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________________ २३ नायाधम्मकहाओ य लयासु य वल्लीसु य कंदरासु य दरीसु य चुंदीसु य जूहेसु य कच्छेसु य नदीसु य संगमेसु य विवरएसु य अच्छमाणी य पेच्छमाणी य मज्जमाणी य पत्ताणि य पुप्फाणि फलाणि य पल्लवाणि य गिण्हमाणी य माणेमाणी य अग्घायमाणी य परिभुजेमाणी य परिभाएमाणी य वेभारगिरिपायमले दोहलं विणेमाणी सव्वओ समंता आहिंडइ।। प्रथम अध्ययन : सूत्र ६७-७२ तलहटी में आरामों, उद्यानों, काननों, वनों, वनषण्डों५, वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं, वल्लियों, कन्दराओं, दरियों, छोटे-छोटे जलस्रोतों, द्रहो, सजलप्रदेशों, नदियों, नदी-संगमों और विवरों में बैठती हुई, उन्हें देखती हुई, उनमें निमज्जन करती हुई, पत्र, पुष्प, फल और किसलयों को ग्रहण करती हुई, उनको स्पर्श के द्वारा सम्मानित करती हुई, उन्हें सूंघती हुई, खाती हुई और परस्पर बांटती हुई वैभारगिरि की तलहटी में अपने दोहद को पूरा करती हुई चारों ओर घूमने लगी। ६८. तए णं सा धारिणी देवी सम्माणियदोहला विणीयदोहला संपुण्णदोहला संपत्तदोहला जाया यावि होत्था॥ ६८. इस प्रकार धारिणी देवी का दोहद सम्मानित हुआ, विनीत (सन्तुष्ट) हुआ, सम्पूर्ण हुआ और सम्प्राप्त हुआ। ६९. तए णं सा धारिणी देवी सेयणयगधहत्थिं दुरूढा समाणी ६९. प्रवर हस्ति स्कन्ध पर आरूढ़ राजा श्रेणिक पीछे-पीछे चलता हुआ सेणिएणं हत्थिखंधवरगएणं पिट्ठओ-पिट्ठओ समणुगम्ममाणमग्गा जिसके मार्ग का अनुगमन कर रहा था, वह धारिणी देवी सेचनक हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं गन्धहस्ती पर आरूढ़ हो, अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं संपरिवुडा महया भड-चडगर-वंदपरिक्खित्ता सव्विड्ढीए से कलित चतुरंगिणी सेना से संपरिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न सव्वज्जुईए जाव दुंदुभिनि-ग्घोसनाइय-रवेणं जेणेव रायगिहे टुकड़ियों से घिरी हुई सम्पूर्ण ऋद्धि, सम्पूर्ण द्युति यावत, दुन्दुभि के नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिह नयरं मझमझेणं निर्घोष से निनादित स्वरों के साथ, जहां राजगृह नगर था, वहां जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विउलाई आई। वहां आकर राजगृह नगर के बीचों बीच से गुजरती हुई, जहां माणुस्सगाई भोगभोगाइं पच्चणुभवमाणी विहरइ।। अपना भवन था, वहां आई। वहां आकर मनुष्य सम्बन्धी विपुल भोगार्ह भोगों का अनुभव करती हुई विहार करने लगी। अभएण देवस्स पडिविसज्जण-पदं ७०. तए णं से अभए कुमारे जेणामेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुव्वसंगइयं देवं सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ।। अभय द्वारा देव का प्रतिविसर्जन-पद ७०. कुमार अभय जहां पौषधशाला थी, वहां आया। वहां आकर पूर्वसांगतिक , देव को सत्कृत और सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर उसे प्रतिविसर्जित किया। ७१. तएणं से देवेसगज्जियं (सविज्जुयंसफुसियं?) पंचवण्णमेहोवसोहियं दिव्वं पाउससिरिंपडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता जामेव दिसिंपाउन्भूए तामेव दिसिंपडिगए।। ७१. उस देव ने गर्जन (बिजली और फुहारों?) से युक्त पंचरंगे बादलों से सुशोभित दिव्य पावस की श्री का प्रतिसंहरण किया। उसका प्रतिसंहरण कर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में लौट गया। धारिणीए गब्भचरिया-पदं ७२. तए णं सा धारिणी देवी तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसि सम्माणियदोहला तस्स गब्भस्स अणुकंपणट्ठाए जयं चिट्ठइ जयं आसयइ जयं सुवइ, आहारं पि य णं आहारेमाणी--नाइतित्तं नाइकडुयं नाइकसायं नाइअंबिलं नाइमहुरं, जं तस्स गब्भस्स हियं मियं पत्थयं देसे य काले य आहारं आहारेमाणी, नाइचिंतं नाइसोयं नाइमोहं नाइभयं नाइपरित्तासं ववगयचिंता-सोय-मोहभय-परित्तासा उदु-भज्जमाण-सुहेहि-भोयणच्छायण-गंधमल्लालंकारेहिं तं गन्भं सुहंसुहेणं परिवहइ ।। धारिणी का गर्भचर्या-पद ७२. उस अकाल-दोहद के पूरा होने से सम्मानित दोहद वाली धारिणी देवी अपने गर्भ की अनुकम्पा के लिए संयमपूर्वक खड़ी रहती, संयमपूर्वक बैठती और संयम पूर्वक सोती। वह आहार करती हुई भी अति तिक्त, अति कडुवा, अति कषैला, अति खट्टा और अति मीठा आहार नहीं करती। वह वही आहार करती है, जो देश और काल के अनुसार उस गर्भ के लिए हित, मित और पथ्यकर होगा। वह अति चिन्ता, अति शोक, अति मोह, अति भय और अति परित्रास (उद्वेग) नहीं करती। वह चिन्ता, शोक, मोह, भय और परित्रास से मुक्त रहकर, ऋतु के अनुकूल, सुखकर भोजन, वस्त्र, गन्धचूर्ण, माला Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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