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________________ २० नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : सूत्र ५६-५८ चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--एवं खलु मम पुव्वसंगइए जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्ढभरहे रायगिहे नयरे पोसहसालाए पोसहिए अभए नाम कुमारे अट्ठमभत्तं पगिण्हित्ता णं मम मणसीकरेमाणे-मणसीकरेमाणे चिट्ठइ । तं सेयं खलु मम अभयस्स कुमारस्स अंतिए पाउब्भवित्तए--एवं सपेहेइ, संपेहेत्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाई दंड निसिरइ, तं जहा--रयणाणं वइराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगब्भाणं पुलगाणं सोगंधियाणंजोईरसाणं अंकाणं अंजणाणं रययाणं जायरूवाणं अंजणपुलगाणं फलिहाणं रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, परिसाडेता अहासहमे पोग्गले परिगिण्हइ, परिगिण्हित्ता अभयकुमारमणुकंपमाणे देवे पुव्वभवजणिय-नेहपीइ-बहुमाणजायसोगे तओ विमाणवरपुंडरीयाओ रयणुत्तमाओ धरणियल-गमण-तुरिय-संजणिय-गमणपयारो वाधुण्णियविमल-कणग-पयरग-वडिंसगमउडुक्क-डाडोवदंसणिज्जो अणेगमणि-कणगरयणपहकरपरिमंडिय-भत्तिचित्त-विणिउत्तगमणुगुणणियहरिसो पिंखोलमाणवरललियकुंडलुज्जलियवयणगुणजणिय-सोम्मरूवो उदिओ विव कोमुदीनिसाए सणिच्छरंगार-कुज्जलियमज्झभागत्थो नयाणाणंदो सरयचंदा दिव्वोसहिपज्जुलुज्जलियदसणाभिरामो उदुलच्छिसमत्तजायसोहो पइट्ठगंधुद्धयाभिरामो मेरू विव नगवरो विगुब्वियविचित्तवेसो दीवसमुद्दाणं असंखपरिमाणनामधेज्जाणं मज्झकारेणं वीइवयमाणो उज्जोयंतो पभाए विमलाए जीवलोयं रायगिह पुरवरं च अभयस्स पासं ओवयइ दिव्व-रूवधारी।। सूचिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--जम्बूद्वीप नाम का द्वीप, भारत का दक्षिणार्ध भरत, राजगृह नाम का नगर वहां मेरा पूर्वसांगतिक कुमार अभय पौषधशाला में पौषधिक हो, अष्टमभक्त स्वीकार कर मेरी सतत मानसिक स्मृति कर रहा है। अत: मेरे लिए श्रेय है, मैं कुमार अभय के सामने प्रकट होऊ--उसने ऐसी सप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर ईशान-कोण की ओर आया। वहां आकर वैक्रियसमुद्घात से७२ समवहत हुआ। समवहत होकर उसने संख्येय योजन के एक दण्ड का (जीव-प्रदेश और कर्म पुद्गल समूह) निर्माण किया। (उस निर्माण के लिए) रत्न, वज्र, वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, ज्योतीरस, अंक, अंजन, रजत, स्वर्ण, अंजन पुलक, स्फटिक और रिष्ट रत्नों के स्थूल-स्थूल पुद्गलों का परिशाटन किया। परिशाटन कर सूक्ष्म-सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण किया। ग्रहण कर कुमार अभय के प्रति अनुकम्पा करते हुए, पूर्वजन्म जनित स्नेह, प्रीति और बहुमान के कारण शोकग्रस्त हो, देव ने विमानों में प्रवर पुण्डरीक रत्नोत्तम नामक विमान से धरातल पर जाने की त्वरा से चलना प्रारम्भ किया। वह विशुद्ध स्वर्ण के प्रतरकों से निर्मित, हिलते हुए अवतंसक और मुकुट के उत्कट आटोप से दर्शनीय हो रहा था। नाना मणि, कनक और रन निकर से परिमण्डित अनेक प्रकार की भांतों से चित्रित, सुनियुक्त और प्रमाणोपेत करघनी से हर्षित हो रहा था। झूलते हुए प्रवर ललित कुण्डलों की प्रभा से देदीप्यमान उसका मुख और अधिक सौम्य लग रहा था, जिससे वह कार्तिक पूर्णिमा की रात में चमकते हुए शनि और मंगल नक्षत्र के मध्य में उदित नयनानन्द शरच्चन्द्र और दिव्य औषधियों की प्रभा से प्रभासित दर्शनाभिराम, सब ऋतुओं में होने वाली कुसुम-सम्पदा से शोभायमान और उनसे उठने वाली प्रकृष्ट गन्ध से अभिराम पर्वतश्रेष्ठ सुमेरु जैसा लग रहा था। विचित्र वेष बनाये हुए, असंख्य परिमाण और नाम वाले द्वीप-समुद्रों के बीचों बीच से गुजरता हुआ, अपनी विमल-प्रभा से समस्त जीवलोक और प्रवर राजगृह नगर को प्रभासित करता हुआ वह दिव्य रूपधारी देव कुमार अभय के पास नीचे उतरा। 3 ५७. तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवण्णे दसद्धवण्णाइं सखिंखिणियाई पवरवत्थाइं परिहिए अभयं कुमारं एवं क्यासी--अहं णं देवाणुप्पिया! पुव्वसंगइए सोहम्मकप्पवासी देवे महिड्ढीए जणं तुमं पोसहसालाए अट्ठमभत्तं पगिण्हिताणं मम मणसीकरेमाणे-मणसीकरेमाणे चिट्ठसि, तं एसणं देवाणुप्पिया! अहं इहं हव्वमागए। संदिसाहि णं देवाणप्पिया! किं करेमि? किंदलयामि? कि पयच्छामि? किंवा ते हियइच्छियं? ५७. अन्तरिक्ष में अवस्थित धुंघरु लगे पंचरंगे प्रवर वस्त्र पहने वह देव कुमार अभय से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिय! तुम पौषधशाला में अष्टमभक्त तप स्वीकार कर जिसकी सतत मानसिक स्मृति किये बैठे हो, वह मैं हूं तुम्हारा पूर्वसांगतिक सौधर्मकल्पवासी महर्द्धिक देव। देवानुप्रिय! मैं बहुत शीघ्र यहां आया हूं। कहो देवानुप्रिय! मैं क्या करूं? क्या दूं? क्या उपहृत करूं? तुम अन्तर्मन में क्या चाहते हो? ५८. तए णं से अभए कुमारे तं पुव्वसंगइयं देवं अंतलिक्खपडिवण्णं पासित्ता हट्ठतुढे पोसहं पारेइ, पारेत्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालदोहले पाउब्भूए--धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ तहेव पुब्वगमेणं जाव ५८. अन्तरिक्ष में अवस्थित अपने पूर्वसांगतिक देव को देख, कुमार अभय ने हृष्ट तुष्ट हो पौषधव्रत सम्पन्न किया। दोनों हाथों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर वह इस प्रकार बोला--"देवानुप्रिय! मेरी छोटी मां धारिणी देवी को इस प्रकार का अकाल दोहद उत्पन्न हुआ है--धन्य हैं वे माताएं यावत् Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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