SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ प्रथम अध्ययन : सूत्र ६२-६७ नायाधम्मकहाओ ६२. तए णं ते कोडुबियपुरिसा सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा ६२. राजा श्रेणिक द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट चित्तवाले, आनन्दित हट्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवस- प्रीतिपूर्ण मन वाले, परमसौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय विसप्पमाणहियया तमाणत्तियं पच्चप्पिणति ।। वाले कौटुम्बिक पुरुषों ने उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। ६३. तए णं से सेणिए राया दोच्चंपि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हय-गय-रह-पवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सन्नाहेह, सेयणयंच गंधहत्थिं परिकप्पेह। तेवि तहेव करेंति जाव पच्चप्पिणंति।। ६३. राजा श्रेणिक ने दूसरी बार भी कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो । शीघ्र ही अश्व, गज, रथ और प्रवर योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना को सन्नद्ध करो और 'सेचनक' गन्धहस्ती को सजाओ। उन्होंने भी वैसा ही किया यावत् उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। ६४. तए णं से सेणिए राया जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धारिणिं देविं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! सगज्जिया सविज्जुया सफुसिया दिव्वा पाउससिरी पाउब्भूया । तं णं तुमं देवाणुप्पिए! एवं अकालदोहलं विणेहि।। ६४. वह राजा श्रेणिक जहां धारिणी देवी थी, वहां आया। वहां आकर धारिणी देवी से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये! गर्जन, बिजली और फुहारों से युक्त दिव्य पावस की श्री प्रादुर्भूत हो गई है। अत: देवानुप्रिये! अपने इस अकाल दोहद को पूरा करो। ६५. तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा एवं वुत्ता समाणी ६५. राजा श्रेणिक द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट हुई धारिणी देवी जहां हट्ठतट्ठा जेणामेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता स्नान घर था, वहां आयी। वहां आकर स्नान घर में प्रवेश किया। मज्जणघरं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता अंतो अंतेउरंसि ण्हाया प्रवेश कर अन्त:पुर के अन्तर्वर्ती स्नान घर में नहाकर, बलिकर्म और कयबलिकम्मा कय-कोउय-मंगल-पायच्छित्ता किं ते वरपाय- कौतुक-मंगलरूप प्रायश्चित्त किया। अधिक क्या? उसने पैरों में प्रवर पत्तनेउर-मणिमेहल-हार-रइय-ओविय-कडग-खुड्डय-विचित्त- नूपुर पहने, कटि प्रदेश में मणि मेखला, गले में हार, भुजाओं में वरवलयर्थभियभुया जाव आगास-फालिय-समप्पभं अंसुयं नियत्था, सुन्दर परिकर्मित कड़े और अंगुलियों में मुद्रिकाएं पहनी। विचित्र सेयणयं गंधहत्थिं दुरूढा समाणी अमय-महिय-फेणपुंज- प्रकार के प्रवर कंगनों से उसकी भुजाएं स्तम्भित-सी हो रही थी यावत् सन्निगासाहिं सेयचामरवाल-वीयणीहिं वीइज्जमाणी-वीइज्जमाणी उसने आकाश-स्फटिक के समान प्रभा वाले प्रवर अंशुक को पहना। संपत्थिया। सेचनक गन्धहस्ती पर आरूढ़ हो. अमृत और मथित फेनपुञ्ज के समान श्वेत चामरों की वाल-वीजनियों से वीजित होती हुई उसने वहां से प्रस्थान किया। ६६. तए णं से सेणिए राया पहाए कयबलिकम्मे कय-कोउय-मंगल- पायच्छित्ते अप्पमहग्घाभरणालकियसरीरे हत्थिखंधवरगए सकोरेंट- मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं चउचामराहिं वीइज्जमाणे धारिणिं देविं पिट्ठओ अणुगच्छइ॥ ६६. राजा श्रेणिक ने स्नान, बलिकर्म और कौतुक-मंगल रूप प्रायश्चित्त किया। अल्पभार और बहुमूल्य आभरणों से अपने शरीर को अलंकृत किया। प्रवर हस्ति स्कन्ध पर आरूढ़ हो, कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया। चार चामरों से वीजित होता हुआ धारिणी देवी के पीछे चला। ६७. तए णं सा धारिणी देवी सेणिएणं रण्णा हत्थिखंधवरगएणं ६७. प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ राजा श्रेणिक पीछे-पीछे चलता हुआ, पिट्ठओ-पिट्ठओ समणुगम्ममाण-मग्गा हय-गय-रह-पवरजोह- जिसके मार्ग का अनुगमन कर रहा था, वह धारिणी देवी अश्व, गज, कलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिडा महया भड-चडगर- रथ और प्रवर पैदल योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना से वंदपरिक्खित्ता सव्विड्डीए सव्वज्जुईए जाव दुंदुभिनिग्घोस- संपरिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों से घिरी हुई, नाइयरवेणं रायगिहे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह- सम्पूर्ण ऋद्धि, सम्पूर्ण द्युति यावत् दुन्दुभि के निर्घोष से निनादित महापहपहेसु नागरजणेणं अभिनंदिज्जमाणी-अभिनंदिज्जमाणी स्वरों के साथ राजगृह नगर के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, जेणामेव वेभारगिरि पव्वए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चतुर्मुखों (चारों ओर दरवाजे वाले देवकुलों) राजमार्गों और मार्गों वेभारगिरि-कडग-तडपायमूले-आरामेसु य उज्जाणेसु य में नागरिकों द्वारा पुन: पुन: अभिनन्दित होती हुई, जहां वैभारगिरि काणणेसु य वणेसु य वणसंडेसु य रुक्खेसु य गुच्छेसु य गुम्मेसु पर्वत था, वहां आई। वहां आकर वैभारगिरि की मेखला और Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy