्तोवयारकुसला पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा खचित रेखाएं२ कुण्डलों से उल्लिखित हो रही थी। उसका सुन्दर-वेष, पडिरूवा, सेणियस्स रण्णो इट्ठा कंता पिया मणुण्णा नामधेज्जा शृंगार-घर जैसा लग रहा था। वह औचित्यपूर्ण चलने, हंसने, बोलने वेसासिया सम्मया बहुमया अणुमया भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला और चेष्टा करने में, विलास और लालित्यपूर्ण संलाप में निपुण और इव सुसंगोविया चेलपेडा इव सुसंपरिगिहिया रयणकरंडगो विव समुचित उपचार में कुशल थी। वह द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने सुसारक्खिया, मा णं सीयं मा णं उण्हं मा णं दंसा मा णं मसगा वाली, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय थी। वह राजा श्रेणिक के लिए मा णं वाला मा णं चोरा मा णं वाइय-पित्तिय-सिभिय- इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, प्रशस्त नाम वाली, विश्वसनीय, सम्मत, सन्निवाइय विविहा रोगायंका फुसंतु त्ति कटु सेणिएण रण्णा बहुमत, अनुमत, आभरण-मञ्जूषा के समान उपादेय, मृण्मय तेल-पात्र सद्धिं विउलाई भोगभोगाई पच्चणुभवमाणी विहरइ।। के समान सुसंगोपित, वस्त्र मञ्जूषा के समान सुसंपरिगृहीत, रत्न मञ्जूषा के समान सुसंरक्षित थी। उसे सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर, सांप, चौर तथा वात, पित्त, श्लेष्म और सन्निपात जनित नाना रोग और आतंक न छू पाएं--इस प्रकार वह राजा श्रेणिक के साथ विपुल भोगार्ह भोगों का अनुभव करती हुई रह रही थी। धारिणीए सुमिणदंसण-पदं धारिणी का स्वप्न-दर्शन-पद १८. तए णं सा धारिणी देवी अण्णदा कदाइ तंसि तारिसगंसि-- १८. वह धारिणी देवी किसी समय अपने विशिष्ट प्रासाद में सो रही छक्कट्ठग-लट्ठमट्ठसंठिय-खंभुग्गय-पवरवर-सालभंजिय थी। वह आलिन्द छह काष्ठ-खण्डों से निर्मित था। उसके उज्जलमणिक-णगरयणथूभिय-विडंकजालद्ध-चंदनिज्जूहंतर सुन्दर, चिकने और कलापूर्ण खम्भों पर अतिसुन्दर पुतलियां कणयालिचंदसालि-याविभत्तिकलिए सरसच्छधाऊवल-वण्णरइए उत्कीर्णं थीं। उसके शिखर पर उज्ज्वल मणि, स्वर्ण और रत्न बाहिरओ दूमिय-घट्ठ-मटे अभितरओ पसत्त-सुविलिहिय जड़े हुए थे। वह प्रासाद छज्जों-झरोखों अर्द्धचन्द्राकार सीढ़ियों, चित्तकम्मे नाणाविह-पंचवण्ण-मणिरयण-कोट्टिमतले निफूहकों--द्वार पर लगी हुई काष्ठ-पट्टियों, मध्यवर्ती लोह स्तम्भों पउमलया-फुल्लवल्लि-वरपुष्फजाइ-उल्लोय-चित्तिय-तले वंदण और चन्द्रशालाओं के कारण नाना विभागों में विभक्त था। वह वरकणगकलससुणिम्मिय-पडिपूजिय-सरसपउम-सोहंतदारभाए सरस, स्वच्छ गेरु रंग से रंगा हुआ, बाहर से धवलित, घिसा पयरग-लंबंत-मणिमुत्तदाम-सुविरइयदारसोहे सुगंध-वरकुसुम हुआ और चिकना, भीतर अपने-अपने कर्म में व्याप्त चित्रकारों मउय-पम्हलसयणोवयार-मणहिययनिव्वुइयरे कप्पूर-लवंग की प्रासंगिक और कलात्मक तुलिका से आलेखित चित्रों से चित्रित मलय-चंदण-कालागरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-डझंत-सुरभि था। उसका आंगन नाना प्रकार के पंचरंगे मणिरत्नों से कुट्टित मघमघेत-गंधुद्धयाभिरामे सुगंधवर (गंध?) गंधिए गंधवट्टिभूए था। उसके चन्दोवे पद्मलताओं, पूष्पित-वल्लियों और प्रवर मणिकिरण-पणासियंधयारे किंबहुणा? जुइगुणेहिं सुरवरविमाण पुष्पों वाली मालती लताओं से चित्रित थे। उसका द्वारभाग भलीभांति विडंबियवरघरए, तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि--सालिंगणवट्टिए रखे गये, चन्दन से चर्चित, सरस-पद्मों के ढक्कन वाले, मांगलिक उभओ विब्बोयणे दुहओ उण्णए 'मज्झे णय गंभीरे' प्रवर स्वर्ण-कलशों" से शोभायमान था। प्रवर और प्रलम्बमान गंगापुलिणवालुय-उद्दालसालिसए ओयविय-खोम दुगुल्लपट्ट मणि-मुक्ता की मालाएं द्वार की शोभा बढ़ा रही थी। सुगन्धित पडिच्छयणे अत्थरय-मलय-नवतय-कुसत्त-लिंब-सीहकेसर- प्रवर-पुष्पों से मृदु और नेत्र रोम की तरह रोएं वाले शयनीय पच्चुत्थिए सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आइणग-रूय के उपचार से वह प्रासाद मन और हृदय को आह्लादित कर रहा बूर-नवणीय-तुल्लफासे पुज्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा था। वह कपूर, लौंग, मलय-चन्दन५, काला-अगर, प्रवर कुन्दुरू Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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