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________________ नायाधम्मकहाओ २१ वेभारगिरिकडग-पायमूलं सव्वओ समंता आहिंडमाणीओआहिंडमाणीओ दोहलं विणिति । तं जइ णं अहमवि मेहेस अन्भुग्गएसु जाव दोहलं विणेज्जामि--तं णं तुमं देवाणुप्पिया! मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं अकालदोहलं विणेहि।। प्रथम अध्ययन : सूत्र ५८-६१ जो सुरम्य वैभारगिरि की मेखला और तलहटी में चारों ओर घूमतीघूमती अपना दोहद पूरा करती हैं। मैं भी इसी तरह मेघ-घटाओं के उमड़ने पर यावत् सुरम्य तलहटी में घूमती हुई अपना दोहद पूरा करूं।" ___ अत: देवानुप्रिय ! तुम मेरी छोटी मां धारिणी देवी के इस प्रकार के अकाल-दोहद को पूरा करो। देवस्स अकालमेहविउव्वण-पदं ५९. तए णं से देवे अभएणं कुमारेणं एवं कुत्ते समाणे हटूतुढे अभयं कुमारं एवं वयासी--तुमणं देवाणुप्पिया! सुनिव्वुय-वीसत्थे अच्छाहि । अहं णं तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवं अकालदोहलं विणेमि त्ति कटु अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता उत्तरपुरस्थिमेणं वेभारपव्वए वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता संखेज्जाईजोयणाईदंडं निसिरइ जावदोच्चपि वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ समोहणित्ता खिप्पामेव सगज्जियं सविज्जुयं सफुसियं पंचवण्णमेह-निणाओवसोहियं दिव्वं पाउससिरिं विउब्वइ, विउव्वित्ता जेणामेव अभए कुमारे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभयं कुमारं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मए तव पियट्ठयाए सगज्जिया सफुसिया सविज्जुया दिव्वा पाउससिरी विउव्विया, तं विणेऊ णं देवाणुप्पिया! तव चुल्लमाउया धारिणी देवी अयमेयारूवं अकालदोहलं। देव का अकालमेघ-विकुर्वणा-पद ५९. कुमार अभय के द्वारा ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट हो उस देव ने कुमार अभय से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! तुम बिल्कुल स्वस्थ और विश्वस्त हो। मैं तुम्हारी छोटी मां धारिणी के इस प्रकार के अकाल-दोहद को पूरा करूंगा--ऐसा कहकर वह कुमार अभय के पास से बाहर निकला। बाहर निकलकर वह ईशानकोण में स्थित वैभारपर्वत पर वैक्रिय सुमुद्घात से समवहत हुआ। समवहत होकर संख्यात योजन का एक दण्ड निर्मित किया यावत् दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुआ। समवहत होकर गर्जन, बिजलियां और फुहारों वाले पंचरंगे बादलों के निनाद से सुशोभित दिव्य पावस की श्री की विक्रिया की। विक्रिया कर वह जहां कुमार अभय था, वहां आया। वहां आकर कुमार अभय से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय ! मैंने तुम्हारी प्रियता हेतु गर्जन, बिजली और फुहारों से युक्त दिव्य पावस की श्री की विक्रिया की है। अत: देवानुप्रिय! तुम्हारी छोटी मां धारिणी देवी अपने इस प्रकार के अकाल-दोहद को पूरा करे।" धारिणीए दोहद-पूरण-पदं ६०. तए णं से अभए कुमारे तस्स पुव्वसंगइयस्स सोहम्मकप्पवासिस्स देवस्स अंतिए एपमढे सोच्चा निसम्म हट्ठतढे सयाओ भवणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसाक्तं मत्थए अंजलिं । कटु एवं वयासी--एवं खलु ताओ! मम पुवसंगइएणं सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं खिप्पामेव सगज्जिया सविज्जुया (सफुसिया?) पंचवण्ण-मेहनिणाओवसोभिया दिव्वा पाउससिरी विउव्विया। तं विणेऊ णं मम चुल्लमाउया धारिणी देवी अकालदोहलं।। ६०. उस पूर्वसांगतिक सौधर्मकल्पवासी देव के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हुआ कुमार अभय अपने भवन से बाहर निकला। निकलकर जहां राजा श्रेणिक था, वहां आया। वहां आकर दोनों हाथों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिका कर इस प्रकार कहा--तात! सौधर्मकल्पवासी मेरे पूर्वसांगतिक देव ने इस समय गर्जन-बिजली (फुहारों) से युक्त पंचरंगे बादलों के निनाद से शोभित दिव्य पावस की श्री की विक्रिया की है। अत: मेरी छोटी मां धारिणी देवी अपने अकाल-दोहद को पूरा करे।" ६१. तए णं से सेणिए राया अभयस्स कुमारस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म हट्ठतढे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-- खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया! रायगिह नगरं सिंघाडग-तिगचउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु आसित्तसित्त-सुइयसंमज्जिओवलितं जाव सुगंधवर (गंध?) गंधियं गंधवट्टिभूयं करेह य कारवेह य, एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।। ६१. कुमार अभय से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर हृष्ट तुष्ट हुए राजा श्रेणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शीघ्र ही राजगृह नगर को, उसके दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों (चारों ओर दरवाजे वाले देवकुलों) राजमार्गों और मार्गों में सामान्य तथा विशेष जल का छिड़काव कर बुहार-झाड़ कर साफ सुथरे किए गए तथा गोबर से लीपे गए यावत् प्रवर सुरभिवाले गन्धचूर्णों से सुगन्धित गन्धवर्तिका के समान सुगन्धित करो, कराओ और इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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